भागसूचना
सप्तसप्तत्यधिकशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
मङ्किगीता—धनकी तृष्णासे दुःख और उसकी कामनाके त्यागसे परम सुखकी प्राप्ति
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
ईहमानः समारम्भान् यदि नासादयेद् धनम्।
धनतृष्णाभिभूतश्च किं कुर्वन् सुखमाप्नुयात् ॥ १ ॥
मूलम्
ईहमानः समारम्भान् यदि नासादयेद् धनम्।
धनतृष्णाभिभूतश्च किं कुर्वन् सुखमाप्नुयात् ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिरने पूछा— दादाजी! यदि कोई मनुष्य धनकी तृष्णासे ग्रस्त होकर तरह-तरहके उद्योग करनेपर भी धन न पा सके तो वह क्या करे, जिससे उसे सुखकी प्राप्ति हो सके?॥१॥
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वसाम्यमनायासं सत्यवाक्यं च भारत।
निर्वेदश्चाविधित्सा च यस्य स्यात् स सुखी नरः ॥ २ ॥
मूलम्
सर्वसाम्यमनायासं सत्यवाक्यं च भारत।
निर्वेदश्चाविधित्सा च यस्य स्यात् स सुखी नरः ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजीने कहा— भारत! सबमें समताका भाव, व्यर्थ परिश्रमका अभाव, सत्यभाषण, संसारसे वैराग्य और कर्मासक्तिका अभाव—ये पाँचों जिस मनुष्यमें होते हैं, वह सुखी होता है॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतान्येव पदान्याहुः पञ्च वृद्धाः प्रशान्तये।
एष स्वर्गश्च धर्मश्च सुखं चानुत्तमं मतम् ॥ ३ ॥
मूलम्
एतान्येव पदान्याहुः पञ्च वृद्धाः प्रशान्तये।
एष स्वर्गश्च धर्मश्च सुखं चानुत्तमं मतम् ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ज्ञानवृद्ध पुरुष इन्हीं पाँच वस्तुओंको शान्तिका कारण बताते हैं। यही स्वर्ग है, यही धर्म है और यही परम उत्तम सुख माना गया है॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् ।
निर्वेदान्मङ्किना गीतं तन्निबोध युधिष्ठिर ॥ ४ ॥
मूलम्
अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् ।
निर्वेदान्मङ्किना गीतं तन्निबोध युधिष्ठिर ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिर! इस विषयमें जानकार पुरुष एक प्राचीन इतिहासका उदाहरण दिया करते हैं। मङ्कि नामक मुनिने भोगोंसे विरक्त होकर जो उद्गार प्रकट किया था, वही इस इतिहासमें वर्णित है। उसे बताता हूँ, सुनो॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ईहमानो धनं मङ्किर्भग्नेहश्च पुनः पुनः।
केनचिद् धनशेषेण क्रीतवान् दम्यगोयुगम् ॥ ५ ॥
मूलम्
ईहमानो धनं मङ्किर्भग्नेहश्च पुनः पुनः।
केनचिद् धनशेषेण क्रीतवान् दम्यगोयुगम् ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मङ्कि धनके लिये अनेक प्रकारकी चेष्टाएँ करते थे; परंतु हर बार उनका प्रयत्न व्यर्थ हो जाता था। अन्तमें जब बहुत थोड़ा धन शेष रह गया तो उसे देकर उन्होंने दो नये बछड़े खरीदे॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुसम्बद्धौ तु तौ दम्यौ दमनायाभिनिःसृतौ।
आसीनमुष्ट्रं मध्येन सहसैवाभ्यधावताम् ॥ ६ ॥
मूलम्
सुसम्बद्धौ तु तौ दम्यौ दमनायाभिनिःसृतौ।
आसीनमुष्ट्रं मध्येन सहसैवाभ्यधावताम् ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
एक दिन उन दोनों बछड़ोंको परस्पर जोड़कर वे हल चलानेकी शिक्षा देनेके लिये ले जा रहे थे। जब वे दोनों बछड़े गाँवसे बाहर निकले तो बैठे हुए एक ऊँटको बीचमें करके सहसा दौड़ पड़े॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तयोः सम्प्राप्तयोरुष्ट्रः स्कन्धदेशममर्षणः ।
उत्थायोत्क्षिप्य तौ दम्यौ प्रससार महाजवः ॥ ७ ॥
मूलम्
तयोः सम्प्राप्तयोरुष्ट्रः स्कन्धदेशममर्षणः ।
