भागसूचना
द्विपञ्चाशदधिकशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
इन्द्रोतका जनमेजयको धर्मोपदेश करके उनसे अश्वमेधयज्ञका अनुष्ठान कराना तथा निष्पाप राजाका पुनः अपने राज्यमें प्रवेश
मूलम् (वचनम्)
शौनक उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मात् तेऽहं प्रवक्ष्यामि धर्ममावृतचेतसे।
श्रीमान् महाबलस्तुष्टः स्वयं धर्ममवेक्षसे ॥ १ ॥
मूलम्
तस्मात् तेऽहं प्रवक्ष्यामि धर्ममावृतचेतसे।
श्रीमान् महाबलस्तुष्टः स्वयं धर्ममवेक्षसे ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शौनकने कहा— राजन्! तुमने ऐसी प्रतिज्ञा की है, इससे जान पड़ता है कि तुम्हारा मन पापकी ओरसे निवृत्त हो गया है; इसलिये मैं तुम्हें धर्मका उपदेश करूँगा; क्योंकि तुम श्रीसम्पन्न, महाबलवान् और संतुष्टचित हो। साथ ही स्वयं धर्मपर दृष्टि रखते हो॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुरस्ताद् दारुणो भूत्वा सुचित्रतरमेव तत्।
अनुगृह्णाति भूतानि स्वेन वृत्तेन पार्थिवः ॥ २ ॥
मूलम्
पुरस्ताद् दारुणो भूत्वा सुचित्रतरमेव तत्।
अनुगृह्णाति भूतानि स्वेन वृत्तेन पार्थिवः ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजा पहले कठोर स्वभावका होकर पीछे कोमल भावका अवलम्बन करके जो अपने सद्व्यवहारसे समस्त प्राणियों पर अनुग्रह करता है, वह अत्यन्त आश्चर्यकी ही बात है॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृत्स्नं नूनं स दहति इति लोको व्यवस्यति।
यत्र त्वं तादृशो भूत्वा धर्ममेवानुपश्यसि ॥ ३ ॥
मूलम्
कृत्स्नं नूनं स दहति इति लोको व्यवस्यति।
यत्र त्वं तादृशो भूत्वा धर्ममेवानुपश्यसि ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
चिरकालतक तीक्ष्ण स्वभावका आश्रय लेनेवाला राजा निश्चय ही अपना सब कुछ जलाकर भस्म कर डालता है, ऐसी लोगोंकी धारणा है; परंतु तुम वैसे होकर भी जो धर्मपर ही दृष्टि रख रहे हो, यह कम आश्चर्यकी बात नहीं है॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हित्वा तु सुचिरं भक्ष्यं भोज्यांश्च तप आस्थितः।
इत्येतदभिभूतानामद्भुतं जनमेजय ॥ ४ ॥
मूलम्
हित्वा तु सुचिरं भक्ष्यं भोज्यांश्च तप आस्थितः।
इत्येतदभिभूतानामद्भुतं जनमेजय ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जनमेजय! तुम जो दीर्घकालसे भक्ष्य-भोज्य आदि पदार्थोंका परित्याग करके तपस्यामें लगे हुए हो, यह पापसे अभिभूत हुए मनुष्योंके लिये अद्भुत बात है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
योऽदुर्लभो भवेद् दाता कृपणो वा तपोधनः।
अनाश्चर्यं तदित्याहुर्नातिदूरेण वर्तते ॥ ५ ॥
मूलम्
योऽदुर्लभो भवेद् दाता कृपणो वा तपोधनः।
अनाश्चर्यं तदित्याहुर्नातिदूरेण वर्तते ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यदि धन-सम्पन्न पुरुष दानी हो एवं कृपण या दरिद्र मनुष्य तपस्याका धनी हो जाय तो इसे आश्चर्यकी बात नहीं मानते हैं; क्योंकि ऐसे पुरुषोंका दान और तपसे सम्पन्न होना अधिक कठिन नहीं है॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतदेव हि कार्पण्यं समग्रमसमीक्षितम्।
