भागसूचना
एकोनाशीत्यधिकशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
प्रह्लाद और अवधूतका संवाद—आजगर-वृत्तिकी प्रशंसा
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
केन वृत्तेन वृत्तज्ञ वीतशोकश्चरेन्महीम्।
किञ्च कुर्वन्नरो लोके प्राप्नोति गतिमुत्तमाम् ॥ १ ॥
मूलम्
केन वृत्तेन वृत्तज्ञ वीतशोकश्चरेन्महीम्।
किञ्च कुर्वन्नरो लोके प्राप्नोति गतिमुत्तमाम् ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजा युधिष्ठिरने पूछा— पितामह! आप सदाचारके स्वरूपको जाननेवाले हैं। कृपया यह बताइये, किस तरहके आचारको अपनाकर मनुष्य शोकरहित हो इस पृथ्वीपर विचरण कर सकता है? और इस जगत्में कौन-सा कर्म करके वह उत्तम गति पा सकता है?॥१॥
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् ।
प्रह्रादस्य च संवादं मुनेराजगरस्य च ॥ २ ॥
मूलम्
अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् ।
प्रह्रादस्य च संवादं मुनेराजगरस्य च ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजी कहते हैं— राजन्! इस विषयमें भी प्रह्लाद तथा अजगरवृत्तिसे रहनेवाले एक मुनिके संवादरूप प्राचीन इतिहासका दृष्टान्त दिया जाता है॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
चरन्तं ब्राह्मणं कञ्चित् कल्पचित्तमनामयम्।
पप्रच्छ राजा प्रह्रादो बुद्धिमान् बुद्धिसम्मतम् ॥ ३ ॥
मूलम्
चरन्तं ब्राह्मणं कञ्चित् कल्पचित्तमनामयम्।
पप्रच्छ राजा प्रह्रादो बुद्धिमान् बुद्धिसम्मतम् ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
एक सुदृढ़चित, दुःख-शोकसे रहित तथा बुद्धिसम्मत ब्राह्मणको पृथ्वीपर विचरते देख बुद्धिमान् राजा प्रह्लादने उससे इस प्रकार पूछा॥३॥
मूलम् (वचनम्)
प्रह्राद उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वस्थः शक्तो मृदुर्दान्तो निर्विधित्सोऽनसूयकः।
सुवाक् प्रगल्भो मेधावी प्राज्ञश्चरसि बालवत् ॥ ४ ॥
मूलम्
स्वस्थः शक्तो मृदुर्दान्तो निर्विधित्सोऽनसूयकः।
सुवाक् प्रगल्भो मेधावी प्राज्ञश्चरसि बालवत् ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रह्लाद बोले— ब्रह्मन्! आप स्वस्थ, शक्तिमान्, मृदु, जितेन्द्रिय, कर्मारम्भसे दूर रहनेवाले, दूसरोंके दोषोंपर दृष्टि न डालनेवाले, सुन्दर और मधुर वचन बोलनेवाले, निर्भीक, प्रतिभाशाली, मेधावी तथा तत्त्वज्ञ होकर भी बालकोंके समान विचर रहे हैं॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नैव प्रार्थयसे लाभं नालाभेष्वनुशोचसि।
नित्यतृप्त इव ब्रह्मन् न किञ्चिदिव मन्यसे ॥ ५ ॥
मूलम्
नैव प्रार्थयसे लाभं नालाभेष्वनुशोचसि।
नित्यतृप्त इव ब्रह्मन् न किञ्चिदिव मन्यसे ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
न आप कोई लाभ चाहते हैं और न हानि होनेपर उसके लिये शोक ही करते हैं। ब्रह्मन्! आप नित्यतृप्त-से रहते हुए न किसी वस्तुको प्रिय मानते हैं और न अप्रिय॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्रोतसा ह्रियमाणासु प्रजासु विमना इव।
धर्मकामार्थकार्येषु कूटस्थ इव लक्ष्यसे ॥ ६ ॥
