२०१ मनुबृहस्पतिसंवादे

भागसूचना

एकाधिकद्विशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

बृहस्पतिके प्रश्नके उत्तरमें मनुद्वारा कामनाओंके त्यागकी एवं ज्ञानकी प्रशंसा तथा परमात्मतत्त्वका निरूपण

मूलम् (वचनम्)

युधिष्ठिर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

किं फलं ज्ञानयोगस्य वेदानां नियमस्य च।
भूतात्मा च कथं ज्ञेयस्तन्मे ब्रूहि पितामह ॥ १ ॥

मूलम्

किं फलं ज्ञानयोगस्य वेदानां नियमस्य च।
भूतात्मा च कथं ज्ञेयस्तन्मे ब्रूहि पितामह ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिरने पूछा— पितामह! ज्ञानयोगका, वेदोंका तथा वेदोक्त नियम (अग्निहोत्र आदि) का क्या फल है? समस्त प्राणियोंके भीतर रहनेवाले परमात्माका ज्ञान कैसे हो सकता है? यह मुझे बताइये॥१॥

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् ।
मनोः प्रजापतेर्वादं महर्षेश्च बृहस्पतेः ॥ २ ॥

मूलम्

अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् ।
मनोः प्रजापतेर्वादं महर्षेश्च बृहस्पतेः ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजीने कहा— राजन्! इस विषयमें प्रजापति मनु तथा महर्षि बृहस्पतिके संवादरूप प्राचीन इतिहासका उदाहरण दिया जाता है॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रजापतिं श्रेष्ठतमं प्रजानां
देवर्षिसंघप्रवरो महर्षिः ।
बृहस्पतिः प्रश्नमिमं पुराणं
पप्रच्छ शिष्योऽथ गुरुं प्रणम्य ॥ ३ ॥

मूलम्

प्रजापतिं श्रेष्ठतमं प्रजानां
देवर्षिसंघप्रवरो महर्षिः ।
बृहस्पतिः प्रश्नमिमं पुराणं
पप्रच्छ शिष्योऽथ गुरुं प्रणम्य ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

एक समयकी बात है, देवता और ऋषियोंकी मण्डलीमें प्रधान महर्षि बृहस्पतिने प्रजाओंके श्रेष्ठतम प्रजापति गुरु मनुको शिष्यभावसे प्रणाम करके यह प्राचीन प्रश्न पूछा—॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यत्कारणं यत्र विधिः प्रवृत्तो
ज्ञाने फलं यत्प्रवदन्ति विप्राः।
यन्मन्त्रशब्दैरकृतप्रकाशं
तदुच्यतां मे भगवन् यथावत् ॥ ४ ॥

मूलम्

यत्कारणं यत्र विधिः प्रवृत्तो
ज्ञाने फलं यत्प्रवदन्ति विप्राः।
यन्मन्त्रशब्दैरकृतप्रकाशं
तदुच्यतां मे भगवन् यथावत् ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवन्! जो इस जगत्‌का कारण है, जिसके लिये वैदिक कर्मोंका अनुष्ठान किया जाता है, ब्राह्मण लोग जिसे ही ज्ञान होनेपर प्राप्त होनेवाला फल (परब्रह्म परमात्मा) बताते हैं तथा वेदके मन्त्र-वाक्योंद्वारा जिसका तत्त्व पूर्णरूपसे प्रकाशमें नहीं आता, उस नित्य वस्तुका मेरे लिये यथावद्‌रूपसे वर्णन कीजिये॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यच्चार्थशास्त्रागममन्त्रविद्भि-
र्यज्ञैरनेकैरथ गोप्रदानैः ।
फलं महद्भिर्यदुपास्यते च
किं तत्कथं वा भविता क्व वा तत् ॥ ५ ॥

