१८० शृगालकाश्यपसंवादे

भागसूचना

अशीत्यधिकशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

सद्‌बुद्धिका आश्रय लेकर आत्महत्यादि पापकर्मसे निवृत्त होनेके सम्बन्धमें काश्यप ब्राह्मण और इन्द्रका संवाद

मूलम् (वचनम्)

युधिष्ठिर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

बान्धवाः कर्म वित्तं वा प्रज्ञा वेह पितामह।
नरस्य का प्रतिष्ठा स्यादेतत् पृष्टो वदस्व मे ॥ १ ॥

मूलम्

बान्धवाः कर्म वित्तं वा प्रज्ञा वेह पितामह।
नरस्य का प्रतिष्ठा स्यादेतत् पृष्टो वदस्व मे ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिरने पूछा— पितामह! अब मेरे प्रश्नके अनुसार मुझे यह बताइये कि मनुष्यको बन्धुजन, कर्म, धन अथवा बुद्धि—इनमेंसे किसका आश्रय लेना चाहिये?॥१॥

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रज्ञा प्रतिष्ठा भूतानां प्रज्ञा लाभः परो मतः।
प्रज्ञा निःश्रेयसी लोके प्रज्ञा स्वर्गो मतः सताम् ॥ २ ॥

मूलम्

प्रज्ञा प्रतिष्ठा भूतानां प्रज्ञा लाभः परो मतः।
प्रज्ञा निःश्रेयसी लोके प्रज्ञा स्वर्गो मतः सताम् ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजीने कहा— राजन्! प्राणियोंका प्रधान आश्रय बुद्धि है। बुद्धि ही उनका सबसे बड़ा लाभ है। संसारमें बुद्धि ही उनका कल्याण करनेवाली है। सत्पुरुषोंके मतमें बुद्धि ही स्वर्ग है॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रज्ञया प्रापितार्थो हि बलिरैश्वर्यसंक्षये।
प्रह्रादो नमुचिर्मङ्किस्तस्याः किं विद्यते परम् ॥ ३ ॥

मूलम्

प्रज्ञया प्रापितार्थो हि बलिरैश्वर्यसंक्षये।
प्रह्रादो नमुचिर्मङ्किस्तस्याः किं विद्यते परम् ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजा बलिने अपना ऐश्वर्य क्षीण हो जानेपर पुनः उसे बुद्धिबलसे ही पाया था। प्रह्लाद, नमुचि और मंकिने भी बुद्धिबलसे ही अपना-अपना अर्थ सिद्ध किया था। संसारमें बुद्धिसे बढ़कर और क्या है?॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् ।
इन्द्रकाश्यपसंवादं तन्निबोध युधिष्ठिर ॥ ४ ॥

मूलम्

अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् ।
इन्द्रकाश्यपसंवादं तन्निबोध युधिष्ठिर ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिर! इस विषयमें विज्ञ पुरुष इन्द्र और काश्यपके संवादरूप प्राचीन इतिहासका उदाहरण दिया करते हैं, उसे सुनो॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वैश्यः कश्चिदृषिसुतं काश्यपं संशितव्रतम्।
रथेन पातयामास श्रीमान् दृप्तस्तपस्विनम् ॥ ५ ॥

मूलम्

वैश्यः कश्चिदृषिसुतं काश्यपं संशितव्रतम्।
रथेन पातयामास श्रीमान् दृप्तस्तपस्विनम् ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कहते हैं, पूर्वकालमें धनके अभिमानसे मतवाले हुए किसी धनी वैश्यने कठोर व्रतका पालन करनेवाले तपस्वी ऋषिकुमार काश्यपको अपने रथसे धक्के देकर गिरा दिया॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आर्तः स पतितः क्रुद्धस्त्यक्त्वाऽऽत्मानमथाब्रवीत्।
मरिष्याम्यधनस्येह जीवितार्थो न विद्यते ॥ ६ ॥

मूलम्

आर्तः स पतितः क्रुद्धस्त्यक्त्वाऽऽत्मानमथाब्रवीत्।
मरिष्याम्यधनस्येह जीवितार्थो न विद्यते ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे पीड़ासे कराहकर गिर पड़े और कुपित होकर आत्महत्याके लिये उद्यत हो इस प्रकार बोले—‘अब मैं प्राण दे दूँगा; क्योंकि इस संसारमें निर्धन मनुष्यका जीवन व्यर्थ है’॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथा मुमूर्षमासीनमकूजन्तमचेतसम् ।
इन्द्रः शृगालरूपेण बभाषे लुब्धमानसम् ॥ ७ ॥

