भागसूचना
त्रिपञ्चाशदधिकशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
मृतककी पुनर्जीवन-प्राप्तिके विषयमें एक ब्राह्मण बालकके जीवित होनेकी कथा; उसमें गीध और सियारकी बुद्धिमत्ता
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
कच्चित् पितामहेनासीच्छ्रुतं वा दृष्टमेव च।
कच्चिन्मर्त्यो मृतो राजन् पुनरुज्जीवितोऽभवत् ॥ १ ॥
मूलम्
कच्चित् पितामहेनासीच्छ्रुतं वा दृष्टमेव च।
कच्चिन्मर्त्यो मृतो राजन् पुनरुज्जीवितोऽभवत् ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिरने पूछा— ‘पितामह! क्या आपने कभी यह भी देखा या सुना है कि कोई मनुष्य मरकर फिर जी उठा हो!॥१॥
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
शृणु पार्थ यथावृत्तमितिहासं पुरातनम्।
गृध्रजम्बुकसंवादं यो वृत्तो नैमिषे पुरा ॥ २ ॥
मूलम्
शृणु पार्थ यथावृत्तमितिहासं पुरातनम्।
गृध्रजम्बुकसंवादं यो वृत्तो नैमिषे पुरा ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजीने कहा— कुन्तीनन्दन! प्राचीनकालमें नैमिषारण्यक्षेत्रमें गीध और गीदड़का जो संवाद हुआ था, उसे सुनो, वह पूर्वघटित यथार्थ इतिहास है॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कस्यचिद् ब्राह्मणस्यासीद् दुःखलब्धःसुतो मृतः।
बाल एव विशालाक्षो बालग्रहनिपीडितः ॥ ३ ॥
मूलम्
कस्यचिद् ब्राह्मणस्यासीद् दुःखलब्धःसुतो मृतः।
बाल एव विशालाक्षो बालग्रहनिपीडितः ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
किसी ब्राह्मणको बड़े कष्टसे एक पुत्र प्राप्त हुआ था। वह बड़े-बड़े नेत्रोंवाला सुन्दर बालक बाल-ग्रहसे पीड़ित हो बाल्यावस्थामें ही चल बसा॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दुःखिताः केचिदादाय बालमप्राप्तयौवनम् ।
कुलसर्वस्वभूतं वै रुदन्तः शोकविह्वलाः ॥ ४ ॥
मूलम्
दुःखिताः केचिदादाय बालमप्राप्तयौवनम् ।
कुलसर्वस्वभूतं वै रुदन्तः शोकविह्वलाः ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिसने युवावस्थामें अभी प्रवेश ही नहीं किया था तथा जो अपने कुलका सर्वस्व था, उस मरे हुए बालकको लेकर उसके कुछ दुखी बान्धव शोकसे व्याकुल हो फूट-फूटकर रोने लगे॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बालं मृतं गृहीत्वाथ श्मशानाभिमुखाः स्थिताः।
अङ्केनैव च संक्रम्य रुरुदुर्भृशदुःखिताः ॥ ५ ॥
मूलम्
बालं मृतं गृहीत्वाथ श्मशानाभिमुखाः स्थिताः।
अङ्केनैव च संक्रम्य रुरुदुर्भृशदुःखिताः ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस मृत बालकको गोदमें लेकर वे श्मशानकी ओर चले। वहाँ पहुँचकर खड़े हो गये और अत्यन्त दुखी होकर रोने लगे॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शोचन्तस्तस्य पूर्वोक्तान् भाषितांश्चासकृत् पुनः।
तं बालं भूतले क्षिप्य प्रतिगन्तुं न शक्नुयुः ॥ ६ ॥
मूलम्
शोचन्तस्तस्य पूर्वोक्तान् भाषितांश्चासकृत् पुनः।
तं बालं भूतले क्षिप्य प्रतिगन्तुं न शक्नुयुः ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे उसकी पहलेकी बातोंको बारंबार याद करके शोकमग्न हो जाते थे; इसलिये उसे श्मशानभूमिमें डालकर लौट जानेमें असमर्थ हो रहे थे॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेषां रुदितशब्देन गृध्रोऽभ्येत्य वचोऽब्रवीत्।
एकात्मजमिमं लोके त्यक्त्वा गच्छत मा चिरम् ॥ ७ ॥
इह पुंसां सहस्राणि स्त्रीसहस्राणि चैव ह।
समानीतानि कालेन हित्वा वै यान्ति बान्धवाः ॥ ८ ॥
मूलम्
तेषां रुदितशब्देन गृध्रोऽभ्येत्य वचोऽब्रवीत्।
एकात्मजमिमं लोके त्यक्त्वा गच्छत मा चिरम् ॥ ७ ॥
इह पुंसां सहस्राणि स्त्रीसहस्राणि चैव ह।
समानीतानि कालेन हित्वा वै यान्ति बान्धवाः ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनके रोनेके शब्दसे आकृष्ट होकर एक गीध वहाँ आया और इस प्रकार कहने लगा—‘मनुष्यो! इस जगत्में अपने इस इकलौते पुत्रको यहाँ छोड़कर लौट जाओ, देर मत करो। यहाँ हजारों स्त्री-पुरुष कालके द्वारा लाये जा चुके हैं और उन सबको उनके भाई-बन्धु छोड़कर चले जाते हैं॥७-८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सम्पश्यत जगत् सर्वं सुखदुःखैरधिष्ठितम्।
संयोगो विप्रयोगश्च पर्यायेणोपलभ्यते ॥ ९ ॥
मूलम्
सम्पश्यत जगत् सर्वं सुखदुःखैरधिष्ठितम्।
संयोगो विप्रयोगश्च पर्यायेणोपलभ्यते ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘देखो, यह सम्पूर्ण जगत् ही सुख और दुःखसे व्याप्त है, यहाँ सबको बारी-बारीसे संयोग और वियोग प्राप्त होते रहते हैं॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गृहीत्वा ये च गच्छन्ति ये न यान्ति च तान् मृतान्।
तेऽप्यायुषः प्रमाणेन स्वेन गच्छन्ति जन्तवः ॥ १० ॥
मूलम्
गृहीत्वा ये च गच्छन्ति ये न यान्ति च तान् मृतान्।
तेऽप्यायुषः प्रमाणेन स्वेन गच्छन्ति जन्तवः ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जो लोग अपने मृतक सम्बन्धियोंको लेकर श्मशानमें जाते हैं, और जो नहीं जाते हैं, वे सभी जीव-जन्तु अपनी आयु पूरी होनेपर इस संसारसे चल बसते हैं॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अलं स्थित्वा श्मशानेऽस्मिन् गृध्रगोमायुसंकुले।
कङ्कालबहुले रौद्रे सर्वप्राणिभयङ्करे ॥ ११ ॥
मूलम्
अलं स्थित्वा श्मशानेऽस्मिन् गृध्रगोमायुसंकुले।
कङ्कालबहुले रौद्रे सर्वप्राणिभयङ्करे ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘गीधों और गीदड़ोंसे भरे हुए इस भयंकर श्मशानमें सब ओर असंख्य नरकंकाल पड़े हैं। यह स्थान सभी प्राणियोंके लिये भयदायक है। यहाँ तुम्हें नहीं ठहरना चाहिये; ठहरनेसे कोई लाभ भी नहीं है॥११॥’
विश्वास-प्रस्तुतिः
न पुनर्जीवितः कश्चित् कालधर्ममुपागतः।
प्रियो वा यदि वा द्वेष्यः प्राणिनां गतिरीदृशी ॥ १२ ॥
मूलम्
न पुनर्जीवितः कश्चित् कालधर्ममुपागतः।
प्रियो वा यदि वा द्वेष्यः प्राणिनां गतिरीदृशी ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘अपना प्रिय हो या द्वेषपात्र। कोई भी कालधर्ममें (मृत्यु) को पाकर कभी पुनः जीवित नहीं हुआ है। समस्त प्राणियोंकी ऐसी ही गति है॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वेण खलु मर्तव्यं मर्त्यलोके प्रसूयता।
कृतान्तविहिते मार्गे मृतं को जीवयिष्यति ॥ १३ ॥
मूलम्
सर्वेण खलु मर्तव्यं मर्त्यलोके प्रसूयता।
कृतान्तविहिते मार्गे मृतं को जीवयिष्यति ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जिसने इस मर्त्यलोकमें जन्म लिया है, उसे एक-न-एक दिन अवश्य मरना होगा। कालद्वारा निर्मित पथपर मरकर गये हुए प्राणीको कौन जीवित कर सकेगा॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कर्मान्तविरते लोके अस्तं गच्छति भास्करे।
गम्यतां स्वमधिष्ठानं सुतस्नेहं विसृज्य वै ॥ १४ ॥
मूलम्
कर्मान्तविरते लोके अस्तं गच्छति भास्करे।
गम्यतां स्वमधिष्ठानं सुतस्नेहं विसृज्य वै ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘सूर्य अस्ताचलको जा रहे हैं, जगत्के सब लोग दैनिक कार्य समाप्त करके अब उससे विरत हो रहे हैं। तुमलोग भी अब अपने पुत्रका स्नेह छोड़कर घर लौट जाओ’॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो गृध्रवचः श्रुत्वा प्राक्रोशन्तस्तदा नृप।
बान्धवास्तेऽभ्यगच्छन्त पुत्रमुत्सृज्य भूतले ॥ १५ ॥
मूलम्
ततो गृध्रवचः श्रुत्वा प्राक्रोशन्तस्तदा नृप।
बान्धवास्तेऽभ्यगच्छन्त पुत्रमुत्सृज्य भूतले ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नरेश्वर! तब गीधकी बात सुनकर वे बन्धु-बान्धव जोर-जोरसे रोते हुए अपने पुत्रको भूतलपर छोड़कर घरकी ओर लौटने लगे॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विनिश्चित्याथ च तदा विक्रोशन्तस्ततस्ततः।
मृतमित्येव गच्छन्तो निराशास्तस्य दर्शने ॥ १६ ॥
मूलम्
विनिश्चित्याथ च तदा विक्रोशन्तस्ततस्ततः।
