१६५ प्रायश्चित्तीये

भागसूचना

पञ्चषष्ट्यधिकशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

नाना प्रकारके पापों और उनके प्रायश्चित्तोंका वर्णन

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

हृतार्थो यक्ष्यमाणश्च सर्ववेदान्तगश्च यः।
आचार्यपितृकार्यार्थं स्वाध्यायार्थमथापि च ॥ १ ॥
एते वै साधवो दृष्टा ब्राह्मणा धर्मभिक्षवः।
निःस्वेभ्यो देयमेतेभ्यो दानं विद्या च भारत ॥ २ ॥

मूलम्

हृतार्थो यक्ष्यमाणश्च सर्ववेदान्तगश्च यः।
आचार्यपितृकार्यार्थं स्वाध्यायार्थमथापि च ॥ १ ॥
एते वै साधवो दृष्टा ब्राह्मणा धर्मभिक्षवः।
निःस्वेभ्यो देयमेतेभ्यो दानं विद्या च भारत ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजी कहते हैं— राजन्! सम्पूर्ण वेदों और उपनिषदोंका पारंगत विद्वान् ब्राह्मण यदि यज्ञ करनेवाला हो तथा उसका धन चोर चुरा ले गये हों तो राजाका कर्तव्य है कि वह उसे आचार्यकी दक्षिणा देने, पितरोंका श्राद्ध करने तथा वेद-शास्त्रोंका स्वाध्याय करनेके लिये धन दे। भरतनन्दन! ये श्रेष्ठ ब्राह्मण प्रायः धर्मके लिये धनकी भिक्षा माँगते देखे गये हैं। इन्हें दान और विद्याध्ययनके लिये धन देना चाहिये॥१-२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अन्यत्र दक्षिणादानं देयं भरतसत्तम।
अन्येभ्योऽपि बहिर्वेदि चाकृतान्नं विधीयते ॥ ३ ॥

मूलम्

अन्यत्र दक्षिणादानं देयं भरतसत्तम।
अन्येभ्योऽपि बहिर्वेदि चाकृतान्नं विधीयते ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतश्रेष्ठ! इससे भिन्न परिस्थितिमें ब्राह्मणको केवल दक्षिणा देनी चाहिये और ब्राह्मणेतर मनुष्योंको भी यज्ञवेदीसे बाहर कच्चा अन्न देनेका विधान है॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वरत्नानि राजा हि यथार्हं प्रतिपादयेत्।
ब्राह्मणा एव वेदाश्च यज्ञाश्च बहुदक्षिणाः।
अन्योन्यं विभवाचारा यजन्ते गुणतः सदा ॥ ४ ॥

मूलम्

सर्वरत्नानि राजा हि यथार्हं प्रतिपादयेत्।
ब्राह्मणा एव वेदाश्च यज्ञाश्च बहुदक्षिणाः।
अन्योन्यं विभवाचारा यजन्ते गुणतः सदा ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजाको चाहिये कि वह ब्राह्मणोंको उनकी योग्यताके अनुसार सब प्रकारके रत्नोंका दान करे; क्योंकि ब्राह्मण ही वेद एवं बहुसंख्यक दक्षिणावाले यज्ञरूप हैं। अपनी सम्पत्तिके अनुसार समस्त कार्योंका आयोजन करनेवाले वे ब्राह्मण सदा आपसमें मिलकर गुणयुक्त यज्ञका अनुष्ठान करते हैं॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यस्य त्रैवार्षिकं भक्तं पर्याप्तं भृत्यवृत्तये।
अधिकं चापि विद्येत स सोमं पातुमर्हति ॥ ५ ॥

मूलम्

यस्य त्रैवार्षिकं भक्तं पर्याप्तं भृत्यवृत्तये।
अधिकं चापि विद्येत स सोमं पातुमर्हति ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिस ब्राह्मणके पास अपने पालनीय कुटुम्बी-जनोंके भरण-पोषणके लिये तीन वर्षतक उपभोगमें आने लायक पर्याप्त धन हो अथवा उससे भी अधिक वैभव विद्यमान हो, वही सोमपानका अधिकारी है—उसे ही सोमयागका अनुष्ठान करना चाहिये॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यज्ञश्चेत् प्रतिरुद्धः स्यादंशेनैकेन यज्वनः।
ब्राह्मणस्य विशेषेण धार्मिके सति राजनि ॥ ६ ॥
यो वैश्यः स्याद् बहुपशुर्हीनक्रतुरसोमपः।
कुटुम्बात् तस्य तद् वित्तं यज्ञार्थं पार्थिवो हरेत् ॥ ७ ॥

मूलम्

यज्ञश्चेत् प्रतिरुद्धः स्यादंशेनैकेन यज्वनः।
ब्राह्मणस्य विशेषेण धार्मिके सति राजनि ॥ ६ ॥
यो वैश्यः स्याद् बहुपशुर्हीनक्रतुरसोमपः।
कुटुम्बात् तस्य तद् वित्तं यज्ञार्थं पार्थिवो हरेत् ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यदि धर्मात्मा राजाके रहते हुए किसी यज्ञकर्ताका, विशेषतः ब्राह्मणका यज्ञ धनके बिना अधूरा रह जाय—उसके एक अंशकी पूर्ति शेष रह जाय तो राजाको चाहिये कि उसके राज्यमें जो बहुत पशुओं तथा वैभवसे सम्पन्न वैश्य हो, यदि वह यज्ञ तथा सोमयागसे रहित हो तो उसके कुटुम्बसे उस धनको यज्ञके लिये ले ले॥६-७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आहरेदथ नो किञ्चित् कामं शूद्रस्य वेश्मनः।
न हि यज्ञेषु शूद्रस्य किञ्चिदस्ति परिग्रहः ॥ ८ ॥

मूलम्

आहरेदथ नो किञ्चित् कामं शूद्रस्य वेश्मनः।
न हि यज्ञेषु शूद्रस्य किञ्चिदस्ति परिग्रहः ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

किंतु राजा अपनी इच्छाके अनुसार शूद्रके घरसे थोड़ा-सा भी धन न ले आवे; क्योंकि यज्ञोंमें शूद्रका किंचिन्मात्र भी अधिकार नहीं है॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

योऽनाहिताग्निः शतगुरयज्वा च सहस्रगुः।
तयोरपि कुटुम्बाभ्यामाहरेदविचारयन् ॥ ९ ॥

मूलम्

योऽनाहिताग्निः शतगुरयज्वा च सहस्रगुः।
तयोरपि कुटुम्बाभ्यामाहरेदविचारयन् ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिस वैश्यके पास एक सौ गौएँ हों और वह अग्निहोत्र न करता हो, तथा जिसके पास एक हजार गौएँ हों और वह यज्ञ न करता हो, उन दोनोंके कुटुम्बोंसे राजा बिना विचारे ही धन उठा लावे॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अदातृभ्यो हरेद् वित्तं विख्याप्य नृपतिः सदा।
तथैवाचरतो धर्मो नृपतेः स्यादथाखिलः ॥ १० ॥

