१७६ शम्पाकगीतायाम्

भागसूचना

षट्‌सप्तत्यधिकशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

त्यागकी महिमाके विषयमें शम्पाक ब्राह्मणका उपदेश

मूलम् (वचनम्)

युधिष्ठिर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

धनिनश्चाधना ये च वर्तयन्ते स्वतन्त्रिणः।
सुखदुःखागमस्तेषां कः कथं वा पितामह ॥ १ ॥

मूलम्

धनिनश्चाधना ये च वर्तयन्ते स्वतन्त्रिणः।
सुखदुःखागमस्तेषां कः कथं वा पितामह ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिरने पूछा— पितामह! धनी और निर्धन दोनों स्वतन्त्रतापूर्वक व्यवहार करते हैं; फिर उन्हें किस रूपमें और कैसे सुख और दुःखकी प्राप्ति होती है?॥

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् ।
शम्पाकेनेह मुक्तेन गीतं शान्तिगतेन च ॥ २ ॥

मूलम्

अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् ।
शम्पाकेनेह मुक्तेन गीतं शान्तिगतेन च ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजीने कहा— युधिष्ठिर! इस विषयमें विद्वान् पुरुष इस पुरातन इतिहासका उदाहरण देते हैं, जिसे परम शान्त जीवन्मुक्त शम्पाकने यहाँ कहा था॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अब्रवीन्मां पुरा कश्चिद् ब्राह्मणस्त्यागमाश्रितः।
क्लिश्यमानः कुदारेण कुचैलेन बुभुक्षया ॥ ३ ॥

मूलम्

अब्रवीन्मां पुरा कश्चिद् ब्राह्मणस्त्यागमाश्रितः।
क्लिश्यमानः कुदारेण कुचैलेन बुभुक्षया ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पहलेकी बात है, फटे-पुराने वस्त्रों एवं अपनी दुष्टा स्त्रीके और भूखके कारण अत्यन्त कष्ट पानेवाले एक त्यागी ब्राह्मणने जिसका नाम शम्पाक था, मुझसे इस प्रकार कहा—॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उत्पन्नमिह लोके वै जन्मप्रभृति मानवम्।
विविधान्युपवर्तन्ते दुःखानि च सुखानि च ॥ ४ ॥

मूलम्

उत्पन्नमिह लोके वै जन्मप्रभृति मानवम्।
विविधान्युपवर्तन्ते दुःखानि च सुखानि च ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘इस संसारमें जो भी मनुष्य उत्पन्न होता है (वह धनी हो या निर्धन) उसे जन्मसे ही नाना प्रकारके सुख-दुःख प्राप्त होने लगते हैं॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तयोरेकतरे मार्गे यदेनमभिसन्नयेत् ।
न सुखं प्राप्य संहृष्येन्नासुखं प्राप्य संज्वरेत् ॥ ५ ॥

मूलम्

तयोरेकतरे मार्गे यदेनमभिसन्नयेत् ।
न सुखं प्राप्य संहृष्येन्नासुखं प्राप्य संज्वरेत् ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘विधाता यदि उसे सुख और दुःख इन दोनोंमेंसे किसी एकके मार्गपर ले जाय तो वह न तो सुख पाकर प्रसन्न हो और न दुःखमें पड़कर परितप्त हो॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न वै चरसि यच्छ्रेय आत्मनो वा यदीशिषे।
अकामात्मापि हि सदा धुरमुद्यम्य चैव ह ॥ ६ ॥

मूलम्

न वै चरसि यच्छ्रेय आत्मनो वा यदीशिषे।
अकामात्मापि हि सदा धुरमुद्यम्य चैव ह ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘तुम जो कामनारहित होकर भी अपने कल्याणका साधन नहीं कर रहे हो और मनको वशमें नहीं कर रहे हो, इसका कारण यही है कि तुमने राज्यका बोझा अपनेपर उठा रखा है॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अकिंचनः परिपतन् सुखमास्वादयिष्यसि ।
अकिंचनः सुखं शेते समुत्तिष्ठति चैव ह ॥ ७ ॥