मृतमित्येव गच्छन्तो निराशास्तस्य दर्शने ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे इधर-उधर रो-गाकर इसी निश्चयपर पहुँचे कि अब तो यह बालक मर ही गया; अतः उसके दर्शनसे निराश हो वहाँसे जानेके लिये तैयार हो गये॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निश्चितार्थाश्च ते सर्वे संत्यजन्तः स्वमात्मजम्।
निराशा जीविते तस्य मार्गमावृत्य धिष्ठिताः ॥ १७ ॥
मूलम्
निश्चितार्थाश्च ते सर्वे संत्यजन्तः स्वमात्मजम्।
निराशा जीविते तस्य मार्गमावृत्य धिष्ठिताः ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब उन्हें यह निश्चित हो गया कि अब यह नहीं जी सकेगा, तो उसके जीवनसे निराश हो वे सब लोग अपने बच्चेको छोड़कर जानेके लिये रास्तेपर आकर खड़े हुए॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ध्वांक्षपक्षसवर्णस्तु बिलान्निःसृत्य जम्बुकः ।
गच्छमानान् स्म तानाह निर्घृणाः खलु मानुषाः ॥ १८ ॥
मूलम्
ध्वांक्षपक्षसवर्णस्तु बिलान्निःसृत्य जम्बुकः ।
गच्छमानान् स्म तानाह निर्घृणाः खलु मानुषाः ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इतनेहीमें कौएकी पाँखके समान काले रंगका एक गीदड़ अपनी माँद (घूरी) से निकलकर उन लौटते हुए बान्धवोंसे कहा—‘मनुष्यो! तुम बड़े निर्दय हो!॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आदित्योऽयं स्थितो मूढ़ाः स्नेहं कुरुत मा भयम्।
बहुरूपो मुहूर्तश्च जीवेदपि कदाचन ॥ १९ ॥
मूलम्
आदित्योऽयं स्थितो मूढ़ाः स्नेहं कुरुत मा भयम्।
बहुरूपो मुहूर्तश्च जीवेदपि कदाचन ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘अरे मूर्खो! अभी तो सूर्यास्त भी नहीं हुआ है; अतः डरो मत। बच्चेको लाड़-प्यार कर लो। अनेक प्रकारका मुहूर्त आता रहता है। सम्भव है किसी शुभ घड़ीमें यह बालक जी उठे॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यूयं भूमौ विनिक्षिप्य पुत्रस्नेहविनाकृताः।
श्मशाने सुतमुत्सृज्य कस्माद् गच्छत निर्घृणाः ॥ २० ॥
मूलम्
यूयं भूमौ विनिक्षिप्य पुत्रस्नेहविनाकृताः।
श्मशाने सुतमुत्सृज्य कस्माद् गच्छत निर्घृणाः ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘तुम लोग कैसे निर्दयी हो? पुत्रस्नेहका त्याग करके इस नन्हेसे बालकको श्मशान-भूमिमें लाकर डाल दिया। अरे! अपने बेटेको इस मरघटमें छोड़कर क्यों जा रहे हो?॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न वोऽस्त्यस्मिन् सुते स्नेहो बाले मधुरभाषिणि।
यस्य भाषितमात्रेण प्रसादमधिगच्छत ॥ २१ ॥
मूलम्
न वोऽस्त्यस्मिन् सुते स्नेहो बाले मधुरभाषिणि।
यस्य भाषितमात्रेण प्रसादमधिगच्छत ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जान पड़ता है’ इस मधुर भाषी छोटे-से बालकपर तुम्हारा तनिक भी स्नेह नहीं है। यह वही बालक है, जिसकी मीठी-मीठी बातें सुनते ही तुम्हारा हृदय हर्षसे खिल उठता था॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ते पश्यत सुतस्नेहो यादृशः पशुपक्षिणाम्।
न तेषां धारयित्वा तान् कश्चिदस्ति फलागमः ॥ २२ ॥
चतुष्पात्पक्षिकीटानां प्राणिनां स्नेहसङ्गिनाम् ।
परलोकगतिस्थानां मुनियज्ञक्रिया इव ॥ २३ ॥
मूलम्
ते पश्यत सुतस्नेहो यादृशः पशुपक्षिणाम्।
न तेषां धारयित्वा तान् कश्चिदस्ति फलागमः ॥ २२ ॥
चतुष्पात्पक्षिकीटानां प्राणिनां स्नेहसङ्गिनाम् ।
परलोकगतिस्थानां मुनियज्ञक्रिया इव ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘पशु और पक्षियोंका भी अपने बच्चेपर जैसा स्नेह होता है, उसे तुम देखो। यद्यपि स्नेहमें आसक्त उन पशु-पक्षी-कीट आदि प्राणियोंको अपने बच्चोंके पालन-पोषण करनेपर भी परलोकमें उनसे उस प्रकार कोई फल नहीं मिलता जैसे कि परलोककी गतिमें स्थित हुए मुनियोंको यज्ञादि क्रियासे मिलता है॥२२-२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेषां पुत्राभिरामाणामिहलोके परत्र च।
न गुणो दृश्यते कश्चित् प्रजाः संधारयन्ति च ॥ २४ ॥
मूलम्
तेषां पुत्राभिरामाणामिहलोके परत्र च।
न गुणो दृश्यते कश्चित् प्रजाः संधारयन्ति च ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘क्योंकि उनके पुत्रोंमें स्नेह रखनेवाले पशु आदि के लिये इहलोक और परलोकमें संतानोंके लालन-पालनसे कोई लाभ नहीं दिखायी देता तो भी वे अपने-अपने बच्चोंकी रक्षा करते रहते हैं॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अपश्यतां प्रियान् पुत्रांस्तेषां शोको न तिष्ठति।
न च पुष्णन्ति संवृद्धास्ते मातापितरौ क्वचित् ॥ २५ ॥
मूलम्
अपश्यतां प्रियान् पुत्रांस्तेषां शोको न तिष्ठति।
न च पुष्णन्ति संवृद्धास्ते मातापितरौ क्वचित् ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘यद्यपि उनके बच्चे बड़े हो जानेपर अपने माँ-बापका पालन-पोषण नहीं करते हैं तो भी अपने प्यारे बच्चोंको न देखनेपर उनका शोक काबूमें नहीं रहता॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मानुषाणां कुतः स्नेहो येषां शोको भविष्यति।
इमं कुलकरं पुत्रं त्यक्त्वा क्व नु गमिष्यथ ॥ २६ ॥
मूलम्
मानुषाणां कुतः स्नेहो येषां शोको भविष्यति।
इमं कुलकरं पुत्रं त्यक्त्वा क्व नु गमिष्यथ ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘परंतु मनुष्योंमें इतना स्नेह ही कहाँ है, जो उन्हें अपने बच्चोंके लिये शोक होगा। अरे! यह तुम्हारा वंशधर बालक है। इसे छोड़कर तुम कहाँ जाओगे॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
चिरं मुञ्चत बाष्पं च चिरं स्नेहेन पश्यत।
एवंविधानि हीष्टानि दुस्त्यजानि विशेषतः ॥ २७ ॥
मूलम्
चिरं मुञ्चत बाष्पं च चिरं स्नेहेन पश्यत।
एवंविधानि हीष्टानि दुस्त्यजानि विशेषतः ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘इस अपने लाड़लेके लिये देरतक आँसू बहाओ और दीर्घ कालतक स्नेहभरी दृष्टिसे इसकी ओर देखो, क्योंकि ऐसी प्यारी-प्यारी संतानोंको छोड़कर जाना अत्यन्त कठिन है॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्षीणस्यार्थाभियुक्तस्य श्मशानाभिमुखस्य च ।
बान्धवा यत्र तिष्ठन्ति तत्रान्यो नाधितिष्ठति ॥ २८ ॥
मूलम्
क्षीणस्यार्थाभियुक्तस्य श्मशानाभिमुखस्य च ।
बान्धवा यत्र तिष्ठन्ति तत्रान्यो नाधितिष्ठति ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जो शरीरसे क्षीण हुआ हो, जिसपर कोई आर्थिक अभियोग लगाया गया हो तथा जो श्मशानकी ओर जा रहा हो, ऐसे अवसरोंपर उसके भाई-बन्धु ही उसके साथ खड़े होते हैं। दूसरा कोई वहाँ साथ नहीं देता॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वस्य दयिताः प्राणाः सर्वः स्नेहं च विन्दति।
तिर्यग्योनिष्वपि सतां स्नेहं पश्यत यादृशम् ॥ २९ ॥
मूलम्
सर्वस्य दयिताः प्राणाः सर्वः स्नेहं च विन्दति।
तिर्यग्योनिष्वपि सतां स्नेहं पश्यत यादृशम् ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘सबको अपने-अपने प्राण प्यारे होते हैं और सभी दूसरोंसे स्नेह पाते हैं। पशु-पक्षीकी योनिमें भी जो प्राणी रहते हैं, उनका अपनी संतानोंपर कैसा प्रेम है, इसे देखो॥२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्यक्त्वा कथं गच्छथेमं पद्मलोलायताक्षिकम्।
यथा नवोद्वाहकृतं स्नानमाल्यविभूषितम् ॥ ३० ॥
मूलम्
त्यक्त्वा कथं गच्छथेमं पद्मलोलायताक्षिकम्।
यथा नवोद्वाहकृतं स्नानमाल्यविभूषितम् ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस बालककी कमल-जैसी चंचल एवं विशाल आँखे कितनी सुन्दर हैं। इसका शरीर स्नान एवं पुष्पमाला आदिसे विभूषित नया-नया विवाह करके आये दुल्हे जैसा है। ऐसे मनोहर बालकको छोड़कर जानेके लिये तुम्हारे पैर कैसे उठ रहे हैं?’॥३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जम्बुकस्य वचः श्रुत्वा कृपणं परिदेवतः।
न्यवर्तन्त तदा सर्वे शवार्थं ते स्म मानुषाः ॥ ३१ ॥
मूलम्
