भागसूचना
चतुर्नवत्यधिकशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
अध्यात्मज्ञानका निरूपण
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अध्यात्मं नाम यदिदं पुरुषस्येह चिन्त्यते।
यदध्यात्मं यथा चैतत् तन्मे ब्रूहि पितामह ॥ १ ॥
मूलम्
अध्यात्मं नाम यदिदं पुरुषस्येह चिन्त्यते।
यदध्यात्मं यथा चैतत् तन्मे ब्रूहि पितामह ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिरने पूछा— पितामह! शास्त्रोंमें मनुष्यके लिये अध्यात्मके नामसे जिसका विचार किया जाता है, वह अध्यात्मज्ञान क्या है और कैसा है? यह मुझे बताइये॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कुतः सृष्टमिदं विश्वं ब्रह्मन् स्थावरजङ्गमम्।
प्रलये कथमभ्येति तन्मे वक्तुमिहार्हसि ॥ २ ॥
मूलम्
कुतः सृष्टमिदं विश्वं ब्रह्मन् स्थावरजङ्गमम्।
प्रलये कथमभ्येति तन्मे वक्तुमिहार्हसि ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्रह्मन्! इस चराचर जगत्की सृष्टि किससे हुई है और प्रलयकालमें इसका लय किस प्रकार होता है; इस विषयका मुझसे वर्णन कीजिये॥२॥
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अध्यात्ममिति मां पार्थ यदेतदनुपृच्छसि।
तद् व्याख्यास्यामि ते तात श्रेयस्करतमं सुखम् ॥ ३ ॥
मूलम्
अध्यात्ममिति मां पार्थ यदेतदनुपृच्छसि।
तद् व्याख्यास्यामि ते तात श्रेयस्करतमं सुखम् ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजीने कहा— तात! कुन्तीनन्दन! तुम जिस अध्यात्मज्ञानके विषयमें पूछ रहे हो, उसकी व्याख्या मैं तुम्हारे लिये करता हूँ; वह परम कल्याणकारी और सुखस्वरूप है॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सृष्टिप्रलयसंयुक्तमाचार्यैः परिदर्शितम् ।
यज्ज्ञात्वा पुरुषो लोके प्रीतिं सौख्यं च विन्दति।
फललाभश्च तस्य स्यात् सर्वभूतहितं च तत् ॥ ४ ॥
मूलम्
सृष्टिप्रलयसंयुक्तमाचार्यैः परिदर्शितम् ।
यज्ज्ञात्वा पुरुषो लोके प्रीतिं सौख्यं च विन्दति।
फललाभश्च तस्य स्यात् सर्वभूतहितं च तत् ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आचार्योंने सृष्टि और प्रलयकी व्याख्याके साथ अध्यात्मज्ञानका विवेचन किया है, जिसे जानकर मनुष्य इस संसारमें सुख और प्रसन्नताका भागी होता है। उसे अभीष्ट फलकी प्राप्ति भी होती है। वह अध्यात्मज्ञान समस्त प्राणियोंके लिये हितकर है॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पृथिवी वायुराकाशमापो ज्योतिश्च पञ्चमम्।
महाभूतानि भूतानां सर्वेषां प्रभवाप्ययौ ॥ ५ ॥
मूलम्
पृथिवी वायुराकाशमापो ज्योतिश्च पञ्चमम्।
महाभूतानि भूतानां सर्वेषां प्रभवाप्ययौ ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पृथ्वी, वायु, आकाश, जल और अग्नि—ये पाँच महाभूत सम्पूर्ण प्राणियोंकी उत्पत्ति और प्रलयके स्थान हैं॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यतः सृष्टानि तत्रैव तानि यान्ति पुनः पुनः।
महाभूतानि भूतेभ्यः सागरस्योर्मयो यथा ॥ ६ ॥
मूलम्
यतः सृष्टानि तत्रैव तानि यान्ति पुनः पुनः।
महाभूतानि भूतेभ्यः सागरस्योर्मयो यथा ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे लहरें समुद्रसे प्रकट होकर फिर उसीमें लीन हो जाती हैं, उसी प्रकार ये पाँच महाभूत भी जिस परमात्मासे उत्पन्न हुए हैं, उसीमें सब प्राणियोंके सहित बारंबार लीन होते हैं॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रसार्य च यथाङ्गानि कूर्मः संहरते पुनः।
तहद् भूतानि भूतात्मा सृष्टानि हरते पुनः ॥ ७ ॥
मूलम्
प्रसार्य च यथाङ्गानि कूर्मः संहरते पुनः।
तहद् भूतानि भूतात्मा सृष्टानि हरते पुनः ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे कछुआ अपने अंगोंको फैलाकर पुनः समेट लेता है, उसी प्रकार सम्पूर्ण भूतोंके आत्मा परब्रह्म परमेश्वर अपने रचे हुए सम्पूर्ण भूतोंको फैलाकर फिर अपने भीतर ही समेट लेते हैं॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
महाभूतानि पञ्चैव सर्वभूतेषु भूतकृत्।
अकरोत् तेषु वैषम्यं तत्तु जीवो न पश्यति ॥ ८ ॥
मूलम्
महाभूतानि पञ्चैव सर्वभूतेषु भूतकृत्।
अकरोत् तेषु वैषम्यं तत्तु जीवो न पश्यति ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सम्पूर्ण भूतोंकी सृष्टि करनेवाले परमात्माने सब प्राणियोंके शरीरोंमें पाँच ही महाभूतोंको स्थापित किया है; परंतु उनमें विषमता कर दी है—किसी महाभूतके अंशको अधिक और किसीके अंशको कम करके रखा है। उस वैषम्यको साधारण जीव नहीं देख पाता॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शब्दः श्रोत्रं तथा खानि त्रयमाकाशयोनिजम्।
