भागसूचना
त्रिनवत्यधिकशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
शिष्टाचारका फलसहित वर्णन, पापको छिपानेसे हानि और धर्मकी प्रशंसा
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
आचारस्य विधिं तात प्रोच्यमानं त्वयानघ।
श्रोतुमिच्छामि धर्मज्ञ सर्वज्ञो ह्यसि मे मतः ॥ १ ॥
मूलम्
आचारस्य विधिं तात प्रोच्यमानं त्वयानघ।
श्रोतुमिच्छामि धर्मज्ञ सर्वज्ञो ह्यसि मे मतः ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिरने पूछा— धर्मज्ञ पितामह! अब मैं आपके मुखसे सदाचारकी विधि सुनना चाहता हूँ; क्योंकि आप सर्वज्ञ हैं॥१॥
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
दुराचारा दुर्विचेष्टा दुष्प्रज्ञाः प्रियसाहसाः।
असंतस्त्विति विख्याताः संतश्चाचारलक्षणाः ॥ २ ॥
मूलम्
दुराचारा दुर्विचेष्टा दुष्प्रज्ञाः प्रियसाहसाः।
असंतस्त्विति विख्याताः संतश्चाचारलक्षणाः ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजीने कहा— राजन्! जो दुराचारी, बुरी चेष्टावाले, दुर्बुद्धि और दुःसाहसको प्रिय माननेवाले हैं, वे दुष्टात्माके नामसे विख्यात होते हैं। श्रेष्ठ पुरुष तो वही हैं, जिनमें सदाचार देखा जाय—सदाचार ही उनका लक्षण है॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुरीषं यदि वा मूत्रं ये न कुर्वन्ति मानवाः।
राजमार्गे गवां मध्ये धान्यमध्ये च ते शुभाः ॥ ३ ॥
मूलम्
पुरीषं यदि वा मूत्रं ये न कुर्वन्ति मानवाः।
राजमार्गे गवां मध्ये धान्यमध्ये च ते शुभाः ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो मनुष्य सड़कपर, गौओंके बीचमें और अनाजमें मल या मूत्रका त्याग नहीं करते हैं, वे श्रेष्ठ समझे जाते हैं॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शौचमावश्यकं कृत्वा देवतानां च तर्पणम्।
धर्ममाहुर्मनुष्याणामुपस्मृश्य नदीं तरेत् ॥ ४ ॥
मूलम्
शौचमावश्यकं कृत्वा देवतानां च तर्पणम्।
धर्ममाहुर्मनुष्याणामुपस्मृश्य नदीं तरेत् ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रतिदिन आवश्यक शौचका सम्पादन करके आचमन करे; फिर नदीमें नहाये और अपने अधिकारके अनुसार संध्योपासनाके अनन्तर देवता आदिका तर्पण करे। इसे विद्वान् पुरुष मानवमात्रका धर्म बताते हैं॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सूर्यं सदोपतिष्ठेत न च सूर्योदये स्वपेत्।
सायं प्रातर्जपेत् संध्यां तिष्ठन् पूर्वां तथेतराम् ॥ ५ ॥
मूलम्
सूर्यं सदोपतिष्ठेत न च सूर्योदये स्वपेत्।
सायं प्रातर्जपेत् संध्यां तिष्ठन् पूर्वां तथेतराम् ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नित्यप्रति सूर्योपस्थान करे। सूर्योदयके समय कभी न सोये। सायंकाल और प्रातःकाल दोनों समय संध्योपासना करके गायत्रीमन्त्रका जप करे॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पञ्चार्द्रो भोजनं भुञ्ज्यात् प्राङ्मुखो मौनमास्थितः।
न निन्द्यादन्नभक्ष्यांश्च स्वाद्वस्वादु च भक्षयेत् ॥ ६ ॥
मूलम्
पञ्चार्द्रो भोजनं भुञ्ज्यात् प्राङ्मुखो मौनमास्थितः।