जम्बुकस्य वचः श्रुत्वा कृपणं परिदेवतः।
न्यवर्तन्त तदा सर्वे शवार्थं ते स्म मानुषाः ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
करुणाजनक विलाप करते हुए उस सियारकी यह बात सुनकर वे सभी मनुष्य उस मृत बालकके शरीरकी देख-रेखके लिये पुनः लौट आये॥३१॥
मूलम् (वचनम्)
गृध्र उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहो बत नृशंसेन जम्बुकेनाल्पमेधसा।
क्षुद्रेणोक्ता हीनसत्त्वा मानुषाः किं निवर्तथ ॥ ३२ ॥
मूलम्
अहो बत नृशंसेन जम्बुकेनाल्पमेधसा।
क्षुद्रेणोक्ता हीनसत्त्वा मानुषाः किं निवर्तथ ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब गीधने कहा— अहो! उस मन्दबुद्धि एवं क्रूर स्व भाववाले क्षुद्र गीदड़की बातोंमें आकर तुम लौटे कैसे आते हो? मनुष्यो! तुम बड़े धैर्यहीन हो॥३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पञ्चेन्द्रियपरित्यक्तं शुष्कं काष्ठत्वमागतम् ।
कस्माच्छोचथ तिष्ठन्तमात्मानं किं न शोचथ ॥ ३३ ॥
मूलम्
पञ्चेन्द्रियपरित्यक्तं शुष्कं काष्ठत्वमागतम् ।
कस्माच्छोचथ तिष्ठन्तमात्मानं किं न शोचथ ॥ ३३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस बच्चेका शरीर पाँचों इन्द्रियोंसे परित्यक्त होकर सूखे काठके समान तुम्हारे सामने पड़ा है। तुम इसके लिये क्यों शोक करते हो? एक दिन तुम्हारी भी यही दशा होगी, फिर अपने लिये क्यों नहीं शोक करते?॥३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तपः कुरुत वै तीव्रं मुच्यध्वं येन किल्बिषात्।
तपसा लभ्यते सर्वं विलापः किं करिष्यति ॥ ३४ ॥
मूलम्
तपः कुरुत वै तीव्रं मुच्यध्वं येन किल्बिषात्।
तपसा लभ्यते सर्वं विलापः किं करिष्यति ॥ ३४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अब तुमलोग तीव्र तपस्या करो, जिससे समस्त पापोंसे छुटकारा पा जाओगे। तपस्यासे सब कुछ मिल सकता है। तुम्हारा यह विलाप क्या करेगा?॥३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनिष्टानि च भाग्यानि जातानि सह मूर्तिना।
येन गच्छति बालोऽयं दत्त्वा शोकमनन्तकम् ॥ ३५ ॥
मूलम्
अनिष्टानि च भाग्यानि जातानि सह मूर्तिना।
येन गच्छति बालोऽयं दत्त्वा शोकमनन्तकम् ॥ ३५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भाग्य शरीरके साथ ही प्रकट होता है और उसका अनिष्ट फल भी सामने आता ही है, जिससे यह बालक तुम्हें अनन्त शोक देकर जा रहा है॥३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
धनं गावः सुवर्णं च मणिरत्नमथापि च।
अपत्यं च तपोमूलं तपोयोगाच्च लभ्यते ॥ ३६ ॥
मूलम्
धनं गावः सुवर्णं च मणिरत्नमथापि च।
अपत्यं च तपोमूलं तपोयोगाच्च लभ्यते ॥ ३६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
धन, गाय, सोना, मणि, रत्न, और पुत्र-इन सबका मूल कारण तप ही है। तपस्याके योगसे ही इनकी उपलब्धि होती है॥३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथाकृता च भूतेषु प्राप्यते सुखदुःखिता।
गृहीत्वा जायते जन्तुर्दुःखानि च सुखानि च ॥ ३७ ॥
मूलम्
यथाकृता च भूतेषु प्राप्यते सुखदुःखिता।
गृहीत्वा जायते जन्तुर्दुःखानि च सुखानि च ॥ ३७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जीव अपने पूर्वजन्मके कर्मोंके अनुसार दुःख-सुखको लेकर ही जन्म ग्रहण करता है। सभी प्राणियोंमें सुख और दुःखका भोग कर्मानुसार ही प्राप्त होता है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न कर्मणा पितुः पुत्रः पिता वा पुत्रकर्मणा।
मार्गेणान्येन गच्छन्ति बद्धाः सुकृतदुष्कृतैः ॥ ३८ ॥
मूलम्
न कर्मणा पितुः पुत्रः पिता वा पुत्रकर्मणा।
मार्गेणान्येन गच्छन्ति बद्धाः सुकृतदुष्कृतैः ॥ ३८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पिताके कर्मसे पुत्रका और पुत्रके कर्मसे पिताका कोई सम्बन्ध नहीं है। अपने-अपने पाप-पुण्यके बन्धनमें बँधे हुए जीव कर्मानुसार विभिन्न मार्गसे जाते हैं॥३८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
धर्मं चरत यत्नेन न चाधर्मे मनः कृथाः।
वर्तध्वं च यथाकालं दैवतेषु द्विजेषु च ॥ ३९ ॥
मूलम्
धर्मं चरत यत्नेन न चाधर्मे मनः कृथाः।
वर्तध्वं च यथाकालं दैवतेषु द्विजेषु च ॥ ३९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तुमलोग यत्नपूर्वक धर्मका आचरण करो और अधर्ममें कभी मन न लगाओ। देवताओं तथा ब्राह्मणोंकी सेवामें यथासमय तत्पर रहो॥३९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शोकं त्यजत दैन्यं च सुतस्नेहान्निवर्तत।
त्यज्यतामयमाकाशे ततः शीघ्रं निवर्तत ॥ ४० ॥
मूलम्
शोकं त्यजत दैन्यं च सुतस्नेहान्निवर्तत।
त्यज्यतामयमाकाशे ततः शीघ्रं निवर्तत ॥ ४० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शोक और दीनताको छोड़ो तथा पुत्रस्नेहसे मनको हटा लो। इस बालकको इसी सूने स्थानमें छोड़ दो और शीघ्र लौट जाओ॥४०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यत् करोति शुभं कर्म तथा कर्म सुदारुणम्।
तत् कर्तैव समश्नाति बान्धवानां किमत्र ह ॥ ४१ ॥
मूलम्
यत् करोति शुभं कर्म तथा कर्म सुदारुणम्।
तत् कर्तैव समश्नाति बान्धवानां किमत्र ह ॥ ४१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्राणी जो शुभ या अशुभ कर्म करता है, उसका फल भी करनेवाला ही भोगता है। इसमें भाई-बन्धुओंका क्या है?॥४१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इह त्यक्त्वा न तिष्ठन्ति बान्धवा बान्धवं प्रियम्।
स्नेहमुत्सृज्य गच्छन्ति बाष्पपूर्णाविलेक्षणाः ॥ ४२ ॥
मूलम्
इह त्यक्त्वा न तिष्ठन्ति बान्धवा बान्धवं प्रियम्।
स्नेहमुत्सृज्य गच्छन्ति बाष्पपूर्णाविलेक्षणाः ॥ ४२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
बन्धु-बान्धव लोग यहाँ अपने प्रिय बन्धुओंका परित्याग करके ठहरते नहीं हैं। सारा स्नेह छोड़कर आँखोंमें आँसू भरे यहाँसे चल देते हैं॥४२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्राज्ञो वा यदि वा मूर्खः सधनो निर्धनोऽपि वा।
सर्वः कालवशं याति शुभाशुभसमन्वितः ॥ ४३ ॥
मूलम्
प्राज्ञो वा यदि वा मूर्खः सधनो निर्धनोऽपि वा।
सर्वः कालवशं याति शुभाशुभसमन्वितः ॥ ४३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
विद्वान् हो या मूर्ख, धनवान् हो या निर्धन, सभी अपने शुभ या अशुभ कर्मोंके साथ कालके अधीन हो जाते हैं॥४३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
किं करिष्यथ शोचित्वा मृतं किमनुशोचथ।
सर्वस्य हि प्रभुः कालो धर्मतः समदर्शनः ॥ ४४ ॥
मूलम्
किं करिष्यथ शोचित्वा मृतं किमनुशोचथ।
सर्वस्य हि प्रभुः कालो धर्मतः समदर्शनः ॥ ४४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अच्छा, यह तो बताओ, तुम शोक करके क्या कर लोगे? क्या इसे जिला दोगे? फिर इस मृतकके लिये क्यों शोक करते हो? काल ही सबका शासक और स्वामी है, जो धर्मतः सबके ऊपर समान दृष्टि रखता है॥४४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यौवनस्थांश्च बालांश्च वृद्धान् गर्भगतानपि।
सर्वानाविशते मृत्युरेवंभूतमिदं जगत् ॥ ४५ ॥
मूलम्
यौवनस्थांश्च बालांश्च वृद्धान् गर्भगतानपि।
सर्वानाविशते मृत्युरेवंभूतमिदं जगत् ॥ ४५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह कराल काल युवा, बालक, वृद्ध और गर्भस्थ शिशु—सबमें प्रवेश करता है। इस संसारकी ऐसी ही दशा है॥४५॥
मूलम् (वचनम्)
जम्बुक उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहो मन्दीकृतः स्नेहो गृध्रेणेहाल्पबुद्धिना।
पुत्रस्नेहाभिभूतानां युष्माकं शोचतां भृशम् ॥ ४६ ॥
मूलम्
अहो मन्दीकृतः स्नेहो गृध्रेणेहाल्पबुद्धिना।
पुत्रस्नेहाभिभूतानां युष्माकं शोचतां भृशम् ॥ ४६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसपर गीदड़ने कहा— अहो! क्या इस मन्दबुद्धि गीधने तुम्हारे स्नेहको शिथिल कर दिया? तुम तो पुत्रस्नेहसे अभिभूत होकर उसके लिये बड़ा शोक कर रहे थे॥४६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