मूलम्

तथा मुमूर्षमासीनमकूजन्तमचेतसम् ।
इन्द्रः शृगालरूपेण बभाषे लुब्धमानसम् ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन्हें इस प्रकार मरनेकी इच्छा लेकर बैठे मूर्च्छासे अचेत हो कुछ न बोलते और मन-ही-मन धनके लिये ललचाते देखकर इन्द्रदेव सियारका रूप धारण करके आये और उनसे इस प्रकार कहने लगे—॥७॥

सूचना (हिन्दी)

काश्यप ब्राह्मणके प्रति गीदड़के रूपमें इन्द्रका उपदेश

विश्वास-प्रस्तुतिः

मनुष्ययोनिमिच्छन्ति सर्वभूतानि सर्वशः ।
मनुष्यत्वे च विप्रत्वं सर्व एवाभिनन्दति ॥ ८ ॥

मूलम्

मनुष्ययोनिमिच्छन्ति सर्वभूतानि सर्वशः ।
मनुष्यत्वे च विप्रत्वं सर्व एवाभिनन्दति ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मुने! सभी प्राणी सब प्रकारसे मनुष्ययोनि पानेकी इच्छा रखते हैं। उसमें भी ब्राह्मणत्वकी प्रशंसा तो सभी लोग करते हैं॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मनुष्यो ब्राह्मणश्चासि श्रोत्रियश्चासि काश्यप।
सुदुर्लभमवाप्यैतन्न दोषान्मर्तुमर्हसि ॥ ९ ॥

मूलम्

मनुष्यो ब्राह्मणश्चासि श्रोत्रियश्चासि काश्यप।
सुदुर्लभमवाप्यैतन्न दोषान्मर्तुमर्हसि ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘काश्यप! आप तो मनुष्य हैं, ब्राह्मण हैं और श्रोत्रिय भी हैं। ऐसा परम दुर्लभ शरीर पाकर आपको उसमें दोषदृष्टि करके स्वयं ही मरनेके लिये उद्यत होना उचित नहीं है॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वे लाभाः साभिमाना इति सत्यवती श्रुतिः।
संतोषणीयरूपोऽसि लोभाद् यदभिमन्यसे ॥ १० ॥

मूलम्

सर्वे लाभाः साभिमाना इति सत्यवती श्रुतिः।
संतोषणीयरूपोऽसि लोभाद् यदभिमन्यसे ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘संसारमें जितने लाभ हैं, वे सभी अभिमानपूर्ण हैं, ऐसा सत्य अर्थका प्रतिपादन करनेवाली श्रुतिका कथन है (अर्थात् मैंने यह लाभ अपने पुरुषार्थसे किया है, ऐसा अहंकार प्रायः सभी मनुष्य कर लेते हैं)। आपका स्वरूप तो संतोष रखनेके योग्य है। आप लोभवश ही उसकी अवहेलना करते हैं॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अहो सिद्धार्थता तेषां येषां सन्तीह पाणयः।
अतीव स्पृहये तेषां येषां सन्तीह पाणयः ॥ ११ ॥

मूलम्

अहो सिद्धार्थता तेषां येषां सन्तीह पाणयः।
अतीव स्पृहये तेषां येषां सन्तीह पाणयः ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘अहो! जिनके पास भगवान्‌के दिये हुए हाथ हैं, उनको तो मैं कृतार्थ मानता हूँ। इस जगत्‌में जिनके पास एकसे अधिक हाथ हैं, उनके-जैसा सौभाग्य पानेकी इच्छा मुझे बारंबार होती है॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पाणिमद्भ्यः स्पृहास्माकं यथा तव धनस्य वै।
न पाणिलाभादधिको लाभः कश्चन विद्यते ॥ १२ ॥

मूलम्

पाणिमद्भ्यः स्पृहास्माकं यथा तव धनस्य वै।
न पाणिलाभादधिको लाभः कश्चन विद्यते ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जैसे आपके मनमें धनकी लालसा है, उसी प्रकार हम पशुओंको हाथवाले मनुष्योंसे हाथ पानेकी अभिलाषा रहती है। हमारी दृष्टिमें हाथ मिलनेसे अधिक दूसरा कोई लाभ नहीं॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अपाणित्वाद् वय ब्रह्मन् कण्टकं नोद्धरामहे।
जन्तूनुच्चावचानङ्गे दशतो न कषाम वा ॥ १३ ॥