वायोः स्पर्शस्तथा चेष्टा त्वक् चैव त्रितयं स्मृतम् ॥ ९ ॥
मूलम्
शब्दः श्रोत्रं तथा खानि त्रयमाकाशयोनिजम्।
वायोः स्पर्शस्तथा चेष्टा त्वक् चैव त्रितयं स्मृतम् ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शब्दगुण, श्रोत्र इन्द्रिय और शरीरके सम्पूर्ण छिद्र—ये तीन आकाशके कार्य हैं। स्पर्श, चेष्टा और त्वगिन्द्रिय—ये तीन वायुके कार्य माने गये हैं॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रूपं चक्षुस्तथा पाकस्त्रिविधं तेज उच्यते।
रसः क्लेदश्च जिह्वा च त्रयो जलगुणाः स्मृताः ॥ १० ॥
मूलम्
रूपं चक्षुस्तथा पाकस्त्रिविधं तेज उच्यते।
रसः क्लेदश्च जिह्वा च त्रयो जलगुणाः स्मृताः ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
रूप, नेत्र और परिपाक—ये तीन तेजके कार्य बताये जाते हैं। रस, जिह्वा तथा क्लेद (गीलापन)—ये तीन जलके गुण अर्थात् कार्य माने गये हैं॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
घ्रेयं घ्राणं शरीरं च एते भूमिगुणास्त्रयः।
महाभूतानि पञ्चैव षष्ठं च मन उच्यते ॥ ११ ॥
मूलम्
घ्रेयं घ्राणं शरीरं च एते भूमिगुणास्त्रयः।
महाभूतानि पञ्चैव षष्ठं च मन उच्यते ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
गन्ध, घ्राणेन्द्रिय और शरीर—ये तीन भूमिके गुण अर्थात् कार्य हैं। इस प्रकार इस शरीरमें पाँच महाभूत और छठा मन है; ऐसा बताया जाता है॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इन्द्रियाणि मनश्चैव विज्ञानान्यस्य भारत।
सप्तमी बुद्धिरित्याहुः क्षेत्रज्ञः पुनरष्टमः ॥ १२ ॥
मूलम्
इन्द्रियाणि मनश्चैव विज्ञानान्यस्य भारत।
सप्तमी बुद्धिरित्याहुः क्षेत्रज्ञः पुनरष्टमः ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतनन्दन! श्रोत्र आदि पाँच इन्द्रियाँ और मन—ये जीवात्माको विषयोंका ज्ञान करानेवाले हैं। शरीरमें इन छः के अतिरिक्त सातवीं बुद्धि और आठवाँ क्षेत्रज्ञ है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
चक्षुरालोचनायैव संशयं कुरुते मनः।
बुद्धिरध्यवसानाय क्षेत्रज्ञः साक्षिवत् स्थितः ॥ १३ ॥
मूलम्
चक्षुरालोचनायैव संशयं कुरुते मनः।
बुद्धिरध्यवसानाय क्षेत्रज्ञः साक्षिवत् स्थितः ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इन्द्रियाँ विषयोंको ग्रहण कराती हैं। मन संकल्प-विकल्प करता है। बुद्धि निश्चय करानेवाली है और क्षेत्रज्ञ (आत्मा) साक्षीकी भाँति स्थित रहता है॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऊर्ध्वं पादतलाभ्यां यदर्वाक्चोर्ध्वं च पश्यति।
एतेन सर्वमेवेदं विद्ध्यभिव्याप्तमन्तरम् ॥ १४ ॥
मूलम्
ऊर्ध्वं पादतलाभ्यां यदर्वाक्चोर्ध्वं च पश्यति।
एतेन सर्वमेवेदं विद्ध्यभिव्याप्तमन्तरम् ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
दोनों पैरोंके तलोंसे लेकर ऊपरतक जो शरीर स्थित है, उसे जो साक्षीभूत चेतन ऊपर-नीचे सब ओरसे देखता है, वह इस सारे शरीरके भीतर और बाहर सब जगह व्याप्त है। इस बातको तुम अच्छी तरह समझ लो॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुरुषैरिन्द्रियाणीह वेदितव्यानि कृत्स्नशः ।
तमो रजश्च सत्त्वं च तेऽपि भावास्तदाश्रिताः ॥ १५ ॥
मूलम्
पुरुषैरिन्द्रियाणीह वेदितव्यानि कृत्स्नशः ।
तमो रजश्च सत्त्वं च तेऽपि भावास्तदाश्रिताः ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सभी मनुष्योंको अपनी इन्द्रियों (और मन-बुद्धि) की देख-भाल करके उनके विषयमें पूरी जानकारी रखनी चाहिये; क्योंकि सत्त्व, रज और तम—ये तीनों गुण उन्हींका आश्रय लेकर रहते हैं॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतां बुद्ध्वा नरो बुद्ध्या भूतानामागतिं गतिम्।
समवेक्ष्य शनैश्चैव लभते शममुत्तमम् ॥ १६ ॥
मूलम्
एतां बुद्ध्वा नरो बुद्ध्या भूतानामागतिं गतिम्।
समवेक्ष्य शनैश्चैव लभते शममुत्तमम् ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मनुष्य अपनी बुद्धिके बलसे इन सबको और जीवोंके आवागमनकी अवस्थाको जानकर शनैः-शनैः उसपर विचार करनेसे उत्तम शान्ति पा जाता है॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुणैर्नेनीयते बुद्धिर्बुद्धेरेवेन्द्रियाण्यपि ।
