भागसूचना
त्रिचत्वारिंशदधिकशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
शरणागतकी रक्षा करनेके विषयमें एक बहेलिये और कपोत-कपोतीका प्रसंग, सर्दीसे पीड़ित हुए बहेलियेका एक वृक्षके नीचे जाकर सोना
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
पितामह महाप्राज्ञ सर्वशास्त्रविशारद ।
शरणं पालयानस्य यो धर्मस्तं वदस्व मे ॥ १ ॥
मूलम्
पितामह महाप्राज्ञ सर्वशास्त्रविशारद ।
शरणं पालयानस्य यो धर्मस्तं वदस्व मे ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिरने पूछा— परमबुद्धिमान् पितामह! आप सम्पूर्ण शास्त्रोंके विशेषज्ञ हैं; अतः मुझे यह बताइये कि शरणागतकी रक्षा करनेवाले प्राणीको किस धर्मकी प्राप्ति होती है?॥१॥
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
महान् धर्मो महाराज शरणागतपालने।
अर्हः प्रष्टुं भवांश्चैव प्रश्नं भरतसत्तम ॥ २ ॥
मूलम्
महान् धर्मो महाराज शरणागतपालने।
अर्हः प्रष्टुं भवांश्चैव प्रश्नं भरतसत्तम ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजीने कहा— महाराज! शरणागतकी रक्षा करनेमें महान् धर्म है। भरतश्रेष्ठ! तुम्हीं ऐसा प्रश्न पूछनेके अधिकारी हो॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शिबिप्रभृतयो राजन् राजानः शरणागतान्।
परिपाल्य महात्मानः संसिद्धिं परमां गताः ॥ ३ ॥
मूलम्
शिबिप्रभृतयो राजन् राजानः शरणागतान्।
परिपाल्य महात्मानः संसिद्धिं परमां गताः ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! शिबि आदि महात्मा राजाओंने तो शरणागतोंकी रक्षा करके ही परम सिद्धि प्राप्त कर ली थी॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्रूयते च कपोतेन शत्रुः शरणमागतः।
पूजितश्च यथान्यायं स्वैश्च मांसैर्निमन्त्रितः ॥ ४ ॥
मूलम्
श्रूयते च कपोतेन शत्रुः शरणमागतः।
पूजितश्च यथान्यायं स्वैश्च मांसैर्निमन्त्रितः ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह भी सुना जाता है कि एक कबूतरने शरणमें आये हुए शत्रुका यथायोग्य सत्कार किया था और अपना मांस खानेके लिये उसको निमन्त्रित किया था॥
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
कथं कपोतेन पुरा शत्रुः शरणमागतः।
स्वमांसं भोजितः कां च गतिं लेभे स भारत॥५॥
मूलम्
कथं कपोतेन पुरा शत्रुः शरणमागतः।
स्वमांसं भोजितः कां च गतिं लेभे स भारत॥५॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिरने पूछा— भरतनन्दन! प्राचीनकालमें कबूतरने शरणागत शत्रुको किस प्रकार अपना मांस खिलाया और ऐसा करनेसे उसे कौन-सी सद्गति प्राप्त हुई॥५॥
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
शृणु राजन् कथां दिव्यां सर्वपापप्रणाशिनीम्।
नृपतेर्मुचुकुन्दस्य कथितां भार्गवेण वै ॥ ६ ॥
मूलम्
शृणु राजन् कथां दिव्यां सर्वपापप्रणाशिनीम्।
नृपतेर्मुचुकुन्दस्य कथितां भार्गवेण वै ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजीने कहा— राजन्! वह दिव्य कथा सुनो, जो सब पापोंका नाश करनेवाली है। परशुरामजीने राजा मुचुकुन्दको यह कथा सुनायी थी॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इममर्थं पुरा पार्थ मुचुकुन्दो नराधिपः।
भार्गवं परिपप्रच्छ प्रणतः पुरुषर्षभ ॥ ७ ॥
मूलम्
इममर्थं पुरा पार्थ मुचुकुन्दो नराधिपः।
