१६० दमकथने

भागसूचना

षष्ट्यधिकशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

मन और इन्द्रियोंके संयमरूप दमका माहात्म्य

मूलम् (वचनम्)

युधिष्ठिर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्वाध्याये कृतयत्नस्य नरस्य च पितामह।
धर्मकामस्य धर्मात्मन् किं नु श्रेय इहोच्यते ॥ १ ॥

मूलम्

स्वाध्याये कृतयत्नस्य नरस्य च पितामह।
धर्मकामस्य धर्मात्मन् किं नु श्रेय इहोच्यते ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिरने पूछा— धर्मात्मा पितामह! जो स्वाध्यायके लिये यत्नशील है और धर्मपालनकी इच्छा रखता है, उस मनुष्यके लिये इस संसारमें श्रेय क्या बताया जाता है?॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बहुधा दर्शने लोके श्रेयो यदिह मन्यसे।
अस्मिल्लोँके परे चैव तन्मे ब्रूहि पितामह ॥ २ ॥

मूलम्

बहुधा दर्शने लोके श्रेयो यदिह मन्यसे।
अस्मिल्लोँके परे चैव तन्मे ब्रूहि पितामह ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पितामह! जगत्‌में श्रेयका प्रतिपादन करनेवाले अनेक प्रकारके दर्शन (मत) हैं; परंतु आप जिसे श्रेय मानते हों, जो इस लोक और परलोकमें भी कल्याण करनेवाला हो, उसे मुझे बताइये॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

महानयं धर्मपथो बहुशाखश्च भारत।
किंस्विदेवेह धर्माणामनुष्ठेयतमं मतम् ॥ ३ ॥

मूलम्

महानयं धर्मपथो बहुशाखश्च भारत।
किंस्विदेवेह धर्माणामनुष्ठेयतमं मतम् ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भारत! धर्मका यह मार्ग बहुत बड़ा है। इससे बहुत सी शाखाएँ निकली हुई हैं। इन धर्मोंमेंसे कौनसा धर्म सर्वोत्तम, अवश्य पालन करनेयोग्य माना गया है?॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धर्मस्य महतो राजन् बहुशाखस्य तत्त्वतः।
यन्मूलं परमं तात तत् सर्वं ब्रूह्यशेषतः ॥ ४ ॥

मूलम्

धर्मस्य महतो राजन् बहुशाखस्य तत्त्वतः।
यन्मूलं परमं तात तत् सर्वं ब्रूह्यशेषतः ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! बहुत-सी शाखाओंसे युक्त इस महान् धर्मका वास्तवमें परम मूल क्या है? तात! ये सब बातें मुझे पूर्णरूपसे बताइये॥४॥

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

हन्त ते कथयिष्यामि येन श्रेयो ह्यवाप्स्यसि।
पीत्वामृतमिव प्राज्ञो ज्ञानतृप्तो भविष्यसि ॥ ५ ॥

मूलम्

हन्त ते कथयिष्यामि येन श्रेयो ह्यवाप्स्यसि।
पीत्वामृतमिव प्राज्ञो ज्ञानतृप्तो भविष्यसि ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजीने कहा— युधिष्ठिर! मैं बड़े हर्षके साथ तुम्हें वह उपाय बताता हूँ, जिससे तुम कल्याण प्राप्त कर लोगे। जैसे अमृतको पीकर पूर्ण तृप्ति हो जाती है, उसी प्रकार तुम ज्ञानी होकर इस ज्ञान-सुधासे पूर्णतः तृप्त हो जाओगे॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धर्मस्य विधयो नैके ये वै प्रोक्ता महर्षिभिः।
स्वं स्वं विज्ञानमाश्रित्य दमस्तेषां परायणम् ॥ ६ ॥

मूलम्

धर्मस्य विधयो नैके ये वै प्रोक्ता महर्षिभिः।
स्वं स्वं विज्ञानमाश्रित्य दमस्तेषां परायणम् ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महर्षियोंने अपने-अपने ज्ञानके अनुसार धर्मकी एक नहीं, अनेक विधियाँ बतायी हैं, परंतु उन सबका आधार दम (मन और इन्द्रियोंका संयम) ही है॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दमं निःश्रेयसं प्राहुर्वृद्धा निश्चितदर्शिनः।
ब्राह्मणस्य विशेषेण दमो धर्मः सनातनः ॥ ७ ॥