यच्चेत् समीक्षयैव स्याद् भवेत् तस्मिंस्ततो गुणः ॥ ६ ॥
मूलम्
एतदेव हि कार्पण्यं समग्रमसमीक्षितम्।
यच्चेत् समीक्षयैव स्याद् भवेत् तस्मिंस्ततो गुणः ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यदि सारी बातोंपर पूर्वापर विचार न करके कोई कार्य आरम्भ किया जाय तो यही कायरतापूर्ण दोष है और यदि भलीभाँति आलोचना करके कोई कार्य हो तो यही उसमें गुण माना जाता है॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यज्ञो दानं दया वेदाः सत्यं च पृथिवीपते।
पञ्चैतानि पवित्राणि षष्ठं सुचरितं तपः ॥ ७ ॥
मूलम्
यज्ञो दानं दया वेदाः सत्यं च पृथिवीपते।
पञ्चैतानि पवित्राणि षष्ठं सुचरितं तपः ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पृथ्वीनाथ! यज्ञ, दान, दया, वेद, और सत्य—ये पाँचों पवित्र बताये गये हैं। इनके साथ अच्छी तरह आचरणमें लाया हुआ तप भी छठा पवित्र कर्म माना गया है॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तदेव राज्ञां परमं पवित्रं जनमेजय।
तेन सम्यग्गृहीतेन श्रेयांसं धर्ममाप्स्यसि ॥ ८ ॥
मूलम्
तदेव राज्ञां परमं पवित्रं जनमेजय।
तेन सम्यग्गृहीतेन श्रेयांसं धर्ममाप्स्यसि ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जनमेजय! राजाओंके लिये ये छहों वस्तुएँ परम पवित्र हैं। इन्हें भलीभाँति आचरणमें लानेपर तुम श्रेष्ठतम धर्मको प्राप्त कर लोगे॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुण्यदेशाभिगमनं पवित्रं परमं स्मृतम्।
अत्राप्युदाहरन्तीमां गाथां गीतां ययातिना ॥ ९ ॥
मूलम्
पुण्यदेशाभिगमनं पवित्रं परमं स्मृतम्।
अत्राप्युदाहरन्तीमां गाथां गीतां ययातिना ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पुण्य तीर्थोंकी यात्रा करना भी परम पवित्र माना गया है। इस विषयमें विज्ञ पुरुष राजा ययातिकी गायी हुई इस गाथाका उदाहरण दिया करते हैं॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यो मर्त्यः प्रतिपद्येत आयुर्जीवितमात्मनः।
यज्ञमेकान्ततः कृत्वा तत् संन्यस्य तपश्चरेत् ॥ १० ॥
मूलम्
यो मर्त्यः प्रतिपद्येत आयुर्जीवितमात्मनः।
यज्ञमेकान्ततः कृत्वा तत् संन्यस्य तपश्चरेत् ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो मनुष्य अपने लिये दीर्घ जीवनकी इच्छा रखता है, वह यत्नपूर्वक यज्ञका अनुष्ठान करके फिर उसे त्यागकर तपस्यामें लग जाय॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुण्यमाहुः कुरुक्षेत्रं कुरुक्षेत्रात् सरस्वतीम्।
सरस्वत्याश्च तीर्थानि तीर्थेभ्यश्च पृथूदकम् ॥ ११ ॥
मूलम्
पुण्यमाहुः कुरुक्षेत्रं कुरुक्षेत्रात् सरस्वतीम्।
सरस्वत्याश्च तीर्थानि तीर्थेभ्यश्च पृथूदकम् ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुरुक्षेत्रको पवित्र तीर्थ बताया गया। कुरुक्षेत्रसे अधिक पवित्र सरस्वती नदी है, उससे भी अधिक पवित्र उसके भिन्न-भिन्न तीर्थ हैं। उन तीर्थोंमें भी दूसरोंकी अपेक्षा पृथूदक तीर्थको श्रेष्ठ कहा गया है॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यत्रावगाह्य पीत्वा च नैनं श्वोमरणं तपेत्।