उत्थायोत्क्षिप्य तौ दम्यौ प्रससार महाजवः ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब वे उसकी गर्दनके पास पहुँचे तो ऊँटके लिये यह असह्य हो उठा। वह रोषमें भरकर खड़ा हो गया और उन दोनों बछड़ोंको ऊपर लटकाये बड़े जोरसे भागने लगा॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ह्रियमाणौ तु तौ दम्यौ तेनोष्ट्रेण प्रमाथिना।
म्रियमाणौ च सम्प्रेक्ष्य मङ्किस्तत्राब्रवीदिदम् ॥ ८ ॥
मूलम्
ह्रियमाणौ तु तौ दम्यौ तेनोष्ट्रेण प्रमाथिना।
म्रियमाणौ च सम्प्रेक्ष्य मङ्किस्तत्राब्रवीदिदम् ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
बलपूर्वक अपहरण करनेवाले उस ऊँटके द्वारा उन दोनों बछड़ोंको अपहृत होते और मरते देख मङ्किने इस प्रकार कहा—॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न चैवाविहितं शक्यं दक्षेणापीहितुं धनम्।
युक्तेन श्रद्धया सम्यगीहां समनुतिष्ठता ॥ ९ ॥
मूलम्
न चैवाविहितं शक्यं दक्षेणापीहितुं धनम्।
युक्तेन श्रद्धया सम्यगीहां समनुतिष्ठता ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मनुष्य कैसा ही चतुर क्यों न हो, जो उसके भाग्यमें नहीं है, उस धनको वह श्रद्धापूर्वक भलीभाँति प्रयत्न करके भी नहीं पा सकता॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृतस्य पूर्वं चानर्थैर्युक्तस्याप्यनुतिष्ठतः ।
इमं पश्यत संगत्या मम दैवमुपप्लवम् ॥ १० ॥
मूलम्
कृतस्य पूर्वं चानर्थैर्युक्तस्याप्यनुतिष्ठतः ।
इमं पश्यत संगत्या मम दैवमुपप्लवम् ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘पहले मैंने जो प्रयत्न किया था उसमें अनेक प्रकारके अनर्थ खड़े हो गये थे। उन अनर्थोंसे युक्त होनेपर भी मैं धनोपार्जनकी ही चेष्टामें लगा रहा; परंतु देखो, आज इन बछड़ोंकी सङ्गतिसे मुझपर कैसा दैवी उपद्रव आ गया?॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उद्यम्योद्यम्य मे दम्यौ विषमेणैव गच्छतः।
उत्क्षिप्य काकतालीयमुत्पथेनैव धावतः ॥ ११ ॥
मणी वोष्ट्रस्य लम्बेते प्रियौ वत्सतरौ मम।
शुद्धं हि दैवमेवेदं हठेनैवास्ति पौरुषम् ॥ १२ ॥
मूलम्
उद्यम्योद्यम्य मे दम्यौ विषमेणैव गच्छतः।
उत्क्षिप्य काकतालीयमुत्पथेनैव धावतः ॥ ११ ॥
मणी वोष्ट्रस्य लम्बेते प्रियौ वत्सतरौ मम।
शुद्धं हि दैवमेवेदं हठेनैवास्ति पौरुषम् ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘यह ऊँट मेरे बछड़ोंको उछाल-उछालकर विषम मार्गसे ही जा रहा है। काकतालीयन्यायसे1 (अर्थात् दैवसंयोगसे) इन्हें गर्दनपर उठाकर बुरे मार्गसे ही दौड़ रहा है। इस ऊँटके गलेमें मेरे दोनों प्यारे बछड़े दो मणियोंके समान लटक रहे हैं। यह केवल दैवकी ही लीला है। हठपूर्वक किये हुए पुरुषार्थसे क्या होता है?॥११-१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदि वाप्युपपद्येत पौरुषं नाम कर्हिचित्।
अन्विष्यमाणं तदपि दैवमेवावतिष्ठते ॥ १३ ॥
मूलम्
यदि वाप्युपपद्येत पौरुषं नाम कर्हिचित्।
अन्विष्यमाणं तदपि दैवमेवावतिष्ठते ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘यदि कभी कोई पुरुषार्थ सफल होता दिखायी देता है तो वहाँ भी खोज करनेपर दैवका ही सहयोग सिद्ध होता है॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मान्निर्वेद एवेह गन्तव्यः सुखमिच्छता।
सुखं स्वपिति निर्विण्णो निराशश्चार्थसाधने ॥ १४ ॥
मूलम्
तस्मान्निर्वेद एवेह गन्तव्यः सुखमिच्छता।
सुखं स्वपिति निर्विण्णो निराशश्चार्थसाधने ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘अतः सुखकी इच्छा रखनेवाले पुरुषको धन आदिकी ओरसे वैराग्यका ही आश्रय लेना चाहिये। धनोपार्जनकी चेष्टासे निराश होकर जो विरक्त हो जाता है, वह सुखकी नींद सोता है॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहो सम्यक् शुकेनोक्तं सर्वतः परिमुच्यता।
प्रतिष्ठता महारण्यं जनकस्य निवेशनात् ॥ १५ ॥