मूलम्

दमं निःश्रेयसं प्राहुर्वृद्धा निश्चितदर्शिनः।
ब्राह्मणस्य विशेषेण दमो धर्मः सनातनः ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

धर्मके सिद्धान्तको जाननेवाले वृद्ध पुरुष दमको निःश्रेयस (परम कल्याण) का साधन बताते हैं। विशेषतः ब्राह्मणके लिये तो दम ही सनातन धर्म है॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दमात् तस्य क्रियासिद्धिर्यथावदुपलभ्यते ।
दमो दानं तथा यज्ञानधीतं चातिवर्तते ॥ ८ ॥

मूलम्

दमात् तस्य क्रियासिद्धिर्यथावदुपलभ्यते ।
दमो दानं तथा यज्ञानधीतं चातिवर्तते ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

दमसे ही उसे अपने शुभ कर्मोंकी यथावत् सिद्धि प्राप्त होती है। दम उसके लिये दान, यज्ञ और स्वाध्यायसे भी बढ़कर है॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दमस्तेजो वर्धयति पवित्रं च दमः परम्।
विपाप्मा तेजसा युक्तः पुरुषो विन्दते महत् ॥ ९ ॥

मूलम्

दमस्तेजो वर्धयति पवित्रं च दमः परम्।
विपाप्मा तेजसा युक्तः पुरुषो विन्दते महत् ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

दम तेजकी वृद्धि करता है, दम परम पवित्र साधन है, दमसे पापरहित हुआ तेजस्वी पुरुष परमपदको प्राप्त कर लेता है॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दमेन सदृशं धर्मं नान्यं लोकेषु शुश्रुम॥
दमो हि परमो लोके प्रशस्तः सर्वधर्मिणाम् ॥ १० ॥

मूलम्

दमेन सदृशं धर्मं नान्यं लोकेषु शुश्रुम॥
दमो हि परमो लोके प्रशस्तः सर्वधर्मिणाम् ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

हमने संसारमें दमके समान दूसरा कोई धर्म नहीं सुना। जगत्‌में सभी धर्मवालोंके यहाँ दमको उत्कृष्ट बताया गया है। सबने उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा की है॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रेत्य चात्र मनुष्येन्द्र परमं विन्दते सुखम्।
दमेन हि समायुक्तो महान्तं धर्ममश्नुते ॥ ११ ॥

मूलम्

प्रेत्य चात्र मनुष्येन्द्र परमं विन्दते सुखम्।
दमेन हि समायुक्तो महान्तं धर्ममश्नुते ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नरेन्द्र! दमसे अर्थात् इन्द्रिय और मनके संयमसे युक्त पुरुषको महान् धर्मकी प्राप्ति होती है। वह इहलोक और परलोकमें भी परम सुख पाता है॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुखं दान्तः प्रस्वपिति सुखं च प्रतिबुध्यते।
सुखं पर्येति लोकांश्च मनश्चास्य प्रसीदति ॥ १२ ॥

मूलम्

सुखं दान्तः प्रस्वपिति सुखं च प्रतिबुध्यते।
सुखं पर्येति लोकांश्च मनश्चास्य प्रसीदति ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिसने अपने मन और इन्द्रियोंका दमन कर लिया है, वह सुखसे सोता, सुखसे ही जागता और सुखपूर्वक ही लोकोंमें विचरता है। उसका मन सदा प्रसन्न रहता है॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अदान्तः पुरुषः क्लेशमभीक्ष्णं प्रतिपद्यते।
अनर्थांश्च बहूनन्यान् प्रसृजत्यात्मदोषजान् ॥ १३ ॥

मूलम्

अदान्तः पुरुषः क्लेशमभीक्ष्णं प्रतिपद्यते।
अनर्थांश्च बहूनन्यान् प्रसृजत्यात्मदोषजान् ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिसकी इन्द्रियाँ और मन वशमें नहीं है, वह पुरुष निरन्तर क्लेश उठाता है। साथ ही वह अपने ही दोषोंसे बहुत-से दूसरे-दूसरे अनर्थोंकी भी सृष्टि कर लेता है॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आश्रमेषु चतुर्ष्वाहुर्दममेवोत्तमं व्रतम् ।
तस्य लिङ्गानि वक्ष्यामि येषां समुदयो दमः ॥ १४ ॥

