१६२ सत्यप्रशंसायाम्

भागसूचना

द्विषष्ट्यधिकशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

सत्यके लक्षण, स्वरूप और महिमाका वर्णन

मूलम् (वचनम्)

युधिष्ठिर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

सत्यं धर्मं प्रशंसन्ति विप्रर्षिपितृदेवताः।
सत्यमिच्छाम्यहं श्रीतुं तन्मे ब्रूहि पितामह ॥ १ ॥

मूलम्

सत्यं धर्मं प्रशंसन्ति विप्रर्षिपितृदेवताः।
सत्यमिच्छाम्यहं श्रीतुं तन्मे ब्रूहि पितामह ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिरने पूछा— पितामह! ब्राह्मण, ऋषि, पितर और देवता—ये सब सत्यभाषणरूप धर्मकी प्रशंसा करते हैं; अतः अब मैं यह सुनना चाहता हूँ कि सत्य क्या है? उसे मुझे बताइये॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सत्यं किं लक्षणं राजन् कथं वा तदवाप्यते।
सत्यं प्राप्य भवेत् किं च कथं चैव तदुच्यताम्॥२॥

मूलम्

सत्यं किं लक्षणं राजन् कथं वा तदवाप्यते।
सत्यं प्राप्य भवेत् किं च कथं चैव तदुच्यताम्॥२॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! सत्यका लक्षण क्या है? उसकी प्राप्ति कैसे होती है? सत्यका पालन करनेसे क्या लाभ होता है? और कैसे होता है? यह बताइये॥२॥

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

चातुर्वर्ण्यस्य धर्माणां संकरो न प्रशस्यस्ते।
अविकारितमं सत्यं सर्ववर्णेषु भारत ॥ ३ ॥

मूलम्

चातुर्वर्ण्यस्य धर्माणां संकरो न प्रशस्यस्ते।
अविकारितमं सत्यं सर्ववर्णेषु भारत ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजीने कहा— भरतनन्दन! ब्राह्मण आदि चारों वर्णोंके जो धर्म हैं, उनका परस्पर सम्मिश्रण अच्छा नहीं माना जाता है। निर्विकार सत्य सभी वर्णोंमें प्रतिष्ठित है॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सत्यं सत्सु सदा धर्मः सत्यं धर्मः सनातनः।
सत्यमेव नमस्येत सत्यं हि परमा गतिः ॥ ४ ॥

मूलम्

सत्यं सत्सु सदा धर्मः सत्यं धर्मः सनातनः।
सत्यमेव नमस्येत सत्यं हि परमा गतिः ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सत्पुरुषोंमें सदा सत्यरूप धर्मका ही पालन हुआ है। सत्य ही सनातन धर्म है। सत्यको ही सदा सिर झुकाना चाहिये; क्योंकि सत्य ही जीवकी परम गति है॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सत्यं धर्मस्तपो योगः सत्यं ब्रह्म सनातनम्।
सत्यं यज्ञः परः प्रोक्तः सर्वं सत्ये प्रतिष्ठितम् ॥ ५ ॥

मूलम्

सत्यं धर्मस्तपो योगः सत्यं ब्रह्म सनातनम्।
सत्यं यज्ञः परः प्रोक्तः सर्वं सत्ये प्रतिष्ठितम् ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सत्य ही धर्म, तप और योग है, सत्य ही सनातन ब्रह्म है, सत्यको ही परम यज्ञ कहा गया है तथा सब कुछ सत्यपर ही टिका हुआ है॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आचारानिह सत्यस्य यथावदनुपूर्वशः ।
लक्षणं च प्रवक्ष्यामि सत्यस्येह यथाक्रमम् ॥ ६ ॥

मूलम्

आचारानिह सत्यस्य यथावदनुपूर्वशः ।
लक्षणं च प्रवक्ष्यामि सत्यस्येह यथाक्रमम् ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अब मैं तुम्हें क्रमशः सत्यके आचार और लक्षण ठीक-ठीक बताऊँगा॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्राप्यते च यथा सत्यं तच्च श्रोतुमिहार्हसि।
सत्यं त्रयोदशविधं सर्वलोकेषु भारत ॥ ७ ॥

मूलम्

प्राप्यते च यथा सत्यं तच्च श्रोतुमिहार्हसि।
सत्यं त्रयोदशविधं सर्वलोकेषु भारत ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