मूलम्
अहो सम्यक् शुकेनोक्तं सर्वतः परिमुच्यता।
प्रतिष्ठता महारण्यं जनकस्य निवेशनात् ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘अहा! शुकदेव मुनिने जनकके राजमहलसे विशाल वनकी ओर जाते समय सब ओरसे बन्धनमुक्त हो क्या ही अच्छा कहा था?॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यः कामानाप्नुयात् सर्वान् यश्चैतान् केवलांस्त्यजेत्।
प्रापणात् सर्वकामानां परित्यागो विशिष्यते ॥ १६ ॥
मूलम्
यः कामानाप्नुयात् सर्वान् यश्चैतान् केवलांस्त्यजेत्।
प्रापणात् सर्वकामानां परित्यागो विशिष्यते ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
“जो मनुष्य अपनी समस्त कामनाओंको पा लेता है; तथा जो इन सबका केवल त्याग कर देता है—इन दोनोंके कार्योंमें समस्त कामनाओंको प्राप्त करनेकी अपेक्षा उनका त्याग ही श्रेष्ठ है॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नान्तं सर्वविधित्सानां गतपूर्वोऽस्ति कश्चन।
शरीरे जीविते चैव तृष्णा मन्दस्य वर्धते ॥ १७ ॥
मूलम्
नान्तं सर्वविधित्सानां गतपूर्वोऽस्ति कश्चन।
शरीरे जीविते चैव तृष्णा मन्दस्य वर्धते ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘कोई भी पहले कभी धन आदिके लिये होनेवाली सम्पूर्ण प्रवृत्तियोंका अन्त नहीं पा सका है। शरीर और जीवनके प्रति मूर्ख मनुष्यकी ही तृष्णा बढ़ती है॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निवर्तस्व विधित्साभ्यः शाम्य निर्विद्य कामुक।
असकृच्चासि निकृतो न च निर्विद्यसे ततः ॥ १८ ॥
मूलम्
निवर्तस्व विधित्साभ्यः शाम्य निर्विद्य कामुक।
असकृच्चासि निकृतो न च निर्विद्यसे ततः ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘ओ कामनाओंके दास मन! तू सब प्रकारकी चेष्टाओंसे निवृत्त हो जा और वैराग्यपूर्वक शान्ति धारण कर। तू धनकी चेष्टा करके बारंबार ठगा गया है तो भी उसकी ओरसे वैराग्य नहीं होता है॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदि नाहं विनाश्यस्ते यद्येवं रमसे मया।
मा मां योजय लोभेन वृथा त्वं वित्तकामुक ॥ १९ ॥
मूलम्
यदि नाहं विनाश्यस्ते यद्येवं रमसे मया।
मा मां योजय लोभेन वृथा त्वं वित्तकामुक ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘ओ धनकी कामनावाले मन! यदि तुझे मेरा विनाश नहीं करना है, यदि तू इसी प्रकार मेरे साथ आनन्दपूर्वक रहना चाहता है तो मुझे व्यर्थ लोभमें न फँसा॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
संचितं संचितं द्रव्यं नष्टं तव पुनः पुनः।
कदाचिन्मोक्ष्यसे मूढ धनेहां धनकामुक ॥ २० ॥
मूलम्
संचितं संचितं द्रव्यं नष्टं तव पुनः पुनः।
कदाचिन्मोक्ष्यसे मूढ धनेहां धनकामुक ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘तूने बार-बार द्रव्यका संचय किया और वह बारंबार नष्ट होता चला गया। धनकी इच्छा रखनेवाले मूढ! क्या कभी तू धनकी इस तृष्णा और चेष्टाका त्याग भी करेगा?॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहो नु मम बालिश्यं योऽहं क्रीडनकस्तव।
किं नैवं जातु पुरुषः परेषां प्रेष्यतामियात् ॥ २१ ॥
मूलम्
अहो नु मम बालिश्यं योऽहं क्रीडनकस्तव।
किं नैवं जातु पुरुषः परेषां प्रेष्यतामियात् ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘अहो! यह मेरी कैसी नादानी है? जो मैं तेरे हाथका खिलौना बना हुआ हूँ। यदि ऐसी बात न होती तो क्या कोई समझदार पुरुष कभी दूसरोंकी दासता स्वीकार कर सकता है?॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न पूर्वे नापरे जातु कामानामन्तमाप्नुवन्।
त्यक्त्वा सर्वसमारम्भान् प्रतिबुद्धोऽस्मि जागृमि ॥ २२ ॥
मूलम्
न पूर्वे नापरे जातु कामानामन्तमाप्नुवन्।