न निन्द्यादन्नभक्ष्यांश्च स्वाद्वस्वादु च भक्षयेत् ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
दोनों हाथ, दोनों पैर और मुँह—इन पाँच अंगोंको धोकर1 पूर्वाभिमुख हो भोजन करे। भोजनके समय मौन रहे। परोसे हुए अन्नकी निन्दा न करे। वह स्वादिष्ट हो या न हो, प्रेमसे भोजन कर ले॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आर्द्रपाणिः समुत्तिष्ठेन्नार्द्रपादः स्वपेन्निशि ।
देवर्षिर्नारदः प्राह एतदाचारलक्षणम् ॥ ७ ॥
मूलम्
आर्द्रपाणिः समुत्तिष्ठेन्नार्द्रपादः स्वपेन्निशि ।
देवर्षिर्नारदः प्राह एतदाचारलक्षणम् ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भोजनके बाद हाथ धोकर उठे। रातको भीगे पैर न सोये। देवर्षि नारद इसीको सदाचारका लक्षण कहते हैं॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शुचिं देशमनड्वाहं देवगोष्ठं चतुष्पथम्।
ब्राह्मणं धार्मिकं चैत्यं नित्यं कुर्यात् प्रदक्षिणम् ॥ ८ ॥
अतिथीनां च सर्वेषां प्रेष्याणां स्वजनस्य च।
सामान्यं भोजनं भृत्यैः पुरुषस्य प्रशस्यते ॥ ९ ॥
मूलम्
शुचिं देशमनड्वाहं देवगोष्ठं चतुष्पथम्।
ब्राह्मणं धार्मिकं चैत्यं नित्यं कुर्यात् प्रदक्षिणम् ॥ ८ ॥
अतिथीनां च सर्वेषां प्रेष्याणां स्वजनस्य च।
सामान्यं भोजनं भृत्यैः पुरुषस्य प्रशस्यते ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यज्ञशाला आदि पवित्र स्थान, बैल, देवालय, चौराहा, ब्राह्मण, धर्मात्मा मनुष्य तथा चैत्य (देवसम्बन्धी वृक्ष)—इनको सदा दाहिने करके चले। गृहस्थ पुरुषको घरमें अतिथियों, सेवकों और स्वजनोंके लिये भी एक-सा भोजन बनवाना श्रेष्ठ माना गया है॥८-९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सायं प्रातर्मनुष्याणामशनं वेदनिर्मितम् ।
नान्तरा भोजनं दृष्टमुपवासी तथा भवेत् ॥ १० ॥
मूलम्
सायं प्रातर्मनुष्याणामशनं वेदनिर्मितम् ।
नान्तरा भोजनं दृष्टमुपवासी तथा भवेत् ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शास्त्रमें मनुष्योंके लिये सायंकाल और प्रातःकाल दो ही समय भोजन करनेका विधान है। बीचमें भोजन करनेकी विधि नहीं देखी गयी है। जो इस नियमका पालन करता है, उसे उपवास करनेका फल प्राप्त होता है॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
होमकाले तथा जुह्वन्नृतुकाले तथा व्रजन्।
अनन्यस्त्रीजनः प्राज्ञो ब्रह्मचारी तथा भवेत् ॥ ११ ॥
मूलम्
होमकाले तथा जुह्वन्नृतुकाले तथा व्रजन्।
अनन्यस्त्रीजनः प्राज्ञो ब्रह्मचारी तथा भवेत् ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो होमके समय प्रतिदिन हवन करता, ऋतुकालमें स्त्रीके पास जाता और परायी स्त्रीपर कभी दृष्टि नहीं डालता, वह बुद्धिमान् पुरुष ब्रह्मचारीके समान माना जाता है॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अमृतं ब्राह्मणोच्छिष्टं जनन्या हृदयं कृतम्।
तज्जनाः पर्युपासन्ते सत्यं सन्तः समासते ॥ १२ ॥
मूलम्
अमृतं ब्राह्मणोच्छिष्टं जनन्या हृदयं कृतम्।
