भागसूचना
षण्णवत्यधिकशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
जपयज्ञके विषयमें युधिष्ठिरका प्रश्न, उसके उत्तरमें जप और ध्यानकी महिमा और उसका फल
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
चातुराश्रम्यम् उक्तं ते
राजधर्मास्तथैव च।
नानाश्रयाश् च बहव
इतिहासाः पृथग्विधाः ॥ १ ॥
मूलम्
चातुराश्रम्यमुक्तं ते राजधर्मास्तथैव च।
नानाश्रयाश्च बहव इतिहासाः पृथग्विधाः ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिरने पूछा— पितामह! आपने चार आश्रमों तथा राजधर्मोंका वर्णन किया एवं अनेकानेक विषयोंसे सम्बन्ध रखनेवाले बहुत-से भिन्न-भिन्न इतिहास भी सुनाये॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्रुतास् त्वत्तः कथाश्चैव
धर्मयुक्ता महामते।
संदेहोऽस्ति तु कश्चिन् मे
तद् भवान् वक्तुमर्हति ॥ २ ॥
मूलम्
श्रुतास्त्वत्तः कथाश्चैव धर्मयुक्ता महामते।
संदेहोऽस्ति तु कश्चिन्मे तद् भवान् वक्तुमर्हति ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महामते! मैंने आपके मुखसे अनेक धर्मयुक्त कथाएँ सुनी हैं; फिर भी मेरे मनमें एक संदेह रह गया है, उसे आप मुझे बतानेकी कृपा करें॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जापकानां फलावाप्तिं
श्रोतुम् इच्छामि भारत।
किंफलं जपताम् उक्तं
क्व वा तिष्ठन्ति जापकाः ॥ ३ ॥
मूलम्
जापकानां फलावाप्तिं श्रोतुमिच्छामि भारत।
किंफलं जपतामुक्तं क्व वा तिष्ठन्ति जापकाः ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतनन्दन! अब मैं यह सुनना चाहता हूँ कि जप करनेवालोंको फलकी प्राप्ति कैसे होती है? जापकोंके जपका फल क्या बताया गया है अथवा जप करनेवाले पुरुष किन लोकोंमें स्थान पाते हैं?॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जप्यस्य च विधिं कृत्स्नं
वक्तुम् अर्हसि मेऽनघ।
जापका इति किञ्चैतत्
सांख्य-योग-क्रिया-विधिः ॥ ४ ॥
मूलम्
जप्यस्य च विधिं कृत्स्नं वक्तुमर्हसि मेऽनघ।
जापका इति किञ्चैतत् सांख्ययोगक्रियाविधिः ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अनघ! आप मुझे जपकी सम्पूर्ण विधि भी बताइये। ‘जापक’ इस पदसे क्या तात्पर्य है? क्या यह सांख्ययोग, ध्यानयोग अथवा क्रियायोगका अनुष्ठान है?॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
किं यज्ञविधिर् एवैष
किम् एतज् जप्यम् उच्यते ।
एतन् मे सर्वम् आचक्ष्व
सर्वज्ञो ह्यसि मे मतः ॥ ५ ॥
मूलम्
किं यज्ञविधिरेवैष किमेतज्जप्यमुच्यते ।
एतन्मे सर्वमाचक्ष्व सर्वज्ञो ह्यसि मे मतः ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अथवा यह जप भी कोई यज्ञकी ही विधि है? जिसका जप किया जाता है, वह क्या वस्तु है? आप यह सारी बातें मुझे बताइये; क्योंकि आप मेरी मान्यताके अनुसार सर्वज्ञ हैं॥५॥
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अत्राप्य् उदाहरन्तीमम्
इतिहासं पुरातनम् ।
यमस्य यत् पुरावृत्तं
कालस्य ब्राह्मणस्य च ॥ ६ ॥
मूलम्
अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् ।
