१४९ लुब्धकस्वर्गगमने

भागसूचना

एकोनपञ्चाशदधिकशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

बहेलियेको स्वर्गलोककी प्राप्ति

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

विमानस्थौ तु तौ राजन् लुब्धकः खे ददर्श ह।
दृष्ट्‌वा तौ दम्पती राजन् व्यचिन्तयत तां गतिम् ॥ १ ॥

मूलम्

विमानस्थौ तु तौ राजन् लुब्धकः खे ददर्श ह।
दृष्ट्‌वा तौ दम्पती राजन् व्यचिन्तयत तां गतिम् ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजी कहते हैं— राजन्! व्याधने उन दोनों पक्षियोंको दिव्य रूप धारण करके विमान पर बैठे और आकाशमार्गसे जाते देखा। उन दिव्य दम्पतिको देखकर व्याध उनकी उस सद्‌गतिके विषयमें विचार करने लगा॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ईदृशेनैव तपसा गच्छेयं परमां गतिम्।
इति बुद्ध्या विनिश्चित्य गमनायोपचक्रमे ॥ २ ॥
महाप्रस्थानमाश्रित्य लुब्धकः पक्षिजीवकः ।
निश्चेष्टो मरुदाहारो निर्ममः स्वर्गकांक्षया ॥ ३ ॥

मूलम्

ईदृशेनैव तपसा गच्छेयं परमां गतिम्।
इति बुद्ध्या विनिश्चित्य गमनायोपचक्रमे ॥ २ ॥
महाप्रस्थानमाश्रित्य लुब्धकः पक्षिजीवकः ।
निश्चेष्टो मरुदाहारो निर्ममः स्वर्गकांक्षया ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैं भी इसी प्रकार तपस्या करके परम गतिको प्राप्त होऊँगा, ऐसा अपनी बुद्धिके द्वारा निश्चय करके पक्षियोंद्वारा जीवन-निर्वाह करनेवाला वह बहेलिया वहाँसे महाप्रस्थानके पथका आश्रय लेकर चल दिया। उसने सब प्रकारकी चेष्टा त्याग दी। वायु पीकर रहने लगा। स्वर्गकी अभिलाषासे अन्य सब वस्तुओंकी ओरसे उसने ममता हटा ली॥२-३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततोऽपश्यत् सुविस्तीर्णं हृद्यं पद्माभिभूषितम्।
नानापक्षिगणाकीर्णं सरः शीतजलं शिवम् ॥ ४ ॥

मूलम्

ततोऽपश्यत् सुविस्तीर्णं हृद्यं पद्माभिभूषितम्।
नानापक्षिगणाकीर्णं सरः शीतजलं शिवम् ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

आगे जाकर उसने एक विस्तृत एवं मनोरम सरोवर देखा जो कमल-समूहोंसे सुशोभित हो रहा था। नाना प्रकारके जलपक्षी उसमें कलरव कर रहे थे। वह तालाब शीतलजलसे भरा था और अत्यन्त सुखद जान पड़ता था॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पिपासार्तोऽपि तद् दृष्ट्‌वा तृप्तः स्यान्नात्र संशयः।
उपवासकृशोऽत्यर्थं स तु पार्थिव लुब्धकः ॥ ५ ॥
अनवेक्ष्यैव संहृष्टः श्वापदाध्युषितं वनम्।
महान्तं निश्चयं कृत्वा लुब्धकः प्रविवेश ह ॥ ६ ॥
प्रविशन्नेव स वनं निगृहीतः सकण्टकैः।
स कण्टकैर्विभिन्नाङ्को लोहितार्द्रीकृतच्छविः ॥ ७ ॥