भार्गवं परिपप्रच्छ प्रणतः पुरुषर्षभ ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पुरुषप्रवर कुन्तीनन्दन! पहलेकी बात है, राजा मुचुकुन्दने परशुरामजीको प्रणाम करके उनसे यही प्रश्न किया था॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मै शुश्रूषमाणाय भार्गवोऽकथयत् कथाम्।
इमां यथा कपोतेन सिद्धिः प्राप्ता नराधिप ॥ ८ ॥
मूलम्
तस्मै शुश्रूषमाणाय भार्गवोऽकथयत् कथाम्।
इमां यथा कपोतेन सिद्धिः प्राप्ता नराधिप ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नरेश्वर! तब परशुरामजीने सुननेके लिये उत्सुक हुए मुचुकुन्दको कबूतरने जिस प्रकार सिद्धि प्राप्ति की थी, वह कथा कह सुनायी॥८॥
मूलम् (वचनम्)
मुनिरुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
धर्मनिश्चयसंयुक्तां कामार्थसहितां कथाम् ।
शृणुष्वावहितो राजन् गदतो मे महाभुज ॥ ९ ॥
मूलम्
धर्मनिश्चयसंयुक्तां कामार्थसहितां कथाम् ।
शृणुष्वावहितो राजन् गदतो मे महाभुज ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मुनि बोले— महाबाहो! यह कथा धर्मके निर्णयसे युक्त तथा अर्थ और कामसे सम्पन्न है। राजन्! तुम सावधान होकर मेरे मुखसे इस कथाको सुनो॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कश्चित् क्षुद्रसमाचारः पृथिव्यां कालसम्मितः।
विचचार महारण्ये घोरः शकुनिलुब्धकः ॥ १० ॥
मूलम्
कश्चित् क्षुद्रसमाचारः पृथिव्यां कालसम्मितः।
विचचार महारण्ये घोरः शकुनिलुब्धकः ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
एक समयकी बात है किसी महान् वनमें कोई भयंकर बहेलिया चारों ओर विचर रहा था। वह बड़े खोटे आचार-विचारका था। पृथ्वीपर वह कालके समान जान पड़ता था॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
काकोल इव कृष्णाङ्गो रक्ताक्षः कालसम्मितः।
दीर्घजङ्घो ह्रस्वपादो महावक्त्रो महाहनुः ॥ ११ ॥
मूलम्
काकोल इव कृष्णाङ्गो रक्ताक्षः कालसम्मितः।
दीर्घजङ्घो ह्रस्वपादो महावक्त्रो महाहनुः ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसका सारा शरीर ‘काकोल’ जातिके कौओंके समान काला था। आँखें लाल-लाल थीं। वह देखनेपर काल-सा प्रतीत होता था। बड़ी-बड़ी पिंडलियाँ, छोटे-छोटे पैर, विशाल मुख और लंबी-सी ठोढ़ी—यही उसकी हुलिया थी॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नैव तस्य सुहृत् कश्चिन्न सम्बन्धी न बान्धवाः।
स हि तैः सम्परित्यक्तस्तेन रौद्रेण कर्मणा ॥ १२ ॥
मूलम्
नैव तस्य सुहृत् कश्चिन्न सम्बन्धी न बान्धवाः।
स हि तैः सम्परित्यक्तस्तेन रौद्रेण कर्मणा ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसके न कोई सुहृद्, न सम्बन्धी और न भाई-बन्धु ही थे। उसके भयानक क्रूर-कर्मके कारण सबने उसे त्याग दिया था॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नरः पापसमाचारस्त्यक्तव्यो दूरतो बुधैः।
आत्मानं योऽभिसंधत्ते सोऽन्यस्य स्यात् कथं हितः ॥ १३ ॥
मूलम्
नरः पापसमाचारस्त्यक्तव्यो दूरतो बुधैः।
आत्मानं योऽभिसंधत्ते सोऽन्यस्य स्यात् कथं हितः ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वास्तवमें जो पापाचारी हो, उसे विज्ञ पुरुषोंको दूरसे ही त्याग देना चाहिये। जो अपने आपको धोखा देता है, वह दूसरेका हितैषी कैसे हो सकता है?॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ये नृशंसा दुरात्मानः प्राणिप्राणहरा नराः।
