भागसूचना
अष्टसप्तत्यधिकशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
जनककी उक्ति तथा राजा नहुषके प्रश्नोंके उत्तरमें बोध्यगीता
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् ।
गीतं विदेहराजेन जनकेन प्रशाम्यता ॥ १ ॥
मूलम्
अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् ।
गीतं विदेहराजेन जनकेन प्रशाम्यता ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजी कहते हैं— राजन्! इसी विषयमें शान्तभावको प्राप्त हुए विदेहराज जनकने जो उद्गार प्रकट किया था, उस प्राचीन इतिहासका उदाहरण दिया जाता है॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनन्तमिव मे वित्तं यस्य मे नास्ति किञ्चन।
मिथिलायां प्रदीप्तायां न मे दह्यति किञ्चन ॥ २ ॥
मूलम्
अनन्तमिव मे वित्तं यस्य मे नास्ति किञ्चन।
मिथिलायां प्रदीप्तायां न मे दह्यति किञ्चन ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
[जनक बोले—] मेरे पास अनन्त-सा धन-वैभव है; फिर भी मेरा कुछ नहीं है। इस मिथिलापुरीमें आग लग जाय तो भी मेरा कुछ नहीं जलता॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अत्रैवोदाहरन्तीमं बोध्यस्य पदसंचयम् ।
निर्वेदं प्रति विन्यस्तं तं निबोध युधिष्ठिर ॥ ३ ॥
मूलम्
अत्रैवोदाहरन्तीमं बोध्यस्य पदसंचयम् ।
निर्वेदं प्रति विन्यस्तं तं निबोध युधिष्ठिर ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिर! इसी प्रसंगमें वैराग्यको लक्ष्य करके बोध्य मुनिने जो वचन कहे हैं, उन्हें बताता हूँ, सुनो॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बोध्यं शान्तमृषिं राजा नाहुषः पर्यपृच्छत।
निर्वेदाच्छान्तिमापन्नं शास्त्रप्रज्ञानतर्पितम् ॥ ४ ॥
मूलम्
बोध्यं शान्तमृषिं राजा नाहुषः पर्यपृच्छत।
निर्वेदाच्छान्तिमापन्नं शास्त्रप्रज्ञानतर्पितम् ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कहते हैं, किसी समय नहुषनन्दन राजा ययातिने वैराग्यसे शान्तभावको प्राप्त हुए शास्त्रके उत्कृष्ट ज्ञानसे परितृप्त परम शान्त बोध्य ऋषिसे पूछा—॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उपदेशं महाप्राज्ञ शमस्योपदिशस्व मे।
कां बुद्धिं समनुध्याय शान्तश्चरसि निर्वृतः ॥ ५ ॥
मूलम्
उपदेशं महाप्राज्ञ शमस्योपदिशस्व मे।
कां बुद्धिं समनुध्याय शान्तश्चरसि निर्वृतः ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘महाप्राज्ञ! आप मुझे ऐसा उपदेश दीजिये, जिससे मुझे शान्ति मिले। कौन-सी ऐसी बुद्धि है, जिसका आश्रय लेकर आप शान्ति और संतोषके साथ विचरते हैं?’॥५॥
मूलम् (वचनम्)
बोध्य उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
उपदेशेन वर्तामि नानुशास्मीह कंचन।
लक्षणं तस्य बक्ष्येऽहं तत् स्वयं परिमृश्यताम् ॥ ६ ॥
मूलम्
उपदेशेन वर्तामि नानुशास्मीह कंचन।
लक्षणं तस्य बक्ष्येऽहं तत् स्वयं परिमृश्यताम् ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
बोध्यने कहा— राजन्! मैं किसीको उपदेश नहीं देता, बल्कि स्वयं दूसरोंसे प्राप्त हुए उपदेशके अनुसार आचरण करता हूँ। मैं अपनेको मिले हुए उपदेशका लक्षण बता रहा हूँ (जिनसे उपदेश मिला है, उन गुरुओंका संकेतमात्र कर रहा हूँ), उसपर तुम स्वयं विचार करो॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पिङ्गला कुररः सर्पः सारङ्गान्वेषणं वने।
इषुकारः कुमारी च षडेते गुरवो मम ॥ ७ ॥
मूलम्
पिङ्गला कुररः सर्पः सारङ्गान्वेषणं वने।
इषुकारः कुमारी च षडेते गुरवो मम ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पिंगला, कुरर पक्षी, सर्प, वनमें सारंगका अन्वेषण, बाण बनानेवाला और कुमारी कन्या—ये छः मेरे गुरु हैं॥७॥
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
आशा बलवती राजन् नैराश्यं परमं सुखम्।
आशां निराशां कृत्वा तु सुखं स्वपिति पिङ्गला ॥ ८ ॥
मूलम्
आशा बलवती राजन् नैराश्यं परमं सुखम्।