समैः सम्यक्प्रयुक्तैश्च वचनैः प्रत्ययोत्तरैः।
यद् गच्छति जनश्चायं स्नेहमुत्सृज्य दुस्त्यजम् ॥ ४७ ॥
मूलम्
समैः सम्यक्प्रयुक्तैश्च वचनैः प्रत्ययोत्तरैः।
यद् गच्छति जनश्चायं स्नेहमुत्सृज्य दुस्त्यजम् ॥ ४७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
गीधके अच्छी युक्तियोंसे मुक्त न्यायसंगत और विश्वासोत्पादक प्रतीत होनेवाले वचनोंसे प्रभावित हो ये सब लोग जो दुस्त्यज स्नेहका परित्याग करके चले जा रहे हैं, यह कितने आश्चर्यकी बात है!॥४७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहो पुत्रवियोगेन मृतशून्योपसेवनात् ।
क्रोशतां सुभृशं दुःखं विवत्सानां गवामिव ॥ ४८ ॥
अद्य शोकं विजानामि मानुषाणां महीतले।
स्नेहं हि कारणं कृत्वा ममाप्यश्रूण्यथापतन् ॥ ४९ ॥
मूलम्
अहो पुत्रवियोगेन मृतशून्योपसेवनात् ।
क्रोशतां सुभृशं दुःखं विवत्सानां गवामिव ॥ ४८ ॥
अद्य शोकं विजानामि मानुषाणां महीतले।
स्नेहं हि कारणं कृत्वा ममाप्यश्रूण्यथापतन् ॥ ४९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अहो! पुत्रके वियोगसे पीड़ित हो मृतकोंके इस शून्य स्थानमें आकर अत्यन्त दुःखसे रोने-बिलखनेवाले इन भूतलवासी मनुष्योंके हृदयमें बछड़ोंसे रहित हुई गायोंकी भाँति कितना शोक होता है? इसका अनुभव मुझे आज हुआ है; क्योंकि इनके स्नेहको निमित्त बनाकर मेरी आँखोंसे भी आँसू बहने लगे हैं॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यत्नो हि सततं कार्यस्ततो दैवेन सिद्ध्यति।
दैवं पुरुषकारश्च कृतान्तेनोपपद्यते ॥ ५० ॥
मूलम्
यत्नो हि सततं कार्यस्ततो दैवेन सिद्ध्यति।
दैवं पुरुषकारश्च कृतान्तेनोपपद्यते ॥ ५० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अपने अभीष्टकी सिद्धिके लिये सदा प्रयत्न करते रहना चाहिये, तब दैवयोगसे उसकी सिद्धि होती है। दैव और पुरुषार्थ—दोनों कालसे ही सम्पन्न होते हैं॥५०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनिर्वेदः सदा कार्यो निर्वेदाद्धि कुतः सुखम्।
प्रयत्नात् प्राप्यते ह्यर्थः कस्माद् गच्छथ निर्दयम् ॥ ५१ ॥
मूलम्
अनिर्वेदः सदा कार्यो निर्वेदाद्धि कुतः सुखम्।
प्रयत्नात् प्राप्यते ह्यर्थः कस्माद् गच्छथ निर्दयम् ॥ ५१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
खेद और शिथिलताको कभी अपने मनमें स्थान नहीं देना चाहिये। खेद होनेपर कहाँसे सुख प्राप्त हो सकता है। प्रयत्नसे ही अभिलषित अर्थकी प्राप्ति होती है; अतः तुमलोग इस बालककी रक्षाका प्रयत्न छोड़कर निर्दयतापूर्वक कहाँ चले जा रहे हो?॥५१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आत्ममांसोपवृत्तं च शरीरार्धमयीं तनुम्।
पितॄणां वंशकर्तारं वने त्यक्त्वा क्व यास्यथ ॥ ५२ ॥
मूलम्
आत्ममांसोपवृत्तं च शरीरार्धमयीं तनुम्।
पितॄणां वंशकर्तारं वने त्यक्त्वा क्व यास्यथ ॥ ५२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह बालक तुम्हारे अपने ही रक्त-मांसका बना हुआ है, आधे शरीरके समान है और पितरोंके वंशकी वृद्धि करनेवाला है, इसे वनमें छोड़कर तुम कहाँ जाओगे?॥५२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथवास्तंगते सूर्ये संध्याकाल उपस्थिते।
ततो नेष्यथ वा पुत्रमिहस्था वा भविष्यथ ॥ ५३ ॥
मूलम्
अथवास्तंगते सूर्ये संध्याकाल उपस्थिते।
ततो नेष्यथ वा पुत्रमिहस्था वा भविष्यथ ॥ ५३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अच्छा, इतना ही करो कि जबतक सूर्य अस्त न हो और संध्याकाल उपस्थित न हो जाय, तबतक यहाँ रुके रहो; फिर अपने इस पुत्रको साथ ले जाना अथवा यहीं बैठे रहना॥५३॥
मूलम् (वचनम्)
गृध्र उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अद्य वर्षसहस्रं मे साग्रं जातस्य मानुषाः।
न च पश्यामि जीवन्तं मृतं स्त्रीपुंनपुंसकम् ॥ ५४ ॥
मूलम्
अद्य वर्षसहस्रं मे साग्रं जातस्य मानुषाः।
न च पश्यामि जीवन्तं मृतं स्त्रीपुंनपुंसकम् ॥ ५४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
गीधने कहा— मनुष्यो! मुझे जन्म लिये आज एक हजार वर्षसे अधिक हो गये; परंतु मैंने कभी किसी स्त्री-पुरुष या नपुंसकको मरनेके बाद फिर जीवित होते नहीं देखा॥५४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मृता गर्भेषु जायन्ते जातमात्रा म्रियन्ति च।
चङ्क्रमन्तो म्रियन्ते च यौवनस्थास्तथा परे ॥ ५५ ॥
मूलम्
मृता गर्भेषु जायन्ते जातमात्रा म्रियन्ति च।
चङ्क्रमन्तो म्रियन्ते च यौवनस्थास्तथा परे ॥ ५५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुछ लोग गर्भोंमें ही मरकर जन्म लेते हैं, कुछ जन्म लेते ही मर जाते हैं, कुछ चलने-फिरने लायक होकर मरते हैं और कुछ लोग भरी जवानीमें ही चल बसते हैं॥५५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनित्यानीह भाग्यानि चतुष्पात्पक्षिणामपि ।
जङ्गमानां नगानां वाप्यायुरग्रेऽवतिष्ठते ॥ ५६ ॥
मूलम्
अनित्यानीह भाग्यानि चतुष्पात्पक्षिणामपि ।
जङ्गमानां नगानां वाप्यायुरग्रेऽवतिष्ठते ॥ ५६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस संसारमें पशुओं और पक्षियोंके भी भाग्यफल अनित्य हैं। स्थावरों और जंगमोंके जीवन में भी आयुकी ही प्रधानता है॥५६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इष्टदारवियुक्ताश्च पुत्रशोकान्वितास्तथा ।
दह्यमानाः स्म शोकेन गृहं गच्छन्ति नित्यशः ॥ ५७ ॥
मूलम्
इष्टदारवियुक्ताश्च पुत्रशोकान्वितास्तथा ।
दह्यमानाः स्म शोकेन गृहं गच्छन्ति नित्यशः ॥ ५७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रिय पत्नीके वियोग और पुत्रशोकसे संतप्त हो कितने ही प्राणी प्रतिदिन शोककी आगमें जलते हुए इस मरघटसे अपने घरको लौटते हैं॥५७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनिष्टानां सहस्राणि तथेष्टानां शतानि च।
उत्सृज्येह प्रयाता वै बान्धवा भृशदुःखिताः ॥ ५८ ॥
मूलम्
अनिष्टानां सहस्राणि तथेष्टानां शतानि च।
उत्सृज्येह प्रयाता वै बान्धवा भृशदुःखिताः ॥ ५८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कितने ही भाई-बन्धु अत्यन्त दुखी हो यहाँ हजारों अप्रिय त था सैकड़ों प्रिय व्यक्तियोंको छोड़कर चले गये हैं॥५८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्यज्यतामेष निस्तेजाः शून्यः काष्ठत्वमागतः।
अन्यदेहविषक्तं हि शावं काष्ठत्वमागतम् ॥ ५९ ॥
त्यक्तजीवस्य चैवास्य कस्माद्धित्वा न गच्छत।
निरर्थको ह्ययं स्नेहो निष्फलश्च परिश्रमः ॥ ६० ॥
मूलम्
त्यज्यतामेष निस्तेजाः शून्यः काष्ठत्वमागतः।
अन्यदेहविषक्तं हि शावं काष्ठत्वमागतम् ॥ ५९ ॥
त्यक्तजीवस्य चैवास्य कस्माद्धित्वा न गच्छत।
निरर्थको ह्ययं स्नेहो निष्फलश्च परिश्रमः ॥ ६० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह मृत बालक तेजोहीन होकर थोथे काठके समान हो गया है। इसे छोड़ दो। इसका जीव दूसरे शरीरमें आसक्त है। इस निष्प्राण बालकका यह शव काठके समान हो गया है तुमलोग इसे छोड़कर चले क्यों नहीं जाते? तुम्हारा यह स्नेह निरर्थक है और इस परिश्रमका भी कोई फल नहीं है॥५९-६०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
चक्षुर्भ्यां न च कर्णाभ्यां संशृणोति समीक्षते।
कस्मादेनं समुत्सृज्य न गृहान् गच्छताशु वै ॥ ६१ ॥
मूलम्
चक्षुर्भ्यां न च कर्णाभ्यां संशृणोति समीक्षते।
कस्मादेनं समुत्सृज्य न गृहान् गच्छताशु वै ॥ ६१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह न तो आँखोंसे देखता है और न कानोंसे कुछ सुनता ही है। फिर इसे त्यागकर तुमलोग जल्दी अपने घर क्यों नहीं चले जाते॥६१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मोक्षधर्माश्रितैर्वाक्यैर्हेतुमद्भिः सुनिष्ठुरैः ।
मयोक्ता गच्छत क्षिप्रं स्वं स्वमेव निवेशनम् ॥ ६२ ॥