मूलम्

यच्चार्थशास्त्रागममन्त्रविद्भि-
र्यज्ञैरनेकैरथ गोप्रदानैः ।
फलं महद्भिर्यदुपास्यते च
किं तत्कथं वा भविता क्व वा तत् ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अर्थशास्त्र, आगम (वेद) और मन्त्रको जाननेवाले विद्वान् पुरुष अनेकानेक महान् यज्ञों और गोदानोंद्वारा जिस सुखमय फलकी उपासना करते हैं, वह क्या है, किस प्रकार प्राप्त होता है और कहाँ उसकी स्थिति है?॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मही महीजाः पवनोऽन्तरिक्षं
जलौकसश्चैव जलं दिवं च।
दिवौकसश्चापि यतः प्रसूता-
स्तदुच्यतां मे भगवन् पुराणम् ॥ ६ ॥

मूलम्

मही महीजाः पवनोऽन्तरिक्षं
जलौकसश्चैव जलं दिवं च।
दिवौकसश्चापि यतः प्रसूता-
स्तदुच्यतां मे भगवन् पुराणम् ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवन्! पृथ्वी, पार्थिव पदार्थ, वायु, आकाश, जलजन्तु, जल, द्युलोक और देवता जिससे उत्पन्न होते हैं, वह पुरातन वस्तु क्या है? यह मुझे बताइये॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ज्ञानं यतः प्रार्थयते नरो वै
ततस्तदर्था भवति प्रवृत्तिः ।
न चाप्यहं वेद परं पुराणं
मिथ्याप्रवृत्तिं च कथं नु कुर्याम् ॥ ७ ॥

मूलम्

ज्ञानं यतः प्रार्थयते नरो वै
ततस्तदर्था भवति प्रवृत्तिः ।
न चाप्यहं वेद परं पुराणं
मिथ्याप्रवृत्तिं च कथं नु कुर्याम् ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मनुष्यको जिस वस्तुका ज्ञान होता है, उसीको वह पाना चाहता है और पानेकी इच्छा उत्पन्न होनेपर उसके लिये वह प्रयत्न आरम्भ करता है; परंतु मैं तो उस पुरातन परमोत्कृष्ट वस्तुके विषयमें कुछ जानता ही नहीं हूँ; फिर उसे पानेके लिये झूठा प्रयत्न कैसे करूँ?॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ऋक्‌सामसंघांश्च यजूंषि चापि
च्छन्दांसि नक्षत्रगतिं निरुक्तम् ।
अधीत्य च व्याकरणं सकल्पं
शिक्षां च भूतप्रकृतिं न वेद्मि ॥ ८ ॥

मूलम्

ऋक्‌सामसंघांश्च यजूंषि चापि
च्छन्दांसि नक्षत्रगतिं निरुक्तम् ।
अधीत्य च व्याकरणं सकल्पं
शिक्षां च भूतप्रकृतिं न वेद्मि ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैंने ऋक्, साम और यजुर्वेदका तथा छन्दका अर्थात् अथर्ववेदका एवं नक्षत्रोंकी गति, निरुक्त, व्याकरण, कल्प और शिक्षाका भी अध्ययन किया है तो भी मैं आकाश आदि पाँचों महाभूतोंके उपादान कारणको न जान सका॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स मे भवान् शंसतु सर्वमेतत्
सामान्यशब्दैश्च विशेषणैश्च ।
स मे भवान् शंसतु तावदेत-
ज्ज्ञाने फलं कर्मणि वा यदस्ति ॥ ९ ॥
यथा च देहाच्च्यवते शरीरी
पुनः शरीरं च यथाभ्युपैति।

मूलम्

स मे भवान् शंसतु सर्वमेतत्
सामान्यशब्दैश्च विशेषणैश्च ।
स मे भवान् शंसतु तावदेत-
ज्ज्ञाने फलं कर्मणि वा यदस्ति ॥ ९ ॥
यथा च देहाच्च्यवते शरीरी
पुनः शरीरं च यथाभ्युपैति।

अनुवाद (हिन्दी)

