भागसूचना
द्विशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
जापक ब्राह्मण और राजा इक्ष्वाकुकी उत्तम गतिका वर्णन तथा जापकको मिलनेवाले फलकी उत्कृष्टता
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
किमुत्तरं तदा तौ स्म चक्रतुस्तस्य भाषिते।
ब्राह्मणो वाथवा राजा तन्मे ब्रूहि पितामह ॥ १ ॥
मूलम्
किमुत्तरं तदा तौ स्म चक्रतुस्तस्य भाषिते।
ब्राह्मणो वाथवा राजा तन्मे ब्रूहि पितामह ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिरने पूछा— पितामह! उस समय विरूपके पूर्वोक्त वचन कहनेपर ब्राह्मण और राजा इक्ष्वाकु उन दोनोंने उसे क्या उत्तर दिया, यह मुझे बताइये॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथवा तौ गतौ तत्र यदेतत् कीर्तितं त्वया।
संवादो वा तयोः कोऽभूत् किं वा तौ तत्र चक्रतुः॥२॥
मूलम्
अथवा तौ गतौ तत्र यदेतत् कीर्तितं त्वया।
संवादो वा तयोः कोऽभूत् किं वा तौ तत्र चक्रतुः॥२॥
अनुवाद (हिन्दी)
तथा आपने जो यह सद्योमुक्ति, क्रममुक्ति और लोकान्तरकी प्राप्तिरूप तीन प्रकारकी गति बतायी है, उनमेंसे वे दोनों किस गतिको प्राप्त हुए? उस समय उन दोनोंमें क्या बातचीत हुई और उन्होंने क्या किया?॥२॥
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथेत्येवं प्रतिश्रुत्य धर्मं सम्पूज्य च प्रभो।
यमं कालं च मृत्युं च स्वर्गं सम्पूज्य चार्हतः॥३॥
पूर्वं ये चापरे तत्र समेता ब्राह्मणर्षभाः।
सर्वान् सम्पूज्य शिरसा राजानं सोऽब्रवीद् द्विजः ॥ ४ ॥
मूलम्
तथेत्येवं प्रतिश्रुत्य धर्मं सम्पूज्य च प्रभो।
यमं कालं च मृत्युं च स्वर्गं सम्पूज्य चार्हतः॥३॥
पूर्वं ये चापरे तत्र समेता ब्राह्मणर्षभाः।
सर्वान् सम्पूज्य शिरसा राजानं सोऽब्रवीद् द्विजः ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजीने कहा— प्रभो! तब ‘बहुत अच्छा’ कहकर ब्राह्मणने धर्म, यम, काल, मृत्यु और स्वर्ग—इन सभी पूजनीय देवताओंका पूजन किया। वहाँ पहलेसे जो ब्राह्मण मौजूद थे और दूसरे भी जो श्रेष्ठ ब्राह्मण वहाँ पधारे थे, उन सबके चरणोंमें सिर झुकाकर सबकी यथोचित पूजा करके ब्राह्मणने राजासे कहा—॥३-४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
फलेनानेन संयुक्तो राजर्षे गच्छ मुख्यताम्।
भवता चाभ्यनुज्ञातो जपेयं भूय एव ह ॥ ५ ॥
मूलम्
फलेनानेन संयुक्तो राजर्षे गच्छ मुख्यताम्।
भवता चाभ्यनुज्ञातो जपेयं भूय एव ह ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘राजर्षे! इस फलसे संयुक्त होकर आप श्रेष्ठ गतिको प्राप्त कीजिये और आपकी आज्ञा लेकर मैं फिर जपमें लग जाऊँगा॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वरश्च मम पूर्वं हि दत्तो देव्या महाबल।
श्रद्धा ते जपतो नित्यं भवत्विति विशाम्पते ॥ ६ ॥
मूलम्
वरश्च मम पूर्वं हि दत्तो देव्या महाबल।
श्रद्धा ते जपतो नित्यं भवत्विति विशाम्पते ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘महाबली प्रजानाथ! मुझे देवी सावित्रीने वर दिया है कि जपमें तुम्हारी नित्य श्रद्धा बनी रहेगी’॥६॥
मूलम् (वचनम्)
राजोवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
यद्येवमफला सिद्धिः श्रद्धा च जपितुं तव।
गच्छ विप्र मया सार्धं जापकं फलमाप्नुहि ॥ ७ ॥
मूलम्
यद्येवमफला सिद्धिः श्रद्धा च जपितुं तव।
