१४७ लुब्धकोपरतौ

भागसूचना

सप्तचत्वारिंशदधिकशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

बहेलियेका वैराग्य

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः स लुब्धकः पश्यन् क्षुधयापि परिप्लुतः।
कपोतमग्निपतितं वाक्यं पुनरुवाच ह ॥ १ ॥

मूलम्

ततः स लुब्धकः पश्यन् क्षुधयापि परिप्लुतः।
कपोतमग्निपतितं वाक्यं पुनरुवाच ह ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजी कहते हैं— राजन्! भूखसे व्याकुल होनेपर भी बहेलियेने जब देखा कि कबूतर आगमें कूद पड़ा, तब वह दुखी होकर इस प्रकार कहने लगा—॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

किमीदृशं नृशंसेन मया कृतमबुद्धिना।
भविष्यति हि मे नित्यं पातकं कृतजीविनः ॥ २ ॥

मूलम्

किमीदृशं नृशंसेन मया कृतमबुद्धिना।
भविष्यति हि मे नित्यं पातकं कृतजीविनः ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘हाय! मुझ क्रूर और बुद्धिहीनने कैसा पाप कर डाला? मैंने अपना जीवन ही ऐसा बना रक्खा है कि मुझसे नित्य पाप बनता ही रहेगा’॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स विनिन्दंस्तथाऽऽत्मानं पुनः पुनरुवाच ह।
अविश्वास्यः सुदुर्बुद्धिः सदा निकृतिनिश्चयः ॥ ३ ॥

मूलम्

स विनिन्दंस्तथाऽऽत्मानं पुनः पुनरुवाच ह।
अविश्वास्यः सुदुर्बुद्धिः सदा निकृतिनिश्चयः ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार बारंबार अपनी निन्दा करता हुआ वह फिर बोला—‘मैं बड़ा दुष्ट बुद्धिका मनुष्य हूँ, मुझपर किसीको विश्वास नहीं करना चाहिये। शठता और क्रूरता ही मेरे जीवनका सिद्धान्त बन गया है॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शुभं कर्म परित्यज्य सोऽहं शकुनिलुब्धकः।
नृशंसस्य ममाद्यायं प्रत्यादेशो न संशयः ॥ ४ ॥
दत्तः स्वमांसं दहता कपोतेन महात्मना।

मूलम्

शुभं कर्म परित्यज्य सोऽहं शकुनिलुब्धकः।
नृशंसस्य ममाद्यायं प्रत्यादेशो न संशयः ॥ ४ ॥
दत्तः स्वमांसं दहता कपोतेन महात्मना।

अनुवाद (हिन्दी)

‘अच्छे-अच्छे कर्मोंको छोड़कर मैंने पक्षियोंको मारने और फँसानेका धंधा अपना लिया है। मुझ क्रूर और कुकर्मीको महात्मा कबूतरने अपने शरीरकी आहुति दे अपना मांस अर्पित किया है। इसमें संदेह नहीं कि इस अपूर्व त्यागके द्वारा उसने मुझे धिक्कारते हुए धर्माचरण करनेका आदेश दिया है॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोऽहं त्यक्ष्ये प्रियान् प्राणान् पुत्रान् दारांस्तथैव च ॥ ५ ॥
उपदिष्टो हि मे धर्मः कपोतेन महात्मना।

मूलम्

सोऽहं त्यक्ष्ये प्रियान् प्राणान् पुत्रान् दारांस्तथैव च ॥ ५ ॥
उपदिष्टो हि मे धर्मः कपोतेन महात्मना।

अनुवाद (हिन्दी)

‘अब मैं पापसे मुँह मोड़कर स्त्री, पुत्र तथा अपने प्यारे प्राणोंका भी परित्याग कर दूँगा। महात्मा कबूतरने मुझे विशुद्ध धर्मका उपदेश दिया है॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अद्यप्रभृति देहं स्वं सर्वभोगैर्विवर्जितम् ॥ ६ ॥
यथा स्वल्पं सरो ग्रीष्मे शोषयिष्याम्यहं तथा।