अतः आप सामान्य और विशेष शब्दोंद्वारा इस सम्पूर्ण विषयका मेरे निकट वर्णन कीजिये। तत्त्वज्ञान होनेपर कौन-सा फल प्राप्त होता है? कर्म करनेपर किस फलकी उपलब्धि होती है? देहाभिमानी जीव देहसे किस प्रकार निकलता है और फिर दूसरे शरीरमें कैसे प्रवेश करता है?—ये सारी बातें भी आप मुझे बताइये॥९॥

सूचना (हिन्दी)

प्रजापति मनु एवं महर्षि बृहस्पतिका संवाद

मूलम् (वचनम्)

मनुरुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

यद् यत्प्रियं यस्य सुखं तदाहु-
स्तदेव दुःखं प्रवदन्त्यनिष्टम् ॥ १० ॥
इष्टं च मे स्यादितरच्च न स्या-
देतत्कृते कर्मविधिः प्रवृत्तः ।
इष्टं त्वनिष्टं च न मां भजेते-
त्येतत्कृते ज्ञानविधिः प्रवृत्तः ॥ ११ ॥

मूलम्

यद् यत्प्रियं यस्य सुखं तदाहु-
स्तदेव दुःखं प्रवदन्त्यनिष्टम् ॥ १० ॥
इष्टं च मे स्यादितरच्च न स्या-
देतत्कृते कर्मविधिः प्रवृत्तः ।
इष्टं त्वनिष्टं च न मां भजेते-
त्येतत्कृते ज्ञानविधिः प्रवृत्तः ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मनुने कहा— जिसको जो-जो विषय प्रिय होता है, वही उसके लिये सुखरूप बताया गया है और जो अप्रिय होता है, उसे ही दुःखरूप कहा गया है। मुझे इष्ट (प्रिय) की प्राप्ति हो और अनिष्टका निवारण हो जाय, इसीके लिये कर्मोंका अनुष्ठान आरम्भ किया गया है तथा इष्ट और अनिष्ट दोनों ही मुझे प्राप्त न हों, इसके लिये ज्ञानयोगका उपदेश किया गया है॥१०-११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कामात्मकाश्छन्दसि कर्मयोगा
एभिर्विमुक्तः परमश्नुवीत ।
नानाविधे कर्मपथे सुखार्थी
नरः प्रवृत्तो न परं प्रयाति ॥ १२ ॥

मूलम्

कामात्मकाश्छन्दसि कर्मयोगा
एभिर्विमुक्तः परमश्नुवीत ।
नानाविधे कर्मपथे सुखार्थी
नरः प्रवृत्तो न परं प्रयाति ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वेदमें जो कर्मोंके प्रयोग बताये गये हैं, वे प्रायः सकामभावसे युक्त हैं। जो इन कामनाओंसे मुक्त होता है, वही परमात्माको पा सकता है। नाना प्रकारके कर्ममार्गमें सुखकी इच्छा रखकर प्रवृत्त होनेवाला मनुष्य परमात्माको प्राप्त नहीं होता॥१२॥

मूलम् (वचनम्)

बृहस्पतिरुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

इष्टं त्वनिष्टं च सुखासुखे च
साशीस्त्ववच्छन्दति कर्मभिश्च ।

मूलम्

इष्टं त्वनिष्टं च सुखासुखे च
साशीस्त्ववच्छन्दति कर्मभिश्च ।

अनुवाद (हिन्दी)

बृहस्पतिने कहा— भगवन्! सुख सबको अभीष्ट होता है और दुःख किसीको भी प्रिय नहीं होता। इष्टकी प्राप्ति और अनिष्टके निवारणके लिये जो कामना होती है, वही मनुष्योंसे कर्म करवाती है और उन कर्मोंद्वारा उनका मनोरथ पूर्ण करती है; अतः कामनाको आप त्याज्य कैसे बताते हैं?॥१२॥

मूलम् (वचनम्)

मनुरुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एभिर्विमुक्तः परमाविवेश
एतत् कृते कर्मविधिः प्रवृत्तः।
कामात्मकांश्छन्दति कर्मयोग
एभिर्विमुक्तः परमाददीत ॥ १३ ॥

मूलम्

एभिर्विमुक्तः परमाविवेश
एतत् कृते कर्मविधिः प्रवृत्तः।
कामात्मकांश्छन्दति कर्मयोग
एभिर्विमुक्तः परमाददीत ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मनुने कहा— मनुष्य इन कामनाओंसे मुक्त हो निष्काम-भावसे कर्मोंका अनुष्ठान करके परब्रह्म परमात्माको प्राप्त करे, इसी उद्देश्यसे कर्मोंका विधान किया है, वेदमें स्वर्ग आदिकी कामनासे जो योगादि कर्मोंका विधान किया गया है, वह उन्हीं मनुष्योंको अपने जालमें फँसाता है, जिनका मन भोगोंमें आसक्त है। वास्तवमें इन कामनाओंसे दूर रहकर परमात्माको ही प्राप्त करनेका प्रयत्न करे (भगवत्प्राप्तिके लिये ही कर्म करे, क्षुद्र भोगोंके लिये नहीं)॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आत्मादिभिः कर्मभिरिध्यमानो
धर्मे प्रवृत्तो द्युतिमान् सुखार्थी।
परं हि तत् कर्मपथादपेतं
निराशिषं ब्रह्मपरं ह्यवैति ॥ १४ ॥

मूलम्

आत्मादिभिः कर्मभिरिध्यमानो
धर्मे प्रवृत्तो द्युतिमान् सुखार्थी।
परं हि तत् कर्मपथादपेतं
निराशिषं ब्रह्मपरं ह्यवैति ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब मन नित्य कर्मोंके अनुष्ठानसे राग आदि दोषोंको दूर करके दर्पणकी भाँति स्वच्छ एवं दीप्तिमान् हो जाता है, तब वह द्युतिमान् (सदसद्-विवेकके प्रकाशसे युक्त) और नित्य सुखका अभिलाषी (मुमुक्षु) होकर निर्वाणभावसे धर्ममें प्रवृत्त होता है एवं कर्ममार्गसे अतीत तथा कामनाओंसे रहित परब्रह्म परमात्माका साक्षात्कार कर लेता है॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रजाः सृष्टा मनसा कर्मणा च
द्वावेवैतौ सत्पथौ लोकजुष्टौ ।
दृष्टं कर्म शाश्वतं चान्तवच्च
मनस्त्यागः कारणं नान्यदस्ति ॥ १५ ॥

मूलम्

प्रजाः सृष्टा मनसा कर्मणा च
द्वावेवैतौ सत्पथौ लोकजुष्टौ ।
दृष्टं कर्म शाश्वतं चान्तवच्च
मनस्त्यागः कारणं नान्यदस्ति ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्रह्माजीने मन और कर्म—इन दोनोंके सहित प्रजाकी सृष्टि की है; अतः ये दोनों लोकसेवित सन्मार्गरूप हैं। कर्म दो प्रकारका देखा गया है—एक सनातन और दूसरा विनाशशील, (मोक्षका हेतुभूत कर्म सनातन है और नश्वर भोगोंकी प्राप्ति करानेवाला नाशवान् है) मनके द्वारा किये जानेवाले फलकी इच्छाका त्याग ही कर्मोंको सनातन बनाने और उनके द्वारा परब्रह्मकी प्राप्ति करानेमें कारण है, दूसरा कुछ नहीं॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्वेनात्मना चक्षुरिव प्रणेता
निशात्यये तमसा संवृतात्मा ।
ज्ञानं तु विज्ञानगुणेन युक्तं
कर्माशुभं पश्यति वर्जनीयम् ॥ १६ ॥

