१४५ कपोतीवाक्ये

भागसूचना

पञ्चचत्वारिंशदधिकशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

कबूतरीका कबूतरसे शरणागत व्याधकी सेवाके लिये प्रार्थना

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं विलपतस्तस्य श्रुत्वा तु करुणं वचः।
गृहीता शकुनिघ्नेन कपोती वाक्यमब्रवीत् ॥ १ ॥

मूलम्

एवं विलपतस्तस्य श्रुत्वा तु करुणं वचः।
गृहीता शकुनिघ्नेन कपोती वाक्यमब्रवीत् ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजी कहते हैं— युधिष्ठिर! इस तरह विलाप करते हुए कबूतरका वह करुणायुक्त वचन सुनकर बहेलियेके कैदमें पड़ी हुई कबूतरीने कहा॥१॥

मूलम् (वचनम्)

कपोत्युवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अहोऽतीव सुभाग्याहं यस्या मे दयितः पतिः।
असतो वा सतो वापि गुणानेवं प्रभाषते ॥ २ ॥

मूलम्

अहोऽतीव सुभाग्याहं यस्या मे दयितः पतिः।
असतो वा सतो वापि गुणानेवं प्रभाषते ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कबूतरी बोली— अहो! मेरा बड़ा सौभाग्य है कि मेरे प्रियतम पतिदेव इस प्रकार मेरे गुणोंका, वे मुझमें हों या न हों, गान कर रहे हैं॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न सा स्त्री ह्यभिमन्तव्या यस्यां भर्ता न तुष्यति।
तुष्टे भर्तरि नारीणां तुष्टाः स्युः सर्वदेवताः ॥ ३ ॥

मूलम्

न सा स्त्री ह्यभिमन्तव्या यस्यां भर्ता न तुष्यति।
तुष्टे भर्तरि नारीणां तुष्टाः स्युः सर्वदेवताः ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस स्त्रीको स्त्री ही नहीं समझना चाहिये, जिसका पति उससे संतुष्ट नहीं रहता है। पतिके संतुष्ट रहनेसे स्त्रियोंपर सम्पूर्ण देवता संतुष्ट रहते हैं॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अग्निसाक्षिकमित्येव भर्ता वै दैवतं परम्।
दावाग्निनेव निर्दग्धा सपुष्पस्तबका लता ॥ ४ ॥
भस्मीभवति सा नारी यस्या भर्ता न तुष्यति।

मूलम्

अग्निसाक्षिकमित्येव भर्ता वै दैवतं परम्।
दावाग्निनेव निर्दग्धा सपुष्पस्तबका लता ॥ ४ ॥
भस्मीभवति सा नारी यस्या भर्ता न तुष्यति।

अनुवाद (हिन्दी)

अग्निको साक्षी बनाकर स्त्रीका जिसके साथ विवाह हो गया, वही उसका पति है और वही उसके लिये परम देवता है। जिसका पति संतुष्ट नहीं रहता, वह नारी दावानलसे दग्ध हुई पुष्पगुच्छोंसहित लताके समान भस्म हो जाती है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इति संचिन्त्य दुःखार्ता भर्तारं दुःखितं तदा ॥ ५ ॥
कपोती लुब्धकेनापि गृहीता वाक्यमब्रवीत्।

मूलम्

इति संचिन्त्य दुःखार्ता भर्तारं दुःखितं तदा ॥ ५ ॥
कपोती लुब्धकेनापि गृहीता वाक्यमब्रवीत्।

अनुवाद (हिन्दी)

ऐसा सोचकर दुःखसे पीड़ित हो व्याधके कैदमें पड़ी हुई कबूतरीने अपने दुःखित पतिसे उस समय इस प्रकार कहा-॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हन्त वक्ष्यामि ते श्रेयः श्रुत्वा तु कुरु तत् तथा॥६॥
शरणागतसंत्राता भव कान्त विशेषतः।

मूलम्

हन्त वक्ष्यामि ते श्रेयः श्रुत्वा तु कुरु तत् तथा॥६॥
शरणागतसंत्राता भव कान्त विशेषतः।

अनुवाद (हिन्दी)

‘प्राणनाथ! मैं आपके कल्याणकी बात बता रही हूँ, उसे सुनकर आप वैसा ही कीजिये। इस समय विशेष प्रयत्न करके एक शरणागत प्राणीकी रक्षा कीजिये॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एष शाकुनिकः शेते तव वासं समाश्रितः ॥ ७ ॥
शीतार्तश्च क्षुधार्तश्च पूजामस्मै समाचर।

मूलम्

एष शाकुनिकः शेते तव वासं समाश्रितः ॥ ७ ॥
शीतार्तश्च क्षुधार्तश्च पूजामस्मै समाचर।

