भागसूचना
सप्तपञ्चाशदधिकशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
सेमलका हार स्वीकार करना तथा बलवान्के साथ वैर न करनेका उपदेश
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो निश्चित्य मनसा शाल्मलिः क्षुभितस्तदा।
शाखाः स्कन्धान् प्रशाखाश्च स्वयमेव व्यशातयत् ॥ १ ॥
मूलम्
ततो निश्चित्य मनसा शाल्मलिः क्षुभितस्तदा।
शाखाः स्कन्धान् प्रशाखाश्च स्वयमेव व्यशातयत् ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजीने कहा— राजन्! मन-ही-मन ऐसा विचारकर सेमलने क्षुभित हो अपनी शाखाओं, डालियों तथा टहनियोंको स्वयं ही नीचे गिरा दिया॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स परित्यज्य शाखाश्च पत्राणि कुसुमानि च।
प्रभाते वायुमायान्तं प्रत्यैक्षत वनस्पतिः ॥ २ ॥
मूलम्
स परित्यज्य शाखाश्च पत्राणि कुसुमानि च।
प्रभाते वायुमायान्तं प्रत्यैक्षत वनस्पतिः ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह वनस्पति अपनी शाखाओं, पत्तों और फूलोंको त्यागकर प्रातःकाल वायुके आनेकी प्रतीक्षा करने लगा॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः क्रुद्धः श्वसन् वायुः पातयन् वै महाद्रुमान्।
आजगामाथ तं देशमास्ते यत्र स शाल्मलिः ॥ ३ ॥
मूलम्
ततः क्रुद्धः श्वसन् वायुः पातयन् वै महाद्रुमान्।
आजगामाथ तं देशमास्ते यत्र स शाल्मलिः ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तत्पश्चात् सबेरा होनेपर वायुदेव कुपित हो बड़े-बड़े वृक्षोंको धराशायी करते हुए उस स्थानपर आये, जहाँ वह सेमलका वृक्ष था॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तं हीनपर्णं पतिताग्रशाखं
निशीर्णपुष्पं प्रसमीक्ष्य वायुः ।
उवाच वाक्यं स्मयमान एवं
मुदा युतः शाल्मलिमुग्रशाखम् ॥ ४ ॥
मूलम्
तं हीनपर्णं पतिताग्रशाखं
निशीर्णपुष्पं प्रसमीक्ष्य वायुः ।
उवाच वाक्यं स्मयमान एवं
मुदा युतः शाल्मलिमुग्रशाखम् ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वायुने देखा कि सेमलके पत्ते गिर गये हैं और उसकी श्रेष्ठ शाखाएँ धराशायी हो गयी हैं। यह फूलोंसे भी हीन हो चुका है, तब वे बड़े प्रसन्न हुए और जिसकी शाखाएँ पहले बड़ी भंयकर थीं, उस सेमलसे मुसकराते हुए इस प्रकार बोले॥४॥
मूलम् (वचनम्)
वायुरुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहमप्येवमेव त्वां कुर्वाणः शाल्मले रुषा।
आत्मना यत्कृतं कृच्छ्रं शाखानामपकर्षणम् ॥ ५ ॥
हीनपुष्पाग्रशाखस्त्वं शीर्णांकुरपलाशकः ।
आत्मदुर्मन्त्रितेनेह मद्वीर्यवशगः कृतः ॥ ६ ॥
मूलम्
अहमप्येवमेव त्वां कुर्वाणः शाल्मले रुषा।
आत्मना यत्कृतं कृच्छ्रं शाखानामपकर्षणम् ॥ ५ ॥
हीनपुष्पाग्रशाखस्त्वं शीर्णांकुरपलाशकः ।
आत्मदुर्मन्त्रितेनेह मद्वीर्यवशगः कृतः ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वायुने कहा— शाल्मले! मैं भी रोषमें भरकर तुम्हें ऐसा ही बना देना चाहता था। तुमने स्वयं ही यह कष्ट स्वीकार कर लिया है, तुम्हारी शाखाएँ गिर गयीं, फूल पत्ते, डालियाँ और अंकुर सभी नष्ट हो गये। तुमने अपनी ही कुमतिसे यह विपत्ति मोल ली है। तुम्हें मेरे बल और पराक्रमका शिकार बनना पड़ा है॥५-६॥
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतच्छ्रुत्वा वचो वायोः शाल्मलिर्व्रीडितस्तदा।
मूलम्
एतच्छ्रुत्वा वचो वायोः शाल्मलिर्व्रीडितस्तदा।
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अतप्यत वचः स्मृत्वा नारदो यत् तदाब्रवीत् ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजी कहते हैं— राजन्! वायुका यह वचन सुनकर सेमल उस समय लज्जित हो गया और नारदजीने जो कुछ कहा था, उसे याद करके वह बहुत पछताने लगा॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं हि राजशार्दूल दुर्बलः सन् बलीयसा।
वैरमारभते बालस्तप्यते शाल्मलिर्यथा ॥ ८ ॥
मूलम्
एवं हि राजशार्दूल दुर्बलः सन् बलीयसा।
वैरमारभते बालस्तप्यते शाल्मलिर्यथा ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नृपश्रेष्ठ! इसी प्रकार जो मूर्ख मनुष्य स्वयं दुर्बल होकर किसी बलवान्के साथ वैर बाँध लेता है, वह सेमलके समान ही संतापका भागी होता है॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्माद् वैरं न कुर्वीत दुर्बलो बलवत्तरैः।
