१४२

भागसूचना

द्विचत्वारिंशदधिकशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

आपत्कालमें राजाके धर्मका निश्चय तथा उत्तम ब्राह्मणोंके सेवनका आदेश

मूलम् (वचनम्)

युधिष्ठिर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदि घोरं समुद्दिष्टमश्रद्धेयमिवानृतम् ।
अस्ति स्विद् दस्युमर्यादा यामहं परिवर्जये ॥ १ ॥

मूलम्

यदि घोरं समुद्दिष्टमश्रद्धेयमिवानृतम् ।
अस्ति स्विद् दस्युमर्यादा यामहं परिवर्जये ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिरने पूछा— यदि महापुरुषोंके लिये भी ऐसा भयंकर कर्म (संकटकालमें) कर्तव्यरूपसे बता दिया गया तो दुराचारी डाकुओं और लुटेरोंके दुष्कर्मोंकी कौन-सी ऐसी सीमा रह गयी है, जिसका मुझे सदा ही परित्याग करना चाहिये? (इससे अधिक घोर कर्म तो दस्यु भी नहीं कर सकते)॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सम्मुह्यामि विषीदामि धर्मो मे शिथिलीकृतः।
उद्यमं नाधिगच्छामि कदाचित् परिसान्त्वयन् ॥ २ ॥

मूलम्

सम्मुह्यामि विषीदामि धर्मो मे शिथिलीकृतः।
उद्यमं नाधिगच्छामि कदाचित् परिसान्त्वयन् ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

आपके मुँहसे यह उपाख्यान सुनकर मैं मोहित एवं विषादग्रस्त हो रहा हूँ। आपने मेरा धर्मविषयक उत्साह शिथिल कर दिया। मैं अपने मनको बारंबार समझा रहा हूँ तो भी अब कदापि इसमें धर्मविषयक उद्यमके लिये उत्साह नहीं पाता हूँ॥२॥

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

नैतच्छ्रुत्वाऽऽगमादेव तव धर्मानुशासनम् ।
प्रज्ञासमवहारोऽयं कविभिः सम्भृतं मधु ॥ ३ ॥

मूलम्

नैतच्छ्रुत्वाऽऽगमादेव तव धर्मानुशासनम् ।
प्रज्ञासमवहारोऽयं कविभिः सम्भृतं मधु ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजीने कहा— वत्स! मैंने केवल शास्त्रसे ही सुनकर तुम्हारे लिये यह धर्मोपदेश नहीं किया है। जैसे अनेक स्थानसे अनेक प्रकारके फूलोंका रस लाकर मक्खियाँ मधुका संचय करती हैं, उसी प्रकार विद्वानोंने यह नाना प्रकारकी बुद्धियों (विचारों) का संकलन किया है (ऐसी बुद्धियोंका कदाचित् संकटकालमें उपयोग किया जा सकता है। ये सदा काममें लेनेके लिये नहीं कही गयी हैं; अतः तुम्हारे मनमें मोह या विषाद नहीं होना चाहिये)॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बह्व्यः प्रतिविधातव्याः प्रज्ञा राज्ञा ततस्ततः।
नैकशाखेन धर्मेण यत्रैषा सम्प्रवर्तते ॥ ४ ॥

मूलम्

बह्व्यः प्रतिविधातव्याः प्रज्ञा राज्ञा ततस्ततः।
नैकशाखेन धर्मेण यत्रैषा सम्प्रवर्तते ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिर! राजाको इधर-उधरसे नाना प्रकारके मनुष्योंके निकटसे भिन्न-भिन्न प्रकारकी बुद्धियाँ सीखनी चाहिये। उसे एक ही शाखावाले धर्मको लेकर नहीं बैठे रहना चाहिये। जिस राजामें संकटके समय यह बुद्धि स्फुरित होती है, वह आत्मरक्षाका कोई उपाय निकाल लेता है॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बुद्धिसंजननो धर्म आचारश्च सतां सदा।
ज्ञेयो भवति कौरव्य सदा तद् विद्धि मे वचः॥५॥

