भागसूचना
एकचत्वारिंशदधिकशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
‘ब्राह्मण भयंकर संकटकालमें किस तरह जीवन-निर्वाह करे’ इस विषयमें विश्वामित्र मुनि और चाण्डालका संवाद
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
हीने परमके धर्मे सर्वलोकाभिलङ्घिते।
अधर्मे धर्मतां नीते धर्मे चाधर्मतां गते ॥ १ ॥
मर्यादासु विनष्टासु क्षुभिते धर्मनिश्चये।
राजभिः पीडिते लोके परैर्वापि विशाम्पते ॥ २ ॥
सर्वाश्रमेषु मूढेषु कर्मसूपहतेषु च।
कामाल्लोभाच्च मोहाच्च भयं पश्यत्सु भारत ॥ ३ ॥
अविश्वस्तेषु सर्वेषु नित्यं भीतेषु पार्थिव।
निकृत्या हन्यमानेषु वञ्चयत्सु परस्परम् ॥ ४ ॥
सम्प्रदीप्तेषु देशेषु ब्राह्मणे चातिपीडिते।
अवर्षति च पर्जन्ये मिथो भेदे समुत्थिते ॥ ५ ॥
सर्वस्मिन् दस्युसाद् भूते पृथिव्यामुपजीवने।
केनस्विद् ब्राह्मणो जीवेज्जघन्ये काल आगते ॥ ६ ॥
मूलम्
हीने परमके धर्मे सर्वलोकाभिलङ्घिते।
अधर्मे धर्मतां नीते धर्मे चाधर्मतां गते ॥ १ ॥
मर्यादासु विनष्टासु क्षुभिते धर्मनिश्चये।
राजभिः पीडिते लोके परैर्वापि विशाम्पते ॥ २ ॥
सर्वाश्रमेषु मूढेषु कर्मसूपहतेषु च।
कामाल्लोभाच्च मोहाच्च भयं पश्यत्सु भारत ॥ ३ ॥
अविश्वस्तेषु सर्वेषु नित्यं भीतेषु पार्थिव।
निकृत्या हन्यमानेषु वञ्चयत्सु परस्परम् ॥ ४ ॥
सम्प्रदीप्तेषु देशेषु ब्राह्मणे चातिपीडिते।
अवर्षति च पर्जन्ये मिथो भेदे समुत्थिते ॥ ५ ॥
सर्वस्मिन् दस्युसाद् भूते पृथिव्यामुपजीवने।
केनस्विद् ब्राह्मणो जीवेज्जघन्ये काल आगते ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिरने पूछा— प्रजानाथ! भरतनन्दन! भूपाल-शिरोमणे! जब सब लोगोंके द्वारा धर्मका उल्लंघन होनेके कारण श्रेष्ठ धर्म क्षीण हो चले, अधर्मको धर्म मान लिया जाय और धर्मको अधर्म समझा जाने लगे, सारी मर्यादाएँ नष्ट हो जायँ, धर्मका निश्चय डावाँडोल हो जाय, राजा अथवा शत्रु प्रजाको पीड़ा देने लगें, सभी आश्रम किंकर्तव्यविमूढ़ हो जायँ, धर्म-कर्म नष्ट हो जायँ, काम, लोभ तथा मोहके कारण सबको सर्वत्र भय दिखायी देने लगे, किसीका किसीपर विश्वास न रह जाय, सभी सदा डरते रहें, लोग धोखेसे एक-दूसरेको मारने लगें, सभी आपसमें ठगी करने लगें, देशमें सब ओर आग लगायी जाने लगे, ब्राह्मण अत्यन्त पीड़ित हो जायँ, वृष्टि न हो, परस्पर वैर-विरोध और फूट बढ़ जाय और पृथ्वीपर जीविकाके सारे साधन लुटेरोंके अधीन हो जायँ, तब ऐसा अधम समय उपस्थित होनेपर ब्राह्मण किस उपायसे जीवन-निर्वाह करे?॥१—६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अतितिक्षुः पुत्रपौत्राननुक्रोशान् नराधिप ।
कथमापत्सु वर्तेत तन्मे ब्रूहि पितामह ॥ ७ ॥
मूलम्
अतितिक्षुः पुत्रपौत्राननुक्रोशान् नराधिप ।
कथमापत्सु वर्तेत तन्मे ब्रूहि पितामह ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नरेश्वर! पितामह! यदि ब्राह्मण ऐसी आपत्तिके समय दयावश अपने पुत्र-पौत्रोंका परित्याग करना न चाहे तो वह कैसे जीविका चलावे, यह मुझे बतानेकी कृपा करें॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कथं च राजा वर्तेत लोके कलुषतां गते।
कथमर्थाच्च धर्माच्च न हीयेत परंतप ॥ ८ ॥
मूलम्
कथं च राजा वर्तेत लोके कलुषतां गते।
कथमर्थाच्च धर्माच्च न हीयेत परंतप ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
परंतप! जब लोग पापपरायण हो जायँ, उस अवस्थामें राजा कैसा बर्ताव करे, जिससे वह धर्म और अर्थसे भी भ्रष्ट न हो?॥८॥
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
राजमूला महाबाहो योगक्षेमसुवृष्टयः ।
प्रजासु व्याधयश्चैव मरणं च भयानि च ॥ ९ ॥
मूलम्
राजमूला महाबाहो योगक्षेमसुवृष्टयः ।
प्रजासु व्याधयश्चैव मरणं च भयानि च ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजीने कहा— महाबाहो! प्रजाके योग, क्षेम, उत्तम वृष्टि, व्याधि, मृत्यु और भय—इन सबका मूल कारण राजा ही है॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृतं त्रेतां द्वापरं च कलिश्च भरतर्षभ।
राजमूला इति मतिर्मम नास्त्यत्र संशयः ॥ १० ॥
मूलम्
कृतं त्रेतां द्वापरं च कलिश्च भरतर्षभ।