उद्वेजनीया भूतानां व्याला इव भवन्ति ते ॥ १४ ॥
मूलम्
ये नृशंसा दुरात्मानः प्राणिप्राणहरा नराः।
उद्वेजनीया भूतानां व्याला इव भवन्ति ते ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो मनुष्य क्रूर, दुरात्मा तथा दूसरे प्राणियोंके प्राणोंका अपहरण करनेवाले होते हैं, उन्हें सर्पोंके समान सभी जीवोंकी ओरसे उद्वेग प्राप्त होता है॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स वै क्षारकमादाय द्विजान् हत्वा वने सदा।
चकार विक्रयं तेषां पतङ्गानां जनाधिप ॥ १५ ॥
मूलम्
स वै क्षारकमादाय द्विजान् हत्वा वने सदा।
चकार विक्रयं तेषां पतङ्गानां जनाधिप ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नरेश्वर! वह प्रतिदिन जाल लेकर वनमें जाता और बहुत-से पक्षियोंको मारकर उन्हें बाजारमें बेंच दिया करता था॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं तु वर्तमानस्य तस्य वृत्तिं दुरात्मनः।
अगमत् सुमहान् कालो न चाधर्ममबुध्यत ॥ १६ ॥
मूलम्
एवं तु वर्तमानस्य तस्य वृत्तिं दुरात्मनः।
अगमत् सुमहान् कालो न चाधर्ममबुध्यत ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यही उसका नित्यका काम था। इसी वृत्तिसे रहते हुए उस दुरात्माको वहाँ दीर्घ काल व्यतीत हो गया, किंतु उसे अपने इस अधर्मका बोध नहीं हुआ॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्य भार्यासहायस्य रममाणस्य शाश्वतम्।
दैवयोगविमूढस्य नान्या वृत्तिररोचत ॥ १७ ॥
मूलम्
तस्य भार्यासहायस्य रममाणस्य शाश्वतम्।
दैवयोगविमूढस्य नान्या वृत्तिररोचत ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सदा अपनी स्त्रीके साथ विहार करता हुआ वह बहेलिया दैवयोगसे ऐसा मूढ़ हो गया था कि उसे दूसरी कोई वृत्ति अच्छी ही नहीं लगती थी॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः कदाचित् तस्याथ वनस्थस्य समन्ततः।
पातयन्निव वृक्षांस्तान् सुमहान् वातसम्भ्रमः ॥ १८ ॥
मूलम्
ततः कदाचित् तस्याथ वनस्थस्य समन्ततः।
पातयन्निव वृक्षांस्तान् सुमहान् वातसम्भ्रमः ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर एक दिन वह वनमें ही घूम रहा था कि चारों ओरसे बड़े जोरकी आँधी उठी। वायुका प्रचण्ड वेग वहाँके समस्त वृक्षोंको धराशायी करता हुआ-सा जान पड़ा॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मेघसंकुलमाकाशं विद्युन्मण्डलमण्डितम् ।
संछन्नस्तु मुहूर्तेन नौसार्थैरिव सागरः ॥ १९ ॥
वारिधारासमूहेन सम्प्रविष्टः शतक्रतुः ।
क्षणेन पूरयामास सलिलेन वसुन्धराम् ॥ २० ॥
मूलम्
मेघसंकुलमाकाशं विद्युन्मण्डलमण्डितम् ।
संछन्नस्तु मुहूर्तेन नौसार्थैरिव सागरः ॥ १९ ॥
वारिधारासमूहेन सम्प्रविष्टः शतक्रतुः ।
क्षणेन पूरयामास सलिलेन वसुन्धराम् ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आकाशमें मेघोंकी घटाएँ घिर आयीं, विद्युन्मण्डलसे उसकी अपूर्व शोभा होने लगी। जैसे समुद्र नौकारोहियोंके समुदायसे ढक जाता है, उसी प्रकार दो ही घड़ीमें जल-धाराओंके समूहसे आच्छादित हुए इन्द्रदेवने व्योममण्डलमें प्रवेश किया और क्षणभरमें इस पृथ्वीको जलराशिसे भर दिया॥१९-२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो धाराकुले काले सम्भ्रमन् नष्टचेतनः।