मूलम्

बुद्धिसंजननो धर्म आचारश्च सतां सदा।
ज्ञेयो भवति कौरव्य सदा तद् विद्धि मे वचः॥५॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुरुनन्दन! धर्म और सत्पुरुषोंका आचार—ये बुद्धिसे ही प्रकट होते हैं और सदा उसीके द्वारा जाने जाते हैं। तुम मेरी इस बातको अच्छी तरह समझ लो॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बुद्धिश्रेष्ठा हि राजानश्चरन्ति विजयैषिणः।
धर्मः प्रतिविधातव्यो बुद्ध्या राज्ञा ततस्ततः ॥ ६ ॥

मूलम्

बुद्धिश्रेष्ठा हि राजानश्चरन्ति विजयैषिणः।
धर्मः प्रतिविधातव्यो बुद्ध्या राज्ञा ततस्ततः ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

विजयकी अभिलाषा रखनेवाले एवं बुद्धिमें श्रेष्ठ सभी राजा धर्मका आचरण करते हैं। अतः राजाको इधर-उधरसे बुद्धिके द्वारा शिक्षा लेकर धर्मका भलीभाँति आचरण करना चाहिये॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नैकशाखेन धर्मेण राज्ञो धर्मो विधीयते।
दुर्बलस्य कुतः प्रज्ञा पुरस्तादनुपाहृता ॥ ७ ॥

मूलम्

नैकशाखेन धर्मेण राज्ञो धर्मो विधीयते।
दुर्बलस्य कुतः प्रज्ञा पुरस्तादनुपाहृता ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

एक शाखावाले (एकदेशीय) धर्मसे राजाका धर्म-निर्वाह नहीं होता। जिसने पहले अध्ययनकालमें एकदेशीय धर्मविषयक बुद्धिकी शिक्षा ली, उस दुर्बल राजाको पूर्ण प्रज्ञा कहाँसे प्राप्त हो सकती है?॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अद्वैधज्ञः पथि द्वैधे संशयं प्राप्तुमर्हति।
बुद्धिद्वैधं वेदितव्यं पुरस्तादेव भारत ॥ ८ ॥

मूलम्

अद्वैधज्ञः पथि द्वैधे संशयं प्राप्तुमर्हति।
बुद्धिद्वैधं वेदितव्यं पुरस्तादेव भारत ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

एक ही धर्म या कर्म किसी समय धर्म माना जाता है और किसी समय अधर्म। उसकी जो यह दो प्रकारकी स्थिति है, उसीका नाम द्वैध है। जो इस द्विविधतत्त्वको नहीं जानता, वह द्वैधमार्गपर पहुँचकर संशयमें पड़ जाता है। भरतनन्दन! बुद्धिके द्वैधको पहले ही अच्छी तरह समझ लेना चाहिये॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पार्श्वतः करणं प्राज्ञो विष्टम्भित्वा प्रकारयेत्।
जनस्तच्चरितं धर्मं विजानात्यन्यथान्यथा ॥ ९ ॥

मूलम्

पार्श्वतः करणं प्राज्ञो विष्टम्भित्वा प्रकारयेत्।
जनस्तच्चरितं धर्मं विजानात्यन्यथान्यथा ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

बुद्धिमान् पुरुष विचार करते समय पहले अपने प्रत्येक कार्यको गुप्त रखकर उसे प्रारम्भ करे; फिर उसे सर्वत्र प्रकाशित करे; अन्यथा उसके द्वारा आचरणमें लाये हुए धर्मको लोग किसी और ही रूपमें समझने लगते हैं॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अमिथ्याज्ञानिनः केचिन्मिथ्याविज्ञानिनः परे ।
तद्वै यथायथं बुद्‌ध्वा ज्ञानमाददते सताम् ॥ १० ॥

मूलम्

अमिथ्याज्ञानिनः केचिन्मिथ्याविज्ञानिनः परे ।
तद्वै यथायथं बुद्‌ध्वा ज्ञानमाददते सताम् ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुछ लोग यथार्थ ज्ञानी होते हैं और कुछ लोग मिथ्या ज्ञानी, इस बातको ठीक-ठीक समझकर राजा सत्यज्ञानसम्पन्न सत्पुरुषोंके ही ज्ञानको ग्रहण करते हैं॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

परिमुष्णन्ति शास्त्राणि धर्मस्य परिपन्थिनः।
वैषम्यमर्थविद्यानां निरर्थाः ख्यापयन्ति ते ॥ ११ ॥

