२०२ मनुबृहस्पतिसंवादे

भागसूचना

द्र्यधिकद्विशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

आत्मतत्त्वका और बुद्धि आदि प्राकृत पदार्थोंका विवेचन तथा उसके साक्षात्कारका उपाय

मूलम् (वचनम्)

मनुरुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अक्षरात् खं ततो वायुस्ततो ज्योतिस्ततो जलम्।
जलात् प्रसूता जगती जगत्यां जायते जगत् ॥ १ ॥

मूलम्

अक्षरात् खं ततो वायुस्ततो ज्योतिस्ततो जलम्।
जलात् प्रसूता जगती जगत्यां जायते जगत् ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मनु कहते हैं— बृहस्पते! अविनाशी परमात्मासे आकाश, आकाशसे वायु, वायुसे अग्नि, अग्निसे जल और जलसे यह पृथ्वी उत्पन्न हुई है। इस पृथ्वीमें ही सम्पूर्ण पार्थिव जगत्‌की उत्पत्ति होती है॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतैः शरीरैर्जलमेव गत्वा
जलाच्च तेजः पवनोऽन्तरिक्षम् ।
खाद् वै निवर्तन्ति न भाविनस्ते
मोक्षं च ते वै परमाप्नुवन्ति ॥ २ ॥

मूलम्

एतैः शरीरैर्जलमेव गत्वा
जलाच्च तेजः पवनोऽन्तरिक्षम् ।
खाद् वै निवर्तन्ति न भाविनस्ते
मोक्षं च ते वै परमाप्नुवन्ति ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इन पूर्वोक्त शरीरोंके साथ (पार्थिव शरीरके बाद) प्राणियोंका जलमें लय होता है; फिर वे जलसे अग्निमें, अग्निसे वायुमें और वायुसे आकाशमें लीन होते हैं। आकाशसे सृष्टिकालमें फिर वे पूर्वोक्त क्रमसे उत्पन्न होते हैं; परंतु जो ज्ञानी हैं, वे मोक्षस्वरूप परमात्माको प्राप्त हो जाते हैं। उनका पुनः इस संसारमें जन्म नहीं होता॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नोष्णं न शीतं मृदु नापि तीक्ष्णं
नाम्लं कषायं मधुरं न तिक्तम्।
न शब्दवन्नापि च गन्धवत्त-
न्न रूपवत्तत् परमस्वभावम् ॥ ३ ॥

मूलम्

नोष्णं न शीतं मृदु नापि तीक्ष्णं
नाम्लं कषायं मधुरं न तिक्तम्।
न शब्दवन्नापि च गन्धवत्त-
न्न रूपवत्तत् परमस्वभावम् ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह परमात्मतत्त्व न गर्म है न शीतल, न कोमल है न तीक्ष्ण, न खट्टा है न कसैला, न मीठा है न तीता। शब्द, गन्ध और रूपसे भी वह रहित है। उसका स्वरूप सबसे उत्कृष्ट एवं विलक्षण है॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्पर्शं तनुर्वेद रसं च जिह्वा
घ्राणं च गन्धान् श्रवणौ च शब्दान्।
रूपाणि चक्षुर्न च तत्परं यद्
गृह्णन्त्यनध्यात्मविदो मनुष्याः ॥ ४ ॥

मूलम्

स्पर्शं तनुर्वेद रसं च जिह्वा
घ्राणं च गन्धान् श्रवणौ च शब्दान्।
रूपाणि चक्षुर्न च तत्परं यद्
गृह्णन्त्यनध्यात्मविदो मनुष्याः ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

त्वचा स्पर्शका, जिह्वा रसका, घ्राणेन्द्रिय गन्धका, कान शब्दका और नेत्र रूपका ही अनुभव करते हैं। ये इन्द्रियाँ परमात्माको प्रत्यक्ष नहीं कर सकतीं। अध्यात्मज्ञानसे हीन मनुष्य परमात्मतत्त्वका अनुभव नहीं कर सकते॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

