१९९ जापकोपाख्याने

भागसूचना

नवनवत्यधिकशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

जापकको सावित्रीका वरदान, उसके पास धर्म, यम और काल आदिका आगमन, राजा इक्ष्वाकु और जापक ब्राह्मणका संवाद, सत्यकी महिमा तथा जापककी परम गतिका वर्णन

मूलम् (वचनम्)

युधिष्ठिर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

कालमृत्युयमानां ते इक्ष्वाकोर्ब्राह्मणस्य च।
विवादो व्याहृतः पूर्वं तद् भवान् वक्तुमर्हति ॥ १ ॥

मूलम्

कालमृत्युयमानां ते इक्ष्वाकोर्ब्राह्मणस्य च।
विवादो व्याहृतः पूर्वं तद् भवान् वक्तुमर्हति ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिरने पूछा— पितामह! आपने काल, मृत्यु, यम, इक्ष्वाकु और ब्राह्मणके विवादकी पहले चर्चा की थी; अतः उसे बतानेकी कृपा करें॥१॥

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् ।
इक्ष्वाकोः सूर्यपुत्रस्य यद् वृत्तं ब्राह्मणस्य च ॥ २ ॥
कालस्य मृत्योश्च तथा यद् वृत्तं तन्निबोध मे।
यथा स तेषां संवादो यस्मिन् स्थानेऽपि चाभवत् ॥ ३ ॥

मूलम्

अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् ।
इक्ष्वाकोः सूर्यपुत्रस्य यद् वृत्तं ब्राह्मणस्य च ॥ २ ॥
कालस्य मृत्योश्च तथा यद् वृत्तं तन्निबोध मे।
यथा स तेषां संवादो यस्मिन् स्थानेऽपि चाभवत् ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजीने कहा— युधिष्ठिर! इसी प्रसंगमें उस प्राचीन इतिहासका उदाहरण दिया करते हैं, जिसमें राजा इक्ष्वाकु, सूर्यपुत्र यम, ब्राह्मण, काल और मृत्युके वृत्तान्तका उल्लेख है। जिस स्थानपर और जिस रूपमें उनका वह संवाद हुआ था, उसे बताता हूँ, मुझसे सुनो॥२-३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्राह्मणो जापकः कश्चिद् धर्मवृत्तो महायशाः।
षडङ्गविन्महाप्राज्ञः पैप्पलादिः स कौशिकः ॥ ४ ॥
तस्यापरोक्षं विज्ञानं षडङ्गेषु बभूव ह।
वेदेषु चैव निष्णातो हिमवत्पादसंश्रयः ॥ ५ ॥

मूलम्

ब्राह्मणो जापकः कश्चिद् धर्मवृत्तो महायशाः।
षडङ्गविन्महाप्राज्ञः पैप्पलादिः स कौशिकः ॥ ४ ॥
तस्यापरोक्षं विज्ञानं षडङ्गेषु बभूव ह।
वेदेषु चैव निष्णातो हिमवत्पादसंश्रयः ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कहते हैं कि हिमालय पर्वतके निकटवर्ती पहाड़ियोंपर एक महायशस्वी धर्मात्मा ब्राह्मण रहता था, जो वेदके छहों अंगोंका ज्ञाता, परम बुद्धिमान् तथा जपमें तत्पर रहनेवाला था। वह पिप्पलादका पुत्र था और कौशिक वंशमें उसका जन्म हुआ था। वेदके छहों अंगोंका विज्ञान उसे प्रत्यक्ष हो गया था, अतः वह वेदोंका पारंगत विद्वान् था॥४-५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोद्यं ब्राह्मं तपस्तेपे संहितां संयतो जपन्।
तस्य वर्षसहस्रं तु नियमेन तथा गतम् ॥ ६ ॥

मूलम्

सोद्यं ब्राह्मं तपस्तेपे संहितां संयतो जपन्।
तस्य वर्षसहस्रं तु नियमेन तथा गतम् ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह अर्थज्ञानपूर्वक संहिताका जप करता हुआ इन्द्रियोंको संयममें रखकर ब्राह्मणोचित तपस्या करने लगा। नियमपूर्वक जप-तप करते हुए उसके एक हजार वर्ष व्यतीत हो गये॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स देव्या दर्शितः साक्षात् प्रीतास्मीति तदा किल।
जप्यमावर्तयंस्तूष्णीं न स तां किञ्चिदब्रवीत् ॥ ७ ॥

मूलम्

स देव्या दर्शितः साक्षात् प्रीतास्मीति तदा किल।
जप्यमावर्तयंस्तूष्णीं न स तां किञ्चिदब्रवीत् ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कहते हैं, उसके उस जपसे प्रसन्न होकर देवी सावित्रीने उसे प्रत्यक्ष दर्शन दिया और कहा कि मैं तुझपर प्रसन्न हूँ। ब्राह्मण अपने जपनीय वेद-संहिताके गायत्रीमन्त्रकी आवृत्ति कर रहा था; इसलिये सावित्रीदेवीके आनेपर भी चुपचाप बैठा ही रह गया। उनसे कुछ न बोला॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्यानुकम्पया देवी प्रीता समभवत् तदा।
वेदमाता ततस्तस्य तज्जप्यं समपूजयत् ॥ ८ ॥

मूलम्

तस्यानुकम्पया देवी प्रीता समभवत् तदा।
वेदमाता ततस्तस्य तज्जप्यं समपूजयत् ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

देवी सावित्रीकी उसपर कृपा हो गयी थी; अतः वे उसके उस समयके व्यवहारसे भी प्रसन्न ही हुईं। वेदमाताने ब्राह्मणके उस नियमानुकूल जपकी मन-ही-मन प्रशंसा की॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

समाप्तजप्यस्तूत्थाय शिरसा पादयोस्तदा ।
पपात देव्या धर्मात्मा वचनं चेदमब्रवीत् ॥ ९ ॥

मूलम्

समाप्तजप्यस्तूत्थाय शिरसा पादयोस्तदा ।
पपात देव्या धर्मात्मा वचनं चेदमब्रवीत् ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब जप समाप्त हो गया, तब धर्मात्मा ब्राह्मणने उठकर देवी सावित्रीके चरणोंमें मस्तक रखकर साष्टांग प्रणाम किया और इस प्रकार कहा—॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दिष्ट्या देवि प्रसन्ना त्वं दर्शनं चागता मम।
यदि चापि प्रसन्नासि जप्ये मे रमतां मनः ॥ १० ॥

मूलम्

दिष्ट्या देवि प्रसन्ना त्वं दर्शनं चागता मम।
यदि चापि प्रसन्नासि जप्ये मे रमतां मनः ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘देवि! आज मेरा अहोभाग्य है कि आपने प्रसन्न होकर मुझे दर्शन दिया। यदि वास्तवमें आप मुझपर संतुष्ट हैं तो ऐसी कृपा कीजिये जिससे मेरा मन जपमें लगा रहे’॥१०॥

मूलम् (वचनम्)

सावित्र्युवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

किं प्रार्थयसि विप्रर्षे किं चेष्टं करवाणि ते।
प्रब्रूहि जपतां श्रेष्ठ सर्वं तत् ते भविष्यति ॥ ११ ॥

मूलम्

किं प्रार्थयसि विप्रर्षे किं चेष्टं करवाणि ते।
प्रब्रूहि जपतां श्रेष्ठ सर्वं तत् ते भविष्यति ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सावित्रीने कहा— ब्रह्मर्षे! तुम क्या चाहते हो? कौन-सी वस्तु तुम्हें अभीष्ट है? बताओ। मैं तुम्हारा मनोरथ पूर्ण करूँगी। जप करनेवालोंमें श्रेष्ठ ब्राह्मण! तुम अपनी अभिलाषा बताओ। तुम्हारी वह सारी इच्छा पूर्ण हो जायगी॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्युक्तः स तदा देव्या विप्रः प्रोवाच धर्मवित्।
जप्यं प्रति ममेच्छेयं वर्धत्विति पुनः पुनः ॥ १२ ॥
मनसश्च समाधिर्मे वर्धेताहरहः शुभे।

मूलम्

इत्युक्तः स तदा देव्या विप्रः प्रोवाच धर्मवित्।
जप्यं प्रति ममेच्छेयं वर्धत्विति पुनः पुनः ॥ १२ ॥
मनसश्च समाधिर्मे वर्धेताहरहः शुभे।

अनुवाद (हिन्दी)

सावित्रीदेवीके ऐसा कहनेपर वह धर्मात्मा ब्राह्मण बोला—‘शुभे! इस मन्त्रके जपमें मेरी यह इच्छा बराबर बढ़ती रहे और मेरे मनकी एकाग्रता भी प्रतिदिन बढ़े’॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत् तथेति ततो देवी मधुरं प्रत्यभाषत ॥ १३ ॥
इदं चैवापरं प्राह देवी तत्पियकाम्यया।
निरयं नैव याता त्वं यत्र याता द्विजर्षभाः ॥ १४ ॥
यास्यसि ब्रह्मणः स्थानमनिमित्तमनिन्दितम् ।
साधये भविता चैतद् यत्त्वयाहमिहार्थिता ॥ १५ ॥
नियतो जप चैकाग्रो धर्मस्त्वां समुपैष्यति।
कालो मृत्युर्यमश्चैव समायास्यन्ति तेऽन्तिकम् ॥ १६ ॥
भविता च विवादोऽत्र तव तेषां च धर्मतः।

मूलम्

तत् तथेति ततो देवी मधुरं प्रत्यभाषत ॥ १३ ॥
इदं चैवापरं प्राह देवी तत्पियकाम्यया।
निरयं नैव याता त्वं यत्र याता द्विजर्षभाः ॥ १४ ॥
यास्यसि ब्रह्मणः स्थानमनिमित्तमनिन्दितम् ।
साधये भविता चैतद् यत्त्वयाहमिहार्थिता ॥ १५ ॥
नियतो जप चैकाग्रो धर्मस्त्वां समुपैष्यति।
कालो मृत्युर्यमश्चैव समायास्यन्ति तेऽन्तिकम् ॥ १६ ॥
भविता च विवादोऽत्र तव तेषां च धर्मतः।

अनुवाद (हिन्दी)

तब सावित्रीदेवीने मधुर वाणीमें ‘तथास्तु’ कहा। इसके बाद देवीने ब्राह्मणका प्रिय करनेकी इच्छासे यह दूसरा वचन और कहा—‘विप्रवर! जहाँ दूसरे श्रेष्ठ ब्राह्मण गये हैं, उन स्वर्गादि निम्नश्रेणीके लोकोंमें तुम नहीं जाओगे। तुम्हें स्वभावसिद्ध एवं निर्दोष ब्रह्मपदकी प्राप्ति होगी। तुमने मुझसे जो यहाँ प्रार्थना की है, वह पूरी होगी। मैं उसे पूर्ण करनेकी चेष्टा करूँगी। तुम नियमपूर्वक एकाग्रचित्त होकर जप करो। धर्म स्वयं तुम्हारी सेवामें उपस्थित होगा। काल, मृत्यु और यम भी तुम्हारे निकट पधारेंगे, तुम्हारा उन सबके साथ यहाँ धर्मानुकूल वाद-विवाद भी होगा॥१३—१६॥