मूलम्

अपाणित्वाद् वय ब्रह्मन् कण्टकं नोद्धरामहे।
जन्तूनुच्चावचानङ्गे दशतो न कषाम वा ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘ब्रह्मन्! हमारे शरीरमें काँटे गड़ जाते हैं; परंतु हाथ न होनेसे हम उन्हें निकाल नहीं पाते हैं। जो छोटे-बड़े जीव-जन्तु हमारे शरीरमें डँसते हैं, उनको भी हम हटा नहीं सकते॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथ येषां पुनः पाणी देवदत्तौ दशाङ्‌गुली।
उद्धरन्ति कृमीनङ्गाद् दशतो निकषन्ति च ॥ १४ ॥

मूलम्

अथ येषां पुनः पाणी देवदत्तौ दशाङ्‌गुली।
उद्धरन्ति कृमीनङ्गाद् दशतो निकषन्ति च ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘परंतु जिनके पास भगवान्‌के दिये हुए दस अंगुलियोंसे युक्त दो हाथ हैं, वे अपने अंगोंसे उन कीड़ोंको हटाते या नष्ट कर देते हैं, जो उन्हें डँसते हैं॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वर्षाहिमातपानां च परित्राणानि कुर्वते।
चैलमन्नं सुखं शय्यां निवातं चोपभुञ्जते ॥ १५ ॥

मूलम्

वर्षाहिमातपानां च परित्राणानि कुर्वते।
चैलमन्नं सुखं शय्यां निवातं चोपभुञ्जते ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘वे वर्षा, सर्दी और धूपसे अपनी रक्षा कर लेते हैं, कपड़ा पहनते हैं, सुखपूर्वक अन्न खाते हैं, शय्या बिछाकर सोते हैं तथा एकान्त स्थानका उपभोग करते हैं॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अधिष्ठाय च गां लोके भुञ्जते वाहयन्ति च।
उपायैर्बहुभिश्चैव वश्यानात्मनि कुर्वते ॥ १६ ॥

मूलम्

अधिष्ठाय च गां लोके भुञ्जते वाहयन्ति च।
उपायैर्बहुभिश्चैव वश्यानात्मनि कुर्वते ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘हाथवाले मनुष्य बैलोंसे जुती हुई गाड़ीपर चढ़कर उन्हें हाँकते हैं और जगत्‌में उनका यथेष्ट उपभोग करते हैं तथा हाथसे ही अनेक प्रकारके उपाय करके लोगोंको अपने वशमें कर लेते हैं॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ये खल्वजिह्वाः कृपणा अल्पप्राणा अपाणयः।
सहन्ते तानि दुःखानि दिष्ट्या त्वं न तथा मुने॥१७॥

मूलम्

ये खल्वजिह्वाः कृपणा अल्पप्राणा अपाणयः।
सहन्ते तानि दुःखानि दिष्ट्या त्वं न तथा मुने॥१७॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मुने! जो दुःख बिना हाथके दीन, दुर्बल और बेजबान प्राणी सहते हैं, सौभाग्यवश वे तो आपको नहीं सहने पड़ते हैं॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दिष्ट्या त्वं न शृगालो वै न कृमिर्न च मूषकः।
न सर्पो न च मण्डूको न चान्यः पापयोनिजः॥१८॥

मूलम्

दिष्ट्या त्वं न शृगालो वै न कृमिर्न च मूषकः।
न सर्पो न च मण्डूको न चान्यः पापयोनिजः॥१८॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘आपका बड़ा भाग्य है कि आप गीदड़, कीड़ा, चूहा, साँप, मेढ़क या किसी दूसरी पापयोनिमें नहीं उत्पन्न हुए॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतावतापि लाभेन तोष्टुमर्हसि काश्यप।
किं पुनर्योऽसि सत्त्वानां सर्वेषां ब्राह्मणोत्तमः ॥ १९ ॥

मूलम्

एतावतापि लाभेन तोष्टुमर्हसि काश्यप।
किं पुनर्योऽसि सत्त्वानां सर्वेषां ब्राह्मणोत्तमः ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘काश्यप! आपको इतने ही लाभसे संतुष्ट रहना चाहिये। इससे अधिक लाभ क्या होगा कि आप सभी प्राणियोंमें श्रेष्ठ ब्राह्मण हैं॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इमे मां कृमयोऽदन्ति येषामुद्धरणाय वै।
नास्ति शक्तिरपाणित्वात् पश्यावस्थामिमां मम ॥ २० ॥

मूलम्

इमे मां कृमयोऽदन्ति येषामुद्धरणाय वै।
नास्ति शक्तिरपाणित्वात् पश्यावस्थामिमां मम ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मुझे ये कीड़े खा रहे हैं, जिन्हें निकाल फेंकनेकी शक्ति मुझमें नहीं है। हाथ न होनेके कारण होनेवाली मेरी इस दुर्दशाको आप प्रत्यक्ष देख लें॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अकार्यमिति चैवेमं नात्मानं संत्यजाम्यहम्।
नातः पापीयसीं योनिं पतेयमपरामिति ॥ २१ ॥