मूलम्

अदातृभ्यो हरेद् वित्तं विख्याप्य नृपतिः सदा।
तथैवाचरतो धर्मो नृपतेः स्यादथाखिलः ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो धन रहते हुए उसका दान न करते हों, ऐसे लोगोंके इस दोषको विख्यात करके राजा सदा धर्मके लिये उनका धन ले ले, ऐसा आचरण करनेवाले राजाको सम्पूर्ण धर्मकी प्राप्ति होती है॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथैव शृणु मे भक्तं भक्तानि षडनश्नतः।
अश्वस्तनविधानेन हर्तव्यं हीनकर्मणः ॥ ११ ॥

मूलम्

तथैव शृणु मे भक्तं भक्तानि षडनश्नतः।
अश्वस्तनविधानेन हर्तव्यं हीनकर्मणः ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिर! इसी प्रकार मैं अन्नके विषयमें जो बात बता रहा हूँ, उसे सुनो। यदि ब्राह्मण अन्नाभावके कारण लगातार छः समयतक उपवास कर जाय तो उस अवस्थामें वह किसी निकृष्ट कर्म करनेवाले मनुष्यके घरसे उतने धनका अपहरण कर सकता है, जिससे उसके एक दिनका भोजन चल जाय और दूसरे दिनके लिये कुछ बाकी न रहे॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

खलात् क्षेत्रात् तथा रामाद् यतो वाप्युपपद्यते।
आख्यातव्यं नृपस्यैतत् पृच्छतेऽपृच्छतेऽपि वा ॥ १२ ॥

मूलम्

खलात् क्षेत्रात् तथा रामाद् यतो वाप्युपपद्यते।
आख्यातव्यं नृपस्यैतत् पृच्छतेऽपृच्छतेऽपि वा ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

खलिहानसे, खेतसे, बगीचेसे अथवा जहाँसे भी अन्न मिल सके, वहींसे वह भोजनमात्रके लिये अन्न उठा लावे और उसके बाद राजा पूछे या न पूछे उसके पास जाकर अपनी वह बात उसे कह दे॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न तस्मै धारयेद् दण्डं राजा धर्मेण धर्मवित्।
क्षत्रियस्य तु बालिश्याद् ब्राह्मणः क्लिश्यते क्षुधा ॥ १३ ॥

मूलम्

न तस्मै धारयेद् दण्डं राजा धर्मेण धर्मवित्।
क्षत्रियस्य तु बालिश्याद् ब्राह्मणः क्लिश्यते क्षुधा ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस दशामें धर्मज्ञ राजा धर्मके अनुसार उसे दण्ड न दे; क्योंकि क्षत्रिय राजाकी नादानीसे ही ब्राह्मणको भूखका कष्ट उठाना पड़ता है॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रुतशीले समाज्ञाय वृत्तिमस्य प्रकल्पयेत्।
अथैनं परिरक्षेत पिता पुत्रमिवौरसम् ॥ १४ ॥

मूलम्

श्रुतशीले समाज्ञाय वृत्तिमस्य प्रकल्पयेत्।
अथैनं परिरक्षेत पिता पुत्रमिवौरसम् ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजा उसके शास्त्रज्ञान और स्वभावका परिचय प्राप्त करके उसके लिये उचित आजीविकाकी व्यवस्था करे और जैसे पिता अपने औरस पुत्रकी रक्षा करता है, उसी प्रकार वह उस ब्राह्मणकी रक्षा करे॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इष्टिं वैश्वानरीं नित्यं निर्वपेदब्दपर्यये।
अनुकल्पः परो धर्मो धर्मवादैस्तु केवलम् ॥ १५ ॥

मूलम्

इष्टिं वैश्वानरीं नित्यं निर्वपेदब्दपर्यये।
अनुकल्पः परो धर्मो धर्मवादैस्तु केवलम् ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रतिवर्ष किये जानेवाले आग्रयण आदि यज्ञ यदि न किये जा सके हों तो उनके बदले प्रतिदिन वैश्वानरी इष्टि समर्पित करे। मुख्य कर्मके स्थानमें जो गौण कार्य किया जाता है, उसका नाम अनुकल्प है, धर्मज्ञ पुरुषोंद्वारा बताया गया अनुकल्प भी परम धर्म ही है॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विश्वैर्देवैश्च साध्यैश्च ब्राह्मणैश्च महर्षिभिः।
आपत्सु मरणाद् भीतैर्विधिः प्रतिनिधीकृतः ॥ १६ ॥

मूलम्

विश्वैर्देवैश्च साध्यैश्च ब्राह्मणैश्च महर्षिभिः।
आपत्सु मरणाद् भीतैर्विधिः प्रतिनिधीकृतः ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

क्योंकि विश्वेदेव, साध्य, ब्राह्मण और महर्षि—इन सब लोगोंने मृत्युसे डरकर आपत्कालके विषयमें प्रत्येक विधिका प्रतिनिधि नियत कर दिया है॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रभुः प्रथमकल्पस्य योऽनुकल्पे न वर्तते।
न साम्परायिकं तस्य दुर्मतेर्विद्यते फलम् ॥ १७ ॥

मूलम्

प्रभुः प्रथमकल्पस्य योऽनुकल्पे न वर्तते।
न साम्परायिकं तस्य दुर्मतेर्विद्यते फलम् ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो मुख्य विधिके अनुसार कर्म करनेमें समर्थ होकर भी गौण विधिसे काम चलाता है, उस दुर्बुद्धि मनुष्यको पारलौकिक फलकी प्राप्ति नहीं होती॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न ब्राह्मणो निवेदेत किंचिद् राजनि वेदवित्।
स्ववीर्याद् राजवीर्याच्च स्ववीर्यं बलवत्तरम् ॥ १८ ॥

मूलम्

न ब्राह्मणो निवेदेत किंचिद् राजनि वेदवित्।
स्ववीर्याद् राजवीर्याच्च स्ववीर्यं बलवत्तरम् ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वेदज्ञ ब्राह्मणको चाहिये कि वह राजाके निकट अपनी आवश्यकता निवेदन न करे; क्योंकि ब्राह्मणकी अपनी शक्ति तथा राजाकी शक्तिमेंसे उसकी अपनी ही शक्ति प्रबल है॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्माद् राज्ञः सदा तेजो दुःसहं ब्रह्मवादिनाम्।
कर्ता शास्ता विधाता च ब्राह्मणो देव उच्यते ॥ १९ ॥

मूलम्

तस्माद् राज्ञः सदा तेजो दुःसहं ब्रह्मवादिनाम्।
कर्ता शास्ता विधाता च ब्राह्मणो देव उच्यते ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अतः ब्रह्मवादियोंका तेज राजाके लिये सदा दुःसह है। ब्राह्मण इस जगत्‌का कर्ता, शासक, धारण-पोषण करनेवाला और देवता कहलाता है॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मिन्नाकुशलं ब्रूयान्न शुष्कामीरयेद् गिरम्।
क्षत्रियो बाहुवीर्येण तरेदापदमात्मनः ॥ २० ॥
धनैर्वैश्यश्च शूद्रश्च मन्त्रैर्होमैश्च वै द्विजः।

मूलम्

तस्मिन्नाकुशलं ब्रूयान्न शुष्कामीरयेद् गिरम्।
क्षत्रियो बाहुवीर्येण तरेदापदमात्मनः ॥ २० ॥
धनैर्वैश्यश्च शूद्रश्च मन्त्रैर्होमैश्च वै द्विजः।

अनुवाद (हिन्दी)