तज्जनाः पर्युपासन्ते सत्यं सन्तः समासते ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्राह्मणको भोजन करानेके बाद बचा हुआ अन्न अमृत है। वह माताके स्तन्यकी भाँति हितकर है। उसको जो लोग सेवन करते हैं, वे श्रेष्ठ पुरुष सत्यस्वरूप परब्रह्म परमात्माको प्राप्त कर लेते हैं॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
लोष्टमर्दा तृणच्छेदो नखखादी तु यो नरः।
नित्योच्छिष्टः शंकुशुको नेहायुर्विन्दते महत् ॥ १३ ॥
मूलम्
लोष्टमर्दा तृणच्छेदो नखखादी तु यो नरः।
नित्योच्छिष्टः शंकुशुको नेहायुर्विन्दते महत् ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो मनुष्य मिट्टीके ढेले फोड़ता, तिनके तोड़ता, नख चबाता, सदा जूठे हाथ और जूठे मुँह रहता है तथा खूँटीमें बँधे हुए तोतेके समान पराधीन जीवन बिताता है, उसे इस जगत्में बड़ी आयु नहीं मिलती॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यजुषा संस्कृतं मांसं निवृत्तो मांसभक्षणात्।
न भक्षयेद् वृथामांसं पृष्ठमांसं च वर्जयेत् ॥ १४ ॥
मूलम्
यजुषा संस्कृतं मांसं निवृत्तो मांसभक्षणात्।
न भक्षयेद् वृथामांसं पृष्ठमांसं च वर्जयेत् ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो मांस-भक्षण न करता हो, वह यजुर्वेदके मन्त्रोंद्वारा संस्कार किया हुआ मांस भी न खाय। व्यर्थ मांस और श्राद्धशेष मांस भी वह त्याग दे॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वदेशे परदेशे वा अतिथिं नोपवासयेत्।
काम्यकर्मफलं लब्ध्वा गुरूणामुपपादयेत् ॥ १५ ॥
मूलम्
स्वदेशे परदेशे वा अतिथिं नोपवासयेत्।
काम्यकर्मफलं लब्ध्वा गुरूणामुपपादयेत् ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मनुष्य स्वदेशमें हो या परदेशमें—अपने पास आये हुए अतिथिको भूखा न रहने दे। सकाम कर्तव्यकर्मोंके फलरूपमें प्राप्त पदार्थ अपने गुरुजनोंको निवेदित कर दे॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुरुभ्य आसनं देयं कर्तव्यं चाभिवादनम्।
गुरूनभ्यर्च्य युज्यन्ते आयुषा यशसा श्रिया ॥ १६ ॥
मूलम्
गुरुभ्य आसनं देयं कर्तव्यं चाभिवादनम्।
गुरूनभ्यर्च्य युज्यन्ते आयुषा यशसा श्रिया ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
गुरुजन पधारें तो उन्हें बैठनेके लिये आसन दे, प्रणाम करे, गुरुओंकी पूजा करनेसे मनुष्य आयु, यश और लक्ष्मीसे सम्पन्न होते हैं॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नेक्षेतादित्यमुद्यन्तं न च नग्नां परस्त्रियम्।
मैथुनं सततं धर्म्यं गुह्मे चैव समाचरेत् ॥ १७ ॥
मूलम्
नेक्षेतादित्यमुद्यन्तं न च नग्नां परस्त्रियम्।
मैथुनं सततं धर्म्यं गुह्मे चैव समाचरेत् ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उगते हुए सूर्यकी ओर न देखे, नंगी हुई परायी स्त्रीकी ओर दृष्टि न डाले और सदा धर्मानुसार ऋतुकालके समय अपनी ही पत्नीके साथ एकान्त स्थानमें समागम करे॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तीर्थानां हृदयं तीर्थं शुचीनां हृदयं शुचिः।
सर्वमार्यकृतं चौक्ष्यं वालसंस्पर्शनानि च ॥ १८ ॥
मूलम्
तीर्थानां हृदयं तीर्थं शुचीनां हृदयं शुचिः।