गच्छ विप्र मया सार्धं जापकं फलमाप्नुहि ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजाने कहा— विप्रवर! यदि इस प्रकार मुझे फल समर्पण करनेके कारण आपको फलकी प्राप्ति नहीं हो रही है और पुनः जप करनेमें ही आपकी श्रद्धा होती है तो आप मेरे साथ ही चलें और जप-दानजनित फलको प्राप्त करें॥७॥
मूलम् (वचनम्)
ब्राह्मण उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृतः प्रयत्नः सुमहान् सर्वेषां संनिधाविह।
सह तुल्यफलावावं गच्छावो यत्र नौ गतिः ॥ ८ ॥
मूलम्
कृतः प्रयत्नः सुमहान् सर्वेषां संनिधाविह।
सह तुल्यफलावावं गच्छावो यत्र नौ गतिः ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्राह्मणने कहा— राजन्! मैंने यहाँ सबके समीप आपको अपने जपका फल देनेके लिये महान् प्रयत्न किया है; फिर भी आपका आग्रह साथ-साथ फलका उपभोग करनेका रहा है; अतः हम दोनों समान फलके ही भागी हों। चलिये, जहाँतक हम दोनोंकी गति हो सके, साथ-साथ चलें॥८॥
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
व्यवसायं तयोस्तत्र विदित्वा त्रिदशेश्वरः।
सह देवैरुपययौ लोकपालैस्तथैव च ॥ ९ ॥
साध्याश्च विश्वे मरुतो वाद्यानि सुमहान्ति च।
नद्यः शैलाः समुद्राश्च तीर्थानि विविधानि च ॥ १० ॥
तपांसि संयोगविधिर्वेदाः स्तोभाः सरस्वती।
नारदः पर्वतश्चैव विश्वावसुर्हहाहुहूः ॥ ११ ॥
गन्धर्वश्चित्रसेनश्च परिवारगणैर्युतः ।
नागाः सिद्धाश्च मुनयो देवदेवः प्रजापतिः ॥ १२ ॥
विष्णुः सहस्रशीर्षश्च देवोऽचिन्त्यः समागमत्।
अवाद्यन्तान्तरिक्षे च भेर्यस्तूर्याणि वा विभो ॥ १३ ॥
मूलम्
व्यवसायं तयोस्तत्र विदित्वा त्रिदशेश्वरः।
सह देवैरुपययौ लोकपालैस्तथैव च ॥ ९ ॥
साध्याश्च विश्वे मरुतो वाद्यानि सुमहान्ति च।
नद्यः शैलाः समुद्राश्च तीर्थानि विविधानि च ॥ १० ॥
तपांसि संयोगविधिर्वेदाः स्तोभाः सरस्वती।
नारदः पर्वतश्चैव विश्वावसुर्हहाहुहूः ॥ ११ ॥
गन्धर्वश्चित्रसेनश्च परिवारगणैर्युतः ।
नागाः सिद्धाश्च मुनयो देवदेवः प्रजापतिः ॥ १२ ॥
विष्णुः सहस्रशीर्षश्च देवोऽचिन्त्यः समागमत्।
अवाद्यन्तान्तरिक्षे च भेर्यस्तूर्याणि वा विभो ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजी कहते हैं— राजन्! उन दोनोंका वहाँ ऐसा निश्चय जानकर सम्पूर्ण देवताओं तथा लोकपालोंके साथ देवराज इन्द्र उस स्थानपर आये। उनके साथ साध्यगण, विश्वेदेवगण और मरुद्गण भी थे। बड़े-बड़े वाद्य बज रहे थे। नदियाँ, पर्वत, समुद्र, नाना प्रकारके तीर्थ, तपस्या, संयोगविधि, वेद, स्तोभ (साम-गानकी पूर्तिके लिये बोले जानेवाले अक्षर हाई हावु इत्यादि), सरस्वती, नारद, पर्वत, विश्वावसु, हाहा, हूहू, परिवारसहित चित्रसेन गन्धर्व, नाग, सिद्ध, मुनि, देवाधिदेव प्रजापति ब्रह्मा, सहस्रों मस्तकवाले शेषनाग तथा अचिन्त्य देव भगवान् विष्णु भी वहाँ पधारे। प्रभो! उस समय आकाशमें भेरियाँ और तुरही आदि बाजे बज रहे थे॥९—१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुष्पवर्षाणि दिव्यानि तत्र तेषां महात्मनाम्।
ननृतुश्चाप्सरः संघास्तत्र तत्र समन्ततः ॥ १४ ॥
मूलम्
पुष्पवर्षाणि दिव्यानि तत्र तेषां महात्मनाम्।
ननृतुश्चाप्सरः संघास्तत्र तत्र समन्ततः ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वहाँ उन महात्माओंपर दिव्य फूलोंकी वर्षा होने लगी। झुंडकी झुंड अप्सराएँ सब ओर नृत्य करने लगीं॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथ स्वर्गस्तथा रूपी ब्राह्मणं वाक्यमब्रवीत्।