मूलम्

अकार्यमिति चैवेमं नात्मानं संत्यजाम्यहम्।
नातः पापीयसीं योनिं पतेयमपरामिति ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘आत्महत्या करना पाप है; यह सोचकर ही मैं अपने इस शरीरका परित्याग नहीं करता हूँ। मुझे भय है कि मैं इससे भी बढ़कर किसी दूसरी पापयोनिमें न गिर जाऊँ॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मध्ये वै पापयोनीनां शार्गालीं यामहं गतः।
पापीयस्यो बहुतरा इतोऽन्याः पापयोनयः ॥ २२ ॥

मूलम्

मध्ये वै पापयोनीनां शार्गालीं यामहं गतः।
पापीयस्यो बहुतरा इतोऽन्याः पापयोनयः ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘यद्यपि मैं इस समय जिस शृगालयोनिमें हूँ, इसकी गणना भी पापयोनियोंमें ही है, तथापि दूसरी बहुत-सी पापयोनियाँ इससे भी नीची श्रेणीकी हैं॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जात्यैवैके सुखितराः सन्त्यन्ये भृशदुःखिताः।
नैकान्तं सुखमेवेह क्वचित्‌पश्यामि कस्यचित् ॥ २३ ॥

मूलम्

जात्यैवैके सुखितराः सन्त्यन्ये भृशदुःखिताः।
नैकान्तं सुखमेवेह क्वचित्‌पश्यामि कस्यचित् ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘कुछ देवता आदि जातिसे ही सुखी हैं, दूसरे पशु आदि जातिसे ही अत्यन्त दुखी हैं; परंतु मैं कहीं किसीको ऐसा नहीं देखता, जिसको सर्वथा सुख ही सुख हो॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मनुष्या ह्याढ्यतां प्राप्य राज्यमिच्छन्त्यनन्तरम्।
राज्याद् देवत्वमिच्छन्ति देवत्वादिन्द्रतामपि ॥ २४ ॥

मूलम्

मनुष्या ह्याढ्यतां प्राप्य राज्यमिच्छन्त्यनन्तरम्।
राज्याद् देवत्वमिच्छन्ति देवत्वादिन्द्रतामपि ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मनुष्य धनी हो जानेपर राज्य पाना चाहते हैं, राज्यसे देवत्वकी इच्छा करते हैं और देवत्वसे फिर इन्द्रपद प्राप्त करना चाहते हैं॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भवेस्त्वं यद्यपि त्वाढ्यो न राजा न च दैवतम्।
देवत्वं प्राप्य चेन्द्रत्वं नैव तुष्येस्तथा सति ॥ २५ ॥

मूलम्

भवेस्त्वं यद्यपि त्वाढ्यो न राजा न च दैवतम्।
देवत्वं प्राप्य चेन्द्रत्वं नैव तुष्येस्तथा सति ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘यदि आप धनी हो जायँ तो भी ब्राह्मण होनेके कारण राजा नहीं हो सकते। यदि कदाचित् राजा हो जायँ तो देवता नहीं हो सकते। देवता और इन्द्रका पद भी पा जायँ तो भी आप उतनेसे संतुष्ट नहीं रह सकेंगे॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न तृप्तिः प्रियलाभेऽस्ति तृष्णा नाद्भिः प्रशाम्यति।
सम्प्रज्वलति सा भूयः समिद्भिरिव पावकः ॥ २६ ॥

मूलम्

न तृप्तिः प्रियलाभेऽस्ति तृष्णा नाद्भिः प्रशाम्यति।
सम्प्रज्वलति सा भूयः समिद्भिरिव पावकः ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘प्रिय वस्तुओंका लाभ होनेसे कभी तृप्ति नहीं होती। बढ़ती हुई तृष्णा जलसे नहीं बुझती। ईंधन पाकर जलनेवाली आगके समान वह और भी प्रज्वलित होती जाती है॥२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अस्त्येव त्वयि शोकोऽपि हर्षश्चापि तथा त्वयि।
सुखदुःखे तथा चोभे तत्र का परिदेवना ॥ २७ ॥

मूलम्

अस्त्येव त्वयि शोकोऽपि हर्षश्चापि तथा त्वयि।
सुखदुःखे तथा चोभे तत्र का परिदेवना ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘तुम्हारे भीतर शोक भी है और हर्ष भी। साथ ही सुख और दुःख दोनों हैं; फिर शोक करना किस कामका?॥२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

