भागसूचना
एकोनषष्ट्यधिकशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
अज्ञान और लोभको एक दूसरेका कारण बताकर दोनोंकी एकता करना और दोनोंको ही समस्त दोषोंका कारण सिद्ध करना
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनर्थानामधिष्ठानमुक्तो लोभः पितामह ।
अज्ञानमपि वै तात श्रोतुमिच्छामि तत्त्वतः ॥ १ ॥
मूलम्
अनर्थानामधिष्ठानमुक्तो लोभः पितामह ।
अज्ञानमपि वै तात श्रोतुमिच्छामि तत्त्वतः ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिरने पूछा— पितामह! आपने सब अनर्थोंके आधारभूत लोभका वर्णन तो किया, अब अज्ञानका भी यथार्थरूपसे वर्णन कीजिये; मैं उसके परिणामको भी सुनना चाहता हूँ॥१॥
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
करोति पापं योऽज्ञानान्नात्मनो वेत्ति च क्षयम्।
प्रद्वेष्टि साधुवृत्तांश्च स लोकस्यैति वाच्यताम् ॥ २ ॥
मूलम्
करोति पापं योऽज्ञानान्नात्मनो वेत्ति च क्षयम्।
प्रद्वेष्टि साधुवृत्तांश्च स लोकस्यैति वाच्यताम् ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजीने कहा— युधिष्ठिर! जो मनुष्य अज्ञानवश पाप करता है और उससे होनेवाली अपनी ही हानिको नहीं समझता तथा श्रेष्ठ पुरुषोंसे द्वेष करता है, उसकी संसारमें बड़ी निन्दा होती है॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अज्ञानान्निरयं याति तथाज्ञानेन दुर्गतिम्।
अज्ञानात् क्लेशमाप्नोति तथापत्सु निमज्जति ॥ ३ ॥
मूलम्
अज्ञानान्निरयं याति तथाज्ञानेन दुर्गतिम्।
अज्ञानात् क्लेशमाप्नोति तथापत्सु निमज्जति ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अज्ञानसे ही जीव नरकमें पड़ता है। अज्ञानसे ही उसकी दुर्गति होती है, अज्ञानसे वह कष्ट उठाता तथा विपत्तियोंके समुद्रमें डूब जाता है॥३॥
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अज्ञानस्य प्रवृत्तिं च स्थानं वृद्धिक्षयोदयौ।
मूलं योगं गतिं कालं कारणं हेतुमेव च ॥ ४ ॥
मूलम्
अज्ञानस्य प्रवृत्तिं च स्थानं वृद्धिक्षयोदयौ।
मूलं योगं गतिं कालं कारणं हेतुमेव च ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिरने पूछा— भूपाल! अज्ञानकी उत्पत्ति, स्थिति, वृद्धि, क्षय, उद्गम, मूल, योग, गति, काल, कारण और हेतु क्या हैं?॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्रोतुमिच्छामि तत्त्वेन यथावदिह पार्थिव।
अज्ञानप्रसवं हीदं यद् दुःखमुपलभ्यते ॥ ५ ॥
मूलम्
श्रोतुमिच्छामि तत्त्वेन यथावदिह पार्थिव।
अज्ञानप्रसवं हीदं यद् दुःखमुपलभ्यते ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पृथ्वीनाथ! मैं इस विषयको यथावत्रूपसे तत्त्वके विवेचनपूर्वक सुनना चाहता हूँ; क्योंकि यह जो दुःख उपलब्ध होता है, उसकी उत्पत्तिका कारण अज्ञान ही है॥५॥
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
रागो द्वेषस्तथा मोहो हर्षः शोकोऽभिमानिता।
कामः क्रोधश्च दर्पश्च तन्द्री चालस्यमेव च ॥ ६ ॥
इच्छा द्वेषस्तथा तापः परवृद्ध्युपतापिता।
अज्ञानमेतन्निर्दिष्टं पापानां चैव याः क्रियाः ॥ ७ ॥
मूलम्
रागो द्वेषस्तथा मोहो हर्षः शोकोऽभिमानिता।
कामः क्रोधश्च दर्पश्च तन्द्री चालस्यमेव च ॥ ६ ॥
इच्छा द्वेषस्तथा तापः परवृद्ध्युपतापिता।
अज्ञानमेतन्निर्दिष्टं पापानां चैव याः क्रियाः ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजीने कहा—राजन्। राग, द्वेष, मोह, हर्ष, शोक, अभिमान, काम, क्रोध, दर्प, तन्द्रा, आलस्य, इच्छा, वैर, ताप, दूसरोंकी उन्नति देखकर जलना और पापाचार करना—इन सबको (अज्ञानका कार्य होनेसे) अज्ञान बताया गया है॥६-७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतस्य वा प्रवृत्तेश्च वृद्ध्यादीन्यांश्च पृच्छसि।