मूलम्

परिमुष्णन्ति शास्त्राणि धर्मस्य परिपन्थिनः।
वैषम्यमर्थविद्यानां निरर्थाः ख्यापयन्ति ते ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

धर्मद्रोही मनुष्य शास्त्रोंकी प्रामाणिकतापर डाका डालते हैं, उन्हें अग्राह्य और अमान्य बताते हैं। वे अर्थज्ञानसे शून्य मनुष्य अर्थशास्त्रकी विषमताका मिथ्या प्रचार करते हैं॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आजिजीविषवो विद्यां यशःकामौ समन्ततः।
ते सर्वे नृप पापिष्ठा धर्मस्य परिपन्थिनः ॥ १२ ॥

मूलम्

आजिजीविषवो विद्यां यशःकामौ समन्ततः।
ते सर्वे नृप पापिष्ठा धर्मस्य परिपन्थिनः ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नरेश्वर! जो जीविकाकी इच्छासे विद्याका उपार्जन करते हैं, सम्पूर्ण दिशाओंमें उसी विद्याके बलसे यश पानेकी इच्छा और मनोवांछित पदार्थोंको प्राप्त करनेकी अभिलाषा रखते हैं, वे सभी पापात्मा और धर्मद्रोही हैं॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अपक्वमतयो मन्दा न जानन्ति यथातथम्।
यथा ह्यशास्त्रकुशलाः सर्वत्रायुक्तिनिष्ठिता ॥ १३ ॥

मूलम्

अपक्वमतयो मन्दा न जानन्ति यथातथम्।
यथा ह्यशास्त्रकुशलाः सर्वत्रायुक्तिनिष्ठिता ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिनकी बुद्धि परिपक्व नहीं हुई है, वे मन्दमति मानव यथार्थ तत्त्वको नहीं जानते हैं। शास्त्रज्ञानमें निपुण न होकर सर्वत्र असंगत युक्तिपर ही अवलम्बित रहते हैं॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

परिमुष्णन्ति शास्त्राणि शास्त्रदोषानुदर्शिनः ।
विज्ञानमर्थविद्यानां न सम्यगिति वर्तते ॥ १४ ॥

मूलम्

परिमुष्णन्ति शास्त्राणि शास्त्रदोषानुदर्शिनः ।
विज्ञानमर्थविद्यानां न सम्यगिति वर्तते ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

निरन्तर शास्त्रके दोष देखनेवाले लोग शास्त्रोंकी मर्यादा लूटते हैं और यह कहा करते हैं कि अर्थशास्त्रका ज्ञान समीचीन नहीं है॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

निन्दया परविद्यानां स्वविद्यां ख्यापयन्ति च।
वागस्त्रा वाक्‌छरीभूता द्रुग्धविद्याफला इव ॥ १५ ॥

मूलम्

निन्दया परविद्यानां स्वविद्यां ख्यापयन्ति च।
वागस्त्रा वाक्‌छरीभूता द्रुग्धविद्याफला इव ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वाणी ही जिनका अस्त्र है तथा जिनकी बोली ही बाण के समान लगती है, वे मानो विद्याके फल तत्त्वज्ञानसे ही विद्रोह करते हैं। ऐसे लोग दूसरोंकी विद्याकी निन्दा करके अपनी विद्याकी अच्छाईका मिथ्या प्रचार करते हैं॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तान् विद्यावणिजो विद्धि राक्षसानिव भारत।
व्याजेन सद्भिर्विहितो धर्मस्ते परिहास्यति ॥ १६ ॥

मूलम्

तान् विद्यावणिजो विद्धि राक्षसानिव भारत।
व्याजेन सद्भिर्विहितो धर्मस्ते परिहास्यति ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतनन्दन! ऐसे लोगोंको तुम विद्याका व्यापार करनेवाले तथा राक्षसोंके समान परद्रोही समझो। उनकी बहानेबाजीसे तुम्हारा सत्पुरुषोंद्वारा प्रतिपादित एवं आचरित धर्म नष्ट हो जायगा॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न धर्मवचनं वाचा नैव बुद्ध्येति नः श्रुतम्।
इति बार्हस्पतं ज्ञानं प्रोवाच मघवा स्वयम् ॥ १७ ॥