संसिद्धस्त्वं महाभाग त्वं च सिद्धस्तथा नृप ॥ १५ ॥
मूलम्
अथ स्वर्गस्तथा रूपी ब्राह्मणं वाक्यमब्रवीत्।
संसिद्धस्त्वं महाभाग त्वं च सिद्धस्तथा नृप ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर मूर्तिमान् स्वर्गने ब्राह्मणसे कहा—‘महाभाग! तुम सिद्ध हो गये।’ फिर राजासे कहा—‘नरेश्वर! तुम भी सिद्ध हो गये’॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथ तौ सहितौ राजन्नन्योन्यविधिना ततः।
विषयप्रतिसंहारमुभावेव प्रचक्रतुः ॥ १६ ॥
मूलम्
अथ तौ सहितौ राजन्नन्योन्यविधिना ततः।
विषयप्रतिसंहारमुभावेव प्रचक्रतुः ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! तदनन्तर वे दोनों एक-दूसरेका उपकार करते हुए एक साथ हो गये। उन्होंने एक ही साथ अपने मनको विषयोंकी ओरसे हटा लिया॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्राणापानौ तथोदानं समानं व्यानमेव च।
एवं तौ मनसि स्थाप्य दधतुः प्राणयोर्मनः ॥ १७ ॥
उपस्थितकृतौ तौ च नासिकाग्रमधो भ्रुवोः।
भ्रुकुट्या चैव मनसा शनैर्धारयतस्तदा ॥ १८ ॥
मूलम्
प्राणापानौ तथोदानं समानं व्यानमेव च।
एवं तौ मनसि स्थाप्य दधतुः प्राणयोर्मनः ॥ १७ ॥
उपस्थितकृतौ तौ च नासिकाग्रमधो भ्रुवोः।
भ्रुकुट्या चैव मनसा शनैर्धारयतस्तदा ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर प्राण, अपान, उदान, समान और व्यान—इन पाँचों प्राण-वायुओंको हृदयमें स्थापित किया; इस प्रकार स्थित हुए उन दोनोंने मनको प्राण और अपानके साथ मिला दिया। भौहोंके नीचे नासिकाके अग्रभागपर दृष्टि रखते हुए मनसहित प्राण-अपानको उन्होंने दोनों भौहोंके बीच स्थिर किया॥१७-१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निश्चेष्टाभ्यां शरीराभ्यां स्थिरदृष्टी समाहितौ।
जितात्मानौ तथाऽऽधाय मूर्धन्यात्मानमेव च ॥ १९ ॥
मूलम्
निश्चेष्टाभ्यां शरीराभ्यां स्थिरदृष्टी समाहितौ।
जितात्मानौ तथाऽऽधाय मूर्धन्यात्मानमेव च ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार मनको जीतकर दृष्टिको एकाग्र करके उन दोनोंने प्राणसहित मनको सुषुम्णा मार्गद्वारा मूर्धामें स्थापित कर दिया। फिर वे दोनों समाधिमें स्थित हो गये। उस समय उन दोनोंके शरीर जड़की भाँति चेष्टाहीन हो गये॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तालुदेशमथोद्दाल्य ब्राह्मणस्य महात्मनः ।
ज्योतिर्ज्वाला सुमहती जगाम त्रिदिवं तदा ॥ २० ॥
मूलम्
तालुदेशमथोद्दाल्य ब्राह्मणस्य महात्मनः ।
ज्योतिर्ज्वाला सुमहती जगाम त्रिदिवं तदा ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसी समय महात्मा ब्राह्मणके तालुदेश (ब्रह्म-रन्ध्र) का भेदन करके एक ज्योतिर्मयी विशाल ज्वाला निकली और स्वर्गकी ओर चल दी॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हाहाकारस्तथा दिक्षु सर्वेषां सुमहानभूत्।
तज्ज्योतिः स्तूयमानं स्म ब्रह्माणं प्राविशत् तदा ॥ २१ ॥
ततः स्वागतमित्याह तत् तेजः प्रपितामहः।
प्रादेशमात्रं पुरुषं प्रत्युद्गम्य विशाम्पते ॥ २२ ॥
मूलम्
हाहाकारस्तथा दिक्षु सर्वेषां सुमहानभूत्।
तज्ज्योतिः स्तूयमानं स्म ब्रह्माणं प्राविशत् तदा ॥ २१ ॥
ततः स्वागतमित्याह तत् तेजः प्रपितामहः।
प्रादेशमात्रं पुरुषं प्रत्युद्गम्य विशाम्पते ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
