१४८ कपोतस्वर्गगमने

भागसूचना

अष्टचत्वारिंशदधिकशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

कबूतरीका विलाप और अग्निमें प्रवेश तथा उन दोनोंको स्वर्गलोककी प्राप्ति

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो गते शाकुनिके कपोती प्राह दुःखिता।
संस्मृत्य सा च भर्तारं रुदती शोककर्शिता ॥ १ ॥

मूलम्

ततो गते शाकुनिके कपोती प्राह दुःखिता।
संस्मृत्य सा च भर्तारं रुदती शोककर्शिता ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजी कहते हैं— युधिष्ठिर! उस बहेलियेके चले जानेपर कबूतरी अपने पतिका स्मरण करके शोकसे कातर हो उठी और दुःखमग्न हो रोती हुई विलाप करने लगी॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नाहं ते विप्रियं कान्त कदाचिदपि संस्मरे।
सर्वापि विधवा नारी बहुपुत्रापि शोचते ॥ २ ॥

मूलम्

नाहं ते विप्रियं कान्त कदाचिदपि संस्मरे।
सर्वापि विधवा नारी बहुपुत्रापि शोचते ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘प्रियतम! आपने कभी मेरा अप्रिय किया हो, इसका मुझे स्मरण नहीं है। सारी स्त्रियाँ अनेक पुत्रोंसे युक्त होनेपर भी पतिहीन होनेपर शोकमें डूब जाती हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शोच्या भवति बन्धूनां पतिहीना तपस्विनी।
लालिताहं त्वया नित्यं बहुमानाच्च पूजिता ॥ ३ ॥

मूलम्

शोच्या भवति बन्धूनां पतिहीना तपस्विनी।
लालिताहं त्वया नित्यं बहुमानाच्च पूजिता ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘पतिहीन तपस्विनी नारी अपने भाई-बन्धुओंके लिये भी शोचनीय बन जाती है। आपने सदा ही मेरा लाड-प्यार किया और बड़े सम्मानके साथ मुझे आदरपूर्वक रक्खा॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वचनैर्मधुरैः स्निग्धैरसंक्लिष्टमनोहरैः ।
कन्दरेषु च शैलानां नदीनां निर्झरेषु च ॥ ४ ॥
द्रुमाग्रेषु च रम्येषु रमिताहं त्वया सह।
आकाशगमने चैव विहृताहं त्वया सुखम् ॥ ५ ॥

मूलम्

वचनैर्मधुरैः स्निग्धैरसंक्लिष्टमनोहरैः ।
कन्दरेषु च शैलानां नदीनां निर्झरेषु च ॥ ४ ॥
द्रुमाग्रेषु च रम्येषु रमिताहं त्वया सह।
आकाशगमने चैव विहृताहं त्वया सुखम् ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘आपने स्नेहसिक्त, सुखद, मनोहर, तथा मधुर वचनोंद्वारा मुझे आनन्दित किया। मैंने आपके साथ पर्वतोंकी गुफाओंमें नदियोंके तटोंपर, झरनोंके आस-पास तथा वृक्षोंकी सुरम्य शिखाओंपर रमण किया है। आकाशयात्रामें भी मैं सदा आपके साथ सुखपूर्वक विचरण करती रही हूँ॥४-५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रमामि स्म पुरा कान्त तन्मे नास्त्यद्य किञ्चन।
मितं ददाति हि पिता मितं भ्राता मितं सुतः॥६॥
अमितस्य हि दातारं भर्तारं का न पूजयेत्।

मूलम्

रमामि स्म पुरा कान्त तन्मे नास्त्यद्य किञ्चन।
मितं ददाति हि पिता मितं भ्राता मितं सुतः॥६॥
अमितस्य हि दातारं भर्तारं का न पूजयेत्।

अनुवाद (हिन्दी)

‘प्राणनाथ! पहले मैं जिस प्रकार आपके साथ आनन्दपूर्वक रमण करती थी, अब उन सब सुखोंमेंसे कुछ भी मेरे लिये शेष नहीं रह गया है। पिता, भ्राता और पुत्र—ये सब लोग नारीको परिमित सुख देते हैं, केवल पति ही उसे अपरिमित या असीम सुख प्रदान करता है। ऐसे पतिकी कौन स्त्री पूजा नहीं करेगी?॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नास्ति भर्तृसमो नाथो नास्ति भर्तृसमं सुखम् ॥ ७ ॥
विसृज्य धनसर्वस्वं भर्ता वै शरणं स्त्रियाः।