मूलम्

आश्रमेषु चतुर्ष्वाहुर्दममेवोत्तमं व्रतम् ।
तस्य लिङ्गानि वक्ष्यामि येषां समुदयो दमः ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

चारों आश्रमोंमें दमको ही उत्तम व्रत बताया गया है। अब मैं इन्द्रिय-दमन एवं मनोनिग्रहके उन लक्षणोंको बताऊँगा, जिनका उदय होना ही दम कहा गया है॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

क्षमा धृतिरहिंसा च समता सत्यमार्जवम्।
इन्द्रियाभिजयो दाक्ष्यं मार्दवं ह्रीरचापलम् ॥ १५ ॥
अकार्पण्यमसंरम्भः संतोषः प्रियवादिता ।
अविहिंसानसूया चाप्येषां समुदयो दमः ॥ १६ ॥

मूलम्

क्षमा धृतिरहिंसा च समता सत्यमार्जवम्।
इन्द्रियाभिजयो दाक्ष्यं मार्दवं ह्रीरचापलम् ॥ १५ ॥
अकार्पण्यमसंरम्भः संतोषः प्रियवादिता ।
अविहिंसानसूया चाप्येषां समुदयो दमः ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

क्षमा, धीरता, अहिंसा, समता, सत्यवादिता, सरलता, इन्द्रिय-विजय, दक्षता, कोमलता, लज्जा, स्थिरता, उदारता, क्रोधहीनता, संतोष, प्रिय वचन बोलनेका स्वभाव, किसी भी प्राणीको कष्ट न देना और दूसरोंके दोष न देखना—इन सद्‌गुणोंका उदय होना ही दम कहलाता है॥१५-१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुरुपूजा च कौरव्य दया भूतेष्वपैशुनम्।
जनवादं मृषावादं स्तुतिनिन्दाविसर्जनम् ॥ १७ ॥
कामं क्रोधं च लोभं च दर्पं स्तम्भं विकत्थनम्।
रोषमीर्ष्यावमानं च नैव दान्तो निषेवते ॥ १८ ॥

मूलम्

गुरुपूजा च कौरव्य दया भूतेष्वपैशुनम्।
जनवादं मृषावादं स्तुतिनिन्दाविसर्जनम् ॥ १७ ॥
कामं क्रोधं च लोभं च दर्पं स्तम्भं विकत्थनम्।
रोषमीर्ष्यावमानं च नैव दान्तो निषेवते ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुरुनन्दन! जिसने मन और इन्द्रियोंका दमन कर लिया है, उसमें गुरुजनोंके प्रति आदरका भाव, समस्त प्राणियोंके प्रति दया और किसीकी भी चुगली न करनेकी प्रवृत्ति होती है। वह जनापवाद, असत्य भाषण, निन्दा-स्तुतिकी प्रवृत्ति, काम, क्रोध, लोभ, दर्प, जडता, डींग हाँकना, रोष, ईर्ष्या और दूसरोंका अपमान—इन दुर्गुणोंका कभी सेवन नहीं करता॥१७-१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनिन्दितो ह्यकामात्मा नाल्पेष्वर्थ्यनसूयकः ।
समुद्रकल्पः स नरो न कथंचन पूर्यते ॥ १९ ॥

मूलम्

अनिन्दितो ह्यकामात्मा नाल्पेष्वर्थ्यनसूयकः ।
समुद्रकल्पः स नरो न कथंचन पूर्यते ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इन्द्रिय और मनको वशमें रखनेवाले पुरुषकी कभी निन्दा नहीं होती। उसके मनमें कोई कामना नहीं होती। वह छोटी-छोटी वस्तुओंके लिये किसीके सामने हाथ नहीं फैलाता अथवा तुच्छ विषय-सुखोंकी अभिलाषा नहीं रखता, दूसरोंके दोष नहीं देखता। वह मनुष्य समुद्रके समान अगाध गाम्भीर्य धारण करता है। जैसे समुद्र अनन्त जलराशि पाकर भी भरता नहीं है, उसी प्रकार वह भी निरन्तर धर्मसंचयसे कभी तृप्त नहीं होता॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अहं त्वयि मयि त्वं च मयि ते तेषु चाप्यहम्।
पूर्वसम्बन्धिसंयोगं नैतद् दान्तो निषेवते ॥ २० ॥

