भागसूचना
अष्टनवत्यधिकशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
परमधामके अधिकारी जापकके लिये देवलोक भी नरक-तुल्य हैं—इसका प्रतिपादन
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
कीदृशं निरयं याति
जापको वर्णयस्व मे।
कौतूहलं हि राजन् मे
तद् भवान् वक्तुम् अर्हति ॥ १ ॥
मूलम्
कीदृशं निरयं याति जापको वर्णयस्व मे।
कौतूहलं हि राजन् मे तद् भवान् वक्तुमर्हति ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिरने पूछा— दादाजी! जप करनेवालेको उसके दोषोंके कारण किस तरहके नरककी प्राप्ति होती है? उसका मुझसे वर्णन कीजिये। राजन्! उसे जाननेके लिये मेरे मनमें बड़ा कौतूहल हो रहा है; अतः आप अवश्य बतावें॥१॥
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
धर्मस्यांश-प्रसूतोऽसि
धर्मिष्ठोऽसि स्वभावतः ।
धर्म-मूलाश्रयं वाक्यं
शृणुष्वावहितो ऽनघ ॥ २ ॥
मूलम्
धर्मस्यांशप्रसूतोऽसि धर्मिष्ठोऽसि स्वभावतः ।
धर्ममूलाश्रयं वाक्यं शृणुष्वावहितोऽनघ ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजीने कहा— अनघ! तुम धर्मके अंशसे उत्पन्न हुए हो और स्वभावसे ही धर्मनिष्ठ हो; अतः सावधान होकर धर्मके मूलभूत वेद और परमात्मासे सम्बन्ध रखनेवाली मेरी बात सुनो॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अमूनि यानि स्थानानि
देवानां परमात्मनाम्।
नाना-संस्थान-वर्णानि
नाना-रूप-फलानि च ॥ ३ ॥
दिव्यानि काम-चारीणि
विमानानि सभास् तथा।
आक्रीडा विविधा राजन्
पद्मिन्यश् चैव काञ्चनाः ॥ ४ ॥
मूलम्
अमूनि यानि स्थानानि देवानां परमात्मनाम्।
नानासंस्थानवर्णानि नानारूपफलानि च ॥ ३ ॥
दिव्यानि कामचारीणि विमानानि सभास्तथा।
आक्रीडा विविधा राजन् पद्मिन्यश्चैव काञ्चनाः ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
परम बुद्धिमान् देवताओंके ये जो स्थान बताये जाते हैं, उनके रूप-रंग अनेक प्रकारके हैं। फल भी नाना प्रकारके हैं। देवताओंके यहाँ इच्छानुसार विचरनेवाले दिव्य विमान तथा दिव्य सभाएँ होती हैं। राजन्! उनके यहाँ नाना प्रकारके क्रीडास्थल तथा सुवर्णमय कमलोंसे सुशोभित बावलियाँ होती हैं॥३-४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
चतुर्णां लोक-पालानां
शुक्रस्याथ बृहस्पतेः।
मरुतां विश्वदेवानां
साध्यानाम् अश्विनोर् अपि ॥ ५ ॥
रुद्रादित्य-वसूनां च
तथान्येषां दिवौकसाम्।
एते वै निरयास् तात
स्थानस्य परमात्मनः +++(अग्रे)+++ ॥ ६ ॥
मूलम्
चतुर्णां लोकपालानां शुक्रस्याथ बृहस्पतेः।
मरुतां विश्वदेवानां साध्यानामश्विनोरपि ॥ ५ ॥
रुद्रादित्यवसूनां च तथान्येषां दिवौकसाम्।
एते वै निरयास्तात स्थानस्य परमात्मनः ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तात! वरुण, कुबेर, इन्द्र और यमराज—इन चारों लोकपालों, शुक्र, बृहस्पति, मरुद्गण, विश्वेदेव, साध्य, अश्विनीकुमार, रुद्र, आदित्य, वसु तथा अन्य देवताओंके जो ऐसे ही लोक हैं, वे सब परमात्माके परमधामके सामने नरक ही हैं॥५-६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अभयं चानिमित्तं च
न तत् क्लेश-समावृतम्।
द्वाभ्यां मुक्तं त्रिभिर् मुक्तम्
अष्टाभिस् त्रिभिरेव च ॥ ७ ॥
मूलम्
अभयं चानिमित्तं च न तत् क्लेशसमावृतम्।
द्वाभ्यां मुक्तं त्रिभिर्मुक्तमष्टाभिस्त्रिभिरेव च ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