आशां निराशां कृत्वा तु सुखं स्वपिति पिङ्गला ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजी कहते हैं— राजन्! बोध्यको अपने गुरुओंसे जो उपदेश प्राप्त हुआ था, वह इस प्रकार समझना चाहिये—आशा बड़ी प्रबल है। वही सबको दुःख देती है। निराशा ही परम सुख है। आशाको निराशाके रूपमें परिणत करके पिंगला वेश्या सुखसे सो गयी। (पिंगला आशाके त्यागका उपदेश देनेके कारण गुरु हुई)॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सामिषं कुररं दृष्ट्वा वध्यमानं निरामिषैः।
आमिषस्य परित्यागात् कुररः सुखमेधते ॥ ९ ॥
मूलम्
सामिषं कुररं दृष्ट्वा वध्यमानं निरामिषैः।
आमिषस्य परित्यागात् कुररः सुखमेधते ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
चोंचमें मांसका टुकड़ा लिये उड़ते हुए कुरर (क्रौंच पक्षीको देखकर दूसरे पक्षी जो मांस नहीं लिये हुए थे, उसे मारने लगे। तब उसने उस मांसके टुकड़ेको त्याग दिया। अतः पक्षियोंने उसका पीछा करना छोड़ दिया। इस प्रकार आमिषके त्यागसे क्रौंचपक्षी सुखी हो गया। भोगोंके परित्यागका उपदेश देनेके कारण कुरर (क्रौंच) पक्षी गुरु हुआ॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गृहारम्भो हि दुःखाय न सुखाय कदाचन।
सर्पः परकृतं वेश्म प्रविश्य सुखमेधते ॥ १० ॥
मूलम्
गृहारम्भो हि दुःखाय न सुखाय कदाचन।
सर्पः परकृतं वेश्म प्रविश्य सुखमेधते ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
घर बनानेका खटपट करना दुःखका ही कारण है। उससे कभी सुख नहीं मिलता। देखो, साँप दूसरोंके बनाये हुए घर (बिल) में प्रवेश करके सुखसे रहता है। (अतः अनिकेत रहने—घर-द्वारके चक्करमें न पड़नेका उपदेश देनेके कारण सर्प गुरु हुआ)॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुखं जीवन्ति मुनयो भैक्ष्यवृत्तिं समाश्रिताः।
अद्रोहेणैव भूतानां सारङ्गा इव पक्षिणः ॥ ११ ॥
मूलम्
सुखं जीवन्ति मुनयो भैक्ष्यवृत्तिं समाश्रिताः।
अद्रोहेणैव भूतानां सारङ्गा इव पक्षिणः ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिस प्रकार पपीहा पक्षी किसी भी प्राणीसे वैर न करके याचनावृत्तिसे अपना निर्वाह करते हैं, उसी प्रकार मुनिजन भिक्षावृत्तिका आश्रय लेकर सुखसे जीवन व्यतीत करते हैं (अद्रोहका उपदेश देनेके कारण पपीहा गुरु हुआ)॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इषुकारो नरः कश्चिदिषावासक्तमानसः ।
समीपेनापि गच्छन्तं राजानं नावबुद्धवान् ॥ १२ ॥
मूलम्
इषुकारो नरः कश्चिदिषावासक्तमानसः ।
समीपेनापि गच्छन्तं राजानं नावबुद्धवान् ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
एक बार एक बाण बनानेवालेको देखा गया, वह अपने काममें ऐसा दत्तचित्त था कि उसके पाससे निकली हुई राजाकी सवारीका भी उसे कुछ पता नहीं चला (उसके द्वारा एकाग्रचिचत्तताका उपदेश प्राप्त हुआ; इसलिये वह गुरु हो गया)॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बहूनां कलहो नित्य द्वयोः संकथनं ध्रुवम्।
एकाकी विचरिष्यामि कुमारीशंखको यथा ॥ १३ ॥
मूलम्
बहूनां कलहो नित्य द्वयोः संकथनं ध्रुवम्।
एकाकी विचरिष्यामि कुमारीशंखको यथा ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
बहुत मनुष्य एक साथ रहें तो उनमें प्रतिदिन कलह होता है और दो रहें तो भी उनमें बातचीत तो अवश्य ही होती है; अतः मैं कुमारी कन्याके हाथमें धारण की हुई शंखकी एक-एक चूड़ीके समान अकेला ही विचरूँगा1॥१३॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि बोध्यगीतायां अष्टसप्तत्यधिकशततमोऽध्यायः ॥ १७८ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें बोध्यगीताविषयक एक सौ अठहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१७८॥
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एक गृहस्थके घरपर कुछ अतिथि आ गये। घरके सब लोग कहीं बाहर चले गये थे। भीतर केवल एक कुमारी कन्या थी, जिसपर उन अतिथियोंके भोजन आदिका भार आ पड़ा। वह उनके निमित्त रसोई बनानेके लिये धान कूटने लगी। उसके हाथोंमें शंखकी बनी हुई कई चूड़ियाँ थीं, जो धान कूटते समय खनखना उठीं। अतिथियोंको इस बातका पता न चल जाय; इसलिये एक-एक करके उसने चूड़ियाँ निकाल लीं, दोनों हाथोंमें केवल एक-एक चूड़ी ही शेष रह गयी; फिर उनका बजना बंद हो गया। इस तरह एकाकी रहनेका उपदेश देनेके कारण वह कुमारी गुरु हुई। ↩︎