अतः उसके प्रति अमङ्गलसूचक बात न कहे। रूखे वचन न बोले। क्षत्रिय अपने बाहुबलसे, वैश्य और शूद्र धनके बलसे तथा ब्राह्मण मन्त्र एवं हवनकी शक्तिसे अपनी विपत्तिसे पार हो सकता है॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नैव कन्या न युवतिर्नामन्त्रज्ञो न बालिशः ॥ २१ ॥
परिवेष्टाग्निहोत्रस्य भवेन्नासंस्कृतस्तथा ।

मूलम्

नैव कन्या न युवतिर्नामन्त्रज्ञो न बालिशः ॥ २१ ॥
परिवेष्टाग्निहोत्रस्य भवेन्नासंस्कृतस्तथा ।

अनुवाद (हिन्दी)

न कन्या, न युवती, न मन्त्र न जाननेवाला, न मूर्ख और न संस्कारहीन पुरुष ही अग्निमें हवन करनेका अधिकारी है॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नरकं निपतन्त्येते जुह्वानाः स च यस्य तत्।
तस्माद् वैतानकुशलो होता स्याद् वेदपारगः ॥ २२ ॥

मूलम्

नरकं निपतन्त्येते जुह्वानाः स च यस्य तत्।
तस्माद् वैतानकुशलो होता स्याद् वेदपारगः ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यदि ये हवन करते हैं तो स्वयं तो नरकमें पड़ते ही हैं, जिसका वह यज्ञ है, वह भी नरकमें गरिता है। अतः जो यज्ञकर्ममें कुशल और वेदोंका पारङ्गत विद्वान् हो, वही होता हो सकता है॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्राजापत्यमदत्त्वाश्वमग्न्याधेयस्य दक्षिणाम् ।
अनाहिताग्निरिति स प्रोच्यते धर्मदर्शिभिः ॥ २३ ॥

मूलम्

प्राजापत्यमदत्त्वाश्वमग्न्याधेयस्य दक्षिणाम् ।
अनाहिताग्निरिति स प्रोच्यते धर्मदर्शिभिः ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो अग्निहोत्र आरम्भ करके प्रजापति देवताके लिये अश्वरूप दक्षिणाका दान नहीं करता, धर्मदर्शी पुरुष उसे अनाहिताग्नि कहते1 हैं॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुण्यानि यानि कुर्वीत श्रद्दधानो जितेन्द्रियः।
अनाप्तदक्षिणैर्यज्ञैर्न यजेत कथञ्चन ॥ २४ ॥

मूलम्

पुण्यानि यानि कुर्वीत श्रद्दधानो जितेन्द्रियः।
अनाप्तदक्षिणैर्यज्ञैर्न यजेत कथञ्चन ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मनुष्य जो भी पुण्यकर्म करे उसे श्रद्धापूर्वक और जितेन्द्रिय भावसे करे। पर्याप्त दक्षिणा दिये बिना किसी तरह यज्ञ न करे॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रजाः पशूंश्च स्वर्गं च हन्ति यज्ञो ह्यदक्षिणः।
इन्द्रियाणि यशः कीर्तिमायुश्चाप्यवकृन्तति ॥ २५ ॥

मूलम्

प्रजाः पशूंश्च स्वर्गं च हन्ति यज्ञो ह्यदक्षिणः।
इन्द्रियाणि यशः कीर्तिमायुश्चाप्यवकृन्तति ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

बिना दक्षिणाका यज्ञ प्रजा और पशुका नाश करता है; और स्वर्गकी प्राप्तिमें भी विघ्न डाल देता है। इतना ही नहीं वह इन्द्रिय, यश, कीर्ति तथा आयुको भी क्षीण करता है॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उदक्यामासते ये च द्विजाः केचिदनग्नयः।
होमं चाश्रोत्रियं येषां ते सर्वे पापकर्मिणः ॥ २६ ॥

मूलम्

उदक्यामासते ये च द्विजाः केचिदनग्नयः।
होमं चाश्रोत्रियं येषां ते सर्वे पापकर्मिणः ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो ब्राह्मण रजस्वला स्त्रीके साथ समागम करते हैं, जिन्होंने घरमें अग्निकी स्थापना नहीं की है; तथा जो अवैदिक रीतिसे हवन करते हैं, वे सभी पापाचारी हैं॥२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उदपानोदके ग्रामे ब्राह्मणो वृषलीपतिः।
उषित्वा द्वादश समाः शूद्रकर्मैव गच्छति ॥ २७ ॥

मूलम्

उदपानोदके ग्रामे ब्राह्मणो वृषलीपतिः।
उषित्वा द्वादश समाः शूद्रकर्मैव गच्छति ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिस गाँवमें एक ही कुएँका पानी सब लोग पीते हैं, वहाँ बारह वर्षोंतक निवास करनेसे तथा शूद्रजातिकी स्त्रीके साथ विवाह कर लेनेसे ब्राह्मण भी शूद्र हो जाता है॥२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अभार्यां शयने बिभ्रच्छूद्रं वृद्धं च वै द्विजः।
अब्राह्मणं मन्यमानस्तृणेष्वासीत पृष्ठतः ।
तथा संशुध्यते राजन् शृणु चात्र वचो मम ॥ २८ ॥

मूलम्

अभार्यां शयने बिभ्रच्छूद्रं वृद्धं च वै द्विजः।
अब्राह्मणं मन्यमानस्तृणेष्वासीत पृष्ठतः ।
तथा संशुध्यते राजन् शृणु चात्र वचो मम ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यदि ब्राह्मण अपनी पत्नीके सिवा दूसरी स्त्रीको शय्यापर बिठा ले अथवा बड़े-बूढ़े शूद्रको या ब्राह्मणेतर—क्षत्रिय या वैश्यको सम्मान देता हुआ ऊँचे आसनपर बैठाकर स्वयं चटाईपर बैठे तो वह ब्राह्मणत्वसे गिर जाता है। राजन्! उसकी शुद्धि जिस प्रकार होती है, वह मुझसे सुनो॥२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदेकरात्रेण करोति पापं
निकृष्टवर्णं ब्राह्मणः सेवमानः ।
स्थानासनाभ्यां विहरन् व्रती स
त्रिभिर्वर्षैः शमयेदात्मपापम् ॥ २९ ॥

मूलम्

यदेकरात्रेण करोति पापं
निकृष्टवर्णं ब्राह्मणः सेवमानः ।
स्थानासनाभ्यां विहरन् व्रती स
त्रिभिर्वर्षैः शमयेदात्मपापम् ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यदि ब्राह्मण एक रात भी किसी नीच वर्णके मनुष्यकी सेवा करे अथवा उसके साथ एक जगह रहे या एक आसनपर बैठे तो इससे जो पाप लगता है, उसको वह तीन वर्षों तक व्रतका पालन करते हुए पृथ्वीपर विचरनेसे दूर कर सकता है॥२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न नर्मयुक्तमनृतं हिनस्ति
न स्त्रीषु राजन् न विवाहकाले।
न गुर्वर्थं नात्मनो जीवितार्थे
पञ्चानृतान्याहुरपातकानि ॥ ३० ॥