मनःषष्ठानि सर्वाणि तदभावे कुतो गुणाः ॥ १७ ॥
मूलम्
गुणैर्नेनीयते बुद्धिर्बुद्धेरेवेन्द्रियाण्यपि ।
मनःषष्ठानि सर्वाणि तदभावे कुतो गुणाः ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तम आदि गुण बुद्धिको बारंबार विषयोंकी ओर ले जाते हैं; तथा बुद्धिके साथ-साथ मनसहित पाँचों इन्द्रियोंको और उनकी समस्त वृत्तियोंको भी ले जाते हैं। उस बुद्धिके अभावमें गुण कैसे रह सकते हैं?॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इति तन्मयमेवैतत् सर्वं स्थावरजङ्गमम्।
प्रलीयते चोद्भवति तस्मान्निर्दिश्यते तथा ॥ १८ ॥
मूलम्
इति तन्मयमेवैतत् सर्वं स्थावरजङ्गमम्।
प्रलीयते चोद्भवति तस्मान्निर्दिश्यते तथा ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह चराचर जगत् बुद्धिके उदय होनेपर ही उत्पन्न होता है और उसके लयके साथ ही लीन हो जाता है; इसलिये यह सारा प्रपंच बुद्धिमय ही है; अतएव श्रुतिने सबकी बुद्धिरूपताका ही निर्देश किया है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
येन पश्यति तच्चक्षुः शृणोति श्रोत्रमुच्यते।
जिघ्रति घ्राणमित्याहू रसं जानाति जिह्वया ॥ १९ ॥
मूलम्
येन पश्यति तच्चक्षुः शृणोति श्रोत्रमुच्यते।
जिघ्रति घ्राणमित्याहू रसं जानाति जिह्वया ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
बुद्धि जिसके द्वारा देखती है, उसे नेत्र और जिसके द्वारा सुनती है, उसे श्रोत्र कहते हैं। इसी प्रकार जिससे वह सूँघती है, उसे घ्राण कहा गया है, वही जिह्वाके द्वारा रसका अनुभव करती है॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वचा स्पर्शयते स्पर्शं बुद्धिर्विक्रियतेऽसकृत्।
येन प्रार्थयते किञ्चित् तदा भवति तन्मनः ॥ २० ॥
मूलम्
त्वचा स्पर्शयते स्पर्शं बुद्धिर्विक्रियतेऽसकृत्।
येन प्रार्थयते किञ्चित् तदा भवति तन्मनः ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
बुद्धि त्वचासे स्पर्शका बोध प्राप्त करती है। इस प्रकार वह बारंबार विकारको प्राप्त होती रहती है। वह जिस करणके द्वारा जिसका अनुभव करना चाहती है, मन उसीका रूप धारण कर लेता है॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अधिष्ठानानि बुद्धेर्हि पृथगर्थानि पञ्चधा।
इन्द्रियाणीति यान्याहुस्तान्यदृश्योऽधितिष्ठति ॥ २१ ॥
मूलम्
अधिष्ठानानि बुद्धेर्हि पृथगर्थानि पञ्चधा।
इन्द्रियाणीति यान्याहुस्तान्यदृश्योऽधितिष्ठति ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भिन्न-भिन्न विषयोंको ग्रहण करनेके लिये जो बुद्धिके पाँच अधिष्ठान हैं, उन्हींको पाँच इन्द्रियाँ कहते हैं। अदृश्य जीवात्मा उन सबका अधिष्ठाता (प्रेरक) है॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुरुषे तिष्ठती बुद्धिस्त्रिषु भावेषु वर्तते।
कदाचिल्लभते प्रीतिं कदाचिदनुशोचति ॥ २२ ॥
न सुखेन न दुःखेन कदाचिदपि वर्तते।
मूलम्
पुरुषे तिष्ठती बुद्धिस्त्रिषु भावेषु वर्तते।
कदाचिल्लभते प्रीतिं कदाचिदनुशोचति ॥ २२ ॥
न सुखेन न दुःखेन कदाचिदपि वर्तते।
अनुवाद (हिन्दी)
जीवात्माके आश्रित रहकर बुद्धि (सुख, दुःख और मोह) तीन भावोंमें स्थित होती है। वह कभी तो प्रसन्नताका अनुभव करती है, कभी शोकमें डूबी रहती है और कभी सुख और दुःख दोनोंके अनुभवसे रहित मोहाच्छन्न हो जाती है॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं नराणां मनसि त्रिषु भावेष्ववस्थिता ॥ २३ ॥
सेयं भावात्मिका भावांस्त्रीनेतानतिवर्तते ।
सरितां सागरो भर्ता महावेलामिवोर्मिमान् ॥ २४ ॥
मूलम्
एवं नराणां मनसि त्रिषु भावेष्ववस्थिता ॥ २३ ॥
सेयं भावात्मिका भावांस्त्रीनेतानतिवर्तते ।
सरितां सागरो भर्ता महावेलामिवोर्मिमान् ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार वह मनुष्योंके मनके भीतर तीन भावोंमें अवस्थित है, यह भावात्मिका बुद्धि (समाधि-अवस्थामें) सुख, दुःख और मोह—इन तीनों भावोंको लाँघ जाती है। ठीक उसी तरह जैसे सरिताओंका स्वामी समुद्र उत्ताल तरंगोंसे संयुक्त हो अपनी विशाल तटभूमिको भी कभी-कभी लाँघ जाता है॥२३-२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अतिभावगता बुद्धिर्भावे मनसि वर्तते।
प्रवर्तमानं तु रजस्तद्भावमनुवर्तते ॥ २५ ॥
मूलम्
अतिभावगता बुद्धिर्भावे मनसि वर्तते।