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमुक्त्वा भगवती जगाम भवनं स्वकम् ॥ १७ ॥
ब्राह्मणोऽपि जपन्नास्ते दिव्यं वर्षशतं तथा।

मूलम्

एवमुक्त्वा भगवती जगाम भवनं स्वकम् ॥ १७ ॥
ब्राह्मणोऽपि जपन्नास्ते दिव्यं वर्षशतं तथा।

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजी कहते हैं— राजन्! ऐसा कहकर भगवती सावित्री देवी अपने धामको चली गयीं और ब्राह्मण भी दिव्य सौ वर्षोंतक पूर्ववत् जपमें संलग्न रहा॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सदा दान्तो जितक्रोधः सत्यसंधोऽनसूयकः ॥ १८ ॥
समाप्ते नियमे तस्मिन्नथ विप्रस्य धीमतः।
साक्षात् प्रीतस्तदा धर्मो दर्शयामास तं द्विजम् ॥ १९ ॥

मूलम्

सदा दान्तो जितक्रोधः सत्यसंधोऽनसूयकः ॥ १८ ॥
समाप्ते नियमे तस्मिन्नथ विप्रस्य धीमतः।
साक्षात् प्रीतस्तदा धर्मो दर्शयामास तं द्विजम् ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह सदा मन और इन्द्रियोंको संयममें रखता था, क्रोधको जीत चुका था। अपनी की हुई प्रतिज्ञाका सचाईके साथ पालन करता था और किसीके दोष नहीं देखता था। बुद्धिमान् ब्राह्मणका वह नियम पूर्ण होनेपर साक्षात् भगवान् धर्म उस समय उसपर बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने उसे प्रत्यक्ष दर्शन दिया॥१८-१९॥

मूलम् (वचनम्)

धर्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

द्विजाते पश्य मां धर्ममहं त्वां द्रष्टुमागतः।
जप्यस्यास्य फलं यत्तत् सम्प्राप्तं तच्च मे शृणु ॥ २० ॥

मूलम्

द्विजाते पश्य मां धर्ममहं त्वां द्रष्टुमागतः।
जप्यस्यास्य फलं यत्तत् सम्प्राप्तं तच्च मे शृणु ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

धर्म बोले— विप्रवर! तुम मेरी ओर देखो। मैं धर्म हूँ और तुम्हारा दर्शन करनेके लिये आया हूँ। तुम्हें इस झपका जो फल प्राप्त हुआ है, वह सब मुझसे सुन लो॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिता लोकास्त्वया सर्वे ये दिव्या ये च मानुषाः।
देवानां निलयान् साधो सर्वानुत्क्रम्य यास्यसि ॥ २१ ॥

मूलम्

जिता लोकास्त्वया सर्वे ये दिव्या ये च मानुषाः।
देवानां निलयान् साधो सर्वानुत्क्रम्य यास्यसि ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तुमने दिव्य और मानुष सभी लोकोंपर विजय प्राप्त की है। साधो! तुम सम्पूर्ण देवताओंके लोकोंको लाँघकर उनसे भी ऊपर जाओगे॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्राणत्यागं कुरु मुने गच्छ लोकान् यथेप्सितान्।
त्यक्त्वाऽऽत्मनः शरीरं च ततो लोकानवाप्स्यसि ॥ २२ ॥

मूलम्

प्राणत्यागं कुरु मुने गच्छ लोकान् यथेप्सितान्।
त्यक्त्वाऽऽत्मनः शरीरं च ततो लोकानवाप्स्यसि ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मुने! अब तुम अपने प्राणोंका परित्याग करो और अभीष्ट लोकोंमें जाओ। अपने शरीरका परित्याग करनेके पश्चात् ही तुम उन पुण्यलोकोंमें जाओगे॥२२॥

मूलम् (वचनम्)

ब्राह्मण उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

किं नु लोकैर्हि मे धर्म गच्छ त्वं च यथासुखम्।
बहुदुःखसुखं देहं नोत्सृजेयमहं विभो ॥ २३ ॥

मूलम्

किं नु लोकैर्हि मे धर्म गच्छ त्वं च यथासुखम्।
बहुदुःखसुखं देहं नोत्सृजेयमहं विभो ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्राह्मणने कहा— धर्म! मुझे उन लोकोंको लेकर क्या करना है? आप सुखपूर्वक यहाँसे अपने स्थानको पधारिये। प्रभो! मैंने इस शरीरके साथ बहुत दुःख और सुख उठाया है; अतः इसका त्याग नहीं कर सकता॥२३॥

मूलम् (वचनम्)

धर्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अवश्यं भोः शरीरं ते त्यक्तव्यं मुनिपुङ्गव।
स्वर्गमारोह भो विप्र किं वा वै रोचतेऽनघ ॥ २४ ॥

मूलम्

अवश्यं भोः शरीरं ते त्यक्तव्यं मुनिपुङ्गव।
स्वर्गमारोह भो विप्र किं वा वै रोचतेऽनघ ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

धर्म बोले— निष्पाप मुनिश्रेष्ठ! शरीर तो तुम्हें अवश्य त्यागना पड़ेगा। विप्रवर! अब स्वर्गलोकपर आरूढ़ हो जाओ अथवा तुम्हारी क्या रुचि है? बताओ॥२४॥

मूलम् (वचनम्)

ब्राह्मण उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

न रोचये स्वर्गवासं विना देहमहं विभो।
गच्छ धर्म न मे श्रद्धा स्वर्गं गन्तुं विनाऽऽत्मना॥२५॥

मूलम्

न रोचये स्वर्गवासं विना देहमहं विभो।
गच्छ धर्म न मे श्रद्धा स्वर्गं गन्तुं विनाऽऽत्मना॥२५॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्राह्मणने कहा— प्रभो! मैं इस शरीरके बिना स्वर्गलोकमें निवास करना नहीं चाहता; अतः धर्मदेव! आप यहाँसे जाइये। इस शरीरको छोड़कर स्वर्गलोकमें जानेके लिये मेरे मनमें तनिक भी उत्साह नहीं है॥२५॥

मूलम् (वचनम्)

धर्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अलं देहे मनः कृत्वा त्यक्त्वा देहं सुखी भव।
गच्छ लोकानरजसो यत्र गत्वा न शोचसि ॥ २६ ॥

मूलम्

अलं देहे मनः कृत्वा त्यक्त्वा देहं सुखी भव।
गच्छ लोकानरजसो यत्र गत्वा न शोचसि ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

धर्म बोले— मुने! शरीरमें मनको आसक्त रखना ठीक नहीं है। तुम देह त्यागकर सुखी हो जाओ। उन रजोगुणरहित निर्मल लोकोंमें जाओ, जहाँ जाकर फिर तुम्हें शोक नहीं करना पड़ेगा॥२६॥

मूलम् (वचनम्)

ब्राह्मण उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

रमे जपन् महाभाग किं नु लोकैः सनातनैः।
सशरीरेण गन्तव्यं मया स्वर्गं न वा विभो ॥ २७ ॥

मूलम्

रमे जपन् महाभाग किं नु लोकैः सनातनैः।
सशरीरेण गन्तव्यं मया स्वर्गं न वा विभो ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्राह्मणने कहा— महाभाग! मैं तो जपमें ही सुख मानता हूँ। मुझे सनातन लोकोंको लेकर क्या करना है? भगवन्! यह बताइये, मैं सशरीर स्वर्गलोकमें जा सकता हूँ या नहीं?॥२७॥

मूलम् (वचनम्)

धर्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदि त्वं नेच्छसे त्यक्तुं शरीरं पश्य वै द्विज।
एष कालस्तथा मृत्युर्यमश्च त्वामुपागताः ॥ २८ ॥

मूलम्

यदि त्वं नेच्छसे त्यक्तुं शरीरं पश्य वै द्विज।
एष कालस्तथा मृत्युर्यमश्च त्वामुपागताः ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

धर्म बोले— ब्रह्मन्! यदि तुम शरीर छोड़ना नहीं चाहते हो तो देखो, ये काल, मृत्यु और यम तुम्हारे पास आये हैं॥२८॥

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथ वैवस्वतः कालो मृत्युश्च त्रितयं विभो।
ब्राह्मणं तं महाभागमुपगम्येदमब्रुवन् ॥ २९ ॥

मूलम्

अथ वैवस्वतः कालो मृत्युश्च त्रितयं विभो।
ब्राह्मणं तं महाभागमुपगम्येदमब्रुवन् ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजी कहते हैं— राजन्! तदनन्तर वैवस्वत यम, काल और मृत्यु—तीनों उस महाभाग ब्राह्मणके पास जाकर इस प्रकार बोले—॥२९॥

मूलम् (वचनम्)

यम उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

तपसोऽस्य सुतप्तस्य तथा सुचरितस्य च।
फलप्राप्तिस्तव श्रेष्ठा यमोऽहं त्वामुपब्रुवे ॥ ३० ॥

मूलम्

तपसोऽस्य सुतप्तस्य तथा सुचरितस्य च।
फलप्राप्तिस्तव श्रेष्ठा यमोऽहं त्वामुपब्रुवे ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यमराज बोले— ब्रह्मन्! तुम्हारेद्वारा भलीभाँति की हुई इस तपस्याका तथा शुभ आचरणोंका भी तुम्हें उत्तम फल प्राप्त हुआ है। मैं यमराज हूँ और स्वयं तुमसे यह बात कहता हूँ॥३०॥

मूलम् (वचनम्)

काल उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथावदस्य जप्यस्य फलं प्राप्तमनुत्तमम्।
कालस्ते स्वर्गमारोढुं कालोऽहं त्वामुपागतः ॥ ३१ ॥

मूलम्

यथावदस्य जप्यस्य फलं प्राप्तमनुत्तमम्।
कालस्ते स्वर्गमारोढुं कालोऽहं त्वामुपागतः ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कालने कहा— विप्रवर! तुम्हारे इस जपका यथायोग्य सर्वोत्तम फल प्राप्त हुआ है। अतः अब तुम्हारे लिये स्वर्गलोकमें जानेका समय आया है। यही सूचित करनेके लिये मैं साक्षात् काल तुम्हारे पास आया हूँ॥

मूलम् (वचनम्)

मृत्युरुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

मृत्युं मां विद्धि धर्मज्ञ रूपिणं स्वयमागतम्।
कालेन चोदितो विप्र त्वामितो नेतुमद्य वै ॥ ३२ ॥

मूलम्

मृत्युं मां विद्धि धर्मज्ञ रूपिणं स्वयमागतम्।
कालेन चोदितो विप्र त्वामितो नेतुमद्य वै ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मृत्युने कहा— धर्मज्ञ ब्राह्मण! मुझे मृत्यु समझो। मैं स्वयं ही शरीर धारण करके यहाँ आया हूँ। विप्रवर! मैं कालसे प्रेरित होकर आज तुम्हें यहाँसे ले जानेके लिये उपस्थित हुआ हूँ॥३२॥

मूलम् (वचनम्)

ब्राह्मण उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्वागतं सूर्यपुत्राय कालाय च महात्मने।
मृत्यवे चाथ धर्माय किं कार्यं करवाणि वः ॥ ३३ ॥