मूलम्
मोक्षधर्माश्रितैर्वाक्यैर्हेतुमद्भिः सुनिष्ठुरैः ।
मयोक्ता गच्छत क्षिप्रं स्वं स्वमेव निवेशनम् ॥ ६२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मेरी ये बातें बड़ी निष्ठुर जान पड़ती हैं; परंतु हेतुगर्भित और मोक्ष-धर्मसे सम्बन्ध रखनेवाली हैं; अतः इन्हें मानकर मेरे कहनेसे तुमलोग शीघ्र अपने-अपने घर पधारो॥६२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रज्ञाविज्ञानयुक्तेन बुद्धिसंज्ञाप्रदायिना ।
वचनं श्राविता नूनं मानुषाः संनिवर्तत।
शोको द्विगुणतां याति दृष्ट्वा स्मृत्वा च चेष्टितम् ॥ ६३ ॥
मूलम्
प्रज्ञाविज्ञानयुक्तेन बुद्धिसंज्ञाप्रदायिना ।
वचनं श्राविता नूनं मानुषाः संनिवर्तत।
शोको द्विगुणतां याति दृष्ट्वा स्मृत्वा च चेष्टितम् ॥ ६३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मनुष्यो! मैं बुद्धि और विज्ञानसे युक्त तथा दूसरोंको भी ज्ञान प्रदान करनेवाला हूँ। मैंने तुम्हें विवेक उत्पन्न करनेवाली बहुत-सी बातें सुनायी हैं। अब तुमलोग लौट जाओ। अपने मरे हुए स्वजनका शव देखकर तथा उसकी चेष्टाओंको स्मरण करके दूना शोक होता है॥६३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्येतद् वचनं श्रुत्वा संनिवृत्तास्तु मानुषाः।
अपश्यत् तं तदा सुप्तं द्रुतमागत्य जम्बुकः ॥ ६४ ॥
मूलम्
इत्येतद् वचनं श्रुत्वा संनिवृत्तास्तु मानुषाः।
अपश्यत् तं तदा सुप्तं द्रुतमागत्य जम्बुकः ॥ ६४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
गीधकी यह बात सुनकर वे सब मनुष्य घरकी ओर लौट पड़े। तब सियारने तुरंत आकर उस सोते हुए बालकको देखा॥६४॥
मूलम् (वचनम्)
जम्बुक उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
इमं कनकवर्णाभं भूषणैः समलंकृतम्।
गृध्रवाक्यात् कथं पुत्रं त्यजध्वं पितृपिण्डदम् ॥ ६५ ॥
मूलम्
इमं कनकवर्णाभं भूषणैः समलंकृतम्।
गृध्रवाक्यात् कथं पुत्रं त्यजध्वं पितृपिण्डदम् ॥ ६५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सियार बोला— बन्धुओ! देखो तो सही, इस बालकका रंग कैसा सोनेके समान चमक रहा है। आभूषणोंसे भूषित होकर यह कैसी शोभा पाता है। पितरोंको पिण्ड प्रदान करनेवाले अपने इस पुत्रको तुम गीधकी बातोंमें आकर कैसे छोड़ रहे हो?॥६५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न स्नेहस्य च विच्छेदो विलापरुदितस्य च।
मृतस्यास्य परित्यागात् तापो वै भविता ध्रुवम् ॥ ६६ ॥
मूलम्
न स्नेहस्य च विच्छेदो विलापरुदितस्य च।
मृतस्यास्य परित्यागात् तापो वै भविता ध्रुवम् ॥ ६६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस मृत बालकको छोड़कर जानेसे न तो तुम्हारे स्नेहमें कमी आयेगी और न तुम्हारा रोना-धोना एवं विलाप ही बंद होगा। उलटे तुम्हारा संताप और बढ़ जायगा, यह निश्चित है॥६६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्रूयते शम्बुके शूद्रे हते ब्राह्मणदारकः।
जीवितो धर्ममासाद्य रामात् सत्यपराक्रमात् ॥ ६७ ॥
मूलम्
श्रूयते शम्बुके शूद्रे हते ब्राह्मणदारकः।
जीवितो धर्ममासाद्य रामात् सत्यपराक्रमात् ॥ ६७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सुना जाता है कि सत्यपराक्रमी श्रीरामचन्द्रजीसे शम्बूक नामक शूद्रके मारे जानेपर उस धर्मके प्रभावसे एक मरा हुआ ब्राह्मण बालक जीवित हो उठा था॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथा श्वेतस्य राजर्षेर्बालो दृष्टान्तमागतः।
श्वेतेन धर्मनिष्ठेन मृतः संजीवितः पुनः ॥ ६८ ॥
मूलम्
तथा श्वेतस्य राजर्षेर्बालो दृष्टान्तमागतः।
श्वेतेन धर्मनिष्ठेन मृतः संजीवितः पुनः ॥ ६८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसीप्रकार राजर्षि श्वेतका भी बालक मर गया था, परंतु धर्मनिष्ठ श्वेतने उसे पुनः जीवित कर दिया था॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथा कश्चिल्लभेत् सिद्धो मुनिर्वा देवतापि वा।
कृपणानामनुक्रोशं कुर्याद् वो रुदतामिह ॥ ६९ ॥
मूलम्
तथा कश्चिल्लभेत् सिद्धो मुनिर्वा देवतापि वा।
कृपणानामनुक्रोशं कुर्याद् वो रुदतामिह ॥ ६९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसी प्रकार सम्भव है कोई सिद्ध मुनि या देवता मिल जायँ और यहाँ रोते हुए तुम दीन-दुखियोंपर दया कर दें॥६९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्युक्तास्ते न्यवर्तन्त शोकार्ताः पुत्रवत्सलाः।
अङ्के शिरः समाधाय रुरुदुर्बहुविस्तरम्।
तेषां रुदितशब्देन गृध्रोऽभ्येत्य वचोऽब्रवीत् ॥ ७० ॥
मूलम्
इत्युक्तास्ते न्यवर्तन्त शोकार्ताः पुत्रवत्सलाः।
अङ्के शिरः समाधाय रुरुदुर्बहुविस्तरम्।
तेषां रुदितशब्देन गृध्रोऽभ्येत्य वचोऽब्रवीत् ॥ ७० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सियारके ऐसा कहनेपर वे पुत्रवत्सल बान्धव शोकसे पीड़ित हो लौट पड़े और बालकका मस्तक अपनी गोदमें रखकर जोर-जोरसे रोने लगे। उनके रोनेकी आवाज सुनकर गीध पास आ गया और इस प्रकार बोला॥७०॥
मूलम् (वचनम्)
गृध्र उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अश्रुपातपरिक्लिन्नः पाणिस्पर्शप्रपीडितः ।
धर्मराजप्रयोगाच्च दीर्घनिद्रां प्रवेशितः ॥ ७१ ॥
मूलम्
अश्रुपातपरिक्लिन्नः पाणिस्पर्शप्रपीडितः ।
धर्मराजप्रयोगाच्च दीर्घनिद्रां प्रवेशितः ॥ ७१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
गीधने कहा— तुमलोगोंके आँसू बहानेसे जिसका शरीर गीला हो गया है और जो तुम्हारे हाथोंसे बार-बार दबाया गया है, ऐसा यह बालक धर्मराजकी आज्ञासे चिरनिद्रामें प्रविष्ट हो गया है॥७१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तपसापि हि संयुक्ता धनवन्तो महाधियः।
सर्वे मृत्युवशं यान्ति तदिदं प्रेतपत्तनम् ॥ ७२ ॥
मूलम्
तपसापि हि संयुक्ता धनवन्तो महाधियः।
सर्वे मृत्युवशं यान्ति तदिदं प्रेतपत्तनम् ॥ ७२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
बड़े-बड़े तपस्वी, धनवान् और महा बुद्धिमान् सभी यहाँ मृत्युके अधीन हो जाते हैं। यह प्रेतोंका नगर है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बालवृद्धसहस्राणि सदा संत्यज्य बान्धवाः।
दिनानि चैव रात्रीश्च दुःखं तिष्ठन्ति भूतले ॥ ७३ ॥
मूलम्
बालवृद्धसहस्राणि सदा संत्यज्य बान्धवाः।
दिनानि चैव रात्रीश्च दुःखं तिष्ठन्ति भूतले ॥ ७३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यहाँ लोगोंके भाई बन्धु सदा सहस्रों बालकों और वृद्धोंको त्यागकर दिन-रात दुखी रहते हैं॥७३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अलं निर्बन्धमागत्य शोकस्य परिधारणे।
अप्रत्ययं कुतो ह्यस्य पुनरद्येह जीवितम् ॥ ७४ ॥
मूलम्
अलं निर्बन्धमागत्य शोकस्य परिधारणे।
अप्रत्ययं कुतो ह्यस्य पुनरद्येह जीवितम् ॥ ७४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
दुराग्रहवश बारंबार लौटकर शोकका बोझ धारण करनेसे कोई लाभ नहीं है। अब इसके जीनेका कोई भरोसा नहीं है। भला, आज यहाँ इसका पुनर्जीवन कैसे हो सकता है?॥७४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मृतस्योत्सृष्टदेहस्य पुनर्देहो न विद्यते।
नैव मूर्तिप्रदानेन जम्बुकस्य शतैरपि ॥ ७५ ॥
शक्यं जीवयितुं ह्येष बालो वर्षशतैरपि।
मूलम्
मृतस्योत्सृष्टदेहस्य पुनर्देहो न विद्यते।
नैव मूर्तिप्रदानेन जम्बुकस्य शतैरपि ॥ ७५ ॥
शक्यं जीवयितुं ह्येष बालो वर्षशतैरपि।
अनुवाद (हिन्दी)
जो व्यक्ति एक बार इस देहसे नाता तोड़कर मर जाता है, उसके लिये फिर इस शरीरमें लौटना सम्भव नहीं है सैकड़ों सियार अपना शरीर बलिदान कर दें तो भी सैकड़ों वर्षोंमें इस बालकको जिलाया नहीं जा सकता॥७५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथ रुद्रः कुमारो वा ब्रह्मा वा विष्णुरेव च॥७६॥
वरमस्मै प्रयच्छेयुस्ततो जीवेदयं शिशुः।
मूलम्
अथ रुद्रः कुमारो वा ब्रह्मा वा विष्णुरेव च॥७६॥
