भागसूचना
पञ्चाशदधिकशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
इन्द्रोत मुनिका राजा जनमेजयको फटकारना
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अबुद्धिपूर्वं यत् पापं कुर्याद् भरतसत्तम।
मुच्यते स कथं तस्मादेतत् सर्वं वदस्व मे ॥ १ ॥
मूलम्
अबुद्धिपूर्वं यत् पापं कुर्याद् भरतसत्तम।
मुच्यते स कथं तस्मादेतत् सर्वं वदस्व मे ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिरने पूछा— भरतश्रेष्ठ! यदि कोई पुरुष अनजानमें किसी तरहका पापकर्म कर बैठे तो वह उससे किस प्रकार मुक्त हो सकता है? यह सब मुझे बताइये॥१॥
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अत्र ते वर्तयिष्यामि पुराणमृषिसंस्तुतम्।
इन्द्रोतः शौनको विप्रो यदाह जनमेजयम् ॥ २ ॥
मूलम्
अत्र ते वर्तयिष्यामि पुराणमृषिसंस्तुतम्।
इन्द्रोतः शौनको विप्रो यदाह जनमेजयम् ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजीने कहा— राजन्! इस विषयमें ऋषियों-द्वारा प्रशंसित एक प्राचीन प्रसंग एवं उपदेश तुम्हें सुनाऊँगा, जिसे शुनकवंशी विप्रवर इन्दोतने राजा जनमेजयसे कहा था॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसीद् राजा महावीर्यः परिक्षिज्जनमेजयः।
अबुद्धिपूर्वामागच्छद् ब्रह्महत्यां महीपतिः ॥ ३ ॥
मूलम्
आसीद् राजा महावीर्यः परिक्षिज्जनमेजयः।
अबुद्धिपूर्वामागच्छद् ब्रह्महत्यां महीपतिः ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पूर्वकालमें परिक्षित्के[^*] पुत्र राजा जनमेजय बड़े पराक्रमी थे; परन्तु उन्हें बिना जाने ही ब्रह्महत्याका पाप लग गया था॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्राह्मणाः सर्व एवैते तत्यजुः सपुरोहिताः।
स जगाम वनं राजा दह्यमानो दिवानिशम् ॥ ४ ॥
मूलम्
ब्राह्मणाः सर्व एवैते तत्यजुः सपुरोहिताः।
स जगाम वनं राजा दह्यमानो दिवानिशम् ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस बातको जानकर पुरोहितसहित सभी ब्राह्मणोंने जनमेजयको त्याग दिया। राजा चिन्तासे दिन-रात जलते हुए वनमें चले गये॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रजाभिः स परित्यक्तश्चकार कुशलं महत्।
अतिवेलं तपस्तेपे दह्यमानः स मन्युना ॥ ५ ॥
मूलम्
प्रजाभिः स परित्यक्तश्चकार कुशलं महत्।
अतिवेलं तपस्तेपे दह्यमानः स मन्युना ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रजाने भी उन्हें गद्दीसे उतार दिया था; अतः वे वनमें रहकर महान् पुण्य कर्म करने लगे। दुःखसे दग्ध होते हुए वे दीर्घकालतक तपस्यामें लगे रहे॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्रह्महत्यापनोदार्थमपृच्छद् ब्राह्मणान् बहून् ।
पर्यटन् पृथिवीं कृत्स्नां देशो देशे नराधिपः ॥ ६ ॥
मूलम्
ब्रह्महत्यापनोदार्थमपृच्छद् ब्राह्मणान् बहून् ।
पर्यटन् पृथिवीं कृत्स्नां देशो देशे नराधिपः ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजाने सारी पृथ्वीके प्रत्येक देशमें घूम-घूमकर बहु-तेरे ब्राह्मणोंसे ब्रह्महत्या-निवारण के लिये उपाय पूछा॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्रेतिहासं वक्ष्यामि धर्मस्यास्योपबृंहणम् ।
दह्यमानः पापकृत्या जगाम जनमेजयः ॥ ७ ॥
चरिष्यमाण इन्द्रोतं शौनकं संशितव्रतम्।