मूलम्

न नर्मयुक्तमनृतं हिनस्ति
न स्त्रीषु राजन् न विवाहकाले।
न गुर्वर्थं नात्मनो जीवितार्थे
पञ्चानृतान्याहुरपातकानि ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! परिहासमें, स्त्रीके पास, विवाहके अवसर-पर, गुरुके हितके लिये अथवा अपने प्राण बचानेके उद्देश्यसे बोला गया असत्य हानिकारक नहीं होता। इन पाँच अवसरोंपर असत्य बोलना पाप नहीं बताया गया है॥३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रद्दधानः शुभां विद्यां हीनादपि समाप्नुयात्।
सुवर्णमपि चामेध्यादाददीताविचारयन् ॥ ३१ ॥

मूलम्

श्रद्दधानः शुभां विद्यां हीनादपि समाप्नुयात्।
सुवर्णमपि चामेध्यादाददीताविचारयन् ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नीच वर्णके पुरुषके पास भी उत्तम विद्या हो तो उसे श्रद्धापूर्वक ग्रहण करनी चाहिये और सोना अपवित्र स्थानमें भी पड़ा हो तो उसे बिना हिच-किचाहटके उठा लेना चाहिये॥३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्त्रीरत्नं दुष्कुलाच्चापि विषादप्यमृतं पिबेत्।
अदूष्या हि स्त्रियो रत्नमाप इत्येव धर्मतः ॥ ३२ ॥

मूलम्

स्त्रीरत्नं दुष्कुलाच्चापि विषादप्यमृतं पिबेत्।
अदूष्या हि स्त्रियो रत्नमाप इत्येव धर्मतः ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नीच कुलसे भी उत्तम स्त्रीको ग्रहण कर ले, विषके स्थानसे भी अमृत मिले तो उसे पी ले; क्योंकि स्त्रियाँ, रत्न और जल—ये धर्मतः दूषणीय नहीं होते हैं॥३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गोब्राह्मणहितार्थं च वर्णानां संकरेषु च।
वैश्यो गृह्णीत शस्त्राणि परित्राणार्थमात्मनः ॥ ३३ ॥

मूलम्

गोब्राह्मणहितार्थं च वर्णानां संकरेषु च।
वैश्यो गृह्णीत शस्त्राणि परित्राणार्थमात्मनः ॥ ३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

गौ और ब्राह्मणोंका हित, वर्णसंकरताका निवारण तथा अपनी रक्षा करनेके लिये वैश्य भी हथियार उठा सकता है॥३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुरापानं ब्रह्महत्या गुरुतल्पमथापि वा।
अनिर्देश्यानि मन्यन्ते प्राणान्तमिति धारणा ॥ ३४ ॥

मूलम्

सुरापानं ब्रह्महत्या गुरुतल्पमथापि वा।
अनिर्देश्यानि मन्यन्ते प्राणान्तमिति धारणा ॥ ३४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मदिरापान, ब्रह्महत्या तथा गुरुपत्नीगमन—इन महापापोंसे छूटनेके लिये कोई प्रायश्चित्त नहीं बताया गया है। किसी भी उपायसे अपने प्राणोंका अन्त कर देना ही उन पापोंका प्रायश्चित्त होगा, ऐसी विद्वानोंकी धारणा है॥३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुवर्णहरणं स्तैन्यं विप्रस्वं चेति पातकम्।
विहरन् मद्यपानाच्च अगम्यागमनादपि ॥ ३५ ॥
पतितैः सम्प्रयोगाच्च ब्राह्मणीयोनितस्तथा ।
अचिरेण महाराज पतितो वै भवत्युत ॥ ३६ ॥

मूलम्

सुवर्णहरणं स्तैन्यं विप्रस्वं चेति पातकम्।
विहरन् मद्यपानाच्च अगम्यागमनादपि ॥ ३५ ॥
पतितैः सम्प्रयोगाच्च ब्राह्मणीयोनितस्तथा ।
अचिरेण महाराज पतितो वै भवत्युत ॥ ३६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सुवर्णकी चोरी, अन्य वस्तुओंकी चोरी तथा ब्राह्मणका धन छीन लेना—यह महान् पाप है। महाराज! मदिरापान और अगम्या स्त्रीके साथ गमन करनेसे, पतितोंके साथ सम्पर्क रखनेसे तथा ब्राह्मणेतर होकर ब्राह्मणीके साथ समागम करनेसे स्वेच्छाचारी पुरुष शीघ्र ही पतित हो जाता है॥३५-३६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

संवत्सरेण पतति पतितेन सहाचरन्।
याजनाध्यापनाद् यौनान्न तु यानासनाशनात् ॥ ३७ ॥

मूलम्

संवत्सरेण पतति पतितेन सहाचरन्।
याजनाध्यापनाद् यौनान्न तु यानासनाशनात् ॥ ३७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पतितके साथ रहनेसे, उसका यज्ञ करानेसे और उसे पढ़ानेसे मनुष्य एक वर्षमें पतित हो जाता है; परंतु उसकी संतानके साथ अपनी संतानका विवाह करनेसे, एक सवारी या एक आसन पर बैठनेसे तथा उसके साथमें भोजन करनेसे वह एक वर्षमें नहीं, किंतु तत्काल पतित हो जाता है॥३७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतानि हित्वातोऽन्यानि निर्देश्यानीति भारत।
निर्देश्यानेन विधिना कालेनाव्यसनी भवेत् ॥ ३८ ॥

मूलम्

एतानि हित्वातोऽन्यानि निर्देश्यानीति भारत।
निर्देश्यानेन विधिना कालेनाव्यसनी भवेत् ॥ ३८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतनन्दन! उपर्युक्त पाप अनिर्देश्य (प्रायश्चित्त-रहित) कहे गये हैं। इन्हें छोड़कर और जितने पाप हैं, वे निर्देश्य हैं—शास्त्रमें उनका प्रायश्चित्त बताया गया है। उसके अनुसार प्रायश्चित्त करके पापका व्यसन छोड़ देना चाहिये॥३८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अन्नं वीर्यं ग्रहीतव्यं प्रेतकर्मण्यपातिते।
त्रिषु त्वेतेषु पूर्वेषु न कुर्वीत विचारणाम् ॥ ३९ ॥

मूलम्

अन्नं वीर्यं ग्रहीतव्यं प्रेतकर्मण्यपातिते।
त्रिषु त्वेतेषु पूर्वेषु न कुर्वीत विचारणाम् ॥ ३९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पूर्वोक्त (शराबी, ब्रह्महत्यारा और गुरुपत्नीगामी) तीन पापियोंके मरनेपर उनकी दाहादिक क्रिया किये बिना ही कुटुम्बीजनोंको उनके अन्न और धनपर अधिकार कर लेना चाहिये। इसमें कुछ अन्यथा विचार करनेकी आवश्यकता नहीं है॥३९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अमात्यान् वा गुरून् वापि जह्याद् धर्मेण धार्मिकः।
प्रायश्चित्तमकुर्वाणैर्नैतैरर्हति संविदम् ॥ ४० ॥

मूलम्

अमात्यान् वा गुरून् वापि जह्याद् धर्मेण धार्मिकः।
प्रायश्चित्तमकुर्वाणैर्नैतैरर्हति संविदम् ॥ ४० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

धार्मिक राजा अपने मन्त्री और गुरुजनोंको भी पतित हो जानेपर धर्मानुसार त्याग दे और जबतक ये अपने पापोंका प्रायश्चित्त न कर लें, तबतक इनके साथ बातचीत न करे॥४०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अधर्मकारी धर्मेण तपसा हन्ति किल्बिषम्।
ब्रुवन् स्तेन इति स्तेनं तावत् प्राप्नोति किल्बिषम् ॥ ४१ ॥