वरमस्मै प्रयच्छेयुस्ततो जीवेदयं शिशुः।
अनुवाद (हिन्दी)
यदि भगवान् शिव, कुमार कार्तिकेय, ब्रह्माजी और भगवान् विष्णु इसे वर दें तो यह बालक जी सकता है॥७६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नैव बाष्पविमोक्षेण न वा श्वासकृते न च ॥ ७७ ॥
न दीर्घरुदितेनायं पुनर्जीवं गमिष्यति।
मूलम्
नैव बाष्पविमोक्षेण न वा श्वासकृते न च ॥ ७७ ॥
न दीर्घरुदितेनायं पुनर्जीवं गमिष्यति।
अनुवाद (हिन्दी)
न तो आँसू बहानेसे, न लंबी-लंबी सांस खींचनेसे और न दीर्घकालतक रोनेसे ही यह फिर जी सकेगा॥७७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहं च क्रोष्टुकश्चैव यूयं ये चास्य बान्धवाः ॥ ७८ ॥
धर्माधर्मौ गृहीत्वेह सर्वे वर्तामहेऽध्वनि।
मूलम्
अहं च क्रोष्टुकश्चैव यूयं ये चास्य बान्धवाः ॥ ७८ ॥
धर्माधर्मौ गृहीत्वेह सर्वे वर्तामहेऽध्वनि।
अनुवाद (हिन्दी)
मैं, यह सियार और तुम सब लोग जो इसके भाई बन्धु हो—ये सभी धर्म और अधर्मको लेकर यहाँ अपनी-अपनी राहपर चल रहे हैं॥७८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अप्रियं परुषं चापि परद्रोहं परस्त्रियम् ॥ ७९ ॥
अधर्ममनृतं चैव दूरात् प्राज्ञो विवर्जयेत्।
मूलम्
अप्रियं परुषं चापि परद्रोहं परस्त्रियम् ॥ ७९ ॥
अधर्ममनृतं चैव दूरात् प्राज्ञो विवर्जयेत्।
अनुवाद (हिन्दी)
बुद्धिमान् पुरुषको अप्रिय आचरण, कठोर वचन दूसरोंके साथ द्रोह, परायी स्त्री, अधर्म और असत्य-भाषणका दूरसे ही परित्याग कर देना चाहिये॥७९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
धर्मं सत्यं श्रुतं न्याय्यं महतीं प्राणिनां दयाम् ॥ ८० ॥
अजिह्मत्वमशाठ्यं च यत्नतः परिमार्गत।
मूलम्
धर्मं सत्यं श्रुतं न्याय्यं महतीं प्राणिनां दयाम् ॥ ८० ॥
अजिह्मत्वमशाठ्यं च यत्नतः परिमार्गत।
अनुवाद (हिन्दी)
तुम सब लोग धर्म, सत्य, शास्त्रज्ञान, न्यायपूर्ण बर्ताव समस्त प्राणियोंपर बड़ी भारी दया, कुटिलताका अभाव तथा शठताका त्याग—इन्हीं सद्गुणोंका यत्नपूर्वक अनुसरण करे॥८०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मातरं पितरं वापि बान्धवान् सुहृदस्तथा ॥ ८१ ॥
जीवतो ये न पश्यन्ति तेषां धर्मविपर्ययः।
मूलम्
मातरं पितरं वापि बान्धवान् सुहृदस्तथा ॥ ८१ ॥
जीवतो ये न पश्यन्ति तेषां धर्मविपर्ययः।
अनुवाद (हिन्दी)
जो लोग जीवित माता-पिता, सुहृदों और भाई-बन्धुओंकी देखभाल नहीं करते हैं, उनके धर्मकी हानि होती है॥८१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यो न पश्यति चक्षुर्भ्यां नेङ्गते च कथञ्चन ॥ ८२ ॥
तस्य निष्ठावसानान्ते रुदन्तः किं करिष्यथ।
मूलम्
यो न पश्यति चक्षुर्भ्यां नेङ्गते च कथञ्चन ॥ ८२ ॥
तस्य निष्ठावसानान्ते रुदन्तः किं करिष्यथ।
अनुवाद (हिन्दी)
जो न आँखोंसे देखता है, न शरीरसे कोई चेष्टा ही करता है, उसके जीवनका अन्त हो जानेपर अब तुमलोग रोकर क्या करोगे॥८२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्युक्तास्ते सुतं त्यक्त्वा भूमौ शोकपरिप्लुताः।
दह्यमानाः सुतस्नेहात् प्रययुर्बान्धवा गृहम् ॥ ८३ ॥
मूलम्
इत्युक्तास्ते सुतं त्यक्त्वा भूमौ शोकपरिप्लुताः।
दह्यमानाः सुतस्नेहात् प्रययुर्बान्धवा गृहम् ॥ ८३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
गीधके ऐसा कहनेपर वे शोकमें डूबे हुए भाई-बन्धु अपने उस पुत्रको धरतीपर सुलाकर उसके स्नेहसे दग्ध होते हुए अपने घरकी ओर लौटे॥८३॥
मूलम् (वचनम्)
जम्बुक उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
दारुणो मर्त्यलोकोऽयं सर्वप्राणिविनाशनः ।
इष्टबन्धुवियोगश्च तथेहाल्पं च जीवितम् ॥ ८४ ॥
मूलम्
दारुणो मर्त्यलोकोऽयं सर्वप्राणिविनाशनः ।
इष्टबन्धुवियोगश्च तथेहाल्पं च जीवितम् ॥ ८४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब सियारने कहा— यह मर्त्यलोक अत्यन्त दुःखद है। यहाँ समस्त प्राणियोंका नाश ही होता है। प्रिय बन्धुजनोंके वियोगका कष्ट भी प्राप्त होता रहता है। यहाँका जीवन बहुत थोड़ा है॥८४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बह्वलीकमसत्यं चाप्यतिवादाप्रियंवदम् ।
इमं प्रेक्ष्य पुनर्भावं दुःखशोकविवर्धनम् ॥ ८५ ॥
न मे मानुषलोकोऽयं मुहूर्तमपि रोचते।
मूलम्
बह्वलीकमसत्यं चाप्यतिवादाप्रियंवदम् ।
इमं प्रेक्ष्य पुनर्भावं दुःखशोकविवर्धनम् ॥ ८५ ॥
न मे मानुषलोकोऽयं मुहूर्तमपि रोचते।
अनुवाद (हिन्दी)
इस संसारमें सब कुछ असत्य एवं बहुत अरुचिकर है। यहाँ अनाप-शनाप बकनेवाले तो बहुत हैं, परंतु प्रिय वचन बोलनेवाले विरले ही हैं। यहाँ का भाव दुःख और शोककी वृद्धि करनेवाला है। इसे देखकर मुझे यह मनुष्यलोक दो घड़ी भी अच्छा नहीं लगता॥८५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहो धिग् गृध्रवाक्येन यथैवाबुद्धयस्तथा ॥ ८६ ॥
कथं गच्छत निःस्नेहाः सुतस्नेहं विसृज्य च।
मूलम्
अहो धिग् गृध्रवाक्येन यथैवाबुद्धयस्तथा ॥ ८६ ॥
कथं गच्छत निःस्नेहाः सुतस्नेहं विसृज्य च।
अनुवाद (हिन्दी)
अहो! धिक्कार है। तुमलोग गीधकी बातोंमें आकर मूर्खोंके समान पुत्रस्नेहसे रहित हुए प्रेमशून्य होकर कैसे घरको लौटे जा रहे हो?॥८६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रदीप्ताः पुत्रशोकेन संनिवर्तत मानुषाः ॥ ८७ ॥
श्रुत्वा गृध्रस्य वचनं पापस्येहाकृतात्मनः।
मूलम्
प्रदीप्ताः पुत्रशोकेन संनिवर्तत मानुषाः ॥ ८७ ॥
श्रुत्वा गृध्रस्य वचनं पापस्येहाकृतात्मनः।
अनुवाद (हिन्दी)
मनुष्यो! यह गीध तो बड़ा पापी और अपवित्र हृदयवाला है। इसकी बात सुनकर तुमलोग पुत्रशोकसे जलते हुए भी क्यों लौटे जा रहे हो?॥८७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुखस्यानन्तरं दुःखं दुःखस्यानन्तरं सुखम् ॥ ८८ ॥
सुखदुःखावृते लोके नेहास्त्येकमनन्तरम् ।
मूलम्
सुखस्यानन्तरं दुःखं दुःखस्यानन्तरं सुखम् ॥ ८८ ॥
सुखदुःखावृते लोके नेहास्त्येकमनन्तरम् ।
अनुवाद (हिन्दी)
सुखके बाद दुःख और दुःखके बाद सुख आता है। सुख और दुःखसे घिरे हुए इस जगत्में निरन्तर (सुख या दुःख) अकेला नहीं बना रहता है॥८८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इमं क्षितितले त्यक्त्वा बालं रूपसमन्वितम् ॥ ८९ ॥
कुलशोभाकरं मूढाः पुत्रं त्यक्त्वा क्व यास्यथ।
रूपयौवनसम्पन्नं द्योतमानमिव श्रिया ॥ ९० ॥
मूलम्
इमं क्षितितले त्यक्त्वा बालं रूपसमन्वितम् ॥ ८९ ॥
कुलशोभाकरं मूढाः पुत्रं त्यक्त्वा क्व यास्यथ।
रूपयौवनसम्पन्नं द्योतमानमिव श्रिया ॥ ९० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह सुन्दर बालक तुम्हारे कुलकी शोभा बढ़ानेवाला है। यह रूप और यौवनसे सम्पन्न है तथा अपनी कान्तिसे प्रकाशित हो रहा है। मूर्खो! इस पुत्रको पृथ्वीपर डालकर तुम कहाँ जाओगे?॥८९-९०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जीवन्तमेव पश्यामि मनसा नात्र संशयः।
विनाशो नास्य न हि वै सुखं प्राप्स्यथ मानुषाः॥९१॥
मूलम्
जीवन्तमेव पश्यामि मनसा नात्र संशयः।
विनाशो नास्य न हि वै सुखं प्राप्स्यथ मानुषाः॥९१॥
अनुवाद (हिन्दी)
मनुष्यो! मैं तो अपने मनसे इस बालकको जीवित ही देख रहा हूँ, इसमें संशय नहीं है। इसका नाश नहीं होगा, तुम्हें अवश्य ही सुख मिलेगा॥९१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुत्रशोकाभितप्तानां मृतानामद्य वः क्षमम्।
सुखसम्भावनं कृत्वा धारयित्वा सुखं स्वयम्।
त्यक्त्वा गमिष्यथ क्वाद्य समुत्सृज्याल्पबुद्धिवत् ॥ ९२ ॥
मूलम्
पुत्रशोकाभितप्तानां मृतानामद्य वः क्षमम्।
सुखसम्भावनं कृत्वा धारयित्वा सुखं स्वयम्।
त्यक्त्वा गमिष्यथ क्वाद्य समुत्सृज्याल्पबुद्धिवत् ॥ ९२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पुत्रशोकसे संतप्त होकर तुमलोग स्वयं ही मृतक-तुल्य हो रहे हो; अतः तुम्हारे लिये इस तरह लौट जाना उचित नहीं है। इस बालकसे सुखकी सम्भावना करके सुख पानेकी सुदृढ़ आशा धारण कर तुम सब लोग अल्पबुद्धि मनुष्यके समान स्वयं ही इसे त्यागकर अब कहाँ जाओगे?॥९२॥