मूलम्

अहं त्वयि मयि त्वं च मयि ते तेषु चाप्यहम्।
पूर्वसम्बन्धिसंयोगं नैतद् दान्तो निषेवते ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मैं तुमपर स्नेह रखता हूँ और तुम मुझपर। वे मुझमें अनुराग रखते हैं और मैं उनमें’ इस प्रकार पहलेके सम्बन्धियोंके सम्बन्धका जितेन्द्रिय पुरुष चिन्तन नहीं करता॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वाग्राम्यास्तथाऽऽरण्या याश्च लोके प्रवृत्तयः।
निन्दां चैव प्रशंसां च यो नाश्रयति मुच्यते ॥ २१ ॥

मूलम्

सर्वाग्राम्यास्तथाऽऽरण्या याश्च लोके प्रवृत्तयः।
निन्दां चैव प्रशंसां च यो नाश्रयति मुच्यते ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जगत्‌में ग्रामीणों और वनवासियोंकी जो-जो प्रवृत्तियाँ होती हैं, उन सबका जो सेवन नहीं करता तथा दूसरोंकी निन्दा और प्रशंसासे भी दूर रहता है, उसकी मुक्ति हो जाती है॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मैत्रोऽथ शीलसम्पन्नः प्रसन्नात्माऽऽत्मविच्च यः।
मुक्तस्य विविधैः सङ्गैस्तस्य प्रेत्य फलं महत् ॥ २२ ॥

मूलम्

मैत्रोऽथ शीलसम्पन्नः प्रसन्नात्माऽऽत्मविच्च यः।
मुक्तस्य विविधैः सङ्गैस्तस्य प्रेत्य फलं महत् ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो सबके प्रति मित्रताका भाव रखनेवाला और सुशील है, जिसका मन प्रसन्न है, जो नाना प्रकारकी आसक्तियोंसे मुक्त तथा आत्मज्ञानी है, उसे मृत्युके पश्चात् मोक्षरूप महान् फलकी प्राप्ति होती है॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुवृत्तः शीलसम्पन्नः प्रसन्नात्माऽऽत्मविद् बुधः।
प्राप्येह लोके सत्कारं सुगतिं प्रतिपद्यते ॥ २३ ॥

मूलम्

सुवृत्तः शीलसम्पन्नः प्रसन्नात्माऽऽत्मविद् बुधः।
प्राप्येह लोके सत्कारं सुगतिं प्रतिपद्यते ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो सदाचारी, शीलसम्पन्न, प्रसन्नचित्त और आत्मतत्त्वको जाननेवाला है, वह विद्वान् पुरुष इस लोकमें सत्कार पाकर परलोकमें परम गति पाता है॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कर्म यच्छुभमेवेह सद्भिराचरितं च यत्।
तदेव ज्ञानयुक्तस्य मुनेर्वर्त्म न हीयते ॥ २४ ॥

मूलम्

कर्म यच्छुभमेवेह सद्भिराचरितं च यत्।
तदेव ज्ञानयुक्तस्य मुनेर्वर्त्म न हीयते ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस जगत्‌में जो केवल शुभ (कल्याणकारी) कर्म है तथा सत्पुरुषोंने जिसका आचरण किया है, वही ज्ञानवान् मुनिका मार्ग है। वह स्वभावतः उसका आचरण करता है। उससे कभी च्युत नहीं होता॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

निष्क्रम्य वनमास्थाय ज्ञानयुक्तो जितेन्द्रियः।
कालाकांक्षी चरत्येवं ब्रह्मभूयाय कल्पते ॥ २५ ॥

मूलम्

निष्क्रम्य वनमास्थाय ज्ञानयुक्तो जितेन्द्रियः।
कालाकांक्षी चरत्येवं ब्रह्मभूयाय कल्पते ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ज्ञानसम्पन्न जितेन्द्रिय पुरुष घरसे निकलकर वनका आश्रय ले वहाँ मृत्युकालकी प्रतीक्षा करता हुआ निर्द्वन्द्व विचरता रहता है। इस प्रकार वह ब्रह्मभावको प्राप्त होनेमें समर्थ हो जाता है॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अभयं यस्य भूतेभ्यो भूतानामभयं यतः।
तस्य देहाद् विमुक्तस्य भयं नास्ति कुतश्चन ॥ २६ ॥