मूलम्

अकिंचनः परिपतन् सुखमास्वादयिष्यसि ।
अकिंचनः सुखं शेते समुत्तिष्ठति चैव ह ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘यदि तुम सब कुछ त्यागकर किसी वस्तुका संग्रह नहीं रखोगे तो सर्वत्र विचरते हुए सुखका ही अनुभव करोगे; क्योंकि जो अकिंचन होता है—जिसके पास कुछ नहीं रहता है, वह सुखसे सोता और जागता है॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आकिंचन्यं सुखं लोके पथ्यं शिवमनामयम्।
अनमित्रपथो ह्येष दुर्लभः सुलभो मतः ॥ ८ ॥

मूलम्

आकिंचन्यं सुखं लोके पथ्यं शिवमनामयम्।
अनमित्रपथो ह्येष दुर्लभः सुलभो मतः ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘संसारमें अकिंचनता ही सुख है। वही हितकारक, कल्याणकारी और निरापद है। इस मार्गमें किसी प्रकारके शत्रुका भी खटका नहीं है। यह दुर्लभ होनेपर भी सुलभ है॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अकिंचनस्य शुद्धस्य उपपन्नस्य सर्वतः।
अवेक्षमाणस्त्रील्लोँकान् न तुल्यमिह लक्षये ॥ ९ ॥

मूलम्

अकिंचनस्य शुद्धस्य उपपन्नस्य सर्वतः।
अवेक्षमाणस्त्रील्लोँकान् न तुल्यमिह लक्षये ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मैं तीनों लोकोंपर दृष्टि डालकर देखता हूँ तो मुझे अकिंचन, शुद्ध एवं सब ओरसे वैराग्यसम्पन्न पुरुषके समान दूसरा कोई नहीं दिखायी देता है॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आकिंचन्यं च राज्यं च तुलया समतोलयम्।
अत्यरिच्यत दारिद्र्यं राज्यादपि गुणाधिकम् ॥ १० ॥

मूलम्

आकिंचन्यं च राज्यं च तुलया समतोलयम्।
अत्यरिच्यत दारिद्र्यं राज्यादपि गुणाधिकम् ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मैंने अकिंचनता तथा राज्यको बुद्धिकी तराजूपर रखकर तौला तो गुणोंमें अधिक होनेके कारण राज्यसे भी अकिंचनताका ही पलड़ा भारी निकला॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आकिंचन्ये च राज्ये च विशेषः सुमहानयम्।
नित्योद्विग्नो हि धनवान् मृत्योरास्यगतो यथा ॥ ११ ॥

मूलम्

आकिंचन्ये च राज्ये च विशेषः सुमहानयम्।
नित्योद्विग्नो हि धनवान् मृत्योरास्यगतो यथा ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘अकिंचनता तथा राज्यमें बड़ा भारी अन्तर यह है कि धनी राजा सदा इस प्रकार उद्विग्न रहता है, मानो मौतके मुखमें पड़ा हुआ हो॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नैवास्याग्निर्न चारिष्टो न मृत्युर्न च दस्यवः।
प्रभवन्ति धनत्यागाद् विमुक्तस्य निराशिषः ॥ १२ ॥

मूलम्

नैवास्याग्निर्न चारिष्टो न मृत्युर्न च दस्यवः।
प्रभवन्ति धनत्यागाद् विमुक्तस्य निराशिषः ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘परंतु जो मनुष्य धनको त्यागकर उसकी आसक्तिसे मुक्त हो गया है और मनमें किसी तरहकी कामना नहीं रखता, उसपर न अग्निका जोर चलता है, न अरिष्टकारी ग्रहोंका, न मृत्यु उसका कुछ बिगाड़ सकती है, न डाकू और लुटेरे ही॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तं वै सदा कामचरमनुपस्तीर्णशायिनम्।
बाहूपधानं शाम्यन्तं प्रशंसन्ति दिवौकसः ॥ १३ ॥