महासरः पुष्कराणि प्रभासोत्तरमानसे ॥ १२ ॥
कालोदकं च गन्तासि लब्धायुर्जीविते पुनः।
सरस्वतीदृषद्वत्योः संगमो मानसः सरः ॥ १३ ॥
मूलम्
यत्रावगाह्य पीत्वा च नैनं श्वोमरणं तपेत्।
महासरः पुष्कराणि प्रभासोत्तरमानसे ॥ १२ ॥
कालोदकं च गन्तासि लब्धायुर्जीविते पुनः।
सरस्वतीदृषद्वत्योः संगमो मानसः सरः ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसमें स्नान करने और उसका जल पीनेसे मनुष्यको कल ही होनेवाली मृत्युका भय नहीं सताता अर्थात् वह कृतकृत्य हो जाता है। इस कारण मरनेसे नहीं डरता। यदि तुम महासरोवर पुष्कर, प्रभास, उत्तर मानस, कालोदक, दृषद्वती और सरस्वतीके संगम तथा मानसरोवर आदि तीर्थोंमें जाकर स्नान करोगे तो तुम्हें पुनः अपने जीवनके लिये दीर्घायु प्राप्त होगी॥१२-१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वाध्यायशीलः स्थानेषु सर्वेषु समुपस्पृशेत्।
त्यागधर्मः पवित्राणां संन्यासं मनुरब्रवीत् ॥ १४ ॥
मूलम्
स्वाध्यायशीलः स्थानेषु सर्वेषु समुपस्पृशेत्।
त्यागधर्मः पवित्राणां संन्यासं मनुरब्रवीत् ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सभी तीर्थस्थानोंमें स्वाध्यायशील होकर स्नान करे। मनुने कहा है कि सर्वत्यागरूप संन्यास सम्पूर्ण पवित्र धर्मोंमें श्रेष्ठ है॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अत्राप्युदाहरन्तीमा गाथाः सत्यवता कृताः।
यथा कुमारः सत्यो वै नैव पुण्यो न पापकृत्॥१५॥
मूलम्
अत्राप्युदाहरन्तीमा गाथाः सत्यवता कृताः।
यथा कुमारः सत्यो वै नैव पुण्यो न पापकृत्॥१५॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस विषयमें भी सत्यवान् द्वारा निर्मित हुई इन गाथाओंका उदाहरण दिया जाता है। जैसे बालक रण-द्वेषसे शून्य होनेके कारण सदा सत्यपरायण ही रहता है। न तो वह पुण्य करता है और न पाप ही। इसी प्रकार प्रत्येक श्रेष्ठ पुरुषको भी होना चाहिये॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न ह्यस्ति सर्वभूतेषु दुःखमस्मिन् कुतः सुखम्।
एवं प्रकृतिभूतानां सर्वसंसर्गयायिनाम् ॥ १६ ॥
त्यजतां जीवितं श्रेयो निवृत्ते पुण्यपापके।
मूलम्
न ह्यस्ति सर्वभूतेषु दुःखमस्मिन् कुतः सुखम्।
एवं प्रकृतिभूतानां सर्वसंसर्गयायिनाम् ॥ १६ ॥
त्यजतां जीवितं श्रेयो निवृत्ते पुण्यपापके।
अनुवाद (हिन्दी)
इस संसारके सम्पूर्ण प्राणियोंमें जब दुःख ही नहीं है, तब सुख कहाँसे हो सकता है? यह सुख और दुःख दोनों ही प्रकृतिस्थ प्राणियोंके धर्म हैं, जो कि सब प्रकारके संसर्गदोषको स्वीकार करके उनके अनुसार चलते हैं। जिन्होंने ममता और अहंकार आदिके साथ सब कुछ त्याग दिया है, जिनके पुण्य और पाप सभी निवृत्त हो चुके हैं, ऐसे पुरुषोंका जीवन ही कल्याणमय है॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यत्त्वेव राज्ञो ज्यायिष्ठं कार्याणां तद् ब्रवीमि ते ॥ १७ ॥
बलेन संविभागैश्च जय स्वर्गं जनेश्वर।
यस्यैव बलमोजश्च स धर्मस्य प्रभुर्नरः ॥ १८ ॥
मूलम्
यत्त्वेव राज्ञो ज्यायिष्ठं कार्याणां तद् ब्रवीमि ते ॥ १७ ॥
बलेन संविभागैश्च जय स्वर्गं जनेश्वर।
