भागसूचना
पञ्चनवत्यधिकशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
ध्यानयोगका वर्णन
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
हन्त वक्ष्यामि ते पार्थ ध्यानयोगं चतुर्विधम्।
यं ज्ञात्वा शाश्वतीं सिद्धिं गच्छन्तीह महर्षयः ॥ १ ॥
मूलम्
हन्त वक्ष्यामि ते पार्थ ध्यानयोगं चतुर्विधम्।
यं ज्ञात्वा शाश्वतीं सिद्धिं गच्छन्तीह महर्षयः ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजी कहते हैं— कुन्तीनन्दन! अब मैं तुमसे ध्यानयोगका वर्णन करूँगा जो आलम्बनके भेदसे चार प्रकारका होता है। जिसे जानकर महर्षिगण यहीं सनातन सिद्धिको प्राप्त करते हैं॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथा स्वनुष्ठितं ध्यानं तथा कुर्वन्ति योगिनः।
महर्षयो ज्ञानतृप्ता निर्वाणगतमानसाः ॥ २ ॥
मूलम्
यथा स्वनुष्ठितं ध्यानं तथा कुर्वन्ति योगिनः।
महर्षयो ज्ञानतृप्ता निर्वाणगतमानसाः ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
निर्वाणस्वरूप मोक्षमें मन लगानेवाले ज्ञानतृप्त योगयुक्त महर्षिगण उसी उपायका अवलम्बन करते हैं, जिससे ध्यानका भलीभाँति अनुष्ठान हो सके॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नावर्तन्ते पुनः पार्थ मुक्ताः संसारदोषतः।
जन्मदोषपरिक्षीणाः स्वभावे पर्यवस्थिताः ॥ ३ ॥
मूलम्
नावर्तन्ते पुनः पार्थ मुक्ताः संसारदोषतः।
जन्मदोषपरिक्षीणाः स्वभावे पर्यवस्थिताः ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुन्तीनन्दन! वे संसारके काम, क्रोध आदि दोषोंसे मुक्त तथा जन्मसम्बन्धी दोषसे शून्य होकर परमात्माके स्वरूपमें स्थित हो जाते हैं, इसलिये पुनः इस संसारमें उन्हें नहीं लौटना पड़ता॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निर्द्वन्द्वा नित्यसत्त्वस्था विमुक्ता नियमस्थिताः।
असङ्गान्यविवादीनि मनःशान्तिकराणि च ॥ ४ ॥
तत्र ध्यानेन संश्लिष्टमेकाग्रं धारयेन्मनः।
पिण्डीकृत्येन्द्रियग्राममासीनः काष्ठवन्मुनिः ॥ ५ ॥
मूलम्
निर्द्वन्द्वा नित्यसत्त्वस्था विमुक्ता नियमस्थिताः।
असङ्गान्यविवादीनि मनःशान्तिकराणि च ॥ ४ ॥
तत्र ध्यानेन संश्लिष्टमेकाग्रं धारयेन्मनः।
पिण्डीकृत्येन्द्रियग्राममासीनः काष्ठवन्मुनिः ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ध्यानयोगके साधकोंको चाहिये कि सर्दी-गर्मी आदि द्वन्द्वोंसे रहित, नित्य सत्त्वगुणमें स्थित, सब प्रकारके दोषोंसे रहित और शौच-संतोषादि नियमोंमें तत्पर रहें। जो स्थान असंग (सब प्रकारके भोगोंके संगसे शून्य), ध्यानविरोधी वस्तुओंसे रहित तथा मनको शान्ति देनेवाले हों, वहीं इन्द्रियोंको विषयोंकी ओरसे समेटकर काठकी भाँति स्थिरभावसे बैठ जाय और मनको एकाग्र करके परमात्माके ध्यानमें लगा दे॥४-५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शब्दं न विन्देच्छ्रोत्रेण स्पर्शं त्वचा न वेदयेत्।
रूपं न चक्षुषा विद्याज्जिह्वया न रसांस्तथा ॥ ६ ॥