प्रवर्तमानं तु रजस्तद्भावमनुवर्तते ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उपर्युक्त भावोंको लाँघ जानेपर भी बुद्धि भावात्मक मनमें सूक्ष्मरूपसे स्थित रहती है। तत्पश्चात् समाधिसे उत्थानके समय प्रवृत्त्यात्मक रजोगुण बुद्धिभावका अनुसरण करता है॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इन्द्रियाणि हि सर्वाणि प्रवर्तयति सा तदा।
ततः सत्त्वं तमोभावः प्रीतियोगात् प्रवर्तते ॥ २६ ॥
मूलम्
इन्द्रियाणि हि सर्वाणि प्रवर्तयति सा तदा।
ततः सत्त्वं तमोभावः प्रीतियोगात् प्रवर्तते ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय रजोगुणसे युक्त हुई बुद्धि सारी इन्द्रियोंको प्रवृत्तिमें लगा देती है। तदनन्तर विषयोंके सम्बन्धसे प्रीतिरूप सत्त्वगुण प्रकट होता है। उसके बाद पुरुषके आसक्ति आदि दोषोंसे तमोमय भावका उदय होता है॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रीतिः सत्त्वं रजः शोकस्तमो मोहस्तु ते त्रयः।
ये ये च भावा लोकेऽस्मिन् सर्वेष्वेतेषु वै त्रिषु॥२७॥
मूलम्
प्रीतिः सत्त्वं रजः शोकस्तमो मोहस्तु ते त्रयः।
ये ये च भावा लोकेऽस्मिन् सर्वेष्वेतेषु वै त्रिषु॥२७॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रसन्नता या हर्ष सत्त्वगुणका कार्य है, शोक रजोगुणरूप है और मोह तमोगुणरूप। इस संसारमें जो-जो भाव हैं, वे सब इन्हीं तीनोंके अन्तर्गत हैं॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इति बुद्धिगतिः सर्वा व्याख्याता तव भारत।
इन्द्रियाणि च सर्वाणि विजेतव्यानि धीमता ॥ २८ ॥
मूलम्
इति बुद्धिगतिः सर्वा व्याख्याता तव भारत।
इन्द्रियाणि च सर्वाणि विजेतव्यानि धीमता ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भारत! इस प्रकार मैंने तुम्हारे समक्ष बुद्धिकी सम्पूर्ण गतिका विशद विवेचन किया है। बुद्धिमान् पुरुषको चाहिये कि वह अपनी सम्पूर्ण इन्द्रियोंको काबूमें रखे॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सत्त्वं रजस्तमश्चैव प्राणिनां संश्रिताः सदा।
त्रिविधा वेदना चैव सर्वसत्त्वेषु दृश्यते ॥ २९ ॥
सात्त्विकी राजसी चैव तामसी चेति भारत।
मूलम्
सत्त्वं रजस्तमश्चैव प्राणिनां संश्रिताः सदा।
त्रिविधा वेदना चैव सर्वसत्त्वेषु दृश्यते ॥ २९ ॥
सात्त्विकी राजसी चैव तामसी चेति भारत।
अनुवाद (हिन्दी)
भारत! सत्त्व, रज और तम—ये तीन गुण सदा ही प्राणियोंमें स्थित रहते हैं और इनके कारण उन सब जीवोंमें सात्त्विकी, राजसी और तामसी—यह तीन प्रकारकी अनुभूति देखी जाती है॥२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुखस्पर्शः सत्त्वगुणो दुःखस्पर्शो रजोगुणः।
तमोगुणेन संयुक्तौ भवतोऽव्यावहारिकौ ॥ ३० ॥
मूलम्
सुखस्पर्शः सत्त्वगुणो दुःखस्पर्शो रजोगुणः।
तमोगुणेन संयुक्तौ भवतोऽव्यावहारिकौ ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सत्त्वगुण सुखकी अनुभूति करानेवाला है, रजोगुण दुःखकी प्राप्ति कराता है और जब वे दोनों तमोगुण (मोह)-से संयुक्त होते हैं, तब व्यवहारके विषय नहीं रह जाते॥३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्र यत् प्रीतिसंयुक्तं काये मनसि वा भवेत्।
वर्तते सात्त्विको भाव इत्याचक्षीत तत् तथा ॥ ३१ ॥
मूलम्
तत्र यत् प्रीतिसंयुक्तं काये मनसि वा भवेत्।
वर्तते सात्त्विको भाव इत्याचक्षीत तत् तथा ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब शरीर या मनमें किसी प्रकारसे भी प्रसन्नताका भाव हो, तब यह कहना चाहिये कि सात्त्विक भावका उदय हुआ है॥३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथ यद् दुःखसंयुक्तमप्रीतिकरमात्मनः ।
प्रवृत्तं रज इत्येव तन्न संरभ्य चिन्तयेत् ॥ ३२ ॥
मूलम्
अथ यद् दुःखसंयुक्तमप्रीतिकरमात्मनः ।
प्रवृत्तं रज इत्येव तन्न संरभ्य चिन्तयेत् ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब अपने मनमें दुःखसे युक्त अप्रसन्न्ताका भाव जाग्रत् हो, तब यह समझना चाहिये कि रजोगुणकी प्रवृत्ति हुई है। अतः उस दुःखको पाकर मनमें चिन्ता न करे (क्योंकि चिन्तासे दुःख और बढ़ता है)॥३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथ यन्मोहसंयुक्तमव्यक्तविषयं भवेत् ।
अप्रतर्क्यमविज्ञेयं तमस्तदुपधारयेत् ॥ ३३ ॥
मूलम्
अथ यन्मोहसंयुक्तमव्यक्तविषयं भवेत् ।