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथा धर्मविरोधेन प्रियमिथ्याभिधायिना ।
श्मशानवासिना नित्यं रात्रिं मृगयता नृप ॥ ९३ ॥
ततो मध्यस्थतां नीता वचनैरमृतोपमैः।
जम्बुकेन स्वकार्यार्थं बान्धवास्तस्य धिष्ठिताः ॥ ९४ ॥
मूलम्
तथा धर्मविरोधेन प्रियमिथ्याभिधायिना ।
श्मशानवासिना नित्यं रात्रिं मृगयता नृप ॥ ९३ ॥
ततो मध्यस्थतां नीता वचनैरमृतोपमैः।
जम्बुकेन स्वकार्यार्थं बान्धवास्तस्य धिष्ठिताः ॥ ९४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजीने कहा— राजन्! वह सियार सदा श्मशान भूमिमें ही निवास करता था और अपना काम बनानेके लिये रात्रिकालकी प्रतीक्षा कर रहा था; अतः उसने धर्मविरोधी, मिथ्या तथा अमृततुल्य वचन कहकर उस बालकके बन्धु-बान्धवोंको बीचमें ही अटका दिया। वे न जा पाते थे और न रह पाते थे, अन्तमें उन्हें ठहर जाना पड़ा॥९३-९४॥
मूलम् (वचनम्)
गृध्र उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अयं प्रेतसमाकीर्णो यक्षराक्षससेवितः ।
दारुणः काननोद्देशः कौशिकैरभिनादितः ॥ ९५ ॥
मूलम्
अयं प्रेतसमाकीर्णो यक्षराक्षससेवितः ।
दारुणः काननोद्देशः कौशिकैरभिनादितः ॥ ९५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब गीधने कहा— मनुष्यो! यह वन्य प्रदेश प्रेतोंसे भरा हुआ है। इसमें बहुत-से यक्ष और राक्षस निवास करते हैं तथा कितने ही उल्लू हू-हू की आवाज कर रहे हैं; अतः यह स्थान बड़ा भयंकर है॥९५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भीमः सुघोरश्च तथा नीलमेघसमप्रभः।
अस्मिन् शवं परित्यज्य प्रेतकार्याण्युपासत ॥ ९६ ॥
मूलम्
भीमः सुघोरश्च तथा नीलमेघसमप्रभः।
अस्मिन् शवं परित्यज्य प्रेतकार्याण्युपासत ॥ ९६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह अत्यन्त घोर, भयानक तथा नीलमेघके समान काला अन्धकारपूर्ण है। इस मुर्देको यहीं छोड़कर तुमलोग प्रेतकर्म करो॥९६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भानुर्यावत् प्रयात्यस्तं यावच्च विमला दिशः।
तावदेनं परित्यज्य प्रेतकार्याण्युपासत ॥ ९७ ॥
मूलम्
भानुर्यावत् प्रयात्यस्तं यावच्च विमला दिशः।
तावदेनं परित्यज्य प्रेतकार्याण्युपासत ॥ ९७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जबतक सूर्य डूब नहीं जाते हैं और जबतक दिशाएँ निर्मल हैं, तभीतक इसे यहाँ छोड़कर तुमलोग इसके प्रेतकार्यमें लग जाओ॥९७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नदन्ति परुषं श्येनाः शिवाः क्रोशन्ति दारुणम्।
मृगेन्द्राः प्रतिनन्दन्ति रविरस्तं च गच्छति ॥ ९८ ॥
मूलम्
नदन्ति परुषं श्येनाः शिवाः क्रोशन्ति दारुणम्।
मृगेन्द्राः प्रतिनन्दन्ति रविरस्तं च गच्छति ॥ ९८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस वनमें बाज अपनी कठोर बोली बोलते हैं, सियार भयंकर आवाजमें हुआँ-हुआँ कर रहे हैं, सिंह दहाड़ रहे हैं और सूर्य अस्ताचलको जा रहे हैं॥९८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
चिताधूमेन नीलेन संरज्यन्ते च पादपाः।
श्मशाने च निराहाराः प्रतिनर्दन्ति देहिनः ॥ ९९ ॥
मूलम्
चिताधूमेन नीलेन संरज्यन्ते च पादपाः।
श्मशाने च निराहाराः प्रतिनर्दन्ति देहिनः ॥ ९९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
चिताके काले धुएँसे यहाँके सारे वृक्ष उसी रंगमें रंग गये हैं। श्मशानभूमिमें यहाँके निराहार प्राणी (प्रेत-पिशाच आदि) गरज रहे हैं॥९९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वे विकृतदेहाश्चाप्यस्मिन् देशे सुदारुणे।
युष्मान् प्रधर्षयिष्यन्ति विकृता मांसभोजिनः ॥ १०० ॥
मूलम्
सर्वे विकृतदेहाश्चाप्यस्मिन् देशे सुदारुणे।
युष्मान् प्रधर्षयिष्यन्ति विकृता मांसभोजिनः ॥ १०० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस भयंकर प्रदेशमें रहनेवाले सभी प्राणी विकराल शरीरके हैं। ये सबके सब मांस खानेवाले और विकृत अंगवाले हैं। वे तुमलोगोंको धर दबायेंगे॥१००॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्रूरश्चायं वनोद्देशो भयमद्य भविष्यति।
त्यज्यतां काष्ठभूतोऽयं मृष्यतां जाम्बुकं वचः ॥ १०१ ॥
मूलम्
क्रूरश्चायं वनोद्देशो भयमद्य भविष्यति।
त्यज्यतां काष्ठभूतोऽयं मृष्यतां जाम्बुकं वचः ॥ १०१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जंगलका यह भाग क्रूर प्राणियोंसे भरा हुआ है। अब तुम्हें यहाँ बहुत बड़े भयका सामना करना पड़ेगा। यह बालक तो अब काठके समान निष्प्राण हो गया है। इसे छोड़ो और सियारकी बातोंके लोभमें न पड़ो॥१०१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदि जम्बुकवाक्यानि निष्फलान्यनृतानि च।
श्रोष्यथ भ्रष्टविज्ञानास्ततः सर्वे विनङ्क्ष्यथ ॥ १०२ ॥
मूलम्
यदि जम्बुकवाक्यानि निष्फलान्यनृतानि च।
श्रोष्यथ भ्रष्टविज्ञानास्ततः सर्वे विनङ्क्ष्यथ ॥ १०२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यदि तुमलोग विवेकभ्रष्ट होकर सियारकी झूठी और निष्फल बातें सुनते रहोगे तो सबके सब नष्ट हो जाओगे॥१०२॥
मूलम् (वचनम्)
जम्बुक उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्थीयतां नेह भेतव्यं यावत् तपति भास्करः।
तावदस्मिन् सुते स्नेहादनिर्वेदेन वर्तत ॥ १०३ ॥
स्वैरं रुदन्तो विश्रब्धाश्चिरं स्नेहेन पश्यत।
(दारुणेऽस्मिन् वनोद्देशे भयं वो न भविष्यति।
अयं सौम्यो वनोद्देशः पितॄणां निधनाकरः॥)
स्थीयतां यावदादित्यः किं च क्रव्यादभाषितैः ॥ १०४ ॥
मूलम्
स्थीयतां नेह भेतव्यं यावत् तपति भास्करः।
तावदस्मिन् सुते स्नेहादनिर्वेदेन वर्तत ॥ १०३ ॥
स्वैरं रुदन्तो विश्रब्धाश्चिरं स्नेहेन पश्यत।
(दारुणेऽस्मिन् वनोद्देशे भयं वो न भविष्यति।
अयं सौम्यो वनोद्देशः पितॄणां निधनाकरः॥)
स्थीयतां यावदादित्यः किं च क्रव्यादभाषितैः ॥ १०४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सियार बोला— ठहरो, ठहरो। जबतक यहाँ सूर्यका प्रकाश है, तबतक तुम्हें बिल्कुल नहीं डरना चाहिये। उस समयतक इस बालकपर स्नेह करके इसके प्रति ममतापूर्ण बर्ताव करो। निर्भय होकर दीर्घकालतक इसे स्नेहदृष्टिसे देखो और जी भरकर रो लो। यद्यपि यह वन्यप्रदेश भयंकर है तो भी यहाँ तुम्हें कोई भय नहीं होगा; क्योंकि यह भू-भाग पितरोंका निवास-स्थान होनेके कारण श्मशान होता हुआ भी सौम्य है। जबतक सूर्य दिखायी देते हैं, तबतक यहीं ठहरो। इस मांसभक्षी गीधके कहनेसे क्या होगा?॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदि गृध्रस्य वाक्यानि तीव्राणि रभसानि च।
गृह्णीत मोहितात्मानः सुतो वो न भविष्यति ॥ १०५ ॥
मूलम्
यदि गृध्रस्य वाक्यानि तीव्राणि रभसानि च।
गृह्णीत मोहितात्मानः सुतो वो न भविष्यति ॥ १०५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यदि तुम मोहितचित्त होकर इस गीधकी घोर एवं घबराहटमें डालनेवाली बातोंमें आ जाओगे तो इस बालकसे हाथ धो बैठोगे॥१०५॥
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
गृध्रोऽस्तमित्याह गतो गतो नेति च जम्बुकः।
मृतस्य तं परिजनमूचतुस्तौ क्षुधान्वितौ ॥ १०६ ॥
मूलम्
गृध्रोऽस्तमित्याह गतो गतो नेति च जम्बुकः।
मृतस्य तं परिजनमूचतुस्तौ क्षुधान्वितौ ॥ १०६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजी कहते हैं— राजन्! वे गीध और गीदड़ दोनों ही भूखे थे और अपने उद्देश्यकी सिद्धिके लिये मृतकके बन्धु-बान्धवोंसे बातें करते थे। गीध कहता था कि सूर्य अस्त हो गये और सियार कहता था नहीं॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वकार्यबद्धकक्षौ तौ राजन् गृध्रोऽथ जम्बुकः।
क्षुत्पिपासापरिश्रान्तौ शास्त्रमालम्ब्य जल्पतः ॥ १०७ ॥
मूलम्
स्वकार्यबद्धकक्षौ तौ राजन् गृध्रोऽथ जम्बुकः।