घ्रेयाण्यपि च सर्वाणि जह्याद् ध्यानेन योगवित्।
पञ्चवर्गप्रमाथीनि नेच्छेच्चैतानि वीर्यवान् ॥ ७ ॥
मूलम्
शब्दं न विन्देच्छ्रोत्रेण स्पर्शं त्वचा न वेदयेत्।
रूपं न चक्षुषा विद्याज्जिह्वया न रसांस्तथा ॥ ६ ॥
घ्रेयाण्यपि च सर्वाणि जह्याद् ध्यानेन योगवित्।
पञ्चवर्गप्रमाथीनि नेच्छेच्चैतानि वीर्यवान् ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
योगको जाननेवाले समर्थ पुरुषको चाहिये कि कानोंके द्वारा शब्द न सुने, त्वचासे स्पर्शका अनुभव न करे, आँखसे रूपको न देखे और जिह्वासे रसोंको ग्रहण न करे एवं ध्यानके द्वारा समस्त सूँघने योग्य वस्तुओंको भी त्याग दे तथा पाँचों इन्द्रियोंको मथ डालनेवाले इन विषयोंकी कभी मनसे भी इच्छा न करे॥६-७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो मनसि संगृह्य पञ्चवर्गं विचक्षणः।
समादध्यान्मनो भ्रान्तमिन्द्रियैः सह पञ्चभिः ॥ ८ ॥
मूलम्
ततो मनसि संगृह्य पञ्चवर्गं विचक्षणः।
समादध्यान्मनो भ्रान्तमिन्द्रियैः सह पञ्चभिः ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तत्पश्चात् बुद्धिमान् एवं विद्वान् पुरुष पाँचों इन्द्रियोंको मनमें स्थिर करे। उसके बाद पाँचों इन्द्रियोंसहित चंचल मनको परमात्माके ध्यानमें एकाग्र करे॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विसंचारि निरालम्बं पञ्चद्वारं चलाचलम्।
पूर्वं ध्यानपथे धीरः समादध्यान्मनोऽन्तरा ॥ ९ ॥
मूलम्
विसंचारि निरालम्बं पञ्चद्वारं चलाचलम्।
पूर्वं ध्यानपथे धीरः समादध्यान्मनोऽन्तरा ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मन नाना प्रकारके विषयोंमें विचरण करनेवाला है। उसका कोई स्थिर आलम्बन नहीं है। पाँचों ज्ञानेन्द्रियाँ उसके इधर-उधर निकलनेके द्वार हैं तथा वह अत्यन्त चंचल है। ऐसे मनको धीर योगी पुरुष पहले अपने हृदयके भीतर ध्यानमार्गमें एकाग्र करे॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इन्द्रियाणि मनश्चैव यदा पिण्डीकरोत्ययम्।
एष ध्यानपथः पूर्वो मया समनुवर्णितः ॥ १० ॥
मूलम्
इन्द्रियाणि मनश्चैव यदा पिण्डीकरोत्ययम्।
एष ध्यानपथः पूर्वो मया समनुवर्णितः ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब यह योगी इन्द्रियोंसहित मनको एकाग्र कर लेता है, तभी उसके प्रारम्भिक ध्यानमार्गका आरम्भ होता है। युधिष्ठिर! यह मैंने तुम्हारे निकट प्रथम ध्यानमार्गका वर्णन किया है॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्य तत् पूर्वसंरुद्धमात्मनः षष्ठमान्तरम्।
स्फुरिष्यति समुद्भ्रान्ता विद्युदम्बुधरे यथा ॥ ११ ॥
मूलम्
तस्य तत् पूर्वसंरुद्धमात्मनः षष्ठमान्तरम्।
स्फुरिष्यति समुद्भ्रान्ता विद्युदम्बुधरे यथा ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार प्रयत्न करनेसे जो इन्द्रियोंसहित मन कुछ देरके लिये स्थिर हो जाता है, वही फिर अवसर पाकर जैसे बादलोंमें बिजली चमक उठती है, उसी प्रकार पुनः बारंबार विषयोंकी ओर जानेके लिये चंचल हो उठता है॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जलबिन्दुर्यथा लोलः पर्णस्थः सर्वतश्चलः।
