१५१ इन्द्रोतपारिक्षितीये

भागसूचना

एकपञ्चाशदधिकशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

ब्रह्महत्याके अपराधी जनमेजयका इन्द्रोत मुनिकी शरणमें जाना और इन्द्रोत मुनिका उससे ब्राह्मणद्रोह न करनेकी प्रतिज्ञा कराकर उसे शरण देना

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमुक्तः प्रत्युवाच तं मुनिं जनमेजयः।
गर्ह्यं भवान् गर्हयते निन्द्यं निन्दति मां पुनः ॥ १ ॥
धिक्कार्यं मां धिक्कुरुते तस्मात् त्वाहं प्रसादये।

मूलम्

एवमुक्तः प्रत्युवाच तं मुनिं जनमेजयः।
गर्ह्यं भवान् गर्हयते निन्द्यं निन्दति मां पुनः ॥ १ ॥
धिक्कार्यं मां धिक्कुरुते तस्मात् त्वाहं प्रसादये।

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजी कहते हैं— राजन्! मुनिवर इन्दोतके ऐसा कहनेपर जनमेजयने उन्हें इस प्रकार उत्तर दिया—‘मुने! मैं घृणा और तिरस्कारके योग्य हूँ; इसीलिये आप मेरा तिरस्कार करते हैं। मैं निन्दाका पात्र हूँ; इसीलिये बार-बार मेरी निन्दा करते हैं। मैं धिक्कारने और दुतकारनेके ही योग्य हूँ; इसीलिये आपकी ओरसे मुझे धिक्कार मिल रहा है और इसीलिये मैं आपको प्रसन्न करना चाहता हूँ॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वं हीदं दुष्कृतं मे ज्वलाम्यग्नाविवाहितः ॥ २ ॥
स्वकर्माण्यभिसंधाय नाभिनन्दति मे मनः।

मूलम्

सर्वं हीदं दुष्कृतं मे ज्वलाम्यग्नाविवाहितः ॥ २ ॥
स्वकर्माण्यभिसंधाय नाभिनन्दति मे मनः।

अनुवाद (हिन्दी)

‘यह सारा पाप मुझमें मौजूद है; अतः मैं चिन्तासे उसी प्रकार जल रहा हूँ, मानो किसीने मुझे आगके भीतर रख दिया हो। अपने कुकर्मोंको याद करके मेरा मन स्वतः प्रसन्न नहीं हो रहा है॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्राप्य घोरं भयं नूनं मया वैवस्वतादपि ॥ ३ ॥
तत्तु शल्यमनिर्हृत्य कथं शक्ष्यामि जीवितुम्।
सर्वं मन्युं विनीय त्वमभि मां वद शौनक ॥ ४ ॥

मूलम्

प्राप्य घोरं भयं नूनं मया वैवस्वतादपि ॥ ३ ॥
तत्तु शल्यमनिर्हृत्य कथं शक्ष्यामि जीवितुम्।
सर्वं मन्युं विनीय त्वमभि मां वद शौनक ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘निश्चय ही मुझे यमराजसे भी घोर भय प्राप्त होनेवाला है, यह बात मेरे हृदयमें काँटेकी भाँति चुभ रही है। अपने हृदयसे इसको निकाले बिना मैं कैसे जीवित रह सकूँगा? अतः शौनकजी! आप समस्त क्रोधका त्याग करके मुझे उद्धारका कोई उपाय बताइये॥३-४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

महानासं ब्राह्मणानां भूयो वक्ष्यामि साम्प्रतम्।
अस्तु शेषं कुलस्यास्य मा पराभूदिदं कुलम् ॥ ५ ॥

मूलम्

महानासं ब्राह्मणानां भूयो वक्ष्यामि साम्प्रतम्।
अस्तु शेषं कुलस्यास्य मा पराभूदिदं कुलम् ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मैं ब्राह्मणोंका महान् भक्त रहा हूँ; इसीलिये इस समय पुनः आपसे निवेदन करता हूँ कि मेरे इस कुलका कुछ भाग अवश्य शेष रहना चाहिये। समूचे कुलका पराभव या विनाश नहीं होना चाहिये॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न हि नो ब्रह्मशप्तानां शेषं भवितुमर्हति।
स्तुतीरलभमानानां संविदं वेदनिश्चितान् ॥ ६ ॥
निर्विद्यमानः सुभृशं भूयो वक्ष्यामि शाश्वतम्।
भूयश्चैवाभिरक्षन्तु निर्धनान् निर्जना इव ॥ ७ ॥