मूलम्

स्वागतं सूर्यपुत्राय कालाय च महात्मने।
मृत्यवे चाथ धर्माय किं कार्यं करवाणि वः ॥ ३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्राह्मणने कहा— सूर्यपुत्र यम, महामना काल, मृत्यु तथा धर्म—इन सबका स्वागत है। बताइये, मैं आपलोगोंका कौन-सा कार्य करूँ?॥३३॥

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अर्घ्यं पाद्यं च दत्त्वा स तेभ्यस्तत्र समागमे।
अब्रवीत् परमप्रीतः स्वशक्त्या किं करोमि वः ॥ ३४ ॥

मूलम्

अर्घ्यं पाद्यं च दत्त्वा स तेभ्यस्तत्र समागमे।
अब्रवीत् परमप्रीतः स्वशक्त्या किं करोमि वः ॥ ३४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजी कहते हैं— राजन्! वहाँ उन सबका समागम होनेपर ब्राह्मणने उनके लिये अर्घ्य और पाद्य देकर बड़ी प्रसन्नताके साथ कहा—‘देवताओ! मैं अपनी शक्तिके अनुसार आपलोगोंकी क्या सेवा करूँ?’॥३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मिन्नेवाथ काले तु तीर्थयात्रामुपागतः।
इक्ष्वाकुरगमत् तत्र समेता यत्र ते विभो ॥ ३५ ॥

मूलम्

तस्मिन्नेवाथ काले तु तीर्थयात्रामुपागतः।
इक्ष्वाकुरगमत् तत्र समेता यत्र ते विभो ॥ ३५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसी समय तीर्थयात्राके लिये आये हुए राजा इक्ष्वाकु भी उस स्थानपर आ पहुँचे, जहाँ वे सब लोग एकत्र हुए थे॥३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वानेव तु राजर्षिः सम्पूज्याथ प्रणम्य च।
कुशलप्रश्नमकरोत् सर्वेषां राजसत्तमः ॥ ३६ ॥

मूलम्

सर्वानेव तु राजर्षिः सम्पूज्याथ प्रणम्य च।
कुशलप्रश्नमकरोत् सर्वेषां राजसत्तमः ॥ ३६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नृपश्रेष्ठ राजर्षि इक्ष्वाकुने उन सबको प्रणाम करके उनकी पूजा की और उन सबका कुशल-समाचार पूछा॥३६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मै सोऽथासनं दत्त्वा पाद्यमर्घ्यं तथैव च।
अबवीद् ब्राह्मणो वाक्यं कृत्वा कुशलसंविदम् ॥ ३७ ॥

मूलम्

तस्मै सोऽथासनं दत्त्वा पाद्यमर्घ्यं तथैव च।
अबवीद् ब्राह्मणो वाक्यं कृत्वा कुशलसंविदम् ॥ ३७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्राह्मणने भी राजाको अर्घ्य, पाद्य और आसन देकर कुशल-मंगल पूछनेके बाद इस प्रकार कहा—॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्वागतं ते महाराज ब्रूहि यद् यदिहेच्छसि।
स्वशक्त्या किं करोमीह तद् भवान् प्रब्रवीतु माम् ॥ ३८ ॥

मूलम्

स्वागतं ते महाराज ब्रूहि यद् यदिहेच्छसि।
स्वशक्त्या किं करोमीह तद् भवान् प्रब्रवीतु माम् ॥ ३८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘महाराज! आपका स्वागत है! आपकी जो-जो इच्छा हो, उसे यहाँ बताइये। मैं अपनी शक्तिके अनुसार आपकी क्या सेवा करूँ? यह आप मुझे बतावें’॥३८॥

मूलम् (वचनम्)

राजोवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

राजाहं ब्राह्मणश्च त्वं यदा षट्‌कर्मसंस्थितः।
ददानि वसु किंचित्ते प्रथितं तद् वदस्व मे ॥ ३९ ॥

मूलम्

राजाहं ब्राह्मणश्च त्वं यदा षट्‌कर्मसंस्थितः।
ददानि वसु किंचित्ते प्रथितं तद् वदस्व मे ॥ ३९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजाने कहा— विप्रवर! मैं क्षत्रिय राजा हूँ और आप छः कर्मोंमें स्थित रहनेवाले ब्राह्मण। अतः मैं आपको कुछ धन देना चाहता हूँ। आप प्रसिद्ध धनरत्न मुझसे माँगिये॥३९॥

मूलम् (वचनम्)

ब्राह्मण उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

द्विविधा ब्राह्मणा राजन् धर्मश्च द्विविधः स्मृतः।
प्रवृत्ताश्च निवृत्ताश्च निवृत्तोऽहं प्रतिग्रहात् ॥ ४० ॥

मूलम्

द्विविधा ब्राह्मणा राजन् धर्मश्च द्विविधः स्मृतः।
प्रवृत्ताश्च निवृत्ताश्च निवृत्तोऽहं प्रतिग्रहात् ॥ ४० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्राह्मणने कहा— राजन्! ब्राह्मण दो प्रकारके होते हैं और धर्म भी दो प्रकारका माना गया है—प्रवृत्ति और निवृत्ति। मैं प्रतिग्रहसे निवृत्त ब्राह्मण हूँ॥४०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेभ्यः प्रयच्छ दानानि ये प्रवृत्ता नराधिप।
अहं न प्रतिगृह्णामि किमिष्टं किं ददामि ते।
ब्रूहि त्वं नृपतिश्रेष्ठ तपसा साधयामि किम् ॥ ४१ ॥

मूलम्

तेभ्यः प्रयच्छ दानानि ये प्रवृत्ता नराधिप।
अहं न प्रतिगृह्णामि किमिष्टं किं ददामि ते।
ब्रूहि त्वं नृपतिश्रेष्ठ तपसा साधयामि किम् ॥ ४१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नरेश्वर! आप उन ब्राह्मणोंको दान दीजिये, जो प्रवृत्तिमार्गमें हों। मैं आपसे दान नहीं लूँगा। नृपश्रेष्ठ! इस समय आपको क्या अभीष्ट है? मैं आपको क्या दूँ? बताइये, मैं अपनी तपस्याद्वारा आपका कौन-सा कार्य सिद्ध करूँ?॥४१॥

मूलम् (वचनम्)

राजोवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

क्षत्रियोऽहं न जानामि देहीति वचनं क्वचित्।
प्रयच्छ युद्धमित्येवंवादिनः स्मो द्विजोत्तम ॥ ४२ ॥

मूलम्

क्षत्रियोऽहं न जानामि देहीति वचनं क्वचित्।
प्रयच्छ युद्धमित्येवंवादिनः स्मो द्विजोत्तम ॥ ४२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजा बोले— द्विजश्रेष्ठ! मैं क्षत्रिय हूँ। ‘दीजिये’ ऐसा कहकर याचना करनेकी बातको मैं कभी नहीं जानता। माँगनेके नामपर तो हमलोग यही कहना जानते हैं कि ‘युद्ध दो’॥४२॥

मूलम् (वचनम्)

ब्राह्यण उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

तुष्यसि त्वं स्वधर्मेण तथा तुष्टा वयं नृप।
अन्योन्यस्यान्तरं नास्ति यदिष्टं तत् समाचर ॥ ४३ ॥

मूलम्

तुष्यसि त्वं स्वधर्मेण तथा तुष्टा वयं नृप।
अन्योन्यस्यान्तरं नास्ति यदिष्टं तत् समाचर ॥ ४३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्राह्मणने कहा— नरेश्वर! जैसे आप अपने धर्मसे संतुष्ट हैं, उसी तरह हम भी अपने धर्मसे संतुष्ट हैं। हम दोनोंमें कोई अन्तर नहीं है। अतः आपको जो अच्छा लगे, वह कीजिये॥४३॥

मूलम् (वचनम्)

राजोवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्वशक्त्याहं ददानीति त्वया पूर्वमुदाहृतम्।
याचे त्वां दीयतां मह्यं जप्यस्यास्य फलं द्विज ॥ ४४ ॥

मूलम्

स्वशक्त्याहं ददानीति त्वया पूर्वमुदाहृतम्।
याचे त्वां दीयतां मह्यं जप्यस्यास्य फलं द्विज ॥ ४४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजाने कहा— ब्रह्मन्! आपने मुझसे पहले कहा है कि ‘मैं अपनी शक्तिके अनुसार दान दूँगा’ तो मैं आपसे यही माँगता हूँ कि आप अपने झपका फल मुझे दे दीजिये॥४४॥

मूलम् (वचनम्)

ब्राह्मण उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

युद्धं मम सदा वाणी याचतीति विकत्थसे।
न च युद्धं मया सार्धं किमर्थं याचसे पुनः॥४५॥

मूलम्

युद्धं मम सदा वाणी याचतीति विकत्थसे।
न च युद्धं मया सार्धं किमर्थं याचसे पुनः॥४५॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्राह्मणने कहा— राजन्! आप तो बहुत बढ़-बढ़कर बातें बना रहे थे कि मेरी वाणी सदा युद्धकी ही याचना करती है। तब आप मेरे साथ भी युद्धकी ही याचना क्यों नहीं कर रहे हैं?॥४५॥

मूलम् (वचनम्)

राजोवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

वाग्वज्रा ब्राह्मणाः प्रोक्ताः क्षत्रिया बाहुजीविनः।
वाग्युद्धं तदिदं तीव्रं मम विप्र त्वया सह ॥ ४६ ॥

मूलम्

वाग्वज्रा ब्राह्मणाः प्रोक्ताः क्षत्रिया बाहुजीविनः।
वाग्युद्धं तदिदं तीव्रं मम विप्र त्वया सह ॥ ४६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजाने कहा— विप्रवर! ब्राह्मणोंकी वाणी ही वज्रके समान प्रभाव डालनेवाली होती है और क्षत्रिय बाहुबलसे जीवन-निर्वाह करनेवाले होते हैं। अतः आपके साथ मेरा यह तीव्र वाग्युद्ध उपस्थित हुआ है॥

मूलम् (वचनम्)

ब्राह्यण उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

सैवाद्यापि प्रतिज्ञा मे स्वशक्त्या किं प्रदीयताम्।
ब्रूहि दास्यामि राजेन्द्र विभवे सति मा चिरम् ॥ ४७ ॥

मूलम्

सैवाद्यापि प्रतिज्ञा मे स्वशक्त्या किं प्रदीयताम्।
ब्रूहि दास्यामि राजेन्द्र विभवे सति मा चिरम् ॥ ४७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्राह्मणने कहा— राजेन्द्र! मेरी वही प्रतिज्ञा इस समय भी है। मैं अपनी शक्तिके अनुसार आपको क्या दूँ? बोलिये, विलम्ब न कीजिये। मैं शक्ति रहते आपको मुँहमाँगी वस्तु अवश्य प्रदान करूँगा॥४७॥

मूलम् (वचनम्)

राजोवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

यत्तद् वर्षशतं पूर्णं जप्यं वै जपता त्वया।
फलं प्राप्तं तत् प्रयच्छ मम दित्सुर्भवान् यदि ॥ ४८ ॥

मूलम्

यत्तद् वर्षशतं पूर्णं जप्यं वै जपता त्वया।
फलं प्राप्तं तत् प्रयच्छ मम दित्सुर्भवान् यदि ॥ ४८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजाने कहा— मुने! यदि आप देना ही चाहते हैं तो पूरे सौ वर्षोंतक जप करके आपने जिस फलको प्राप्त किया है, वही मुझे दे दीजिये॥४८॥