मूलम्

न धर्मवचनं वाचा नैव बुद्ध्येति नः श्रुतम्।
इति बार्हस्पतं ज्ञानं प्रोवाच मघवा स्वयम् ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

हमने सुना है कि केवल वचनद्वारा अथवा केवल बुद्धि (तर्क) के द्वारा ही धर्मका निश्चय नहीं होता है, अपितु शास्त्रवचन और तर्क दोनोंके समुच्चयद्वारा उसका निर्णय होता है—यही बृहस्पतिका मत है, जिसे स्वयं इन्द्रने बताया है॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न त्वेव वचनं किंचिदनिमित्तादिहोच्यते।
सुविनीतेन शास्त्रेण न व्यवस्यन्त्यथापरे ॥ १८ ॥

मूलम्

न त्वेव वचनं किंचिदनिमित्तादिहोच्यते।
सुविनीतेन शास्त्रेण न व्यवस्यन्त्यथापरे ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

विद्वान् पुरुष अकारण कोई बात नहीं कहते हैं और दूसरे बहुत-से मनुष्य भलीभाँति सीखे हुए शास्त्रके अनुसार कार्य करनेकी चेष्टा नहीं करते हैं॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

लोकयात्रामिहैके तु धर्मं प्राहुर्मनीषिणः।
समुद्दिष्टं सतां धर्मं स्वयमूहेत पण्डितः ॥ १९ ॥

मूलम्

लोकयात्रामिहैके तु धर्मं प्राहुर्मनीषिणः।
समुद्दिष्टं सतां धर्मं स्वयमूहेत पण्डितः ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस जगत्‌में कोई-कोई मनीषी पुरुष शिष्ट पुरुषोंद्वारा परिचालित लोकाचारको ही धर्म कहते हैं, परंतु विद्वान् पुरुष स्वयं ही ऊहापोह करके सत्पुरुषोंके शास्त्रविहित धर्मका निश्चय कर ले॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अमर्षाच्छास्त्रसम्मोहादविज्ञानाच्च भारत ।
शास्त्रं प्राज्ञस्य वदतः समूहे यात्यदर्शनम् ॥ २० ॥

मूलम्

अमर्षाच्छास्त्रसम्मोहादविज्ञानाच्च भारत ।
शास्त्रं प्राज्ञस्य वदतः समूहे यात्यदर्शनम् ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतनन्दन! जो बद्धिमान् होकर शास्त्रको ठीक-ठीक न समझते हुए मोहमें आबद्ध होकर बड़े जोशके साथ शास्त्रका प्रवचन करता है, उसके उस कथनका लोकसमाजमें कोई प्रभाव नहीं पड़ता है॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आगतागमया बुद्ध्या वचनेन प्रशस्यते।
अज्ञानाज्ज्ञानहेतुत्वाद् वचनं साधु मन्यते ॥ २१ ॥

मूलम्

आगतागमया बुद्ध्या वचनेन प्रशस्यते।
अज्ञानाज्ज्ञानहेतुत्वाद् वचनं साधु मन्यते ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वेद-शास्त्रोंके द्वारा अनुमोदित, तर्कयुक्त बुद्धिके द्वारा जो बात कही जाती है, उसीसे शास्त्रकी प्रशंसा होती है अर्थात् शास्त्रकी वही बात लोगोंके मनमें बैठती है। दूसरे लोग अज्ञातविषयका ज्ञान करानेके लिये केवल तर्कको ही श्रेष्ठ मानते हैं, परंतु यह उनकी नासमझी ही है॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनया हतमेवेदमिति शास्त्रमपार्थकम् ।
दैतेयानुशना प्राह संशयच्छेदनं पुरा ॥ २२ ॥