मूलम्

अधर्मकारी धर्मेण तपसा हन्ति किल्बिषम्।
ब्रुवन् स्तेन इति स्तेनं तावत् प्राप्नोति किल्बिषम् ॥ ४१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पापाचारी मनुष्य यदि धर्माचरण और तपस्या करे तो अपने पापको नष्ट कर देता है। चोरको ‘यह चोर है’ ऐसा कह देनेमात्रसे चोरके बराबर पापका भागी होना पड़ता है॥४१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अस्तेनं स्तेन इत्युक्त्वा द्विगुणं पापमाप्नुयात्।
त्रिभागं ब्रह्महत्यायाः कन्या प्राप्नोति दुष्यती ॥ ४२ ॥

मूलम्

अस्तेनं स्तेन इत्युक्त्वा द्विगुणं पापमाप्नुयात्।
त्रिभागं ब्रह्महत्यायाः कन्या प्राप्नोति दुष्यती ॥ ४२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो चोर नहीं है, उसको चोर कह देनेसे मनुष्यको चोरसे दूना पाप लगता है। कुमारी कन्या यदि अपनी इच्छासे चरित्रभ्रष्ट हो जाय तो उसे ब्रह्महत्याका तीन चौथाई पाप भोगना पड़ता है॥४२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यस्तु दूषयिता तस्याः शेषं प्राप्नोति पाप्मनः।
ब्राह्मणानवगर्ह्येह स्पृष्ट्‌वा गुरुतरं भवेत् ॥ ४३ ॥

मूलम्

यस्तु दूषयिता तस्याः शेषं प्राप्नोति पाप्मनः।
ब्राह्मणानवगर्ह्येह स्पृष्ट्‌वा गुरुतरं भवेत् ॥ ४३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

और जो उसे कलंकित करनेवाला पुरुष है, वह शेष एक चौथाई पापका भागी होता है। इस जगत्‌में ब्राह्मणोंको गाली देकर या उन्हें तिरस्कारपूर्वक धक्के देकर हटानेसे मनुष्यको बड़ा भारी पाप लगता है॥४३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वर्षाणां हि शतं तावत् प्रतिष्ठां नाधिगच्छति।
सहस्रं चैव वर्षाणां निपत्य नरकं वसेत् ॥ ४४ ॥

मूलम्

वर्षाणां हि शतं तावत् प्रतिष्ठां नाधिगच्छति।
सहस्रं चैव वर्षाणां निपत्य नरकं वसेत् ॥ ४४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सौ वर्षोंतक तो उसे प्रेतकी भाँति भटकना पड़ता है, कहीं भी ठहरनेके लिये ठौर नहीं मिलता। फिर एक हजार वर्षोंतक उसे नरकमें गिरकर रहना पड़ता है॥४४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मान्नैवावगर्ह्येत नैव जातु निपातयेत्।
शोणितं यावतः पांसून् संगृह्णीयाद् द्विजक्षतात् ॥ ४५ ॥
तावतीः स समा राजन् नरके प्रतिपद्यते।

मूलम्

तस्मान्नैवावगर्ह्येत नैव जातु निपातयेत्।
शोणितं यावतः पांसून् संगृह्णीयाद् द्विजक्षतात् ॥ ४५ ॥
तावतीः स समा राजन् नरके प्रतिपद्यते।

अनुवाद (हिन्दी)

अतः न ब्राह्मणको गाली दे और न उसे कभी धरती पर गिरावे। राजन्! ब्राह्मणके शरीरमें घाव हो जानेपर उससे निकला हुआ रक्त धूलके जितने कणोंको भिगोता है, उसे चोट पहुँचानेवाला मनुष्य उतने ही वर्षोंतक नरकमें पड़ा रहता है॥४५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भ्रूणहाऽऽहवमध्ये तु शुद्‌ध्यते शस्त्रपाततः ॥ ४६ ॥
आत्मानं जुहुयादग्नौ समिद्धे तेन शुद्ध्यते।

मूलम्

भ्रूणहाऽऽहवमध्ये तु शुद्‌ध्यते शस्त्रपाततः ॥ ४६ ॥
आत्मानं जुहुयादग्नौ समिद्धे तेन शुद्ध्यते।

अनुवाद (हिन्दी)

गर्भके बच्चेकी हत्या करनेवाला यदि युद्धमें शस्त्रोंके आघातसे मर जाय तो उसकी शुद्धि हो जाती है अथवा प्रज्वलित अग्निमें कूदकर अपने आपको होम दे तो वह शुद्ध हो जाता है॥४६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुरापो वारुणीमुष्णां पीत्वा पापाद् विमुच्यते ॥ ४७ ॥
तया स काये निर्दग्धे मृत्युं वा प्राप्य शुद्ध्यति।
लोकांश्च लभते विप्रो नान्यथा लभते हि सः ॥ ४८ ॥

मूलम्

सुरापो वारुणीमुष्णां पीत्वा पापाद् विमुच्यते ॥ ४७ ॥
तया स काये निर्दग्धे मृत्युं वा प्राप्य शुद्ध्यति।
लोकांश्च लभते विप्रो नान्यथा लभते हि सः ॥ ४८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मदिरा पीनेवाला पुरुष यदि मदिराको खूब गरम करके पी ले तो पापसे छुटकारा पा जाता है, अथवा उससे शरीर जल जानेके कारण उसकी मृत्यु हो जाय तो वह शुद्ध हो जाता है। इस प्रकार शुद्ध हो जानेपर ही वह ब्राह्मण शुद्ध लोकोंको प्राप्त कर सकता है, अन्यथा नहीं॥४७-४८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुरुतल्पमधिष्ठाय दुरात्मा पापचेतनः ।
स्त्र्याकारां प्रतिमां लिंग्य मृत्युना सोऽभिशुद्ध्यति ॥ ४९ ॥

मूलम्

गुरुतल्पमधिष्ठाय दुरात्मा पापचेतनः ।
स्त्र्याकारां प्रतिमां लिंग्य मृत्युना सोऽभिशुद्ध्यति ॥ ४९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पापपूर्ण विचार रखनेवाला दुरात्मा पुरुष यदि गुरुपत्नी-गमनका पाप कर बैठे तो वह लोहेकी गरम की हुई नारी-प्रतिमाका आलिङ्गन करके प्राण दे देनेपर ही उस पापसे शुद्ध होता है॥४९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथवा शिश्नवृषणावादायाञ्जलिना स्वयम् ॥ ५० ॥
नैर्ऋतीं दिशमास्थाय निपतेत् स त्वजिह्मगः।
ब्राह्मणार्थेऽपि वा प्राणान् संत्यजेत्‌ तेन शुद्ध्यति ॥ ५१ ॥