यस्यैव बलमोजश्च स धर्मस्य प्रभुर्नरः ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अब मैं राजाके कार्योंमें जो सबसे श्रेष्ठ है, उसका वर्णन करता हूँ। जनेश्वर! तुम धैर्ययुक्त बल और दानके द्वारा स्वर्गलोकपर विजय प्राप्त करो। जिसके पास बल और ओज है, वही मनुष्य धर्माचरणमें समर्थ होता है॥१७-१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्राह्मणानां सुखार्थं हि त्वं पाहि वसुधां नृप।
यथैवैतान् पुराऽऽक्षैप्सीस्तथैवैतान् प्रसादय ॥ १९ ॥
मूलम्
ब्राह्मणानां सुखार्थं हि त्वं पाहि वसुधां नृप।
यथैवैतान् पुराऽऽक्षैप्सीस्तथैवैतान् प्रसादय ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नरेश्वर! तुम ब्राह्मणोंको सुख पहुँचानेके लिये ही सारी पृथ्वीका पालन करो। जैसे पहले इन ब्राह्मणोंपर आक्षेप किया था, वैसे इन सबको अपने सद्बर्तावसे प्रसन्न करो॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अपि धिक्क्रियमाणोऽपि त्यज्यमानोऽप्यनेकधा ।
आत्मनो दर्शनाद् विप्रान्न हन्तास्मीति मार्गय।
घटमानः स्वकार्येषु कुरु निःश्रेयसं परम् ॥ २० ॥
मूलम्
अपि धिक्क्रियमाणोऽपि त्यज्यमानोऽप्यनेकधा ।
आत्मनो दर्शनाद् विप्रान्न हन्तास्मीति मार्गय।
घटमानः स्वकार्येषु कुरु निःश्रेयसं परम् ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे बार-बार तुम्हें धिक्कारें और फटकारकर दूर हटा दें तो भी उनमें आत्मदृष्टि रखकर तुम यही निश्चय करो कि अब मैं ब्राह्मणोंको नहीं मारूँगा। अपने कर्तव्यपालनके लिये पूरी चेष्टा करते हुए परम कल्याणका साधन करो॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हिमाग्निघोरसदृशो राजा भवति कश्चन।
मूलम्
हिमाग्निघोरसदृशो राजा भवति कश्चन।
Misc Detail
लांगलाशनिकल्पो वा भवेदन्यः परंतप ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
परंतप! कोई राजा बर्फके समान शीतल होता है, कोई अग्निके समान ताप देनेवाला होता है, कोई यमराजके समान भयानक जान पड़ता है, कोई घास-फूसका मूलोच्छेद करनेवाले हलके समान दुष्टोंका समूल उन्मूलन करनेवाला होता है तथा कोई पापा-चारियोंपर अकस्मात् वज्रके समान टूट पड़ता है॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न विशेषेण गन्तव्यमविच्छिन्नेन वा पुनः।
न जातु नाहमस्मीति सुप्रसक्तमसाधुषु ॥ २२ ॥
मूलम्
न विशेषेण गन्तव्यमविच्छिन्नेन वा पुनः।
न जातु नाहमस्मीति सुप्रसक्तमसाधुषु ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कभी मेरा अभाव नहीं हो जाय, ऐसा समझकर राजाको चाहिये कि दुष्ट पुरुषोंका संग कभी न करे। न तो उनके किसी विशेष गुणपर आकृष्ट हो, न उनके साथ अविच्छिन्न सम्बन्ध स्थापित करे और न उनमें अत्यन्त आसक्त ही हो॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विकर्मणा तप्यमानः पापाद् विपरिमुच्यते।
नैतत् कार्यं पुनरिति द्वितीयात् परिमुच्यते ॥ २३ ॥
मूलम्
विकर्मणा तप्यमानः पापाद् विपरिमुच्यते।