यमस्य यत् पुरावृत्तं कालस्य ब्राह्मणस्य च ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजीने कहा— राजन्! इस विषयमें विद्वान् पुरुष उस प्राचीन इतिहासका उदाहरण दिया करते हैं, जो पूर्वकालमें यम, काल और ब्राह्मणके बीचमें घटित हुआ था॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सांख्ययोगौ तु यावुक्तौ
मुनिभिर् मोक्ष-दर्शिभिः।
संन्यास एव वेदान्ते
वर्तते जपनं प्रति ॥ ७ ॥
मूलम्
सांख्ययोगौ तु यावुक्तौ मुनिभिर्मोक्षदर्शिभिः।
संन्यास एव वेदान्ते वर्तते जपनं प्रति ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मोक्षदर्शी मुनियोंने जो सांख्य और योगका वर्णन किया है, उनमेंसे वेदान्त (सांख्य)-में तो जपका संन्यास (त्याग) ही बताया गया है॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वेद-वादाश् च निर्वृत्ताः
शान्ता ब्रह्मण्य् अवस्थिताः।
सांख्य-योगौ तु याव् उक्तौ
मुनिभिः सम-दर्शिभिः ॥ ८ ॥
मार्गौ ताव् अप्य् उभावेतौ
संश्रितौ, न च संश्रितौ।
मूलम्
वेदवादाश्च निर्वृत्ताः शान्ता ब्रह्मण्यवस्थिताः।
सांख्ययोगौ तु यावुक्तौ मुनिभिः समदर्शिभिः ॥ ८ ॥
मार्गौ तावप्युभावेतौ संश्रितौ न च संश्रितौ।
अनुवाद (हिन्दी)
उपनिषदोंके वाक्य निर्वृत्ति (परमानन्द), शान्ति तथा ब्रह्मनिष्ठताका बोध करानेवाले हैं (अतः वहाँ जपकी अपेक्षा नहीं है)। समदर्शी मुनियोंने जो सांख्य और योग बताये हैं, वे दोनों मार्ग चित्तशुद्धिके द्वारा ज्ञानप्राप्तिमें उपकारक होनेसे जपका आश्रय लेते हैं, नहीं भी लेते हैं॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथा संश्रूयते राजन्
कारणं चात्र वक्ष्यते ॥ ९ ॥
मनःसमाधिर् अत्रापि
तथेन्द्रिय-जयः स्मृतः ।
मूलम्
यथा संश्रूयते राजन् कारणं चात्र वक्ष्यते ॥ ९ ॥
मनःसमाधिरत्रापि तथेन्द्रियजयः स्मृतः ।
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! यहाँ जैसा कारण सुना जाता है, वैसा आगे बताया जायगा। सांख्य और योग—इन दोनों मार्गोंमें भी मनोनिग्रह और इन्द्रियसंयम आवश्यक माने गये हैं॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सत्यमग्निपरीचारो
विविक्तानां च सेवनम् ॥ १० ॥
ध्यानं तपो दमः क्षान्तिर्
अनसूया मिताशनम्।
विषय-प्रतिसंहारो
मित-जल्पस् तथा शमः ॥ ११ ॥
एष प्रवर्तको यज्ञो
निवर्तकम् अथो+++(=अथ)+++ शृणु।
यथा निवर्तते कर्म
जपतो ब्रह्मचारिणः ॥ १२ ॥
मूलम्
सत्यमग्निपरीचारो विविक्तानां च सेवनम् ॥ १० ॥
ध्यानं तपो दमः क्षान्तिरनसूया मिताशनम्।
विषयप्रतिसंहारो मितजल्पस्तथा शमः ॥ ११ ॥
एष प्रवर्तको यज्ञो निवर्तकमथो शृणु।
यथा निवर्तते कर्म जपतो ब्रह्मचारिणः ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सत्य, अग्निहोत्र, एकान्तसेवन, ध्यान तपस्या, दम, क्षमा, अनसूया, मिताहार, विषयोंका संकोच, मितभाषण तथा शम—यह प्रवर्तक यज्ञ है। अब निवर्तक यज्ञका वर्णन सुनो; जिसके अनुसार जप करनेवाले ब्रह्मचारी साधकके सारे कर्म निवृत्त हो जाते हैं (अर्थात् उसे मोक्ष प्राप्त हो जाता है)॥१०-१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतत् सर्वम् अशेषेण
यथोक्तं परिवर्तयेत्।
निवृत्तं मार्गम् आसाद्य
व्यक्ताव्यक्तम् अनाश्रयम् ॥ १३ ॥
मूलम्
एतत् सर्वमशेषेण यथोक्तं परिवर्तयेत्।