मूलम्

स्वेनात्मना चक्षुरिव प्रणेता
निशात्यये तमसा संवृतात्मा ।
ज्ञानं तु विज्ञानगुणेन युक्तं
कर्माशुभं पश्यति वर्जनीयम् ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब रात बीत जाती है और अन्धकारका आवरण हट जाता है, उस समय जैसे चलनेमें प्रवृत्त करनेवाला नेत्र अपने तैजस् स्वरूपसे युक्त हो रास्तेमें पड़े हुए त्यागने योग्य काँटे आदिको देखते हैं, उसी प्रकार बुद्धि भी मोहका पर्दा हट जानेपर ज्ञानके प्रकाशसे युक्त हो त्यागने योग्य अशुभ कर्मको देखती है॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्पान् कुशाग्राणि तथोदपानं
ज्ञात्वा मनुष्याः परिवर्जयन्ति ।
अज्ञानतस्तत्र पतन्ति केचि-
ज्ज्ञाने फलं पश्य यथा विशिष्टम् ॥ १७ ॥

मूलम्

सर्पान् कुशाग्राणि तथोदपानं
ज्ञात्वा मनुष्याः परिवर्जयन्ति ।
अज्ञानतस्तत्र पतन्ति केचि-
ज्ज्ञाने फलं पश्य यथा विशिष्टम् ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मनुष्य जब जान लेते हैं कि रास्तेमें सर्प है, कुशोंके काँटे हैं और कुएँ हैं, तब उनसे बचकर निकलते हैं। जो नहीं जानते हैं, ऐसे कितने ही पुरुष उन्हींपर गिर पड़ते हैं। अतः ज्ञानका जो विशिष्ट फल है, उसे तुम प्रत्यक्ष देख लो॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कृत्स्नस्तु मन्त्रो विधिवत् प्रयुक्तो
यथा यथोक्तास्त्विह दक्षिणाश्च ।
अन्नप्रदानं मनसः समाधिः
पञ्चात्मकं कर्मफलं वदन्ति ॥ १८ ॥

मूलम्

कृत्स्नस्तु मन्त्रो विधिवत् प्रयुक्तो
यथा यथोक्तास्त्विह दक्षिणाश्च ।
अन्नप्रदानं मनसः समाधिः
पञ्चात्मकं कर्मफलं वदन्ति ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

विधिपूर्वक सम्पूर्ण मन्त्रोंका उच्चारण, वेदोक्त विधानके अनुसार यज्ञोंका अनुष्ठान, यथायोग्य दक्षिणा, अन्नका दान और मनकी एकाग्रता—इन पाँच अंगोंसे सम्पन्न होनेपर ही यज्ञ-कर्मका पूरा-पूरा फल प्राप्त होता है, ऐसा विद्वान् पुरुष कहते हैं॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुणात्मकं कर्म वदन्ति वेदा-
स्तस्मान्मन्त्रो मन्त्रपूर्वं हि कर्म।
विधिर्विधेयं मनसोपपत्तिः
फलस्य भोक्ता तु तथा शरीरी ॥ १९ ॥

मूलम्

गुणात्मकं कर्म वदन्ति वेदा-
स्तस्मान्मन्त्रो मन्त्रपूर्वं हि कर्म।
विधिर्विधेयं मनसोपपत्तिः
फलस्य भोक्ता तु तथा शरीरी ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वेदोंका कहना है कि कर्म त्रिगुणात्मक होते हैं अर्थात् सात्त्विक, राजस और तामस भेदसे तीन प्रकारके होते हैं; इसीलिये मन्त्र भी सात्त्विक आदि भेदसे तीन प्रकारके ही होते हैं; क्योंकि मन्त्रोच्चारणपूर्वक ही कर्मका अनुष्ठान किया जाता है। इसी तरह उन कर्मोंकी विधि, विधेय (उनके लिये किया जानेवाला कार्य), मनके द्वारा अभीष्ट फलकी सिद्धि और उसका भोक्ता देहाभिमानी जीव—ये सभी तीन-तीन प्रकारके होते हैं॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शब्दाश्च रूपाणि रसाश्च पुण्याः
स्पर्शाश्च गन्धाश्च शुभास्तथैव ।
नरो न संस्थानगतः प्रभुः स्या-
देतत् फलं सिद्ध्यति कर्मलोके ॥ २० ॥