नैतत् कार्यं पुनरिति द्वितीयात् परिमुच्यते ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यदि कोई शास्त्रविरुद्ध कर्म बन जाय तो उसके लिये पश्चात्ताप करनेवाला पुरुष पापसे मुक्ता हो जाता है। यदि दूसरी बार पाप बन जाय तो ‘अब फिर ऐसा काम नहीं करूँगा’ ऐसी प्रतिज्ञा करनेसे वह पापमुक्त हो सकता है॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
करिष्ये धर्ममेवेति तृतीयात् परिमुच्यते।
शुचिस्तीर्थान्यनुचरन् बहुत्वात्परिमुच्यते ॥ २४ ॥
मूलम्
करिष्ये धर्ममेवेति तृतीयात् परिमुच्यते।
शुचिस्तीर्थान्यनुचरन् बहुत्वात्परिमुच्यते ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘आजसे केवल धर्मका ही आचरण करूँगा’ ऐसा नियम लेनेसे वह तीसरी बारके पापसे छुटकारा पा जाता है और पवित्र तीर्थोंमें विचरण करनेवाला पुरुष अनेक बारके किये हुए बहुसंख्यक पापोंसे मुक्त हो जाता है॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कल्याणमनुकर्तव्यं पुरुषेण बुभूषता ।
ये सुगन्धीनि सेवन्ते तथागन्धा भवन्ति ते ॥ २५ ॥
ये दुर्गन्धीनि सेवते तथागन्धा भवन्ति ते।
तपश्चर्यापरः सद्यः पापाद् विपरिमुच्यते ॥ २६ ॥
मूलम्
कल्याणमनुकर्तव्यं पुरुषेण बुभूषता ।
ये सुगन्धीनि सेवन्ते तथागन्धा भवन्ति ते ॥ २५ ॥
ये दुर्गन्धीनि सेवते तथागन्धा भवन्ति ते।
तपश्चर्यापरः सद्यः पापाद् विपरिमुच्यते ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सुखकी अभिलाषा रखनेवाले पुरुषको कल्याणकारी कर्मोंका अनुष्ठान करना चाहिये। जो सुगन्धित पदार्थोंका सेवन करते हैं, उनके शरीरसे सुगन्ध निकलती है और जो सदा दुर्गन्धका सेवन करते हैं, वे अपने शरीरसे दुर्गन्ध ही फैलाते हैं। जो मनुष्य तपस्यामें तत्पर होता है, वह तत्काल सारे पापोंसे मुक्ता हो जाता है॥२५-२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
संवत्सरमुपास्याग्निमभिशस्तः प्रमुच्यते ।
त्रीणि वर्षाण्युपास्याग्निं भ्रूणहा विप्रमुच्यते ॥ २७ ॥
मूलम्
संवत्सरमुपास्याग्निमभिशस्तः प्रमुच्यते ।
त्रीणि वर्षाण्युपास्याग्निं भ्रूणहा विप्रमुच्यते ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
लगातार एक वर्षतक अग्निहोत्र करनेसे कलंकित पुरुष अपने ऊपर लगे हुए कलंकसे छूट जाता है। तीन वर्षोंतक अग्निकी उपासना करनेसे भ्रूणहत्यारा भी पापमुक्त हो जाता है॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
महासरः पुष्कराणि प्रभासोत्तरमानसे ।
अभ्येत्य योजनशतं भ्रूणहा विप्रमुच्यते ॥ २८ ॥
मूलम्
महासरः पुष्कराणि प्रभासोत्तरमानसे ।
अभ्येत्य योजनशतं भ्रूणहा विप्रमुच्यते ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महासरोवर पुष्कर, प्रभास तीर्थ तथा उत्तर मानसरोवर आदि तीर्थोंमें सौ योजनतककी पैदल यात्रा करनेसे भी भ्रूणहत्याके पापसे छुटकारा मिल जाता है॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यावतः प्राणिनो हन्यात् तज्जातीयांस्तु तावतः।
प्रमीयमानानुन्मोच्य प्राणिहा विप्रमुच्यते ॥ २९ ॥
मूलम्
यावतः प्राणिनो हन्यात् तज्जातीयांस्तु तावतः।
प्रमीयमानानुन्मोच्य प्राणिहा विप्रमुच्यते ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्राणियोंकी हत्या करनेवाला मनुष्य जितने प्राणियोंका वध करता है, उसी जातिके उतने ही प्राणियोंको मृत्युसे छुटकारा दिला दे अर्थात् उनको मरनेके संकटसे छुड़ा दे तो वह उनकी हत्याके पापसे मुक्त हो जाता है॥२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अपि चाप्सु निमज्जेत जपेस्त्रिरघमर्षणम्।