मूलम् (वचनम्)

ब्राह्मण उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

परमं गृह्यतां तस्य फलं यज्जपितं मया।
अर्धं त्वमविचारेण फलं तस्य ह्यवाप्नुहि ॥ ४९ ॥
अथवा सर्वमेवेह मामकं जापकं फलम्।
राजन् प्राप्नुहि कामं त्वं यदि सर्वमिहेच्छसि ॥ ५० ॥

मूलम्

परमं गृह्यतां तस्य फलं यज्जपितं मया।
अर्धं त्वमविचारेण फलं तस्य ह्यवाप्नुहि ॥ ४९ ॥
अथवा सर्वमेवेह मामकं जापकं फलम्।
राजन् प्राप्नुहि कामं त्वं यदि सर्वमिहेच्छसि ॥ ५० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्राह्मणने कहा— राजन्! मैंने जो जप किया है उसका उत्तम फल आप ग्रहण करें। मेरे झपका आधा फल तो आप बिना विचारे ही प्राप्त करें अथवा यदि आप मेरेद्वारा किये हुए जपका सारा ही फल लेना चाहते हों तो अवश्य अपनी इच्छाके अनुसार वह सब प्राप्त कर लें॥४९-५०॥

मूलम् (वचनम्)

राजोवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

कृतं सर्वेण भद्रं ते जप्यं यद् याचितं मया।
स्वस्ति तेऽस्तु गमिष्यामि किञ्च तस्य फलं वद ॥ ५१ ॥

मूलम्

कृतं सर्वेण भद्रं ते जप्यं यद् याचितं मया।
स्वस्ति तेऽस्तु गमिष्यामि किञ्च तस्य फलं वद ॥ ५१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजाने कहा— ब्रह्मन्! मैंने जो जपका फल माँगा है, उन सबकी पूर्ति हो गयी। आपका भला हो, कल्याण हो। मैं चला जाऊँगा; किंतु यह तो बता दीजिये कि उसका फल क्या है?॥५१॥

मूलम् (वचनम्)

ब्राह्मण उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

फलप्राप्तिं न जानामि दत्तं यज्जपितं मया।
अयं धर्मश्च कालश्च यमो मृत्युश्च साक्षिणः ॥ ५२ ॥

मूलम्

फलप्राप्तिं न जानामि दत्तं यज्जपितं मया।
अयं धर्मश्च कालश्च यमो मृत्युश्च साक्षिणः ॥ ५२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्राह्मणने कहा— राजन्! इस जपका फल क्या मिलेगा? इसको मैं नहीं जानता; परंतु मैंने जो कुछ जप किया था, वह सब आपको दे दिया। ये धर्म, यम, मृत्यु और काल इस बातके साक्षी हैं॥५२॥

मूलम् (वचनम्)

राजोवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अज्ञातमस्य धर्मस्य फलं किं मे करिष्यति।
फलं ब्रवीषि धर्मस्य न चेज्जप्यकृतस्य माम्।
प्राप्नोतु तत् फलं विप्रो नाहमिच्छे ससंशयम् ॥ ५३ ॥

मूलम्

अज्ञातमस्य धर्मस्य फलं किं मे करिष्यति।
फलं ब्रवीषि धर्मस्य न चेज्जप्यकृतस्य माम्।
प्राप्नोतु तत् फलं विप्रो नाहमिच्छे ससंशयम् ॥ ५३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजाने कहा— ब्रह्मन्! यदि आप मुझे अपने जपजनित धर्मका फल नहीं बता रहे हैं तो इस धर्मका अज्ञात फल मेरे किस काम आयेगा? वह सारा फल आपहीके पास रहे। मैं संदिग्ध फल नहीं चाहता॥५३॥

मूलम् (वचनम्)

ब्राह्मण उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

नाददेऽपरवक्तव्यं दत्तं चास्य फलं मया।
वाक्यं प्रमाणं राजर्षे ममाद्य तव चैव हि ॥ ५४ ॥

मूलम्

नाददेऽपरवक्तव्यं दत्तं चास्य फलं मया।
वाक्यं प्रमाणं राजर्षे ममाद्य तव चैव हि ॥ ५४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्राह्मणने कहा— राजर्षे! अब तो मैं अपने जपका फल दे चुका; अतः दूसरी कोई बात नहीं स्वीकार करूँगा। इस विषयमें आज मेरी और आपकी बातें ही प्रमाणस्वरूप हैं (हम दोनोंको अपनी-अपनी बातोंपर दृढ़ रहना चाहिये)॥५४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नाभिसंधिर्मया जप्ये कृतपूर्वः कदाचन।
जप्यस्य राजशार्दूल कथं वेत्स्याम्यहं फलम् ॥ ५५ ॥

मूलम्

नाभिसंधिर्मया जप्ये कृतपूर्वः कदाचन।
जप्यस्य राजशार्दूल कथं वेत्स्याम्यहं फलम् ॥ ५५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजसिंह! मैंने जप करते समय कभी फलकी कामना नहीं की थी; अतः इस जपका क्या फल होगा, यह कैसे जान सकूँगा?॥५५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ददस्वेति त्वया चोक्तं ददानीति मया तथा।
न वाचं दूषयिष्यामि सत्यं रक्ष स्थिरो भव ॥ ५६ ॥

मूलम्

ददस्वेति त्वया चोक्तं ददानीति मया तथा।
न वाचं दूषयिष्यामि सत्यं रक्ष स्थिरो भव ॥ ५६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

आपने कहा था कि ‘दीजिये’ और मैंने कहा था कि ‘दूँगा’—ऐसी दशामें मैं अपनी बात झूठी नहीं करूँगा। आप सत्यकी रक्षा कीजिये और इसके लिये सुस्थिर हो जाइये॥५६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथैवं वदतो मेऽद्य वचनं न करिष्यसि।
महानधर्मो भविता तव राजन् मृषा कृतः ॥ ५७ ॥

मूलम्

अथैवं वदतो मेऽद्य वचनं न करिष्यसि।
महानधर्मो भविता तव राजन् मृषा कृतः ॥ ५७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! यदि इस तरह स्पष्ट बात करनेपर भी आप आज मेरे वचनका पालन नहीं करेंगे तो आपको असत्यका महान् पाप लगेगा॥५७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न युक्तं तु मृषा वाणी त्वया वक्तुमरिंदम।
तथा मयाप्यभिहितं मिथ्या कर्तुं न शक्यते ॥ ५८ ॥

मूलम्

न युक्तं तु मृषा वाणी त्वया वक्तुमरिंदम।
तथा मयाप्यभिहितं मिथ्या कर्तुं न शक्यते ॥ ५८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शत्रुदमन नरेश! आपके लिये भी झूठ बोलना उचित नहीं है और मैं भी अपनी कही हुई बातको मिथ्या नहीं कर सकता॥५८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

संश्रुतं च मया पूर्वं ददानीत्यविचारितम्।
तद्‌ गृह्णीष्वाविचारेण यदि सत्ये स्थितो भवान् ॥ ५९ ॥

मूलम्

संश्रुतं च मया पूर्वं ददानीत्यविचारितम्।
तद्‌ गृह्णीष्वाविचारेण यदि सत्ये स्थितो भवान् ॥ ५९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैंने बिना कुछ सोच-विचार किये ही पहले देनेकी प्रतिज्ञा कर ली है; अतः आप भी बिना विचारे मेरा दिया हुआ जप ग्रहण करें। यदि आप सत्यपर दृढ़ हैं तो आपको ऐसा अवश्य करना चाहिये॥५९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इहागम्य हि मां राजन् जाप्यं फलमयाचथाः।
तन्मे निसृष्टं गृह्णीष्व भव सत्ये स्थिरोऽपि च ॥ ६० ॥

मूलम्

इहागम्य हि मां राजन् जाप्यं फलमयाचथाः।
तन्मे निसृष्टं गृह्णीष्व भव सत्ये स्थिरोऽपि च ॥ ६० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! आपने स्वयं यहाँ आकर मुझसे जपके फलकी याचना की है और मैंने उसे आपके लिये दे दिया है; अतः आप उसे ग्रहण करें और सत्यपर डटे रहें॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नायं लोकोऽस्ति न परो न च पूर्वान् स तारयेत्।
कुत एव जनिष्यांस्तु मृषावादपरायणः ॥ ६१ ॥

मूलम्

नायं लोकोऽस्ति न परो न च पूर्वान् स तारयेत्।
कुत एव जनिष्यांस्तु मृषावादपरायणः ॥ ६१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो झूठ बोलनेवाला है, उस मनुष्यको न इस लोकमें सुख मिलता है और न परलोकमें ही। वह अपने पूर्वजोंको भी नहीं तार सकता; फिर भविष्यमें होनेवाली संततिका उद्धार तो कर ही कैसे सकता है?॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न यज्ञाध्ययने दानं नियमास्तारयन्ति हि।
यथा सत्यं परे लोके तथेह पुरुषर्षभ ॥ ६२ ॥

मूलम्

न यज्ञाध्ययने दानं नियमास्तारयन्ति हि।
यथा सत्यं परे लोके तथेह पुरुषर्षभ ॥ ६२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पुरुषश्रेष्ठ! परलोकमें सत्य जिस प्रकार जीवोंका उद्धार करता है, उस प्रकार यज्ञ, वेदाध्ययन, दान और नियम भी नहीं तार सकते हैं॥६२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तपांसि यानि चीर्णानि चरिष्यन्ति च यत् तपः।
शतैः शतसहस्रैश्च तैः सत्यान्न विशिष्यते ॥ ६३ ॥

मूलम्

तपांसि यानि चीर्णानि चरिष्यन्ति च यत् तपः।
शतैः शतसहस्रैश्च तैः सत्यान्न विशिष्यते ॥ ६३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

लोगोंने अबतक जितनी तपस्याएँ की हैं और भविष्यमें भी जितनी करेंगे, उन सबको सौगुना या लाखगुना करके एकत्र किया जाय तो भी उनका महत्त्व सत्यसे बढ़कर नहीं सिद्ध होगा॥६३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सत्यमेकाक्षरं ब्रह्म सत्यमेकाक्षरं तपः।
सत्यमेकाक्षरो यज्ञः सत्यमेकाक्षरं श्रुतम् ॥ ६४ ॥

मूलम्

सत्यमेकाक्षरं ब्रह्म सत्यमेकाक्षरं तपः।
सत्यमेकाक्षरो यज्ञः सत्यमेकाक्षरं श्रुतम् ॥ ६४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सत्य ही एकमात्र अविनाशी ब्रह्म है। सत्य ही एकमात्र अक्षय तप है, सत्य ही एकमात्र अविनाशी यज्ञ है, सत्य ही एकमात्र नाशरहित सनातन वेद है॥६४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सत्यं वेदेषु जागार्ति फलं सत्ये परं स्मृतम्।
सत्याद् धर्मो दमश्चैव सर्वं सत्ये प्रतिष्ठितम् ॥ ६५ ॥