निवर्तयित्वा रसनां रसेभ्यो
घ्राणं च गन्धाच्छ्रवणौ च शब्दात्।
स्पर्शात् त्वचं रूपगुणात् तु चक्षु-
स्ततः परं पश्यति स्वं स्वभावम् ॥ ५ ॥

मूलम्

निवर्तयित्वा रसनां रसेभ्यो
घ्राणं च गन्धाच्छ्रवणौ च शब्दात्।
स्पर्शात् त्वचं रूपगुणात् तु चक्षु-
स्ततः परं पश्यति स्वं स्वभावम् ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अतः जो जिह्वाको रससे, नासिकाको गन्धसे, कानोंको शब्दसे, त्वचाको स्पर्शसे और नेत्रोंको रूपसे हटाकर अन्तर्मुखी बना लेता है, वही अपने मूलस्वरूप परमात्माका साक्षात्कार कर सकता है॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यतो गृहीत्वा हि करोति यच्च
यस्मिंश्च तामारभते प्रवृत्तिम् ।
यस्मिंश्च यद् येन च यश्च कर्ता
यत् कारणं ते समुदायमाहुः ॥ ६ ॥

मूलम्

यतो गृहीत्वा हि करोति यच्च
यस्मिंश्च तामारभते प्रवृत्तिम् ।
यस्मिंश्च यद् येन च यश्च कर्ता
यत् कारणं ते समुदायमाहुः ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महर्षिगण कहते हैं जो कर्ता जिस कारणसे, जिस फलके उद्देश्यसे, जिस देश या कालमें, जिस प्रिय या अप्रियके निमित्त, जिस राग या द्वेषसे प्रभावित हो प्रवृत्तिमार्गका आश्रय ले जिस कर्मको करता है, इन सबके समुदायका जो कारण है, वही सबका स्वरूपभूत परब्रह्म परमात्मा है॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यद् व्याप्यभूद् व्यापकं साधकं च
यन्मन्त्रवत् स्थास्यति चापि लोके।
यः सर्वहेतुः परमात्मकारी
तत् कारणं कार्यमतो यदन्यत् ॥ ७ ॥

मूलम्

यद् व्याप्यभूद् व्यापकं साधकं च
यन्मन्त्रवत् स्थास्यति चापि लोके।
यः सर्वहेतुः परमात्मकारी
तत् कारणं कार्यमतो यदन्यत् ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रुतिके कथनानुसार जो व्यापक, व्याप्य और उनका साधन है, जो सम्पूर्ण लोकमें सदा ही स्थित रहनेवाला कूटस्थ, सबका कारण और स्वयं ही सब कुछ करनेवाला है, वही परम कारण है। उसके सिवा जो कुछ है, सब कार्यमात्र है॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथा हि कश्चित् सुकृतैर्मनुष्यः
शुभाशुभं प्राप्नुतेऽथाविरोधात् ।
एवं शरीरेषु शुभाशुभेषु
स्वकर्मजैर्ज्ञानमिदं निबद्धम् ॥ ८ ॥

मूलम्

यथा हि कश्चित् सुकृतैर्मनुष्यः
शुभाशुभं प्राप्नुतेऽथाविरोधात् ।
एवं शरीरेषु शुभाशुभेषु
स्वकर्मजैर्ज्ञानमिदं निबद्धम् ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे कोई मनुष्य भलीभाँति किये हुए कर्मोंद्वारा बिना किसी प्रतीकारके विभिन्न देश और कालमें उनका शुभाशुभ फल पाता है, उसी प्रकार अपने कर्मानुसार प्राप्त उत्तम और अधम शरीरोंमें यह चिन्मय ज्ञान बिना किसी विरोधके स्थित रहता है॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथा प्रदीप्तः पुरतः प्रदीपः
प्रकाशमन्यस्य करोति दीप्यन् ।
तथेह पञ्चेन्द्रियदीपवृक्षा
ज्ञानप्रदीप्ताः परवन्त एव ॥ ९ ॥