एवमेवास्य चित्तं च भवति ध्यानवर्त्मनि ॥ १२ ॥
मूलम्
जलबिन्दुर्यथा लोलः पर्णस्थः सर्वतश्चलः।
एवमेवास्य चित्तं च भवति ध्यानवर्त्मनि ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे पत्तेपर पड़ी हुई पानीकी बूँद सब ओरसे हिलती रहती है, उसी प्रकार ध्यानमार्गमें स्थित साधकका मन भी प्रारम्भमें चंचल होता रहता है॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
समाहितं क्षणं किञ्चिद् ध्यानवर्त्मनि तिष्ठति।
पुनर्वायुपथं भ्रान्तं मनो भवति वायुवत् ॥ १३ ॥
मूलम्
समाहितं क्षणं किञ्चिद् ध्यानवर्त्मनि तिष्ठति।
पुनर्वायुपथं भ्रान्तं मनो भवति वायुवत् ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
एकाग्र करनेपर कुछ देर तो वह ध्यानमें स्थित रहता है; परंतु फिर नाड़ी मार्गमें पहुँचकर भ्रान्त-सा होकर वायुके समान चंचल हो उठता है॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनिर्वेदो गतक्लेशो गततन्द्रिरमत्सरी ।
समादध्यात् पुनश्चेतो ध्यानेन ध्यानयोगवित् ॥ १४ ॥
मूलम्
अनिर्वेदो गतक्लेशो गततन्द्रिरमत्सरी ।
समादध्यात् पुनश्चेतो ध्यानेन ध्यानयोगवित् ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ध्यानयोगको जाननेवाला साधक ऐसे विक्षेपके समय खेद या क्लेशका अनुभव न करे; अपितु आलस्य और मात्सर्यका त्याग करके ध्यानके द्वारा मनको पुनः एकाग्र करनेका प्रयत्न करे॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विचारश्च विवेकश्च वितर्कश्चोपजायते ।
मुनेः समादधानस्य प्रथमं ध्यानमादितः ॥ १५ ॥
मूलम्
विचारश्च विवेकश्च वितर्कश्चोपजायते ।
मुनेः समादधानस्य प्रथमं ध्यानमादितः ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
योगी जब ध्यानका आरम्भ करता है, तब पहले उसके मनमें ध्यानविषयक विचार, विवेक और वितर्क आदि प्रकट होते हैं॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मनसा क्लिश्यमानस्तु समाधानं च कारयेत्।
न निर्वेदं मुनिर्गच्छेत् कुर्यादेवात्मनो हितम् ॥ १६ ॥
मूलम्
मनसा क्लिश्यमानस्तु समाधानं च कारयेत्।
न निर्वेदं मुनिर्गच्छेत् कुर्यादेवात्मनो हितम् ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ध्यानके समय मनमें कितना ही क्लेश क्यों न हो, साधकको उससे ऊबना नहीं चाहिये; बल्कि और भी तत्परताके साथ मनको एकाग्र करनेका प्रयत्न करना चाहिये। ध्यानयोगी मुनिको सर्वथा अपने कल्याणका ही प्रयत्न करना चाहिये॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पांसुभस्मकरीषाणां यथा वै राशयश्चिताः।
सहसा वारिणासिक्ता न यान्ति परिभावनम् ॥ १७ ॥
किञ्चित् स्निग्धं यथा चस्याच्छुष्कचूर्णमभावितम्।
क्रमशस्तु शनैर्गच्छेत् सर्वं तत्परिभावनम् ॥ १८ ॥