मूलम्

सत्यं वेदेषु जागार्ति फलं सत्ये परं स्मृतम्।
सत्याद् धर्मो दमश्चैव सर्वं सत्ये प्रतिष्ठितम् ॥ ६५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वेदोंमें सत्य ही जागता है—उसीकी महिमा बतायी गयी है। सत्यका ही सबसे श्रेष्ठ फल माना गया है। धर्म और इन्द्रिय-संयमकी सिद्धि भी सत्यसे ही होती है। सत्यके ही आधारपर सब कुछ टिका हुआ है॥६५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सत्यं वेदास्तथाङ्गानि सत्यं विद्यास्तथा विधिः।
व्रतचर्या तथा सत्यमोङ्कारः सत्यमेव च ॥ ६६ ॥

मूलम्

सत्यं वेदास्तथाङ्गानि सत्यं विद्यास्तथा विधिः।
व्रतचर्या तथा सत्यमोङ्कारः सत्यमेव च ॥ ६६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सत्य ही वेद और वेदांग है। सत्य ही विद्या तथा विधि है। सत्य ही व्रतचर्या तथा सत्य ही ओंकार है॥६६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्राणिनां जननं सत्यं सत्यं संततिरेव च।
सत्येन वायुरभ्येति सत्येन तपते रविः ॥ ६७ ॥

मूलम्

प्राणिनां जननं सत्यं सत्यं संततिरेव च।
सत्येन वायुरभ्येति सत्येन तपते रविः ॥ ६७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सत्य प्राणियोंको जन्म देनेवाला (पिता) है, सत्य ही संतति है, सत्यसे ही वायु चलती है और सत्यसे ही सूर्य तपता है॥६७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सत्येन चाग्निर्दहति स्वर्गः सत्ये प्रतिष्ठितः।
सत्यं यज्ञस्तपो वेदाः स्तोभा मन्त्राः सरस्वती ॥ ६८ ॥

मूलम्

सत्येन चाग्निर्दहति स्वर्गः सत्ये प्रतिष्ठितः।
सत्यं यज्ञस्तपो वेदाः स्तोभा मन्त्राः सरस्वती ॥ ६८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सत्यसे ही आग जलती है तथा सत्यपर ही स्वर्गलोक प्रतिष्ठित है। यज्ञ, तप, वेद, स्तोभ, मन्त्र और सरस्वती—सब सत्यके ही स्वरूप हैं॥६८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तुलामारोपितो धर्मः सत्यं चैवेति नः श्रुतम्।
समकक्षां तुलयतो यतः सत्यं ततोऽधिकम् ॥ ६९ ॥

मूलम्

तुलामारोपितो धर्मः सत्यं चैवेति नः श्रुतम्।
समकक्षां तुलयतो यतः सत्यं ततोऽधिकम् ॥ ६९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैंने सुना है कि किसी समय धर्म और सत्यको तराजूपर, जिसके दोनों पलड़े बराबर थे, रखा और तौला गया; उस समय जिस ओर सत्य था, उधरका ही पलड़ा भारी हुआ॥६९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यतो धर्मस्ततः सत्यं सर्वं सत्येन वर्धते।
किमर्थमनृतं कर्म कर्तुं राजंस्त्वमिच्छसि ॥ ७० ॥

मूलम्

यतो धर्मस्ततः सत्यं सर्वं सत्येन वर्धते।
किमर्थमनृतं कर्म कर्तुं राजंस्त्वमिच्छसि ॥ ७० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जहाँ धर्म है वहाँ सत्य है। सत्यसे ही सबकी वृद्धि होती है। राजन्! आप क्यों असत्यपूर्ण बर्ताव करना चाहते हैं?॥७०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सत्ये कुरु स्थिरं भावं मा राजन्ननृतं कृथाः।
कस्मात्त्वमनृतं वाक्यं देहीति कुरुषेऽशुभम् ॥ ७१ ॥

मूलम्

सत्ये कुरु स्थिरं भावं मा राजन्ननृतं कृथाः।
कस्मात्त्वमनृतं वाक्यं देहीति कुरुषेऽशुभम् ॥ ७१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! आप सत्यमें ही अपने मनको स्थिर कीजिये। मिथ्यापूर्ण बर्ताव न कीजिये। यदि लेना ही नहीं था तो आपने ‘दीजिये’ यह झूठा और अशुभ वचन क्यों मुँहसे निकाला था॥७१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदि जप्यफलं दत्तं मया नैषिष्यसे नृप।
धर्मेभ्यः सम्परिभ्रष्टो लोकाननुचरिष्यसि ॥ ७२ ॥

मूलम्

यदि जप्यफलं दत्तं मया नैषिष्यसे नृप।
धर्मेभ्यः सम्परिभ्रष्टो लोकाननुचरिष्यसि ॥ ७२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नरेश्वर! यदि आप मेरे दिये हुए इस जपके फलको नहीं स्वीकार करेंगे तो धर्मभ्रष्ट होकर सम्पूर्ण लोकोंमें भटकते फिरेंगे॥७२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

संश्रुत्य यो न दित्सेत याचित्वा यश्च नेच्छति।
उभावानृतिकावेतौ न मृषा कर्तुमर्हसि ॥ ७३ ॥

मूलम्

संश्रुत्य यो न दित्सेत याचित्वा यश्च नेच्छति।
उभावानृतिकावेतौ न मृषा कर्तुमर्हसि ॥ ७३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो पहले देनेकी प्रतिज्ञा करके फिर देना नहीं चाहता तथा जो याचना तो करता है, किंतु मिलनेपर उसे लेना नहीं चाहता, वे दोनों ही मिथ्यावादी होते हैं; अतः आप अपनी और मेरी भी बात मिथ्या न कीजिये॥७३॥

मूलम् (वचनम्)

राजोवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

योद्धव्यं रक्षितव्यं च क्षत्रधर्मः किल द्विज।
दातारः क्षत्रियाः प्रोक्ता गृह्णीयां भवतः कथम् ॥ ७४ ॥

मूलम्

योद्धव्यं रक्षितव्यं च क्षत्रधर्मः किल द्विज।
दातारः क्षत्रियाः प्रोक्ता गृह्णीयां भवतः कथम् ॥ ७४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजाने कहा— ब्रह्मन्! क्षत्रियका धर्म तो प्रजाकी रक्षा और युद्ध करना है। क्षत्रियोंको दाता कहा गया है; फिर मैं उलटे ही आपसे दान कैसे ले सकता हूँ?॥

मूलम् (वचनम्)

ब्राह्मण उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

न च्छन्दयामि ते राजन्नापि ते गृहमाव्रजम्।
इहागम्य तु याचित्वा न गृह्णीषे पुनः कथम् ॥ ७५ ॥

मूलम्

न च्छन्दयामि ते राजन्नापि ते गृहमाव्रजम्।
इहागम्य तु याचित्वा न गृह्णीषे पुनः कथम् ॥ ७५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्राह्मणने कहा— राजन्! दान लेनेके लिये मैंने आपसे अनुरोध या आग्रह नहीं किया था और न मैं देनेके लिये आपके घर ही गया था। आपने स्वयं यहाँ आकर याचना की है; फिर लेनेसे कैसे इनकार करते हैं?॥७५॥

मूलम् (वचनम्)

धर्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अविवादोऽस्तु युवयोर्वित्त मां धर्ममागतम्।
द्विजो दानफलैर्युक्तो राजा सत्यफलेन च ॥ ७६ ॥

मूलम्

अविवादोऽस्तु युवयोर्वित्त मां धर्ममागतम्।
द्विजो दानफलैर्युक्तो राजा सत्यफलेन च ॥ ७६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

धर्म बोले— आप दोनोंमें विवाद न हो। आपको विदित होना चाहिये कि मैं साक्षात् धर्म यहाँ आया हूँ। ब्राह्मणदेवता दानके फलसे युक्त हो जायँ और राजा भी सत्यके फलसे सम्पन्न हों॥७६॥

मूलम् (वचनम्)

स्वर्ग उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्वर्गं मां विद्धि राजेन्द्र रूपिणं स्वयमागतम्।
अविवादोऽस्तु युवयोरुभौ तुल्यफलौ युवाम् ॥ ७७ ॥

मूलम्

स्वर्गं मां विद्धि राजेन्द्र रूपिणं स्वयमागतम्।
अविवादोऽस्तु युवयोरुभौ तुल्यफलौ युवाम् ॥ ७७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

स्वर्ग बोला— राजेन्द्र! आपको विदित हो कि मैं स्वर्ग हूँ और स्वयं ही शरीर धारण करके यहाँ आया हूँ। आप दोनोंमें विवाद न हो। आप दोनों समान फलके भागी हों॥७७॥

मूलम् (वचनम्)

राजोवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

कृतं स्वर्गेण मे कार्यं गच्छ स्वर्ग यथागतम्।
विप्रो यदीच्छते गन्तुं चीर्णं गृह्णातु मे फलम् ॥ ७८ ॥

मूलम्

कृतं स्वर्गेण मे कार्यं गच्छ स्वर्ग यथागतम्।
विप्रो यदीच्छते गन्तुं चीर्णं गृह्णातु मे फलम् ॥ ७८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजाने कहा— मुझे स्वर्गकी कोई आवश्यकता नहीं है। स्वर्ग! तुम जैसे आये थे, वैसे ही लौट जाओ। यदि ये ब्राह्मणदेवता स्वर्गमें जाना चाहते हों तो मेरे किये हुए पुण्यफलको ग्रहण करें॥७८॥

मूलम् (वचनम्)

ब्राह्मण उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

बाल्ये यदि स्यादज्ञानान्मया हस्तः प्रसारितः।
निवृत्तलक्षणं धर्ममुपासे संहितां जपन् ॥ ७९ ॥

मूलम्

बाल्ये यदि स्यादज्ञानान्मया हस्तः प्रसारितः।
निवृत्तलक्षणं धर्ममुपासे संहितां जपन् ॥ ७९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्राह्मणने कहा— यदि बाल्यावस्थामें अज्ञानवश मैंने कभी किसीके सामने हाथ फैलाया हो तो उसका मुझे स्मरण नहीं है; परंतु अब तो संहिता—गायत्रीमन्त्रका जप करता हुआ निवृत्तिधर्मकी उपासना करता हूँ॥७९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

निवृत्तं मां चिराद्राजन् विप्रलोभयसे कथम्।
स्वेन कार्यं करिष्यामि त्वत्तो नेच्छे फलं नृप।
तपःस्वाध्यायशीलोऽहं निवृत्तश्च प्रतिग्रहात् ॥ ८० ॥

मूलम्

निवृत्तं मां चिराद्राजन् विप्रलोभयसे कथम्।
स्वेन कार्यं करिष्यामि त्वत्तो नेच्छे फलं नृप।
तपःस्वाध्यायशीलोऽहं निवृत्तश्च प्रतिग्रहात् ॥ ८० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! मैं निवृत्तिमार्गका पथिक हूँ, आप बहुत देरसे मुझे लुभानेका प्रयत्न क्यों करते हैं? नरेश्वर! मैं स्वयं ही अपना कर्तव्य करूँगा, आपसे कोई फल नहीं लेना चाहता। मैं प्रतिग्रहसे निवृत्त होकर तप और स्वाध्यायमें लगा हुआ हूँ॥८०॥

मूलम् (वचनम्)

राजोवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदि विप्र विसृष्टं ते जप्यस्य फलमुत्तमम्।
आवयोर्यत् फलं किञ्चित् सहितं नौ तदस्त्विह ॥ ८१ ॥