सर्वमार्यकृतं चौक्ष्यं वालसंस्पर्शनानि च ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तीर्थोंमें श्रेष्ठ तीर्थ विशुद्ध हृदय है, पवित्र वस्तुओंमें अतिपवित्र भी विशुद्ध हृदय ही है। शिष्ट पुरुष जिसे आचरणमें लाते हैं, वह आचरण सर्वश्रेष्ठ है। चँवर आदिमें लगे हुए गायकी पूँछके बालोंका स्पर्श भी शिष्टाचारानुमोदित होनेके कारण शुद्ध है॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दर्शने दर्शने नित्यं सुखप्रश्नमुदाहरेत्।
सायं प्रातश्च विप्राणां प्रदिष्टमभिवादनम् ॥ १९ ॥
मूलम्
दर्शने दर्शने नित्यं सुखप्रश्नमुदाहरेत्।
सायं प्रातश्च विप्राणां प्रदिष्टमभिवादनम् ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
परिचित मनुष्यसे जब-जब भेंट हो, सदा उसका कुशल-समाचार पूछे। सायंकाल और प्रातःकाल दोनों समय ब्राह्मणोंको प्रणाम करे, यह शास्त्रकी आज्ञा है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
देवागारे गवां मध्ये ब्राह्मणानां क्रियापथे।
स्वाध्याये भोजने चैव दक्षिणं पाणिमुद्धरेत् ॥ २० ॥
मूलम्
देवागारे गवां मध्ये ब्राह्मणानां क्रियापथे।
स्वाध्याये भोजने चैव दक्षिणं पाणिमुद्धरेत् ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
देवमन्दिरमें, गौओंके बीचमें, ब्राह्मण के यज्ञादि कर्मोंमें, शास्त्रोंके स्वाध्यायकालमें और भोजन करते समय दाहिने हाथसे काम ले॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सायं प्रातश्च विप्राणां पूजनं च यथाविधि।
पण्यानां शोभते पण्यं कृषीणां बाद्यते कृषिः ॥ २१ ॥
बहुकारं च सस्यानां वाह्ये वाहो गवां तथा।
मूलम्
सायं प्रातश्च विप्राणां पूजनं च यथाविधि।
पण्यानां शोभते पण्यं कृषीणां बाद्यते कृषिः ॥ २१ ॥
बहुकारं च सस्यानां वाह्ये वाहो गवां तथा।
अनुवाद (हिन्दी)
सबेरे और शाम दोनों समय विधिपूर्वक ब्राह्मणोंका पूजन (सेवा-सत्कार) करना चाहिये। यही व्यापारोंमें उत्तम व्यापारकी भाँति शोभा पाता है और यही खेतीमें सबसे अच्छी खेतीके समान प्रत्यक्ष फलदायक है। ब्राह्मणपूजक पुरुषके विविध अन्नोंकी वृद्धि होती है और उसे वाहनोंमें गोजातिके श्रेष्ठ वाहन सुलभ होते हैं॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सम्पन्नं भोजने नित्यं पानीये तर्पणं तथा ॥ २२ ॥
सुशृतं पायसे ब्रूयाद् यवाग्वां कृसरे तथा।
मूलम्
सम्पन्नं भोजने नित्यं पानीये तर्पणं तथा ॥ २२ ॥
सुशृतं पायसे ब्रूयाद् यवाग्वां कृसरे तथा।
अनुवाद (हिन्दी)
भोजन करानेके पश्चात् दाता पूछे कि क्या भोजन सम्पन्न हो गया? ब्राह्मण उत्तर दे कि सम्पन्न हो गया। इसी प्रकार जल पिलानेके बाद दाता पूछे तृप्ति हुई क्या? ब्राह्मण उत्तर दे कि अच्छी तरह तृप्ति हो गयी। खीर खिलानेके बाद जब यजमान पूछे कि अच्छा बना था न? तब ब्राह्मण उत्तर दे बहुत अच्छा बना था। इसी प्रकार जौका हलुआ और खिचड़ी खिलानेके बाद भी प्रश्न और उत्तर होना चाहिये॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्मश्रुकर्मणि सम्प्राप्ते क्षुते स्नानेऽथ भोजने।
व्याधितानां च सर्वेषामायुष्यमभिनन्दनम् ॥ २३ ॥
मूलम्
श्मश्रुकर्मणि सम्प्राप्ते क्षुते स्नानेऽथ भोजने।