मूलम्
स्रोतसा ह्रियमाणासु प्रजासु विमना इव।
धर्मकामार्थकार्येषु कूटस्थ इव लक्ष्यसे ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सारी प्रजा काम-क्रोध आदिके प्रवाहमें पड़कर बही जा रही है; परंतु आप उधरसे उदासीन-जैसे जान पड़ते हैं तथा धर्म, अर्थ एवं काम-सम्बन्धी कार्योंके प्रति भी निश्चेष्ट-से दिखायी देते हैं॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नानुतिष्ठसि धर्मार्थौ न कामे चापि वर्तसे।
इन्द्रियार्थाननादृत्य मुक्तश्चरसि साक्षिवत् ॥ ७ ॥
मूलम्
नानुतिष्ठसि धर्मार्थौ न कामे चापि वर्तसे।
इन्द्रियार्थाननादृत्य मुक्तश्चरसि साक्षिवत् ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
धर्म और अर्थ-सम्बन्धी कार्योंका आप अनुष्ठान नहीं करते हैं, काममें भी आपकी प्रवृत्ति नहीं है। आप इन्द्रियोंके सम्पूर्ण विषयोंकी उपेक्षा करके साक्षीके समान मुक्तरूपसे विचरते हैं॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
का नु प्रज्ञा श्रुतं वा किं वृत्तिर्वा का नु ते मुने।
क्षिप्रमाचक्ष्व मे ब्रह्मन् श्रेयो यदिह मन्यसे ॥ ८ ॥
मूलम्
का नु प्रज्ञा श्रुतं वा किं वृत्तिर्वा का नु ते मुने।
क्षिप्रमाचक्ष्व मे ब्रह्मन् श्रेयो यदिह मन्यसे ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मुने! आपके पास कौन-सी ऐसी बुद्धि, कैसा शास्त्रज्ञान अथवा कौन-सी वृत्ति है, जिससे आपका जीवन ऐसा बन गया है? ब्रह्मन्! आपके मतसे इस जगत्में मेरे लिये जो श्रेयका साधन हो, उसे शीघ्र बतावें॥८॥
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनुयुक्तः स मेधावी लोकधर्मविधानवित्।
उवाच श्लक्ष्णया वाचा प्रह्रादमनपार्थया ॥ ९ ॥
मूलम्
अनुयुक्तः स मेधावी लोकधर्मविधानवित्।
उवाच श्लक्ष्णया वाचा प्रह्रादमनपार्थया ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजी कहते हैं— राजन्! प्रह्रादके इस प्रकार पूछनेपर लोक-धर्मके विधानको जाननेवाले उन मेधावी मुनिने उनसे मधुर एवं सार्थक वाणीमें इस प्रकार कहा॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पश्य प्रह्राद भूतानामुत्पत्तिमनिमित्ततः ।
ह्रासं वृद्धिं विनाशं च न प्रहृष्ये न च व्यथे॥१०॥
मूलम्
पश्य प्रह्राद भूतानामुत्पत्तिमनिमित्ततः ।
ह्रासं वृद्धिं विनाशं च न प्रहृष्ये न च व्यथे॥१०॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘प्रह्लाद! देखो, इस जगत्के प्राणियोंकी उत्पत्ति, वृद्धि, ह्रास और विनाश कारणरहित सत्स्वरूप परमात्मासे ही हुए हैं; इस कारण मैं उनके लिये न तो हर्ष प्रकट करता हूँ और न व्यथित ही होता हूँ॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वभावादेव संदृश्या वर्तमानाः प्रवृत्तयः।
स्वभावनिरताः सर्वाः परितुष्येन्न केनचित् ॥ ११ ॥
मूलम्
स्वभावादेव संदृश्या वर्तमानाः प्रवृत्तयः।