साथ ही यह भी बता देना चाहता हूँ कि उस सत्यकी प्राप्ति कैसे होती है? तुम ध्यान देकर सुनो। भारत! सम्पूर्ण लोकोंमें सत्यके तेरह भेद माने गये हैं॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सत्यं च समता चैव दमश्चैव न संशयः।
अमात्सर्यं क्षमा चैव ह्रीस्तितिक्षानसूयता ॥ ८ ॥
त्यागो ध्यानमथार्यत्वं धृतिश्च सततं स्थिरा।
अहिंसा चैव राजेन्द्र सत्याकारास्त्रयोदश ॥ ९ ॥

मूलम्

सत्यं च समता चैव दमश्चैव न संशयः।
अमात्सर्यं क्षमा चैव ह्रीस्तितिक्षानसूयता ॥ ८ ॥
त्यागो ध्यानमथार्यत्वं धृतिश्च सततं स्थिरा।
अहिंसा चैव राजेन्द्र सत्याकारास्त्रयोदश ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजेन्द्र! सत्य, समता, दम, मत्सरताका अभाव, क्षमा, लज्जा, तितिक्षा (सहनशीलता), अनसूया, त्याग, परमात्माका ध्यान, आर्यता (श्रेष्ठ आचरण), निरन्तर स्थिर रहनेवाली धृति (धैर्य) तथा अहिंसा—ये तेरह सत्यके ही स्वरूप हैं, इसमें संशय नहीं है॥८-९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सत्यं नामाव्ययं नित्यमविकारि तथैव च।
सर्वधर्माविरुद्धेन योगेनैतदवाप्यते ॥ १० ॥

मूलम्

सत्यं नामाव्ययं नित्यमविकारि तथैव च।
सर्वधर्माविरुद्धेन योगेनैतदवाप्यते ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नित्य एकरस, अविनाशी और अविकारी होना ही सत्यका लक्षण है। समस्त धर्मोंके अनुकूल कर्तव्य-पालनरूप योगके द्वारा इस सत्यकी प्राप्ति होती है॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आत्मनीष्टे तथानिष्टे रिपौ च समता तथा।
इच्छाद्वेषक्षयं प्राप्य कामक्रोधक्षयं तथा ॥ ११ ॥

मूलम्

आत्मनीष्टे तथानिष्टे रिपौ च समता तथा।
इच्छाद्वेषक्षयं प्राप्य कामक्रोधक्षयं तथा ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अपने प्रिय मित्रमें तथा अप्रिय शत्रुमें भी समानभाव रखना ‘समता’ है। इच्छा (राग), द्वेष, काम और क्रोधको मिटा देना ही समताकी प्राप्तिका उपाय है॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दमो नान्यस्पृहा नित्यं गाम्भीर्यं धैर्यमेव च।
अभयं रोगशमनं ज्ञानेनैतदवाप्यते ॥ १२ ॥

मूलम्

दमो नान्यस्पृहा नित्यं गाम्भीर्यं धैर्यमेव च।
अभयं रोगशमनं ज्ञानेनैतदवाप्यते ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

किसी दूसरेकी वस्तुको लेनेकी इच्छा न करना, सदा गम्भीरता और धीरता रखना, भयको त्याग देना तथा मनके रोगोंको शान्त कर देना-यह ‘दम’ (मन और इन्द्रियोंके संयम) का लक्षण है। इसकी प्राप्ति ज्ञानसे होती है॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अमात्सर्यं बुधाः प्राहुर्दाने धर्मे च संयमः।
अवस्थितेन नित्यं च सत्येनामत्सरी भवेत् ॥ १३ ॥

मूलम्

अमात्सर्यं बुधाः प्राहुर्दाने धर्मे च संयमः।
अवस्थितेन नित्यं च सत्येनामत्सरी भवेत् ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

दान और धर्म करते समय मनपर संयम रखना अर्थात् इस विषयमें दूसरोंसे ईर्ष्या न करना इसे विद्वान् लोग ‘मत्सरताका अभाव’ कहते हैं। सदा सत्यका पालन करनेसे ही मनुष्य मत्सरतासे रहित हो सकता है॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अक्षमायाः क्षमायाश्च प्रियाणीहाप्रियाणि च।
क्षमते सम्मतः साधुः साध्वाप्नोति च सत्यवाक् ॥ १४ ॥