क्षुत्पिपासापरिश्रान्तौ शास्त्रमालम्ब्य जल्पतः ॥ १०७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! गीध और गीदड़ अपना-अपना काम बनानेके लिये कमर कसे हुए थे। दोनोंको ही भूख और प्यास सता रही थी और दोनों ही शास्त्रका आधार लेकर बात करते थे॥१०७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तयोर्विज्ञानविदुषोर्द्वयोर्मृगपतत्रिणोः ।
वाक्यैरमृतकल्पैस्तैः प्रतिष्ठन्ति व्रजन्ति च ॥ १०८ ॥
मूलम्
तयोर्विज्ञानविदुषोर्द्वयोर्मृगपतत्रिणोः ।
वाक्यैरमृतकल्पैस्तैः प्रतिष्ठन्ति व्रजन्ति च ॥ १०८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनमेंसे एक पशु था और दूसरा पक्षी। दोनों ही ज्ञानकी बातें जानते थे। उन दोनोंके अमृतरूपी वचनोंसे प्रभावित हो वे मृतकके सम्बन्धी कभी ठहर जाते और कभी आगे बढ़ते थे॥१०८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शोकदैन्यसमाविष्टा रुदन्तस्तस्थिरे तदा ।
स्वकार्यकुशलाभ्यां ते सम्भ्राम्यन्ते ह नैपुणात् ॥ १०९ ॥
मूलम्
शोकदैन्यसमाविष्टा रुदन्तस्तस्थिरे तदा ।
स्वकार्यकुशलाभ्यां ते सम्भ्राम्यन्ते ह नैपुणात् ॥ १०९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शोक और दीनतासे आविष्ट होकर वे उस समय रोते हुए वहाँ खड़े ही रह गये। अपना-अपना कार्य सिद्ध करनेमें कुशल गीध और गीदड़ने चालाकीसे उन्हें चक्करमें डाल रक्खा था॥१०९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथा तयोर्विवदतोर्विज्ञानविदुषोर्द्वयोः ।
बान्धवानां स्थितानां चाप्युपातिष्ठत शङ्करः ॥ ११० ॥
देव्या प्रणोदितो देवः कारुण्यार्द्रीकृतेक्षणः।
ततस्तानाह मनुजान् वरदोऽस्मीति शङ्करः ॥ १११ ॥
मूलम्
तथा तयोर्विवदतोर्विज्ञानविदुषोर्द्वयोः ।
बान्धवानां स्थितानां चाप्युपातिष्ठत शङ्करः ॥ ११० ॥
देव्या प्रणोदितो देवः कारुण्यार्द्रीकृतेक्षणः।
ततस्तानाह मनुजान् वरदोऽस्मीति शङ्करः ॥ १११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ज्ञान-विज्ञानकी बातें जाननेवाले उन दोनों जन्तुओंमें इस प्रकार वाद-विवाद चल रहा था और मृतकके भाई-बन्धु वहीं खड़े थे। इतनेहीमें भगवती श्रीपार्वतीदेवीकी प्रेरणासे भगवान् शंकर उनके सामने प्रकट हो गये। उस समय उनके नेत्र करुणारससे आर्द्र हो रहे थे। वरदायक भगवान् शिवने उन मनुष्योंसे कहा—‘मैं तुम्हें वर दे रहा हूँ’॥११०-१११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ते प्रत्यूचुरिदं वाक्यं दुःखिताः प्रणताः स्थिताः।
एकपुत्रविहीनानां सर्वेषां जीवितार्थिनाम् ॥ ११२ ॥
पुत्रस्य नो जीवदानाज्जीवितं दातुमर्हसि।
मूलम्
ते प्रत्यूचुरिदं वाक्यं दुःखिताः प्रणताः स्थिताः।
एकपुत्रविहीनानां सर्वेषां जीवितार्थिनाम् ॥ ११२ ॥
पुत्रस्य नो जीवदानाज्जीवितं दातुमर्हसि।
अनुवाद (हिन्दी)
तब वे दुखी मनुष्य भगवान्को प्रणाम करके खड़े हो गये और इस प्रकार बोले—‘प्रभो! इस इकलौते पुत्रसे हीन होकर हम मृतकतुल्य हो रहे हैं। आप हमारे इस पुत्रको जीवित करके हम समस्त जीवनार्थियोंको जीवनदान देनेकी कृपा करें’॥११२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमुक्तः स भगवान् वारिपूर्णेन चक्षुषा ॥ ११३ ॥
जीवितं स्म कुमाराय प्रादाद् वर्षशतानि वै।
मूलम्
एवमुक्तः स भगवान् वारिपूर्णेन चक्षुषा ॥ ११३ ॥
जीवितं स्म कुमाराय प्रादाद् वर्षशतानि वै।
अनुवाद (हिन्दी)
उन्होंने जब नेत्रोंमें आँसू भरकर भगवान् शंकरसे इस प्रकार प्रार्थना की, तब उन्होंने उस बालकको जीवित कर दिया और उसे सौ वर्षोंकी आयु प्रदान की॥११३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथा गोमायुगृध्राभ्यां प्राददत् क्षुद्विनाशनम् ॥ ११४ ॥
वरं पिनाकी भगवान् सर्वभूतहिते रतः।
मूलम्
तथा गोमायुगृध्राभ्यां प्राददत् क्षुद्विनाशनम् ॥ ११४ ॥
वरं पिनाकी भगवान् सर्वभूतहिते रतः।
अनुवाद (हिन्दी)
इतना ही नहीं, सर्वभूतहितकारी पिनाकपाणि भगवान् शिवने गीध और गीदड़को भी उनकी भूख मिट जानेका वरदान दे दिया॥११४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः प्रणम्य ते देवं प्रायो हर्षसमन्विताः ॥ ११५ ॥
कृतकृत्याः सुखं हृष्टाः प्रातिष्ठन्त तदा विभो।
मूलम्
ततः प्रणम्य ते देवं प्रायो हर्षसमन्विताः ॥ ११५ ॥
कृतकृत्याः सुखं हृष्टाः प्रातिष्ठन्त तदा विभो।
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! तब वे सब लोग हर्षसे उल्लसित एवं कृतकार्य हो महादेवजीको प्रणाम करके सुख और प्रसन्नताके साथ वहाँसे चले गये॥११५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनिर्वेदेन दीर्घेण निश्चयेन ध्रुवेण च ॥ ११६ ॥
देवदेवप्रसादाच्च क्षिप्रं फलमवाप्यते ।
मूलम्
अनिर्वेदेन दीर्घेण निश्चयेन ध्रुवेण च ॥ ११६ ॥
देवदेवप्रसादाच्च क्षिप्रं फलमवाप्यते ।
अनुवाद (हिन्दी)
यदि मनुष्य उकताहटमें न पड़कर दृढ़ एवं प्रबल निश्चयके साथ प्रयत्न करता रहे तो देवाधिदेव भगवान् शिवके प्रसादसे शीघ्र ही मनोवांछित फल पा लेता है॥११६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पश्य दैवस्य संयोगं बान्धवानां च निश्चयम् ॥ ११७ ॥
कृपणानां तु रुदतां कृतमश्रुप्रमार्जनम्।
पश्य चाल्पेन कालेन निश्चयान्वेषणेन च ॥ ११८ ॥
मूलम्
पश्य दैवस्य संयोगं बान्धवानां च निश्चयम् ॥ ११७ ॥
कृपणानां तु रुदतां कृतमश्रुप्रमार्जनम्।
पश्य चाल्पेन कालेन निश्चयान्वेषणेन च ॥ ११८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
देखो, दैवका संयोग और उन बन्धु-बान्धवोंका दृढ़ निश्चय; जिससे दीनतापूर्वक रोते हुए उन मनुष्योंका आँसू थोड़े ही समयमें पोंछा गया। यह उनके निश्चयपूर्वक किये हुए अनुसंधान एवं प्रयत्नका फल है॥११७-११८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रसादं शङ्करात् प्राप्य दुःखिताः सुखमाप्नुवन्।
ते विस्मिताः प्रहृष्टाश्च पुत्रसंजीवनात् पुनः ॥ ११९ ॥
मूलम्
प्रसादं शङ्करात् प्राप्य दुःखिताः सुखमाप्नुवन्।
ते विस्मिताः प्रहृष्टाश्च पुत्रसंजीवनात् पुनः ॥ ११९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान् शंकरकी कृपासे उन दुखी मनुष्योंने सुख प्राप्त कर लिया। पुत्रके पूनर्जीवनसे वे आश्चर्यचकित एवं प्रसन्न हो उठे॥११९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बभूवुर्भरतश्रेष्ठ प्रसादाच्छङ्करस्य वै ।
ततस्ते त्वरिता राजंस्त्यक्त्वा शोकं शिशूद्भवम् ॥ १२० ॥
विविशुः पुत्रमादाय नगरं हृष्टमानसाः।
मूलम्
बभूवुर्भरतश्रेष्ठ प्रसादाच्छङ्करस्य वै ।
ततस्ते त्वरिता राजंस्त्यक्त्वा शोकं शिशूद्भवम् ॥ १२० ॥
विविशुः पुत्रमादाय नगरं हृष्टमानसाः।
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! भरतश्रेष्ठ! भगवान् शंकरकी कृपासे वे सब लोग तुरंत ही पुत्रशोक त्यागकर प्रसन्नचित्त हो पुत्रको साथ ले अपने नगरको चले गये॥१२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एषा बुद्धिः समस्तानां चातुर्वर्ण्ये निदर्शिता ॥ १२१ ॥
धर्मार्थमोक्षसंयुक्तमितिहासमिमं शुभम् ।
श्रुत्वा मनुष्यः सततमिहामुत्र च मोदते ॥ १२२ ॥
मूलम्
एषा बुद्धिः समस्तानां चातुर्वर्ण्ये निदर्शिता ॥ १२१ ॥
धर्मार्थमोक्षसंयुक्तमितिहासमिमं शुभम् ।
श्रुत्वा मनुष्यः सततमिहामुत्र च मोदते ॥ १२२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
चारों वर्णोंमें उत्पन्न हुए सभी लोगोंके लिये यह बुद्धि प्रदर्शित की गयी है। धर्म, अर्थ और मोक्षसे युक्त इस शुभ इतिहासको सदा सुननेसे मनुष्य इहलोक और परलोकमें आनन्दका अनुभव करता है॥१२१-१२२॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि आपद्धर्मपर्वणि गृध्रगोमायुसंवादे कुमारसंजीवने त्रिपञ्चाशदधिकशततमोऽध्यायः ॥ १५३ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत आपद्धर्मपर्वमें गीदड़-गोमायुका संवाद एवं मरे हुए बालकका पुनर्जीवनविषयक एक सौ तिरपनवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१५३॥
सूचना (हिन्दी)
(दाक्षिणात्य अधिक पाठका १ श्लोक मिलाकर कुल १२३ श्लोक हैं)