फिर तो सम्पूर्ण दिशाओंमें महान् कोलाहल मच गया। उस ज्योतिकी सभी लोग स्तुति करने लगे। प्रजानाथ! प्रादेशके बराबर लंबे पुरुषका आकार धारण किये वह तेजःपुंज ब्रह्माजीके पास पहुँचा, तब ब्रह्माजीने आगे बढ़कर उसका स्वागत किया॥२१-२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भूयश्चैवापरं प्राह वचनं मधुरं तदा।
जापकैस्तुल्यफलता योगानां नात्र संशयः ॥ २३ ॥
मूलम्
भूयश्चैवापरं प्राह वचनं मधुरं तदा।
जापकैस्तुल्यफलता योगानां नात्र संशयः ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्रह्माजीने उस तेजोमय पुरुषका स्वागत करनेके पश्चात् पुनः उससे मधुर वाणीमें इस प्रकार कहा—‘विप्रवर! योगियोंको जो फल मिलता है, निस्संदेह वही फल जप करनेवालोंको भी प्राप्त होता है॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
योगस्य तावदेतेभ्यः प्रत्यक्षं फलदर्शनम्।
जापकानां विशिष्टं तु प्रत्युत्थानं समाहितम् ॥ २४ ॥
मूलम्
योगस्य तावदेतेभ्यः प्रत्यक्षं फलदर्शनम्।
जापकानां विशिष्टं तु प्रत्युत्थानं समाहितम् ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘योगियोंको जिस फलकी प्राप्ति होती है, वह इन सभासदोंने प्रत्यक्ष देखा है; किंतु जापकोंको उनसे भी श्रेष्ठ फल प्राप्त होता है, यह सूचित करनेके लिये ही मैंने उठकर तुम्हारा स्वागत किया है॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उष्यतां मयि चेत्युक्त्वा चेतयत् सततं पुनः।
अथास्यं प्रविवेशास्य ब्राह्मणो विगतज्वरः ॥ २५ ॥
मूलम्
उष्यतां मयि चेत्युक्त्वा चेतयत् सततं पुनः।
अथास्यं प्रविवेशास्य ब्राह्मणो विगतज्वरः ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘अब तुम मेरे भीतर सुखपूर्वक निवास करो।’ इतना कहकर ब्रह्माजीने उसे पुनः तत्त्वज्ञान प्रदान किया। आज्ञा पाकर वह ब्राह्मण-तेज रोग-शोकसे मुक्त हो ब्रह्माजीके मुखारविन्दमें प्रविष्ट हो गया॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
राजाप्येतेन विधिना भगवन्तं पितामहम्।
यथैव द्विजशार्दूलस्तथैव प्राविशत् तदा ॥ २६ ॥
मूलम्
राजाप्येतेन विधिना भगवन्तं पितामहम्।
यथैव द्विजशार्दूलस्तथैव प्राविशत् तदा ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजा इक्ष्वाकु भी उस श्रेष्ठ ब्राह्मणकी ही भाँति विधिपूर्वक भगवान् ब्रह्माजीके मुखारविन्दमें प्रविष्ट हो गये॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वयम्भुवमथो देवा अभिवाद्य ततोऽब्रुवन्।
जापकानां विशिष्टं तु प्रत्युत्थानं समाहितम् ॥ २७ ॥
मूलम्
स्वयम्भुवमथो देवा अभिवाद्य ततोऽब्रुवन्।
जापकानां विशिष्टं तु प्रत्युत्थानं समाहितम् ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर देवताओंने ब्रह्माजीको प्रणाम करके कहा—‘भगवन्! आपने जो आगे बढ़कर इस ब्राह्मणका स्वागत किया है, इससे सिद्ध हो गया कि जापकोंको योगियोंसे भी श्रेष्ठ फलकी प्राप्ति होती है॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जापकार्थमयं यत्नो यदर्थं वयमागताः।
कृतपूजाविमौ तुल्यौ त्वया तुल्यफलाविमौ ॥ २८ ॥
मूलम्
जापकार्थमयं यत्नो यदर्थं वयमागताः।
कृतपूजाविमौ तुल्यौ त्वया तुल्यफलाविमौ ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘इस जापक ब्राह्मणको सद्गति देनेके लिये ही आपने ऐसा उद्योग किया था। इसीको देखनेके लिये हमलोग भी आये थे। आपने इन दोनोंका समानरूपसे आदर किया और ये दोनों ही एक-सी स्थितिमें पहुँचकर आपके समान फलके भागी हुए हैं॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