परमात्माका परमधाम विनाशके भयसे रहित है; क्योंकि वह कारणरहित नित्य-सिद्ध है। वह अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश नामक पाँच क्लेशोंसे घिरा हुआ नहीं है। उसमें प्रिय और अप्रिय ये दो भाव नहीं हैं1। प्रिय और अप्रियके हेतुभूत तीन गुण—सत्त्व, रज और तम भी नहीं हैं तथा वह परमधाम भूत, इन्द्रिय, मन, बुद्धि, उपासना, कर्म, प्राण और अविद्या—इन आठ पुरियोंसे2 भी मुक्त है। वहाँ ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय—इस त्रिपुटीका भी अभाव है॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
चतुर्-लक्षण-वर्जं तु
चतुष्कारणवर्जितम् ।
अप्रहर्षम् अनानन्दम्
अशोकं विगतक्लमम् ॥ ८ ॥
मूलम्
चतुर्लक्षणवर्जं तु चतुष्कारणवर्जितम् ।
अप्रहर्षमनानन्दमशोकं विगतक्लमम् ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इतना ही नहीं, वह दृष्टि, श्रुति, मति और विज्ञाति-इन चार लक्षणोंसे रहित है3। ज्ञानके कारणभूत प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और शब्द—इन चारोंसे वह परे है। वहाँ इष्ट विषयकी प्राप्तिसे होनेवाले हर्ष और उसके भोगजनित आनन्दका भी अभाव है। वह शोक और श्रमसे भी सर्वथा रहित है॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कालः सम्पद्यते तत्र
कालस् तत्र न वै प्रभुः।
स कालस्य प्रभू राजन्
स्वर्गस्यापि तथेश्वरः ॥ ९ ॥
मूलम्
कालः सम्पद्यते तत्र कालस्तत्र न वै प्रभुः।
स कालस्य प्रभू राजन् स्वर्गस्यापि तथेश्वरः ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! कालकी उत्पत्ति भी वहींसे होती है। उस धामपर कालकी प्रभुता नहीं चलती। वह परमात्मा कालका भी स्वामी और स्वर्गका भी ईश्वर है॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आत्म-केवलतां प्राप्तस्
तत्र गत्वा न शोचति।
ईदृशं परमं स्थानं,
निरयास् ते च तादृशाः ॥ १० ॥
मूलम्
आत्मकेवलतां प्राप्तस्तत्र गत्वा न शोचति।
ईदृशं परमं स्थानं निरयास्ते च तादृशाः ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो आत्मकैवल्यको प्राप्त हो चुका है वही मनुष्य वहाँ जाकर शोकसे रहित हो जाता है। उस परमधामका स्वरूप ऐसा ही है और पहले जो नाना प्रकारके सुखभोगोंसे सम्पन्न लोक बताये गये हैं, वे सभी उसकी तुलनामें नरक हैं॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एते ते निरयाः प्रोक्ताः
सर्व एव यथातथम्।
तस्य स्थान-वरस्येह
सर्वे निरय-संज्ञिताः ॥ ११ ॥+++(4)+++
मूलम्
एते ते निरयाः प्रोक्ताः सर्व एव यथातथम्।
तस्य स्थानवरस्येह सर्वे निरयसंज्ञिताः ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! इस प्रकार मैंने तुम्हें यथार्थरूपसे ये सभी नरक बताये हैं। उस परमपदके सामने वस्तुतः वे सभी लोक ‘नरक’ ही कहलाने योग्य हैं॥११॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि जापकोपाख्याने अष्टनवत्यधिकशततमोऽध्यायः ॥ १९८ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें जापकका उपाख्यानविषयक एक सौ अट्ठानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१९८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मूलम्
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-श्रुति भी कहती है—‘अशरीरं वावसन्तं न प्रियाप्रिये स्पृशतः।’ ↩︎
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-आठ पुरियोंका बोधक वचन इस प्रकार उपलब्ध होता है—‘‘‘भूतेन्द्रियमनोबुद्धिवासनाकर्मवायवः। अविद्या चेत्यमुं वर्गमाहुः पुर्यष्टकं बुधाः॥’’’ ↩︎
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-इन लक्षणोंका नाम-निर्देश श्रुतिमें इस प्रकार किया गया है—‘न दृष्टेर् द्रष्टारं पश्येर् न श्रुतेः श्रोतारं शृणुयान् न मतेर् मन्तारम् अन्वीथा न विज्ञातेर् विज्ञातारं विजानीयाः ‘। ↩︎