मूलम्

अथवा शिश्नवृषणावादायाञ्जलिना स्वयम् ॥ ५० ॥
नैर्ऋतीं दिशमास्थाय निपतेत् स त्वजिह्मगः।
ब्राह्मणार्थेऽपि वा प्राणान् संत्यजेत्‌ तेन शुद्ध्यति ॥ ५१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अथवा अपने शिश्न और अण्डकोषको स्वयं ही काटकर अञ्जलिमें लेकर सीधे नैर्ऋत्य-दिशाकी ओर जाता हुआ गिर पड़े या ब्राह्मणके लिये प्राणोंका परित्याग कर दे तो शुद्ध हो जाता है॥५०-५१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अश्वमेधेन वापीष्ट्वा अथवा गोसवेन वा।
अग्निष्टोमेन वा सम्यगिह प्रेत्य च पूज्यते ॥ ५२ ॥

मूलम्

अश्वमेधेन वापीष्ट्वा अथवा गोसवेन वा।
अग्निष्टोमेन वा सम्यगिह प्रेत्य च पूज्यते ॥ ५२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अथवा अश्वमेधयज्ञ, गोसव नामक यज्ञ या अग्निष्टोम यज्ञके द्वारा भलीभाँति यजन करके वह इहलोक तथा परलोकमें पूजित होता है॥५२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथैव द्वादशसमाः कपाली ब्रह्महा भवेत्।
ब्रह्मचारी भवेन्नित्यं स्वकर्म ख्यापयन् मुनिः ॥ ५३ ॥
एवं वा तपसा युक्तो ब्रह्महा सवनी भवेत्।

मूलम्

तथैव द्वादशसमाः कपाली ब्रह्महा भवेत्।
ब्रह्मचारी भवेन्नित्यं स्वकर्म ख्यापयन् मुनिः ॥ ५३ ॥
एवं वा तपसा युक्तो ब्रह्महा सवनी भवेत्।

अनुवाद (हिन्दी)

ब्रह्महत्या करनेवाला मनुष्य उस मरे हुए ब्राह्मणकी खोपड़ी लेकर अपना पापकर्म लोगोंको सुनाता रहे और बारह वर्षोंतक ब्रह्मचर्यका पालन करते हुए सबेरे, शाम तथा दोपहर तीनों समय स्नान करे। इस प्रकार वह तपस्यामें संलग्न रहे। इससे उसकी शुद्धि हो जाती है॥५३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं तु समभिज्ञातामात्रेयीं वा निपातयेत् ॥ ५४ ॥
द्विगुणा ब्रह्महत्या वै आत्रेयीनिधने भवेत्।

मूलम्

एवं तु समभिज्ञातामात्रेयीं वा निपातयेत् ॥ ५४ ॥
द्विगुणा ब्रह्महत्या वै आत्रेयीनिधने भवेत्।

अनुवाद (हिन्दी)

इसी तरह जो जान-बूझकर गर्भिणी स्त्रीकी हत्या करता है; उसे उस गर्भिणी-वधके कारण दो ब्रह्महत्याओंका पाप लगता है॥५४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुरापो नियताहारो ब्रह्मचारी क्षितीशयः ॥ ५५ ॥
ऊर्ध्व त्रिभ्योऽपि वर्षेभ्यो यजेताग्निष्टुता परम्।
ऋषभैकसहस्रं वा गा दत्त्वा शौचमाप्नुयात् ॥ ५६ ॥

मूलम्

सुरापो नियताहारो ब्रह्मचारी क्षितीशयः ॥ ५५ ॥
ऊर्ध्व त्रिभ्योऽपि वर्षेभ्यो यजेताग्निष्टुता परम्।
ऋषभैकसहस्रं वा गा दत्त्वा शौचमाप्नुयात् ॥ ५६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मदिरा पीनेवाला मनुष्य मिताहारी और ब्रह्मचारी होकर पृथ्वीपर शयन करे। इस तरह तीन वर्षोंतक रहनेके बाद ‘अग्निष्टोम’ यज्ञ करे। तत्पश्चात् एक हजार बैल या इतनी ही गौएँ ब्राह्मणोंको दान दे तो वह शुद्ध हो जाता है॥५५-५६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वैश्यं हत्वा तु वर्षे द्वे ऋषभैकशतं च गाः।
शूद्रं हत्वाब्दमेवैकमृषभं च शतं च गाः ॥ ५७ ॥

मूलम्

वैश्यं हत्वा तु वर्षे द्वे ऋषभैकशतं च गाः।
शूद्रं हत्वाब्दमेवैकमृषभं च शतं च गाः ॥ ५७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यदि वैश्यकी हत्या कर दे तो दो वर्षोंतक पूर्वोक्त नियमसे रहनेके बाद एक सौ बैल और एक सौ गौओंका दान करे, तथा शूद्रकी हत्या कर देनेपर हत्यारेको एक वर्षतक पूर्वोक्त नियमसे रहकर एक बैल और सौ गौओंका दान करना चाहिये॥५७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्ववराहखरान् हत्वा शौद्रमेव व्रतं चरेत्।
मार्जारचाषमण्डूकान् काकं व्यालं च मूषिकम् ॥ ५८ ॥
उक्तः पशुसमो दोषो राजन् प्राणिनिपातनात्।

मूलम्

श्ववराहखरान् हत्वा शौद्रमेव व्रतं चरेत्।
मार्जारचाषमण्डूकान् काकं व्यालं च मूषिकम् ॥ ५८ ॥
उक्तः पशुसमो दोषो राजन् प्राणिनिपातनात्।

अनुवाद (हिन्दी)

कुत्ते, सूअर और गदहोंकी हत्या करके मनुष्य शूद्रवध-सम्बधी व्रतका ही आचरण करे। राजन्! बिल्ली, नीलकण्ठ, मेढक, कौआ, साँप और चूहा आदि प्राणियोंको मारनेसे भी उक्त पशुवधके ही समान पाप बताया गया है॥५८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रायश्चित्तान्यथान्यानि प्रवक्ष्याम्यनुपूर्वशः ॥ ५९ ॥
अल्पे वाप्यथ शोचेत पृथक् संवत्सरं चरेत्।
त्रीणि श्रोत्रियभार्यायां परदारे च द्वे स्मृते ॥ ६० ॥
काले चतुर्थे भुञ्जानो ब्रह्मचारी व्रती भवेत्।
स्थानासनाभ्यां विहरेत् त्रिरह्नाभ्युपयन्नपः ।
एवमेव निराकर्ता यश्चाग्नीनपविध्यति ॥ ६१ ॥

मूलम्

प्रायश्चित्तान्यथान्यानि प्रवक्ष्याम्यनुपूर्वशः ॥ ५९ ॥
अल्पे वाप्यथ शोचेत पृथक् संवत्सरं चरेत्।
त्रीणि श्रोत्रियभार्यायां परदारे च द्वे स्मृते ॥ ६० ॥
काले चतुर्थे भुञ्जानो ब्रह्मचारी व्रती भवेत्।
स्थानासनाभ्यां विहरेत् त्रिरह्नाभ्युपयन्नपः ।
एवमेव निराकर्ता यश्चाग्नीनपविध्यति ॥ ६१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अब दूसरे प्रायश्चित्तोंका भी क्रमशः वर्णन करता हूँ। अनजानमें कीड़ों-मकोड़ोंका वध आदि छोटा पाप हो जाय तो उसके लिये पश्चात्ताप करे। इतनेहीसे उसकी शुद्धि हो जाती है। गोवधके सिवा अन्य जितने उपपातक हैं उनमेंसे प्रत्येकके लिये एक-एक वर्षतक व्रतका आचरण करे। श्रोत्रियकी पत्नीसे व्यभिचार करनेपर तीन वर्षतक और अन्य परस्त्रियोंसे समागम करनेपर दो वर्षोंतक ब्रह्मचर्यव्रतका पालन करते हुए दिनके चौथे पहरमें एक बार भोजन करे। अपने लिये पृथक् स्थान और आसनकी व्यवस्था रखते हुए घूमता रहे। दिनमें तीन बार जलसे स्नान करे। ऐसा करनेसे ही वह अपने उपर्युक्त पापोंका निवारण कर सकता है। जो अग्निको भ्रष्ट करता है, उसके लिये भी यही प्रायश्चित्त है॥५९—६१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्यजत्यकारणे यश्च पितरं मातरं गुरुम्।
पतितः स्यात्स कौरव्य यथा धर्मेषु निश्चयः ॥ ६२ ॥
ग्रासाच्छादनमात्रं तु दद्यादिति निदर्शनम्।
(ब्रह्मचारी द्विजेभ्यश्च दत्त्वा पापात्‌ प्रमुच्यते।)