मूलम्

अनया हतमेवेदमिति शास्त्रमपार्थकम् ।
दैतेयानुशना प्राह संशयच्छेदनं पुरा ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे लोग केवल तर्कको प्रधानता देकर अमुक युक्तिसे शास्त्रकी यह बात कट जाती है; इसलिये यह व्यर्थ है, ऐसा कहते हैं; किंतु यह कथन भी अज्ञानके ही कारण है (अतः तर्कसे शास्त्रका और शास्त्रसे तर्कका बोध न करके दोनोंके सहयोगसे जो कर्तव्य निश्चित हो, उसीका पालन करना चाहिये)। पूर्वकालमें यह संशय-नाशक बात स्वयं शुक्राचार्यने दैत्योंसे कही थी॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ज्ञानमप्यपदिश्यं हि यथा नास्ति तथैव तत्।
तं तथा छिन्नमूलेन सन्नोदयितुमर्हसि ॥ २३ ॥

मूलम्

ज्ञानमप्यपदिश्यं हि यथा नास्ति तथैव तत्।
तं तथा छिन्नमूलेन सन्नोदयितुमर्हसि ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो संशयात्मक ज्ञान है, उसका होना और न होना बराबर है; अतः तुम उस संशयका मूलोच्छेद करके उसे दूर हटा दो (संशयरहित ज्ञानका आश्रय लो)॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनव्यवहितं यो वा नेदं वाक्यमुपाश्नुते।
उग्रायैव हि सृष्टोऽसि कर्मणे न त्वमीक्षसे ॥ २४ ॥

मूलम्

अनव्यवहितं यो वा नेदं वाक्यमुपाश्नुते।
उग्रायैव हि सृष्टोऽसि कर्मणे न त्वमीक्षसे ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यदि तुम मेरे इस नीतियुक्त कथनको नहीं स्वीकार करते हो तो तुम्हारा यह व्यवहार उचित नहीं है; क्योंकि तुम (क्षत्रिय होनेके कारण) उग्र (हिंसापूर्ण) कर्मके लिये ही विधाताद्वारा रचे गये हो। इस बातकी ओर तुम्हारी दृष्टि नहीं जा रही है॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अङ्ग मामन्ववेक्षस्व राजन्याय बुभूषते।
यथा प्रमुच्यते त्वन्यो यदर्थं न प्रमोदते ॥ २५ ॥

मूलम्

अङ्ग मामन्ववेक्षस्व राजन्याय बुभूषते।
यथा प्रमुच्यते त्वन्यो यदर्थं न प्रमोदते ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वत्स युधिष्ठिर! मेरी ओर तो देखो, मैंने क्या किया है। भूमण्डलका राज्य पानेकी इच्छावाले क्षत्रिय राजाओंके साथ मैंने वही बर्ताव किया है, जिससे वे संसारबन्धनसे मुक्त हो जायँ (अर्थात् उन सबको मैंने युद्धमें मारकर स्वर्गलोक भेज दिया।) यद्यपि मेरे इस कार्यका दूसरे लोग अनुमोदन नहीं करते थे—मुझे क्रूर और हिंसक कहकर मेरी निन्दा करते थे (तो भी मैंने किसीकी परवा न करके अपने कर्तव्यका पालन किया, इसी प्रकार तुम अपने कर्तव्यपथपर दृढ़तापूर्वक डटे रहो)॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अजोऽश्वः क्षत्रमित्येतत् सदृशं ब्रह्मणा कृतम्।
तस्मादभीक्ष्णं भूतानां यात्रा काचित् प्रसिद्ध्यति ॥ २६ ॥

मूलम्

अजोऽश्वः क्षत्रमित्येतत् सदृशं ब्रह्मणा कृतम्।
तस्मादभीक्ष्णं भूतानां यात्रा काचित् प्रसिद्ध्यति ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

बकरा, घोड़ा और क्षत्रिय-इन तीनोंको ब्रह्माजीने एकसा बनाया है। इनके द्वारा समस्त प्राणियोंकी बारंबार कोई-न-कोई जीवनयात्रा सिद्ध होती रहती है॥२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यस्त्ववध्यवधे दोषः स वध्यस्यावधे स्मृतः।
सा चैव खलु मर्यादा यामयं परिवर्जयेत् ॥ २७ ॥

मूलम्

यस्त्ववध्यवधे दोषः स वध्यस्यावधे स्मृतः।
सा चैव खलु मर्यादा यामयं परिवर्जयेत् ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अवध्य मनुष्यका वध करनेमें जो दोष माना गया है, वही वध्यका वध न करनेमें भी है। वह दोष ही अकर्तव्यकी वह मर्यादा (सीमा) है, जिसका क्षत्रिय राजाको परित्याग करना चाहिये॥२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मात् तीक्ष्णः प्रजा राजा स्वधर्मे स्थापयेत् ततः।
अन्योन्यं भक्षयन्तो हि प्रचरेयुर्वृका इव ॥ २८ ॥

