भागसूचना
(मोक्षधर्मपर्व)
चतुःसप्तत्यधिकशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
शोकाकुल चित्तकी शान्तिके लिये राजा सेनजित् और ब्राह्मणके संवादका वर्णन
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
धर्माः पितामहेनोक्ता राजधर्माश्रिताः शुभाः।
धर्ममाश्रमिणां श्रेष्ठं वक्तुमर्हसि पार्थिव ॥ १ ॥
मूलम्
धर्माः पितामहेनोक्ता राजधर्माश्रिताः शुभाः।
धर्ममाश्रमिणां श्रेष्ठं वक्तुमर्हसि पार्थिव ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजा युधिष्ठिरने कहा— पितामह! यहाँ तक आपने राजधर्मसम्बन्धी श्रेष्ठ धर्मोंका उपदेश दिया। पृथ्वीनाथ! अब आप आश्रमियोंके उत्तम धर्मका वर्णन कीजिये॥१॥
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वत्र विहितो धर्मः स्वर्ग्यः सत्यफलं तपः।
बहुद्वारस्य धर्मस्य नेहास्ति विफला क्रिया ॥ २ ॥
मूलम्
सर्वत्र विहितो धर्मः स्वर्ग्यः सत्यफलं तपः।
बहुद्वारस्य धर्मस्य नेहास्ति विफला क्रिया ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजी बोले— युधिष्ठिर! वेदोंमें सर्वत्र सभी आश्रमोंके लिये स्वर्गसाधक यथार्थ फलकी प्राप्ति करानेवाली तपस्याका उल्लेख है। धर्मके बहुत-से द्वार हैं। संसारमें कोई ऐसी क्रिया नहीं है, जिसका कोई फल न हो॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यस्मिन् यस्मिंस्तु विषये यो यो याति विनिश्चयम्।
स तमेवाभिजानाति नान्यं भरतसत्तम ॥ ३ ॥
मूलम्
यस्मिन् यस्मिंस्तु विषये यो यो याति विनिश्चयम्।
स तमेवाभिजानाति नान्यं भरतसत्तम ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतश्रेष्ठ! जो-जो पुरुष जिस-जिस विषयमें पूर्ण निश्चयको पहुँच जाता है (जिसके द्वारा उसे अभीष्ट सिद्धिका विश्वास हो जाता है), उसीको वह कर्तव्य समझता है। दूसरे विषयको नहीं॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथा यथा च पर्येति लोकतन्त्रमसारवत्।
तथा तथा विरागोऽत्र जायते नात्र संशयः ॥ ४ ॥
मूलम्
यथा यथा च पर्येति लोकतन्त्रमसारवत्।
तथा तथा विरागोऽत्र जायते नात्र संशयः ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मनुष्य जैसे-जैसे संसारके पदार्थोंको सारहीन समझता है, वैसे ही वैसे इनमें उसका वैराग्य होता जाता है, इसमें संशय नहीं है॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं व्यवसिते लोके बहुदोषे युधिष्ठिर।
आत्ममोक्षनिमित्तं वै यतेत मतिमान् नरः ॥ ५ ॥
मूलम्
एवं व्यवसिते लोके बहुदोषे युधिष्ठिर।
आत्ममोक्षनिमित्तं वै यतेत मतिमान् नरः ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिर! इस प्रकार यह जगत् अनेक दोषोंसे परिपूर्ण है, ऐसा निश्चय करके बुद्धिमान् पुरुष अपने मोक्षके लिये प्रयत्न करे॥५॥
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
नष्टे धने वा दारे वा पुत्रे पितरि वा मृते।
यया बुद्ध्या नुदेच्छोकं तन्मे ब्रूहि पितामह ॥ ६ ॥
मूलम्
नष्टे धने वा दारे वा पुत्रे पितरि वा मृते।
यया बुद्ध्या नुदेच्छोकं तन्मे ब्रूहि पितामह ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिरने पूछा— दादाजी! धनके नष्ट हो जानेपर अथवा स्त्री, पुत्र या पिताके मर जानेपर किस बुद्धिसे मनुष्य अपने शोकका निवारण करे? यह मुझे बताइये॥६॥
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
नष्टे धने वा दारे वा पुत्रे पितरि वा मृते।
अहो दुःखमिति ध्यायन् शोकस्यापचितिं चरेत् ॥ ७ ॥
मूलम्
नष्टे धने वा दारे वा पुत्रे पितरि वा मृते।
अहो दुःखमिति ध्यायन् शोकस्यापचितिं चरेत् ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजीने कहा— वत्स! जब धन नष्ट हो जाय अथवा स्त्री, पुत्र या पिताकी मृत्यु हो जाय, तब ‘ओह! संसार कैसा दुःखमय है’ यह सोचकर मनुष्य शोकको दूर करनेवाले शम-दम आदि साधनोंका अनुष्ठान करे॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् ।
यथा सेनजितं विप्रः कश्चिदेत्याब्रवीत् सुहृत् ॥ ८ ॥
मूलम्
अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् ।
यथा सेनजितं विप्रः कश्चिदेत्याब्रवीत् सुहृत् ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस विषयमें किसी हितैषी ब्राह्मणने राजा सेनजित्के पास आकर उन्हें जैसा उपदेश दिया था, उसी प्राचीन इतिहासको विज्ञ पुरुष दृष्टान्तके रूपमें प्रस्तुत किया करते हैं॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुत्रशोकाभिसंतप्तं राजानं शोकविह्वलम् ।
विषण्णमनसं दृष्ट्वा विप्रो वचनमब्रवीत् ॥ ९ ॥
