भागसूचना
चतुरधिकद्विशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
आत्मा एवं परमात्माके साक्षात्कारका उपाय तथा महत्त्व
मूलम् (वचनम्)
मनुरुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथा व्यक्तमिदं शेते स्वप्ने चरति चेतनम्।
ज्ञानमिन्द्रियसंयुक्तं तद्वत् प्रेत्य भवाभवौ ॥ १ ॥
मूलम्
यथा व्यक्तमिदं शेते स्वप्ने चरति चेतनम्।
ज्ञानमिन्द्रियसंयुक्तं तद्वत् प्रेत्य भवाभवौ ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मनु कहते हैं— बृहस्पते! जैसे स्वप्नावस्थामें यह स्थूल शरीर तो सोया रहता है और सूक्ष्म शरीर विचरण करता रहता है, उसी प्रकार इस शरीरको छोड़नेपर यह ज्ञानस्वरूप जीवात्मा या तो इन्द्रियोंके सहित पुनः शरीर ग्रहण कर लेता है या सुषुप्तिकी भाँति मुक्त हो जाता है॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथाम्भसि प्रसन्ने तु रूपं पश्यति चक्षुषा।
तद्वत्प्रसन्नेन्द्रियत्वाज्ज्ञेयं ज्ञानेन पश्यति ॥ २ ॥
मूलम्
यथाम्भसि प्रसन्ने तु रूपं पश्यति चक्षुषा।
तद्वत्प्रसन्नेन्द्रियत्वाज्ज्ञेयं ज्ञानेन पश्यति ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिस प्रकार मनुष्य स्वच्छ और स्थिर जलमें नेत्रोंद्वारा अपना प्रतिबिम्ब देखता है, वैसे ही मनसहित इन्द्रियोंके शुद्ध एवं स्थिर हो जानेपर वह ज्ञानदृष्टिसे ज्ञेयस्वरूप आत्माका साक्षात्कार कर सकता है॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स एव लुलिते तस्मिन् यथा रूपं न पश्यति।
तथेन्द्रियाकुलीभावे ज्ञेयं ज्ञाने न पश्यति ॥ ३ ॥
मूलम्
स एव लुलिते तस्मिन् यथा रूपं न पश्यति।
तथेन्द्रियाकुलीभावे ज्ञेयं ज्ञाने न पश्यति ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वही मनुष्य हिलते हुए जलमें जैसे अपना रूप नहीं देख पाता, उसी प्रकार मनसहित इन्द्रियोंके चंचल होनेपर वह बुद्धिमें ज्ञेयस्वरूप आत्माका दर्शन नहीं कर सकता॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अबुद्धिरज्ञानकृता अबुद्ध्या कृष्यते मनः।
दुष्टस्य मनसः पञ्च सम्प्रदुष्यन्ति मानसाः ॥ ४ ॥
मूलम्
अबुद्धिरज्ञानकृता अबुद्ध्या कृष्यते मनः।
दुष्टस्य मनसः पञ्च सम्प्रदुष्यन्ति मानसाः ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अविवेकसे बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है और उस भ्रष्ट बुद्धिसे मन राग आदि दोषोंमें फँस जाता है। इस प्रकार मनके दूषित होनेसे उसके अधीन रहनेवाली पाँचों ज्ञानेन्द्रियाँ भी दूषित हो जाती हैं॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अज्ञानतृप्तो विषयेष्ववगाढो न तृप्यते।
अदृष्टवच्च भूतात्मा विषयेभ्यो निवर्तते ॥ ५ ॥
मूलम्
अज्ञानतृप्तो विषयेष्ववगाढो न तृप्यते।
अदृष्टवच्च भूतात्मा विषयेभ्यो निवर्तते ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिसको अज्ञानसे ही तृप्ति प्राप्त हो रही है, वह मनुष्य विषयोंके अगाध जलमें सदा डूबा रहकर भी कभी तृप्त नहीं होता। वह जीवात्मा प्रारब्धाधीन हुआ विषय-भोगोंकी इच्छाके कारण बारंबार इस संसारमें आता और जन्म ग्रहण करता है॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तर्षच्छेदो न भवति पुरुषस्येह कल्मषात्।
निवर्तते तदा तर्षः पापमन्तगतं यदा ॥ ६ ॥
मूलम्
तर्षच्छेदो न भवति पुरुषस्येह कल्मषात्।
निवर्तते तदा तर्षः पापमन्तगतं यदा ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पापके कारण ही संसारमें पुरुषकी तृष्णाका अन्त नहीं होता। जब पापोंकी समाप्ति हो जाती है, तभी उसकी तृष्णा निवृत्त हो जाती है॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विषयेषु तु संसर्गाच्छाश्वतस्य तु संश्रयात्।
मनसा चान्यथा कांक्षन् परं न प्रतिपद्यते ॥ ७ ॥
मूलम्
विषयेषु तु संसर्गाच्छाश्वतस्य तु संश्रयात्।
