१४४ भार्याप्रशंसायाम्

भागसूचना

चतुश्चत्वारिंशदधिकशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

कबूतरद्वारा अपनी भार्याका गुणगान तथा पतिव्रता स्त्रीकी प्रशंसा

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथ वृक्षस्य शाखायां विहङ्गः ससुहृज्जनः।
दीर्घकालोषितो राजंस्तत्र चित्रतनूरुहः ॥ १ ॥

मूलम्

अथ वृक्षस्य शाखायां विहङ्गः ससुहृज्जनः।
दीर्घकालोषितो राजंस्तत्र चित्रतनूरुहः ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजी कहते हैं— राजन्! उस वृक्षकी शाखापर बहुत दिनोंसे एक कबूतर अपने सुहृदोंके साथ निवास करता था। उसके शरीरके रोएँ चितकबरे थे॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्य कल्यगता भार्या चरितुं नाभ्यवर्तत।
प्राप्तां च रजनीं दृष्ट्‌वा स पक्षी पर्यतप्यत ॥ २ ॥

मूलम्

तस्य कल्यगता भार्या चरितुं नाभ्यवर्तत।
प्राप्तां च रजनीं दृष्ट्‌वा स पक्षी पर्यतप्यत ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसकी पत्नी सबेरेसे ही चारा चुगनेके लिये गयी थी, जो लौटकर नहीं आयी। अब रात हुई देख वह कबूतर उसके लिये बहुत संतप्त होने लगा॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वातवर्षं महच्चासीन्न चागच्छति मे प्रिया।
किं नु तत् कारणं येन साद्यापि न निवर्तते॥३॥

मूलम्

वातवर्षं महच्चासीन्न चागच्छति मे प्रिया।
किं नु तत् कारणं येन साद्यापि न निवर्तते॥३॥

अनुवाद (हिन्दी)

कबूतर दुखी होकर इस प्रकार विलाप करने लगा—‘अहो! आज बड़ी भारी आँधी और वर्षा हुई है; किंतु अबतक मेरी प्यारी भार्या लौटकर नहीं आयी। ऐसा कौन-सा कारण हो गया, जिससे वह अभीतक नहीं लौट सकी है॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अपि स्वस्ति भवेत् तस्याः प्रियाया मम कानने।
तया विरहितं हीदं शून्यमद्य गृहं मम ॥ ४ ॥

मूलम्

अपि स्वस्ति भवेत् तस्याः प्रियाया मम कानने।
तया विरहितं हीदं शून्यमद्य गृहं मम ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘क्या इस वनमें मेरी प्रिया कुशलसे होगी? उसके बिना आज मेरा यह घर—यह घोंसला सूना लग रहा है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुत्रपौत्रवधूभृत्यैराकीर्णमपि सर्वतः ।
भार्याहीनं गृहस्थस्य शून्यमेव गृहं भवेत् ॥ ५ ॥

मूलम्

पुत्रपौत्रवधूभृत्यैराकीर्णमपि सर्वतः ।
भार्याहीनं गृहस्थस्य शून्यमेव गृहं भवेत् ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘पुत्र, पौत्र, पतोहू तथा अन्य भरण-पोषणके योग्य कुटुम्बीजनोंसे भरा होनेपर भी गृहस्थका घर उसकी पत्नीके बिना सूना ही रहता है॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न गृहं गृहमित्याहुर्गृहिणी गृहमुच्यते।
गृहं तु गृहिणीहीनमरण्यसदृशं मतम् ॥ ६ ॥

मूलम्

न गृहं गृहमित्याहुर्गृहिणी गृहमुच्यते।
गृहं तु गृहिणीहीनमरण्यसदृशं मतम् ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘वास्तवमें घरको घर नहीं कहते, घरवालीका ही नाम घर है। घरवालीके बिना जो घर होता है, उसे जंगलके समान ही माना गया है॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदि सा रक्तनेत्रान्ता चित्राङ्गी मधुरस्वरा।
अद्य नायाति मे कान्ता न कार्यं जीवितेन मे॥७॥

मूलम्

यदि सा रक्तनेत्रान्ता चित्राङ्गी मधुरस्वरा।
अद्य नायाति मे कान्ता न कार्यं जीवितेन मे॥७॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जिसके नेत्रोंके प्रान्तभाग कुछ-कुछ लाल हैं, अंग चितकबरे हैं और स्वरमें अद्‌भुत मिठास भरा है, वह मेरी प्राणवल्लभा यदि आज नहीं आ रही है तो मुझे इस जीवनसे क्या प्रयोजन है?॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न भुङ्‌क्ते मय्यभुक्ते या नास्नाते स्नाति सुव्रता।
नातिष्ठत्युपतिष्ठेत शेते च शयिते मयि ॥ ८ ॥

मूलम्

न भुङ्‌क्ते मय्यभुक्ते या नास्नाते स्नाति सुव्रता।
नातिष्ठत्युपतिष्ठेत शेते च शयिते मयि ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘वह उत्तम व्रतका पालन करनेवाली पतिव्रता थी, इसलिये मुझे भोजन कराये बिना भोजन नहीं करती, नहलाये बिना स्नान नहीं करती, मुझे बैठाये बिना बैठती नहीं तथा मेरे सो जानेपर ही शयन करती थी॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हृष्टे भवति सा हृष्टा दुःखिते मयि दुःखिता।
प्रोषिते दीनवदना क्रुद्धे च प्रियवादिनी ॥ ९ ॥