मूलम्

तस्मात् तीक्ष्णः प्रजा राजा स्वधर्मे स्थापयेत् ततः।
अन्योन्यं भक्षयन्तो हि प्रचरेयुर्वृका इव ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अतः तीक्ष्ण स्वभाववाला राजा ही प्रजाको अपने-अपने धर्ममें स्थापित कर सकता है; अन्यथा प्रजावर्गके सब लोग भेड़ियोंके समान एक दूसरेको लूट-खसोटकर खाते हुए स्वच्छन्द विचरने लगें॥२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यस्य दस्युगणा राष्ट्रे ध्वांक्षा मत्स्यान् जलादिव।
विहरन्ति परस्वानि स वै क्षत्रियपांसनः ॥ २९ ॥

मूलम्

यस्य दस्युगणा राष्ट्रे ध्वांक्षा मत्स्यान् जलादिव।
विहरन्ति परस्वानि स वै क्षत्रियपांसनः ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिसके राज्यमें डाकुओंके दल जलसे मछलियोंको पकड़नेवाले बगुलेके समान पराये धनका अपहरण करते हैं, वह राजा निश्चय ही क्षत्रियकुलका कलंक है॥२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कुलीनान् सचिवान्‌ कृत्वा वेदविद्यासमन्वितान्।
प्रशाधि पृथिवीं राजन् प्रजा धर्मेण पालयन् ॥ ३० ॥

मूलम्

कुलीनान् सचिवान्‌ कृत्वा वेदविद्यासमन्वितान्।
प्रशाधि पृथिवीं राजन् प्रजा धर्मेण पालयन् ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! उत्तम कुलमें उत्पन्न तथा वेदविद्यासे सम्पन्न पुरुषोंको मन्त्री बनाकर प्रजाका धर्मपूर्वक पालन करते हुए तुम इस पृथ्वीका शासन करो॥३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विहीनं कर्मणान्यायं यः प्रगृह्णाति भूमिपः।
उपायस्याविशेषज्ञं तद् वै क्षत्रं नपुंसकम् ॥ ३१ ॥

मूलम्

विहीनं कर्मणान्यायं यः प्रगृह्णाति भूमिपः।
उपायस्याविशेषज्ञं तद् वै क्षत्रं नपुंसकम् ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो राजा सत्कर्मसे रहित, न्यायशून्य तथा कार्यसाधनके उपायोंसे अनभिज्ञ पुरुषको सचिवके रूपमें अपनाता है, वह नपुंसक क्षत्रिय है॥३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नैवोग्रं नैव चानुग्रं धर्मेणेह प्रशस्यते।
उभयं न व्यतिक्रामेदुग्रो भूत्वा मृदुर्भव ॥ ३२ ॥

मूलम्

नैवोग्रं नैव चानुग्रं धर्मेणेह प्रशस्यते।
उभयं न व्यतिक्रामेदुग्रो भूत्वा मृदुर्भव ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिर! राजधर्मके अनुसार केवल उग्रभाव अथवा केवल मृदुभावकी प्रशंसा नहीं की जाती है। उन दोनोंमेंसे किसीका भी परित्याग नहीं करना चाहिये। इसलिये तुम पहले उग्र होकर फिर मृदु होओ॥३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कष्टः क्षत्रियधर्मोऽयं सौहृदं त्वयि मे स्थितम्।
उग्रकर्मणि सृष्टोऽसि तस्माद् राज्यं प्रशाधि वै ॥ ३३ ॥

मूलम्

कष्टः क्षत्रियधर्मोऽयं सौहृदं त्वयि मे स्थितम्।
उग्रकर्मणि सृष्टोऽसि तस्माद् राज्यं प्रशाधि वै ॥ ३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वत्स! यह क्षत्रियधर्म कष्टसाध्य है। तुम्हारे ऊपर मेरा स्नेह है, इसलिये कहता हूँ। विधाताने तुम्हें उग्र कर्मके लिये ही उत्पन्न किया है; इसलिये तुम अपने धर्ममें स्थित होकर राज्यका शासन करो॥३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अशिष्टनिग्रहो नित्यं शिष्टस्य परिपालनम्।
एवं शुक्रोऽब्रवीद् धीमानापत्सु भरतर्षभ ॥ ३४ ॥

