१६४ नृशंसाख्याने

भागसूचना

चतुःषष्ट्यधिकशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

नृशंस अर्थात् अत्यन्त नीच पुरुषके लक्षण

मूलम् (वचनम्)

युधिष्ठिर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

आनृशंस्यं विजानामि दर्शनेन सतां सदा।
नृशंसान्न विजानामि तेषां कर्म च भारत ॥ १ ॥

मूलम्

आनृशंस्यं विजानामि दर्शनेन सतां सदा।
नृशंसान्न विजानामि तेषां कर्म च भारत ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिरने पूछा— भरतनन्दन! सदा श्रेष्ठ पुरुषोंके सेवन और दर्शनसे मैं इस बातको तो जानता हूँ कि कोमलतापूर्ण बर्ताव कैसे किया जाता है? परंतु नृशंस मनुष्यों और उनके कर्मोंका मुझे विशेष ज्ञान नहीं है॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कण्टकान् कूपमग्निं च वर्जयन्ति यथा नराः।
तथा नृशंसकर्माणं वर्जयन्ति नरा नरम् ॥ २ ॥

मूलम्

कण्टकान् कूपमग्निं च वर्जयन्ति यथा नराः।
तथा नृशंसकर्माणं वर्जयन्ति नरा नरम् ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे मनुष्य रास्तेमें मिले हुए काँटों, कुओं और आगको बचाकर चलते हैं, उसी प्रकार मनुष्य नृशंस कर्म करनेवाले पुरुषको भी दूरसे ही त्याग देते हैं॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नृशंसो दह्यते नित्यं प्रेत्य चेह च भारत।
तस्मात् त्वं ब्रूहि कौरव्य तस्य धर्मविनिश्चयम् ॥ ३ ॥

मूलम्

नृशंसो दह्यते नित्यं प्रेत्य चेह च भारत।
तस्मात् त्वं ब्रूहि कौरव्य तस्य धर्मविनिश्चयम् ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भारत! कुरुनन्दन! नृशंस मनुष्य इसलोक और परलोकमें भी सदा ही शोककी आगसे जलता रहता है; अतः आप मुझे नृशंस मनुष्य और उसके धर्म-कर्मका यथार्थ परिचय दीजिये॥३॥

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्पृहा स्याद् गर्हिता चैव विधित्सा चैव कर्मणाम्।
आक्रोष्टा क्रुश्यते चैव वञ्चितो बुद्ध्यते स च ॥ ४ ॥
दत्तानुकीर्तिर्विषमः क्षुद्रो नैकृतिकः शठः।
असंविभागी मानी च तथा सङ्गी विकत्थनः ॥ ५ ॥
सर्वातिशङ्की पुरुषो बलीशः कृपणोऽथवा।
वर्गप्रशंसी सततमाश्रमद्वेषसंकरी ॥ ६ ॥
हिंसाविहारः सततमविशेषगुणागुणः ।
बह्वलीकोऽमनस्वी च लुब्धोऽत्यर्थं नृशंसकृत् ॥ ७ ॥

मूलम्

स्पृहा स्याद् गर्हिता चैव विधित्सा चैव कर्मणाम्।
आक्रोष्टा क्रुश्यते चैव वञ्चितो बुद्ध्यते स च ॥ ४ ॥
दत्तानुकीर्तिर्विषमः क्षुद्रो नैकृतिकः शठः।
असंविभागी मानी च तथा सङ्गी विकत्थनः ॥ ५ ॥
सर्वातिशङ्की पुरुषो बलीशः कृपणोऽथवा।
वर्गप्रशंसी सततमाश्रमद्वेषसंकरी ॥ ६ ॥
हिंसाविहारः सततमविशेषगुणागुणः ।
बह्वलीकोऽमनस्वी च लुब्धोऽत्यर्थं नृशंसकृत् ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजीने कहा— राजन्! जिसके मनमें बड़ी घृणित इच्छाएँ रहती हैं, जो हिंसाप्रधान कुत्सित कर्मोंको आरम्भ करना चाहता है, स्वयं दूसरोंकी निन्दा करता है और दूसरे उसकी निन्दा करते हैं, जो अपनेको दैवसे वञ्चित समझता और पापमें प्रवृत्त होता है, दिये हुए दानका बारंबार बखान करता है, जिसके मनमें विषमता भरी रहती है, जो नीच कर्म करनेवाला, दूसरोंकी जीविकाका नाश करनेवाला और शठ है, भोग्य वस्तुओंको दूसरोंको दिये बिना ही अकेले भोगता है, जिसके भीतर अभिमान भरा हुआ है, जो विषयोंमें आसक्त और अपनी प्रशंसाके लिये व्यर्थ ही बढ़-बढ़कर बातें बनानेवाला है, जिसके मनमें सबके प्रति संदेह बना रहता है, जो कौएकी तरह वंचक दृष्टि रखनेवाला है, जिसमें कृपणता कूट-कूटकर भरी है, जो अपने ही वर्गके लोगोंकी प्रशंसा करता, सदा आश्रमोंसे द्वेष रखता और वर्णसंकरता फैलाता है, सदा हिंसाके लिये ही जिसका घूमना-फिरना होता है, जो गुणको भी अवगुणके समान समझता और बहुत झूठ बोलता है, जिसके मनमें उदारता नहीं है और जो अत्यन्त लोभी है, ऐसा मनुष्य ही नृशंस कर्म करनेवाला कहा गया है॥४—७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धर्मशीलं गुणोपेतं पापमित्यवगच्छति ।
आत्मशीलप्रमाणेन न विश्वसिति कस्यचित् ॥ ८ ॥

