भागसूचना
त्र्यधिकद्विशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
शरीर, इन्द्रिय और मन-बुद्धिसे अतिरिक्त आत्माकी नित्य सत्ताका प्रतिपादन
मूलम् (वचनम्)
मनुरुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदिन्द्रियैस्तूपहितं पुरस्तात्
प्राप्तान् गुणात् संस्मरते चिराय।
तेष्विन्द्रियेषूपहतेषु पश्चात्
स बुद्धिरूपः परमः स्वभावः ॥ १ ॥
मूलम्
यदिन्द्रियैस्तूपहितं पुरस्तात्
प्राप्तान् गुणात् संस्मरते चिराय।
तेष्विन्द्रियेषूपहतेषु पश्चात्
स बुद्धिरूपः परमः स्वभावः ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मनुजी कहते हैं— बृहस्पते! बुद्धिके साथ तद्रूप हुआ जो जीव नामक चेतनतत्त्व है, वह इन्द्रियोंद्वारा दीर्घकालतक पहलेके भोगे हुए विषयोंका कालान्तरमें स्मरण करता है। यद्यपि उस समय उन विषयोंका इन्द्रियोंसे सम्बन्ध नहीं है, उनका सम्बन्ध-विच्छेद हो गया है तो भी वे बुद्धिमें संस्काररूपसे अंकित हैं; इसलिये उनका स्मरण होता है। (इससे बुद्धिके अतिरिक्त उसके प्रकाशक चेतनकी सत्ता स्वतः सिद्ध हो जाती है)॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथेन्द्रियार्थान् युगपत् समस्ता-
न्नोपेक्षते कृत्स्नमतुल्यकालम् ।
तथाचलं संचरते स विद्वां-
स्तस्मात् स एकः परमः शरीरी ॥ २ ॥
मूलम्
यथेन्द्रियार्थान् युगपत् समस्ता-
न्नोपेक्षते कृत्स्नमतुल्यकालम् ।
तथाचलं संचरते स विद्वां-
स्तस्मात् स एकः परमः शरीरी ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह एक समय अथवा अनेक समयोंमें भूत और भविष्यके सम्पूर्ण पदार्थोंकी, जो इस जन्ममें या दूसरे जन्मोंमें देखे गये हैं, सामान्य रूपसे उपेक्षा नहीं करता अर्थात् उन्हें प्रकाशित ही करता है तथा परस्पर विलग न होनेवाली तीनों अवस्थाओंमें विचरता रहता है; अतः वह सबको जाननेवाला साक्षी सर्वोत्कृष्ट देहका स्वामी आत्मा एक है॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रजस्तमः सत्त्वमथो तृतीयं
गच्छत्यसौ स्थानगुणान् विरूपान् ।
तथेन्द्रियाण्याविशते शरीरी
हुताशनं वायुरिवेन्धनस्थम् ॥ ३ ॥
मूलम्
रजस्तमः सत्त्वमथो तृतीयं
गच्छत्यसौ स्थानगुणान् विरूपान् ।
तथेन्द्रियाण्याविशते शरीरी
हुताशनं वायुरिवेन्धनस्थम् ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
बुद्धिके जो स्थान-जागरित आदि अवस्थाएँ हैं, वे सभी सत्त्व, रज और तम—इन तीन गुणोंसे विभक्त हैं। इन अवस्थाओंसे सम्बन्धित जो सुख-दुःख आदि गुण हैं, वे परस्पर विलक्षण हैं। उन सबको वह आत्मा बुद्धिके सम्बन्धसे अनुभव करता है। इन्द्रियोंमें भी उस जीवात्माका आवेश उसी प्रकार होता है जैसे काठमें लगी हुई आगमें वायुका अर्थात् वायु जैसे अग्निमें प्रविष्ट होकर अग्निको उद्दीप्त कर देती है, इसी प्रकार आत्मा इन्द्रियोंको चेतना प्रदान करता है॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न चक्षुषा पश्यति रूपमात्मनो