परिच्छिद्यैव कामानां सर्वेषां चैव कर्मणाम्।
मूलं बुद्धीन्द्रियग्रामं शकुन्तानिव पञ्जरे ॥ २८ ॥

मूलम्

परिच्छिद्यैव कामानां सर्वेषां चैव कर्मणाम्।
मूलं बुद्धीन्द्रियग्रामं शकुन्तानिव पञ्जरे ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘बुद्धि और इन्द्रियाँ ही समस्त कामनाओं और कर्मोंकी मूल हैं। उन्हें पिंजड़ेमें बंद पक्षियोंकी तरह अपने काबूमें रखा जाय तो कोई भय नहीं है॥२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न द्वितीयस्य शिरसश्छेदनं विद्यते क्वचित्।
न च पाणेस्तृतीयस्य यन्नास्ति न ततो भयम् ॥ २९ ॥

मूलम्

न द्वितीयस्य शिरसश्छेदनं विद्यते क्वचित्।
न च पाणेस्तृतीयस्य यन्नास्ति न ततो भयम् ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मनुष्यको दूसरे सिर और तीसरे हाथके कटनेका कभी भय नहीं होता है। जो वास्तवमें है ही नहीं, उसके कारण भय भी नहीं होता है॥२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न खल्वप्यरसज्ञस्य कामः क्वचन जायते।
संस्पर्शाद् दर्शनाद् वापि श्रवणाद् वापि जायते ॥ ३० ॥

मूलम्

न खल्वप्यरसज्ञस्य कामः क्वचन जायते।
संस्पर्शाद् दर्शनाद् वापि श्रवणाद् वापि जायते ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जो किसी विषयका रस नहीं जानता, उसके मनमें कभी उसकी कामना भी नहीं होती। स्पर्शसे, दर्शनसे अथवा श्रवणसे भी कामनाका उदय होता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न त्वं स्मरसि वारुण्या लट्‌वाकानां च पक्षिणाम्।
ताभ्यां चाभ्यधिको भक्ष्यो न कश्चिद् विद्यते क्वचित् ॥ ३१ ॥

मूलम्

न त्वं स्मरसि वारुण्या लट्‌वाकानां च पक्षिणाम्।
ताभ्यां चाभ्यधिको भक्ष्यो न कश्चिद् विद्यते क्वचित् ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘वारुणी मदिरा तथा चिड़िया—इन दोनोंका आप कभी स्मरण नहीं करते होंगे; क्योंकि इनको आपने नहीं खाया है; परंतु (जो तामसी मनुष्य इनको खाते हैं उनके लिये) कहीं और कोई भी भक्ष्य पदार्थ उन दोनोंसे बढ़कर नहीं है॥३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यानि चान्यानि भूतेषु भक्ष्यजातानि कस्यचित्।
येषामभुक्तपूर्वाणि तेषामस्मृतिरेव ते ॥ ३२ ॥

मूलम्

यानि चान्यानि भूतेषु भक्ष्यजातानि कस्यचित्।
येषामभुक्तपूर्वाणि तेषामस्मृतिरेव ते ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘प्राणियोंमें किसीके भी जो अन्यान्य भक्ष्य पदार्थ हैं, जिनका तुमने पहले उपभोग नहीं किया है, उन भोजनोंकी स्मृति तुमको कभी नहीं होगी॥३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अप्राशनमसंस्पर्शमसंदर्शनमेव च ।
पुरुषस्यैष नियमो मन्ये श्रेयो न संशयः ॥ ३३ ॥

मूलम्

अप्राशनमसंस्पर्शमसंदर्शनमेव च ।
पुरुषस्यैष नियमो मन्ये श्रेयो न संशयः ॥ ३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मैं ऐसा मानता हूँ कि किसी वस्तुको न खाने, न छूने और न देखनेका नियम लेना ही पुरुषके लिये कल्याणकारी है, इसमें संशय नहीं॥३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पाणिमन्तो बलवन्तो धनवन्तो न संशयः।
मनुष्या मानुषैरेव दासत्वमुपपादिताः ॥ ३४ ॥

मूलम्

पाणिमन्तो बलवन्तो धनवन्तो न संशयः।
मनुष्या मानुषैरेव दासत्वमुपपादिताः ॥ ३४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जिनके दोनों हाथ बने हुए हैं, निस्संदेह वे ही बलवान् और धनवान् हैं। मनुष्योंको तो मनुष्योंने ही दास बना रखा है॥३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वधबन्धपरिक्लेशैः क्लिश्यन्ते च पुनः पुनः।
ते खल्वपि रमन्ते च मोदन्ते च हसन्ति च॥३५॥