यथाश्वमेधावभृथस्तथा तन्मनुरब्रवीत् ॥ ३० ॥
मूलम्
अपि चाप्सु निमज्जेत जपेस्त्रिरघमर्षणम्।
यथाश्वमेधावभृथस्तथा तन्मनुरब्रवीत् ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यदि मनुष्य तीन बार अघमर्षणका जप करते हुए जलमें गोता लगावे तो उसे अश्वमेधयज्ञमें अवभृथस्नान करनेका फल मिलता है, ऐसा मनुजीने कहा है॥३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत् क्षिप्रं नुदते पापं सत्कारं लभते तथा।
अपि चैनं प्रसीदन्ति भूतानि जडमूकवत् ॥ ३१ ॥
मूलम्
तत् क्षिप्रं नुदते पापं सत्कारं लभते तथा।
अपि चैनं प्रसीदन्ति भूतानि जडमूकवत् ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह अघमर्षण मन्त्रका जप करनेवाला मनुष्य शीघ्र ही अपने सारे पापोंको दूर कर देता है और उसे सर्वत्र सम्मान प्राप्त होता है। सब प्राणी जड एवं मूकके समान उसपर प्रसन्न हो जाते हैं॥३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बृहस्पतिं देवगुरुं सुरासुराः
सर्वे समेत्याभ्यनुयुज्य राजन् ।
धर्म्यं फलं वेत्थ फलं महर्षे
तथैव तस्मिन्नरके पारलोक्ये ॥ ३२ ॥
उभे तु यस्य सदृशे भवेतां
किंस्वित् तयोस्तत्र जयोऽथ न स्यात्।
आचक्ष्व नः पुण्यफलं महर्षे
कथं पापं नुदते धर्मशीलः ॥ ३३ ॥
मूलम्
बृहस्पतिं देवगुरुं सुरासुराः
सर्वे समेत्याभ्यनुयुज्य राजन् ।
धर्म्यं फलं वेत्थ फलं महर्षे
तथैव तस्मिन्नरके पारलोक्ये ॥ ३२ ॥
उभे तु यस्य सदृशे भवेतां
किंस्वित् तयोस्तत्र जयोऽथ न स्यात्।
आचक्ष्व नः पुण्यफलं महर्षे
कथं पापं नुदते धर्मशीलः ॥ ३३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! एक समय सब देवताओं और असुरोंने बड़े आदरके साथ देवगुरु बृहस्पतिके निकट जाकर पूछा—‘महर्षे! आप धर्मका फल जानते हैं। इसी प्रकार परलोकमें जो पापोंके फलस्वरूप नरकका कष्ट भोगना पड़ता है, वह भी आपसे अज्ञात नहीं है, परंतु जिस योगीके लिये सुख और दुःख दोनों समान हैं, वह उन दोनोंके कारणरूप पुण्य और पापको जीत लेता है या नहीं। महर्षे! आप हमारे समक्ष पुण्यके फलका वर्णन करें और यह भी बतावें कि धर्मात्मा पुरुष अपने पापोंका नाश कैसे करता है?’॥३२-३३॥
मूलम् (वचनम्)
बृहस्पतिरुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृत्वा पापं पूर्वमबुद्धिपूर्वं
पुण्यानि चेत्कुरुते बुद्धिपूर्वम् ।
स तत् पापं नुदते कर्मशीलो
वासो यथा मलिनं क्षारयुक्तम् ॥ ३४ ॥
मूलम्
कृत्वा पापं पूर्वमबुद्धिपूर्वं
पुण्यानि चेत्कुरुते बुद्धिपूर्वम् ।
स तत् पापं नुदते कर्मशीलो
वासो यथा मलिनं क्षारयुक्तम् ॥ ३४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
बृहस्पतिजीने कहा— यदि मुनष्य पहले बिना जाने पाप करके फिर जान-बूझकर पुण्यकर्मोंका अनुष्ठान करता है तो वह सत्कर्मपरायण पुरुष अपने पापको उसी प्रकार दूर कर देता है, जैसे क्षार (सोडा, साबुन आदि) लगानेसे कपड़े का मैल छूट जाता है॥३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पापं कृत्वाभिमन्येत नाहमस्मीति पूरुषः।