मूलम्

यथा प्रदीप्तः पुरतः प्रदीपः
प्रकाशमन्यस्य करोति दीप्यन् ।
तथेह पञ्चेन्द्रियदीपवृक्षा
ज्ञानप्रदीप्ताः परवन्त एव ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिस प्रकार अग्निसे प्रज्वलित दीपक स्वयं प्रकाशित होता हुआ पासमें स्थित अन्य वस्तुओंको भी प्रकाशित कर देता है, उसी प्रकार इस शरीररूप वृक्षमें स्थित पाँच इन्द्रियाँ चैतन्यरूपी ज्ञानके प्रकाशसे प्रकाशित होकर विषयोंको प्रकाशित करती हैं (उनका प्रकाश चिन्मय प्रकाशके ही अधीन होनेके कारण वे पराधीन हैं। स्वतः प्रकाश करनेमें समर्थ नहीं हैं)॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथा च राज्ञा बहवो ह्यमात्याः
पृथक् प्रमाणं प्रवदन्ति युक्ताः।
तद्वच्छरीरेषु भवन्ति पञ्च
ज्ञानैकदेशः परमः स तेभ्यः ॥ १० ॥

मूलम्

यथा च राज्ञा बहवो ह्यमात्याः
पृथक् प्रमाणं प्रवदन्ति युक्ताः।
तद्वच्छरीरेषु भवन्ति पञ्च
ज्ञानैकदेशः परमः स तेभ्यः ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे किसी राजाके द्वारा भिन्न-भिन्न कार्योंमें नियुक्त किये गये बहुत-से मन्त्री अपने पृथक्-पृथक् कार्योंकी जानकारी राजाको कराते हैं। उसी प्रकार शरीरोंमें स्थित पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ अपने-अपने एकदेशीय विषयका परिचय राजस्थानीय बुद्धिको देती हैं। जैसे मन्त्रियोंसे राजा श्रेष्ठ है, उसी प्रकार उन पाँचों इन्द्रियोंसे उनका प्रवर्तक वह ज्ञान श्रेष्ठ है॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथार्चिषोऽग्नेः पवनस्य वेगो
मरीचयोऽर्कस्य नदीषु चापः ।
गच्छन्ति चायान्ति च संचरन्त्य-
स्तद्वच्छरीराणि शरीरिणां तु ॥ ११ ॥

मूलम्

यथार्चिषोऽग्नेः पवनस्य वेगो
मरीचयोऽर्कस्य नदीषु चापः ।
गच्छन्ति चायान्ति च संचरन्त्य-
स्तद्वच्छरीराणि शरीरिणां तु ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे अग्निकी शिखाएँ, वायुका वेग, सूर्यकी किरणें और नदियोंका बहता हुआ जल—ये सदा आते-जाते रहते हैं, इसी प्रकार देहधारियोंके शरीर भी आवागमनके प्रवाहमें पड़े हुए हैं॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथा च कश्चित् परशुं गृहीत्वा
धूमं न पश्येज्ज्वलनं च काष्ठे।
तद्वच्छरीरोदरपाणिपादं
छित्त्वा न पश्यन्ति ततो यदन्यत् ॥ १२ ॥

मूलम्

यथा च कश्चित् परशुं गृहीत्वा
धूमं न पश्येज्ज्वलनं च काष्ठे।
तद्वच्छरीरोदरपाणिपादं
छित्त्वा न पश्यन्ति ततो यदन्यत् ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे कोई मनुष्य कुल्हाड़ी लेकर लकड़ीको चीरे तो उसमें उसे न तो आग दिखायी देगी और न धुआँ ही प्रकट होगा, उसी प्रकार इस शरीरका पेट फाड़ने या हाथ-पैर काटनेसे कोई उसे नहीं देख पाता, जो अन्तर्यामी आत्मा शरीरसे भिन्न है॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तान्येव काष्ठानि यथा विमथ्य
धूमं च पश्येज्ज्वलनं च योगात्।
तद्वत् सबुद्धिः सममिन्द्रियात्मा
बुधः परं पश्यति तं स्वभावम् ॥ १३ ॥