मनसा चान्यथा कांक्षन् परं न प्रतिपद्यते ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
विषयोंके संसर्गसे, सदा उन्हींमें रचे-पचे रहनेसे तथा मनके द्वारा साधनके विपरीत भोगोंकी इच्छा रखनेसे पुरुषको परब्रह्म परमात्माकी प्राप्ति नहीं होती है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ज्ञानमुत्पद्यते पुंसां क्षयात् पापस्य कर्मणः।
यथाऽऽदर्शतले प्रख्ये पश्यत्यात्मानमात्मनि ॥ ८ ॥
मूलम्
ज्ञानमुत्पद्यते पुंसां क्षयात् पापस्य कर्मणः।
यथाऽऽदर्शतले प्रख्ये पश्यत्यात्मानमात्मनि ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पाप-कर्मोंका क्षय होनेसे ही मनुष्योंके अन्तःकरणमें ज्ञानका उदय होता है। जैसे स्वच्छ दर्पणमें ही मानव अपने प्रतिबिम्बको अच्छी तरह देख पाता है॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रसृतैरिन्द्रियैर्दुःखी तैरेव नियतैः सुखी।
तस्मादिन्द्रियरूपेभ्यो यच्छेदात्मानमात्मना ॥ ९ ॥
मूलम्
प्रसृतैरिन्द्रियैर्दुःखी तैरेव नियतैः सुखी।
तस्मादिन्द्रियरूपेभ्यो यच्छेदात्मानमात्मना ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
विषयोंकी ओर इन्द्रियोंके फैले रहनेसे ही मनुष्य दुखी होता है और उन्हींको संयममें रखनेसे सुखी हो जाता है; इसलिये इन्द्रियोंके विषयोंसे बुद्धिके द्वारा अपने मनको रोकना चाहिये॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इन्द्रियेभ्यो मनः पूर्वं बुद्धिः परतरा ततः।
बुद्धेः परतरं ज्ञानं ज्ञानात् परतरं महत् ॥ १० ॥
मूलम्
इन्द्रियेभ्यो मनः पूर्वं बुद्धिः परतरा ततः।
बुद्धेः परतरं ज्ञानं ज्ञानात् परतरं महत् ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इन्द्रियोंसे मन श्रेष्ठ है, मनसे बुद्धि श्रेष्ठ है, बुद्धिसे ज्ञान श्रेष्ठतर है और ज्ञानसे परात्पर परमात्मा श्रेष्ठ है॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अव्यक्तात् प्रसृतं ज्ञानं ततो बुद्धिस्ततो मनः।
मनः श्रोत्रादिभिर्युक्तं शब्दादीन् साधु पश्यति ॥ ११ ॥
मूलम्
अव्यक्तात् प्रसृतं ज्ञानं ततो बुद्धिस्ततो मनः।
मनः श्रोत्रादिभिर्युक्तं शब्दादीन् साधु पश्यति ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अव्यक्त परमात्मासे ज्ञान प्रसारित हुआ है। ज्ञानसे बुद्धि और बुद्धिसे मन प्रकट हुआ है। वह मन ही श्रोत्र आदि इन्द्रियोंसे युक्त होकर शब्द आदि विषयोंका भलीभाँति अनुभव करता है॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यस्तांस्त्यजति शब्दादीन् सर्वाश्च व्यक्तयस्तथा।
विमुञ्चेत् प्राकृतान्ग्रामांस्तान् मुक्त्वामृतमश्नुते ॥ १२ ॥
मूलम्
यस्तांस्त्यजति शब्दादीन् सर्वाश्च व्यक्तयस्तथा।
विमुञ्चेत् प्राकृतान्ग्रामांस्तान् मुक्त्वामृतमश्नुते ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो पुरुष शब्द आदि विषयोंको, उनके आश्रयभूत सम्पूर्ण व्यक्त तत्त्वोंको, स्थूलभूतों और प्राकृत गुण-समुदायोंको त्याग देता है अर्थात् उनसे सम्बन्धविच्छेद कर लेता है, वह उन्हें त्यागकर अमृतस्वरूप परमात्माको प्राप्त हो जाता है॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उद्यन् हि सविता यद्वत्सृजते रश्मिमण्डलम्।
स एवास्तमपागच्छंस्तदेवात्मनि यच्छति ॥ १३ ॥
अन्तरात्मा तथा देहमाविश्येन्द्रियरश्मिभिः ।
प्राप्येन्द्रियगुणान् पञ्च सोऽस्तमावृत्य गच्छति ॥ १४ ॥
मूलम्
उद्यन् हि सविता यद्वत्सृजते रश्मिमण्डलम्।
स एवास्तमपागच्छंस्तदेवात्मनि यच्छति ॥ १३ ॥
अन्तरात्मा तथा देहमाविश्येन्द्रियरश्मिभिः ।