मूलम्

अशिष्टनिग्रहो नित्यं शिष्टस्य परिपालनम्।
एवं शुक्रोऽब्रवीद् धीमानापत्सु भरतर्षभ ॥ ३४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतश्रेष्ठ! आपत्तिकालमें भी सदा दुष्टोंका दमन और शिष्ट पुरुषोंका पालन करना चाहिये, ऐसा बुद्धिमान् शुक्राचार्यका कथन है॥३४॥

मूलम् (वचनम्)

युधिष्ठिर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अस्ति चेदिह मर्यादा यामन्यो नाभिलङ्घयेत्।
पृच्छामि त्वां सतां श्रेष्ठ तन्मे ब्रूहि पितामह ॥ ३५ ॥

मूलम्

अस्ति चेदिह मर्यादा यामन्यो नाभिलङ्घयेत्।
पृच्छामि त्वां सतां श्रेष्ठ तन्मे ब्रूहि पितामह ॥ ३५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिरने पूछा— सत्पुरुषोंमें श्रेष्ठ पितामह! इस जगत्‌में यदि कोई ऐसी मर्यादा है, जिसका दूसरा कोई उल्लंघन नहीं कर सकता तो मैं उसके विषयमें आपसे पूछता हूँ। आप वही मुझे बताइये॥३५॥

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्राह्मणानेव सेवेत विद्यावृद्धांस्तपस्विनः ।
श्रुतचारित्रवृत्ताढ्यान् पवित्रं ह्येतदुत्तमम् ॥ ३६ ॥

मूलम्

ब्राह्मणानेव सेवेत विद्यावृद्धांस्तपस्विनः ।
श्रुतचारित्रवृत्ताढ्यान् पवित्रं ह्येतदुत्तमम् ॥ ३६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजीने कहा— राजन्! विद्यामें बढ़े-चढ़े तपस्वी तथा शास्त्रज्ञान, उत्तम चरित्र एवं सदाचारसे सम्पन्न ब्राह्मणोंका ही सेवन करे, यह परम उत्तम एवं पवित्र कार्य है॥३६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

या देवतासु वृत्तिस्ते सास्तु विप्रेषु नित्यदा।
क्रुद्धैर्हि विप्रैः कर्माणि कृतानि बहुधा नृप ॥ ३७ ॥

मूलम्

या देवतासु वृत्तिस्ते सास्तु विप्रेषु नित्यदा।
क्रुद्धैर्हि विप्रैः कर्माणि कृतानि बहुधा नृप ॥ ३७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नरेश्वर! देवताओंके प्रति जो तुम्हारा बर्ताव है, वही भाव और बर्ताव ब्राह्मणोंके प्रति भी सदैव होना चाहिये; क्योंकि क्रोधमें भरे हुए ब्राह्मणोंने अनेक प्रकारके अद्‌भुत कर्म कर डाले हैं॥३७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रीत्या यशो भवेन्मुख्यमप्रीत्या परमं भयम्।
प्रीत्या ह्यमृतवद् विप्राः क्रुद्धाश्चैव विषं यथा ॥ ३८ ॥

मूलम्

प्रीत्या यशो भवेन्मुख्यमप्रीत्या परमं भयम्।
प्रीत्या ह्यमृतवद् विप्राः क्रुद्धाश्चैव विषं यथा ॥ ३८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्राह्मणोंकी प्रसन्नतासे श्रेष्ठ यशका विस्तार होता है। उनकी अप्रसन्नतासे महान् भयकी प्राप्ति होती है। प्रसन्न होनेपर ब्राह्मण अमृतके समान जीवनदायक होते हैं और कुपित होनेपर विषके तुल्य भयंकर हो उठते हैं॥३८॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि आपद्धर्मपर्वणि द्विचत्वारिंशदधिकशततमोऽध्यायः ॥ १४२ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत आपद्धर्मपर्वमें एक सौ बयालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१४२॥