१९७ जापकोपाख्याने

भागसूचना

सप्तनवत्यधिकशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

जापकमें दोष आनेके कारण उसे नरककी प्राप्ति

मूलम् (वचनम्)

युधिष्ठिर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

गतीनाम् उत्तमा प्राप्तिः
कथितां जापकेष्व् इह।
एकैवैषा गतिस् तेषाम्
उत यान्त्य् अपराम् अपि ॥ १ ॥

मूलम्

गतीनामुत्तमा प्राप्तिः कथितां जापकेष्विह।
एकैवैषा गतिस्तेषामुत यान्त्यपरामपि ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिरने पूछा— पितामह! आपने यहाँ जापकोंके लिये गतियोंमें उत्तम गतिकी प्राप्ति बतायी है। क्या उनके लिये एकमात्र यही गति है? या वे किसी दूसरी गतिको भी प्राप्त होते हैं?॥१॥

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

शृणुष्वावहितो राजन्
जापकानां गतिं विभो।
यथा गच्छन्ति निरयान्
अनेकान् पुरुषर्षभ ॥ २ ॥

मूलम्

शृणुष्वावहितो राजन् जापकानां गतिं विभो।
यथा गच्छन्ति निरयाननेकान् पुरुषर्षभ ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजीने कहा— राजन्! तुम सावधान होकर जापकोंकी गतिका वर्णन सुनो। प्रभो! पुरुषप्रवर! अब मैं यह बता रहा हूँ कि वे किस तरह नाना प्रकारके नरकोंमें पड़ते हैं1॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथोक्त-पूर्वं पूर्वं यो
नानुतिष्ठति जापकः।
एक-देश-क्रियश् चात्र
निरयं+++(=नरकं)+++ स च गच्छति ॥ ३ ॥

मूलम्

यथोक्तपूर्वं पूर्वं यो नानुतिष्ठति जापकः।
एकदेशक्रियश्चात्र निरयं स च गच्छति ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो जापक जैसा पहले बताया गया है, उसी तरह नियमोंका ठीक-ठीक पालन नहीं करता, एकदेशका ही अनुष्ठान करता है अर्थात् किसी एक ही नियमका पालन करता है, वह नरकमें पड़ता है॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अवमानेन कुरुते न
प्रीयति न हृष्यति
ईदृशो जापको याति
निरयं नात्र संशयः ॥ ४ ॥

मूलम्

अवमानेन कुरुते न प्रीयति न हृष्यति।
ईदृशो जापको याति निरयं नात्र संशयः ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो अवहेलनापूर्वक जप करता है, उसके प्रति प्रेम या प्रसन्नता नहीं प्रकट करता है, ऐसा जापक भी निःसंदेह नरकमें ही पड़ता है॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अहङ्-कार-कृतश् चैव
सर्वे निरय-गामिनः ।
परावमानी पुरुषो
भविता निरयोपगः ॥ ५ ॥+++(4)+++

मूलम्

अहङ्कारकृतश्चैव सर्वे निरयगामिनः ।
परावमानी पुरुषो भविता निरयोपगः ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जपके कारण अपनेमें बड़प्पनका अभिमान करनेवाले सभी जापक नरकगामी होते हैं। दूसरोंका अपमान करनेवाला जापक भी नरकमें ही पड़ता है॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अभिध्या+++(=जिघृक्षा)+++-पूर्वकं जप्यं
कुरुते यश् च मोहितः।
यत्राभिध्यां स कुरुते
तं वै निरयम् ऋच्छति ॥ ६ ॥+++(5)+++

मूलम्

अभिध्यापूर्वकं जप्यं कुरुते यश्च मोहितः।
यत्राभिध्यां स कुरुते तं वै निरयमृच्छति ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो मोहित हो फलकी इच्छा रखकर जप करता है, वह जिस फलका चिन्तन करता है, उसीके उपयुक्त नरकमें पड़ता है॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथैश्वर्य-प्रवृत्तेषु
जापकस् तत्र रज्यते ।
स एव निरयस् तस्य
नासौ तस्मात् प्रमुच्यते ॥ ७ ॥

मूलम्

अथैश्वर्यप्रवृत्तेषु जापकस्तत्र रज्यते ।
स एव निरयस्तस्य नासौ तस्मात् प्रमुच्यते ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यदि जप करनेवाले साधकको अणिमा आदि ऐश्वर्य प्राप्त हों और वह उनमें अनुरक्त हो जाय तो वह ही उसके लिये नरक है, वह उससे छुटकारा नहीं पाता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रागेण जापको जप्यं
कुरुते तत्र मोहितः।
यत्रास्य रागः पतति
तत्र तत्रोपपद्यते ॥ ८ ॥