मूलम्
पुत्रशोकाभिसंतप्तं राजानं शोकविह्वलम् ।
विषण्णमनसं दृष्ट्वा विप्रो वचनमब्रवीत् ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजा सेनजित्के पुत्रकी मृत्यु हो गयी थी। वे उसीके शोककी आगसे जल रहे थे। उनका मन विषादमें डूबा हुआ था। उन शोकविह्वल नरेशको देखकर ब्राह्मणने इस प्रकार कहा—॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
किं नु मुह्यसि मूढस्त्वं शोच्यः किमनुशोचसि।
यदा त्वामपि शोचन्तः शोच्या यास्यन्ति तां गतिम् ॥ १० ॥
मूलम्
किं नु मुह्यसि मूढस्त्वं शोच्यः किमनुशोचसि।
यदा त्वामपि शोचन्तः शोच्या यास्यन्ति तां गतिम् ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘राजन्! तुम मूढ मनुष्यकी भाँति क्यों मोहित हो रहे हो? शोकके योग्य तो तुम स्वयं ही हो, फिर दूसरोंके लिये क्यों शोक करते हो? अजी! एक दिन ऐसा आयेगा, जब कि दूसरे शोचनीय मनुष्य तुम्हारे लिये भी शोक करते हुए उसी गतिको प्राप्त होंगे॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वं चैवाहं च ये चान्ये त्वामुपासन्ति पार्थिव।
सर्वे तत्र गमिष्यामो यत एवागता वयम् ॥ ११ ॥
मूलम्
त्वं चैवाहं च ये चान्ये त्वामुपासन्ति पार्थिव।
सर्वे तत्र गमिष्यामो यत एवागता वयम् ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘पृथ्वीनाथ! तुम, मैं और ये दूसरे लोग जो इस समय तुम्हारे पास बैठे हैं; सब वहीं जायँगे, जहाँसे हम आये हैं’॥११॥
मूलम् (वचनम्)
सेनजिदुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
का बुद्धिः किं तपो विप्र कः समाधिस्तपोधन।
किं ज्ञानं किं श्रुतं चैव यत् प्राप्य न विषीदसि॥१२॥
मूलम्
का बुद्धिः किं तपो विप्र कः समाधिस्तपोधन।
किं ज्ञानं किं श्रुतं चैव यत् प्राप्य न विषीदसि॥१२॥
अनुवाद (हिन्दी)
सेनजित्ने पूछा— तपस्याके धनी ब्राह्मणदेव! आपके पास ऐसी कौन-सी बुद्धि, कौन तप, कौन समाधि, कैसा ज्ञान और कौन-सा शास्त्र है, जिसे पाकर आपको किसी प्रकारका विषाद नहीं है॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
(हृष्यन्तमवसीदन्तं सुखदुःखविपर्यये ।
आत्मानमनुशोचामि ममैष हृदि संस्थितः॥)
मूलम्
(हृष्यन्तमवसीदन्तं सुखदुःखविपर्यये ।
आत्मानमनुशोचामि ममैष हृदि संस्थितः॥)
अनुवाद (हिन्दी)
सुख और दुःखका चक्र घूमता रहता है। मैं सुखमें हर्षसे फूल उठता हूँ और दुःखमें खिन्न हो जाता हूँ। ऐसी अवस्थामें पड़े हुए अपने-आपके लिये मुझे निरन्तर शोक होता है। यह शोक मेरे हृदयमें डेरा डाले बैठा है॥
मूलम् (वचनम्)
ब्राह्मण उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
पश्य भूतानि दुःखेन व्यतिषिक्तानि सर्वशः।
उत्तमाधममध्यानि तेषु तेष्विह कर्मसु ॥ १३ ॥
मूलम्
पश्य भूतानि दुःखेन व्यतिषिक्तानि सर्वशः।
उत्तमाधममध्यानि तेषु तेष्विह कर्मसु ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्राह्मणने कहा— राजन्! देखो, इस संसारमें उत्तम, मध्यम और अधम सभी प्राणी भिन्न-भिन्न कर्मोंमें आसक्त हो दुःखसे ग्रस्त हो रहे हैं॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
(अहमेको न मे कश्चिन्नाहमन्यस्य कस्यचित्।
न तं पश्यामि यस्याहं तं न पश्यामि यो मम॥)
मूलम्
(अहमेको न मे कश्चिन्नाहमन्यस्य कस्यचित्।
न तं पश्यामि यस्याहं तं न पश्यामि यो मम॥)
अनुवाद (हिन्दी)
मैं तो अकेला हूँ। न तो दूसरा कोई मेरा है और न मैं किसी दूसरेका हूँ। मैं उस पुरुषको नहीं देखता, जिसका मैं होऊँ तथा उसको भी नहीं देखता, जो मेरा हो (न मुझपर किसीकी ममता है, न मेरा ही किसीपर ममत्व)॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आत्मापि चायं न मम सर्वा वा पृथिवी मम।
यथा मम तथाऽन्येषामिति चिन्त्य न मे व्यथा।
एतां बुद्धिमहं प्राप्य न प्रहृष्ये न च व्यथे॥१४॥
मूलम्
आत्मापि चायं न मम सर्वा वा पृथिवी मम।
यथा मम तथाऽन्येषामिति चिन्त्य न मे व्यथा।
एतां बुद्धिमहं प्राप्य न प्रहृष्ये न च व्यथे॥१४॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह शरीर भी मेरा नहीं अथवा सारी पृथ्वी भी मेरी नहीं है। ये सब वस्तुएँ जैसी मेरी हैं, वैसी ही दूसरोंकी भी हैं। ऐसा सोचकर इनके लिये मेरे मनमें कोई व्यथा नहीं होती। इसी बुद्धिको पाकर न मुझे हर्ष होता है, न शोक॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथा काष्ठं च काष्ठं च समेयातां महोदधौ।
समेत्य च व्यपेयातां तद्वद्भूतसमागमः ॥ १५ ॥
मूलम्
यथा काष्ठं च काष्ठं च समेयातां महोदधौ।