न पश्यति स्पर्शनमिन्द्रियेन्द्रियम् ।
न श्रोत्रलिङ्गं श्रवणेन दर्शनं
तथा कृतं पश्यति तद् विनश्यति ॥ ४ ॥
मूलम्
न चक्षुषा पश्यति रूपमात्मनो
न पश्यति स्पर्शनमिन्द्रियेन्द्रियम् ।
न श्रोत्रलिङ्गं श्रवणेन दर्शनं
तथा कृतं पश्यति तद् विनश्यति ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मनुष्य नेत्रोंद्वारा आत्माके रूपका दर्शन नहीं कर सकता। त्वचा नामक इन्द्रिय उसका स्पर्श नहीं कर सकती; क्योंकि वह इन्द्रियोंकी भी इन्द्रिय अर्थात् उनका प्रकाशक है। उस आत्माके स्वरूपका श्रवणेन्द्रियके द्वारा श्रवण नहीं हो सकता; क्योंकि वह शब्दरहित है। ज्ञानविषयक विचारसे जब आत्माका साक्षात्कार किया जाता है, तब उसके साधनोंका बाध हो जाता है॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्रोत्रादीनि न पश्यन्ति स्वं स्वमात्मानमात्मना।
सर्वज्ञः सर्वदर्शी च सर्वज्ञस्तानि पश्यति ॥ ५ ॥
मूलम्
श्रोत्रादीनि न पश्यन्ति स्वं स्वमात्मानमात्मना।
सर्वज्ञः सर्वदर्शी च सर्वज्ञस्तानि पश्यति ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रोत्र आदि इन्द्रियाँ स्वयं अपने द्वारा आपको नहीं जान सकतीं। आत्मा सर्वज्ञ और सबका साक्षी है। सर्वज्ञ होनेके कारण ही वह उन सबको जानता है॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथा हिमवतः पार्श्वं पृष्ठं चन्द्रमसो यथा।
न दृष्टपूर्वं मनुजैर्न च तन्नास्ति तावता ॥ ६ ॥
तद्वद् भूतेषु भूतात्मा सूक्ष्मो ज्ञानात्मवानसौ।
अदृष्टपूर्वश्चक्षुर्भ्यां न चासौ नास्ति तावता ॥ ७ ॥
मूलम्
यथा हिमवतः पार्श्वं पृष्ठं चन्द्रमसो यथा।
न दृष्टपूर्वं मनुजैर्न च तन्नास्ति तावता ॥ ६ ॥
तद्वद् भूतेषु भूतात्मा सूक्ष्मो ज्ञानात्मवानसौ।
अदृष्टपूर्वश्चक्षुर्भ्यां न चासौ नास्ति तावता ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे मनुष्योंद्वारा हिमालय पर्वतका दूसरा पार्श्व तथा चन्द्रमाका पृष्ठ भाग देखा हुआ नहीं है तो भी इसके आधारपर यह नहीं कहा जा सकता कि उनके पार्श्व और पृष्ठ भागका अस्तित्व ही नहीं है। उसी प्रकार सम्पूर्ण भूतोंके भीतर रहनेवाला उनका अन्तर्यामी ज्ञानस्वरूप आत्मा अत्यन्त सूक्ष्म होनेके कारण कभी नेत्रोंद्वारा नहीं देखा गया है; अतः उतनेहीसे यह नहीं कहा जा सकता कि आत्मा है ही नहीं॥६-७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पश्यन्नपि यथा लक्ष्म जगत् सोमे न विन्दति।
एवमस्ति न चोत्पन्नं न च तन्न परायणम् ॥ ८ ॥
मूलम्
पश्यन्नपि यथा लक्ष्म जगत् सोमे न विन्दति।
एवमस्ति न चोत्पन्नं न च तन्न परायणम् ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे चन्द्रमामें जो कलंक है, वह जगत्का अर्थात् तद्गत पृथ्वीका ही चिह्न है; परंतु उसको देखकर भी मनुष्य ऐसा नहीं समझता कि वह जगत्का अर्थात् पृथ्वीका चिह्न है। इसी प्रकार सबको ‘मैं हूँ’ इस रूपमें आत्माका ज्ञान है; परंतु यथार्थ ज्ञान नहीं है; इस कारण मनुष्य उसके परायण-आश्रित नहीं है॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रूपवन्तमरूपत्वादुदयास्तमने बुधाः ।