तच्चिकीर्षति कल्याणं श्रद्दधानोऽनसूयकः ॥ ३५ ॥
मूलम्
पापं कृत्वाभिमन्येत नाहमस्मीति पूरुषः।
तच्चिकीर्षति कल्याणं श्रद्दधानोऽनसूयकः ॥ ३५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मनुष्यको चाहिये कि वह पाप करके अहंकार न प्रकट करे—हेकड़ी न दिखावे, अपितु श्रद्धापूर्वक दोषदृष्टिका परित्याग करके कल्याणमय धर्मके अनुष्ठानकी इच्छा करे॥३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
छिद्राणि विवृतान्येव साधूनां चावृणोति यः।
यः पापं पुरुषः कृत्वा कल्याणमभिपद्यते ॥ ३६ ॥
मूलम्
छिद्राणि विवृतान्येव साधूनां चावृणोति यः।
यः पापं पुरुषः कृत्वा कल्याणमभिपद्यते ॥ ३६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो मनुष्य श्रेष्ठ पुरुषोंके खुले हुए छिद्रोंको ढकता है अर्थात् उनके प्रकट हुए दोषोंको भी छिपानेकी चेष्टा करता है तथा जो पाप करके उससे विरत हो कल्याणमय कर्ममें लग जाता है, वे दोनों ही पापरहित हो जाते हैं॥३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथाऽऽदित्यः प्रातरुद्यंस्तमः सर्वं व्यपोहति।
कल्याणमाचरन्नेवं सर्वपापं व्यपोहति ॥ ३७ ॥
मूलम्
यथाऽऽदित्यः प्रातरुद्यंस्तमः सर्वं व्यपोहति।
कल्याणमाचरन्नेवं सर्वपापं व्यपोहति ॥ ३७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे सूर्य प्रातःकाल उदित होकर सारे अन्धकारको नष्ट कर देता है उसी प्रकार शुभकर्मका आचरण करनेवाला पुरुष अपने सभी पापोंका अन्त कर देता है॥३७॥
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमुक्त्वा तु राजानमिन्द्रोतो जनमेजयम्।
याजयामास विधिवत् वाजिमेधेन शौनकः ॥ ३८ ॥
मूलम्
एवमुक्त्वा तु राजानमिन्द्रोतो जनमेजयम्।
याजयामास विधिवत् वाजिमेधेन शौनकः ॥ ३८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजी कहते हैं— राजन्! ऐसा कहकर शौनक इन्द्रोतने राजा जनमेजयसे विधिपूर्वक अश्वमेधयज्ञका अनुष्ठान कराया॥३८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः स राजा व्यपनीतकल्मषः
श्रेयोवृतः प्रज्वलिताग्निरूपवान् ।
विवेश राज्यं स्वममित्रकर्षणो
यथा दिवं पूर्णवपुर्निशाकरः ॥ ३९ ॥
मूलम्
ततः स राजा व्यपनीतकल्मषः
श्रेयोवृतः प्रज्वलिताग्निरूपवान् ।
विवेश राज्यं स्वममित्रकर्षणो
यथा दिवं पूर्णवपुर्निशाकरः ॥ ३९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इससे राजा जनमेजयका सारा पाप नष्ट हो गया और वे प्रज्वलित अग्निके समान देदीप्यमान होने लगे। उन्हें सब प्रकारके श्रेय प्राप्त हो गये। जैसे पूर्ण चन्द्रमा आकाशमण्डलमें प्रवेश करता है, उसी प्रकार शत्रुसूदन जनमेजयने पुनः अपने राज्यमें प्रवेश किया॥३९॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि आपद्धर्मपर्वणि इन्द्रोतपारिक्षितीये द्विपञ्चाशदधिकशततमोऽध्यायः ॥ १५२ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत आपद्धर्मपर्वमें इन्द्रोत और पारिक्षितका संवादविषयक एक सौ बावनवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१५२॥