मूलम्

शब्दाश्च रूपाणि रसाश्च पुण्याः
स्पर्शाश्च गन्धाश्च शुभास्तथैव ।
नरो न संस्थानगतः प्रभुः स्या-
देतत् फलं सिद्ध्यति कर्मलोके ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शब्द, रूप, पवित्र रस, सुखद स्पर्श और सुन्दर गन्ध—ये ही कर्मोंके फल हैं; किंतु इस शरीरमें स्थित हुआ मनुष्य इन फलोंको प्राप्त करनेमें समर्थ नहीं है। कर्मोंके फलकी प्राप्ति जो उनका फल भोगनेके लिये प्राप्त शरीरमें होती है, वह दैवाधीन है॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यद् यच्छरीरेण करोति कर्म
शरीरयुक्तः समुपाश्नुते तत् ।
शरीरमेवायतनं सुखस्य
दुःखस्य चाप्यायतनं शरीरम् ॥ २१ ॥

मूलम्

यद् यच्छरीरेण करोति कर्म
शरीरयुक्तः समुपाश्नुते तत् ।
शरीरमेवायतनं सुखस्य
दुःखस्य चाप्यायतनं शरीरम् ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जीव शरीरसे जो-जो अशुभ या शुभ कर्म करता है, शरीरसे युक्त हुआ ही उसके फलोंको भोगता है; क्योंकि शरीर ही सुख और दुःख भोगनेका स्थान है॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वाचा तु यत् कर्म करोति किंचिद्
वाचैव सर्वं समुपाश्नुते तत्।
मनस्तु यत् कर्म करोति किञ्चि-
न्मनःस्थ एवायमुपाश्नुते तत् ॥ २२ ॥

मूलम्

वाचा तु यत् कर्म करोति किंचिद्
वाचैव सर्वं समुपाश्नुते तत्।
मनस्तु यत् कर्म करोति किञ्चि-
न्मनःस्थ एवायमुपाश्नुते तत् ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मनुष्य वाणीद्वारा जो कोई कर्म करता है, उसका सारा फल वह वाणीद्वारा ही भोगता है और मनसे जो कुछ कर्म करता है, उसका फल यह जीवात्मा मनके साथ हुआ मनसे ही भोगता है॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथा यथा कर्मगुणं फलार्थी
करोत्ययं कर्मफले निविष्टः ।
तथा तथायं गुणसम्प्रयुक्तः
शुभाशुभं कर्मफलं भुनक्ति ॥ २३ ॥

मूलम्

यथा यथा कर्मगुणं फलार्थी
करोत्ययं कर्मफले निविष्टः ।
तथा तथायं गुणसम्प्रयुक्तः
शुभाशुभं कर्मफलं भुनक्ति ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

फलकी इच्छा रखनेवाला मनुष्य कर्मके फलमें आसक्त हो जैसे-जैसे गुणवाला—सात्त्विक, राजस या तामस कर्म करता है, वैसे-ही-वैसे गुणोंसे प्रेरित होकर इसे उस कर्मका शुभाशुभ फल भोगना पड़ता है॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मत्स्यो यथा स्रोत इवाभिपाती
तथा कृतं पूर्वमुपैति कर्म।
शुभे त्वसौ तुष्यति दुष्कृते तु
न तुष्यते वै परमः शरीरी ॥ २४ ॥