मूलम्

यदि विप्र विसृष्टं ते जप्यस्य फलमुत्तमम्।
आवयोर्यत् फलं किञ्चित् सहितं नौ तदस्त्विह ॥ ८१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजाने कहा— विप्रवर! यदि आपने अपने जपका उत्तम फल दे ही दिया है तो ऐसा कीजिये कि हम दोनोंके जो भी पुण्यफल हों, उन्हें एकत्र करके हम दोनों साथ ही भोगें—हम दोनोंका उनपर समान अधिकार रहे॥८१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

द्विजाः प्रतिग्रहे युक्ता दातारो राजवंशजाः।
यदि धर्मः श्रुतो विप्र सहैव फलमस्तु नौ ॥ ८२ ॥

मूलम्

द्विजाः प्रतिग्रहे युक्ता दातारो राजवंशजाः।
यदि धर्मः श्रुतो विप्र सहैव फलमस्तु नौ ॥ ८२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्राह्मणोंको दान लेनेका अधिकार है और क्षत्रिय केवल दान देते हैं, लेते नहीं; यह धर्म आपने भी सुना होगा; अतः विप्रवर! हम दोनोंके कार्यका फल साथ ही हम दोनोंके उपयोगमें आवे॥८२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मा वा भूत् सहभोज्यं नौ मदीयं फलमाप्नुहि।
प्रतीच्छ मत्कृतं धर्मं यदि ते मय्यनुग्रहः ॥ ८३ ॥

मूलम्

मा वा भूत् सहभोज्यं नौ मदीयं फलमाप्नुहि।
प्रतीच्छ मत्कृतं धर्मं यदि ते मय्यनुग्रहः ॥ ८३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अथवा यदि आपकी इच्छा न हो तो हमें साथ रहकर कर्मफल भोगनेकी आवश्यकता नहीं है। उस अवस्थामें मैं यही प्रार्थना करूँगा कि यदि आपका मुझपर अनुग्रह हो तो आप ही मेरे शुभकर्मोंका पूरा-पूरा फल ग्रहण कर लें। मैंने जो कुछ भी धर्म किया है, वह सब आप स्वीकार कर लें॥८३॥

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो विकृतवेषौ द्वौ पुरुषौ समुपस्थितौ।
गृहीत्वान्योन्यमावेष्ट्य कुचैलावूचतुर्वचः ॥ ८४ ॥

मूलम्

ततो विकृतवेषौ द्वौ पुरुषौ समुपस्थितौ।
गृहीत्वान्योन्यमावेष्ट्य कुचैलावूचतुर्वचः ॥ ८४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजी कहते हैं— राजन्! इसी समय वहाँ विकराल वेषधारी दो पुरुष उपस्थित हुए। दोनोंने एक-दूसरेको पकड़कर अपने हाथोंसे आवेष्टित कर रखा था। दोनोंके शरीरपर मैले वस्त्र थे (उनमेंसे एकका नाम विकृत था और दूसरेका नाम विरूप)। वे दोनों बारंबार इस प्रकार कह रहे थे॥८४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न मे धारयसीत्येको धारयामीति चापरः।
इहास्ति नौ विवादोऽयमयं राजानुशासकः ॥ ८५ ॥

मूलम्

न मे धारयसीत्येको धारयामीति चापरः।
इहास्ति नौ विवादोऽयमयं राजानुशासकः ॥ ८५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

एकने कहा—भाई! तुम्हारे ऊपर मेरा कोई ऋण नहीं है। दूसरा कहता—नहीं, मैं तुम्हारा ऋणी हूँ। पहलेने कहा—यहाँ जो हम दोनोंका विवाद है, इसका निर्णय ये सबका शासन करनेवाले राजा करेंगे॥८५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सत्यं ब्रवीम्यहमिदं न मे धारयते भवान्।
अनृतं वदसीह त्वमृणं ते धारयाम्यहम् ॥ ८६ ॥

मूलम्

सत्यं ब्रवीम्यहमिदं न मे धारयते भवान्।
अनृतं वदसीह त्वमृणं ते धारयाम्यहम् ॥ ८६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

दूसरा बोला—मैं सच कहता हूँ कि तुमपर मेरा कोई ऋण नहीं है। पहलेने कहा—तुम झूठ बोलते हो। मुझपर तुम्हारा ऋण है॥८६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तावुभौ सुभृशं तप्तौ राजानमिदमूचतुः।
परीक्ष्य त्वं यथा स्यावो नावामिह विगर्हितौ ॥ ८७ ॥

मूलम्

तावुभौ सुभृशं तप्तौ राजानमिदमूचतुः।
परीक्ष्य त्वं यथा स्यावो नावामिह विगर्हितौ ॥ ८७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब वे दोनों अत्यन्त संतप्त होकर राजासे इस प्रकार बोले—आप हमारे मामलेकी जाँच-पड़ताल करके फैसला कर दें, जिससे हम दोनों यहाँ दोषके भागी और निन्दाके पात्र न हों॥८७॥

मूलम् (वचनम्)

विरूप उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

धारयामि नरव्याघ्र विकृतस्येह गोः फलम्।
ददतश्च न गृह्णाति विकृतो मे महीपते ॥ ८८ ॥

मूलम्

धारयामि नरव्याघ्र विकृतस्येह गोः फलम्।
ददतश्च न गृह्णाति विकृतो मे महीपते ॥ ८८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

विरूप बोला— पुरुषसिंह! मैं विकृतके एक गोदानका फल ऋणके तौरपर अपने यहाँ रखता हूँ। पृथ्वीनाथ! उस ऋणको आज मैं दे रहा हूँ; परंतु यह विकृत ले नहीं रहा है॥८८॥

मूलम् (वचनम्)

विकृत उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

न मे धारयते किञ्चिद् विरूपोऽयं नराधिप।
मिथ्या ब्रवीत्ययं हि त्वां सत्याभासं नराधिप ॥ ८९ ॥

मूलम्

न मे धारयते किञ्चिद् विरूपोऽयं नराधिप।
मिथ्या ब्रवीत्ययं हि त्वां सत्याभासं नराधिप ॥ ८९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

विकृतने कहा— नरेश्वर! इस विरूपपर मेरा कोई ऋण नहीं है। यह आपसे झूठ बोलता है। इसकी बातमें सत्यका आभासमात्र है॥८९॥

मूलम् (वचनम्)

राजोवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

विरूप किं धारयते भवानस्य ब्रवीतु मे।
श्रुत्वा तथा करिष्येऽहमिति मे धीयते मनः ॥ ९० ॥

मूलम्

विरूप किं धारयते भवानस्य ब्रवीतु मे।
श्रुत्वा तथा करिष्येऽहमिति मे धीयते मनः ॥ ९० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजा बोले— विरूप! तुम्हारे ऊपर विकृतका कौन-सा ऋण है। बताओ, मैं उसे सुनकर कोई निर्णय करूँगा। मेरे मनका ऐसा ही निश्चय है॥९०॥

मूलम् (वचनम्)

विरूप उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

शृणुष्वावहितो राजन् यथैतद् धारयाम्यहम्।
विकृतस्यास्य राजर्षे निखिलेन नराधिप ॥ ९१ ॥

मूलम्

शृणुष्वावहितो राजन् यथैतद् धारयाम्यहम्।
विकृतस्यास्य राजर्षे निखिलेन नराधिप ॥ ९१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

विरूप बोला— राजन्! नरेश्वर! आप सावधान होकर सुनें, राजर्षे! इस विकृतका ऋण जिस प्रकार मैं धारण करता हूँ, वह सब पूर्णरूपसे बता रहा हूँ॥९१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनेन धर्मप्राप्त्यर्थं शुभा दत्ता पुरानघ।
धेनुर्विप्राय राजर्षे तपःस्वाध्यायशीलिने ॥ ९२ ॥

मूलम्

अनेन धर्मप्राप्त्यर्थं शुभा दत्ता पुरानघ।
धेनुर्विप्राय राजर्षे तपःस्वाध्यायशीलिने ॥ ९२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

निष्पाप राजर्षे! इसने धर्मकी प्राप्तिके लिये एक तपस्वी और स्वाध्यायशील ब्राह्मणको एक दूध देनेवाली उत्तम गाय दी थी॥९२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्याश्चायं मया राजन् फलमभ्येत्य याचितः।
विकृतेन च मे दत्तं विशुद्धेनान्तरात्मना ॥ ९३ ॥

मूलम्

तस्याश्चायं मया राजन् फलमभ्येत्य याचितः।
विकृतेन च मे दत्तं विशुद्धेनान्तरात्मना ॥ ९३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! मैंने इसके घर जाकर इससे उसी गोदानका फल माँगा था और विकृतने शुद्ध हृदयसे मुझे वह दे दिया था॥९३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो मे सुकृतं कर्म कृतमात्मविशुद्धये।
गावौ च कपिले क्रीत्वा वत्सले बहुदोहने ॥ ९४ ॥
ते चोञ्छवृत्तये राजन् मया समपवर्जिते।
यथाविधि यथाश्रद्धं तदस्याहं पुनः प्रभो ॥ ९५ ॥

मूलम्

ततो मे सुकृतं कर्म कृतमात्मविशुद्धये।
गावौ च कपिले क्रीत्वा वत्सले बहुदोहने ॥ ९४ ॥
ते चोञ्छवृत्तये राजन् मया समपवर्जिते।
यथाविधि यथाश्रद्धं तदस्याहं पुनः प्रभो ॥ ९५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर मैंने भी अपनी शुद्धिके लिये पुण्यकर्म किया। राजन्! दो अधिक दूध देनेवाली कपिला गौएँ, जिनके साथ उनके बछड़े भी थे, खरीदकर उन्हें मैंने एक उञ्छवृत्तिवाले ब्राह्मणको विधि और श्रद्धा-पूर्वक दे दिया। प्रभो! उसी गोदानका फल मैं पुनः इसे वापस करना चाहता हूँ॥९४-९५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इहाद्यैव गृहीत्वा तु प्रयच्छे द्विगुणं फलम्।
एवं स्यात्‌ पुरुषव्याघ्र कः शुद्धः कोऽत्र दोषवान् ॥ ९६ ॥

मूलम्

इहाद्यैव गृहीत्वा तु प्रयच्छे द्विगुणं फलम्।
एवं स्यात्‌ पुरुषव्याघ्र कः शुद्धः कोऽत्र दोषवान् ॥ ९६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पुरुषसिंह! इससे एक गोदानका फल लेकर आज मैं इसे दूना फल लौटा रहा हूँ। ऐसी परिस्थितिमें आप स्वयं निर्णय कीजिये कि हम दोनोंमेंसे कौन शुद्ध है और कौन दोषी?॥९६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं विवदमानौ स्वस्त्वामिहाभ्यागतौ नृप।
कुरु धर्ममधर्मं वा विनये नौ समादध ॥ ९७ ॥

मूलम्

एवं विवदमानौ स्वस्त्वामिहाभ्यागतौ नृप।
कुरु धर्ममधर्मं वा विनये नौ समादध ॥ ९७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नरेश्वर! इस प्रकार आपसमें विवाद करते हुए हम दोनों यहाँ आपके समीप आये हैं। आप निर्णय कीजिये। अब आप चाहे न्याय करें या अन्याय। इस झगड़ेका निपटारा कर दें। हम दोनोंको विशिष्ट न्यायके मार्गपर लगा दें॥९७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदि नेच्छति मे दानं यथा दत्तमनेन वै।
भवानत्र स्थिरो भूत्वा मार्गे स्थापयिताद्य नौ ॥ ९८ ॥