मूलम्

वधबन्धपरिक्लेशैः क्लिश्यन्ते च पुनः पुनः।
ते खल्वपि रमन्ते च मोदन्ते च हसन्ति च॥३५॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘कितने ही मनुष्य बारंबार वध और बन्धनके क्लेश भोगते रहते हैं, परंतु वे भी (आत्महत्या करके प्राण नहीं देते, बल्कि) आपसमें क्रीड़ा करते, आनन्दित होते और हँसते हैं॥३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अपरे बाहुबलिनः कृतविद्या मनस्विनः।
जुगुप्सितां च कृपणां पापवृत्तिमुपासते ॥ ३६ ॥

मूलम्

अपरे बाहुबलिनः कृतविद्या मनस्विनः।
जुगुप्सितां च कृपणां पापवृत्तिमुपासते ॥ ३६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘दूसरे बहुत-से बाहुबलसे सम्पन्न विद्वान् और मनस्वी मनुष्य दीन, निन्दित एवं पापपूर्ण वृत्तिसे जीविका चलाते हैं॥३६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उत्सहन्ते च ते वृत्तिमन्यामप्युपसेवितुम्।
स्वकर्मणा तु नियतं भवितव्यं तु तत् तथा ॥ ३७ ॥

मूलम्

उत्सहन्ते च ते वृत्तिमन्यामप्युपसेवितुम्।
स्वकर्मणा तु नियतं भवितव्यं तु तत् तथा ॥ ३७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘वे दूसरी वृत्तिका सेवन करनेके लिये भी उत्साह रखते हैं; परंतु अपने कर्मके अनुसार जो नियत है, वैसा ही भविष्यमें होता है॥३७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न पुल्कसो न चाण्डाल आत्मानं त्यक्तुमिच्छति।
तया तुष्टः स्वया योन्या मायां पश्यस्व यादृशीम् ॥ ३८ ॥

मूलम्

न पुल्कसो न चाण्डाल आत्मानं त्यक्तुमिच्छति।
तया तुष्टः स्वया योन्या मायां पश्यस्व यादृशीम् ॥ ३८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘भंगी अथवा चाण्डाल भी अपने शरीरको त्यागना नहीं चाहता है, वह अपनी उसी योनिसे संतुष्ट रहता है। देखिये, भगवान्‌की कैसी माया है?॥३८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दृष्ट्‌वा कुणीन् पक्षहतान् मनुष्यानामयाविनः।
सुसम्पूर्णः स्वया योन्या लब्धलाभोऽसि काश्यप ॥ ३९ ॥

मूलम्

दृष्ट्‌वा कुणीन् पक्षहतान् मनुष्यानामयाविनः।
सुसम्पूर्णः स्वया योन्या लब्धलाभोऽसि काश्यप ॥ ३९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘काश्यप! कुछ मनुष्य लूले और लँगड़े हैं, कुछ लोगोंको लकवा मार गया है, बहुत-से मनुष्य निरन्तर रोगी ही रहते हैं। उन सबकी ओर देखकर यह कहना पड़ता है कि आप अपनी योनिके अनुसार नीरोग और परिपूर्ण अंगवाले हैं। आपको मानवशरीरका लाभ मिल चुका है॥३९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदि ब्राह्मण देहस्ते निरातङ्को निरामयः।
अङ्गानि च समग्राणि न च लोकेषु धिक्‌कृतः ॥ ४० ॥

मूलम्

यदि ब्राह्मण देहस्ते निरातङ्को निरामयः।
अङ्गानि च समग्राणि न च लोकेषु धिक्‌कृतः ॥ ४० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘ब्राह्मणदेव! यदि आपका शरीर निर्भय और नीरोग है, आपके सारे अंग ठीक हैं, किसीमें कोई विकार नहीं आया है तो लोकमें कोई भी आपको धिक्कार नहीं सकता—आप धिक्कारके पात्र नहीं हो सकते॥४०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न केनचित् प्रवादेन सत्येनैवापहारिणा।
धर्मायोत्तिष्ठ विप्रर्षे नात्मानं त्यक्तुमर्हसि ॥ ४१ ॥

मूलम्

न केनचित् प्रवादेन सत्येनैवापहारिणा।
धर्मायोत्तिष्ठ विप्रर्षे नात्मानं त्यक्तुमर्हसि ॥ ४१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘यदि आपपर जातिच्युत करनेवाला कोई सच्चा कलंक लगा हो तो भी आपको प्राणत्यागका विचार नहीं करना चाहिये। ब्रह्मर्षे! आप धर्मपालनके लिये उठ खड़े होइये॥४१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदि ब्रह्मन् शृणोष्येतच्छ्रद्दधासि च मे वचः।
वेदोक्तस्यैव धर्मस्य फलं मुख्यमवाप्स्यसि ॥ ४२ ॥