मूलम्

हृष्टे भवति सा हृष्टा दुःखिते मयि दुःखिता।
प्रोषिते दीनवदना क्रुद्धे च प्रियवादिनी ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मेरे प्रसन्न रहनेपर वह हर्षसे खिल उठती थी और मेरे दुखी होनेपर वह स्वयं भी दुःखमें डूब जाती थी। जब मैं बाहर जाने लगता तो उसके मुखपर दीनता छा जाती थी और जब कभी मुझे क्रोध आता, तब मीठी-मीठी बातें करके शान्त कर देती थी॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पतिव्रता पतिगतिः पतिप्रियहिते रता।
यस्य स्यात्‌ तादृशी भार्या धन्यः स पुरुषो भुवि॥१०॥

मूलम्

पतिव्रता पतिगतिः पतिप्रियहिते रता।
यस्य स्यात्‌ तादृशी भार्या धन्यः स पुरुषो भुवि॥१०॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘वह बड़ी पतिव्रता थी। पतिके सिवा दूसरी कोई उसकी गति नहीं थी। वह सदा ही पतिके प्रिय एवं हितमें तत्पर रहती थी। जिसको ऐसी पत्नी प्राप्त हुई हो, वह पुरुष इस पृथ्वीपर धन्य है॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सा हि श्रान्तं क्षुधार्तं च जानीते मां तपस्विनी।
अनुरक्ता स्थिरा चैव भक्ता स्निग्धा यशस्विनी ॥ ११ ॥

मूलम्

सा हि श्रान्तं क्षुधार्तं च जानीते मां तपस्विनी।
अनुरक्ता स्थिरा चैव भक्ता स्निग्धा यशस्विनी ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘वह तपस्विनी यह जानती है कि मैं थका, माँदा और भूखसे पीड़ित हूँ, सो भी न जाने क्यों नहीं आ रही है? मेरे प्रति उसका अत्यन्त अनुराग है, उसकी बुद्धि स्थिर है, वह यशस्विनी भार्या मेरे प्रति स्नेह रखनेवाली तथा मेरी परम भक्त है॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वृक्षमूलेऽपि दयिता यस्य तिष्ठति तद् गृहम्।
प्रासादोऽपि तया हीनः कान्तार इति निश्चितम् ॥ १२ ॥

मूलम्

वृक्षमूलेऽपि दयिता यस्य तिष्ठति तद् गृहम्।
प्रासादोऽपि तया हीनः कान्तार इति निश्चितम् ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘वृक्षके नीचे भी जिसकी पत्नी साथ हो, उसके लिये वही घर है और बहुत बड़ी अट्टालिका भी यदि स्त्रीसे रहित है तो वह निश्चय ही दुर्गम गहन वनके समान है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धर्मार्थकामकालेषु भार्या पुंसः सहायिनी।
विदेशगमने चास्य सैव विश्वासकारिका ॥ १३ ॥

मूलम्

धर्मार्थकामकालेषु भार्या पुंसः सहायिनी।
विदेशगमने चास्य सैव विश्वासकारिका ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘पुरुषके धर्म, अर्थ और कामके अवसरोंपर उसकी पत्नी ही उसकी मुख्य सहायिका होती है। परदेश जानेपर भी वही उसके लिये विश्वसनीय मित्रका काम करती है॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भार्या हि परमो ह्यर्थः पुरुषस्येह पठ्यते।
असहायस्य लोकेऽस्मिंल्लोकयात्रासहायिनी ॥ १४ ॥

मूलम्

भार्या हि परमो ह्यर्थः पुरुषस्येह पठ्यते।
असहायस्य लोकेऽस्मिंल्लोकयात्रासहायिनी ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘पुरुषकी प्रधान सम्पत्ति उसकी पत्नी ही कही जाती है। इस लोकमें जो असहाय है, उसे भी लोक-यात्रामें सहायता देनेवाली उसकी पत्नी ही है॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथा रोगाभिभूतस्य नित्यं कृच्छ्रगतस्य च।
नास्ति भार्यासमं किंचिन्नरस्यार्तस्य भेषजम् ॥ १५ ॥

मूलम्

तथा रोगाभिभूतस्य नित्यं कृच्छ्रगतस्य च।
नास्ति भार्यासमं किंचिन्नरस्यार्तस्य भेषजम् ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जो पुरुष रोगसे पीड़ित हो और बहुत दिनोंसे विपत्तिमें फँसा हो, उस पीड़ित मनुष्यके लिये भी स्त्रीके समान दूसरी कोई ओषधि नहीं है॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नास्ति भार्यासमो बन्धुर्नास्ति भार्यासमा गतिः।
नास्ति भार्यासमो लोके सहायो धर्मसंग्रहे ॥ १६ ॥

मूलम्

नास्ति भार्यासमो बन्धुर्नास्ति भार्यासमा गतिः।
नास्ति भार्यासमो लोके सहायो धर्मसंग्रहे ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘संसारमें स्त्रीके समान कोई बन्धु नहीं है, स्त्रीके समान कोई आश्रय नहीं है और स्त्रीके समान धर्मसंग्रहमें सहायक भी दूसरा कोई नहीं है॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यस्य भार्या गृहे नास्ति साध्वी च प्रियवादिनी।
अरण्यं तेन गन्तव्यं यथारण्यं तथा गृहम् ॥ १७ ॥

मूलम्

यस्य भार्या गृहे नास्ति साध्वी च प्रियवादिनी।
अरण्यं तेन गन्तव्यं यथारण्यं तथा गृहम् ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जिसके घरमें साध्वी और प्रिय वचन बोलने-वाली भार्या नहीं है, उसे तो वनमें चला जाना चाहिये; क्योंकि उसके लिये जैसा घर है, वैसा ही वन’॥१७॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि आपद्धर्मपर्वणि भार्याप्रशंसायां चतुश्चत्वारिंशदधिकशततमोऽध्यायः ॥ १४४ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत आपद्धर्मपर्वमें पत्नीकी प्रशंसाविषयक एक सौ चौवालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१४४॥