समेत्य च व्यपेयातां तद्वद्भूतसमागमः ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिस प्रकार समुद्रमें बहते हुए दो काष्ठ कभी-कभी एक-दूसरेसे मिल जाते हैं और मिलकर फिर अलग हो जाते हैं, उसी प्रकार इस लोकमें प्राणियोंका समागम होता है॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं पुत्राश्च पौत्राश्च ज्ञातयो बान्धवास्तथा।
तेषां स्नेहो न कर्तव्यो विप्रयोगो ध्रुवो हि तैः॥१६॥
मूलम्
एवं पुत्राश्च पौत्राश्च ज्ञातयो बान्धवास्तथा।
तेषां स्नेहो न कर्तव्यो विप्रयोगो ध्रुवो हि तैः॥१६॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसी तरह पुत्र, पौत्र, जाति-बान्धव और सम्बन्धी भी मिल जाते हैं। उनके प्रति कभी आसक्ति नहीं बढ़ानी चाहिये; क्योंकि एक दिन उनसे बिछोह होना निश्चित है॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अदर्शनादापतितः पुनश्चादर्शनं गतः ।
न त्वासौ वेद न त्वं तं कः सन् किमनुशोचसि॥१७॥
मूलम्
अदर्शनादापतितः पुनश्चादर्शनं गतः ।
न त्वासौ वेद न त्वं तं कः सन् किमनुशोचसि॥१७॥
अनुवाद (हिन्दी)
तुम्हारा पुत्र किसी अज्ञात स्थितिसे आया था और अब अज्ञात स्थितिमें ही चला गया है। न तो वह तुम्हें जानता था और न तुम उसे जानते थे; फिर तुम उसके कौन होकर किसलिये शोक करते हो?॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तृष्णार्तिप्रभवं दुःखं दुःखार्तिप्रभवं सुखम्।
सुखात् संजायते दुःखं दुःखमेवं पुनःपुनः ॥ १८ ॥
मूलम्
तृष्णार्तिप्रभवं दुःखं दुःखार्तिप्रभवं सुखम्।
सुखात् संजायते दुःखं दुःखमेवं पुनःपुनः ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
संसारमें विषयोंकी तृष्णासे जो व्याकुलता होती है, उसीका नाम दुःख है और उस दुःखका विनाश ही सुख है। उस सुखके बाद (पुनः कामनाजनित) दुःख होता है। इस प्रकार बारंबार दुःख ही होता रहता है॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुखस्यानन्तरं दुःखं दुःखस्यानन्तरं सुखम्।
सुखदुःखे मनुष्याणां चक्रवत् परिवर्ततः ॥ १९ ॥
मूलम्
सुखस्यानन्तरं दुःखं दुःखस्यानन्तरं सुखम्।
सुखदुःखे मनुष्याणां चक्रवत् परिवर्ततः ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सुखके बाद दुःख और दुःखके बाद सुख आता है। मनुष्योंके सुख और दुःख चक्रकी भाँति घूमते रहते हैं॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुखात् त्वं दुःखमापन्नः पुनरापत्स्यसे सुखम्।
न नित्यं लभते दुःखं न नित्यं लभते सुखम्॥२०॥
मूलम्
सुखात् त्वं दुःखमापन्नः पुनरापत्स्यसे सुखम्।
न नित्यं लभते दुःखं न नित्यं लभते सुखम्॥२०॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस समय तुम सुखसे दुःखमें आ पड़े हो। अब फिर तुम्हें सुखकी प्राप्ति होगी। यहाँ किसी भी प्राणीको न तो सदा सुख ही प्राप्त होता है और न सदा दुःख ही॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शरीरमेवायतनं सुखस्य
दुःखस्य चाप्यायतनं शरीरम् ।
यद्यच्छरीरेण करोति कर्म
तेनैव देही समुपाश्नुते तत् ॥ २१ ॥
मूलम्
शरीरमेवायतनं सुखस्य
दुःखस्य चाप्यायतनं शरीरम् ।
यद्यच्छरीरेण करोति कर्म
तेनैव देही समुपाश्नुते तत् ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह शरीर ही सुखका आधार है और यही दुःखका भी आधार है। देहाभिमानी पुरुष शरीरसे जो-जो कर्म करता है, उसीके अनुसार वह सुख एवं दुःखरूप फल भोगता है॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जीवितं च शरीरेण जात्यैव सह जायते।
उभे सह विवर्तेते उभे सह विनश्यतः ॥ २२ ॥
मूलम्
जीवितं च शरीरेण जात्यैव सह जायते।
उभे सह विवर्तेते उभे सह विनश्यतः ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह जीवन स्वभावतः शरीरके साथ ही उत्पन्न होता है। दोनों साथ-साथ विविध रूपोंमें रहते हैं और साथ ही साथ नष्ट हो जाते हैं॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्नेहपाशैर्बहुविधैराविष्टविषया जनाः ।
अकृतार्थाश्च सीदन्ते जलैः सैकतसेतवः ॥ २३ ॥
मूलम्
स्नेहपाशैर्बहुविधैराविष्टविषया जनाः ।
अकृतार्थाश्च सीदन्ते जलैः सैकतसेतवः ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मनुष्य नाना प्रकारके स्नेह-बन्धनोंमें बँधे हुए हैं, अतः वे सदा विषयोंकी आसक्तिसे घिरे रहते हैं; इसीलिये जैसे बालूद्वारा बनाये हुए पुल जलके वेगसे बह जाते हैं, उसी प्रकार उन मनुष्योंकी विषयकामना सफल नहीं होती; जिससे वे दुःख पाते रहते हैं॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्नेहेन तिलवत् सर्वं सर्गचक्रे निपीड्यते।