स्वभावनिरताः सर्वाः परितुष्येन्न केनचित् ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘ऐसा समझना चाहिये, पूर्वकृत कर्मानुसार बने हुए स्वभावसे ही प्राणियोंकी वर्तमान प्रवृत्तियाँ प्रकट हुई हैं; अतः समस्त प्रजा स्वभावमें ही तत्पर है, उनका दूसरा कोई आश्रय नहीं है। इस रहस्यको समझकर मनुष्यको किसी भी परिस्थितिमें संतुष्ट नहीं होना चाहिये॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पश्य प्रह्राद संयोगान् विप्रयोगपरायणान्।
संचयांश्च विनाशान्तान् न क्वचिद् विदधे मनः ॥ १२ ॥
मूलम्
पश्य प्रह्राद संयोगान् विप्रयोगपरायणान्।
संचयांश्च विनाशान्तान् न क्वचिद् विदधे मनः ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘प्रह्लाद! देखो, जितने संयोग हैं, उनका पर्यवसान वियोगमें ही होता है और जितने संचय हैं, उनकी समाप्ति विनाशमें ही होती है। यह सब देखकर मैं कहीं भी अपने मनको नहीं लगाता हूँ॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अन्तवन्ति च भूतानि गुणयुक्तानि पश्यतः।
उत्पत्तिनिधनज्ञस्य किं कार्यमवशिष्यते ॥ १३ ॥
मूलम्
अन्तवन्ति च भूतानि गुणयुक्तानि पश्यतः।
उत्पत्तिनिधनज्ञस्य किं कार्यमवशिष्यते ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जो गुणयुक्त सम्पूर्ण भूतोंको नाशवान् देखता है तथा उत्पत्ति और प्रलयके तत्त्वको जानता है, उसके लिये यहाँ कौन-सा कार्य अवशिष्ट रह जाता है?॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जलजानामपि ह्यन्तं पर्यायेणोपलक्षये ।
महतामपि कायानां सूक्ष्माणां च महोदधौ ॥ १४ ॥
मूलम्
जलजानामपि ह्यन्तं पर्यायेणोपलक्षये ।
महतामपि कायानां सूक्ष्माणां च महोदधौ ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘महासागरके जलमें पैदा होनेवाले विशाल शरीरवाले तिमि आदि मत्स्यों तथा छोटे-छोटे कीड़ोंका भी बारी-बारीसे विनाश होता देखता हूँ॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जङ्गमस्थावराणां च भूतानामसुराधिप ।
पार्थिवानामपि व्यक्तं मृत्युं पश्यामि सर्वशः ॥ १५ ॥
मूलम्
जङ्गमस्थावराणां च भूतानामसुराधिप ।
पार्थिवानामपि व्यक्तं मृत्युं पश्यामि सर्वशः ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘असुरराज! पृथ्वीपर भी जितने स्थावर-जंगम प्राणी हैं, उन सबकी मृत्यु मुझे स्पष्ट दिखायी दे रही है॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अन्तरिक्षचराणां च दानवोत्तम पक्षिणाम्।
उत्तिष्ठते यथाकालं मृत्युर्बलवतामपि ॥ १६ ॥
मूलम्
अन्तरिक्षचराणां च दानवोत्तम पक्षिणाम्।
उत्तिष्ठते यथाकालं मृत्युर्बलवतामपि ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘दानवश्रेष्ठ! आकाशमें विचरनेवाले बलवान् पक्षियोंके समक्ष भी यथासमय मृत्यु आ पहुँचती है॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दिवि संचरमाणानि ह्रस्वानि च महान्ति च।
ज्योतींष्यपि यथाकालं पतमानानि लक्षये ॥ १७ ॥
मूलम्
दिवि संचरमाणानि ह्रस्वानि च महान्ति च।
ज्योतींष्यपि यथाकालं पतमानानि लक्षये ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘आकाशमें जो छोटे-बड़े ज्योतिर्मय नक्षत्र विचर रहे हैं, उन्हें भी मैं यथासमय नीचे गिरते देखता हूँ॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इति भूतानि सम्पश्यन्ननुषक्तानि मृत्युना।