अप्रतर्क्यमविज्ञेयं तमस्तदुपधारयेत् ॥ ३३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब मनमें कोई मोहयुक्त भाव पैदा हो और किसी भी इन्द्रियका विषय स्पष्ट जान न पड़े, उसके विषयमें कोई तर्क भी काम न करे और वह किसी तरह समझमें न आवे, तब यही निश्चय करना चाहिये कि तमोगुणकी वृद्धि हुई है॥३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रहर्षः प्रीतिरानन्दः सुखं संशान्तचित्तता।
कथंचिदभिवर्तन्त इत्येते सात्त्विका गुणाः ॥ ३४ ॥
मूलम्
प्रहर्षः प्रीतिरानन्दः सुखं संशान्तचित्तता।
कथंचिदभिवर्तन्त इत्येते सात्त्विका गुणाः ॥ ३४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब मनमें किसी प्रकार भी अत्यन्त हर्ष, प्रेम, आनन्द, सुख और शान्तिका अनुभव हो रहा हो, तब इन गुणोंको सात्त्विक समझना चाहिये॥३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अतुष्टिः परितापश्च शोको लोभस्तथाक्षमा।
लिङ्गानि रजसस्तानि दृश्यन्ते हेत्वहेतुभिः ॥ ३५ ॥
मूलम्
अतुष्टिः परितापश्च शोको लोभस्तथाक्षमा।
लिङ्गानि रजसस्तानि दृश्यन्ते हेत्वहेतुभिः ॥ ३५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिस समय किसी कारणसे या बिना कारण ही असंतोष, शोक, संताप, लोभ और असहनशीलताके भाव दिखायी दें तो उन्हें रजोगुणका चिह्न जानना चाहिये॥३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अवमानस्तथा मोहः प्रमादः स्वप्नतन्द्रिता।
कथंचिदभिवर्तन्ते विविधास्तामसा गुणाः ॥ ३६ ॥
मूलम्
अवमानस्तथा मोहः प्रमादः स्वप्नतन्द्रिता।
कथंचिदभिवर्तन्ते विविधास्तामसा गुणाः ॥ ३६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसी प्रकार जब अपमान, मोह, प्रमाद, स्वप्न, निद्रा और आलस्य आदि दोष किसी तरह भी घेरते हों तो उन्हें तमोगुणके ही विविध रूप समझे॥३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दूरगं बहुधागामि प्रार्थनासंशयात्मकम् ।
मनः सुनियतं यस्य स सुखी प्रेत्य चेह च॥३७॥
मूलम्
दूरगं बहुधागामि प्रार्थनासंशयात्मकम् ।
मनः सुनियतं यस्य स सुखी प्रेत्य चेह च॥३७॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिसका दूरतक दौड़ लगानेवाला और अनेक विषयोंकी ओर जानेवाला कामनायुक्त संशयात्मक मन अच्छी तरह वशमें हो जाता है, वह मनुष्य इहलोकमें तथा मरनेके बाद परलोकमें भी सुखी होता है॥३७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सत्त्वक्षेत्रज्ञयोरेतदन्तरं पश्य सूक्ष्मयोः ।
सृजते तु गुणानेक एको न सृजते गुणान् ॥ ३८ ॥
मूलम्
सत्त्वक्षेत्रज्ञयोरेतदन्तरं पश्य सूक्ष्मयोः ।
सृजते तु गुणानेक एको न सृजते गुणान् ॥ ३८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
बुद्धि और आत्मा—ये दोनों ही सूक्ष्म तत्त्व हैं तथापि इनमें बड़ा भारी अन्तर है। तुम इस अन्तरपर दृष्टिपात करो। इनमें बुद्धि तो गुणोंकी सृष्टि करती है और आत्मा गुणोंकी सृष्टिसे अलग रहता है॥३८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मशकोदुम्बरौ वापि सम्प्रयुक्तौ यथा सदा।
अन्योन्यमेतौ ख्यातां च सम्प्रयोगस्तथा तयोः ॥ ३९ ॥
मूलम्
मशकोदुम्बरौ वापि सम्प्रयुक्तौ यथा सदा।
अन्योन्यमेतौ ख्यातां च सम्प्रयोगस्तथा तयोः ॥ ३९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे गूलरका फल और उसके भीतर रहनेवाले कीड़े एक साथ रहते हुए भी एक-दूसरेसे अलग हैं, उसी प्रकार बुद्धि और आत्मा दोनोंका एक साथ रहना और भिन्न-भिन्न होना समझना चाहिये॥३९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पृथग्भूतौ प्रकृत्या तौ सम्प्रयुक्तौ च सर्वदा।
यथा मत्स्यो जलं चैव सम्प्रयुक्तौ तथैव तौ ॥ ४० ॥
मूलम्
पृथग्भूतौ प्रकृत्या तौ सम्प्रयुक्तौ च सर्वदा।
यथा मत्स्यो जलं चैव सम्प्रयुक्तौ तथैव तौ ॥ ४० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ये दोनों स्वभावसे ही अलग-अलग हैं तो भी सदा एक-दूसरेसे मिले रहते हैं। ठीक वैसे ही, जैसे मछली और जल एक-दूसरेसे पृथक् होकर भी परस्पर संयुक्त रहते हैं। यही स्थिति बुद्धि और आत्माकी भी है॥४०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न गुणा विदुरात्मानं स गुणान् वेत्ति सर्वशः।
परिद्रष्टा गुणानां तु संसृष्टान्मन्यते तथा ॥ ४१ ॥
मूलम्
न गुणा विदुरात्मानं स गुणान् वेत्ति सर्वशः।