धिया समनुपश्यन्ति तद्गताः सवितुर्गतिम् ॥ ९ ॥
तथा बुद्धिप्रदीपेन दूरस्थं सुविपश्चितः।
प्रत्यासन्नं निनीषन्ति ज्ञेयं ज्ञानाभिसंहितम् ॥ १० ॥
मूलम्
रूपवन्तमरूपत्वादुदयास्तमने बुधाः ।
धिया समनुपश्यन्ति तद्गताः सवितुर्गतिम् ॥ ९ ॥
तथा बुद्धिप्रदीपेन दूरस्थं सुविपश्चितः।
प्रत्यासन्नं निनीषन्ति ज्ञेयं ज्ञानाभिसंहितम् ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
रूपवान् पदार्थ अपनी उत्पत्तिसे पूर्व और नष्ट हो जानेके बाद रूपहीन ही रहते हैं, इस नियमसे जैसे बुद्धिमान् लोग उनकी अरूपताका निश्चय करते हैं तथा सूर्यके उदय और अस्तके द्वारा विद्वान् पुरुष बुद्धिसे जिस प्रकार न दिखायी देनेवाली सूर्यकी गतिका अनुमान कर लेते हैं, उसी प्रकार विवेकी मनुष्य बुद्धिरूप दीपकके द्वारा इन्द्रियातीत ब्रह्मका साक्षात्कार कर लेते हैं और इस निकटवर्ती दृश्य-प्रपंचको उस ज्ञानस्वरूप परमात्मामें विलीन कर देना चाहते हैं॥९-१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न हि खल्वनुपायेन कश्चिदर्थोऽभिसिद्ध्यति।
सूत्रजालैर्यथा मत्स्यान् बध्नन्ति जलजीविनः ॥ ११ ॥
मृगैर्मृगाणां ग्रहणं पक्षिणां पक्षिभिर्यथा।
गजानां च गजैरेव ज्ञेयं ज्ञानेन गृह्यते ॥ १२ ॥
मूलम्
न हि खल्वनुपायेन कश्चिदर्थोऽभिसिद्ध्यति।
सूत्रजालैर्यथा मत्स्यान् बध्नन्ति जलजीविनः ॥ ११ ॥
मृगैर्मृगाणां ग्रहणं पक्षिणां पक्षिभिर्यथा।
गजानां च गजैरेव ज्ञेयं ज्ञानेन गृह्यते ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उचित उपाय किये बिना कोई भी प्रयोजन सिद्ध नहीं होता है, जैसे जलमें रहनेवाले प्राणियोंसे जीविका चलानेवाले सूतके जाल बनाकर उनके द्वारा मछलियोंको बाँध लेते हैं, जैसे मृगोंके द्वारा मृगोंको, पक्षियोंद्वारा पक्षियोंको और हाथियोंद्वारा हाथियोंको पकड़ा जाता है, उसी प्रकार ज्ञेय वस्तुका ज्ञानके द्वारा ग्रहण होता है॥११-१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहिरेव ह्यहेः पादान् पश्यतीति हि नः श्रुतम्।
तद्वन्मूर्तिषु मूर्तिस्थं ज्ञेयं ज्ञानेन पश्यति ॥ १३ ॥
मूलम्
अहिरेव ह्यहेः पादान् पश्यतीति हि नः श्रुतम्।
तद्वन्मूर्तिषु मूर्तिस्थं ज्ञेयं ज्ञानेन पश्यति ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
हमने सुना है कि सर्पके पैरोंको सर्प ही पहचानता है, उसी प्रकार मनुष्य समस्त शरीरोंमें शरीरस्थ ज्ञेयस्वरूप आत्माको ज्ञानके द्वारा ही जान सकता है॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नोत्सहन्ते यथा वेत्तुमिन्द्रियैरिन्द्रियाण्यपि ।
तथैवेह परा बुद्धिः परं बोध्यं न पश्यति ॥ १४ ॥
मूलम्