त्यक्त्वा सर्वसमारम्भान् प्रतिबुद्धोऽस्मि जागृमि ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘पूर्वकालके तथा पीछेके मनुष्य भी कभी कामनाओंका अन्त नहीं पा सके हैं, अतः मैं समस्त कर्मोंका आयोजन त्यागकर सावधान हो गया हूँ और मैं पूर्णतः जग गया हूँ॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नूनं ते हृदयं काम वज्रसारमयं दृढम्।
यदनर्थशताविष्टं शतधा न विदीर्यते ॥ २३ ॥
मूलम्
नूनं ते हृदयं काम वज्रसारमयं दृढम्।
यदनर्थशताविष्टं शतधा न विदीर्यते ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘काम! निश्चय ही तेरा हृदय फौलादका बना हुआ हैः अतएव अत्यन्त सुदृढ़ है। यही कारण है कि सैकड़ों अनर्थोंसे व्याप्त होनेपर भी इसके सैकड़ों टुकड़े नहीं हो जाते॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जानामि काम त्वां चैव यच्च किंचित् प्रियं तव।
तवाहं प्रियमन्विच्छन्नात्मन्युपलभे सुखम् ॥ २४ ॥
मूलम्
जानामि काम त्वां चैव यच्च किंचित् प्रियं तव।
तवाहं प्रियमन्विच्छन्नात्मन्युपलभे सुखम् ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘काम! मैं तुझे अच्छी तरह जानता हूँ और जो कुछ तुझे प्रिय लगता है, उससे भी परिचित हूँ। चिरकालसे तेरा प्रिय करनेकी चेष्टा करता चला आ रहा हूँ; परंतु कभी मेरे मनमें सुखका अनुभव नहीं हुआ॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
काम जानामि ते मूलं संकल्पात् किल जायसे।
न त्वां संकल्पयिष्यामि समूलो न भविष्यसि ॥ २५ ॥
मूलम्
काम जानामि ते मूलं संकल्पात् किल जायसे।
न त्वां संकल्पयिष्यामि समूलो न भविष्यसि ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘काम! मैं तेरी जड़को जानता हूँ। निश्चय ही तू संकल्पसे उत्पन्न होता है। अब मैं तेरा संकल्प ही नहीं करूँगा, जिससे तू समूल नष्ट हो जायगा॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ईहा धनस्य न सुखा लब्ध्वा चिन्ता च भूयसी।
लब्धनाशे यथा मृत्युर्लब्धं भवति वा न वा ॥ २६ ॥
मूलम्
ईहा धनस्य न सुखा लब्ध्वा चिन्ता च भूयसी।
लब्धनाशे यथा मृत्युर्लब्धं भवति वा न वा ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
“धनकी इच्छा अथवा चेष्टा सुखदायिनी नहीं है। यदि धन मिल भी जाय तो उसकी रक्षा आदिके लिये बड़ी भारी चिन्ता बढ़ जाती है और यदि एक बार मिलकर वह नष्ट हो जाय, तब तो मृत्युके समान ही भयंकर कष्ट होता है और उद्योग करनेपर भी धन मिलेगा या नहीं, यह निश्चय नहीं होता॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
परित्यागे न लभते ततो दुःखतरं नु किम्।
न च तुष्यति लब्धेन भूय एव च मार्गति॥२७॥
मूलम्
परित्यागे न लभते ततो दुःखतरं नु किम्।
न च तुष्यति लब्धेन भूय एव च मार्गति॥२७॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘शरीरको निछावर कर देनेपर भी मनुष्य जब धन नहीं पाता है तो उसके लिये इससे बढ़कर महान् दुःख और क्या हो सकता है? यदि धनकी उपलब्धि हो भी जाय तो उतनेसे ही वह संतुष्ट नहीं होता है अपितु अधिक धनकी तलाश करने लग जाता है॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनुतर्षुल एकार्थः स्वादु गाङ्गमिवोदकम्।
मद्विलापनमेतत्तु प्रतिबुद्धोऽस्मि संत्यज ॥ २८ ॥
मूलम्
अनुतर्षुल एकार्थः स्वादु गाङ्गमिवोदकम्।
मद्विलापनमेतत्तु प्रतिबुद्धोऽस्मि संत्यज ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘काम! स्वादिष्ट गङ्गाजलके समान यह धन तृष्णाकी ही वृद्धि करनेवाला है। मैं अच्छी तरह जान गया हूँ कि यह तृष्णाकी वृद्धि मेरे विनाशका कारण है; अतः तू मेरा पिण्ड छोड़ दे॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