योगजापकयोर्दृष्टं फलं सुमहदद्य वै।
सर्वाल्लोँकानतिक्रम्य गच्छेतां यत्र वाञ्छितम् ॥ २९ ॥
मूलम्
योगजापकयोर्दृष्टं फलं सुमहदद्य वै।
सर्वाल्लोँकानतिक्रम्य गच्छेतां यत्र वाञ्छितम् ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘आज हमलोगोंने योगी और जापकके महान् फलको प्रत्यक्ष देख लिया। वे सम्पूर्ण लोकोंको लाँघकर जहाँ उनकी इच्छा हो, जा सकते हैं’॥२९॥
मूलम् (वचनम्)
ब्रह्मोवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
महास्मृतिं पठेद् यस्तु तथैवानुस्मृतिं शुभाम्।
तावप्येतेन विधिना गच्छेतां मत्सलोकताम् ॥ ३० ॥
यश्च योगे भवेद् भक्तः सोऽपि नास्त्यत्र संशयः।
विधिनानेन देहान्ते मम लोकानवाप्नुयात्।
साधये गम्यतां चैव यथास्थानानि सिद्धये ॥ ३१ ॥
मूलम्
महास्मृतिं पठेद् यस्तु तथैवानुस्मृतिं शुभाम्।
तावप्येतेन विधिना गच्छेतां मत्सलोकताम् ॥ ३० ॥
यश्च योगे भवेद् भक्तः सोऽपि नास्त्यत्र संशयः।
विधिनानेन देहान्ते मम लोकानवाप्नुयात्।
साधये गम्यतां चैव यथास्थानानि सिद्धये ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्रह्माजीने कहा— देवताओ! जो महास्मृति तथा कल्याणमयी अनुस्मृतिका पाठ करता है, वह भी इसी विधिसे मेरा सालोक्य प्राप्त कर लेता है। जो योगका भक्त है, वह भी देहत्यागके पश्चात् इसी विधिसे मेरे लोकोंको प्राप्त कर लेता है, इसमें संशय नहीं है। अब तुम सब लोग अपनी अभीष्ट-सिद्धिके लिये अपने-अपने स्थानको जाओ। मैं तुम लोगोंका अभीष्ट साधन करता रहूँगा॥३०-३१॥
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्युक्त्वा स तदा देवस्तत्रैवान्तरधीयत।
आमन्त्र्य च ततो देवा ययुः स्वं स्वं निवेशनम्॥३२॥
मूलम्
इत्युक्त्वा स तदा देवस्तत्रैवान्तरधीयत।
आमन्त्र्य च ततो देवा ययुः स्वं स्वं निवेशनम्॥३२॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजी कहते हैं— राजन्! ऐसा कहकर ब्रह्माजी वहीं अन्तर्धान हो गये। देवता भी उनकी आज्ञा पाकर अपने-अपने स्थानको चले गये॥३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ते च सर्वे महात्मानो धर्मं सत्कृत्य तत्र वै।
पृष्ठतोऽनुययू राजन् सर्वे सुप्रीतचेतसः ॥ ३३ ॥
मूलम्
ते च सर्वे महात्मानो धर्मं सत्कृत्य तत्र वै।
पृष्ठतोऽनुययू राजन् सर्वे सुप्रीतचेतसः ॥ ३३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! फिर वे सभी महात्मा धर्मको सत्कार-पूर्वक आगे करके प्रसन्नचित्त हो पीछे-पीछे चल दिये॥३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतत् फलं जापकानां गतिश्चैषा प्रकीर्तिता।
यथाश्रुतं महाराज किं भूयः श्रोतुमिच्छसि ॥ ३४ ॥
मूलम्
एतत् फलं जापकानां गतिश्चैषा प्रकीर्तिता।
यथाश्रुतं महाराज किं भूयः श्रोतुमिच्छसि ॥ ३४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! मैंने जैसा सुना था, उसके अनुसार जापकोंको मिलनेवाले इस उत्तम फल और गतिका वर्णन किया। अब तुम और क्या सुनना चाहते हो?॥३४॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि जापकोपाख्याने द्विशततमोऽध्यायः ॥ २०० ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें जापकका उपाख्यानविषयक दो सौवाँ अध्याय पूरा हुआ॥२००॥