शीतार्तस्तद् वनं सर्वमाकुलेनान्तरात्मना ॥ २१ ॥
मूलम्
ततो धाराकुले काले सम्भ्रमन् नष्टचेतनः।
शीतार्तस्तद् वनं सर्वमाकुलेनान्तरात्मना ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय मूसलाधार पानी बरस रहा था। बहेलिया शीतसे पीड़ित हो अचेत सा हो गया और व्याकुल हृदयसे सारे वनमें भटकने लगा॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नैव निम्नं स्थलं वापि सोऽविन्दत विहङ्गहा।
पूरितो हि जलौघेन तस्य मार्गो वनस्य च ॥ २२ ॥
मूलम्
नैव निम्नं स्थलं वापि सोऽविन्दत विहङ्गहा।
पूरितो हि जलौघेन तस्य मार्गो वनस्य च ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वनका मार्ग जिसपर वह चलता था, जलके प्रवाहमें डूब गया था। उस बहेलियेको नीची-ऊँची भूमिका कुछ पता नहीं चलता था॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पक्षिणो वर्षवेगेन हता लीनास्तदाभवन्।
मृगसिंहवराहाश्च स्थलमाश्रित्य शेरते ॥ २३ ॥
मूलम्
पक्षिणो वर्षवेगेन हता लीनास्तदाभवन्।
मृगसिंहवराहाश्च स्थलमाश्रित्य शेरते ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वर्षाके वेगसे बहुतेरे पक्षी मरकर धरतीपर लोट गये थे। कितने ही अपने घोंसलोंमें छिपे बैठे थे। मृग, सिंह और सूअर स्थल-भूमिका आश्रय लेकर सो रहे थे॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
महता वातवर्षेण त्रासितास्ते वनौकसः।
भयार्ताश्च क्षुधार्ताश्च बभ्रमुः सहिता वने ॥ २४ ॥
मूलम्
महता वातवर्षेण त्रासितास्ते वनौकसः।
भयार्ताश्च क्षुधार्ताश्च बभ्रमुः सहिता वने ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भारी आँधी और वर्षासे आंतकित हुए वनवासी जीव-जन्तु भय और भूखसे पीड़ित हो झुंड-के-झुंड एक साथ घूम रहे थे॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स तु शीतहतैर्गात्रैर्न जगाम न तस्थिवान्।
ददर्श पतितां भूमौ कपोतीं शीतविह्वलाम् ॥ २५ ॥
मूलम्
स तु शीतहतैर्गात्रैर्न जगाम न तस्थिवान्।
ददर्श पतितां भूमौ कपोतीं शीतविह्वलाम् ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
बहेलियेके सारे अंग सर्दीसे ठिठुर गये थे। इसलिये न तो वह चल पाता था और न खड़ा ही हो पाता था। इसी अवस्थामें उसने धरतीपर गिरी हुई एक कबूतरी देखी, जो सर्दीके कष्टसे व्याकुल हो रही थी॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दृष्ट्वाऽऽर्तोऽपि हि पापात्मा स तां पञ्जरकेऽक्षिपत्।
स्वयं दुःखाभिभूतोऽपि दुःखमेवाकरोत् परे ॥ २६ ॥
पापात्मा पापकारित्वात् पापमेव चकार सः।
मूलम्
दृष्ट्वाऽऽर्तोऽपि हि पापात्मा स तां पञ्जरकेऽक्षिपत्।
स्वयं दुःखाभिभूतोऽपि दुःखमेवाकरोत् परे ॥ २६ ॥
पापात्मा पापकारित्वात् पापमेव चकार सः।
अनुवाद (हिन्दी)
वह पापात्मा व्याध यद्यपि स्वयं भी बड़े कष्टमें था तो भी उसने उस कबूतरीको उठाकर पिंजड़ेमें डाल लिया। स्वयं दुःखसे पीड़ित होनेपर भी उसने दूसरे प्राणीको दुःख ही पहुँचाया। सदा पापमें ही प्रवृत्त रहनेके कारण उस पापात्माने उस समय भी पाप ही किया॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सोऽपश्यत् तरुखण्डेषु मेघनीलवनस्पतिम् ॥ २७ ॥
सेव्यमानं विहङ्गौघैश्छायावासफलार्थिभिः ।
धात्रा परोपकाराय स साधुरिव निर्मितः ॥ २८ ॥
मूलम्