मूलम्

तान्येव काष्ठानि यथा विमथ्य
धूमं च पश्येज्ज्वलनं च योगात्।
तद्वत् सबुद्धिः सममिन्द्रियात्मा
बुधः परं पश्यति तं स्वभावम् ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

परंतु उन्हीं काठोंका युक्तिपूर्वक मन्थन करनेपर जैसे अग्नि और धूम दोनों ही देखनेमें आते हैं, उसी प्रकार योगके द्वारा मन और इन्द्रियोंको बुद्धिके सहित समाहित कर लेनेवाला बुद्धिमान् ज्ञानी पुरुष इन सबसे परम श्रेष्ठ उस ज्ञानको और आत्माको साक्षात् कर लेता है॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथात्मनोऽङ्गं पतितं पृथिव्यां
स्वप्नान्तरे पश्यति चात्मनोऽन्यत् ।
श्रोत्रादियुक्तः सुमनाः सुबुद्धि-
र्लिङ्गात्तथा गच्छति लिङ्गमन्यत् ॥ १४ ॥

मूलम्

यथात्मनोऽङ्गं पतितं पृथिव्यां
स्वप्नान्तरे पश्यति चात्मनोऽन्यत् ।
श्रोत्रादियुक्तः सुमनाः सुबुद्धि-
र्लिङ्गात्तथा गच्छति लिङ्गमन्यत् ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे स्वप्नमें मनुष्य अपने शरीरके कटे हुए अंगको अपनेसे अलग और पृथ्वीपर पड़ा देखता है, उसी प्रकार दस इन्द्रिय, पाँच प्राण तथा मन और बुद्धि—इन सत्रह तत्त्वोंके समुदायका अभिमानी शुद्ध मन और बुद्धिवाला मनुष्य शरीरको अपनेसे पृथक् जाने। जो ऐसा नहीं जानता, वही एक शरीरसे दूसरे शरीरमें जन्म लेता रहता है॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उत्पत्तिवृद्धिव्ययसंनिपातै-
र्न युज्यतेऽसौ परमः शरीरी।
अनेन लिङ्गेन तु लिङ्गमन्यद्
गच्छत्यदृष्टः फलसंनियोगात् ॥ १५ ॥

मूलम्

उत्पत्तिवृद्धिव्ययसंनिपातै-
र्न युज्यतेऽसौ परमः शरीरी।
अनेन लिङ्गेन तु लिङ्गमन्यद्
गच्छत्यदृष्टः फलसंनियोगात् ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

आत्मा शरीरसे सर्वथा भिन्न है। वह इसके उत्पत्ति, वृद्धि, क्षय और मृत्यु आदि दोषोंसे कभी लिप्त नहीं होता। किंतु अज्ञानी मनुष्य पूर्वकृत कर्मोंके फलके सम्बन्धसे इस ऊपर बताये हुए सूक्ष्म शरीरके सहित दूसरे शरीरमें चला जाता है॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न चक्षुषा पश्यति रूपमात्मनो
न चापि संस्पर्शमुपैति किंचित्।
न चापि तैः साधयते तु कार्यं
ते तं न पश्यन्ति स पश्यते तान् ॥ १६ ॥

मूलम्

न चक्षुषा पश्यति रूपमात्मनो
न चापि संस्पर्शमुपैति किंचित्।
न चापि तैः साधयते तु कार्यं
ते तं न पश्यन्ति स पश्यते तान् ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कोई भी इन चर्मचक्षुओंके द्वारा आत्माके स्वरूपको नहीं देख सकता। अपनी त्वचासे उसका स्पर्श भी नहीं कर सकता। भाव यह कि इन्द्रियोंद्वारा आत्माको जाननेका कोई कार्य नहीं किया जा सकता। वे इन्द्रियाँ उसे नहीं देखतीं; पर वह आत्मा उन सबको देखता है॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथा समीपे ज्वलतोऽनलस्य
संतापजं रूपमुपैति कश्चित् ।
न चान्तरं रूपगुणं बिभर्ति
तथैव तद् दृश्यति रूपमस्य ॥ १७ ॥