मूलम्

अद्यप्रभृति देहं स्वं सर्वभोगैर्विवर्जितम् ॥ ६ ॥
यथा स्वल्पं सरो ग्रीष्मे शोषयिष्याम्यहं तथा।

अनुवाद (हिन्दी)

‘आजसे मैं अपने शरीरको सम्पूर्ण भोगोंसे वंचित करके उसी प्रकार सुखा डालूँगा, जैसे गर्मींमें छोटा-सा तालाब सूख जाता है॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

क्षुत्पिपासातपसहः कृशो धमनिसंततः ॥ ७ ॥
उपवासैर्बहुविधैश्चरिष्ये पारलौकिकम् ।

मूलम्

क्षुत्पिपासातपसहः कृशो धमनिसंततः ॥ ७ ॥
उपवासैर्बहुविधैश्चरिष्ये पारलौकिकम् ।

अनुवाद (हिन्दी)

‘भूख, प्यास और धूपका कष्ट सहन करते हुए शरीरको इतना दुर्बल बना दूँगा कि सारे शरीरमें फैली हुई नाड़ियाँ स्पष्ट दिखायी देंगी। मैं बारंबार अनेक प्रकारसे उपवास व्रत करके परलोक सुधारनेवाला पुण्य कर्म करूँगा ७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अहो देहप्रदानेन दर्शितातिथिपूजना ॥ ८ ॥
तस्माद् धर्मं चरिष्यामि धर्मो हि परमा गतिः।
दृष्टो धर्मो हि धर्मिष्ठे यादृशो विहगोत्तमे ॥ ९ ॥

मूलम्

अहो देहप्रदानेन दर्शितातिथिपूजना ॥ ८ ॥
तस्माद् धर्मं चरिष्यामि धर्मो हि परमा गतिः।
दृष्टो धर्मो हि धर्मिष्ठे यादृशो विहगोत्तमे ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘अहो! महात्मा कबूतरने अपने शरीरका दान करके मेरे सामने अतिथि-सत्कारका उज्ज्वल आदर्श रक्खा है, अतः मैं भी अब धर्मका ही आचरण करुँगा; क्योंकि धर्म ही परम गति है। उस धर्मात्मा श्रेष्ठ पक्षीमें जैसा धर्म देखा गया है, वैसा ही मुझे भी अभीष्ट है॥८-९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमुक्त्वा विनिश्चित्य रौद्रकर्मा स लुब्धकः।
महाप्रस्थानमाश्रित्य प्रययौ संशितव्रतः ॥ १० ॥

मूलम्

एवमुक्त्वा विनिश्चित्य रौद्रकर्मा स लुब्धकः।
महाप्रस्थानमाश्रित्य प्रययौ संशितव्रतः ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ऐसा कहकर धर्माचरणका ही निश्चय करके वह भयानक कर्म करनेवाला व्याध कठोर व्रतका आश्रय ले महाप्रस्थानके पथपर चल दिया॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो यष्टिं शलाकां च क्षारकं पञ्जरं तथा।
तां च बद्धां कपोतीं स प्रमुच्य विससर्ज ह॥११॥

मूलम्

ततो यष्टिं शलाकां च क्षारकं पञ्जरं तथा।
तां च बद्धां कपोतीं स प्रमुच्य विससर्ज ह॥११॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय उसने उस बन्दी की हुई कबूतरीको पिंजरेसे मुक्त करके अपनी लाठी, शलाका, जाल, पिंजड़ा सब कुछ छोड़ दिया॥११॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि आपद्धर्मपर्वणि लुब्धकोपरतौ सप्तचत्वारिंशदधिकशततमोऽध्यायः ॥ १४७ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत आपद्धर्मपर्वमें बहेलियेकी उपरतिविषयक एक सौ सैतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१४७॥