मूलम्

अभयं यस्य भूतेभ्यो भूतानामभयं यतः।
तस्य देहाद् विमुक्तस्य भयं नास्ति कुतश्चन ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिसको दूसरे प्राणियोंसे भय नहीं है तथा जिससे दूसरे प्राणी भी भय नहीं मानते, उस देहाभिमानसे रहित महात्मा पुरुषको कहींसे भी भय नहीं प्राप्त होता॥२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अवाचिनोति कर्माणि न च सम्प्रचिनोति ह।
समः सर्वेषु भूतेषु मैत्रायणगतिश्चरेत् ॥ २७ ॥

मूलम्

अवाचिनोति कर्माणि न च सम्प्रचिनोति ह।
समः सर्वेषु भूतेषु मैत्रायणगतिश्चरेत् ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह उपभोगद्वारा प्रारब्ध-कर्मोंको क्षीण करता है और कर्तृत्वाभिमान तथा फलासक्तिसे शून्य होनेके कारण नूतन कर्मोंका संचय नहीं करता है। सभी प्राणियोंमें समानभाव रखकर सबको मित्रकी भाँति अभयदान देता हुआ विचरता है॥२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शकुनीनामिवाकाशे जले वारिचरस्य च।
यथा गतिने दृश्येत तथा तस्य न संशयः ॥ २८ ॥

मूलम्

शकुनीनामिवाकाशे जले वारिचरस्य च।
यथा गतिने दृश्येत तथा तस्य न संशयः ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे आकाशमें पक्षियोंका और जलमें जलचर जन्तुओंका पदचिह्न नहीं दिखायी देता, उसी प्रकार ज्ञानीकी गति भी जाननेमें नहीं आती है। इसमें तनिक भी संशय नहीं है॥२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गृहानुत्सृज्य यो राजन् मोक्षमेवाभिपद्यते।
लोकास्तेजोमयास्तस्य कल्पन्ते शाश्वतीः समाः ॥ २९ ॥

मूलम्

गृहानुत्सृज्य यो राजन् मोक्षमेवाभिपद्यते।
लोकास्तेजोमयास्तस्य कल्पन्ते शाश्वतीः समाः ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! जो घर-बार को छोड़कर मोक्षमार्गाका ही आश्रय लेता है, उसे अनन्त वर्षोंके लिये दिव्य तेजोमय लोक प्राप्त होते हैं॥२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

संन्यस्य सर्वकर्माणि संन्यस्य विधिवत् तपः।
संन्यस्य विविधा विद्याः सर्वं संन्यस्य चैव ह ॥ ३० ॥
कामे शुचिरनावृत्तः प्रसन्नात्माऽऽत्मविच्छुचिः ।
प्राप्येह लोके सत्कारं स्वर्गं समभिपद्यते ॥ ३१ ॥

मूलम्

संन्यस्य सर्वकर्माणि संन्यस्य विधिवत् तपः।
संन्यस्य विविधा विद्याः सर्वं संन्यस्य चैव ह ॥ ३० ॥
कामे शुचिरनावृत्तः प्रसन्नात्माऽऽत्मविच्छुचिः ।
प्राप्येह लोके सत्कारं स्वर्गं समभिपद्यते ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिसका आचार-विचार शुद्ध और अन्तःकरण निर्मल है, जिसकी कामनाएँ शुद्ध हैं तथा जो भोगोंसे पराङ्‌मुख हो चुका है, वह आत्मज्ञानी पुरुष सम्पूर्ण कर्मोंका, तपस्याका तथा नाना प्रकारकी विद्याओंका विधिवत् संन्यास (त्याग) करके सर्वत्यागी संन्यासी होकर इहलोकमें सम्मानित हो परलोकमें अक्षय स्वर्ग (ब्रह्मधाम) को प्राप्त होता है॥३०-३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यच्च पैतामहं स्थानं ब्रह्मराशिसमुद्भवम्।
गुहायां पिहितं नित्यं तद् दमेनाभिगम्यते ॥ ३२ ॥

मूलम्

यच्च पैतामहं स्थानं ब्रह्मराशिसमुद्भवम्।
गुहायां पिहितं नित्यं तद् दमेनाभिगम्यते ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्रह्मराशिसे उत्पन्न हुआ जो पितामह ब्रह्माजीका उत्तम धाम है, वह हृदयगुहामें छिपा हुआ है। उसकी प्राप्ति सदा दम (इन्द्रियसंयम और मनोनिग्रह) से ही होती है॥३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ज्ञानारामस्य बुद्धस्य सर्वभूताविरोधिनः ।
नावृत्तिभयमस्तीह परलोकभयं कुतः ॥ ३३ ॥