मूलम्

न हि नो ब्रह्मशप्तानां शेषं भवितुमर्हति।
स्तुतीरलभमानानां संविदं वेदनिश्चितान् ॥ ६ ॥
निर्विद्यमानः सुभृशं भूयो वक्ष्यामि शाश्वतम्।
भूयश्चैवाभिरक्षन्तु निर्धनान् निर्जना इव ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘ब्राह्मणोंके शाप दे देनेपर हमारे कुलका कुछ भी शेष नहीं रह जायगा। हम अपने पापके कारण न तो समाजमें प्रशंसा पा रहे हैं न सजातीय बन्धुओंके साथ एकमत ही हो रहे हैं; अतः अत्यन्त खेद और विरक्तिको प्राप्त होकर हम पुनः वेदोंका निश्चयात्मक ज्ञान रखनेवाले आप-जैसे ब्राह्मणोंसे सदा यही कहेंगे कि जैसे निर्जन स्थानमें रहनेवाले योगीजन पापी पुरुषोंकी रक्षा करते हैं, उसी प्रकार आपलतो अपनी दयासे ही हम-जैसे दुखी मनुष्योंकी रक्षा करें॥६-७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न ह्ययज्ञा अमुं लोकं प्राप्नुवन्ति कथञ्चन।
आपातान् प्रतितिष्ठन्ति पुलिन्दशबरा इव ॥ ८ ॥

मूलम्

न ह्ययज्ञा अमुं लोकं प्राप्नुवन्ति कथञ्चन।
आपातान् प्रतितिष्ठन्ति पुलिन्दशबरा इव ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जो क्षत्रिय अपने पापके कारण यज्ञके अधिकारसे वंचित हो जाते हैं, वे पुलिन्दों और शबरोंके समान नरकोंमें ही पड़े रहते हैं। किसी प्रकार परलोकमें उत्तम गतिको नहीं पाते॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अविज्ञायैव मे प्रज्ञां बालस्येव स पण्डितः।
ब्रह्मन् पितेव पुत्रस्य प्रीतिमान् भव शौनक ॥ ९ ॥

मूलम्

अविज्ञायैव मे प्रज्ञां बालस्येव स पण्डितः।
ब्रह्मन् पितेव पुत्रस्य प्रीतिमान् भव शौनक ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘ब्रह्मन्! शौनक! आप विद्वान् हैं और मैं मूर्ख। आप मेरी बालबुद्धिपर ध्यान न देकर जैसे पिता पुत्रपर स्वभावतः संतुष्ट होता है, उसी प्रकार मुझपर भी प्रसन्न होइये’॥९॥

मूलम् (वचनम्)

शौनक उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

किमाश्चर्यं यदप्राज्ञो बहु कुर्यादसाम्प्रतम्।
इति वै पण्डितो भूत्वा भूतानां नानुकुप्यते ॥ १० ॥

मूलम्

किमाश्चर्यं यदप्राज्ञो बहु कुर्यादसाम्प्रतम्।
इति वै पण्डितो भूत्वा भूतानां नानुकुप्यते ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शौनकने कहा— यदि अज्ञानी मनुष्य अयुक्त कार्य भी कर बैठे तो इसमें कौन-सी आश्चर्यकी बात है; अतः इस रहस्यको जाननेवाले बुद्धिमान् पुरुषको चाहिये कि वह प्राणियोंपर क्रोध न करे॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रज्ञाप्रासादमारुह्य अशोच्य शोचते जनात्।
जगतीस्थानिवाद्रिस्थः प्रज्ञया प्रतिपत्स्यति ॥ ११ ॥

मूलम्

प्रज्ञाप्रासादमारुह्य अशोच्य शोचते जनात्।
जगतीस्थानिवाद्रिस्थः प्रज्ञया प्रतिपत्स्यति ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो विशुद्ध बुद्धिकी अट्टालिकापर चढ़कर स्वयं शोकसे रहित हो दूसरे दुखी मनुष्योंके लिये शोक करता है, वह अपने ज्ञानबलसे सब कुछ उसी प्रकार जान लेता है, जैसे पर्वतकी चोटीपर खड़ा हुआ मनुष्य उस पर्वतके आस-पासकी भूमिपर रहनेवाले सब लोगोंको देखता रहता है॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न चोपलभ्यते तेन न चाश्चर्याणि कुर्वते।
निर्विण्णात्मा परोक्षो वा धिक्‌कृतः पूर्वसाधुषु ॥ १२ ॥