सर्वसामान्यगो विद्वान् कृतकृत्यः सुखं स्वपे ॥ १८ ॥
मूलम्
इति भूतानि सम्पश्यन्ननुषक्तानि मृत्युना।
सर्वसामान्यगो विद्वान् कृतकृत्यः सुखं स्वपे ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘इस प्रकार सारे प्राणियोंको मैं मृत्युके पाशमें बद्ध देखता हूँ; इसलिये तत्त्वको जानकर कृतकृत्य हो सबके प्रति समान भाव रखता हुआ सुखसे सोता हूँ॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुमहान्तमपि ग्रासं ग्रसे लब्धं यदृच्छया।
शये पुनरभुञ्जानो दिवसानि बहून्यपि ॥ १९ ॥
मूलम्
सुमहान्तमपि ग्रासं ग्रसे लब्धं यदृच्छया।
शये पुनरभुञ्जानो दिवसानि बहून्यपि ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘यदि दैवेच्छासे अकस्मात् अधिक भोजन प्राप्त हो जाय तो मैं बहुत खा लेता हूँ, ग्रासमात्र मिले तो उसीमें संतुष्ट रहता हूँ और न मिला तो बहुत दिनोंतक बिना खाये-पीये भी सो रहता हूँ॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आशयन्त्यपि मामन्नं पुनर्बहुगुणं बहु।
पुनरल्पं पुनःस्तोकं पुनर्नैवोपपद्यते ॥ २० ॥
मूलम्
आशयन्त्यपि मामन्नं पुनर्बहुगुणं बहु।
पुनरल्पं पुनःस्तोकं पुनर्नैवोपपद्यते ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘फिर कितने ही लोग आकर मुझे अनेक गुणोंसे सम्पन्न बहुत-सा अन्न खिला देते हैं। पुनः कभी बहुत थोड़ा, कभी थोड़े-से भी थोड़ा भोजन मिलता है और कभी वह भी नहीं मिलता॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कणं कदाचित् खादामि पिण्याकमपि च ग्रसे।
भक्षये शालिमांसानि भक्षांश्चोच्चावचान् पुनः ॥ २१ ॥
मूलम्
कणं कदाचित् खादामि पिण्याकमपि च ग्रसे।
भक्षये शालिमांसानि भक्षांश्चोच्चावचान् पुनः ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘कभी चावलकी कनी खाता हूँ, कभी तिलकी खली ही खाकर रह जाता हूँ और कभी अगहनीके चावलका भात भरपेट खाता हूँ। इस प्रकार मुझे बढ़िया-घटिया सभी तरहके भोजन बारंबार प्राप्त होते रहते हैं॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शये कदाचित् पर्यङ्के भूमावपि पुनः शये।
प्रासादे चापि मे शय्या कदाचिदुपपद्यते ॥ २२ ॥
मूलम्
शये कदाचित् पर्यङ्के भूमावपि पुनः शये।
प्रासादे चापि मे शय्या कदाचिदुपपद्यते ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘कभी पलंगपर सोता हूँ, कभी पृथ्वीपर ही पड़ा रहता हूँ और कभी-कभी मुझे महलके भीतर बिछी हुई बहुमूल्य शय्या भी उपलब्ध हो जाती है॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
धारयामि च चीराणि शाणक्षौमाजिनानि च।
महार्हाणि च वासांसि धारयाम्यहमेकदा ॥ २३ ॥
मूलम्
धारयामि च चीराणि शाणक्षौमाजिनानि च।
महार्हाणि च वासांसि धारयाम्यहमेकदा ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मैं कभी तो चिथड़े अथवा वल्कल पहनकर रहता हूँ, कभी सनके, कभी रेशमके और कभी मृगचर्मके वस्त्र धारण करता हूँ तथा किसी एक कालमें बहुत-से बहुमूल्य वस्त्रोंको भी पहन लेता हूँ॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न संनिपतितं धर्म्यमुपभोगं यदृच्छया।