अनुवाद (हिन्दी)

‘यह व्याध आपके निवास-स्थानपर आकर सर्दी और भूखसे पीड़ित होकर सो रहा है। आप इसकी यथोचित सेवा कीजिये॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यो हि कश्चिद्‌ द्विजं हन्याद् गां च लोकस्य मातरम्॥८॥
शरणागतं च यो हन्यात् तुल्यं तेषां च पातकम्।

मूलम्

यो हि कश्चिद्‌ द्विजं हन्याद् गां च लोकस्य मातरम्॥८॥
शरणागतं च यो हन्यात् तुल्यं तेषां च पातकम्।

अनुवाद (हिन्दी)

‘जो कोई पुरुष ब्राह्मणकी, लोकमाता गायकी तथा शरणागतकी हत्या करता है, उन तीनोंको समानरूपसे पातक लगता है॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अस्माकं विहिता वृत्तिः कापोती जातिधर्मतः ॥ ९ ॥
सा न्याय्याऽऽत्मवता नित्यं त्वद्‌विधेनानुवर्तितुम्।

मूलम्

अस्माकं विहिता वृत्तिः कापोती जातिधर्मतः ॥ ९ ॥
सा न्याय्याऽऽत्मवता नित्यं त्वद्‌विधेनानुवर्तितुम्।

अनुवाद (हिन्दी)

‘भगवान्‌ने जातिधर्मके अनुसार हमारी कापोतीवृत्ति बना दी है। आप-जैसे मनस्वी पुरुषको सदा ही उस वृत्तिका पालन करना उचित है॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यस्तु धर्मं यथाशक्ति गृहस्थो ह्यनुवर्तते ॥ १० ॥
स प्रेत्य लभते लोकानक्षयानिति शुश्रुम।

मूलम्

यस्तु धर्मं यथाशक्ति गृहस्थो ह्यनुवर्तते ॥ १० ॥
स प्रेत्य लभते लोकानक्षयानिति शुश्रुम।

अनुवाद (हिन्दी)

‘जो गृहस्थ यथाशक्ति अपने धर्मका पालन करता है, वह मरनेके पश्चात् अक्षय लोकोंमें जाता है, ऐसा हमने सुन रखा है॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स त्वं संतानवानद्य पुत्रवानसि च द्विज ॥ ११ ॥
तत् स्वदेहे दयां त्यक्त्वा धर्मार्थौ परिगृह्य च।
पूजामस्मै प्रयुङ्‌क्ष्व त्वं प्रीयेतास्य मनो यथा ॥ १२ ॥

मूलम्

स त्वं संतानवानद्य पुत्रवानसि च द्विज ॥ ११ ॥
तत् स्वदेहे दयां त्यक्त्वा धर्मार्थौ परिगृह्य च।
पूजामस्मै प्रयुङ्‌क्ष्व त्वं प्रीयेतास्य मनो यथा ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘पक्षिप्रवर! आप अब संतानवान् और पुत्रवान् हो चुके हैं। अतः आप अपनी देहपर दया न करके धर्म और अर्थपर ही दृष्टि रखते हुए इस बहेलियेका ऐसा सत्कार करें, जिससे इसका मन प्रसन्न हो जाय॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मत्कृते मा च संतापं कुर्वीथास्त्वं विहङ्गम।
शरीरयात्राकृत्यर्थमन्यान् दारानुपैष्यसि ॥ १३ ॥

मूलम्

मत्कृते मा च संतापं कुर्वीथास्त्वं विहङ्गम।
शरीरयात्राकृत्यर्थमन्यान् दारानुपैष्यसि ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘विहंगम! आप मेरे लिये संताप न करें। आपको अपनी शरीरयात्राका निर्वाह करनेके लिये दूसरी स्त्री मिल जायेगी॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इति सा शकुनी वाक्यं पञ्जरस्था तपस्विनी।
अतिदुःखान्विता प्रोक्त्वा भर्तारं समुदैक्षत ॥ १४ ॥

मूलम्

इति सा शकुनी वाक्यं पञ्जरस्था तपस्विनी।
अतिदुःखान्विता प्रोक्त्वा भर्तारं समुदैक्षत ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार पिंजड़ेमें पड़ी हुई वह तपस्विनी कबूतरी पतिसे यह बात कहकर अत्यन्त दुखी हो पतिके मुँहकी ओर देखने लगी॥१४॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि आपद्धर्मपर्वणि कपोतं प्रति कपोतीवाक्ये पञ्चचचत्वारिंशदधिकशततमोऽध्यायः॥१४५॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत आपद्धर्मपर्वमें कबूतरके प्रति कबूतरीका वाक्यविषयक एक सौ पैंतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१४५॥