मूलम्

न चोपलभ्यते तेन न चाश्चर्याणि कुर्वते।
निर्विण्णात्मा परोक्षो वा धिक्‌कृतः पूर्वसाधुषु ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो प्राचीन श्रेष्ठ पुरुषोंसे विरक्त हो उनके दृष्टिपथसे दूर रहता है तथा उनके द्वारा धिक्कारको प्राप्त होता रहता है, उसे ज्ञानकी उपलब्धि नहीं होती है और ऐसे पुरुष के लिये दूसरे लोग आश्चर्य भी नहीं करते हैं॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विदितं भवतो वीर्यं माहात्म्यं वेद आगमे।
कुरुष्वेह यथाशान्ति ब्रह्मा शरणमस्तु ते ॥ १३ ॥

मूलम्

विदितं भवतो वीर्यं माहात्म्यं वेद आगमे।
कुरुष्वेह यथाशान्ति ब्रह्मा शरणमस्तु ते ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तुम्हें ब्राह्मणोंकी शक्तिका ज्ञान है। वेदों और शास्त्रोंमें जो उनकी महिमा उपलब्ध होती है, उसका भी पता है; अतः तुम शान्तिपूर्वक ऐसा प्रयत्न करो, जिससे ब्राह्मणजाति तुम्हें शरण दे सके॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तद् वै पारत्रिकं तात ब्राह्मणानामकुप्यताम्।
अथवा तप्यसे पापे धर्ममेवानुपश्य वै ॥ १४ ॥

मूलम्

तद् वै पारत्रिकं तात ब्राह्मणानामकुप्यताम्।
अथवा तप्यसे पापे धर्ममेवानुपश्य वै ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तात! क्रोधरहित ब्राह्मणोंकी सेवाके लिये जो कुछ किया जाता है वह पारलौकिक लाभका ही हेतु होता है। अथवा यदि तुम्हें पापके लिये पश्चात्ताप होता है तो तुम निरन्तर धर्मपर ही दृष्टि रक्खो॥१४॥

मूलम् (वचनम्)

जनमेजय उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनुतप्ये च पापेन न च धर्मं विलोपये।
बुभूषुं भजमानं च प्रीतिमान् भव शौनक ॥ १५ ॥

मूलम्

अनुतप्ये च पापेन न च धर्मं विलोपये।
बुभूषुं भजमानं च प्रीतिमान् भव शौनक ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जनमेजयने कहा— शौनक! मुझे अपने पापके कारण बड़ा पश्चात्ताप होता है, अब मैं धर्मका कभी लोप नहीं करूँगा। मुझे कल्याण प्राप्त करनेकी इच्छा है; अतः आप मुझ भक्तपर प्रसन्न होइये॥१५॥

मूलम् (वचनम्)

शौनक उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

छित्त्वां दम्भं च मानं च प्रीतिमिच्छामि ते नृप।
सर्वभूतहितं तिष्ठ धर्मं चैव प्रतिस्मरन् ॥ १६ ॥

मूलम्

छित्त्वां दम्भं च मानं च प्रीतिमिच्छामि ते नृप।
सर्वभूतहितं तिष्ठ धर्मं चैव प्रतिस्मरन् ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शौनक बोले— नरेश्वर! मैं तुम्हें तुम्हारे दम्भ और अभिमानका नाश करके तुम्हारा प्रिय करना चाहता हूँ। तुम धर्मका निरन्तर स्मरण रखते हुए समस्त प्राणियोंके हितका साधन करो॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न भयान्न च कार्पण्यान्न लोभात् त्वामुपाह्वये।
तां मे दैवीं गिरं सत्यां शृणु त्वं ब्राह्मणैः सह॥१७॥