य इमं मामकं देहं भूतग्रामः समाश्रितः।
स यात्वितो यथाकामं वसतां वा यथासुखम् ॥ २९ ॥
मूलम्
य इमं मामकं देहं भूतग्रामः समाश्रितः।
स यात्वितो यथाकामं वसतां वा यथासुखम् ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मेरे इस शरीरका आश्रय लेकर जो पाँचों भूतोंका समुदाय स्थित है, वह इसमेंसे अपनी इच्छाके अनुसार सुखपूर्वक चला जाय या इसमें रहे, इसकी मुझे परवा नहीं है॥२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न युष्मास्विह मे प्रीतिः कामलोभानुसारिषु।
तस्मादुत्सृज्य कामान् वै सत्त्वमेवाश्रयाम्यहम् ॥ ३० ॥
मूलम्
न युष्मास्विह मे प्रीतिः कामलोभानुसारिषु।
तस्मादुत्सृज्य कामान् वै सत्त्वमेवाश्रयाम्यहम् ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘पंचभूतगण! अहंकार आदिके साथ तुम सब लोग काम और लोभके पीछे लगे रहनेवाले हो। अतः तुमपर यहाँ मेरा रत्तीभर भी स्नेह नहीं है। इसलिये मैं समस्त कामनाओंको छोड़कर केवल अब सत्त्वगुणका आश्रय ले रहा हूँ॥३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वभूतान्यहं देहे पश्यन् मनसि चात्मनः।
योगे बुद्धिं श्रुते सत्त्वं मनो ब्रह्मणि धारयन् ॥ ३१ ॥
विहरिष्याम्यनासक्तः सुखी लोकान् निरामयः।
यया मां त्वं पुनर्नैवं दुःखेषु प्रणिधास्यसि ॥ ३२ ॥
मूलम्
सर्वभूतान्यहं देहे पश्यन् मनसि चात्मनः।
योगे बुद्धिं श्रुते सत्त्वं मनो ब्रह्मणि धारयन् ॥ ३१ ॥
विहरिष्याम्यनासक्तः सुखी लोकान् निरामयः।
यया मां त्वं पुनर्नैवं दुःखेषु प्रणिधास्यसि ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मैं अपने शरीरमें मनके अंदर सम्पूर्ण भूतोंको देखता हुआ बुद्धिको योगमें, एकाग्रचितको श्रवण-मनन आदि साधनोंमें और मनको परब्रह्म परमात्मामें लगाकर रोग-शोकसे रहित एवं सुखी हो सम्पूर्ण लोकोंमें अनासक्त भावसे विचरूँगा, जिससे तू फिर मुझे इस प्रकार दुःखोंमें न डाल सकेगा॥३१-३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वया हि मे प्रणुन्नस्य गतिरन्या न विद्यते।
तृष्णाशोकश्रमाणां हि त्वं काम प्रभवः सदा ॥ ३३ ॥
मूलम्
त्वया हि मे प्रणुन्नस्य गतिरन्या न विद्यते।
तृष्णाशोकश्रमाणां हि त्वं काम प्रभवः सदा ॥ ३३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘काम! तृष्णा, शोक और परिश्रम—इनका उत्पत्तिस्थान सदा तू ही है। जबतक तू मुझे प्रेरित करके इधर-उधर भटकाता रहेगा तबतक मेरे लिये दूसरी कोई गति नहीं है॥३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
धननाशेऽधिकं दुःखं मन्ये सर्वमहत्तरम्।
ज्ञातयो ह्यवमन्यन्ते मित्राणि च धनाच्च्युतम् ॥ ३४ ॥
मूलम्
धननाशेऽधिकं दुःखं मन्ये सर्वमहत्तरम्।
ज्ञातयो ह्यवमन्यन्ते मित्राणि च धनाच्च्युतम् ॥ ३४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मैं तो समझता हूँ कि धनका नाश होनेपर जो अत्यन्त दुःख होता है, वही सबसे बढ़कर है; क्योंकि जो धनसे वञ्चित हो जाता है, उसे अपने भाई-बन्धु और मित्र भी अपमानित करने लगते हैं॥३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अवज्ञानसहस्रैस्तु दोषाः कष्टतराऽधने ।
धने सुखकला या तु सापि दुःखैर्विधीयते ॥ ३५ ॥
मूलम्
अवज्ञानसहस्रैस्तु दोषाः कष्टतराऽधने ।
धने सुखकला या तु सापि दुःखैर्विधीयते ॥ ३५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘दरिद्रको सहस्र-सहस्र तिरस्कार सहने पड़ते हैं; अतः निर्धन अवस्थामें बहुत-से कष्टदायक दोष हैं; और धनमें जो सुखका लेश प्रतीत होता है, वह भी दुःखोंसे ही सम्पादित होता है॥३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
धनमस्येति पुरुषं पुरो निघ्नन्ति दस्यवः।
क्लिश्यन्ति विविधैर्दण्डैर्नित्यमुद्वेजयन्ति च ॥ ३६ ॥