प्राप्येन्द्रियगुणान् पञ्च सोऽस्तमावृत्य गच्छति ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे सूर्य उदित होकर अपनी किरणोंको सब ओर फैला देता है और अस्त होते समय उन समस्त किरणोंको अपने भीतर ही समेट लेता है, उसी प्रकार जीवात्मा देहमें प्रविष्ट होकर फैली हुई इन्द्रियोंकी वृत्तिरूपी किरणोंद्वारा पाँचों विषयोंको ग्रहण करता है और शरीरको छोड़ते समय उन सबको समेटकर अपने साथ लेकर चल देता है॥१३-१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रणीतं कर्मणा मार्गं नीयमानः पुनः पुनः।
प्राप्नोत्ययं कर्मफलं प्रवृत्तं धर्ममाप्तवान् ॥ १५ ॥
मूलम्
प्रणीतं कर्मणा मार्गं नीयमानः पुनः पुनः।
प्राप्नोत्ययं कर्मफलं प्रवृत्तं धर्ममाप्तवान् ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिसने प्रवृत्तिप्रधान पुण्य-पापमय कर्मका आश्रय लिया है, वह जीवात्मा कर्मोंद्वारा कर्म-मार्गपर बारंबार लाया जाकर अर्थात् संसार-चक्रमें भ्रमाया जाकर सुख-दुःखरूप कर्म-फलको प्राप्त होता है॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः।
रसवर्जं रसोऽप्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्तते ॥ १६ ॥
मूलम्
विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः।
रसवर्जं रसोऽप्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्तते ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इन्द्रियद्वारा विषयोंको ग्रहण न करनेसे पुरुषके वे विषय तो निवृत्त हो जाते हैं; परंतु उनमें उनकी आसक्ति बनी रहती है। परमात्माका साक्षात्कार कर लेनेपर पुरुषकी वह आसक्ति भी दूर हो जाती है॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बुद्धिः कर्मगुणैर्हीना यदा मनसि वर्तते।
तदा सम्पद्यते ब्रह्म तत्रैव प्रलयं गतम् ॥ १७ ॥
मूलम्
बुद्धिः कर्मगुणैर्हीना यदा मनसि वर्तते।
तदा सम्पद्यते ब्रह्म तत्रैव प्रलयं गतम् ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिस समय बुद्धि कर्मजनित गुणोंसे छूटकर हृदयमें स्थित हो जाती है, उस समय जीवात्मा ब्रह्ममें लीन होकर ब्रह्मको प्राप्त हो जाता है॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अस्पर्शनमशृण्वानमनास्वादमदर्शनम् ।
अघ्राणमवितर्कं च सत्त्वं प्रविशते परम् ॥ १८ ॥
मूलम्
अस्पर्शनमशृण्वानमनास्वादमदर्शनम् ।
अघ्राणमवितर्कं च सत्त्वं प्रविशते परम् ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
परब्रह्म परमात्मा स्पर्श, श्रवण, रसन, दर्शन, घ्राण और संकल्प-विकल्पसे भी रहित है; इसलिये केवल विशुद्ध बुद्धि ही उसमें प्रवेश कर पाती है॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मनस्याकृतयो मग्ना मनस्त्वभिगतं मतिम्।
मतिस्त्वभिगता ज्ञानं ज्ञानं चाभिगतं परम् ॥ १९ ॥
मूलम्
मनस्याकृतयो मग्ना मनस्त्वभिगतं मतिम्।
मतिस्त्वभिगता ज्ञानं ज्ञानं चाभिगतं परम् ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मनमें शब्दादि विषयरूप समस्त आकृतियोंका लय होता है। मनका बुद्धिमें, बुद्धिका ज्ञानमें और ज्ञानका परमात्मामें लय होता है॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नेन्द्रियैर्मनसः सिद्धिर्न बुद्धिं बुद्ध्यते मनः।
न बुद्धिर्बुद्ध्यतेऽव्यक्तं सूक्ष्मं त्वेतानि पश्यति ॥ २० ॥
मूलम्
नेन्द्रियैर्मनसः सिद्धिर्न बुद्धिं बुद्ध्यते मनः।
न बुद्धिर्बुद्ध्यतेऽव्यक्तं सूक्ष्मं त्वेतानि पश्यति ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इन्द्रियोंद्वारा मनकी सिद्धि नहीं होती अर्थात् इन्द्रियाँ मनको नहीं जानती हैं। मन बुद्धिको नहीं जानता और बुद्धि सूक्ष्म एवं अव्यक्त आत्माको नहीं जानती है; किंतु अव्यक्त आत्मा इन सबको देखता और जानता है॥२०॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि मनुबृहस्पतिसंवादे चतुरधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥ २०४ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें मनु और बृहस्पतिका संवादविषयक दो सौ चारवाँ अध्याय पूरा हुआ॥२०४॥