मूलम्

अक्षमायाः क्षमायाश्च प्रियाणीहाप्रियाणि च।
क्षमते सम्मतः साधुः साध्वाप्नोति च सत्यवाक् ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो सहने और न सहनेयोग्य व्यवहारों तथा प्रिय एवं अप्रिय वचनोंको भी समानरूपसे सहन कर लेता है, वही सर्वसम्मत क्षमाशील श्रेष्ठ पुरुष है। सत्यवादी पुरुषको ही उत्तम रीतिसे क्षमाभावकी प्राप्ति होती है॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कल्याणं कुरुते बाढं धीमान् न ग्लायते क्वचित्।
प्रशान्तवाङ्‌मना नित्यं ह्रीस्तु धर्मादवाप्यते ॥ १५ ॥

मूलम्

कल्याणं कुरुते बाढं धीमान् न ग्लायते क्वचित्।
प्रशान्तवाङ्‌मना नित्यं ह्रीस्तु धर्मादवाप्यते ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो बुद्धिमान् पुरुष भलीभाँति दूसरोंका कल्याण करता है और मनमें कभी खेद नहीं मानता, जिसकी मन-वाणी सदा शान्त रहती है, वह लज्जाशील माना जाता है। यह लज्जा नामक गुण धर्मके आचरणसे प्राप्त होता है॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धर्मार्थहेतोः क्षमते तितिक्षा क्षान्तिरुच्यते।
लोकसंग्रहणार्थं वै सा तु धैर्येण लभ्यते ॥ १६ ॥

मूलम्

धर्मार्थहेतोः क्षमते तितिक्षा क्षान्तिरुच्यते।
लोकसंग्रहणार्थं वै सा तु धैर्येण लभ्यते ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

धर्म और अर्थके लिये मनुष्य जो कष्ट सहन करता है, उसकी वह सहनशीलता ‘तितिक्षा’ कहलाती है। लोगोंके सामने आदर्श उपस्थित करनेके लिये उसका अवश्य पालन करना चाहिये। तितिक्षाकी प्राप्ति धैर्यसे होती है। (दूसरोंके दोष न देखना ‘अनसूया’ है)॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्यागः स्नेहस्य यत् त्यागो विषयाणां तथैव च।
रागद्वेषप्रहीणस्य त्यागो भवति नान्यथा ॥ १७ ॥

मूलम्

त्यागः स्नेहस्य यत् त्यागो विषयाणां तथैव च।
रागद्वेषप्रहीणस्य त्यागो भवति नान्यथा ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

विषयोंकी आसक्तिका जो त्याग है, वही वास्तविक त्याग है। राग-द्वेषसे रहित होनेपर ही त्यागकी सिद्धि होती है, अन्यथा नहीं (परमात्मचिन्तनका नाम ही ‘ध्यान’ है)॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आर्यता नाम भूतानां यः करोति प्रयत्नतः।
शुभं कर्म निराकारो वीतरागस्तथैव च ॥ १८ ॥

मूलम्

आर्यता नाम भूतानां यः करोति प्रयत्नतः।
शुभं कर्म निराकारो वीतरागस्तथैव च ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो मनुष्य अपनेको प्रकट न करके प्रयत्नपूर्वक प्राणियोंकी भलाईका काम करता रहता है, उसके उस श्रेष्ठ भाव और आचरणका नाम ही ‘आर्यता’ है। यह आसक्तिके त्यागसे प्राप्त होता है॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धृतिर्नाम सुखे दुःखे यथा नाप्नोति विक्रियाम्।
ता भजेत सदा प्राज्ञो य इच्छेद् भूतिमात्मनः ॥ १९ ॥

मूलम्

धृतिर्नाम सुखे दुःखे यथा नाप्नोति विक्रियाम्।
ता भजेत सदा प्राज्ञो य इच्छेद् भूतिमात्मनः ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सुख या दुःख प्राप्त होनेपर मनमें विकार न होना ‘धृति’ है। जो अपनी उन्नति चाहता हो, उस बुद्धिमान् पुरुषको सदा ही ‘धृति’ का सेवन करना चाहिये॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वथा क्षमिणा भाव्यं तथा सत्यपरेण च।
वीतहर्षभयक्रोधो धृतिमाप्नोति पण्डितः ॥ २० ॥