निवृत्तं मार्गमासाद्य व्यक्ताव्यक्तमनाश्रयम् ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इन मनोनिग्रह आदि पूर्वोक्त सभी साधनोंका निष्कामभावसे अनुष्ठान करके उन्हें प्रवृत्तिके विपरीत निवृत्तिमार्गमें बदल डाले। निवृत्तिमार्ग तीन तरहका है—व्यक्त, अव्यक्त और अनाश्रय, उस मार्गका आश्रय लेकर स्थिरचित्त हो जाय॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कुशोच्चय-निषण्णः सन्
कुश-हस्तः कुशैः शिखी।
कुशैः परिवृतस् तस्मिन्
मध्ये छन्नः कुशैस् तथा ॥ १४ ॥
मूलम्
कुशोच्चयनिषण्णः सन् कुशहस्तः कुशैः शिखी।
कुशैः परिवृतस्तस्मिन् मध्ये छन्नः कुशैस्तथा ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
निवृत्तिमार्गपर पहुँचनेकी विधि यह है—जपकर्ताको कुशासनपर बैठना चाहिये। उसे अपने हाथमें भी कुश रखना चाहिये। शिखामें भी कुश बाँध लेना चाहिये, वह कुशोंसे घिरकर बैठे और मध्यभागमें भी कुशोंसे आच्छादित रहे॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विषयेभ्यो नमस् कुर्याद्
विषयान् न च भावयेत्।+++(4)+++
साम्यम् उत्पाद्य मनसा
मनस्य् एव मनो दधत् ॥ १५ ॥
मूलम्
विषयेभ्यो नमस्कुर्याद् विषयान्न च भावयेत्।
साम्यमुत्पाद्य मनसा मनस्येव मनो दधत् ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
विषयोंको दूरसे ही नमस्कार करे और कभी उनका अपने मनमें चिन्तन न करे। मनसे समताकी भावना करके मनका मनमें ही लय करे॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तद् धिया ध्यायति ब्रह्म+++(=मन्त्रं)+++
जपन् वै संहिताम् हिताम्।
संन्यस्यत्य् अथवा तां वै
समाधौ पर्यवस्थितः ॥ १६ ॥
मूलम्
तद् धिया ध्यायति ब्रह्म जपन् वै संहिताम् हिताम्।
संन्यस्यत्यथवा तां वै समाधौ पर्यवस्थितः ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
फिर बुद्धिके द्वारा परब्रह्म परमात्माका ध्यान करे तथा सर्व-हितकारिणी वेदसंहिताका एवं प्रणव और गायत्री मन्त्रका जप करे। फिर समाधिमें स्थित होनेपर उस संहिता एवं गायत्री मन्त्र आदिके जपको भी त्याग दे॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ध्यानम् उत्पादयत्य् अत्र
संहिता-बल-संश्रयात् ।
शुद्धात्मा तपसा दान्तो
निवृत्त-द्वेष-कामवान् ॥ १७ ॥
अराग-मोहो निर्द्वन्द्वो
न शोचति न सज्जते।
न कर्ता कारणानां च
न कार्याणाम् इति स्थितिः ॥ १८ ॥
मूलम्
ध्यानमुत्पादयत्यत्र संहिताबलसंश्रयात् ।
शुद्धात्मा तपसा दान्तो निवृत्तद्वेषकामवान् ॥ १७ ॥
अरागमोहो निर्द्वन्द्वो न शोचति न सज्जते।
न कर्ता कारणानां च न कार्याणामिति स्थितिः ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
संहिताके जपसे जो बल प्राप्त होता है, उसका आश्रय लेकर साधक अपने ध्यानको सिद्ध कर लेता है। वह शुद्धचित्त होकर तपके द्वारा मन और इन्द्रियोंको जीत लेता है तथा द्वेष और कामनासे रहित एवं आसक्ति और मोहसे रहित हुआ शीत और उष्ण आदि समस्त द्वन्द्वोंसे अतीत हो जाता है। अतः वह न तो कभी शोक करता है और न कहीं भी आसक्त होता है। वह कर्मोंका कारण और कार्यका कर्ता नहीं होता (अर्थात् अपनेमें कर्तापनका अभिमान नहीं लाता है)॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न चाहङ्कार-योगेन