व्याधितानां च सर्वेषामायुष्यमभिनन्दनम् ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
हजामत बनाने, छींकने, स्नान और भोजन करनेके बाद हरेक मनुष्यको तथा सभी अवस्थाओंमें सम्पूर्ण रोगियोंका कर्तव्य है कि वे ब्राह्मणोंको प्रणाम आदिसे प्रसन्न करें। इससे उनकी आयु बढ़ती है॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रत्यादित्यं न मेहेत न पश्येदात्मनः शकृत्।
सह स्त्रियाथ शयनं सह भोज्यं च वर्जयेत् ॥ २४ ॥
मूलम्
प्रत्यादित्यं न मेहेत न पश्येदात्मनः शकृत्।
सह स्त्रियाथ शयनं सह भोज्यं च वर्जयेत् ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सूर्यकी ओर मुँह करके पेशाब न करे। अपनी विष्ठापर दृष्टि न डाले। स्त्रीके साथ एक शय्यापर सोना और एक थालीमें भोजन करना छोड़ दे॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वंकारं नामधेयं च ज्येष्ठानां परिवर्जयेत्।
अवराणां समानानामुभयेषां न दुष्यति ॥ २५ ॥
मूलम्
त्वंकारं नामधेयं च ज्येष्ठानां परिवर्जयेत्।
अवराणां समानानामुभयेषां न दुष्यति ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अपनेसे बड़ोंका नाम लेकर या तू कहकर न पुकारे, जो अपनेसे छोटे या समवयस्क हों, उनके लिये वैसा करना दोषकी बात नहीं है॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हृदयं पापवृत्तानां पापमाख्याति वैकृतम्।
ज्ञानपूर्वं विनश्यन्ति गूहमाना महाजने ॥ २६ ॥
मूलम्
हृदयं पापवृत्तानां पापमाख्याति वैकृतम्।
ज्ञानपूर्वं विनश्यन्ति गूहमाना महाजने ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पापियोंका हृदय तथा उनके नेत्र और मुख आदिका विकार ही उनके पापोंको बता देता है। जो लोग जान-बूझकर किये हुए पापको महापुरुषोंसे छिपाते हैं, वे गिर जाते हैं॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ज्ञानपूर्वकृतं पापं छादयत्यबहुश्रुतः ।
नैनं मनुष्याः पश्यन्ति पश्यन्त्येव दिवौकसः ॥ २७ ॥
मूलम्
ज्ञानपूर्वकृतं पापं छादयत्यबहुश्रुतः ।
नैनं मनुष्याः पश्यन्ति पश्यन्त्येव दिवौकसः ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मूर्ख मनुष्य ही जान-बूझकर किये हुए पापको छिपाता है। यद्यपि उस पापको मनुष्य नहीं देखते हैं, तो भी देवतालोग तो देखते ही हैं॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पापेनापिहितं पापं पापमेवानुवर्तते ।
धर्मेणापिहितो धर्मो धर्ममेवानुवर्तते ।
धार्मिकेण कृतो धर्मो धर्ममेवानुवर्तते ॥ २८ ॥
मूलम्
पापेनापिहितं पापं पापमेवानुवर्तते ।
धर्मेणापिहितो धर्मो धर्ममेवानुवर्तते ।
धार्मिकेण कृतो धर्मो धर्ममेवानुवर्तते ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पापी मनुष्यका पापके द्वारा छिपाया हुआ पाप पुनः उसे पापमें ही लगाता है और धर्मात्माका धर्मतः गुप्त रक्खा हुआ धर्म उसे पुनः धर्ममें ही प्रवृत्त करता है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पापं कृतं न स्मरतीह मूढो
विवर्तमानस्य तदेति कर्तुः ।
राहुर्यथा चन्द्रमुपैति चापि
तथाबुधं पापमुपैति कर्म ॥ २९ ॥
मूलम्