मूलम्

ज्ञानारामस्य बुद्धस्य सर्वभूताविरोधिनः ।
नावृत्तिभयमस्तीह परलोकभयं कुतः ॥ ३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिसका किसी भी प्राणीके साथ विरोध नहीं है, जो ज्ञानस्वरूप आत्मामें रमता रहता है, ऐसे ज्ञानीको इस लोकमें पुनः जन्म लेनेका भय ही नहीं रहता, फिर उसे परलोकका भय कैसे हो सकता है?॥३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एक एव दमे दोषो द्वितीयो नोपपद्यते।
यदेनं क्षमया युक्तमशक्तं मन्यते जनः ॥ ३४ ॥

मूलम्

एक एव दमे दोषो द्वितीयो नोपपद्यते।
यदेनं क्षमया युक्तमशक्तं मन्यते जनः ॥ ३४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

दम अर्थात् संयममें एक ही दोष है, दूसरा नहीं। वह यह कि क्षमाशील होनेके कारण उसे लोग असमर्थ समझने लगते हैं॥३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एकोऽस्य सुमहाप्राज्ञ दोषः स्यात्‌ सुमहान् गुणः।
क्षमया विपुला लोकाः सुलभा हि सहिष्णुता ॥ ३५ ॥

मूलम्

एकोऽस्य सुमहाप्राज्ञ दोषः स्यात्‌ सुमहान् गुणः।
क्षमया विपुला लोकाः सुलभा हि सहिष्णुता ॥ ३५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाप्राज्ञ युधिष्ठिर! उसका यह एक दोष ही महान् गुण हो सकता है। क्षमा धारण करनेसे उसको बहुत से पुण्यलोक सुलभ होते हैं। साथ ही क्षमासे सहिष्णुता भी आ जाती है॥३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दान्तस्य किमरण्येन तथाऽदान्तस्य भारत।
यत्रैव निवसेद् दान्तस्तदरण्यं स चाश्रमः ॥ ३६ ॥

मूलम्

दान्तस्य किमरण्येन तथाऽदान्तस्य भारत।
यत्रैव निवसेद् दान्तस्तदरण्यं स चाश्रमः ॥ ३६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भारत! संयमी पुरुषको वनमें जानेकी क्या आवश्यकता है? और जो असंयमी है, उसको वनमें रहनेसे भी क्या लाभ है? संयमी पुरुष जहाँ रहे, वहीं उसके लिये वन और आश्रम है॥३६॥

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतद् भीष्मस्य वचनं श्रुत्वा राजा युधिष्ठिरः।
अमृतेनेव संतृप्तः प्रहृष्टः समपद्यत ॥ ३७ ॥

मूलम्

एतद् भीष्मस्य वचनं श्रुत्वा राजा युधिष्ठिरः।
अमृतेनेव संतृप्तः प्रहृष्टः समपद्यत ॥ ३७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! भीष्मजीकी यह बात सुनकर राजा युधिष्ठिर बड़े प्रसन्न हुए, मानो अमृत पीकर तृप्त हो गये हों॥३७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुनश्च परिपप्रच्छ भीष्मं धर्मभृतां वरम्।
तपः प्रति स चोवाच तस्मै सर्वं कुरूद्वह ॥ ३८ ॥

मूलम्

पुनश्च परिपप्रच्छ भीष्मं धर्मभृतां वरम्।
तपः प्रति स चोवाच तस्मै सर्वं कुरूद्वह ॥ ३८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुरुश्रेष्ठ! तत्पश्चात् उन्होंने धर्मात्माओंमें श्रेष्ठ भीष्मजी से पुनः तपस्याके विषयमें प्रश्न किया। तब भीष्मजीने उन्हें उसके विषयमें सब कुछ बताना आरम्भ किया॥३८॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि आपद्धर्मपर्वणि दमकथने षष्ट्यधिकशततमोऽध्यायः ॥ १६० ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत आपद्धर्मपर्वमें दमका वर्णनविषयक एक सौ साठवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१६०॥