तिलपीडैरिवाक्रम्य क्लेशैरज्ञानसम्भवैः ॥ २४ ॥
मूलम्
स्नेहेन तिलवत् सर्वं सर्गचक्रे निपीड्यते।
तिलपीडैरिवाक्रम्य क्लेशैरज्ञानसम्भवैः ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तेलीलोग तेलके लिये जैसे तिलोंको कोल्हूमें पेरते हैं, उसी प्रकार स्नेहके कारण सब लोग अज्ञानजनित क्लेशोंद्वारा सृष्टिचक्रमें पिस रहे हैं॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
संचिनोत्यशुभं कर्म कलत्रापेक्षया नरः।
एकः क्लेशानवाप्नोति परत्रेह च मानवः ॥ २५ ॥
मूलम्
संचिनोत्यशुभं कर्म कलत्रापेक्षया नरः।
एकः क्लेशानवाप्नोति परत्रेह च मानवः ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मनुष्य स्त्री-पुत्र आदि कुटुम्बके लिये चोरी आदि पाप कर्मोंका संग्रह करता है; किंतु इस लोक और परलोकमें उसे अकेले ही उन समस्त कर्मोंका क्लेशमय फल भोगना पड़ता है॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुत्रदारकुटुम्बेषु प्रसक्ताः सर्वमानवाः ।
शोकपङ्कार्णवे मरना जीर्णा वनगजा इव ॥ २६ ॥
मूलम्
पुत्रदारकुटुम्बेषु प्रसक्ताः सर्वमानवाः ।
शोकपङ्कार्णवे मरना जीर्णा वनगजा इव ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
स्त्री, पुत्र और कुटुम्बमें आसक्त हुए सभी मनुष्य उसी प्रकार शोकके समुद्रमें डूब जाते हैं जैसे बूढ़े जंगली हाथी दलदलमें फँसकर नष्ट हो जाते हैं॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुत्रनाशे वित्तनाशे ज्ञातिसम्बन्धिनामपि ।
प्राप्यते सुमहद् दुखं दावाग्निप्रतिमं विभो।
दैवायत्तमिदं सर्वं सुखदुःखे भवाभवौ ॥ २७ ॥
मूलम्
पुत्रनाशे वित्तनाशे ज्ञातिसम्बन्धिनामपि ।
प्राप्यते सुमहद् दुखं दावाग्निप्रतिमं विभो।
दैवायत्तमिदं सर्वं सुखदुःखे भवाभवौ ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रभो! यहाँ सब लोगोंको पुत्र, धन, कुटुम्बी तथा सम्बन्धियोंका नाश होनेपर दावानलके समान दाह उत्पन्न करनेवाला महान् दुःख प्राप्त होता है; परंतु सुख-दुःख और जन्म-मृत्यु आदि यह सब कुछ प्रारब्धके ही अधीन है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
असुहृत् ससुहृच्चापि सशत्रुर्मित्रवानपि ।
सप्रज्ञः प्रज्ञया हीनो दैवेन लभते सुखम् ॥ २८ ॥
मूलम्
असुहृत् ससुहृच्चापि सशत्रुर्मित्रवानपि ।
सप्रज्ञः प्रज्ञया हीनो दैवेन लभते सुखम् ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मनुष्य हितैषी सुहृदोंसे युक्त हो या न हो, वह शत्रुके साथ हो या मित्रके, बुद्धिमान् हो या बुद्धिहीन, दैवकी अनुकूलता होनेपर ही सुख पाता है॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नालं सुखाय सुहृदो नालं दुःखाय शत्रवः।
न च प्रज्ञालमर्थानां न सुखानामलं धनम् ॥ २९ ॥
मूलम्
नालं सुखाय सुहृदो नालं दुःखाय शत्रवः।
न च प्रज्ञालमर्थानां न सुखानामलं धनम् ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अन्यथा न तो सुहृद् सुख देनेमें समर्थ हैं, न शत्रु दुःख देनेमें समर्थ हैं, न तो बुद्धि धन देनेकी शक्ति रखती है और न धन ही सुख देनेमें समर्थ होता है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न बुद्धिर्धनलाभाय न जाड्यबमसमृद्धये।
लोकपर्यायवृत्तान्तं प्राज्ञो जानाति नेतरः ॥ ३० ॥
मूलम्
न बुद्धिर्धनलाभाय न जाड्यबमसमृद्धये।
लोकपर्यायवृत्तान्तं प्राज्ञो जानाति नेतरः ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
न तो बुद्धि धनकी प्राप्तिमें कारण है, न मूर्खता निर्धनतामें, वास्तवमें संसारचक्रकी गतिका वृत्तान्त कोई ज्ञानी पुरुष ही जान पाता है, दूसरा नहीं॥३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बुद्धिमन्तं च शूरं च मूढं भीरुं जडं कविम्।
दुर्बलं बलवन्तं च भागिनं भजते सुखम् ॥ ३१ ॥
मूलम्
बुद्धिमन्तं च शूरं च मूढं भीरुं जडं कविम्।
दुर्बलं बलवन्तं च भागिनं भजते सुखम् ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
बुद्धिमान्, शूरवीर, मूढ़, डरपोक, गूँगा, विद्वान्, दुर्बल और बलवान् जो भी भाग्यवान् होगा—दैव जिसके अनुकूल होगा, उसे बिना यत्नके ही सुख प्राप्त होगा॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
धेनुर्वत्सस्य गोपस्य स्वामिनस्तस्करस्य च।
पयः पिबति यस्तस्या धेनुस्तस्येति निश्चयः ॥ ३२ ॥
मूलम्
धेनुर्वत्सस्य गोपस्य स्वामिनस्तस्करस्य च।
पयः पिबति यस्तस्या धेनुस्तस्येति निश्चयः ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