पापं कृतं न स्मरतीह मूढो
विवर्तमानस्य तदेति कर्तुः ।
राहुर्यथा चन्द्रमुपैति चापि
तथाबुधं पापमुपैति कर्म ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मूर्ख मनुष्य अपने किये हुए पापको याद नहीं रखता; परंतु पापमें प्रवृत्त हुए कर्ताका पाप स्वयं ही उसके पीछे लगा रहता है, जैसे राहु चन्द्रमाके पास स्वतः पहुँच जाता है, उसी प्रकार उस मूढ़ मनुष्यके पास उसका पाप स्वयं चला जाता है॥२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आशया संचितं द्रव्यं दुःखेनैवोपभुज्यते।
तद् बुधा न प्रशंसन्ति मरणं न प्रतीक्षते ॥ ३० ॥
मूलम्
आशया संचितं द्रव्यं दुःखेनैवोपभुज्यते।
तद् बुधा न प्रशंसन्ति मरणं न प्रतीक्षते ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
किसी विशेष कामनाकी पूर्तिकी आशासे जो धन संचित करके रखा गया है, उसका उपभोग दुःखपूर्वक ही किया जाता है; अतः विद्वान् पुरुष उसकी प्रशंसा नहीं करते हैं; क्योंकि मृत्यु किसीकी कामना-पूर्तिके अवसरकी प्रतीक्षा नहीं करती है॥३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मानसं सर्वभूतानां धर्ममाहुर्मनीषिणः ।
तस्मात् सर्वेषु भूतेषु मनसा शिवमाचरेत् ॥ ३१ ॥
मूलम्
मानसं सर्वभूतानां धर्ममाहुर्मनीषिणः ।
तस्मात् सर्वेषु भूतेषु मनसा शिवमाचरेत् ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मनीषी पुरुषोंका कथन है कि समस्त प्राणियोंके लिये मनद्वारा किया हुआ धर्म ही श्रेष्ठ है; अतः मनसे सम्पूर्ण जीवोंका कल्याण सोचता रहे॥३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एक एव चरेद् धर्मं नास्ति धर्मे सहायता।
केवलं विधिमासाद्य सहायः किं करिष्यति ॥ ३२ ॥
मूलम्
एक एव चरेद् धर्मं नास्ति धर्मे सहायता।
केवलं विधिमासाद्य सहायः किं करिष्यति ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
केवल वेदविधिका सहारा लेकर अकेले ही धर्मका आचरण करना चाहिये। उसमें सहायताकी आवश्यकता नहीं है। कोई दूसरा सहायक आकर क्या करेगा॥३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
धर्मो योनिर्मनुष्याणां देवानाममृतं दिवि।
प्रेत्यभावे सुखं धर्माच्छश्वत्तैरुपभुज्यते ॥ ३३ ॥
मूलम्
धर्मो योनिर्मनुष्याणां देवानाममृतं दिवि।
प्रेत्यभावे सुखं धर्माच्छश्वत्तैरुपभुज्यते ॥ ३३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
धर्म ही मनुष्योंकी योनि है। वही स्वर्गमें देवताओंका अमृत है। धर्मात्मा मनुष्य मरनेके पश्चात् धर्मके ही बलसे सदा सुख भोगते हैं॥३३॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि भीष्मयुधिष्ठिर संवादे आचारविधौ त्रिनवत्यधिकशततमोऽध्यायः॥१९३॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें भीष्म-युधिष्ठिरसंवादके प्रसंगमें आचारविधिविषयक एक सौ तिरानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१९३॥
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तात्पर्य यह कि भोजनके लिये जाते समय तत्काल हाथ, पैर और मुँह धोने चाहिये। बहुत पहलेके धोये हों, तो भी उस समय धो लेना आवश्यक है। ↩︎