मनः प्रस्थापयेत् क्वचित्।
न चार्थ-ग्रहणे युक्तो
नावमानी न चाक्रियः ॥ १९ ॥+++(5)+++
मूलम्
न चाहङ्कारयोगेन मनः प्रस्थापयेत् क्वचित्।
न चार्थग्रहणे युक्तो नावमानी न चाक्रियः ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह अहंकारसे मुक्त होकर कहीं भी अपने मनको नहीं लगाता है। वह न तो स्वार्थ-साधनमें संलग्न होता है, न किसीका अपमान करता है और न अकर्मण्य होकर ही बैठता है॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ध्यान-क्रिया-परो युक्तो
ध्यानवान् ध्यान-निश्चयः।
ध्याने समाधिम् उत्पाद्य
तद् अपि त्यजति क्रमात् ॥ २० ॥+++(5)+++
मूलम्
ध्यानक्रियापरो युक्तो ध्यानवान् ध्याननिश्चयः।
ध्याने समाधिमुत्पाद्य तदपि त्यजति क्रमात् ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह ध्यानरूप क्रियामें ही नित्य तत्पर रहता है, ध्याननिष्ठ हो ध्यानके द्वारा ही तत्त्वका निश्चय कर लेता है, ध्यानमें समाधिस्थ होकर क्रमशः ध्यानरूप क्रियाका भी त्याग कर देता है॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स वै तस्याम् अवस्थायां
सर्व-त्याग-कृतः सुखम्।
निरिच्छस् त्यजति प्राणान्
ब्राह्मीं संविशते तनुम् ॥ २१ ॥
मूलम्
स वै तस्यामवस्थायां सर्वत्यागकृतः सुखम्।
निरिच्छस्त्यजति प्राणान् ब्राह्मीं संविशते तनुम् ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह उस अवस्थामें स्थित हुआ योगी निस्संदेह सर्वत्यागरूप निर्बीज समाधिसे प्राप्त होनेवाले दिव्य परमानन्दका अनुभव करता है। वह योगजनित अणिमा आदि सिद्धियोंकी भी इच्छा न रखकर सर्वथा निष्काम हो प्राणोंका परित्याग कर देता है और विशुद्ध परब्रह्म परमात्माके स्वरूपमें प्रवेश कर जाता है॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथवा नेच्छते तत्र
ब्रह्म-काय-निषेवणम्।
उत्क्रामति च मार्गस्थो
नैव क्वचन जायते ॥ २२ ॥
मूलम्
अथवा नेच्छते तत्र ब्रह्मकायनिषेवणम्।
उत्क्रामति च मार्गस्थो नैव क्वचन जायते ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अथवा यदि वह परब्रह्मका सायुज्य नहीं प्राप्त करना चाहता तो देवयानमार्गपर स्थित हो ऊपरके लोकोंमें गमन करता है, अर्थात् परब्रह्म परमात्माके परम धाममें चला जाता है। पुनः इस संसारमें कहीं जन्म नहीं लेता॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आत्म-बुद्ध्या समास्थाय
शान्ती-भूतो निरामयः।
अमृतं विरजः शुद्धम्
आत्मानं प्रतिपद्यते ॥ २३ ॥
मूलम्
आत्मबुद्ध्या समास्थाय शान्तीभूतो निरामयः।
अमृतं विरजः शुद्धमात्मानं प्रतिपद्यते ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आत्मस्वरूपका बोध हो जानेसे वह रजोगुणसे रहित निर्मल शान्तस्वरूप योगी अमृतस्वरूप विशुद्ध आत्माको प्राप्त होता है॥२३॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि जापकोपाख्याने षण्णवत्यधिकशततमोऽध्यायः ॥ १९६ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें जापकका उपाख्यानविषयक एक सौ छानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१९६॥