मूलम्

पिपासार्तोऽपि तद् दृष्ट्‌वा तृप्तः स्यान्नात्र संशयः।
उपवासकृशोऽत्यर्थं स तु पार्थिव लुब्धकः ॥ ५ ॥
अनवेक्ष्यैव संहृष्टः श्वापदाध्युषितं वनम्।
महान्तं निश्चयं कृत्वा लुब्धकः प्रविवेश ह ॥ ६ ॥
प्रविशन्नेव स वनं निगृहीतः सकण्टकैः।
स कण्टकैर्विभिन्नाङ्को लोहितार्द्रीकृतच्छविः ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! कोई मनुष्य कितनी ही प्याससे पीड़ित क्यों न हो, निःसंदेह उस सरोवरके दर्शनमात्रसे वह तृप्त हो सकता था। इधर यह व्याध उपवासके कारण अत्यन्त दुर्बल हो गया था, तो भी उधर दृष्टिपात किये बिना ही बड़े हर्षके साथ हिंसक जन्तुओंसे भरे हुए वनमें प्रवेश कर गया। महान् लक्ष्यपर पहुँचनेका निश्चय करके बहेलिया उस वनमें घुसा। घुसते ही कँटीली झाड़ियोंमें फँस गया। काँटोंसे उसका सारा शरीर छिदकर लहूलुहान हो गया॥५-७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बभ्राम तस्मिन् विजने नानामृगसमाकुले।
ततो द्रुमाणां महता पवनेन वने तदा ॥ ८ ॥
उदतिष्ठत संघर्षात् सुमहान् हव्यवाहनः।
तद् वनं वृक्षसम्पूर्णं लताविटपसंकुलम् ॥ ९ ॥
ददाह पावकः क्रुद्धो युगान्ताग्निसमप्रभः।

मूलम्

बभ्राम तस्मिन् विजने नानामृगसमाकुले।
ततो द्रुमाणां महता पवनेन वने तदा ॥ ८ ॥
उदतिष्ठत संघर्षात् सुमहान् हव्यवाहनः।
तद् वनं वृक्षसम्पूर्णं लताविटपसंकुलम् ॥ ९ ॥
ददाह पावकः क्रुद्धो युगान्ताग्निसमप्रभः।

अनुवाद (हिन्दी)

नाना प्रकारके वन्य पशुओंसे भरे हुए उस निर्जन वनमें वह इधर-उधर भटकने लगा। इतनेही में प्रचण्ड पवनके वेगसे वृक्षोंमें परस्पर रगड़ होनेके कारण उस वनमें बड़ी भारी आग लग गयी। आग की बड़ी-बड़ी लपटें ऊपरको उठने लगीं। प्रलयकालकी संवर्तक अग्निके समान प्रज्वलित एवं कुपित हुए अग्निदेव लता, डालियों और वृक्षोंसे व्याप्त हुए उस वनको दग्ध करने लगे॥८-९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स ज्वालैः पवनोद्‌भूतैर्विस्फुलिङ्गैः समन्ततः ॥ १० ॥
ददाह तद् वनं घोरं मृगपक्षिसमाकुलम्।

मूलम्

स ज्वालैः पवनोद्‌भूतैर्विस्फुलिङ्गैः समन्ततः ॥ १० ॥
ददाह तद् वनं घोरं मृगपक्षिसमाकुलम्।

अनुवाद (हिन्दी)

हवासे उड़ी हुई चिनगारियों तथा ज्वालाओंद्वारा चारों और फैलकर उस दावानलने पशु-पक्षियोंसे भरे हुए भयंकर वनको जलाना आरम्भ किया॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः स देहमोक्षार्थं सम्प्रहृष्टेन चेतसा ॥ ११ ॥
अभ्यधावत वर्धन्तं पावकं लुब्धकस्तदा।

मूलम्

ततः स देहमोक्षार्थं सम्प्रहृष्टेन चेतसा ॥ ११ ॥
अभ्यधावत वर्धन्तं पावकं लुब्धकस्तदा।

अनुवाद (हिन्दी)

बहेलिया अपने शरीरका परित्याग करनेके लिये मनमें हर्ष और उल्लास भरकर उस बढ़ती हुई आगकी ओर दौड़ पड़ा॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततस्तेनाग्निना दग्धो लुब्धको नष्टकल्मषः।
जगाम परमां सिद्धिं ततो भरतसत्तम ॥ १२ ॥

मूलम्

ततस्तेनाग्निना दग्धो लुब्धको नष्टकल्मषः।
जगाम परमां सिद्धिं ततो भरतसत्तम ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतश्रेष्ठ! तदनन्तर उस आगमें जल जानेसे बहेलियेके सारे पाप नष्ट हो गये और उसने परम सिद्धि प्राप्त कर ली॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः स्वर्गस्थमात्मानमपश्यद् विगतज्वरः ।
यक्षगन्धर्वसिद्धानां मध्ये भ्राजन्तमिन्द्रवत् ॥ १३ ॥

मूलम्

ततः स्वर्गस्थमात्मानमपश्यद् विगतज्वरः ।
यक्षगन्धर्वसिद्धानां मध्ये भ्राजन्तमिन्द्रवत् ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

