भागसूचना
त्रिषष्ट्यधिकशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
काम, क्रोध आदि तेरह दोषोंका निरूपण और उनके नाशका उपाय
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
यतः प्रभवति क्रोधः कामो वा भरतर्षभ।
शोकमोहौ विधित्सा च परासुत्वं तथा मदः ॥ १ ॥
लोभो मात्सर्यमीर्ष्या च कुत्सासूया कृपा तथा।
एतत् सर्वं महाप्राज्ञ याथातथ्येन मे वद ॥ २ ॥
मूलम्
यतः प्रभवति क्रोधः कामो वा भरतर्षभ।
शोकमोहौ विधित्सा च परासुत्वं तथा मदः ॥ १ ॥
लोभो मात्सर्यमीर्ष्या च कुत्सासूया कृपा तथा।
एतत् सर्वं महाप्राज्ञ याथातथ्येन मे वद ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिरने पूछा— भरतश्रेष्ठ! परम बुद्धिमान् पितामह! क्रोध, काम, शोक, मोह, विधित्सा (शास्त्र-विरुद्ध काम करनेकी इच्छा), परासुता (दूसरोंके मारनेकी इच्छा), मद, लोभ, मात्सर्य, ईर्ष्या, निन्दा, दोषदृष्टि और कंजूसी (दैन्यभाव)—ये सब दोष किससे उत्पन्न होते हैं?, यह ठीक-ठीक बताइये॥१-२॥
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्रयोदशैतेऽतिबलाः शत्रवः प्राणिनां स्मृताः।
उपासन्ते महाराज समन्तात् पुरुषानिह ॥ ३ ॥
मूलम्
त्रयोदशैतेऽतिबलाः शत्रवः प्राणिनां स्मृताः।
उपासन्ते महाराज समन्तात् पुरुषानिह ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजीने कहा— महाराज युधिष्ठिर! तुम्हारे कहे हुए ये तेरह दोष प्राणियोंके अत्यन्त प्रबल शत्रु माने गये हैं, जो यहाँ मनुष्योंको सब ओरसे घेरे रहते हैं॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एते प्रमत्तं पुरुषमप्रमत्तास्तुदन्ति च।
वृका इव विलुम्पन्ति दृष्ट्वैव पुरुषं बलात् ॥ ४ ॥
मूलम्
एते प्रमत्तं पुरुषमप्रमत्तास्तुदन्ति च।
वृका इव विलुम्पन्ति दृष्ट्वैव पुरुषं बलात् ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ये सदा सावधान रहकर प्रमादमें पड़े हुए पुरुषको अत्यन्त पीड़ा देते हैं। मनुष्यको देखते ही भेड़ियोंकी तरह बलपूर्वक उसपर टूट पड़ते हैं॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एभ्यः प्रवर्तते दुःखमेभ्यः पापं प्रवर्तते।
इति मर्त्यो विजानीयात् सततं पुरुषर्षभ ॥ ५ ॥
मूलम्
एभ्यः प्रवर्तते दुःखमेभ्यः पापं प्रवर्तते।
इति मर्त्यो विजानीयात् सततं पुरुषर्षभ ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नरश्रेष्ठ! इन्हींसे सबको दुःख प्राप्त होता है, इन्हींकी प्रेरणासे मनुष्यकी पापकर्मोंमें प्रवृत्ति होती है। प्रत्येक पुरुषको सदा इस बातकी जानकारी रखनी चाहिये॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतेषामुदयं स्थानं क्षयं च पृथिवीपते।
हन्त ते कथयिष्यामि क्रोधस्योत्पत्तिमादितः ॥ ६ ॥
यथातत्त्वं क्षितिपते तदिहैकमनाः शृणु।
मूलम्
एतेषामुदयं स्थानं क्षयं च पृथिवीपते।
हन्त ते कथयिष्यामि क्रोधस्योत्पत्तिमादितः ॥ ६ ॥
यथातत्त्वं क्षितिपते तदिहैकमनाः शृणु।
अनुवाद (हिन्दी)
पृथ्वीनाथ! अब मैं यह बता रहा हूँ कि इनकी उत्पत्ति किससे होती है? ये किस तरह स्थिर रहते हैं? और कैसे इनका विनाश होता है? राजन्! सबसे पहले क्रोधकी उत्पत्तिका यथार्थरूपसे वर्णन करता हूँ। तुम यहाँ एकाग्रचित्त होकर इस विषयको सुनो॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
लोभात् क्रोधः प्रभवति परदोषैरुदीर्यते ॥ ७ ॥
क्षमया तिष्ठते राजन् क्षमया विनिवर्तते।
मूलम्
लोभात् क्रोधः प्रभवति परदोषैरुदीर्यते ॥ ७ ॥
क्षमया तिष्ठते राजन् क्षमया विनिवर्तते।
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! क्रोध लोभसे उत्पन्न होता है, दूसरोंके दोष देखनेसे बढ़ता, क्षमा करनेसे थम जाता और क्षमासे ही निवृत्त हो जाता है॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
संकल्पाज्जायते कामः सेव्यमानो विवर्धते ॥ ८ ॥
यदा प्राज्ञो विरमते तदा सद्यः प्रणश्यति।
मूलम्
संकल्पाज्जायते कामः सेव्यमानो विवर्धते ॥ ८ ॥