प्रत्याचक्षे न चाप्येनमनुरुध्ये सुदुर्लभम् ॥ २४ ॥
मूलम्
न संनिपतितं धर्म्यमुपभोगं यदृच्छया।
प्रत्याचक्षे न चाप्येनमनुरुध्ये सुदुर्लभम् ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘यदि दैववश मुझे कोई धर्मानुकूल भोग्य पदार्थ प्राप्त हो जाय तो मैं उससे द्वेष नहीं करता हूँ और प्राप्त न होनेपर किसी दुर्लभ भोगकी भी कभी इच्छा नहीं करता॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अचलमनिधनं शिवं विशोकं
शुचिमतुलं विदुषां मते प्रविष्टम्।
अनभिमतमसेवितं विमूढै-
र्व्रतमिदमाजगरं शुचिश्चरामि ॥ २५ ॥
मूलम्
अचलमनिधनं शिवं विशोकं
शुचिमतुलं विदुषां मते प्रविष्टम्।
अनभिमतमसेवितं विमूढै-
र्व्रतमिदमाजगरं शुचिश्चरामि ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैं सदा पवित्रभावसे रहकर इस अजगरवृत्तिका अनुसरण करता हूँ। यह अत्यन्त सुदृढ़, मृत्युसे दूर रखनेवाली, कल्याणमय, शोकहीन, शुद्ध, अनुपम और विद्वानोंके मतके अनुकूल है। मूर्ख मनुष्य न तो इसे मानते हैं और न इसका सेवन ही करते हैं॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अचलितमतिरच्युतः स्वधर्मात्
परिमितसंसरणः परावरज्ञः ।
विगतभयकषायलोभमोहो
व्रतमिदमाजगरं शुचिश्चरामि ॥ २६ ॥
मूलम्
अचलितमतिरच्युतः स्वधर्मात्
परिमितसंसरणः परावरज्ञः ।
विगतभयकषायलोभमोहो
व्रतमिदमाजगरं शुचिश्चरामि ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मेरी बुद्धि अविचल है, मैं अपने धर्मसे च्युत नहीं हुआ हूँ, मेरा सांसारिक व्यवहार परिमित हो गया है, मुझे उत्तम और अधमका ज्ञान है, मेरे हृदयसे भय, राग-द्वेष, लोभ और मोह दूर हो गये हैं तथा पवित्रभावसे रहकर इस अजगरोचित व्रतका आचरण करता हूँ॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनियतफलभक्ष्यभोज्यपेयं
विधिपरिणामविभक्तदेशकालम् ।
हृदयसुखमसेवितं कदर्यै-
र्व्रतमिदमाजगरं शुचिश्चरामि ॥ २७ ॥
मूलम्
अनियतफलभक्ष्यभोज्यपेयं
विधिपरिणामविभक्तदेशकालम् ।
हृदयसुखमसेवितं कदर्यै-
र्व्रतमिदमाजगरं शुचिश्चरामि ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘यह अजगर-सम्बन्धी व्रत मेरे हृदयको सुख देनेवाला है। इसमें भक्ष्य, भोज्य, पेय और फल आदिके मिलनेकी कोई नियत व्यवस्था नहीं रहती—अनियतरूपसे जो कुछ मिल जाय, उसीसे निर्वाह करना होता है। इस व्रतमें प्रारब्धके परिणामके अनुसार देश और कालका विभाग नियत है। विषयलोलुप नीच पुरुष इसका सेवन नहीं करते, मैं पवित्रभावसे इसी व्रतका आचरण करता हूँ॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इदमिदमिति तृष्णयाभिभूतं
जनमनवाप्तधनं विषीदमानम् ।
निपुणमनुनिशम्य तत्त्वबुद्ध्या
व्रतमिदमाजगरं शुचिश्चरामि ॥ २८ ॥
मूलम्
इदमिदमिति तृष्णयाभिभूतं
जनमनवाप्तधनं विषीदमानम् ।
निपुणमनुनिशम्य तत्त्वबुद्ध्या