मूलम्
धनमस्येति पुरुषं पुरो निघ्नन्ति दस्यवः।
क्लिश्यन्ति विविधैर्दण्डैर्नित्यमुद्वेजयन्ति च ॥ ३६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जिस पुरुषके पास धन होनेका संदेह होता है, उसे उसका धन लूटनेके लिये लुटेरे मार डालते हैं अथवा उसे तरह-तरहकी पीड़ाएँ देकर सताते और सदा उद्वेगमें डाले रहते हैं॥३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अर्थलोलुपता दुःखमिति बुद्धं चिरान्मया।
यद् यदालम्बसे काम तत्तदेवानुरुध्यसे ॥ ३७ ॥
मूलम्
अर्थलोलुपता दुःखमिति बुद्धं चिरान्मया।
यद् यदालम्बसे काम तत्तदेवानुरुध्यसे ॥ ३७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘धनलोलुपता दुःखका कारण है, यह बात बहुत देरके बाद मेरी समझमें आयी है। काम! तू जिस-जिसका आश्रय लेता है, उसी-उसीके पीछे पड़ जाता है॥३७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अतत्त्वज्ञोऽसि बालश्च दुस्तोषोऽपूरणोऽनलः ।
नैव त्वं वेत्थ सुलभं नैव त्वं वेत्थ दुर्लभम्॥३८॥
मूलम्
अतत्त्वज्ञोऽसि बालश्च दुस्तोषोऽपूरणोऽनलः ।
नैव त्वं वेत्थ सुलभं नैव त्वं वेत्थ दुर्लभम्॥३८॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘तू तत्त्वज्ञानसे रहित और बालकके समान मूढ है, तुझे संतोष देना कठिन है। आगके समान तेरा पेट भरना असम्भव है। तू यह नहीं जानता कि कौन-सी वस्तु सुलभ है और कौन-सी दुर्लभ॥३८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पाताल इव दुष्पूरो मां दुःखैर्योक्तुमिच्छसि।
नाहमद्य समावेष्टुं शक्यः काम पुनस्त्वया ॥ ३९ ॥
मूलम्
पाताल इव दुष्पूरो मां दुःखैर्योक्तुमिच्छसि।
नाहमद्य समावेष्टुं शक्यः काम पुनस्त्वया ॥ ३९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘काम! पातालके समान तुझे भरना कठिन है। तू मुझे दुःखोंमें फँसाना चाहता है; किंतु अब तू फिर मेरे भीतर प्रवेश नहीं कर सकता॥३९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निर्वेदमहमासाद्य द्रव्यनाशाद् यदृच्छया ।
निर्वृत्तिं परमां प्राप्य नाद्य कामान् विचिन्तये ॥ ४० ॥
मूलम्
निर्वेदमहमासाद्य द्रव्यनाशाद् यदृच्छया ।
निर्वृत्तिं परमां प्राप्य नाद्य कामान् विचिन्तये ॥ ४० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘अकस्मात् धनका नाश हो जानेसे वैराग्यको प्राप्त होकर मुझे परम सुख मिल गया है। अब मैं भोगोंका चिन्तन नहीं करूँगा॥४०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अतिक्लेशान् सहामीह नाहं बुद्ध्याम्यबुद्धिमान्।
निकृतो धननाशेन शये सर्वाङ्गविज्वरः ॥ ४१ ॥
मूलम्
अतिक्लेशान् सहामीह नाहं बुद्ध्याम्यबुद्धिमान्।
निकृतो धननाशेन शये सर्वाङ्गविज्वरः ॥ ४१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘पहले मैं बड़े-बड़े क्लेश सहता था, परंतु ऐसा बुद्धिहीन हो गया था कि ‘धनकी कामनामें कष्ट है,’ इस बातको समझ ही नहीं पाता था। परंतु अब धनका नाश होनेसे उससे वंचित होकर मैं सम्पूर्ण अङ्गोंमें क्लेश और चिन्ताओंसे मुक्त होकर सुखसे सोता हूँ॥४१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
परित्यजामि काम त्वां हित्वा सर्वमनोगतीः।
न त्वं मया पुनः काम वत्स्यसे न च रंस्यसे॥४२॥
मूलम्
परित्यजामि काम त्वां हित्वा सर्वमनोगतीः।
न त्वं मया पुनः काम वत्स्यसे न च रंस्यसे॥४२॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘काम! मैं अपनी सम्पूर्ण मनोवृत्तियोंको दूर हटाकर तेरा परित्याग कर रहा हूँ। अब तू फिर मेरे साथ न तो रह सकेगा और न मौज ही कर सकेगा॥४२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्षमिष्ये क्षिपमाणानां न हिंसिष्ये विहिंसितः।