मूलम्

यथा समीपे ज्वलतोऽनलस्य
संतापजं रूपमुपैति कश्चित् ।
न चान्तरं रूपगुणं बिभर्ति
तथैव तद् दृश्यति रूपमस्य ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे कोई लोहा आदि पदार्थ समीप जलती हुई आगकी गर्मीसे लाल रंगका हो जाता है और उसमें दाहकताका गुण भी थोड़ी मात्रामें आ जाता है; परंतु वह उसके वास्तविक आन्तरिक रूप और गुणको धारण नहीं करता, उसी प्रकार आत्माका स्वरूप चैतन्यमात्र इन्द्रियादिके समूह शरीरमें दिखायी देता है, किंतु उनका समुदायभूत शरीर वास्तवमें चेतन नहीं होता। एवं समीपस्थ वस्तुका जैसा रूप होता है वैसा ही रूप उस अग्निका भी प्रतीत होने लगता है॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथा मनुष्यः परिमुच्य काय-
मदृश्यमन्यद् विशते शरीरम् ।
विसृज्य भूतेषु महत्सु देहं
तदाश्रयं चैव बिभर्ति रूपम् ॥ १८ ॥

मूलम्

तथा मनुष्यः परिमुच्य काय-
मदृश्यमन्यद् विशते शरीरम् ।
विसृज्य भूतेषु महत्सु देहं
तदाश्रयं चैव बिभर्ति रूपम् ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसी तरह मनुष्य अपने दृश्य शरीरका त्याग करके जब दूसरे अदृश्य शरीरमें प्रवेश करता है, तब पहलेके स्थूल शरीरको पञ्च महाभूतोंमें मिलनेके लिये छोड़कर दूसरे शरीरका आश्रय ले उसीको अपना स्वरूप मानकर धारण करता है॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

खं वायुमग्निं सलिलं तथोर्वीं
समन्ततोऽभ्याविशते शरीरी ।
नानाश्रयाः कर्मसु वर्तमानाः
श्रोत्रादयः पञ्च गुणान् श्रयन्ते ॥ १९ ॥

मूलम्

खं वायुमग्निं सलिलं तथोर्वीं
समन्ततोऽभ्याविशते शरीरी ।
नानाश्रयाः कर्मसु वर्तमानाः
श्रोत्रादयः पञ्च गुणान् श्रयन्ते ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

देहाभिमानी जीव जब शरीर छोड़ता है, तब उस शरीरमें जो आकाशका अंश होता है, वह सब प्रकारसे आकाशमें, वायुका अंश वायुमें, अग्निका अंश अग्निमें, जलका अंश जलमें तथा पृथ्वीका अंश पृथ्वीमें विलीन हो जाता है। किंतु इन नाना भूतोंके आश्रित जो श्रोत्र आदि तत्त्व हैं, वे विलीन न होकर अपने-अपने कर्मोंमें प्रवृत्त रहते हैं और दूसरे शरीरमें जाकर पाँचों भूतोंका आश्रय ले लेते हैं॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रोत्रं खतो घ्राणमथो पृथिव्या-
स्तेजोमयं रूपमथो विपाकः ।
जलाश्रयं स्वेदमुक्तं रसं च
वाय्वात्मकः स्पर्शकृतो गुणश्च ॥ २० ॥

मूलम्

श्रोत्रं खतो घ्राणमथो पृथिव्या-
स्तेजोमयं रूपमथो विपाकः ।
जलाश्रयं स्वेदमुक्तं रसं च
वाय्वात्मकः स्पर्शकृतो गुणश्च ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

आकाशसे श्रोत्रेन्द्रिय (और उसका विषय शब्द), पृथ्वीसे घ्राणेन्द्रिय (और उसका विषय गन्ध) होता है तथा रूप और विपाक वे दोनों (एवं नेत्र-इन्द्रिय)—ये सब तेजोमय हैं। स्वेद एवं रस (और रसना-) इन्द्रिय—ये जलके आश्रित हैं। एवं स्पर्श करनेवाली इन्द्रिय और स्पर्श यह वायुस्वरूप है॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