व्रतमिदमाजगरं शुचिश्चरामि ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जो यह मिले, वह मिले, इस प्रकार तृष्णासे दबे रहते हैं और धन न मिलनेके कारण निरन्तर विषाद करते हैं; ऐसे लोगोंकी दशा अच्छी तरह देखकर तात्त्विक बुद्धिसे सम्पन्न हुआ मैं पवित्रभावसे इस आजगरव्रतका आचरण करता हूँ॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बहुविधमनुदृश्य चार्थहेतोः
कृपणमिहार्यमनार्यमाश्रयन्तम् ।
उपशमरुचिरात्मवान् प्रशान्तो
व्रतमिदमाजगरं शुचिश्चरामि ॥ २९ ॥
मूलम्
बहुविधमनुदृश्य चार्थहेतोः
कृपणमिहार्यमनार्यमाश्रयन्तम् ।
उपशमरुचिरात्मवान् प्रशान्तो
व्रतमिदमाजगरं शुचिश्चरामि ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मैं बारंबार देखता हूँ कि श्रेष्ठ मनुष्य भी धनके लिये दीनभावसे नीच पुरुषका आश्रय लेते हैं। यह देखकर मेरी रुचि प्रशान्त हो गयी है। अतः मैं अपने स्वरूपको प्राप्त और सर्वथा शान्त हो गया हूँ और पवित्रभावसे इस आजगर-व्रतका आचरण करता हूँ॥२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुखमसुखमलाभमर्थलाभं
रतिमरतिं मरणं च जीवितं च।
विधिनियतमवेक्ष्य तत्त्वतोऽहं
व्रतमिदमाजगरं शुचिश्चरामि ॥ ३० ॥
मूलम्
सुखमसुखमलाभमर्थलाभं
रतिमरतिं मरणं च जीवितं च।
विधिनियतमवेक्ष्य तत्त्वतोऽहं
व्रतमिदमाजगरं शुचिश्चरामि ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘सुख-दुःख, लाभ-हानि, अनुकूल और प्रतिकूल तथा जीवन और मरण—ये सब दैवके अधीन हैं। इस प्रकार यथार्थरूपसे जानकर मैं शुद्धभावसे इस आजगरव्रतका आचरण करता हूँ॥३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अपगतभयरागमोहदर्पो
धृतिमतिबुद्धिसमन्वितः प्रशान्तः ।
उपगतफलभोगिनो निशम्य
व्रतमिदमाजगरं शुचिश्चरामि ॥ ३१ ॥
मूलम्
अपगतभयरागमोहदर्पो
धृतिमतिबुद्धिसमन्वितः प्रशान्तः ।
उपगतफलभोगिनो निशम्य
व्रतमिदमाजगरं शुचिश्चरामि ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मेरे भय, राग, मोह और अभिमान नष्ट हो गये हैं। मैं धृति, मति और बुद्धिसे सम्पन्न एवं पूर्णतया शान्त हूँ। और प्रारब्धवश स्वतः अपने समीप आयी हुई वस्तुका ही उपभोग करनेवालोंको देखकर मैं पवित्रभावसे इस आजगरव्रतका आचरण करता हूँ॥३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनियतशयनासनः प्रकृत्या
दमनियमव्रतसत्यशौचयुक्तः ।
अपगतफलसंचयः प्रहृष्टो
व्रतमिदमाजगरं शुचिश्चरामि ॥ ३२ ॥
मूलम्
अनियतशयनासनः प्रकृत्या
दमनियमव्रतसत्यशौचयुक्तः ।
अपगतफलसंचयः प्रहृष्टो
व्रतमिदमाजगरं शुचिश्चरामि ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मेरे सोने-बैठनेका कोई नियत स्थान नहीं है। मैं स्व भावतः दम, नियम, व्रत, सत्य और शौचाचारसे सम्पन्न हूँ। मेरे कर्मफल-संचयका नाश हो चुका है। मैं प्रसन्नतापूर्वक पवित्रभावसे इस आजगरव्रतका आचरण करता हूँ॥३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अपगतमसुखार्थमीहनार्थै-
रुपगतबुद्धिरवेक्ष्य चात्मसंस्थम् ।
तृषितमनियतं मनो नियन्तुं
व्रतमिदमाजगरं शुचिश्चरामि । ३३ ॥
मूलम्
अपगतमसुखार्थमीहनार्थै-
रुपगतबुद्धिरवेक्ष्य चात्मसंस्थम् ।
तृषितमनियतं मनो नियन्तुं