मूलम्

न भयान्न च कार्पण्यान्न लोभात् त्वामुपाह्वये।
तां मे दैवीं गिरं सत्यां शृणु त्वं ब्राह्मणैः सह॥१७॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! मैं भयसे, दीनतासे और लोभसे भी तुम्हें अपने पास नहीं बुलाता हूँ। तुम इन ब्राह्मणोंके सहित दैवीवाणीके समान मेरी यह सच्ची बात कान खोलकर सुन लो॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोऽहं न केनचिच्चार्थी त्वां च धर्मादुपाह्वये।
क्रोशतां सर्वभूतानां हाहा धिगिति जल्पताम् ॥ १८ ॥

मूलम्

सोऽहं न केनचिच्चार्थी त्वां च धर्मादुपाह्वये।
क्रोशतां सर्वभूतानां हाहा धिगिति जल्पताम् ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैं तुमसे कोई वस्तु लेनेकी इच्छा नहीं रखता। यदि समस्त प्राणी मुझे खोटी-खरी सुनाते रहें, हाय-हाय मचाते रहें और धिक्कार देते रहें तो भी उनकी अवहेलना करके मैं तुम्हें केवल धर्मके कारण निकट आनेके लिये आमन्त्रित करता हूँ॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वक्ष्यन्ति मामधर्मज्ञं त्यक्ष्यन्ति सुहृदो जनाः।
ता वाचः सुहृदः श्रुत्वा संज्वरिष्यन्ति मे भृशम् ॥ १९ ॥

मूलम्

वक्ष्यन्ति मामधर्मज्ञं त्यक्ष्यन्ति सुहृदो जनाः।
ता वाचः सुहृदः श्रुत्वा संज्वरिष्यन्ति मे भृशम् ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मुझे लोग अधर्मज्ञ कहेंगे। मेरे हितैषी सुहृद् मुझे त्याग देंगे तथा तुम्हें धर्मोपदेश देनेकी बात सुनकर मेरे सुहृद् मुझपर अत्यन्त रोषसे जल उठेंगे॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

केचिदेव महाप्राज्ञाः प्रतिज्ञास्यन्ति तत्त्वतः।
जानीहि मत्कृतं तात ब्राह्मणान् प्रति भारत ॥ २० ॥

मूलम्

केचिदेव महाप्राज्ञाः प्रतिज्ञास्यन्ति तत्त्वतः।
जानीहि मत्कृतं तात ब्राह्मणान् प्रति भारत ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तात! भारत! कोई-कोई महाज्ञानी पुरुष ही मेरे अभिप्रायको यथार्थरूपसे समझ सकेंगे। ब्राह्मणोंके प्रति भलाई करनेके लिये ही मेरी यह सारी चेष्टा है। यह तुम अच्छी तरह जान लो॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथा ते मत्कृते क्षेमं लभन्ते ते तथा कुरु।
प्रतिजानीहि चाद्रोहं ब्राह्मणानां नराधिप ॥ २१ ॥

मूलम्

यथा ते मत्कृते क्षेमं लभन्ते ते तथा कुरु।
प्रतिजानीहि चाद्रोहं ब्राह्मणानां नराधिप ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्राह्मणलोग मेरे कारण जैसे भी सकुशल रहें, वैसा ही प्रयत्न तुम करो। नरेश्वर! तुम मेरे सामने यह प्रतिज्ञा करो कि अब मैं ब्राह्मणोंसे कभी द्रोह नहीं करूँगा॥२१॥

मूलम् (वचनम्)

जनमेजय उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

नैव वाचा न मनसा पुनर्जातु न कर्मणा।
द्रोग्धास्मि ब्राह्मणान् विप्र चरणावपि ते स्पृशे ॥ २२ ॥

मूलम्

नैव वाचा न मनसा पुनर्जातु न कर्मणा।
द्रोग्धास्मि ब्राह्मणान् विप्र चरणावपि ते स्पृशे ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जनमेजयने कहा— विप्रवर! मैं आपके दोनों चरण छूकर शपथपूर्वक कहता हूँ कि मन, वाणी और क्रियाद्वारा कभी ब्राह्मणोंसे द्रोह नहीं करूँगा॥२२॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि आपद्धर्मपर्वणि इन्द्रोतपारिक्षितीये एकपञ्चाशदधिकशततमोऽध्यायः ॥ १५१ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत आपद्धर्मपर्वमें इन्द्रोत और पारिक्षितका संवाद विषयक एक सौ इक्यावनवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१५१॥