मूलम्
तत्रेतिहासं वक्ष्यामि धर्मस्यास्योपबृंहणम् ।
दह्यमानः पापकृत्या जगाम जनमेजयः ॥ ७ ॥
चरिष्यमाण इन्द्रोतं शौनकं संशितव्रतम्।
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! यहाँ मैं जो इतिहास बता रहा हूँ, वह धर्मकी वृद्धि करनेवाला है। राजा जनमेजय अपने पाप-कर्मसे दग्ध होते और वनमें विचरते हुए कठोर व्रतका पालन करनेवाले शुनकवंशी इन्द्रोत मुनिके पास जा पहुँचे॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
समासाद्योपजग्राह पादयोः परिपीडयन् ॥ ८ ॥
ऋषिर्दृष्ट्वा नृपं तत्र जगर्हे सुभृशं तदा।
कर्ता पापस्य महतो भ्रूणहा किमिहागतः ॥ ९ ॥
किं त्वयास्मासु कर्तव्यं मा मां स्प्राक्षीः कथंचन।
गच्छ गच्छ न ते स्थानं प्रीणात्यस्मानिति ब्रुवन् ॥ १० ॥
मूलम्
समासाद्योपजग्राह पादयोः परिपीडयन् ॥ ८ ॥
ऋषिर्दृष्ट्वा नृपं तत्र जगर्हे सुभृशं तदा।
कर्ता पापस्य महतो भ्रूणहा किमिहागतः ॥ ९ ॥
किं त्वयास्मासु कर्तव्यं मा मां स्प्राक्षीः कथंचन।
गच्छ गच्छ न ते स्थानं प्रीणात्यस्मानिति ब्रुवन् ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वहाँ जाकर उन्होंने मुनिके दोनों पैर पकड़ लिये और उन्हें धीरे-धीरे दबाने लगे। ऋषिने वहाँ राजाको देखकर उस समय उनकी बड़ी निन्दा की। वे कहने लगे—अरे! तू तो महान् पापाचारी और ब्रह्महत्यारा है। यहाँ कैसे आया? हमलोगोंसे तेरा क्या काम है? मुझे किसी तरह छूना मत। जा-जा, तेरा यहाँ ठहरना हमलोगोंको अच्छा नहीं लगता॥८—१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रुधिरस्येव ते गन्धः शवस्येव च दर्शनम्।
अशिवः शिवसंकाशो मृतो जीवन्निवाटसि ॥ ११ ॥
मूलम्
रुधिरस्येव ते गन्धः शवस्येव च दर्शनम्।
अशिवः शिवसंकाशो मृतो जीवन्निवाटसि ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘तुमसे रुधिरकी-सी गन्ध निकलती है। तेरा दर्शन वैसा ही है, जैसा मुर्देका दीखना। तू देखनेमें मंगलमय है; परंतु है अमंगलरूप। वास्तवमें तू मर चुका; परंतु जीवित की भाँति घूम रहा है॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्रह्ममृत्युरशुद्धात्मा पापमेवानुचिन्तयन् ।
प्रबुद्ध्यसे प्रस्वपिषि वर्तसे परमे सुखे ॥ १२ ॥
मूलम्
ब्रह्ममृत्युरशुद्धात्मा पापमेवानुचिन्तयन् ।
प्रबुद्ध्यसे प्रस्वपिषि वर्तसे परमे सुखे ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘तू ब्राह्मणकी मृत्युका कारण है। तेरा अन्तःकरण नितान्त अशुद्ध है। तू पापकी ही बात सोचता हुआ जागता और सोता है और इसीसे अपनेको परम सुखी मानता है॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मोघं ते जीवितं राजन् परिक्लिष्टं च जीवसि।
पापायैव हि सृष्टोऽसि कर्मणे हि यवीयसे ॥ १३ ॥
मूलम्
मोघं ते जीवितं राजन् परिक्लिष्टं च जीवसि।
पापायैव हि सृष्टोऽसि कर्मणे हि यवीयसे ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘राजन्! तेरा जीवन व्यर्थ और अत्यन्त क्लेशमय है। तू पापके लिये ही पैदा हुआ है। खोटे कर्मके लिये ही तेरा जन्म हुआ है॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बहुकल्याणमिच्छन्ति ईहन्ते पितरः सुतान्।
तपसा दैवतेज्याभिर्वन्दनेन तितिक्षया ॥ १४ ॥
मूलम्
बहुकल्याणमिच्छन्ति ईहन्ते पितरः सुतान्।