मूलम्

तं वै सदा कामचरमनुपस्तीर्णशायिनम्।
बाहूपधानं शाम्यन्तं प्रशंसन्ति दिवौकसः ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘वह सदा दैव-इच्छाके अनुसार विचरता है। बिना बिछौनेके भूतलपर सोता है। बाँहोंकी ही तकिया लगाता है और सदा शान्तभावसे रहता है। देवतालोग भी उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा करते हैं॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धनवान् क्रोधलोभाभ्यामाविष्टो नष्टचेतनः ।
तिर्यगीक्षः शुष्कमुखः पापको भ्रुकुटीमुखः ॥ १४ ॥

मूलम्

धनवान् क्रोधलोभाभ्यामाविष्टो नष्टचेतनः ।
तिर्यगीक्षः शुष्कमुखः पापको भ्रुकुटीमुखः ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जो धनवान् है, वह क्रोध और लोभके आवेशमें आकर अपनी विचारशक्तिको खो बैठता है, टेढ़ी आँखोंसे देखता है, उसका मुँह सूखा रहता है, भौंहें चढ़ी होती हैं और वह पापमें ही मग्न रहा करता है॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

निर्दशन्नधरोष्ठं च क्रुद्धो दारुणभाषिता।
कस्तमिच्छेत् परिद्रष्टुं दातुमिच्छति चेन्महीम् ॥ १५ ॥

मूलम्

निर्दशन्नधरोष्ठं च क्रुद्धो दारुणभाषिता।
कस्तमिच्छेत् परिद्रष्टुं दातुमिच्छति चेन्महीम् ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘क्रोधके कारण वह ओठ चबाता रहता है और अत्यन्त कठोर वचन बोलता है। ऐसा मनुष्य सारी पृथ्वीका राज्य ही दे देना चाहता हो, तो भी उसकी ओर कौन देखना चाहेगा?॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रिया ह्यभीक्ष्णं संवासो मोहयत्यविचक्षणम्।
सा तस्य चित्तं हरति शारदाभ्रमिवानिलः ॥ १६ ॥

मूलम्

श्रिया ह्यभीक्ष्णं संवासो मोहयत्यविचक्षणम्।
सा तस्य चित्तं हरति शारदाभ्रमिवानिलः ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘सदा धन-सम्पत्तिका सहवास मूर्ख मनुष्यके चित्तको लुभाकर उसे मोहमें ही डाले रहता है। जैसे वायु शरद्-ऋतुके बादलोंको उड़ा ले जाती है, उसी प्रकार वह सम्पत्ति मनुष्यके मनको हर लेती है॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथैनं रूपमानश्च धनमानश्च विन्दति।
अभिजातोऽस्मि सिद्धोऽस्मि नास्मि केवलमानुषः ॥ १७ ॥

मूलम्

अथैनं रूपमानश्च धनमानश्च विन्दति।
अभिजातोऽस्मि सिद्धोऽस्मि नास्मि केवलमानुषः ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘फिर उसके ऊपर रूपका अहंकार और धनका मद सवार हो जाता है और वह ऐसा मानने लगता है कि मैं बड़ा कुलीन हूँ, सिद्ध हूँ, कोई साधारण मनुष्य नहीं हूँ॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्येभिः कारणैस्तस्य त्रिभिश्चित्तं प्रमाद्यति।
सम्प्रसक्तमना भोगान् विसृज्य पितृसंचितान्।
परिक्षीणः परस्वानामादानं साधु मन्यते ॥ १८ ॥