मूलम्

सर्वथा क्षमिणा भाव्यं तथा सत्यपरेण च।
वीतहर्षभयक्रोधो धृतिमाप्नोति पण्डितः ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मनुष्यको सदा क्षमाशील होना तथा सत्यमें तत्पर रहना चाहिये। जिसने हर्ष, भय और क्रोध तीनोंको त्याग दिया है, उस विद्वान् पुरुषको ही ‘धैर्य’ की प्राप्ति होती है॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अद्रोहः सर्वभूतेषु कर्मणा मनसा गिरा।
अनुग्रहश्च दानं च सतां धर्मः सनातनः ॥ २१ ॥

मूलम्

अद्रोहः सर्वभूतेषु कर्मणा मनसा गिरा।
अनुग्रहश्च दानं च सतां धर्मः सनातनः ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मन, वाणी और क्रियाद्वारा सभी प्राणियोंके साथ कभी द्रोह न करना तथा दया और दान—यह श्रेष्ठ पुरुषोंका सनातन धर्म है॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एते त्रयोदशाकाराः पृथक् सत्यैकलक्षणाः।
भजन्ते सत्यमेवेह बृंहयन्ते च भारत ॥ २२ ॥

मूलम्

एते त्रयोदशाकाराः पृथक् सत्यैकलक्षणाः।
भजन्ते सत्यमेवेह बृंहयन्ते च भारत ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ये पृथक्-पृथक् तेरह रूपोंमें बताये हुए धर्म एकमात्र सत्यको ही लक्षित करानेवाले हैं। ये सत्यका ही आश्रय लेते और उसीकी वृद्धि एवं पुष्टि करते हैं॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नान्तः शक्यो गुणानां च वक्तुं सत्यस्य पार्थिव।
अतः सत्यं प्रशंसन्ति विप्राः सपितृदेवताः ॥ २३ ॥

मूलम्

नान्तः शक्यो गुणानां च वक्तुं सत्यस्य पार्थिव।
अतः सत्यं प्रशंसन्ति विप्राः सपितृदेवताः ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पृथ्वीनाथ! सत्यके गुणोंकी सीमा नहीं बतायी जा सकती। इसीलिये पितर और देवताओंके सहित ब्राह्मण सत्यकी प्रशंसा करते हैं॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नास्ति सत्यात् परो धर्मो नानृतात् पातकं परम्।
स्थितिर्हि सत्यं धर्मस्य तस्मात् सत्यं न लोपयेत् ॥ २४ ॥

मूलम्

नास्ति सत्यात् परो धर्मो नानृतात् पातकं परम्।
स्थितिर्हि सत्यं धर्मस्य तस्मात् सत्यं न लोपयेत् ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सत्यसे बढ़कर कोई धर्म नहीं और झूठसे बढ़कर कोई पातक नहीं है। सत्य ही धर्मकी आधारशिला है; अतः सत्यका लोप न करे॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उपैति सत्याद् दानं हि तथा यज्ञाः सदक्षिणाः।
त्रेताग्निहोत्रं वेदाश्च ये चान्ये धर्मनिश्चयाः ॥ २५ ॥

मूलम्

उपैति सत्याद् दानं हि तथा यज्ञाः सदक्षिणाः।
त्रेताग्निहोत्रं वेदाश्च ये चान्ये धर्मनिश्चयाः ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

दानका, दक्षिणाओंसहित यज्ञका, त्रिविध अग्नियोंमें हवनका, वेदोंके स्वाध्यायका तथा अन्य जो धर्मका निर्णय करनेवाले शास्त्र हैं, उनके भी अध्ययनका फल मनुष्य सत्यसे प्राप्त कर लेता है॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अश्वमेधसहस्रं च सत्यं च तुलया धृतम्।
अश्वमेधसहस्राद्धि सत्यमेव विशिष्यते ॥ २६ ॥

मूलम्

अश्वमेधसहस्रं च सत्यं च तुलया धृतम्।
अश्वमेधसहस्राद्धि सत्यमेव विशिष्यते ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यदि एक ओर एक हजार अश्वमेध यज्ञोंको और दूसरी ओर एकमात्र सत्यको तराजूपर रखा जाय तो एक हजार अश्वमेध यज्ञोंकी अपेक्षा सत्यका ही पलड़ा भारी होगा॥२६॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि आपद्धर्मपर्वणि सत्यप्रशंसायां द्विषष्ट्यधिकशततमोऽध्यायः ॥ १६२ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत आपद्धर्मपर्वमें सत्यकी प्रशंसाविषयक एक सौ बासठवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१६२॥