मूलम्

यदि ब्रह्मन् शृणोष्येतच्छ्रद्दधासि च मे वचः।
वेदोक्तस्यैव धर्मस्य फलं मुख्यमवाप्स्यसि ॥ ४२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘ब्रह्मन्! यदि आप मेरी बात सुनेंगे और उसपर श्रद्धा करेंगे तो आपको वेदोक्त धर्मके पालनका ही मुख्य फल प्राप्त होगा॥४२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्वाध्यायमग्निसंस्कारमप्रमत्तोऽनुपालय ।
सत्यं दमं च दानं च स्पर्धिष्ठा मा च केनचित्॥४३॥

मूलम्

स्वाध्यायमग्निसंस्कारमप्रमत्तोऽनुपालय ।
सत्यं दमं च दानं च स्पर्धिष्ठा मा च केनचित्॥४३॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘आप सावधान होकर स्वाध्याय, अग्निहोत्र, सत्य, इन्द्रियसंयम तथा दानधर्मका पालन कीजिये। किसीके साथ स्पर्धा न कीजिये॥४३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ये केचन स्वध्ययनाः प्राप्ता यजनयाजनम्।
कथं ते चानुशोचेयुर्ध्यायेयुर्वाप्यशोभनम् ।
इच्छन्तस्ते विहाराय सुखं महदवाप्नुयुः ॥ ४४ ॥

मूलम्

ये केचन स्वध्ययनाः प्राप्ता यजनयाजनम्।
कथं ते चानुशोचेयुर्ध्यायेयुर्वाप्यशोभनम् ।
इच्छन्तस्ते विहाराय सुखं महदवाप्नुयुः ॥ ४४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जो ब्राह्मण स्वाध्यायमें लगे रहते हैं तथा यज्ञ करते और कराते हैं, वे किसी प्रकारकी चिन्ता क्यों करेंगे और कोई आत्महत्या आदि बुरी बात भी क्यों सोचेंगे? वे यदि चाहें तो यज्ञादिके द्वारा विहार करते हुए महान् सुख पा सकते हैं॥४४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उत जाताः सुनक्षत्रे सुतिथौ सुमुहूर्तजाः।
यज्ञदानप्रजेहायां यतन्ते शक्तिपूर्वकम् ॥ ४५ ॥

मूलम्

उत जाताः सुनक्षत्रे सुतिथौ सुमुहूर्तजाः।
यज्ञदानप्रजेहायां यतन्ते शक्तिपूर्वकम् ॥ ४५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जो उत्तम नक्षत्र, उत्तम तिथि और उत्तम मुहूर्तमें पैदा हुए हैं, वे अपनी शक्तिके अनुसार यज्ञ एवं दान करते और न्यायानुकूल संतानोत्पादनकी चेष्टा भी करते हैं॥४५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नक्षत्रेष्वासुरेष्वन्ये दुस्तिथौ दुर्मुहूर्तजाः ।
सम्पतन्त्यासुरीं योनिं यज्ञप्रसववर्जिताः ॥ ४६ ॥

मूलम्

नक्षत्रेष्वासुरेष्वन्ये दुस्तिथौ दुर्मुहूर्तजाः ।
सम्पतन्त्यासुरीं योनिं यज्ञप्रसववर्जिताः ॥ ४६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘दूसरे जो लोग आसुर नक्षत्र, दूषित तिथि तथा अशुभ मुहूर्तमें उत्पन्न होते हैं, वे यज्ञ तथा संतानसे रहित होकर आसुरी योनिमें पड़ते हैं॥४६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अहमासं पण्डितको हैतुको वेदनिन्दकः।
आन्वीक्षिकीं तर्कविद्यामनुरक्तो निरर्थिकाम् ॥ ४७ ॥

मूलम्

अहमासं पण्डितको हैतुको वेदनिन्दकः।
आन्वीक्षिकीं तर्कविद्यामनुरक्तो निरर्थिकाम् ॥ ४७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘पूर्वजन्ममें मैं एक पण्डित था और कुतर्कका आश्रय लेकर वेदोंकी निन्दा करता था। प्रत्यक्षके आधारपर अनुमानको प्रधानता देनेवाली थोथी तर्कविद्यापर ही उस समय मेरा अधिक अनुराग था॥४७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हेतुवादान् प्रवदिता वक्ता संसत्सु हेतुमत्।
आक्रोष्टा चाभिवक्ता च ब्रह्मवाक्येषु च द्विजान् ॥ ४८ ॥