मूलम्

यदि नेच्छति मे दानं यथा दत्तमनेन वै।
भवानत्र स्थिरो भूत्वा मार्गे स्थापयिताद्य नौ ॥ ९८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसने जिस तरह मुझे दान दिया है, उसी तरह यदि स्वयं भी मुझसे लेना नहीं चाहता है तो आप स्वयं सुस्थिर होकर हम दोनोंको धर्मके मार्गपर स्थापित कर दें॥९८॥

मूलम् (वचनम्)

राजोवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

दीयमानं न गृह्णासि ऋणं कस्मात् त्वमद्य वै।
यथैव तेऽभ्यनुज्ञातं तथा गृह्णीष्व मा चिरम् ॥ ९९ ॥

मूलम्

दीयमानं न गृह्णासि ऋणं कस्मात् त्वमद्य वै।
यथैव तेऽभ्यनुज्ञातं तथा गृह्णीष्व मा चिरम् ॥ ९९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजाने कहा— विकृत! जब विरूप तुम्हें तुम्हारा दिया हुआ ऋण लौटा रहा है, तब तुम उसे आज ग्रहण क्यों नहीं करते? जैसे इसने तुम्हारी दी हुई वस्तु स्वीकार कर ली थी, उसी प्रकार तुम भी इसकी दी हुई वस्तुको ले लो। विलम्ब न करो॥९९॥

मूलम् (वचनम्)

विकृत उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

धारयामीत्यनेनोक्तं ददानीति तथा मया।
नायं मे धारयत्यद्य गच्छतां यत्र वाञ्छति ॥ १०० ॥

मूलम्

धारयामीत्यनेनोक्तं ददानीति तथा मया।
नायं मे धारयत्यद्य गच्छतां यत्र वाञ्छति ॥ १०० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

विकृत बोला— राजन्! विरूपने अभी आपसे कहा है कि मैं ऋण धारण करता हूँ; परंतु मैंने उस समय ‘दान’ कह करके वह वस्तु इसे दी थी; इसलिये इसके ऊपर मेरा कोई ऋण नहीं है। अब यह जहाँ जाना चाहे, जा सकता है॥१००॥

मूलम् (वचनम्)

राजोवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

ददतोऽस्य न गृह्णासि विषमं प्रतिभाति मे।
दण्ड्यो हि त्वं मम मतो नास्त्यत्र खलु संशयः॥१०१॥

मूलम्

ददतोऽस्य न गृह्णासि विषमं प्रतिभाति मे।
दण्ड्यो हि त्वं मम मतो नास्त्यत्र खलु संशयः॥१०१॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजाने कहा— विकृत! यह तुम्हें तुम्हारी वस्तु दे रहा है और तुम लेते नहीं हो। यह मुझे अनुचित जान पड़ता है; अतः मेरे मतमें तुम दण्डनीय हो; इसमें कोई संशय नहीं है॥१०१॥

मूलम् (वचनम्)

विकृत उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

मयास्य दत्तं राजर्षे गृह्णीयां तत् कथं पुनः।
काममत्रापराधो मे दण्डमाज्ञापय प्रभो ॥ १०२ ॥

मूलम्

मयास्य दत्तं राजर्षे गृह्णीयां तत् कथं पुनः।
काममत्रापराधो मे दण्डमाज्ञापय प्रभो ॥ १०२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

विकृत बोला— राजर्षे! मैंने इसे दान दिया था; फिर वह दान इससे वापस कैसे ले लूँ। भले, इसमें मेरा अपराध समझा जाय; परंतु मैं दिया हुआ दान वापस नहीं ले सकता। प्रभो! मुझे दण्ड भोगनेकी आज्ञा प्रदान करें॥१०२॥

Misc Detail

विरूप उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

दीयमानं यदि मया नेषिष्यसि कथञ्चन।
नियंस्यति त्वां नृपतिरयं धर्मानुशासकः ॥ १०३ ॥

मूलम्

दीयमानं यदि मया नेषिष्यसि कथञ्चन।
नियंस्यति त्वां नृपतिरयं धर्मानुशासकः ॥ १०३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

विरूपने कहा— विकृत! यदि तुम मेरी दी हुई वस्तु स्वीकार नहीं करोगे तो ये धर्मपूर्ण शासन करनेवाले नरेश तुम्हें कैद कर लेंगे॥१०३॥

मूलम् (वचनम्)

विकृत उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्वं मया याचितेनेह दत्तं कथमिहाद्य तत्।
गृह्णीयां गच्छतु भवानभ्यनुज्ञां ददानि ते ॥ १०४ ॥

मूलम्

स्वं मया याचितेनेह दत्तं कथमिहाद्य तत्।
गृह्णीयां गच्छतु भवानभ्यनुज्ञां ददानि ते ॥ १०४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

विकृत बोला— तुम्हारे माँगनेपर मैंने अपना धन दानके रूपमें दिया था; फिर आज उसे वापस कैसे ले सकता हूँ? तुम्हारे ऊपर मेरा कुछ भी पावना नहीं है। मैं तुम्हें जानेके लिये आज्ञा देता हूँ, तुम जाओ॥१०४॥

मूलम् (वचनम्)

ब्राह्मण उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रुतमेतत्त्वया राजन्ननयोः कथितं द्वयोः।
प्रतिज्ञातं मया यत्ते तद् गृहाणाविचारितम् ॥ १०५ ॥

मूलम्

श्रुतमेतत्त्वया राजन्ननयोः कथितं द्वयोः।
प्रतिज्ञातं मया यत्ते तद् गृहाणाविचारितम् ॥ १०५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसी बीचमें जापक ब्राह्मण बोल उठा— राजन्! आपने इन दोनोंकी बातें सुन लीं। मैंने आपको देनेके लिये जो प्रतिज्ञा की है, उसके अनुसार आप मेरा दान बिना विचारे ग्रहण करें॥१०५॥

मूलम् (वचनम्)

राजोवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रस्तुतं सुमहत् कार्यमनयोर्गह्वरं यथा।
जापकस्य दृढीकारः कथमेतद् भविष्यति ॥ १०६ ॥

मूलम्

प्रस्तुतं सुमहत् कार्यमनयोर्गह्वरं यथा।
जापकस्य दृढीकारः कथमेतद् भविष्यति ॥ १०६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजाने मन-ही-मन कहा— इन दोनोंका बड़ा भारी और गहन कार्य सामने आ गया है। इधर जापक ब्राह्मणका सुदृढ़ आग्रह ज्यों-का-त्यों बना हुआ है। इससे निपटारा कैसे होगा॥१०६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदि तावन्न गृह्णामि ब्राह्मणेनापवर्जितम्।
कथं न लिप्येयमहं पापेन महताद्य वै ॥ १०७ ॥

मूलम्

यदि तावन्न गृह्णामि ब्राह्मणेनापवर्जितम्।
कथं न लिप्येयमहं पापेन महताद्य वै ॥ १०७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यदि मैं आज ब्राह्मणकी दी हुई वस्तु ग्रहण न करूँ तो किस प्रकार महान् पापसे निर्लिप्त रह सकूँगा॥१०७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तौ चोवाच स राजर्षिः कृतकार्यौ गमिष्यथः।
नेदानीं मामिहासाद्य राजधर्मो भवेन्मृषा ॥ १०८ ॥

मूलम्

तौ चोवाच स राजर्षिः कृतकार्यौ गमिष्यथः।
नेदानीं मामिहासाद्य राजधर्मो भवेन्मृषा ॥ १०८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसके बाद राजर्षि इक्ष्वाकुने उन दोनोंसे कहा—‘तुम दोनों अपने विवादका निपटारा हो जानेपर ही यहाँसे जाना। इस समय मेरे पास आकर अपना कार्य पूर्ण हुए बिना न जाना। मुझे भय है कि राजधर्म मिथ्या अथवा कलंकित न हो जाय॥१०८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्वधर्मः परिपाल्यस्तु राज्ञामिति विनिश्चयः।
विप्रधर्मश्च गहनो मामनात्मानमाविशत् ॥ १०९ ॥

मूलम्

स्वधर्मः परिपाल्यस्तु राज्ञामिति विनिश्चयः।
विप्रधर्मश्च गहनो मामनात्मानमाविशत् ॥ १०९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजाओंको अपने धर्मका पालन करना चाहिये, यही शास्त्रका सिद्धान्त है। इधर मुझ अजितात्माके भीतर गहन ब्राह्मणधर्मने प्रवेश किया है॥१०९॥

मूलम् (वचनम्)

ब्राह्मण उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

गृहाण धारयेऽहं च याचितं संश्रुतं मया।
न चेद् ग्रहीष्यसे राजन् शपिष्ये त्वां न संशयः॥११०॥

मूलम्

गृहाण धारयेऽहं च याचितं संश्रुतं मया।
न चेद् ग्रहीष्यसे राजन् शपिष्ये त्वां न संशयः॥११०॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्राह्मणने कहा— राजन्! आपने जो वस्तु माँगी थी और जिसे देनेकी मैंने प्रतिज्ञा कर ली थी, उसे मैं आपकी धरोहरके रूपमें अपने पास रखता हूँ; अतः शीघ्र उसे ले लें। यदि नहीं लेंगे तो निस्संदेह मैं आपको शाप दे दूँगा॥११०॥

मूलम् (वचनम्)

राजोवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

धिग्राजधर्मं यस्यायं कार्यस्येह विनिश्चयः।
इत्यर्थं मे ग्रहीतव्यं कथं तुल्यं भवेदिति ॥ १११ ॥

मूलम्

धिग्राजधर्मं यस्यायं कार्यस्येह विनिश्चयः।
इत्यर्थं मे ग्रहीतव्यं कथं तुल्यं भवेदिति ॥ १११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजाने कहा— धिक्कार है राजधर्मको, जिसके कार्यका यहाँ यह परिणाम निकला। ब्राह्मणको और मुझको समान फलकी प्राप्ति कैसे हो, इसी उद्देश्यसे मुझे यह दान ग्रहण करना है॥१११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एष पाणिरपूर्वं मे निक्षेपार्थं प्रसारितः।
यन्मे धारयसे विप्र तदिदानीं प्रदीयताम् ॥ ११२ ॥

मूलम्

एष पाणिरपूर्वं मे निक्षेपार्थं प्रसारितः।
यन्मे धारयसे विप्र तदिदानीं प्रदीयताम् ॥ ११२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्रह्मन्! यह मेरा हाथ जो आजसे पहले किसीके सामने नहीं फैलाया गया था, आज आपसे धरोहर लेनेके लिये आपके सामने फैला है। आप मेरा जो कुछ भी धरोहर धारण करते हैं, उसे इस समय मुझे दे दीजिये॥

मूलम् (वचनम्)

ब्राह्मण उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

संहितां जपता यावान् गुणः कश्चित् कृतो मया।
तत् सर्वं प्रतिगृह्णीष्व यदि किञ्चिदिहास्ति मे ॥ ११३ ॥