दूध देनेवाली गौ बछड़ेकी है या उसे दुहने अथवा चरानेवाले ग्वालेकी है; या रखनेवाले मालिककी है। अथवा उसे चुराकर ले जानेवाले चोरकी है? वास्तवमें जो उसका दूध पीता है, उसीकी वह गाय है—ऐसा विद्वानोंका निश्चय है॥३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ये च मूढतमा लोके ये च बुद्धेः परं गताः।
ते नराः सुखमेधन्ते क्लिश्यत्यन्तरितो जनः ॥ ३३ ॥
मूलम्
ये च मूढतमा लोके ये च बुद्धेः परं गताः।
ते नराः सुखमेधन्ते क्लिश्यत्यन्तरितो जनः ॥ ३३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस संसारमें जो अत्यन्त मूढ़ हैं और जो बुद्धिसे परे पहुँच गये हैं, वे ही मनुष्य सुखी हैं। बीचके सभी लोग कष्ट भोगते हैं॥३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अन्त्येषु रेमिरे धीरा न ते मध्येषु रेमिरे।
अन्त्यप्राप्तिं सुखामाहुर्दुःखमन्तरमन्त्ययोः ॥ ३४ ॥
मूलम्
अन्त्येषु रेमिरे धीरा न ते मध्येषु रेमिरे।
अन्त्यप्राप्तिं सुखामाहुर्दुःखमन्तरमन्त्ययोः ॥ ३४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ज्ञानी पुरुष अन्तिम स्थितियोंमें रमण करते हैं, मध्यवर्ती स्थितिमें नहीं। अन्तिम स्थितिकी प्राप्ति सुखस्वरूप बतायी जाती है और उन दोनोंके मध्यकी स्थिति दुःखरूप कही गयी है॥३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
(सुखं स्वपिति दुर्मेधाः स्वानि कर्माण्यचिन्तयन्।
अविज्ञानेन महता कम्बलेनेव संवृतः॥)
मूलम्
(सुखं स्वपिति दुर्मेधाः स्वानि कर्माण्यचिन्तयन्।
अविज्ञानेन महता कम्बलेनेव संवृतः॥)
अनुवाद (हिन्दी)
खोटी बुद्धिवाला मूर्ख मनुष्य अपने कर्मोंके शुभाशुभ परिणामकी कोई परवा न करके सुखसे सोता है; क्योंकि वह कम्बलसे ढके हुए पुरुषकी भाँति महान् अज्ञानसे आवृत रहता है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ये च बुद्धिसुखं प्राप्ता द्वन्द्वातीता विमत्सराः।
तान् नैवार्था न चानर्था व्यथयन्ति कदाचन ॥ ३५ ॥
मूलम्
ये च बुद्धिसुखं प्राप्ता द्वन्द्वातीता विमत्सराः।
तान् नैवार्था न चानर्था व्यथयन्ति कदाचन ॥ ३५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
किंतु जिन्हें ज्ञानजनित सुख प्राप्त है, जो द्वन्द्वोंसे अतीत हैं तथा जिनमें मत्सरताका भी अभाव है, उन्हें अर्थ और अनर्थ कभी पीड़ा नहीं देते हैं॥३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथ ये बुद्धिमप्राप्ता व्यतिक्रान्ताश्च मूढताम्।
तेऽतिवेलं प्रहृष्यन्ति संतापमुपयान्ति च ॥ ३६ ॥
मूलम्
अथ ये बुद्धिमप्राप्ता व्यतिक्रान्ताश्च मूढताम्।
तेऽतिवेलं प्रहृष्यन्ति संतापमुपयान्ति च ॥ ३६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो मूढताको तो लाँघ चुके हैं, परंतु जिनको ज्ञान प्राप्त नहीं हुआ है, वे सुखकी परिस्थिति आनेपर अत्यन्त हर्षसे फूल उठते हैं और दुःखकी परिस्थितिमें अतिशय संतापका अनुभव करने लगते हैं॥३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नित्यं प्रमुदिता मूढा दिवि देवगणा इव।
अवलेपेन महता परिभूत्या विचेतसः ॥ ३७ ॥
मूलम्
नित्यं प्रमुदिता मूढा दिवि देवगणा इव।
अवलेपेन महता परिभूत्या विचेतसः ॥ ३७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मूर्ख मनुष्य स्वर्गमें देवताओंकी भाँति सदा विषयसुखमें मग्न रहते हैं; क्योंकि उनका चित्त विषया-सक्तिके कीचड़में लथपथ होकर मोहित हो जाता है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुखं दुःखान्तमालस्यं दुःखं दाक्ष्यं सुखोदयम्।
भूतिस्त्वेवं श्रिया सार्धं दक्षे वसति नालसे ॥ ३८ ॥
मूलम्
सुखं दुःखान्तमालस्यं दुःखं दाक्ष्यं सुखोदयम्।
भूतिस्त्वेवं श्रिया सार्धं दक्षे वसति नालसे ॥ ३८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आरम्भमें आलस्य सुख-सा जान पड़ता है; परंतु वह अन्तमें दुःखदायी होता है और कार्यकौशल दुःख-सा लगता है; परंतु वह सुखका उत्पादक है। कार्यकुशल पुरुषमें ही लक्ष्मीसहित ऐश्वर्य निवास करता है, आलसीमें नहीं॥३८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुखं वा यदि वा दुःखं प्रियं वा यदि वाप्रियम्।
प्राप्तं प्राप्तमुपासीत हृदयेनापराजितः ॥ ३९ ॥
मूलम्
सुखं वा यदि वा दुःखं प्रियं वा यदि वाप्रियम्।
प्राप्तं प्राप्तमुपासीत हृदयेनापराजितः ॥ ३९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अतः बुद्धिमान् पुरुषको चाहिये कि सुख या दुःख, प्रिय अथवा अप्रिय, जो-जो प्राप्त हो जाय, उसका हृदयसे स्वागत करे, कभी हिम्मत न हारे॥३९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शोकस्थानसहस्राणि भयस्थानशतानि च ।