मूलम्

धर्मशीलं गुणोपेतं पापमित्यवगच्छति ।
आत्मशीलप्रमाणेन न विश्वसिति कस्यचित् ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह धर्मात्मा और गुणवान् पुरुषको ही पापी मानता है और अपने स्वभावको आदर्श मानकर किसीपर विश्वास नहीं करता है॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

परेषां यत्र दोषः स्यात् तद् गुह्यं सम्प्रकाशयेत्।
समानेष्वेव दोषेषु वृत्त्यर्थमुपघातयेत् ॥ ९ ॥

मूलम्

परेषां यत्र दोषः स्यात् तद् गुह्यं सम्प्रकाशयेत्।
समानेष्वेव दोषेषु वृत्त्यर्थमुपघातयेत् ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जहाँ दूसरोंकी बदनामी होती हो, वहाँ उनके गुप्त दोषोंको भी प्रकट कर देता है और अपने तथा दूसरेके अपराध बारबर होनेपर भी वह आजीविकाके लिये दूसरेका ही सर्वनाश करता है॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथोपकारिणं चैव मन्यते वञ्चितं परम्।
दत्त्वापि च धनं काले संतपत्युपकारिणे ॥ १० ॥

मूलम्

तथोपकारिणं चैव मन्यते वञ्चितं परम्।
दत्त्वापि च धनं काले संतपत्युपकारिणे ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो उसका उपकार करता है, उसको वह अपने जालमें फँसा हुआ समझता है और उपकारीको भी यदि कभी धन देता है तो उसके लिये बहुत समयतक पश्चात्ताप करता रहता है॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भक्ष्यं पेयमथालेह्यं यच्चान्यत् साधु भोजनम्।
प्रेक्षमाणेषु योऽश्नीयान्नृशंसमिति तं वदेत् ॥ ११ ॥

मूलम्

भक्ष्यं पेयमथालेह्यं यच्चान्यत् साधु भोजनम्।
प्रेक्षमाणेषु योऽश्नीयान्नृशंसमिति तं वदेत् ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो मनुष्य दूसरोंके देखते रहनेपर भी उत्तम भक्ष्य, पेय, लेह्य तथा दूसरे-दूसरे भोज्य पदार्थोंको अकेला ही खा जाता है, उसको भी नृशंस ही कहना चाहिये॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्राह्मणेभ्यः प्रदायाग्रं यः सुहृद्भिः सहाश्नुते।
स प्रेत्य लभते स्वर्गमिह चानन्त्यमश्नुते ॥ १२ ॥

मूलम्

ब्राह्मणेभ्यः प्रदायाग्रं यः सुहृद्भिः सहाश्नुते।
स प्रेत्य लभते स्वर्गमिह चानन्त्यमश्नुते ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो पहले ब्राह्मणको देकर पीछे अपने सुहृदोंके साथ स्वयं भोजन करता है, वह इस लोकमें अनन्त सुख भोगता है और मृत्युके पश्चात् स्वर्गलोकमें जाता है॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एष ते भरतश्रेष्ठ नृशंसः परिकीर्तितः।
सदा विवर्जनीयो हि पुरुषेण विजानता ॥ १३ ॥

मूलम्

एष ते भरतश्रेष्ठ नृशंसः परिकीर्तितः।
सदा विवर्जनीयो हि पुरुषेण विजानता ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतश्रेष्ठ! इस प्रकार तुम्हारे प्रश्नके अनुसार यहाँ नृशंस मनुष्यका परिचय दिया गया है। विज्ञ पुरुषको चाहिये कि वह सदा उससे बचकर रहे॥१३॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि आपद्धर्मपर्वणि नृशंसाख्याने चतुःषष्ट्यधिकशततमोऽध्यायः ॥ १६४ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत आपद्धर्मपर्वमें नृशंसका वर्णनविषयक एक सौ चौंसठवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१६४॥