द्वेष्ययुक्तः प्रियं वक्ष्याम्यनादृत्य तदप्रियम् ॥ ४३ ॥
मूलम्
क्षमिष्ये क्षिपमाणानां न हिंसिष्ये विहिंसितः।
द्वेष्ययुक्तः प्रियं वक्ष्याम्यनादृत्य तदप्रियम् ॥ ४३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘अब जो लोग मुझपर आक्षेप या मेरा तिरस्कार करेंगे, उनके उस बर्तावको मैं चुपचाप सह लूँगा। जो लोग मुझे मारे-पीटेंगे या कष्ट देंगे, उनके साथ भी मैं बदलेमें वैसा बर्ताव नहीं करूँगा। द्वेषके योग्य पुरुषका भी यदि साथ हो जाय और वह मुझे अप्रिय वचन कहने लगे तो मैं उसपर ध्यान न देकर उससे अप्रिय वचन नहीं बोलूँगा॥४३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तृप्तः स्वस्थेन्द्रियो नित्यं यथालब्धेन वर्तयन्।
न सकामं करिष्यामि त्वामहं शत्रुमात्मनः ॥ ४४ ॥
मूलम्
तृप्तः स्वस्थेन्द्रियो नित्यं यथालब्धेन वर्तयन्।
न सकामं करिष्यामि त्वामहं शत्रुमात्मनः ॥ ४४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मैं सदा संतुष्ट एवं स्वस्थ इन्द्रियोंसे सम्पन्न रहकर भाग्यवश जो कुछ मिल जाय, उसीसे जीवन-निर्वाह करता रहूँगा; परंतु तुझे कभी सफल न होने दूँगा; क्योंकि तू मेरा शत्रु है॥४४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निर्वेदं निर्वृतिं तृप्तिं शान्तिं सत्यं दमं क्षमाम्।
सर्वभूतदयां चैव विद्धि मां समुपागतम् ॥ ४५ ॥
मूलम्
निर्वेदं निर्वृतिं तृप्तिं शान्तिं सत्यं दमं क्षमाम्।
सर्वभूतदयां चैव विद्धि मां समुपागतम् ॥ ४५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘तू यह अच्छी तरह समझ ले कि मुझे वैराग्य, सुख, तृप्ति, शान्ति, सत्य, दम, क्षमा और समस्त प्राणियोंके प्रति दयाभाव—ये सभी सद्गुण प्राप्त हो गये हैं॥४५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मात् कामश्च लोभश्च तृष्णा कार्पण्यमेव च।
त्यजन्तु मां प्रतिष्ठन्तं सत्त्वस्थो ह्यस्मि साम्प्रतम् ॥ ४६ ॥
मूलम्
तस्मात् कामश्च लोभश्च तृष्णा कार्पण्यमेव च।
त्यजन्तु मां प्रतिष्ठन्तं सत्त्वस्थो ह्यस्मि साम्प्रतम् ॥ ४६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘अतः काम, लोभ, तृष्णा और कृपणताको चाहिये कि वे मोक्षकी ओर प्रस्थान करनेवाले मुझ साधकको छोड़कर चले जायँ। अब मैं सत्त्वगुणमें स्थित हो गया हूँ॥४६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रहाय कामं लोभं च सुखं प्राप्तोऽस्मि साम्प्रतम्।
नाद्य लोभवशं प्राप्तो दुःखं प्राप्स्याम्यनात्मवान् ॥ ४७ ॥
मूलम्
प्रहाय कामं लोभं च सुखं प्राप्तोऽस्मि साम्प्रतम्।
नाद्य लोभवशं प्राप्तो दुःखं प्राप्स्याम्यनात्मवान् ॥ ४७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘इस समय काम और लोभका त्याग करके मैं प्रत्यक्ष ही सुखी हो गया हूँ; अतः अजितेन्द्रिय पुरुषकी भाँति अब लोभमें फँसकर दुःख नहीं उठाऊँगा॥४७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यद् यत् त्यजति कामानां तत् सुखस्याभिपूर्यते।
कामस्य वशगो नित्यं दुःखमेव प्रपद्यते ॥ ४८ ॥
मूलम्
यद् यत् त्यजति कामानां तत् सुखस्याभिपूर्यते।
कामस्य वशगो नित्यं दुःखमेव प्रपद्यते ॥ ४८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मनुष्य जिस-जिस कामनाको छोड़ देता है, उस-उसकी ओरसे सुखी हो जाता है। कामनाके वशीभूत होकर तो वह सर्वदा दुःख ही पाता है॥४८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कामानुबन्धं नुदते यत् किंचित् पुरुषो रजः।
कामक्रोधोद्भवं दुःखमह्रीररतिरेव च ॥ ४९ ॥
मूलम्
कामानुबन्धं नुदते यत् किंचित् पुरुषो रजः।