दिवसे दिवसे मूढमाविशन्ति न पण्डितम् ॥ ४० ॥
मूलम्
शोकस्थानसहस्राणि भयस्थानशतानि च ।
दिवसे दिवसे मूढमाविशन्ति न पण्डितम् ॥ ४० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शोकके हजारों स्थान हैं और भयके सैकड़ों स्थान हैं; किंतु वे प्रतिदिन मूर्खोंपर ही प्रभाव डालते हैं, विद्वानोंपर नहीं॥४०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बुद्धिमन्तं कृतप्रज्ञं शुश्रूषुमनसूयकम् ।
दान्तं जितेन्द्रियं चापि शोको न स्पृशते नरम् ॥ ४१ ॥
मूलम्
बुद्धिमन्तं कृतप्रज्ञं शुश्रूषुमनसूयकम् ।
दान्तं जितेन्द्रियं चापि शोको न स्पृशते नरम् ॥ ४१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो बुद्धिमान्, ऊहापोहमें कुशल एवं शिक्षित बुद्धिवाला, अध्यात्मशास्त्रके श्रवणकी इच्छा रखनेवाला, किसीके दोष न देखनेवाला, मनको वशमें रखनेवाला और जितेन्द्रिय है, उस मनुष्यको शोक कभी छू भी नहीं सकता॥४१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतां बुद्धिं समास्थाय गुप्तचित्तश्चरेद् बुधः।
उदयास्तमयज्ञं हि न शोकः स्प्रष्टुमर्हति ॥ ४२ ॥
मूलम्
एतां बुद्धिं समास्थाय गुप्तचित्तश्चरेद् बुधः।
उदयास्तमयज्ञं हि न शोकः स्प्रष्टुमर्हति ॥ ४२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
विद्वान् पुरुषको चाहिये कि वह इसी विचारका आश्रय लेकर मनको काम, क्रोध आदि शत्रुओंसे सुरक्षित रखते हुए उत्तम बर्ताव करे। जो उत्पत्ति और विनाशके तत्त्वको जानता है, उसे शोक छू नहीं सकता॥४२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यन्निमित्तं भवेच्छोकस्तापो वा दुःखमेव च।
आयासो वा यतो मूलमेकाङ्गमपि तत् त्यजेत् ॥ ४३ ॥
मूलम्
यन्निमित्तं भवेच्छोकस्तापो वा दुःखमेव च।
आयासो वा यतो मूलमेकाङ्गमपि तत् त्यजेत् ॥ ४३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिसके कारण शोक, ताप अथवा दुःख हो, या जिसके कारण अधिक श्रम उठाना पड़े, वह दुःखका मूल कारण अपने शरीरका एक अङ्ग भी हो तो उसे त्याग देना चाहिये॥४३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
किंचिदेव ममत्वेन यदा भवति कल्पितम्।
तदेव परितापार्थं सर्वं सम्पद्यते तथा ॥ ४४ ॥
मूलम्
किंचिदेव ममत्वेन यदा भवति कल्पितम्।
तदेव परितापार्थं सर्वं सम्पद्यते तथा ॥ ४४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मनुष्य जब किसी भी पदार्थमें ममत्व कर लेता है, तब वे ही सब उसके वैसे दुःखके कारण बन जाते हैं॥४४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यद् यत् यजति कामानां तत् सुखस्याभिपूर्यते।
कामानुसारी पुरुषः कामाननुविनश्यति ॥ ४५ ॥
मूलम्
यद् यत् यजति कामानां तत् सुखस्याभिपूर्यते।
कामानुसारी पुरुषः कामाननुविनश्यति ॥ ४५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह कामनाओंमेंसे जिस-जिसका परित्याग कर देता है, वही उसके सुखकी पूर्ति करनेवाली हो जाती है। जो पुरुष कामनाओंका अनुसरण करता है, वह उन्हींके पीछे नष्ट हो जाता है॥४५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यच्च कामसुखं लोके यच्च दिव्यं महत् सुखम्।
तृष्णाक्षयसुखस्यैते नार्हतः षोडशीं कलाम् ॥ ४६ ॥
मूलम्
यच्च कामसुखं लोके यच्च दिव्यं महत् सुखम्।
तृष्णाक्षयसुखस्यैते नार्हतः षोडशीं कलाम् ॥ ४६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
संसारमें जो कुछ इस लोकके भोगोंका सुख है और जो स्वर्गका महान् सुख है, वे दोनों तृष्णाक्षयसे होनेवाले सुखकी सोलहवीं कलाके बराबर भी नहीं हैं॥४६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पूर्वदेहकृतं कर्म शुभं वा यदि वाशुभम्।
प्राज्ञं मूढं तथा शूरं भजते यादृशं कृतम् ॥ ४७ ॥
मूलम्
पूर्वदेहकृतं कर्म शुभं वा यदि वाशुभम्।
प्राज्ञं मूढं तथा शूरं भजते यादृशं कृतम् ॥ ४७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मनुष्य बुद्धिमान् हो, मूर्ख हो अथवा शूरवीर हो, उसने पूर्वजन्ममें जैसा शुभ या अशुभ कर्म किया है, उसका वैसा ही फल उसे भोगना पड़ता है॥४७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमेव किलैतानि प्रियाण्येवाप्रियाणि च।
जीवेषु परिवर्तने दुःखानि च सुखानि च ॥ ४८ ॥
मूलम्
एवमेव किलैतानि प्रियाण्येवाप्रियाणि च।
जीवेषु परिवर्तने दुःखानि च सुखानि च ॥ ४८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार जीवोंको प्रिय-अप्रिय और सुख-दुःखकी प्राप्ति बार-बार क्रमसे होती ही रहती है, इसमें संदेह नहीं है॥४८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतां बुद्धिं समास्थाय सुखमास्ते गुणान्वितः।