नोत्सहन्ते यथा वेत्तुमिन्द्रियैरिन्द्रियाण्यपि ।
तथैवेह परा बुद्धिः परं बोध्यं न पश्यति ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे इन्द्रियाँ भी इन्द्रियोंद्वारा किसी ज्ञेयको नहीं जान सकतीं, उसी प्रकार यहाँ परा बुद्धि भी उस परम बोध्य तत्त्वको स्वयं नहीं देख पाती है; किंतु ज्ञाता पुरुष ही बुद्धिके द्वारा उसका साक्षात् करता है॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथा चन्द्रो ह्यमावास्यामलिङ्गत्वान्न दृश्यते।
न च नाशोऽस्य भवति तथा विद्धि शरीरिणम् ॥ १५ ॥
मूलम्
यथा चन्द्रो ह्यमावास्यामलिङ्गत्वान्न दृश्यते।
न च नाशोऽस्य भवति तथा विद्धि शरीरिणम् ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैस चन्द्रमा अमावास्याको प्रकाशहीन हो जानेके कारण दिखायी नहीं देता है; किंतु उस समय उसका नाश नहीं होता। उसी प्रकार शरीरधारी आत्माके विषयमें भी समझना चाहिये अर्थात् आत्मा अदृश्य होनेपर भी उसका अभाव नहीं है, ऐसा समझना चाहिये॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्षीणकोशो ह्यमावास्यां चन्द्रमा न प्रकाशते।
तद्वन्मूर्तिविमुक्तोऽसौ शरीरी नोपलभ्यते ॥ १६ ॥
मूलम्
क्षीणकोशो ह्यमावास्यां चन्द्रमा न प्रकाशते।
तद्वन्मूर्तिविमुक्तोऽसौ शरीरी नोपलभ्यते ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे चन्द्रमा अमावास्याको अपने प्रकाश्य स्थानसे वियुक्त हो जानेके कारण दिखायी नहीं देता है, उसी प्रकार देहधारी आत्मा शरीरसे वियुक्त होनेपर दृष्टिगोचर नहीं होता है॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथाऽऽकाशान्तरं प्राप्य चन्द्रमा भ्राजते पुनः।
तद्वल्लिङ्गान्तरं प्राप्य शरीरी भ्राजते पुनः ॥ १७ ॥
मूलम्
यथाऽऽकाशान्तरं प्राप्य चन्द्रमा भ्राजते पुनः।
तद्वल्लिङ्गान्तरं प्राप्य शरीरी भ्राजते पुनः ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
फिर वही चन्द्रमा जैसे अन्यत्र आकाशमें स्थान पाकर पुनः प्रकाशित होने लगता है, उसी प्रकार जीवात्मा दूसरा शरीर धारण करके पुनः प्रकट हो जाता है॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जन्म वृद्धिः क्षयश्चास्य प्रत्यक्षेणोपलभ्यते।
सा तु चान्द्रमसी वृत्तिर्न तु तस्य शरीरिणः ॥ १८ ॥
मूलम्
जन्म वृद्धिः क्षयश्चास्य प्रत्यक्षेणोपलभ्यते।
सा तु चान्द्रमसी वृत्तिर्न तु तस्य शरीरिणः ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जन्म, वृद्धि और क्षयका जो प्रत्यक्ष दर्शन होता है, वह चन्द्रमण्डलमें प्रतीत होनेवाली वृत्ति चन्द्रमाकी नहीं है। उसी प्रकार शरीरका ही जन्म आदि होता है, उस शरीरधारी आत्माका नहीं॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उत्पत्तिवृद्धिवयसा यथा स इति गृह्यते।
चन्द्र एव त्वमावास्यां तथा भवति मूर्तिमान् ॥ १९ ॥
मूलम्
उत्पत्तिवृद्धिवयसा यथा स इति गृह्यते।