महत्सु भूतेषु वसन्ति पञ्च
पञ्चेन्द्रियार्थाश्च तथेन्द्रियाणि ।
सर्वाणि चैतानि मनोऽनुगानि
बुद्धिं मनोऽन्वेति मतिः स्वभावम् ॥ २१ ॥

मूलम्

महत्सु भूतेषु वसन्ति पञ्च
पञ्चेन्द्रियार्थाश्च तथेन्द्रियाणि ।
सर्वाणि चैतानि मनोऽनुगानि
बुद्धिं मनोऽन्वेति मतिः स्वभावम् ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पाँचों इन्द्रियोंके पाँचों विषय तथा पाँचों इन्द्रियाँ भी पञ्च सूक्ष्म महाभूतोंमें निवास करते हैं, ये शब्द आदि विषय, आकाश आदि भूत तथा श्रोत्र आदि इन्द्रियाँ सब-के-सब मनके अनुगामी हैं। मन बुद्धिका अनुसरण करता है और बुद्धि आत्माका आश्रय लेकर रहती है॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शुभाशुभं कर्म कृतं यदन्यत्
तदेव प्रत्याददते स्वदेहे ।
मनोऽनुवर्तन्ति परावराणि
जलौकसः स्रोत इवानुकूलम् ॥ २२ ॥

मूलम्

शुभाशुभं कर्म कृतं यदन्यत्
तदेव प्रत्याददते स्वदेहे ।
मनोऽनुवर्तन्ति परावराणि
जलौकसः स्रोत इवानुकूलम् ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब जीवात्मा अपने कर्मोंद्वारा उपार्जित नवीन शरीरमें स्थित होता है, उस समय वह पहले जो शुभाशुभ कर्म किये हुए हैं उन्हींका फल प्राप्त करता है। जैसे जल-जन्तु जलके अनुकूल प्रवाहका अनुसरण करते हैं, उसी प्रकार पूर्वकृत अच्छे और बुरे कर्म मनका अनुगमन करते हैं अर्थात् मनके द्वारा फल प्रदान करते हैं॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

चलं यथा दृष्टिपथं परैति
सूक्ष्मं महद् रूपमिवाभिभाति ।
स्वरूपमालोचयते च रूपं
परं तथा बुद्धिपथं परैति ॥ २३ ॥

मूलम्

चलं यथा दृष्टिपथं परैति
सूक्ष्मं महद् रूपमिवाभिभाति ।
स्वरूपमालोचयते च रूपं
परं तथा बुद्धिपथं परैति ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे शीघ्रगामी नौकापर बैठे हुए पुरुषकी दृष्टिमें पार्श्ववर्ती वृक्ष पीछेकी ओर वेगसे भागते हुए दिखायी देते हैं, उसी प्रकार कूटस्थ निर्विकारी आत्मा बुद्धिके विकारसे विकारवान्-सा प्रतीत होता है एवं जैसे चश्मे या दूरबीनसे महीन अक्षर मोटा दीखता है और छोटी आकृति बहुत बड़ी दिखायी देती है, उसी प्रकार सूक्ष्म आत्मतत्त्व भी बुद्धि, विवेक-समूह शरीरसे संयुक्त होनेके कारण शरीरके रूपमें प्रतीत होने लगता है। तथा जैसे स्वच्छ दर्पण अपने मुखका प्रतिबिम्ब दिखा देता है, उसी प्रकार शुद्ध बुद्धिमें आत्माके स्वरूपकी झाँकी उपलब्ध हो जाती है॥२३॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि मनुबृहस्पतिसंवादे द्व्यधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥ २०२ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें मनु-बृहस्पति-संवादविषयक दो सौ दोवाँ अध्याय पूरा हुआ॥२०२॥