यदा प्राज्ञो विरमते तदा सद्यः प्रणश्यति।
अनुवाद (हिन्दी)
काम संकल्पसे उत्पन्न होता है। उसका सेवन किया जाय तो बढ़ता है और जब बुद्धिमान् पुरुष उससे विरक्त हो जाता है, तब वह (काम) तत्काल नष्ट हो जाता है॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
परासुता क्रोधलोभादभ्यासाच्च प्रवर्तते ॥ ९ ॥
दयया सर्वभूतानां निर्वेदात् सा निवर्तते।
अवद्यदर्शनादेति तत्त्वज्ञानाच्च धीमताम् ॥ १० ॥
मूलम्
परासुता क्रोधलोभादभ्यासाच्च प्रवर्तते ॥ ९ ॥
दयया सर्वभूतानां निर्वेदात् सा निवर्तते।
अवद्यदर्शनादेति तत्त्वज्ञानाच्च धीमताम् ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
क्रोध और लोभसे तथा अभ्याससे परासुता प्रकट होती है। संपूर्ण प्राणियोंके प्रति दयासे और वैराग्यसे वह निवृत्त होती है। परदोष-दर्शनसे इसकी उत्पत्ति होती और बुद्धिमानोंके तत्त्वज्ञानसे वह नष्ट हो जाती है॥९-१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अज्ञानप्रभवो मोहः पापाभ्यासात् प्रवर्तते।
यदा प्राज्ञेषु रमते तदा सद्यः प्रणश्यति ॥ ११ ॥
मूलम्
अज्ञानप्रभवो मोहः पापाभ्यासात् प्रवर्तते।
यदा प्राज्ञेषु रमते तदा सद्यः प्रणश्यति ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मोह अज्ञानसे उत्पन्न होता है और पापकी आवृत्ति करनेसे बढ़ता है। जब मनुष्य विद्वानोंमें अनुराग करता है, तब उसका मोह तत्काल नष्ट हो जाता है॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विरुद्धानीह शास्त्राणि ये पश्यन्ति कुरूद्वह।
विधित्सा जायते तेषां तत्त्वज्ञानान्निवर्तते ॥ १२ ॥
मूलम्
विरुद्धानीह शास्त्राणि ये पश्यन्ति कुरूद्वह।
विधित्सा जायते तेषां तत्त्वज्ञानान्निवर्तते ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुरुश्रेष्ठ! जो लोग धर्मके विरोधी शास्त्रोंका अवलोकन करते हैं, उनके मनमें अनुचित कर्म करनेकी इच्छारूप विधित्सा उत्पन्न होती है। यह तत्त्वज्ञानसे निवृत्त होती है॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रीत्या शोकः प्रभवति वियोगात् तस्य देहिनः।
यदा निरर्थकं वेत्ति तदा सद्यः प्रणश्यति ॥ १३ ॥
मूलम्
प्रीत्या शोकः प्रभवति वियोगात् तस्य देहिनः।
यदा निरर्थकं वेत्ति तदा सद्यः प्रणश्यति ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिसपर प्रेम हो, उस प्राणीके वियोगसे शोक प्रकट होता है। परंतु जब मनुष्य यह समझ ले कि शोक व्यर्थ है—उससे कोई लाभ नहीं है तो तुरंत ही उस शोककी शान्ति हो जाती है॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
परासुता क्रोधलोभादभ्यासाच्च प्रवर्तते ।
दयया सर्वभूतानां निर्वेदात् सा निवर्तते ॥ १४ ॥
मूलम्
परासुता क्रोधलोभादभ्यासाच्च प्रवर्तते ।
दयया सर्वभूतानां निर्वेदात् सा निवर्तते ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
क्रोध, लोभ और अभ्यासके कारण परासुता अर्थात् दूसरोंको मारनेकी इच्छा होती है। समस्त प्राणियोंके प्रति दया और वैराग्य होनेसे उसकी निवृत्ति हो जाती है॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सत्यत्यागात् तु मात्सर्यमहितानां च सेवया।
एतत् तु क्षीयते तात साधूनामुपसेवनात् ॥ १५ ॥
मूलम्
सत्यत्यागात् तु मात्सर्यमहितानां च सेवया।
एतत् तु क्षीयते तात साधूनामुपसेवनात् ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सत्यका त्याग और दुष्टोंका साथ करनेसे मात्सर्य-दोषकी उत्पत्ति होती है। तात! श्रेष्ठ पुरुषोंकी सेवा और संगति करनेसे उसका नाश हो जाता है॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कुलाज्ज्ञानात् तथैश्वर्यान्मदो भवति देहिनाम्।
एभिरेव तु विज्ञातैः स च सद्यः प्रणश्यति ॥ १६ ॥
मूलम्
कुलाज्ज्ञानात् तथैश्वर्यान्मदो भवति देहिनाम्।