थोड़ी ही देरमें अपने आपको उसने देखा कि वह बड़े आनन्दसे स्वर्गलोकमें विराजमान है तथा अनेक यक्ष, सिद्ध और गन्धर्वोंके बीचमें इन्द्रके समान शोभा पा रहा है॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं खलु कपोतश्च कपोती च पतिव्रता।
लुब्धकेन सह स्वर्गं गताः पुण्येन कर्मणा ॥ १४ ॥

मूलम्

एवं खलु कपोतश्च कपोती च पतिव्रता।
लुब्धकेन सह स्वर्गं गताः पुण्येन कर्मणा ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार वह धर्मात्मा कबूतर, पतिव्रता कपोती और बहेलिया—तीनों साथ-साथ अपने पुण्यकर्मके बलसे स्वर्गलोकमें जा पहुँचे॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यापि चैवंविधा नारी भर्तारमनुवर्तते।
विराजते हि सा क्षिप्रं कपोतीव दिवि स्थिता ॥ १५ ॥

मूलम्

यापि चैवंविधा नारी भर्तारमनुवर्तते।
विराजते हि सा क्षिप्रं कपोतीव दिवि स्थिता ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसी प्रकार जो स्त्री अपने पतिका अनुसरण करती है, वह कपोतीके समान शीघ्र ही स्वर्गलोकमें स्थित हो अपने तेजसे प्रकाशित होती है॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमेतत् पुरावृत्तं लुब्धकस्य महात्मनः।
कपोतस्य च धर्मिष्ठा गतिः पुण्येन कर्मणा ॥ १६ ॥

मूलम्

एवमेतत् पुरावृत्तं लुब्धकस्य महात्मनः।
कपोतस्य च धर्मिष्ठा गतिः पुण्येन कर्मणा ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह प्राचीन वृत्तान्त (परशुरामजीने मुचुकुन्दको सुनाया था) यह ठीक ऐसा ही है। बहेलिये और महात्मा कबूतरको उनके पुण्यकर्मके प्रभावसे धर्मात्माओंकी गति प्राप्त हुई॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यश्चेदं शृणुयान्नित्यं यश्चेदं परिकीर्तयेत्।
नाशुभं विद्यते तस्य मनसापि प्रमादतः ॥ १७ ॥

मूलम्

यश्चेदं शृणुयान्नित्यं यश्चेदं परिकीर्तयेत्।
नाशुभं विद्यते तस्य मनसापि प्रमादतः ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो मनुष्य इस प्रसंगको प्रतिदिन सुनता और जो इसका वर्णन करता है, उन दोनोंको मनसे भी प्रमादजनित अशुभकी प्राप्ति नहीं होती॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

युधिष्ठिर महानेष धर्मो धर्मभृतां वर।
गोघ्नेष्वपि भवेदस्मिन्निष्कृतिः पापकर्मणः ॥ १८ ॥

मूलम्

युधिष्ठिर महानेष धर्मो धर्मभृतां वर।
गोघ्नेष्वपि भवेदस्मिन्निष्कृतिः पापकर्मणः ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

धर्मात्माओंमें श्रेष्ठ युधिष्ठिर! यह शरणागतका पालन महान् धर्म है। ऐसा करनेसे गोवध करनेवाले पुरुषोंके पापका भी प्रायश्चित्त हो जाता है॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न निष्कृतिर्भवेत् तस्य यो हन्याच्छरणागतम्।
इतिहासमिमं श्रुत्वा पुण्यं पापप्रणाशनम्।
न दुर्गतिमवाप्नोति स्वर्गलोकं च गच्छति ॥ १९ ॥

मूलम्

न निष्कृतिर्भवेत् तस्य यो हन्याच्छरणागतम्।
इतिहासमिमं श्रुत्वा पुण्यं पापप्रणाशनम्।
न दुर्गतिमवाप्नोति स्वर्गलोकं च गच्छति ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो शरणागतका वध करता है, उसको कभी इस पापसे छुटकारा नहीं मिलता। इस पापनाशक पुण्यमय इतिहासको सुन लेनेपर मनुष्य कभी दुर्गतिमें नहीं पड़ता। उसे स्वर्गलोककी प्रप्ति होती है॥१९॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि आपद्धर्मपर्वणि लुब्धकस्वर्गगमने एकोनपञ्चाशदधिकशततमोऽध्यायः ॥ १४९ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत आपद्धर्मपर्वमें व्याधका स्वर्गलोकमें गमनविषयक एक सौ उनचासवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१४९॥