परिद्रष्टा गुणानां तु संसृष्टान्मन्यते तथा ॥ ४१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सत्त्व आदि गुण जड होनेके कारण आत्माको नहीं जानते; किंतु आत्मा चेतन है, इसलिये वह गुणोंको सब प्रकारसे जानता है। यद्यपि आत्मा गुणोंका साक्षी है, अतः उनसे सर्वथा भिन्न है तो भी वह अपनेको उन गुणोंसे संयुक्त मानता है॥४१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इन्द्रियैस्तु प्रदीपार्थं कुरुते बुद्धिसप्तमैः।
निर्विचेष्टैरजानद्भिः परमात्मा प्रदीपवत् ॥ ४२ ॥
मूलम्
इन्द्रियैस्तु प्रदीपार्थं कुरुते बुद्धिसप्तमैः।
निर्विचेष्टैरजानद्भिः परमात्मा प्रदीपवत् ॥ ४२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे घड़ेमें रखा हुआ दीपक घड़ेके छेदोंसे अपना प्रकाश फैलाकर वस्तुओंका ज्ञान कराता है, उसी प्रकार परमात्मा शरीरके भीतर स्थित होकर चेष्टा और ज्ञानसे शून्य इन्द्रियों तथा मन-बुद्धि इन सातोंके द्वारा सम्पूर्ण पदार्थोंका अनुभव कराता है॥४२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सृजते हि गुणान् सत्त्वं क्षेत्रज्ञः परिपश्यति।
सम्प्रयोगस्तयोरेष सत्त्वक्षेत्रज्ञयोर्ध्रुवः ॥ ४३ ॥
मूलम्
सृजते हि गुणान् सत्त्वं क्षेत्रज्ञः परिपश्यति।
सम्प्रयोगस्तयोरेष सत्त्वक्षेत्रज्ञयोर्ध्रुवः ॥ ४३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
बुद्धि गुणोंकी सृष्टि करती है और आत्मा साक्षी बनकर देखता रहता है। उन बुद्धि और आत्माका यह संयोग अनादि है॥४३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आश्रयो नास्ति सत्त्वस्य क्षेत्रज्ञस्य च कश्चन।
सत्त्वं मनः संसृजते न गुणान् वै कदाचन ॥ ४४ ॥
मूलम्
आश्रयो नास्ति सत्त्वस्य क्षेत्रज्ञस्य च कश्चन।
सत्त्वं मनः संसृजते न गुणान् वै कदाचन ॥ ४४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
बुद्धिका परमात्माके सिवा दूसरा कोई आश्रय नहीं है और क्षेत्रज्ञका भी कोई दूसरा आश्रय नहीं है। बुद्धि मनसे ही घनिष्ठ सम्बन्ध रखती है। गुणोंके साथ उसका साक्षात् सम्पर्क कदापि नहीं होता॥४४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रश्मींस्तेषां स मनसा यदा सम्यङ्नियच्छति।
तदा प्रकाशतेऽस्यात्मा घटे दीपो ज्वलन्निव ॥ ४५ ॥
मूलम्
रश्मींस्तेषां स मनसा यदा सम्यङ्नियच्छति।
तदा प्रकाशतेऽस्यात्मा घटे दीपो ज्वलन्निव ॥ ४५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब जीव बुद्धिरूपी सारथि और मनरूपी बागडोर-द्वारा इन्द्रियरूपी अश्वोंकी लगाम अच्छी तरह काबूमें रखता है तब घड़ेमें रखे हुए प्रज्वलित दीपकके समान अपने भीतर ही उसका आत्मा प्रकाशित होने लगता है॥४५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्यक्त्वा यः प्राकृतं कर्म नित्यमात्मरतिर्मुनिः।
सर्वभूतात्मभूस्तस्मात् स गच्छेदुत्तमां गतिम् ॥ ४६ ॥
मूलम्
त्यक्त्वा यः प्राकृतं कर्म नित्यमात्मरतिर्मुनिः।
सर्वभूतात्मभूस्तस्मात् स गच्छेदुत्तमां गतिम् ॥ ४६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो सांसारिक कर्मोंका परित्याग करके सदा अपने-आपमें ही अनुरक्त रहता है, वह मननशील मुनि सम्पूर्ण भूतोंका आत्मा होकर परम गतिको प्राप्त होता है॥४६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथा वारिचरः पक्षी सलिलेन न लिप्यते।
एवमेव कृतप्रज्ञो भूतेषु परिवर्तते ॥ ४७ ॥
मूलम्
यथा वारिचरः पक्षी सलिलेन न लिप्यते।
एवमेव कृतप्रज्ञो भूतेषु परिवर्तते ॥ ४७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे जलचर पक्षी जलसे लिप्त नहीं होता, उसी प्रकार विशुद्धबुद्धि ज्ञानी पुरुष निर्लिप्त रहकर ही सम्पूर्ण भूतोंमें विचरता है॥४७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं स्वभावमेवैतत् स्वबुद्ध्या विहरेन्नरः।
अशोचन्नप्रहृष्यंश्च समो विगतमत्सरः ॥ ४८ ॥
मूलम्
एवं स्वभावमेवैतत् स्वबुद्ध्या विहरेन्नरः।
अशोचन्नप्रहृष्यंश्च समो विगतमत्सरः ॥ ४८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह आत्मतत्त्व ऐसा ही निर्लिप्त एवं शुद्ध-बुद्धिस्वरूप है—ऐसा अपनी बुद्धिके द्वारा निश्चय करके ज्ञानी पुरुष हर्ष, शोक और मात्सर्य-दोषसे रहित हो सर्वत्र समानभाव रखते हुए विचरे॥४८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वभावयुक्त्या युक्तस्तु स नित्यं सृजते गुणान्।
ऊर्णनाभिर्यथा सूत्रं विज्ञेयास्तन्तुवद् गुणाः ॥ ४९ ॥
मूलम्
स्वभावयुक्त्या युक्तस्तु स नित्यं सृजते गुणान्।