शोचेद्धि वैरं कुर्वाणो यथा वै शाल्मलिस्तथा ॥ ९ ॥
मूलम्
तस्माद् वैरं न कुर्वीत दुर्बलो बलवत्तरैः।
शोचेद्धि वैरं कुर्वाणो यथा वै शाल्मलिस्तथा ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अतः दुर्बल मनुष्य बलवानोंके साथ वैर न करे। यदि वह करता है तो सेमलके समान ही शोचनीय दशाको पहुँचकर शोकमग्न होता है॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न हि वैरं महात्मानो विवृण्वन्त्यपकारिषु।
शनैः शनैर्महाराज दर्शयन्ति स्म ते बलम् ॥ १० ॥
मूलम्
न हि वैरं महात्मानो विवृण्वन्त्यपकारिषु।
शनैः शनैर्महाराज दर्शयन्ति स्म ते बलम् ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! महामनस्वी पुरुष अपनी बुराई करने-वालोंपर वैरभाव नहीं प्रकट करते हैं। वे धीरे-धीरे ही अपना बल दिखाते हैं॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वैरं न कुर्वीत नरो दुर्बुद्धिर्बुद्धिजीविना।
बुद्धिर्बुद्धिमतो याति तृणेष्विव हुताशनः ॥ ११ ॥
मूलम्
वैरं न कुर्वीत नरो दुर्बुद्धिर्बुद्धिजीविना।
बुद्धिर्बुद्धिमतो याति तृणेष्विव हुताशनः ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
खोटी बुद्धिवाला मनुष्य किसी बुद्धिजीवी पुरुषसे वैर न बाँधे; क्योंकि घास-फूँसपर फैलनेवाली आगके समान बुद्धिमानोंकी बुद्धि सर्वत्र पहुँच जाती है॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न हि बुद्ध्या सम किंचिद् विद्यते पुरुषे नृप।
तथा बलेन राजेन्द्र न समोऽस्तीह कश्चन ॥ १२ ॥
मूलम्
न हि बुद्ध्या सम किंचिद् विद्यते पुरुषे नृप।
तथा बलेन राजेन्द्र न समोऽस्तीह कश्चन ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नरेश्वर! राजेन्द्र! पुरुषमें बुद्धिके समान दूसरी कोई वस्तु नहीं है। संसारमें जो बुद्धि-बलसे युक्त है, उसकी समानता करनेवाला दूसरा कोई पुरुष नहीं है॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मात् क्षमेत बालाय जडान्धबधिराय च।
बलाधिकाय राजेन्द्र तद् दृष्टं त्वयि शत्रुहन् ॥ १३ ॥
मूलम्
तस्मात् क्षमेत बालाय जडान्धबधिराय च।
बलाधिकाय राजेन्द्र तद् दृष्टं त्वयि शत्रुहन् ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शत्रुओंका नाश करनेवाले राजेन्द्र! इसलिये जो बालक, जड, अन्ध, बधिर, तथा बलमें अपनेसे बढ़ा-चढ़ा हो, उसके द्वारा किये गये प्रतिकूल बर्ताव को भी क्षमा कर देना चाहिये; यह क्षमाभाव तुम्हारे भीतर विद्यमान है॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अक्षौहिण्यो दशैका च सप्त चैव महाद्युते।
बलेन न समा राजन्नर्जुनस्य महात्मनः ॥ १४ ॥
मूलम्
अक्षौहिण्यो दशैका च सप्त चैव महाद्युते।
बलेन न समा राजन्नर्जुनस्य महात्मनः ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महातेजस्वी नरेश! अठारह अक्षौहिणी सेनाएँ भी बलमें महात्मा अर्जुनके समान नहीं हैं॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निहताश्चैव भग्नाश्च पाण्डवेन यशस्विना।
चरता बलमास्थाय पाकशासनिना मृधे ॥ १५ ॥
मूलम्
निहताश्चैव भग्नाश्च पाण्डवेन यशस्विना।
चरता बलमास्थाय पाकशासनिना मृधे ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इन्द्र और पाण्डुके यशस्वी पुत्र अर्जुनने अपने बलका भरोसा करते हुए युद्धमें विचरते हुए यहाँ उन समस्त सेनाओंको मार डाला और भगा दिया॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उक्ताश्च ते राजधर्मा आपद्धर्माश्च भारत।
विस्तरेण महाराज किं भूयः श्रोतुमिच्छसि ॥ १६ ॥
मूलम्
उक्ताश्च ते राजधर्मा आपद्धर्माश्च भारत।
विस्तरेण महाराज किं भूयः श्रोतुमिच्छसि ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतनन्दन! महाराज! मैंने तुमसे राजधर्म और आपद्धर्मका विस्तारपूर्वक वर्णन किया है, अब और क्या सुनना चाहते हो॥१६॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि आपद्धर्मपर्वणि पवनशाल्मलिसंवादे सप्तपञ्चाशदधिकशततमोऽध्यायः ॥ १५७ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत आपद्धर्मपर्वमें पवन-शाल्मलिसंवादविषयक एक सौ सत्तावनवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१५७॥