एभिरेव तु विज्ञातैः स च सद्यः प्रणश्यति ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अपने उत्तम कुल, उत्कृष्ट ज्ञान तथा ऐश्वर्यका अभिमान होनेसे देहाभिमानी मनुष्योंपर मद सवार हो जाता है; परंतु इनके यथार्थ स्वरूपका ज्ञान हो जानेपर वह मद तत्काल उतर जाता है॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ईर्ष्या कामात् प्रभवति संहर्षाच्चैव जायते।
इतरेषां तु सत्त्वानां प्रज्ञया सा प्रणश्यति ॥ १७ ॥
मूलम्
ईर्ष्या कामात् प्रभवति संहर्षाच्चैव जायते।
इतरेषां तु सत्त्वानां प्रज्ञया सा प्रणश्यति ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मनमें कामना होनेसे तथा दूसरे प्राणियोंकी हँसी-खुशी देखनेसे ईर्ष्याकी उत्पत्ति होती है तथा विवेकशील बुद्धिके द्वारा उसका नाश होता है॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विभ्रमाल्लोकबाह्यानां द्वेष्यैर्वाक्यैरसम्मतैः ।
कुत्सा संजायते राजल्ँलोकान् प्रेक्ष्याभिशाम्यति ॥ १८ ॥
मूलम्
विभ्रमाल्लोकबाह्यानां द्वेष्यैर्वाक्यैरसम्मतैः ।
कुत्सा संजायते राजल्ँलोकान् प्रेक्ष्याभिशाम्यति ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! समाजसे बहिष्कृत हुए नीच मनुष्योंके द्वेषपूर्ण तथा अप्रामाणिक वचनोंको सुनकर भ्रममें पड़ जानेसे निन्दा करनेकी आदत होती है; परंतु श्रेष्ठ पुरुषोंको देखनेसे वह शान्त हो जाती है॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रतिकर्तुं न शक्ता ये बलस्थायापकारिणे।
असूया जायते तीव्रा कारुण्याद् विनिवर्तते ॥ १९ ॥
मूलम्
प्रतिकर्तुं न शक्ता ये बलस्थायापकारिणे।
असूया जायते तीव्रा कारुण्याद् विनिवर्तते ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो लोग अपनी बुराई करनेवाले बलवान् मनुष्यसे बदला लेनेमें असमर्थ होते हैं, उनके हृदयमें तीव्र असूया (दोषदर्शनकी प्रवृत्ति) पैदा होती है, परंतु दयाका भाव जाग्रत् होनेसे उसकी निवृत्ति हो जाती है॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृपणान् सततं दृष्ट्वा ततः संजायते कृपा।
धर्मनिष्ठां यदा वेत्ति तदा शाम्यति सा कृपा ॥ २० ॥
मूलम्
कृपणान् सततं दृष्ट्वा ततः संजायते कृपा।
धर्मनिष्ठां यदा वेत्ति तदा शाम्यति सा कृपा ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सदा कृपण मनुष्योंको देखनेसे अपनेमें भी दैन्यभाव—कंजूसीका भाव पैदा होता है; धर्मनिष्ठ पुरुषोंके उदार भावको जान लेनेपर वह कंजूसीका भाव नष्ट हो जाता है॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अज्ञानप्रभवो लोभो भूतानां दृश्यते सदा।
अस्थिरत्वं च भोगानां दृष्ट्वा ज्ञात्वा निवर्तते ॥ २१ ॥
मूलम्
अज्ञानप्रभवो लोभो भूतानां दृश्यते सदा।
अस्थिरत्वं च भोगानां दृष्ट्वा ज्ञात्वा निवर्तते ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्राणियोंका भोगोंके प्रति जो लोभ देखा जाता है, वह अज्ञानके ही कारण है। भोगोंकी क्षणभङ्गुरताको देखने और जाननेसे उसकी निवृत्ति हो जाती है॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतान्येव जितान्याहुः प्रशमाच्च त्रयोदश।
एते हि धार्तराष्ट्राणां सर्वे दोषास्त्रयोदश ॥ २२ ॥
त्वया सत्यार्थिना नित्यं विजिता ज्येष्ठसेवनात् ॥ २३ ॥
मूलम्
एतान्येव जितान्याहुः प्रशमाच्च त्रयोदश।
एते हि धार्तराष्ट्राणां सर्वे दोषास्त्रयोदश ॥ २२ ॥
त्वया सत्यार्थिना नित्यं विजिता ज्येष्ठसेवनात् ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कहते हैं, ये तेरहों दोष शान्ति धारण करनेसे जीत लिये जाते हैं। धृतराष्ट्रके पुत्रोंमें ये सभी दोष मौजूद थे और तुम सत्यको ग्रहण करना चाहते हो; इसलिये तुमने श्रेष्ठ पुरुषोंके सेवनसे इन सबपर विजय प्राप्त कर ली॥२२-२३॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि आपद्धर्मपर्वणि लोभनिरूपणे त्रिषष्ट्यधिकशततमोऽध्यायः ॥ १६३ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत आपद्धर्मपर्वमें लोभनिरूपणविषयक एक सौ तिरसठवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१६३॥