मूलम्

इत्येभिः कारणैस्तस्य त्रिभिश्चित्तं प्रमाद्यति।
सम्प्रसक्तमना भोगान् विसृज्य पितृसंचितान्।
परिक्षीणः परस्वानामादानं साधु मन्यते ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘रूप, धन और कुल—इन तीनोंके अभिमानके कारण उसके चित्तमें प्रमाद भर जाता है। वह भोगोंमें आसक्त होकर बाप-दादोंके जोड़े हुए पैसोंको खो बैठता है; और दरिद्र होकर दूसरोंके धनको हड़प लाना अच्छा मानने लगता है॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तमतिक्रान्तमर्यादमाददानं ततस्ततः ।
प्रतिषेधन्ति राजानो लुब्धा मृगमिवेषुभिः ॥ १९ ॥

मूलम्

तमतिक्रान्तमर्यादमाददानं ततस्ततः ।
प्रतिषेधन्ति राजानो लुब्धा मृगमिवेषुभिः ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘इस तरह मर्यादाका उल्लंघन करके जब वह इधर-उधरसे लूट-खसोटकर धन ले आता है, तब राजा उसे उसी प्रकार कठोर दण्ड देकर रोकते हैं। जैसे व्याध बाणोंसे मारकर मृगोंकी गति रोक देते हैं॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमेतानि दुःखानि तानि तानीह मानवम्।
विविधान्युपपद्यन्ते गात्रसंस्पर्शजान्यपि ॥ २० ॥

मूलम्

एवमेतानि दुःखानि तानि तानीह मानवम्।
विविधान्युपपद्यन्ते गात्रसंस्पर्शजान्यपि ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘इस प्रकार मनको तप्त करनेवाले और शरीरके स्पर्शसे होनेवाले ये नाना प्रकारके दुःख मनुष्यको प्राप्त होते हैं॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेषां परमदुःखानां बुद्ध्या भैषज्यमाचरेत्।
लोकधर्ममवज्ञाय ध्रुवाणामध्रुवैः सह ॥ २१ ॥

मूलम्

तेषां परमदुःखानां बुद्ध्या भैषज्यमाचरेत्।
लोकधर्ममवज्ञाय ध्रुवाणामध्रुवैः सह ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘अतः अनित्य शरीरोंके साथ सदैव लगे रहनेवाले पुत्रैषणा आदि लोकधर्मोंकी अवहेलना करके अवश्य प्राप्त होनेवाले पूर्वोक्त महान् दुःखोंकी विचारपूर्वक चिकित्सा करनी चाहिये॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नात्यक्त्वा सुखमाप्नोति नात्यक्त्वा विन्दते परम्।
नात्यक्त्वा चाभयः शेते त्यक्त्वा सर्वं सुखी भव ॥ २२ ॥

मूलम्

नात्यक्त्वा सुखमाप्नोति नात्यक्त्वा विन्दते परम्।
नात्यक्त्वा चाभयः शेते त्यक्त्वा सर्वं सुखी भव ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘कोई मनुष्य त्याग किये बिना सुख नहीं पाता, त्याग किये बिना परमात्माको नहीं पा सकता और त्याग किये बिना निर्भय सो नहीं सकता। इसलिये तुम भी सब कुछ त्यागकर सुखी हो जाओ’॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्येतद्धास्तिनपुरे ब्राह्मणेनोपवर्णितम् ।
शम्पाकेन पुरा मह्यं तस्मात् त्यागः परो मतः ॥ २३ ॥

मूलम्

इत्येतद्धास्तिनपुरे ब्राह्मणेनोपवर्णितम् ।
शम्पाकेन पुरा मह्यं तस्मात् त्यागः परो मतः ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार पूर्वकालमें शम्पाक नामक ब्राह्मणने हस्तिनापुरमें मुझसे त्यागकी महिमाका वर्णन किया था। अतः त्याग ही सबसे श्रेष्ठ माना गया है॥२३॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि शम्पाकगीतायां षट्‌सप्तत्यधिकशततमोऽध्यायः ॥ १७६ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें शम्पाकगीताविषयक एक सौ छिहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१७६॥