सोऽपश्यत् तरुखण्डेषु मेघनीलवनस्पतिम् ॥ २७ ॥
सेव्यमानं विहङ्गौघैश्छायावासफलार्थिभिः ।
धात्रा परोपकाराय स साधुरिव निर्मितः ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इतनेमें ही उसे वृक्षोंके समूहमें मेघके समान सघन एवं नील एक विशाल वृक्ष दिखायी दिया, जिसपर बहुतसे विहंग छाया, निवास और फलकी इच्छासे बसेरे लेते थे, मानो विधाताने परोपकारके लिये ही उस साधुतुल्य महान् वृक्षका निर्माण किया था॥२७-२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथाभवत् क्षणेनैव वियद् विमलतारकम्।
महत्सर इवोत्फुल्लं कुमुदच्छुरितोदकम् ॥ २९ ॥
मूलम्
अथाभवत् क्षणेनैव वियद् विमलतारकम्।
महत्सर इवोत्फुल्लं कुमुदच्छुरितोदकम् ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर एक ही क्षणमें आकाशके बादल फट गये, निर्मल तारे चमक उठे, मानो खिले हुए कुमुद-पुष्पोंसे सुशोभित जलवाला कोई विशाल सरोवर प्रकाशित हो रहा हो॥२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ताराढ्यं कुमुदाकारमाकाशं निर्मलं बहु।
घनैर्मुक्तं नभो दृष्ट्वा लुब्धकः शीतविह्वलः ॥ ३० ॥
दिशो विलोकयामास विगाढां प्रेक्ष्य शर्वरीम्।
दूरतो मे निवेशश्च अस्माद् देशादिति प्रभो ॥ ३१ ॥
मूलम्
ताराढ्यं कुमुदाकारमाकाशं निर्मलं बहु।
घनैर्मुक्तं नभो दृष्ट्वा लुब्धकः शीतविह्वलः ॥ ३० ॥
दिशो विलोकयामास विगाढां प्रेक्ष्य शर्वरीम्।
दूरतो मे निवेशश्च अस्माद् देशादिति प्रभो ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रभो! ताराओंसे भरा हुआ अत्यन्त निर्मल आकाश विकसित कुमुद-कुसुमोंसे सुशोभित सरोवर-सा प्रतीत होता था। आकाशको मेघोंसे मुक्त हुआ देख सर्दीसे काँपते हुए उस व्याधने सम्पूर्ण दिशाओंकी ओर दृष्टिपात किया और गाढ़े अन्धकारसे भरी हुई रात्रि देखकर मन-ही-मन विचार किया कि मेरा निवासस्थान तो यहाँसे बहुत दूर है॥३०-३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृतबुद्धिर्द्रुमे तस्मिन् वस्तुं तां रजनीं ततः।
साञ्जलिः प्रणतिं कृत्वा वाक्यमाह वनस्पतिम् ॥ ३२ ॥
शरणं यामि यान्यस्मिन् दैवतानि वनस्पतौ।
मूलम्
कृतबुद्धिर्द्रुमे तस्मिन् वस्तुं तां रजनीं ततः।
साञ्जलिः प्रणतिं कृत्वा वाक्यमाह वनस्पतिम् ॥ ३२ ॥
शरणं यामि यान्यस्मिन् दैवतानि वनस्पतौ।
अनुवाद (हिन्दी)
इसके बाद उसने उस वृक्षके नीचे ही रातभर रहनेका निश्चय किया। फिर हाथ जोड़ प्रणाम करके उस वनस्पतिसे कहा—‘इस वृक्षपर जो-जो देवता हों, उन सबकी मैं शरण लेता हूँ॥३२॥’
विश्वास-प्रस्तुतिः
स शिलायां शिरः कृत्वा पर्णान्यास्तीर्य भूतले।
दुःखेन महताऽऽविष्टस्ततः सुष्वाप पक्षिहा ॥ ३३ ॥
मूलम्
स शिलायां शिरः कृत्वा पर्णान्यास्तीर्य भूतले।
दुःखेन महताऽऽविष्टस्ततः सुष्वाप पक्षिहा ॥ ३३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ऐसा कहकर उसने पृथ्वीपर पत्ते बिछा दिये और एक शिलापर सिर रखकर महान् दुःखसे घिरा हुआ वह बहेलिया वहाँ सो गया॥३३॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि आपद्धर्मपर्वणि कपोतलुब्धकसंवादोपक्रमे त्रिचत्वारिंशदधिकशततमोऽध्यायः ॥ १४३ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत आपद्धर्मपर्वमें कपोत और व्याधके संवादका उपक्रमविषयक एक सौ तैंतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१४३॥