कामक्रोधोद्भवं दुःखमह्रीररतिरेव च ॥ ४९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मनुष्य कामसे सम्बन्ध रखनेवाला जो कुछ भी रजोगुण हो, उसे दूर कर दे। दुःख, निर्लज्जता और असंतोष—ये काम और क्रोधसे ही उत्पन्न होनेवाले हैं॥४९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एष ब्रह्मप्रतिष्ठोऽहं ग्रीष्मे शीतमिव ह्रदम्।
शाम्यामि परिनिर्वामि सुखं मामेति केवलम् ॥ ५० ॥
मूलम्
एष ब्रह्मप्रतिष्ठोऽहं ग्रीष्मे शीतमिव ह्रदम्।
शाम्यामि परिनिर्वामि सुखं मामेति केवलम् ॥ ५० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जैसे ग्रीष्म-ऋतुमें लोग शीतल जलवाले सरोवरमें प्रवेश करते हैं, उसी प्रकार अब मैं परब्रह्ममें प्रतिष्ठित हो गया हूँ, अतः शान्त हूँ, सब ओरसे निर्वाणको प्राप्त हो गया हूँ। अब मुझे केवल सुख-ही-सुख मिल रहा है॥५०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यच्च कामसुखं लोके यच्च दिव्यं महत्सुखम्।
तृष्णाक्षयसुखस्यैते नार्हतः षोडशीं कलाम् ॥ ५१ ॥
मूलम्
यच्च कामसुखं लोके यच्च दिव्यं महत्सुखम्।
तृष्णाक्षयसुखस्यैते नार्हतः षोडशीं कलाम् ॥ ५१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘इस लोकमें जो विषयोंका सुख है तथा परलोकमें जो दिव्य एवं महान् सुख है, ये दोनों प्रकारके सुख तृष्णाके क्षयसे होनेवाले सुखकी सोलहवीं कलाके भी बराबर नहीं हैं॥५१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आत्मना सप्तमं कामं हत्वा शत्रुमिवोत्तमम्।
प्राप्यावध्यं ब्रह्मपुरं राजेव स्यामहं सुखी ॥ ५२ ॥
मूलम्
आत्मना सप्तमं कामं हत्वा शत्रुमिवोत्तमम्।
प्राप्यावध्यं ब्रह्मपुरं राजेव स्यामहं सुखी ॥ ५२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मात्सर्य और ममता—ये देहधारियोंके सात शत्रु हैं। इनमें सातवाँ कामरूप शत्रु सबसे प्रबल है। उन सबके साथ इस महान् शत्रु कामका नाश करके मैं अविनाशी ब्रह्मपुरमें स्थित हो राजाके समान सुखी होऊँगा’॥५२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतां बुद्धिं समास्थाय मङ्किर्निर्वेदमागतः।
सर्वान् कामान् परित्यज्य प्राप्य ब्रह्म महत्सुखम् ॥ ५३ ॥
मूलम्
एतां बुद्धिं समास्थाय मङ्किर्निर्वेदमागतः।
सर्वान् कामान् परित्यज्य प्राप्य ब्रह्म महत्सुखम् ॥ ५३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! इसी बुद्धिका आश्रय लेकर मङ्कि धन और भोगोंसे विरक्त हो गये और समस्त कामनाओंका परित्याग करके उन्होंने परमानन्दस्वरूप परब्रह्मको प्राप्त कर लिया॥५३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दम्यनाशकृते मङ्किरमृतत्वं किलागमत् ।
अच्छिनत् काममूलं स तेन प्राप महत्सुखम् ॥ ५४ ॥
मूलम्
दम्यनाशकृते मङ्किरमृतत्वं किलागमत् ।
अच्छिनत् काममूलं स तेन प्राप महत्सुखम् ॥ ५४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
बछड़ोंके नाशको निमित्त बनाकर ही मङ्कि अमृतत्वको प्राप्त हो गये। उन्होंने कामकी जड़ काट डाली; इसीलिये महान् सुख प्राप्त कर लिया॥५४॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि मङ्किगीतायां सप्तसप्तत्यधिकशततमोऽध्यायः ॥ १७७ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें मङ्किगीताविषयक एक सौ सतहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१७७॥
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एक ताड़के वृक्षके नीचे एक बटोही बैठा था। उसी वृक्षके ऊपर एक काक भी आ बैठा। काकके आते ही ताड़का एक पका हुआ फल नीचे गिरा। यद्यपि फल पककर आप-से-आप ही गिरा था, पर पथिक दोनों बातोंको साथ होते देख, यही समझ गया कि कौवेके आनेसे ही ताड़का फल गिरा है; अतः जहाँ संयोगवश अचानक कोई घटना घटित हो जाय, वहाँ उसे काकतालीयन्यायसे घटित हुई बताया जाता है। यहाँ बछड़ोंका आना और ऊँटका रास्तेमें बैठे रहना—ये बातें संयोगवश हो गयी थीं। ↩︎