मूलम्

त्यजत्यकारणे यश्च पितरं मातरं गुरुम्।
पतितः स्यात्स कौरव्य यथा धर्मेषु निश्चयः ॥ ६२ ॥
ग्रासाच्छादनमात्रं तु दद्यादिति निदर्शनम्।
(ब्रह्मचारी द्विजेभ्यश्च दत्त्वा पापात्‌ प्रमुच्यते।)

अनुवाद (हिन्दी)

कुरुनन्दन! जो अकारण ही पिता, माता और गुरुका परित्याग करता है, वह पतित हो जाता है। उसे केवल अन्न और वस्त्र दे और पैतृकसम्पत्तिसे वंचित कर दे। वह ब्रह्मचर्य-व्रतका पालन करते हुए ब्राह्मणोंको दान दे (और पिता-माता आदिका पूर्ववत् आदर करने लगे) तो उस पापसे मुक्त हो जाता है, यही धर्मशास्त्रोंका निर्णय है॥६२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भार्यायां व्यभिचारिण्यां निरुद्धायां विशेषतः।
यत् पुंसः परदारेषु तदेनां चारयेद् व्रतम ॥ ६३ ॥

मूलम्

भार्यायां व्यभिचारिण्यां निरुद्धायां विशेषतः।
यत् पुंसः परदारेषु तदेनां चारयेद् व्रतम ॥ ६३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यदि पत्नीने व्यभिचार किया हो और विशेषतः इस कार्यमें पकड़ ली गयी हो तो परायी स्त्रीसे व्यभिचार करनेवाले पुरुषके लिये जो प्रायश्चित्तरूप व्रत बताया गया है, वही उससे भी करावे॥६३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रेयांसं शयनं हित्वा याऽन्यं पापं निगच्छति।
श्वभिस्तामर्दयेद् राजा संस्थाने बहुविस्तरे ॥ ६४ ॥

मूलम्

श्रेयांसं शयनं हित्वा याऽन्यं पापं निगच्छति।
श्वभिस्तामर्दयेद् राजा संस्थाने बहुविस्तरे ॥ ६४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो अपने श्रेष्ठ पतिको छोड़कर अन्य पापीकी शय्यापर जाती है, उस कुलटाको अत्यन्त विस्तृत मैदानमें खड़ी करके राजा कुत्तोंसे नोचवा डाले॥६४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुमांसमुन्नयेत् प्राज्ञः शयने तप्त आयसे।
अप्यादधीत दारूणि तत्र दह्येत पापकृत् ॥ ६५ ॥
एष दण्डो महाराज स्त्रीणां भर्तृष्वतिक्रमात्।
संवत्सराभिशस्तस्य दुष्टस्य द्विगुणो भवेत् ॥ ६६ ॥
द्वे तस्य त्रीणि वर्षाणि चत्वारि सहसेविनि।
कुचरः पञ्चवर्षाणि चरेद् भैक्ष्यं मुनिव्रतः ॥ ६७ ॥

मूलम्

पुमांसमुन्नयेत् प्राज्ञः शयने तप्त आयसे।
अप्यादधीत दारूणि तत्र दह्येत पापकृत् ॥ ६५ ॥
एष दण्डो महाराज स्त्रीणां भर्तृष्वतिक्रमात्।
संवत्सराभिशस्तस्य दुष्टस्य द्विगुणो भवेत् ॥ ६६ ॥
द्वे तस्य त्रीणि वर्षाणि चत्वारि सहसेविनि।
कुचरः पञ्चवर्षाणि चरेद् भैक्ष्यं मुनिव्रतः ॥ ६७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसी तरह व्यभिचारी पुरुषको बुद्धिमान् राजा लोहेकी तपायी हुई खाटपर सुलाकर ऊपरसे लकड़ी रख दे और आग लगा दे, जिससे वह पापी उसीमें जलकर भस्म हो जाय। महाराज! पतिकी अवहेलना करके परपुरुषोंसे व्यभिचार करनेवाली स्त्रियोंके लिये भी यही दण्ड है, उपर्युक्त कहे हुएमें जिन दुष्टोंके लिये प्रायश्चित्त बताया है, उनके लिये यह भी विधान है कि एक वर्षके भीतर प्रायश्चित्त न करनेपर दुष्ट पुरुषको दूना दण्ड प्राप्त होना चाहिये। जो मनुष्य दो, तीन, चार या पाँच वर्षोंतक उस पतित पुरुषके संसर्गमें रहे, वह मुनिजनोचित व्रत धारण करके उतने ही वर्षोंतक पृथ्वीपर घूमता हुआ भिक्षावृत्तिसे जीवन-निर्वाह करे॥६५—६७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

परिवित्तिः परिवेत्ता या चैव परिविद्यते।
पाणिग्रहास्त्वधर्मेण सर्वे ते पतिताः स्मृताः ॥ ६८ ॥

मूलम्

परिवित्तिः परिवेत्ता या चैव परिविद्यते।
पाणिग्रहास्त्वधर्मेण सर्वे ते पतिताः स्मृताः ॥ ६८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ज्येष्ठ भाईका विवाह होनेसे पहले ही यदि छोटा भाई अधर्मपूर्वक विवाह कर ले तो ज्येष्ठको ‘परिवित्ति’ कहते हैं; छोटे भाईको ‘परिवेत्ता’ हैं और उसकी पत्नीको जिसका परिवेदन (ग्रहण) किया जाता है, परिवेदनीया कहते हैं-ये सब-के-सब पतित माने गये हैं॥६८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

चरेयुः सर्व एवैते वीरहा यद् व्रतं चरेत्।
चान्द्रायणं चरेन्मासं कृच्छ्रं वा पापशुद्धये ॥ ६९ ॥

मूलम्

चरेयुः सर्व एवैते वीरहा यद् व्रतं चरेत्।
चान्द्रायणं चरेन्मासं कृच्छ्रं वा पापशुद्धये ॥ ६९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इन तीनोंको पृथक्-पृथक् अपनी शुद्धिके लिये उसी व्रतका आचरण करना चाहिये जो यज्ञहीन ब्राह्मणके लिये बताया गया है। अथवा एक मासतक चान्द्रायण या कृच्छ्रचान्द्रायण व्रत करे॥६९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