ऊर्णनाभिर्यथा सूत्रं विज्ञेयास्तन्तुवद् गुणाः ॥ ४९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आत्मा अपने स्वरूपमें स्थित रहकर ही सदा गुणोंकी सृष्टि करता है। ठीक उसी तरह, जैसे मकड़ी अपने स्वरूपमें स्थित रहती हुई ही जाला बनाती है। मकड़ीके जालेके ही समान समस्त गुणोंकी सत्ता समझनी चाहिये॥४९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रध्वस्ता न निवर्तन्ते निवृत्तिर्नोपलभ्यते।
प्रत्यक्षेण परोक्षं तदनुमानेन सिध्यति ॥ ५० ॥
एवमेकेऽध्यवस्यन्ति निवृत्तिरिति चापरे ।
उभयं सम्प्रधार्यैतद् व्यवस्येत यथामति ॥ ५१ ॥
मूलम्
प्रध्वस्ता न निवर्तन्ते निवृत्तिर्नोपलभ्यते।
प्रत्यक्षेण परोक्षं तदनुमानेन सिध्यति ॥ ५० ॥
एवमेकेऽध्यवस्यन्ति निवृत्तिरिति चापरे ।
उभयं सम्प्रधार्यैतद् व्यवस्येत यथामति ॥ ५१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आत्मसाक्षात् हो जानेपर गुण नष्ट हो जाते हैं तो भी सर्वथा निवृत्त नहीं होते हैं; क्योंकि उनकी निवृत्ति प्रत्यक्ष नहीं देखी जाती है। जो परोक्ष वस्तु है उसकी सिद्धि अनुमानसे होती है। एक श्रेणीके विद्वानोंका ऐसा ही निश्चय है। दूसरे लोग यह मानते हैं कि गुणोंकी सर्वथा निवृत्ति हो जाती है। इन दोनों मतोंपर भलीभाँति विचार करके अपनी बुद्धिके अनुसार यथार्थ वस्तुका निश्चय करना चाहिये॥५०-५१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इतीमं हृदयग्रन्थिं बुद्धिभेदमयं दृढम्।
विमुच्य सुखमासीत न शोचेच्छिन्नसंशयः ॥ ५२ ॥
मूलम्
इतीमं हृदयग्रन्थिं बुद्धिभेदमयं दृढम्।
विमुच्य सुखमासीत न शोचेच्छिन्नसंशयः ॥ ५२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
बुद्धिके द्वारा कल्पित हुआ जो भेद है, वही —हृदयकी सुदृढ़ गाँठ है। उसे खोलकर संशयरहित हो ज्ञानवान् पुरुष सुखसे रहे, कदापि शोक न करे॥५२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मलिनाः प्राप्नुयुः शुद्धिं यथा पूर्णां नदीं नराः।
अवगाह्य सुविद्वांसो विद्धि ज्ञानमिदं तथा ॥ ५३ ॥
मूलम्
मलिनाः प्राप्नुयुः शुद्धिं यथा पूर्णां नदीं नराः।
अवगाह्य सुविद्वांसो विद्धि ज्ञानमिदं तथा ॥ ५३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे मैले शरीरवाले मनुष्य जलसे भरी हुई नदीमें नहा-धोकर साफ-सुथरे हो जाते हैं, उसी प्रकार इस ज्ञानमयी नदीमें अवगाहन करके मलिनचित्त मनुष्य भी शुद्ध एवं ज्ञानसम्पन्न हो जाते हैं—ऐसा जानो॥५३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
महानद्या हि पारज्ञस्तप्यते न तदन्यथा।
न तु तप्यति तत्त्वज्ञः फले ज्ञाते तरत्युत ॥ ५४ ॥
मूलम्
महानद्या हि पारज्ञस्तप्यते न तदन्यथा।
न तु तप्यति तत्त्वज्ञः फले ज्ञाते तरत्युत ॥ ५४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
किसी महानदीके पारको जाननेवाला पुरुष केवल जाननेमात्रसे कृतकृत्य नहीं होता; जबतक वह नौका आदिके द्वारा वहाँ पहुँच न जाय, तबतक वह चिन्तासे संतप्त ही रहता है। परंतु तत्त्वज्ञ पुरुष ज्ञानमात्रसे ही संसार-सागरसे पार हो जाता है; उसे संताप नहीं होता। क्योंकि यह ज्ञान स्वयं ही पुलस्वरूप है॥५४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं ये विदुराध्यात्मं केवलं ज्ञानमुत्तमम् ॥ ५५ ॥
एतां बुद्ध्वा नरः सर्वां भूतानामागतिं गतिम्।
अवेक्ष्य च शनैर्बुद्ध्या लभते शमनं ततः ॥ ५६ ॥
मूलम्
एवं ये विदुराध्यात्मं केवलं ज्ञानमुत्तमम् ॥ ५५ ॥
एतां बुद्ध्वा नरः सर्वां भूतानामागतिं गतिम्।
अवेक्ष्य च शनैर्बुद्ध्या लभते शमनं ततः ॥ ५६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो मनुष्य बुद्धिसे जीवोंके इस आवागमनपर शनैः-शनैः विचार करके उस विशुद्ध एवं उत्तम आध्यात्मिक ज्ञानको प्राप्त कर लेता है, वह परम शान्ति पाता है॥५५-५६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्रिवर्गो यस्य विदितः प्रेक्ष्य यश्च विमुञ्चति।
अन्विष्य मनसा युक्तस्तत्त्वदर्शी निरुत्सुकः ॥ ५७ ॥
मूलम्
त्रिवर्गो यस्य विदितः प्रेक्ष्य यश्च विमुञ्चति।
अन्विष्य मनसा युक्तस्तत्त्वदर्शी निरुत्सुकः ॥ ५७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिसे धर्म, अर्थ और काम—इन तीनोंका ठीक-ठीक ज्ञान है, जो खूब सोच-समझकर उनका परित्याग कर चुका है और जिसने मनके द्वारा आत्मतत्त्वका अनुसंधान करके योगयुक्त हो आत्मासे भिन्न वस्तुके लिये उत्सुकताका त्याग कर दिया है, वही तत्त्वदर्शी है॥५७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न चात्मा शक्यते द्रष्टुमिन्द्रियैश्च विभागशः।