एवमेवेन्द्रियग्रामं शनैः सम्परिभावयेत् ।
संहरेत् क्रमशश्चैव स सम्यक् प्रशमिष्यति ॥ १९ ॥
मूलम्
पांसुभस्मकरीषाणां यथा वै राशयश्चिताः।
सहसा वारिणासिक्ता न यान्ति परिभावनम् ॥ १७ ॥
किञ्चित् स्निग्धं यथा चस्याच्छुष्कचूर्णमभावितम्।
क्रमशस्तु शनैर्गच्छेत् सर्वं तत्परिभावनम् ॥ १८ ॥
एवमेवेन्द्रियग्रामं शनैः सम्परिभावयेत् ।
संहरेत् क्रमशश्चैव स सम्यक् प्रशमिष्यति ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे धूलि, भस्म और सूखे गोबरके चूर्णकी अलग-अलग इकट्ठी की हुई ढेरियोंपर जल छिड़का जाय तो वे सहसा जलसे भीगकर इतनी तरल नहीं हो सकतीं कि उनके द्वारा कोई आवश्यक कार्य किया जा सके; क्योंकि बार-बार भिगोये बिना वह सूखा चूर्ण थोड़ा-सा भीगता है, पूरा नहीं भीगता; परंतु उसको यदि बार-बार जल देकर क्रमसे भिगोया जाय तो धीरे-धीरे वह सब गीला हो जाता है, उसी प्रकार योगी विषयोंकी ओर बिखरी हुई इन्द्रियोंको धीरे-धीरे विषयोंकी ओरसे समेटे और चित्तको ध्यानके अभ्याससे क्रमशः स्नेहयुक्त बनावे। ऐसा करनेपर वह चित्त भलीभाँति शान्त हो जाता है॥१७-१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वयमेव मनश्चैवं पञ्चवर्गं च भारत।
पूर्वं ध्यानपथे स्थाप्य नित्ययोगेन शाम्यति ॥ २० ॥
मूलम्
स्वयमेव मनश्चैवं पञ्चवर्गं च भारत।
पूर्वं ध्यानपथे स्थाप्य नित्ययोगेन शाम्यति ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतनन्दन! ध्यानयोगी पुरुष स्वयं ही मन और पाँचों इन्द्रियोंको पहले ध्यानमार्गमें स्थापित करके नित्य किये हुए योगाभ्यासके बलसे शान्ति प्राप्त कर लेता है॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न तत्पुरुषकारेण न च दैवेन केनचित्।
सुखमेष्यति तत् तस्य यदेवं संयतात्मनः ॥ २१ ॥
मूलम्
न तत्पुरुषकारेण न च दैवेन केनचित्।
सुखमेष्यति तत् तस्य यदेवं संयतात्मनः ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार मनोनिग्रहपूर्वक ध्यान करनेवाले योगीको जो दिव्य सुख प्राप्त होता है, वह मनुष्यको किसी दूसरे पुरुषार्थसे या दैवयोगसे भी नहीं मिल सकता॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुखेन तेन संयुक्तो रंस्यते ध्यानकर्मणि।
गच्छन्ति योगिनो ह्येवं निर्वाणं तन्निरामयम् ॥ २२ ॥
मूलम्
सुखेन तेन संयुक्तो रंस्यते ध्यानकर्मणि।
गच्छन्ति योगिनो ह्येवं निर्वाणं तन्निरामयम् ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस ध्यानजनित सुखसे सम्पन्न होकर योगी उस ध्यानयोगमें अधिकाधिक अनुरक्त होता जाता है। इस प्रकार योगीलोग दुःख—शोकसे रहित निर्वाण (मोक्ष) पदको प्राप्त हो जाते हैं॥२२॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि ध्यानयोगकथने पञ्चनवत्यधिकशततमोऽध्यायः ॥ १९५ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें ध्यानयोगका वर्णनविषयक एक सौ पञ्चानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१९५॥