परिवेत्ता प्रयच्छेत तां स्नुषां परिवित्तये।
ज्येष्ठेन त्वभ्यनुज्ञातो यवीयानप्यनन्तरम् ।
एवं च मोक्षमाप्नोति तौ च सा चैव धर्मतः॥७०॥

मूलम्

परिवेत्ता प्रयच्छेत तां स्नुषां परिवित्तये।
ज्येष्ठेन त्वभ्यनुज्ञातो यवीयानप्यनन्तरम् ।
एवं च मोक्षमाप्नोति तौ च सा चैव धर्मतः॥७०॥

अनुवाद (हिन्दी)

परिवेत्ता पुरुष उस नववधूको पतोहूके रूपमें ज्येष्ठ भाईको सौंप दे और ज्येष्ठ भाईकी आज्ञा मिलनेपर छोटा भाई उसे पत्नीरूपमें ग्रहण करे। ऐसा करनेपर वे तीनों धर्मके अनुसार पापसे छुटकारा पाते हैं॥७०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अमानुषीषु गोवर्ज्यमनावृष्टिर्न दुष्यति ।
अधिष्ठात्रवमन्तारं पशूनां पुरुषं विदुः ॥ ७१ ॥

मूलम्

अमानुषीषु गोवर्ज्यमनावृष्टिर्न दुष्यति ।
अधिष्ठात्रवमन्तारं पशूनां पुरुषं विदुः ॥ ७१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पशु जातियोंमें गौओंको छोड़कर अन्य किसीकी अनजानमें हिंसा हो जाय तो वह दोषावह नहीं मानी जाती; क्योंकि मनुष्यको पशुओंका अधिष्ठाता एवं पालक माना गया है॥७१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

परिधायोर्ध्ववालं तु पात्रमादाय मृन्मयम्।
चरेत् सप्तगृहान्नित्यं स्वकर्म परिकीर्तयन् ॥ ७२ ॥
तत्रैव लब्धभोजी स्याद् द्वादशाहात्स शुद्ध्यति।
चरेत् संवत्सरं चापि तद् व्रतं येन कृन्तति ॥ ७३ ॥

मूलम्

परिधायोर्ध्ववालं तु पात्रमादाय मृन्मयम्।
चरेत् सप्तगृहान्नित्यं स्वकर्म परिकीर्तयन् ॥ ७२ ॥
तत्रैव लब्धभोजी स्याद् द्वादशाहात्स शुद्ध्यति।
चरेत् संवत्सरं चापि तद् व्रतं येन कृन्तति ॥ ७३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

गोवध करनेवाला पापी उस गायकी पूँछको इस प्रकार धारण करे कि उसका बाल ऊपरकी ओर रहे। फिर मिट्टीका पात्र हाथमें लेकर प्रतिदिन सात घरोंमें भिक्षा माँगे और अपने पापकर्मकी बात कहकर लोगोंको सुनाता रहे। उन्हीं सात घरोंकी भिक्षामें जो अन्न मिल जाय, वही खाकर रहे। ऐसा करनेसे वह बारह दिनोंमें शुद्ध हो जाता है। यदि पाप अधिक हो तो एक वर्षतक उस व्रतका अनुष्ठान करे, जिससे वह अपने पापको नष्ट कर देता है॥७२-७३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भवेत्तु मानुषेष्वेवं प्रायश्चित्तमनुत्तमम् ।
दानं वा दानशक्तेषु सर्वमेतत् प्रकल्पयेत् ॥ ७४ ॥

मूलम्

भवेत्तु मानुषेष्वेवं प्रायश्चित्तमनुत्तमम् ।
दानं वा दानशक्तेषु सर्वमेतत् प्रकल्पयेत् ॥ ७४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार मनुष्योंके लिये परम उत्तम प्रायश्चित्तका विधान है। उनमें जो दान करनेमें समर्थ हों, उनके लिये दानकी भी विधि है। यह सब प्रायश्चित्त विचारपूर्वक करना चाहिये॥७४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनास्तिकेषु गोमात्रं दानमेकं प्रचक्षते।
श्ववराहमनुष्याणां कुक्कुटस्य खरस्य च ॥ ७५ ॥
मांसं मूत्रं पुरीषं च प्राश्य संस्कारमर्हति।

मूलम्

अनास्तिकेषु गोमात्रं दानमेकं प्रचक्षते।
श्ववराहमनुष्याणां कुक्कुटस्य खरस्य च ॥ ७५ ॥
मांसं मूत्रं पुरीषं च प्राश्य संस्कारमर्हति।

अनुवाद (हिन्दी)

अनास्तिक पुरुषोंके लिये एक गोदानमात्र ही प्रायश्चित्त बतलाया गया है। कुत्ते, सूअर, मनुष्य, मुर्गे और गदहेके मांस और मल-मूत्र खा लेनेपर द्विजका पुनः संस्कार होना चाहिये॥७५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्राह्मणस्तु सुरापस्य गन्धमादाय सोमपः ॥ ७६ ॥
अपस्त्र्यहं पिबेदुष्णं त्र्यहमुष्णं पयः पिबेत्।
त्र्यहमुष्णं पयः पीत्वा वायुभक्षो भवेत् त्र्यहम् ॥ ७७ ॥

मूलम्

ब्राह्मणस्तु सुरापस्य गन्धमादाय सोमपः ॥ ७६ ॥
अपस्त्र्यहं पिबेदुष्णं त्र्यहमुष्णं पयः पिबेत्।
त्र्यहमुष्णं पयः पीत्वा वायुभक्षो भवेत् त्र्यहम् ॥ ७७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सोमपान करनेवाला ब्राह्मण यदि किसी शराबीकी गन्ध भी सूँघ ले तो वह तीन दिनोंतक गरम जल पीकर रहे, फिर तीन दिन गरम दूध पीये। तीन दिन गरम दूध पीनेके बाद तीन दिनतक केवल वायु पीकर रहे। इससे वह शुद्ध हो जाता है॥७६-७७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमेतत् समुद्दिष्टं प्रायश्चित्तं सनातनम्।
ब्राह्मणस्य विशेषण यदज्ञानेन सम्भवेत् ॥ ७८ ॥

मूलम्

एवमेतत् समुद्दिष्टं प्रायश्चित्तं सनातनम्।
ब्राह्मणस्य विशेषण यदज्ञानेन सम्भवेत् ॥ ७८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार यह सनातन प्रायश्चित्त सबके लिये बताया गया है। ब्राह्मणके लिये इसका विशेषरूपसे विधान है। अनजानमें जो पाप बन जाय, उसीके लिये प्रायश्चित्त है॥७८॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि आपद्धर्मपर्वणि प्रायश्चित्तीये पञ्चषष्ट्यधिकशततमोऽध्यायः ॥ १६५ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत आपद्धर्मपर्वमें पापोंके प्रायश्चित्तकी विधिविषयक एक सौ पैंसठवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१६५॥

सूचना (हिन्दी)

(दाक्षिणात्य अधिक पाठका श्लोक मिलाकर कुल ७८ श्लोक हैं)


  1. जिसने अग्निकी स्थापना नहीं की है, उसे ‘अनाहिताग्नि’ कहा जाता है। तात्पर्य यह कि उक्त दक्षिणा दिये बिना उसके द्वारा की हुई अग्निस्थापना व्यर्थ हो जाती है। ↩︎