मूलम्

रागेण जापको जप्यं कुरुते तत्र मोहितः।
यत्रास्य रागः पतति तत्र तत्रोपपद्यते ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो जापक मोहके वशीभूत हो विषयासक्तिपूर्वक जप करता है, वह जिस फलमें उसकी आसक्ति होती है, उसीके अनुरूप शरीरको प्राप्त होता है। इस प्रकार उसका पतन हो जाता है॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दुर्बुद्धिर् अकृत-प्रज्ञश्
चले मनसि तिष्ठति ।
चलाम् एव गतिं याति
निरयं वा नियच्छति ॥ ९ ॥

मूलम्

दुर्बुद्धिरकृतप्रज्ञश्चले मनसि तिष्ठति ।
चलामेव गतिं याति निरयं वा नियच्छति ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिसकी बुद्धि भोगोंमें आसक्तिके कारण दूषित है तथा जो विवेकशील नहीं है, वह जापक यदि मनके चंचल रहते हुए ही जप करता है तो विनाशशील गतिको प्राप्त होता है अथवा नरकमें गिरता है। अर्थात् विनाशशील या स्वर्गादि विचलित स्वभाववाले लोकोंको प्राप्त होता है या तिर्यक्-योनियोंमें जाता है॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अ-कृत-प्रज्ञको बालो
मोहं गच्छति जापकः।
स मोहान् निरयं याति
तत्र गत्वा ऽनुशोचति ॥ १० ॥

मूलम्

अकृतप्रज्ञको बालो मोहं गच्छति जापकः।
स मोहान्निरयं याति तत्र गत्वानुशोचति ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो विवेकशून्य मूढ़ जापक मोहग्रस्त हो जाता है, वह उस मोहके कारण नरकमें गिरता है और उसमें गिरकर निरन्तर शोकमग्न रहता है॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दृढ-ग्राही करोमीति
जाप्यं जपति जापकः।
न सम्पूर्णो न संयुक्तो
निरयं सोऽनुगच्छति ॥ ११ ॥

मूलम्

दृढग्राही करोमीति जाप्यं जपति जापकः।
न सम्पूर्णो न संयुक्तो निरयं सोऽनुगच्छति ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मैं निश्चय ही जपका अनुष्ठान पूरा करूँगा,’ ऐसा दृढ़ आग्रह रखकर जो जापक जपमें प्रवृत्त होता है, परंतु न तो उसमें अच्छी तरह संलग्न होता है और न उसे पूरा ही कर पाता है, वह नरकमें गिरता है॥११॥

मूलम् (वचनम्)

युधिष्ठिर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनिवृत्तं परं यत् तद्
अव्यक्तं ब्रह्मणि स्थितम्।
तद्-भूतो जापकः कस्मात्
शरीरम् इहाविशेत् ॥ १२ ॥

मूलम्

अनिवृत्तं परं यत्तदव्यक्तं ब्रह्मणि स्थितम्।
तद्भूतो जापकः कस्मात् स शरीरमिहाविशेत् ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिरने पूछा— जो कभी निवृत्त न होनेवाला सनातन अव्यक्त ब्रह्म है, उस गायत्रीके जपमें स्थित रहने-वाला एवं उससे भावित हुआ जापक किस कारणसे यहाँ शरीरमें प्रवेश करता है अर्थात् पुनर्जन्म ग्रहण करता है?॥

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

दुष्-प्रज्ञानेन निरया
बहवः समुदाहृताः।
प्रशस्तं जापकत्वं च
दोषाश् चैते तद्-आत्मकाः ॥ १३ ॥

मूलम्

दुष्प्रज्ञानेन निरया बहवः समुदाहृताः।
प्रशस्तं जापकत्वं च दोषाश्चैते तदात्मकाः ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजीने कहा— राजन्! काम आदिसे बुद्धि दूषित होनेके कारण ही उसके लिये बहुत-से नरकोंकी प्राप्ति अर्थात् नाना योनियोंमें जन्म ग्रहण करनेकी बात कही गयी है। जापक होना तो बहुत उत्तम है। वे उपर्युक्त राग आदि दोष तो उसमें दूषित बुद्धिके कारण ही आते हैं॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि जापकोपाख्याने सप्तनवत्यधिकशततमोऽध्यायः ॥ १९७ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें जापकका उपाख्यानविषयक एक सौ सत्तानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१९७॥


  1. इस प्रकरणमें पुनर्जन्मको ही नरकके नामसे कहा गया है। यह बात छठे और सातवें श्लोकके वर्णनसे स्पष्ट हो जाती है। ↩︎