व्रतमिदमाजगरं शुचिश्चरामि । ३३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जिनका परिणाम दुःख है, उन इच्छाके विषयभूत समस्त पदार्थोंसे जो विरक्त हो चुका है, ऐसे आत्मनिष्ठ महापुरुषको देखकर मुझे ज्ञान प्राप्त हो गया है। अतः मैं तृष्णासे व्याकुल असंयत मनको वशमें करनेके लिये पवित्रभावसे इस आजगर-व्रतका आचरण करता हूँ॥३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न हृदयमनुरुध्य वाङ्मनो वा
प्रियसुखदुर्लभतामनित्यतां च ।
तदुभयमुपलक्षयन्निवाहं
व्रतमिदमाजगरं शुचिश्चरामि ॥ ३४ ॥
मूलम्
न हृदयमनुरुध्य वाङ्मनो वा
प्रियसुखदुर्लभतामनित्यतां च ।
तदुभयमुपलक्षयन्निवाहं
व्रतमिदमाजगरं शुचिश्चरामि ॥ ३४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मन, वाणी और बुद्धिकी उपेक्षा करके इनको प्रिय लगनेवाले विषय-सुखोंकी दुर्लभता तथा अनित्यता—इन दोनोंको देखनेवालेकी भाँति मैं पवित्रभावसे इस आजगरव्रतका आचरण करता हूँ॥३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बहुकथितमिदं हि बुद्धिमद्भिः
कविभिरपि प्रथयद्भिरात्मकीर्तिम् ।
इदमिदमिति तत्र तत्र हन्त
स्वपरमतैर्गहनं प्रतर्कयद्भिः ॥ ३५ ॥
मूलम्
बहुकथितमिदं हि बुद्धिमद्भिः
कविभिरपि प्रथयद्भिरात्मकीर्तिम् ।
इदमिदमिति तत्र तत्र हन्त
स्वपरमतैर्गहनं प्रतर्कयद्भिः ॥ ३५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘अपनी कीर्तिका विस्तार करनेवाले विद्वानों और बुद्धिमानोंने अपने और दूसरोंके मतसे गहन तर्क और वितर्क करके ‘ऐसे करना चाहिये’ ‘ऐसे करना चाहिये’ इत्यादि कहकर इस व्रतकी अनेक प्रकारसे व्याख्या की है॥३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तदिदमनुनिशम्य विप्रपातं
पृथगभिपन्नमिहाबुधैर्मनुष्यैः ।
अनवसितमनन्तदोषपारं
नृषु विहरामि विनीतदोषतृष्णः ॥ ३६ ॥
मूलम्
तदिदमनुनिशम्य विप्रपातं
पृथगभिपन्नमिहाबुधैर्मनुष्यैः ।
अनवसितमनन्तदोषपारं
नृषु विहरामि विनीतदोषतृष्णः ॥ ३६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मूर्खलोग इस अजगरवृत्तिको सुनकर इसे पहाड़की चोटीसे गिरनेकी भाँति भयंकर समझते हैं। परंतु उनकी वह मान्यता भिन्न है। मैं इस अजगरवृत्तिको अज्ञानका नाशक और समस्त दोषोंसे रहित मानता हूँ। अतः दोष और तृष्णाका त्याग करके मनुष्योंमें विचरता हूँ’॥३६॥
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अजगरचरितं व्रतं महात्मा
य इह नरोऽनुचरेद् विनीतरागः।
अपगतभयलोभमोहमन्युः
मूलम्
अजगरचरितं व्रतं महात्मा
य इह नरोऽनुचरेद् विनीतरागः।
अपगतभयलोभमोहमन्युः
Misc Detail
स खलु सुखी विचरेदिमं विहारम् ॥ ३७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजी कहते हैं— राजन्! जो महापुरुष राग, भय, लोभ, मोह और क्रोधको त्यागकर इस आजगर व्रतका पालन करता है, वह इस लोकमें सानन्द विचरण करता है॥३७॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि आजगरप्रह्रादसंवादे एकोनाशीत्यधिकशततमोऽध्यायः ॥ १७९ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें अजगरवृत्तिसे रहनेवाले मुनि और प्रह्लादका संवादविषयक एक सौ उनासीवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१७९॥