मूलम्

नास्ति भर्तृसमो नाथो नास्ति भर्तृसमं सुखम् ॥ ७ ॥
विसृज्य धनसर्वस्वं भर्ता वै शरणं स्त्रियाः।

अनुवाद (हिन्दी)

‘स्त्रीके लिये पतिके समान कोई रक्षक नहीं है और पतिके तुल्य कोई सुख नहीं है। उसके लिये तो धन और सर्वस्वको त्यागकर पति ही एकमात्र गति है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न कार्यमिह मे नाथ जीवितेन त्वया विना ॥ ८ ॥
पतिहीना तु का नारी सती जीवितुमुत्सहेत्।

मूलम्

न कार्यमिह मे नाथ जीवितेन त्वया विना ॥ ८ ॥
पतिहीना तु का नारी सती जीवितुमुत्सहेत्।

अनुवाद (हिन्दी)

‘नाथ! अब तुम्हारे बिना यहाँ इस जीवनसे भी क्या प्रयोजन है? ऐसी कौन सी पतिव्रता स्त्री होगी, जो पतिके बिना जीवित रह सकेगी?॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं विलप्य बहुधा करुणं सा सुदुःखिता ॥ ९ ॥
पतिव्रता सम्प्रदीप्तं प्रविवेश हुताशनम्।

मूलम्

एवं विलप्य बहुधा करुणं सा सुदुःखिता ॥ ९ ॥
पतिव्रता सम्प्रदीप्तं प्रविवेश हुताशनम्।

अनुवाद (हिन्दी)

इस तरह अनेक प्रकारसे करुणाजनक विलाप करके अत्यन्त दुःखमें डूबी हुई वह पतिव्रता कबूतरी उसी प्रज्वलित अग्निमें समा गयी॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततश्चित्राङ्गदधरं भर्तारं सान्वपश्यत ॥ १० ॥
विमानस्थं सुकृतिभिः पूज्यमानं महात्मभिः।

मूलम्

ततश्चित्राङ्गदधरं भर्तारं सान्वपश्यत ॥ १० ॥
विमानस्थं सुकृतिभिः पूज्यमानं महात्मभिः।

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर उसने अपने पतिको देखा। वह विचित्र अंगद धारण किये विमानपर बैठा था और बहुत-से पुण्यात्मा महात्मा उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा कर रहे थे॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

चित्रमाल्याम्बरधरं सर्वाभरणभूषितम् ॥ ११ ॥
विमानशतकोटीभिरावृतं पुण्यकर्मभिः ।

मूलम्

चित्रमाल्याम्बरधरं सर्वाभरणभूषितम् ॥ ११ ॥
विमानशतकोटीभिरावृतं पुण्यकर्मभिः ।

अनुवाद (हिन्दी)

उसने विचित्र हार और वस्त्र धारण कर रक्खे थे और वह सब प्रकारके आभूषणोंसे विभूषित था। अरबों पुण्यकर्मी पुरुषोंसे युक्त विमानोंने उसे घेर रक्खा था॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः स्वर्गं गतः पक्षी विमानवरमास्थितः।
कर्मणा पूजितस्तत्र रेमे स सह भार्यया ॥ १२ ॥

मूलम्

ततः स्वर्गं गतः पक्षी विमानवरमास्थितः।
कर्मणा पूजितस्तत्र रेमे स सह भार्यया ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार श्रेष्ठ विमानपर बैठा हुआ वह पक्षी अपनी स्त्रीके सहित स्वर्गलोकको चला गया और अपने सत्कर्मसे पूजित हो वहाँ आनन्दपूर्वक रहने लगा॥१२॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि आपद्धर्मपर्वणि कपोतस्वर्गगमने अष्टचत्वारिंशदधिकशततमोऽध्यायः ॥ १४८ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत आपद्धर्मपर्वमें कबूतरका स्वर्गगमनविषयक एक सौ अड़तालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१४८॥