मूलम्

हेतुवादान् प्रवदिता वक्ता संसत्सु हेतुमत्।
आक्रोष्टा चाभिवक्ता च ब्रह्मवाक्येषु च द्विजान् ॥ ४८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मैं सभाओंमें जाकर तर्क और युक्तिकी बातें ही अधिक बोलता। जहाँ दूसरे ब्राह्मण श्रद्धापूर्वक वेद-वाक्योंपर विचार करते, वहाँ मैं बलपूर्वक आक्रमण करके उन्हें खरी-खोटी सुना देता और स्वयं ही अपना तर्कवाद बका करता था॥४८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नास्तिकः सर्वशङ्की च मूर्खः पण्डितमानिकः।
तस्येयं फलनिर्वृत्तिः शृगालत्वं मम द्विज ॥ ४९ ॥

मूलम्

नास्तिकः सर्वशङ्की च मूर्खः पण्डितमानिकः।
तस्येयं फलनिर्वृत्तिः शृगालत्वं मम द्विज ॥ ४९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मैं नास्तिक, सबपर संदेह करनेवाला तथा मूर्ख होकर भी अपनेको पण्डित माननेवाला था। विप्रवर! यह शृगालयोनि मेरे उसी कुकर्मका फल है॥४९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अपि जातु तथा तस्मादहोरात्रशतैरपि।
यदहं मानुषीं योनिं शृगालः प्राप्नुयां पुनः ॥ ५० ॥

मूलम्

अपि जातु तथा तस्मादहोरात्रशतैरपि।
यदहं मानुषीं योनिं शृगालः प्राप्नुयां पुनः ॥ ५० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अब मैं सैकड़ों दिन-रातोंतक साधन करके भी क्या कभी वह उपाय कर सकता हूँ, जिससे आज सियारकी योनिमें पड़ा हुआ मैं पुनः वह मनुष्ययोनि पा सकूँ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

संतुष्टश्चाप्रमत्तश्च यज्ञदानतपोरतिः ।
ज्ञेयज्ञाता भवेयं वै वर्ज्यवर्जयिता तथा ॥ ५१ ॥

मूलम्

संतुष्टश्चाप्रमत्तश्च यज्ञदानतपोरतिः ।
ज्ञेयज्ञाता भवेयं वै वर्ज्यवर्जयिता तथा ॥ ५१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जिस मनुष्ययोनिमें मैं संतुष्ट और सावधान रहकर यज्ञ, दान और तपस्यामें लगा रह सकूँ, जिसमें मैं जाननेयोग्य वस्तुको जान लूँ और त्यागनेयोग्य वस्तुका त्याग कर दूँ’॥५१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः स मुनिरुत्थाय काश्यपस्तमुवाच ह।
अहो बतासि कुशलो बुद्धिमांश्चेति विस्मितः ॥ ५२ ॥

मूलम्

ततः स मुनिरुत्थाय काश्यपस्तमुवाच ह।
अहो बतासि कुशलो बुद्धिमांश्चेति विस्मितः ॥ ५२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह सुनकर काश्यप मुनि आश्चर्यसे चकित होकर खड़े हो गये और बोले—‘अहो! तुम तो बड़े कुशल और बुद्धिमान् हो’॥५२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

समवैक्षत तं विप्रो ज्ञानदीर्घेण चक्षुषा।
ददर्श चैनं देवानां देवमिन्द्रं शचीपतिम् ॥ ५३ ॥

मूलम्

समवैक्षत तं विप्रो ज्ञानदीर्घेण चक्षुषा।
ददर्श चैनं देवानां देवमिन्द्रं शचीपतिम् ॥ ५३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ऐसा कहकर ब्रह्मर्षिने उसकी ओर ज्ञानदृष्टिसे देखा। तब उसके रूपमें इन्हें देवदेव शचीपति इन्द्र दिखायी दिये॥५३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः सम्पूजयामास काश्यपो हरिवाहनम्।
अनुज्ञातस्तु तेनाथ प्रविवेश स्वमालयम् ॥ ५४ ॥

मूलम्

ततः सम्पूजयामास काश्यपो हरिवाहनम्।
अनुज्ञातस्तु तेनाथ प्रविवेश स्वमालयम् ॥ ५४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर काश्यपने इन्द्रदेवका पूजन किया और उनकी आज्ञा लेकर वे पुनः अपने घरको लौट गये॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि शृगालकाश्यपसंवादे अशीत्यधिकशततमोऽध्यायः ॥ १८० ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें गीदड़ और काश्यपका संवादविषयक एक सौ अस्सीवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१८०॥