मूलम्

संहितां जपता यावान् गुणः कश्चित् कृतो मया।
तत् सर्वं प्रतिगृह्णीष्व यदि किञ्चिदिहास्ति मे ॥ ११३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्राह्मणने कहा— राजन्! मैंने संहिताका जप करते हुए कहींसे जितना भी पुण्य अथवा सद्‌गुण संग्रह किया है, वह सब आप ले लें। इसके सिवा भी मेरे पास जो कुछ पुण्य हो, उसे ग्रहण करें॥११३॥

मूलम् (वचनम्)

राजोवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

जलमेतन्निपतितं मम पाणौ द्विजोत्तम।
सममस्तु सहैवास्तु प्रतिगृह्णातु वै भवान् ॥ ११४ ॥

मूलम्

जलमेतन्निपतितं मम पाणौ द्विजोत्तम।
सममस्तु सहैवास्तु प्रतिगृह्णातु वै भवान् ॥ ११४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजाने कहा— द्विजश्रेष्ठ! मेरे हाथपर यह संकल्पका जल पड़ा हुआ है। मेरा और आपका सारा पुण्य हम दोनों के लिये समान हो और हम साथ-साथ उसका उपभोग करें; इस उद्देश्यसे आप मेरा दिया हुआ दान भी ग्रहण करें॥११४॥

मूलम् (वचनम्)

विरूप उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

कामक्रोधौ विद्धि नौ त्वमावाभ्यां कारितो भवान्।
सहेति च यदुक्तं ते समा लोकास्तवास्य च ॥ ११५ ॥

मूलम्

कामक्रोधौ विद्धि नौ त्वमावाभ्यां कारितो भवान्।
सहेति च यदुक्तं ते समा लोकास्तवास्य च ॥ ११५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

विरूपने कहा— राजन्! आपको विदित हो कि हम दोनों काम और क्रोध हैं। हमने ही आपको इस कार्यमें लगाया है। आपने जो साथ-साथ फल भोगनेकी बात कही है, इससे आपको और इस ब्राह्मणको एक समान लोक प्राप्त होंगे॥११५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नायं धारयते किञ्चिज्जिज्ञासा त्वत्कृते कृता।
कालो धर्मस्तथा मृत्युः कामक्रोधौ तथा युवाम् ॥ ११६ ॥
सर्वमन्योन्यनिष्कर्षे निघृष्टं पश्यतस्तव ।
गच्छ लोकान् जितान् स्वेन कर्मणा यत्र वाञ्छसि ॥ ११७ ॥

मूलम्

नायं धारयते किञ्चिज्जिज्ञासा त्वत्कृते कृता।
कालो धर्मस्तथा मृत्युः कामक्रोधौ तथा युवाम् ॥ ११६ ॥
सर्वमन्योन्यनिष्कर्षे निघृष्टं पश्यतस्तव ।
गच्छ लोकान् जितान् स्वेन कर्मणा यत्र वाञ्छसि ॥ ११७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह मेरा साथी कुछ भी धारण नहीं करता अथवा मुझपर भी इसका कोई ऋण नहीं है। यह सब खेल तो हमलोगोंने आपकी परीक्षा लेनेके लिये किया था। काल, धर्म, मृत्यु, काम, क्रोध और आप दोनों—ये सब-के-सब एक-दूसरेकी कसौटीपर आपके देखते-देखते कसे गये हैं। अब जहाँ आपकी इच्छा हो, अपने कर्मसे जीते हुए उन लोकोंमें जाइये॥११६-११७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जापकानां फलावाप्तिर्मया ते सम्प्रदर्शिता।
गतिः स्थानं च लोकाश्च जापकेन यथा जिताः ॥ ११८ ॥

मूलम्

जापकानां फलावाप्तिर्मया ते सम्प्रदर्शिता।
गतिः स्थानं च लोकाश्च जापकेन यथा जिताः ॥ ११८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजी कहते हैं— राजन्! जापकोंको किस प्रकार फलकी प्राप्ति होती है? इस बातका दिग्दर्शन मैंने तुम्हें करा दिया। जापक ब्राह्मणने कौन-सी गति प्राप्त की? किस स्थानपर अधिकार किया? कौन-कौन-से लोक उसके लिये सुलभ हुए? और यह सब किस प्रकार सम्भव हुआ? ये बातें बतायी जायँगी॥११८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रयाति संहिताध्यायी ब्रह्माणं परमेष्ठिनम्।
अथवाग्निं समायाति सूर्यमाविशतेऽपि वा ॥ ११९ ॥

मूलम्

प्रयाति संहिताध्यायी ब्रह्माणं परमेष्ठिनम्।
अथवाग्निं समायाति सूर्यमाविशतेऽपि वा ॥ ११९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

संहिताका स्वाध्याय करनेवाला द्विज परमेष्ठी ब्रह्माको प्राप्त होता है अथवा अग्निमें समा जाता है अथवा सूर्यमें प्रवेश कर जाता है॥११९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स तैजसेन भावेन यदि तत्र रमत्युत।
गुणांस्तेषां समाधत्ते रागेण प्रतिमोहितः ॥ १२० ॥

मूलम्

स तैजसेन भावेन यदि तत्र रमत्युत।
गुणांस्तेषां समाधत्ते रागेण प्रतिमोहितः ॥ १२० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यदि वह जापक तैजस् शरीरसे उन लोकोंमें रमण करता है तो रागसे मोहित होकर उनके गुणोंको अपने भीतर धारण कर लेता है॥१२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं सोमे तथा वायौ भूम्याकाशशरीरगः।
सरागस्तत्र वसति गुणांस्तेषां समाचरन् ॥ १२१ ॥

मूलम्

एवं सोमे तथा वायौ भूम्याकाशशरीरगः।
सरागस्तत्र वसति गुणांस्तेषां समाचरन् ॥ १२१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसी प्रकार संहिताका जप करनेवाला पुरुष रागयुक्त होनेपर चन्द्रलोक, वायुलोक, भूमिलोक तथा अन्तरिक्षलोकके योग्य शरीर धारण करके वहाँ निवास करता है और उन लोकोंमें रहनेवाले पुरुषोंके गुणोंका आचरण करता रहता है॥१२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथ तत्र विरागी स गच्छति त्वथ संशयम्।
परमव्ययमिच्छन् स तमेवाविशते पुनः ॥ १२२ ॥

मूलम्

अथ तत्र विरागी स गच्छति त्वथ संशयम्।
परमव्ययमिच्छन् स तमेवाविशते पुनः ॥ १२२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यदि उन लोकोंकी उत्कृष्टतामें संदेह हो जाय और इस कारण वह जापक वहाँसे विरक्त हो जाय तो वह उत्कृष्ट एवं अविनाशी मोक्षकी इच्छा रखता हुआ फिर उसी परमेष्ठी ब्रह्मामें प्रवेश कर जाता है॥१२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अमृताच्चामृतं प्राप्तः शान्तीभूतो निरात्मवान्।
ब्रह्मभूतः स निर्द्वन्द्वः सुखी शान्तो निरामयः ॥ १२३ ॥

मूलम्

अमृताच्चामृतं प्राप्तः शान्तीभूतो निरात्मवान्।
ब्रह्मभूतः स निर्द्वन्द्वः सुखी शान्तो निरामयः ॥ १२३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अन्य लोकोंकी अपेक्षा परमेष्ठिभावकी प्राप्ति अमृतरूप है। उससे भी उत्कृष्ट कैवल्यरूपी अमृतको प्राप्त होकर वह शान्त (निष्काम), अहंकारशून्य, निर्द्वन्द्व, सुखी, शान्तिपरायण तथा रोग-शोकसे रहित ब्रह्मस्वरूप हो जाता है॥१२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्रह्मस्थानमनावर्तमेकमक्षरसंज्ञकम् ।
अदुःखमजरं शान्तं स्थानं तत् प्रतिपद्यते ॥ १२४ ॥

मूलम्

ब्रह्मस्थानमनावर्तमेकमक्षरसंज्ञकम् ।
अदुःखमजरं शान्तं स्थानं तत् प्रतिपद्यते ॥ १२४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्रह्मपद पुनरावृत्तिरहित, एक, अविनाशी, संज्ञारहित, दुःख-शून्य, अजर और शान्त आश्रय है, उसे ही वह जापक प्राप्त होता है॥१२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

चतुर्भिर्लक्षणैर्हीनं तथा षड्भिः सषोडशैः।
पुरुषं तमतिक्रम्य आकाशं प्रतिपद्यते ॥ १२५ ॥

मूलम्

चतुर्भिर्लक्षणैर्हीनं तथा षड्भिः सषोडशैः।
पुरुषं तमतिक्रम्य आकाशं प्रतिपद्यते ॥ १२५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जापक पूर्वोक्त परमेष्ठी पुरुष (सगुण ब्रह्म) से भी ऊपर उठकर आकाशस्वरूप निर्गुण ब्रह्मको प्राप्त होता है। वहाँ प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और शब्द—इन चारों प्रमाणों और लक्षणोंकी पहुँच नहीं है। क्षुधा, पिपासा, शोक, मोह तथा जरा और मृत्यु—ये छः तरंगें वहाँ नहीं हैं। पाँचों ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँचों कर्मेन्द्रियाँ, पाँचों प्राण तथा मन—इन सोलह उपकरणोंसे भी वह रहित है॥१२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथ नेच्छति रागात्मा सर्वं तदधितिष्ठति।
यच्च प्रार्थयते तच्च मनसा प्रतिपद्यते ॥ १२६ ॥

मूलम्

अथ नेच्छति रागात्मा सर्वं तदधितिष्ठति।
यच्च प्रार्थयते तच्च मनसा प्रतिपद्यते ॥ १२६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यदि उसके मनमें भोगोंके प्रति राग है और वह निर्गुण ब्रह्मको प्राप्त होना नहीं चाहता है तो वह सभी पुण्यलोकोंका अधिष्ठाता बन जाता है और मनसे जिस वस्तुको पाना चाहता है, उसे तुरंत प्राप्त कर लेता है॥१२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथवा चेक्षते लोकान् सर्वान् निरयसंज्ञितान्।
निस्पृहः सर्वतो मुक्तस्तत्र वै रमते सुखम् ॥ १२७ ॥

मूलम्

अथवा चेक्षते लोकान् सर्वान् निरयसंज्ञितान्।
निस्पृहः सर्वतो मुक्तस्तत्र वै रमते सुखम् ॥ १२७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अथवा वह सम्पूर्ण उत्तम लोकोंको भी नरकके तुल्य देखता है और सब ओरसे निःस्पृह एवं मुक्त होकर उसी निर्गुण ब्रह्ममें सुखपूर्वक रमण करता है॥१२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमेषा महाराज जापकस्य गतिर्यथा।
एतत्‌ ते सर्वमाख्यातं किं भूयः श्रोतुमिच्छसि ॥ १२८ ॥

मूलम्

एवमेषा महाराज जापकस्य गतिर्यथा।
एतत्‌ ते सर्वमाख्यातं किं भूयः श्रोतुमिच्छसि ॥ १२८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! इस प्रकार यह जापककी गति बतायी गयी है। यह सारा प्रसंग मैंने कह सुनाया। अब तुम और क्या सुनना चाहते हो?॥१२८॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि जापकोपाख्याने नवनवत्यधिकशततमोऽध्यायः ॥ १९९ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें जापकका उपाख्यानविषयक एक सौ निन्यानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१९९॥