मूलम्

मत्स्यो यथा स्रोत इवाभिपाती
तथा कृतं पूर्वमुपैति कर्म।
शुभे त्वसौ तुष्यति दुष्कृते तु
न तुष्यते वै परमः शरीरी ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे मछली जलके बहावके साथ बह जाती है, उसी प्रकार मनुष्य पहिलेके किये हुए कर्मका अनुसरण करता है। उसे उस कर्मप्रवाहमें बहना पड़ता है; परंतु उस दशामें वह श्रेष्ठ देहधारी जीव शुभ फल मिलनेपर तो संतुष्ट होता है और अशुभ फल प्राप्त होनेपर दुखी हो जाता है (यह उसकी मूढता ही तो है)॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यतो जगत् सर्वमिदं प्रसूतं
ज्ञात्वाऽऽत्मवन्तो व्यतियान्ति यत्‌ तत्।
यन्मन्त्रशब्दैरकृतप्रकाशं
तदुच्यमानं शृणु मे परं यत् ॥ २५ ॥

मूलम्

यतो जगत् सर्वमिदं प्रसूतं
ज्ञात्वाऽऽत्मवन्तो व्यतियान्ति यत्‌ तत्।
यन्मन्त्रशब्दैरकृतप्रकाशं
तदुच्यमानं शृणु मे परं यत् ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिससे इस सम्पूर्ण जगत्‌की उत्पत्ति हुई है, जिसे जानकर मनको वशमें रखनेवाले ज्ञानी पुरुष इस संसारको लाँघकर परमपद प्राप्त कर लेते हैं तथा वेदके मन्त्रवाक्योंद्वारा जिसका तात्त्विक स्वरूप पूर्णतः प्रकाशमें नहीं आता, उस सर्वोत्कृष्ट वस्तुका मैं वर्णन करता हूँ, सुनो॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रसैर्विमुक्तं विविधैश्च गन्धै-
रशब्दमस्पर्शमरूपवच्च ।
अग्राह्यमव्यक्तमवर्णमेकं
पञ्चप्रकारान् ससृजे प्रजानाम् ॥ २६ ॥

मूलम्

रसैर्विमुक्तं विविधैश्च गन्धै-
रशब्दमस्पर्शमरूपवच्च ।
अग्राह्यमव्यक्तमवर्णमेकं
पञ्चप्रकारान् ससृजे प्रजानाम् ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह अनिर्वचनीय वस्तु नाना प्रकारके रस और भाँति-भाँतिके गन्धोंसे रहित है। शब्द, स्पर्श एवं रूपसे भी शून्य है। मन, बुद्धि और वाणीद्वारा भी उसका ग्रहण नहीं हो सकता। वह अव्यक्त, अद्वितीय तथा रूप-रंगसे रहित है तथापि उसीने प्रजाओंके लिये रूप, रस आदि पाँचों विषयोंकी सृष्टि की है॥२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न स्त्री पुमान् नापि नपुंसकं च
न सन्न चासत् सदसच्च तन्न।
पश्यन्ति यद् ब्रह्मविदो मनुष्या-
स्तदक्षरं न क्षरतीति विद्धि ॥ २७ ॥

मूलम्

न स्त्री पुमान् नापि नपुंसकं च
न सन्न चासत् सदसच्च तन्न।
पश्यन्ति यद् ब्रह्मविदो मनुष्या-
स्तदक्षरं न क्षरतीति विद्धि ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह न तो स्त्री है, न पुरुष है और न नपुंसक ही है। न सत् है, न असत् है और न सदसत् उभयरूप ही है। ब्रह्मज्ञानी पुरुष ही उसका साक्षात्कार करते हैं। उसका कभी क्षय नहीं होता; इसलिये वह अविनाशी परब्रह्म परमात्मा अक्षर कहलाता है, इस बातको अच्छी तरह समझ लो॥२७॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि मनुबृहस्पतिसंवादे एकाधिकद्विशततमोऽध्यायः ॥ २०१ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें मनु और बृहस्पतिका संवादविषयक दो सौ एकवाँ अध्याय पूरा हुआ॥२०१॥