सर्वान् कामान् जुगुप्सेत कामान् कुर्वीत पृष्ठतः ॥ ४९ ॥
मूलम्
एतां बुद्धिं समास्थाय सुखमास्ते गुणान्वितः।
सर्वान् कामान् जुगुप्सेत कामान् कुर्वीत पृष्ठतः ॥ ४९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ऐसी बुद्धिका आश्रय लेकर कामनाओंके त्यागरूपी गुणसे युक्त हुआ मनुष्य सुखसे रहता है; इसलिये सब प्रकारके भोगोंसे विरक्त होकर उन्हें पीठ-पीछे कर दे, अर्थात् उनसे विमुख हो जाय॥४९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वृत्त एष हृदि प्रौढो मृत्युरेष मनोभवः।
क्रोधो नाम शरीरस्थो देहिनां प्रोच्यते बुधैः ॥ ५० ॥
मूलम्
वृत्त एष हृदि प्रौढो मृत्युरेष मनोभवः।
क्रोधो नाम शरीरस्थो देहिनां प्रोच्यते बुधैः ॥ ५० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
हृदयसे उत्पन्न होनेवाला यह काम हृदयमें ही पुष्ट होता है, फिर यही मृत्युका रूप धारण कर लेता है। क्योंकि (जब इसकी सिद्धिमें कोई बाधा आती है, तब) विद्वानोंद्वारा यही प्राणियोंके शरीरके भीतर क्रोधके नामसे पुकारा जाता है॥५०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदा संहरते कामान् कूर्मोऽङ्गानीव सर्वशः।
तदाऽऽत्मज्योतिरात्मायमात्मन्येव प्रपश्यति ॥ ५१ ॥
मूलम्
यदा संहरते कामान् कूर्मोऽङ्गानीव सर्वशः।
तदाऽऽत्मज्योतिरात्मायमात्मन्येव प्रपश्यति ॥ ५१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कछुआ जैसे अपने अङ्गोंको सब ओरसे समेट लेता है, उसी प्रकार यह जीव जब अपनी सब कामनाओंका संकोच कर देता है तब यह अपने विशुद्ध अन्तःकरणमें ही स्वयं प्रकाशस्वरूप परमात्माका साक्षात्कार कर लेता है॥५१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न बिभेति यदा चायं यदा चास्मान्न बिभ्यति।
यदा नेच्छति न द्वेष्टि ब्रह्म सम्पद्यते तदा ॥ ५२ ॥
मूलम्
न बिभेति यदा चायं यदा चास्मान्न बिभ्यति।
यदा नेच्छति न द्वेष्टि ब्रह्म सम्पद्यते तदा ॥ ५२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब यह किसीसे भय नहीं मानता और इससे भी किसीको भय नहीं होता; तथा जब यह किसी वस्तुको न तो चाहता है और न उससे द्वेष ही करता है, तब परब्रह्म परमात्माको प्राप्त कर लेता है॥५२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उभे सत्यानृते त्यक्त्वा शोकानन्दौ भयाभये।
प्रियाप्रिये परित्यज्य प्रशान्तात्मा भविष्यति ॥ ५३ ॥
मूलम्
उभे सत्यानृते त्यक्त्वा शोकानन्दौ भयाभये।
प्रियाप्रिये परित्यज्य प्रशान्तात्मा भविष्यति ॥ ५३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब यह साधक सत्य और असत्य अर्थात् जगत्के व्यक्त और अव्यक्त पदार्थोंका, शोक और हर्षका, भय और अभयका तथा प्रिय और अप्रिय आदि समस्त द्वन्द्वोंका परित्याग कर देता है, तब उसका चित्त शान्त हो जाता है॥५३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदा न कुरुते धीरः सर्वभूतेषु पापकम्।
कर्मणा मनसा वाचा ब्रह्म सम्पद्यते तदा ॥ ५४ ॥
मूलम्
यदा न कुरुते धीरः सर्वभूतेषु पापकम्।
कर्मणा मनसा वाचा ब्रह्म सम्पद्यते तदा ॥ ५४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब धैर्यसम्पन्न ज्ञानवान् पुरुष किसी भी प्राणीके प्रति मन, वाणी और क्रियाद्वारा पापपूर्ण बर्ताव नहीं करता, तब परब्रह्म परमात्माको प्राप्त कर लेता है॥५४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
या दुस्त्यजा दुर्मतिभिर्या न जीर्यति जीर्यतः।
योऽसौ प्राणान्तिको रोगस्तां तृष्णां त्यजतः सुखम् ॥ ५५ ॥
मूलम्
या दुस्त्यजा दुर्मतिभिर्या न जीर्यति जीर्यतः।
योऽसौ प्राणान्तिको रोगस्तां तृष्णां त्यजतः सुखम् ॥ ५५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
खोटी बुद्धिवाले मनुष्योंके लिये जिसका त्याग करना कठिन है, जो मनुष्यके जीर्ण (वृद्ध) हो जानेपर भी स्वयं कभी जीर्ण नहीं होती, तथा जो प्राणोंके साथ जानेवाला रोग बनकर रहती है, उस तृष्णाको जो त्याग देता है, उसीको सुख मिलता है॥५५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अत्र पिङ्गलया गीता गाथाः श्रूयन्ति पार्थिव।
यथा सा कृच्छ्रकालेऽपि लेभे धर्मं सनातनम् ॥ ५६ ॥
मूलम्
अत्र पिङ्गलया गीता गाथाः श्रूयन्ति पार्थिव।
यथा सा कृच्छ्रकालेऽपि लेभे धर्मं सनातनम् ॥ ५६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! इस विषयमें पिङ्गलाकी गायी हुई गाथाएँ सुनी जाती हैं, जिसके अनुसार चलकर संकटकालमें भी उसने सनातन धर्मको प्राप्त कर लिया था॥५६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