चन्द्र एव त्वमावास्यां तथा भवति मूर्तिमान् ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे किसी व्यक्तिका जन्म होता है, वह बढ़ता है और किशोर, यौवन आदि भिन्न-भिन्न अवस्थाओंमें पहुँच जाता है तो भी यही समझा जाता है कि यह वही व्यक्ति है तथा अमावास्याके बाद जब चन्द्रमा पुनः मूर्तिमान् होकर प्रकट होता है तो यही माना जाता है कि यह वही चन्द्रमा है (उसी प्रकार दूसरे शरीरमें प्रवेश करनेपर भी वह देहधारी आत्मा वही है—ऐसा समझना चाहिये)॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नोपसर्पद् विमुञ्चद् वा शशिनं दृश्यते तमः।
विसृजंश्चोपसर्पंश्च तद्वत् पश्य शरीरिणम् ॥ २० ॥
मूलम्
नोपसर्पद् विमुञ्चद् वा शशिनं दृश्यते तमः।
विसृजंश्चोपसर्पंश्च तद्वत् पश्य शरीरिणम् ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे अन्धकाररूप राहु चन्द्रमाकी ओर आता और उसे छोड़कर जाता हुआ नहीं दिखायी देता है, उसी प्रकार जीवात्मा भी शरीरमें आता और उसे छोड़कर जाता हुआ नहीं दीख पड़ता है ऐसा समझो॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथा चन्द्रार्कसंयुक्तं तमस्तदुपलभ्यते ।
तद्वच्छरीरसंयुक्तः शरीरीत्युपलभ्यते ॥ २१ ॥
मूलम्
यथा चन्द्रार्कसंयुक्तं तमस्तदुपलभ्यते ।
तद्वच्छरीरसंयुक्तः शरीरीत्युपलभ्यते ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे सूर्यग्रहणकालमें चन्द्रमा सूर्यसे संयुक्त होनेपर सूर्यमें छायारूपी राहुका दर्शन होता है, उसी प्रकार शरीरसे संयुक्त होनेपर शरीरधारी आत्माकी उपलब्धि होती है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथा चन्द्रार्कनिर्मुक्तः स राहुर्नोपलभ्यते।
तद्वच्छरीरनिर्मुक्तः शरीरी नोपलभ्यते ॥ २२ ॥
मूलम्
यथा चन्द्रार्कनिर्मुक्तः स राहुर्नोपलभ्यते।
तद्वच्छरीरनिर्मुक्तः शरीरी नोपलभ्यते ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे चन्द्रमा-सूर्यसे अलग होनेपर सूर्यमें राहुकी उपलब्धि नहीं होती, उसी प्रकार शरीरसे विलग होनेपर शरीरधारी आत्माका दर्शन नहीं होता॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथा चन्द्रो ह्यमावास्यां नक्षत्रैर्युज्यते गतः।
तद्वच्छरीरनिर्मुक्तः फलैर्युज्यति कर्मणः ॥ २३ ॥
मूलम्
यथा चन्द्रो ह्यमावास्यां नक्षत्रैर्युज्यते गतः।
तद्वच्छरीरनिर्मुक्तः फलैर्युज्यति कर्मणः ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे अमावास्याका अतिक्रमण करनेपर चन्द्रमा नक्षत्रोंसे संयुक्त होता है, उसी प्रकार जीवात्मा एक शरीरका त्याग करनेपर कर्मोंके फलस्वरूप दूसरे शरीरसे युक्त होता है॥२३॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि मनुबृहस्पतिसंवादे त्र्यधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥ २०३ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें मनु और बृहस्पतिका संवादरूप दो सौ तीनवाँ अध्याय पूरा हुआ॥२०३॥