विस्तरेण महाराज शृणु तच्च विशेषतः ॥ ८ ॥
मूलम्
एतस्य वा प्रवृत्तेश्च वृद्ध्यादीन्यांश्च पृच्छसि।
विस्तरेण महाराज शृणु तच्च विशेषतः ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! इस अज्ञानकी उत्पत्ति और वृद्धि आदिके विषयमें जो प्रश्न कर रहे हो, उसके विषयमें विशेष विस्तारके साथ किया हुआ मेरा वर्णन सुनो॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उभावेतौ समफलौ समदोषौ च भारत।
अज्ञानं चातिलोभश्चाप्येकं जानीहि पार्थिव ॥ ९ ॥
मूलम्
उभावेतौ समफलौ समदोषौ च भारत।
अज्ञानं चातिलोभश्चाप्येकं जानीहि पार्थिव ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भारत! पृथ्वीनाथ! अज्ञान और अत्यन्त लोभ—इन दोनोंको एक समझो, क्योंकि इनके परिणाम और दोष समान ही हैं॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
लोभप्रभवमज्ञानं वृद्धं भूयः प्रवर्धते।
स्थाने स्थानं क्षये क्षैण्यमुपैति विविधां गतिम् ॥ १० ॥
मूलम्
लोभप्रभवमज्ञानं वृद्धं भूयः प्रवर्धते।
स्थाने स्थानं क्षये क्षैण्यमुपैति विविधां गतिम् ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
लोभसे ही अज्ञान प्रकट होता है और लोभके बढ़नेपर वह अज्ञान और भी बढ़ता है। जबतक लोभ रहता है, तबतक अज्ञान भी बना रहता है और जब लोभका क्षय होता है, तब अज्ञान भी क्षीण हो जाता है। अज्ञान और लोभके कारण ही जीव नाना प्रकारकी योनियोंमें जन्म लेता है॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मूलं लोभस्य मोहो वै कालात्मगतिरेव च।
छिने भिन्ने तथा लोभे कारणं काल एव च॥११॥
मूलम्
मूलं लोभस्य मोहो वै कालात्मगतिरेव च।
छिने भिन्ने तथा लोभे कारणं काल एव च॥११॥
अनुवाद (हिन्दी)
मोह ही निःसंदेह लोभका मूलकारण है। यह कालस्वरूप मोहात्मक अज्ञान ही मनुष्यकी बुरी गतिका कारण है। लोभके छिन्न-भिन्न होनेमें भी काल ही कारण है॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्याज्ञानाद्धि लोभो हि लोभादज्ञानमेव च।
सर्वदोषास्तथा लोभात् तस्मालोभं विवर्जयेत् ॥ १२ ॥
मूलम्
तस्याज्ञानाद्धि लोभो हि लोभादज्ञानमेव च।
सर्वदोषास्तथा लोभात् तस्मालोभं विवर्जयेत् ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मूढ़ मनुष्यको अज्ञानसे लोभ और लोभसे अज्ञान होता है। लोभसे ही सारे दोष पैदा होते हैं; इसलिये लोभको त्याग देना चाहिये॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जनको युवनाश्वश्च वृषादर्भिः प्रसेनजित्।
लोभक्षयाद् दिवं प्राप्तास्तथैवान्ये नराधिपाः ॥ १३ ॥
मूलम्
जनको युवनाश्वश्च वृषादर्भिः प्रसेनजित्।
लोभक्षयाद् दिवं प्राप्तास्तथैवान्ये नराधिपाः ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जनक, युवनाश्व, वृषादर्भि, प्रसेनजित् तथा अन्य नरेश लोभका नाश करके ही दिव्यलोकमें गये हैं॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रत्यक्षं तु कुरुश्रेष्ठ त्यज लोभमिहात्मना।
त्यक्त्वा लोभं सुखं लोके प्रेत्य चानुचरिष्यसि ॥ १४ ॥
मूलम्
प्रत्यक्षं तु कुरुश्रेष्ठ त्यज लोभमिहात्मना।
त्यक्त्वा लोभं सुखं लोके प्रेत्य चानुचरिष्यसि ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुरुश्रेष्ठ! तुम स्वयं प्रयत्न करके इस प्रत्यक्ष दीखने वाले लोभका परित्याग करो। लोभका त्याग कर इस लोकमें सुख तथा मृत्युके पश्चात् परलोकमें भी आनन्द प्राप्त करके सुखपूर्वक विचरोगे॥१४॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि आपद्धर्मपर्वणि अज्ञानमाहात्म्ये एकोनषष्ट्यधिकशततमोऽध्यायः ॥ १५९ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत आपद्धर्मपर्वमें अज्ञानका माहात्म्यविषयक एक सौ उनसठवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१५९॥