संकेते पिङ्गला वेश्या कान्तेनासीद् विनाकृता।
अथ कृच्छ्रगता शान्ता बुद्धिमास्थापयत् तदा ॥ ५७ ॥
मूलम्
संकेते पिङ्गला वेश्या कान्तेनासीद् विनाकृता।
अथ कृच्छ्रगता शान्ता बुद्धिमास्थापयत् तदा ॥ ५७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
एक बार पिङ्गला वेश्या बहुत देरतक संकेत स्थानपर बैठी रही, तब भी उसका प्रियतम उसके पास नहीं आया; इससे वह बड़े कष्टमें पड़ गयी, तथापि शान्त रहकर इस प्रकार विचार करने लगी॥५७॥
मूलम् (वचनम्)
पिङ्गलोवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
उन्मत्ताहमनुन्मत्तं कान्तमन्ववसं चिरम् ।
अन्तिके रमणं सन्तं नैनमध्यगमं पुरा ॥ ५८ ॥
मूलम्
उन्मत्ताहमनुन्मत्तं कान्तमन्ववसं चिरम् ।
अन्तिके रमणं सन्तं नैनमध्यगमं पुरा ॥ ५८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पिङ्गला बोली— मेरे सच्चे प्रियतम चिरकालसे मेरे निकट ही रहते हैं। मैं सदासे उनके साथ ही रहती आयी हूँ। वे कभी उन्मत्त नहीं होते; परंतु मैं ऐसी मतवाली हो गयी थी कि आजसे पहले उन्हें पहचान ही न सकी॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एकस्थूणं नवद्वारमपिधास्याम्यगारकम् ।
का हि कान्तमिहायान्तमयं कान्तेति मंस्यते ॥ ५९ ॥
मूलम्
एकस्थूणं नवद्वारमपिधास्याम्यगारकम् ।
का हि कान्तमिहायान्तमयं कान्तेति मंस्यते ॥ ५९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिसमें एक ही खंभा और नौ दरवाजे हैं, उस शरीर-रूपी घरको आजसे मैं दूसरोंके लिये बंद कर दूँगी। यहाँ आनेवाले उस सच्चे प्रियतमको जानकर भी कौन नारी किसी हाड़-मांसके पुतलेको अपना प्राणवल्लभ मानेगी?॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अकामां कामरूपेण धूर्ता नरकरूपिणः।
न पुनर्वञ्चयिष्यन्ति प्रतिबुद्धास्मि जागृमि ॥ ६० ॥
मूलम्
अकामां कामरूपेण धूर्ता नरकरूपिणः।
न पुनर्वञ्चयिष्यन्ति प्रतिबुद्धास्मि जागृमि ॥ ६० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अब मैं मोहनिद्रासे जग गयी हूँ और निरन्तर सजग हूँ—कामनाओंका भी त्याग कर चुकी हूँ। अतः वे नरकरूपी धूर्त मनुष्य कामका रूप धारण करके अब मुझे धोखा नहीं दे सकेंगे॥६०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनर्थो हि भवेदर्थो दैवात् पूर्वकृतेन वा।
सम्बुद्धाहं निराकारा नाहमद्याजितेन्द्रिया ॥ ६१ ॥
मूलम्
अनर्थो हि भवेदर्थो दैवात् पूर्वकृतेन वा।
सम्बुद्धाहं निराकारा नाहमद्याजितेन्द्रिया ॥ ६१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भाग्यसे अथवा पूर्वकृत शुभ कर्मोंके प्रभावसे कभी-कभी अनर्थ भी अर्थरूप हो जाता है, जिससे आज निराश होकर मैं उत्तम ज्ञानसे सम्पन्न हो गयी हूँ। अब मैं अजितेन्द्रिय नहीं रही हूँ॥६१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुखं निराशः स्वपिति नैराश्यं परमं सुखम्।
आशामनाशां कृत्वा हि सुखं स्वपिति पिङ्गला ॥ ६२ ॥
मूलम्
सुखं निराशः स्वपिति नैराश्यं परमं सुखम्।
आशामनाशां कृत्वा हि सुखं स्वपिति पिङ्गला ॥ ६२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वास्तवमें जिसे किसी प्रकारकी आशा नहीं है, वही सुखसे सोता है। आशाका न होना ही परम सुख है। देखो, आशाको निराशाके रूपमें परिणत करके पिङ्गला सुखकी नींद सोने लगी॥६२॥
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतैश्चान्यैश्च विप्रस्य हेतुमद्भिः प्रभाषितैः।
पर्यवस्थापितो राजा सेनजिन्मुमुदे सुखी ॥ ६३ ॥
मूलम्
एतैश्चान्यैश्च विप्रस्य हेतुमद्भिः प्रभाषितैः।
पर्यवस्थापितो राजा सेनजिन्मुमुदे सुखी ॥ ६३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजी कहते हैं— राजन्! ब्राह्मणके कहे हुए इन पूर्वोक्त तथा अन्य युक्तियुक्त वचनोंसे राजा सेनजित्का चित्त स्थिर हो गया। वे शोक छोड़कर सुखी हो गये और प्रसन्नतापूर्वक रहने लगे॥६३॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि ब्राह्मणसेनजित्संवादकथने चतुःसप्तत्यधिकशततमोऽध्यायः ॥ १७४ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार प्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत मोक्षधर्मपर्वमें ब्राह्मण और सेनजित्के संवादका कथनविषयक एक सौ चौहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१७४॥
सूचना (हिन्दी)
(दाक्षिणात्य अधिक पाठके ३ श्लोक मिलाकर कुल ६६ श्लोक हैं)