तपसा दैवतेज्याभिर्वन्दनेन तितिक्षया ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
माता-पिता तपस्या, देवपूजा, नमस्कार और सहनशीलता या क्षमा आदिके द्वारा पुत्र प्राप्त करना चाहते हैं और प्राप्त हुए पुत्रोंसे परम कल्याण पानेकी इच्छा रखते हैं॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पितृवंशमिमं पश्य त्वत्कृते नरकं गतम्।
निरर्थाः सर्व एवैषामाशाबन्धास्त्वदाश्रयाः ॥ १५ ॥
मूलम्
पितृवंशमिमं पश्य त्वत्कृते नरकं गतम्।
निरर्थाः सर्व एवैषामाशाबन्धास्त्वदाश्रयाः ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘परंतु तेरे कारण तेरे पितरोंका यह समुदाय नरकमें पड़ गया है। तू आँख उठाकर उनकी दशा देख ले। उन्होंने तुझसे जो जो आशाएँ बाँध रक्खी थीं, उनकी वे सभी आशाएँ आज व्यर्थ हो गयीं॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यान् पूजयन्तो विन्दन्ति स्वर्गमायुर्यशः प्रजाः।
तेषु त्वं सततं द्वेष्टा ब्राह्मणेषु निरर्थकः ॥ १६ ॥
मूलम्
यान् पूजयन्तो विन्दन्ति स्वर्गमायुर्यशः प्रजाः।
तेषु त्वं सततं द्वेष्टा ब्राह्मणेषु निरर्थकः ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जिनकी पूजा करनेवाले लोग स्वर्ग, आयु, यश और संतान प्राप्त करते हैं। उन्हीं ब्राह्मणोंसे तू सदा द्वेष रखता है। तेरा जीवन व्यर्थ है॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इमं लोकं विमुच्य त्वमवाङ्मूर्द्धा पतिष्यसि।
अशाश्वतीः शाश्वतीश्च समाः पापेन कर्मणा ॥ १७ ॥
मूलम्
इमं लोकं विमुच्य त्वमवाङ्मूर्द्धा पतिष्यसि।
अशाश्वतीः शाश्वतीश्च समाः पापेन कर्मणा ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘इस लोकको छोड़नेके बाद तू अपने पापकर्मके फलस्वरूप अनन्त वर्षोंतक नीचा सिर किये नरकमें पड़ा रहेगा॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अर्द्यमानो यत्र गृध्रैः शितिकण्ठैरयोमुखैः।
ततश्च पुनरावृत्तः पापयोनिं गमिष्यसि ॥ १८ ॥
मूलम्
अर्द्यमानो यत्र गृध्रैः शितिकण्ठैरयोमुखैः।
ततश्च पुनरावृत्तः पापयोनिं गमिष्यसि ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘वहाँ लोहेके समान चोंचवाले गीध और मोर तुझे नोच-नोचकर पीड़ा देंगे और उसके बाद भी नरकसे लौटनेपर तुझे किसी पापयोनिमें ही जन्म लेना पड़ेगा॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदिदं मन्यसे राजन् नायमस्ति कुतः परः।
प्रतिस्मारयितारस्त्वां यमदूता यमक्षये ॥ १९ ॥
मूलम्
यदिदं मन्यसे राजन् नायमस्ति कुतः परः।
प्रतिस्मारयितारस्त्वां यमदूता यमक्षये ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘राजन्! तू जो यह समझता है कि जब इसी लोकमें पापका फल नहीं मिल रहा है, तब परलोकका तो अस्तित्व ही कहाँ है? सो इस धारणाके विपरीत यमलोकमें जानेपर यमराजके दूत तुझे इन सारी बातोंकी याद दिला देंगे॥१९॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि आपद्धर्मपर्वणि इन्द्रोतपारिक्षितीयसंवादे पञ्चाशदधिकशततमोऽध्यायः ॥ १५० ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत आपद्धर्मपर्वमें इन्दोत और पारिक्षितका संवादविषयक एक सौ पचासवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१५०॥