तत्र तत्र विसृष्टैश्च दुर्वार्यैश्चाकृतात्मभिः ॥ ५८ ॥
मूलम्
न चात्मा शक्यते द्रष्टुमिन्द्रियैश्च विभागशः।
तत्र तत्र विसृष्टैश्च दुर्वार्यैश्चाकृतात्मभिः ॥ ५८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिन्होंने अपने मनको वशमें नहीं किया है, वे भिन्न-भिन्न विषयोंकी ओर प्रेरित हुई दुर्निवार्य इन्द्रियोंद्वारा आत्माका साक्षात्कार नहीं कर सकते॥५८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतद् बुद्ध्वा भवेद् बुद्धः किमन्यद् बुद्धलक्षणम्।
विज्ञाय तद्धि मन्यन्ते कृतकृत्या मनीषिणः ॥ ५९ ॥
मूलम्
एतद् बुद्ध्वा भवेद् बुद्धः किमन्यद् बुद्धलक्षणम्।
विज्ञाय तद्धि मन्यन्ते कृतकृत्या मनीषिणः ॥ ५९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह जानकर मनुष्य ज्ञानी हो जाता है। ज्ञानीका इसके सिवा और क्या लक्षण है? क्योंकि मनीषी पुरुष उस परमात्मतत्त्वको जानकर ही अपनेको कृतकृत्य मानते हैं॥५९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न भवति विदुषां ततो भयं
यदविदुषां सुमहद् भयं भवेत्।
न हि गतिरधिकास्ति कस्यचित्
सति हि गुणे प्रवदन्त्यतुल्यताम् ॥ ६० ॥
मूलम्
न भवति विदुषां ततो भयं
यदविदुषां सुमहद् भयं भवेत्।
न हि गतिरधिकास्ति कस्यचित्
सति हि गुणे प्रवदन्त्यतुल्यताम् ॥ ६० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अज्ञानियोंके लिये जो महान् भयका स्थान है, उसी संसारसे ज्ञानी पुरुषोंको भय नहीं होता। ज्ञान होनेपर सबको एक-सी ही गति (मुक्ति) प्राप्त होती है। किसीको उत्कृष्ट या निकृष्ट गति नहीं मिलती; क्योंकि गुणोंका सम्बन्ध रहनेपर ही उनके तारतम्यके अनुसार प्राप्त होनेवाली गतिमें भी असमानता बतायी जाती है (ज्ञानीका गुणोंसे सम्बन्ध नहीं रहता)॥६०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यः करोत्यनभिसंधिपूर्वकं
तच्च निर्णुदति यत्पुराकृतम् ।
नाप्रियं तदुभयं कुतः प्रियं
तस्य तज्जनयतीह सर्वतः ॥ ६१ ॥
मूलम्
यः करोत्यनभिसंधिपूर्वकं
तच्च निर्णुदति यत्पुराकृतम् ।
नाप्रियं तदुभयं कुतः प्रियं
तस्य तज्जनयतीह सर्वतः ॥ ६१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो निष्काम भावसे कर्म करता है, उसका वह कर्म पहलेके किये हुए समस्त कर्म-संस्कारोंका नाश कर देता है। पूर्वजन्म और इस जन्मके किये हुए वे दोनों प्रकारके कर्म उस पुरुषके लिये न तो अप्रिय फल उत्पन्न करते हैं और न तो प्रिय फलके ही जनक होते हैं (क्योंकि कर्तापनके अभिमान और फलकी आसक्तिसे शून्य होनेके कारण उनका उन कर्मोंसे सम्बन्ध नहीं रह जाता)॥६१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
लोकमातुरमसूयते जन-
स्तस्य तज्जनयतीह सर्वतः ॥ ६२ ॥
मूलम्
लोकमातुरमसूयते जन-
स्तस्य तज्जनयतीह सर्वतः ॥ ६२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो काम, क्रोध आदि दुर्व्यसनोंसे आतुर रहता है, उसे विचारवान् पुरुष धिक्कारते हैं। उसके निन्दनीय कर्म उस आतुर मानवको सभी योनियों (पशु-पक्षी आदिके शरीरों)-में जन्म दिलाता है॥६२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
लोक आतुरजनान् विराविण-
स्तत्तदेव बहु पश्य शोचतः।
तत्र पश्य कुशलानशोचतो
ये विदुस्तदुभयं पदं सताम् ॥ ६३ ॥
मूलम्
लोक आतुरजनान् विराविण-
स्तत्तदेव बहु पश्य शोचतः।
तत्र पश्य कुशलानशोचतो
ये विदुस्तदुभयं पदं सताम् ॥ ६३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
लोकमें भोगासक्तिके कारण आतुर रहनेवाले लोग स्त्री, पुत्र आदिके नाश होनेपर उनके लिये बहुत शोक करते और फूट-फूटकर रोते हैं। तुम उनकी इस दुर्दशाको देख लो। साथ ही जो सारासार-विवेकमें कुशल हैं और सत्पुरुषोंको प्राप्त होनेवाले दो प्रकारके पदको अर्थात् सगुण-उपासना और निर्गुण-उपासनाके फलको जानते हैं, वे कभी शोक नहीं करते। उनकी अवस्थापर भी दृष्टिपात कर लो (फिर तुम्हें अपने लिये जो हितकर दिखायी दे, उसी पथका आश्रय लो)॥६३॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि अध्यात्मकथने चतुर्नवत्यधिकशततमोऽध्यायः ॥ १९४ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारतमें शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें अध्यात्मतत्त्वका वर्णनविषयक एक सौ चौरानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१९४॥