राजमूला इति मतिर्मम नास्त्यत्र संशयः ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतश्रेष्ठ! सत्ययुग, त्रेता, द्वापर और कलियुग—इन सबका मूल कारण राजा ही है, ऐसा मेरा विचार है। इसकी सत्यतामें मुझे तनिक भी संदेह नहीं है॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मिंस्त्वभ्यागते काले प्रजानां दोषकारके।
विज्ञानबलमास्थाय जीवितव्यं भवेत् तदा ॥ ११ ॥
मूलम्
तस्मिंस्त्वभ्यागते काले प्रजानां दोषकारके।
विज्ञानबलमास्थाय जीवितव्यं भवेत् तदा ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रजाओंके लिये दोष उत्पन्न करनेवाले ऐसे भयानक समयके आनेपर ब्राह्मणको विज्ञानबलका आश्रय लेकर जीवन-निर्वाह करना चाहिये॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् ।
विश्वामित्रस्य संवादं चाण्डालस्य च पक्कणे ॥ १२ ॥
मूलम्
अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् ।
विश्वामित्रस्य संवादं चाण्डालस्य च पक्कणे ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस विषयमें चाण्डालके घरमें चाण्डाल और विश्वामित्रका जो संवाद हुआ था, उस प्राचीन इतिहासका उदाहरण लोग दिया करते हैं॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्रेताद्वापरयोः संधौ तदा दैवविधिक्रमात्।
अनावृष्टिरभूद् घोरा लोके द्वादशवार्षिकी ॥ १३ ॥
मूलम्
त्रेताद्वापरयोः संधौ तदा दैवविधिक्रमात्।
अनावृष्टिरभूद् घोरा लोके द्वादशवार्षिकी ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
त्रेता और द्वापरके संधिकी बात है, दैववश संसारमें बारह वर्षोंतक भयंकर अनावृष्टि हो गयी (वर्षा हुई ही नहीं)॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रजानामतिवृद्धानां युगान्ते समुपस्थिते ।
त्रेताविमोक्षसमये द्वापरप्रतिपादने ॥ १४ ॥
मूलम्
प्रजानामतिवृद्धानां युगान्ते समुपस्थिते ।
त्रेताविमोक्षसमये द्वापरप्रतिपादने ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
त्रेतायुग प्रायः बीत गया था, द्वापरका आरम्भ हो रहा था, प्रजाएँ बहुत बढ़ गयी थीं, जिनके लिये वर्षा बंद हो जानेसे प्रलयकाल-सा उपस्थित हो गया॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न ववर्ष सहस्राक्षः प्रतिलोमोऽभवद् गुरुः।
जगाम दक्षिणं मार्गं सोमो व्यावृत्तलक्षणः ॥ १५ ॥
मूलम्
न ववर्ष सहस्राक्षः प्रतिलोमोऽभवद् गुरुः।
जगाम दक्षिणं मार्गं सोमो व्यावृत्तलक्षणः ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इन्द्रने वर्षा बंद कर दी थी, बृहस्पति प्रतिलोम (वक्री) हो गया था, चन्द्रमा विकृत हो गया था और वह दक्षिण मार्गपर चला गया था॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नावश्यायोऽपि तत्राभूत् कुत एवाभ्रजातयः।
नद्यः संक्षिप्ततोयौघाः किंचिदन्तर्गतास्ततः ॥ १६ ॥
मूलम्
नावश्यायोऽपि तत्राभूत् कुत एवाभ्रजातयः।
नद्यः संक्षिप्ततोयौघाः किंचिदन्तर्गतास्ततः ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन दिनों कुहासा भी नहीं होता था, फिर बादल कहाँसे उत्पन्न होते। नदियोंका जलप्रवाह अत्यन्त क्षीण हो गया और कितनी ही नदियाँ अदृश्य हो गयीं॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सरांसि सरितश्चैव कूपाः प्रस्रवणानि च।
हतत्विषो न लक्ष्यन्ते निसर्गाद् दैवकारितात् ॥ १७ ॥
मूलम्
सरांसि सरितश्चैव कूपाः प्रस्रवणानि च।
हतत्विषो न लक्ष्यन्ते निसर्गाद् दैवकारितात् ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
बड़े-बड़े सरोवर, सरिताएँ, कूप और झरने भी उस दैवविहित अथवा स्वाभाविक अनावृष्टिसे श्रीहीन होकर दिखायी ही नहीं देते थे॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उपशुष्कजलस्थाया विनिवृत्तसभाप्रपा ।
निवृत्तयज्ञस्वाध्याया निर्वषट्कारमङ्गला ॥ १८ ॥
उच्छिन्नकृषिगोरक्षा निवृत्तविपणापणा ।
निवृत्तयूपसम्भारा विप्रणष्टमहोत्सवा ॥ १९ ॥
मूलम्
उपशुष्कजलस्थाया विनिवृत्तसभाप्रपा ।
निवृत्तयज्ञस्वाध्याया निर्वषट्कारमङ्गला ॥ १८ ॥
उच्छिन्नकृषिगोरक्षा निवृत्तविपणापणा ।
निवृत्तयूपसम्भारा विप्रणष्टमहोत्सवा ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
छोटे-छोटे जलाशय सर्वथा सूख गये। जलाभावके कारण पौंसले बंद हो गये। भूतलपर यज्ञ और स्वाध्यायका लोप हो गया। वषट्कार और मांगलिक उत्सवोंका कहीं नाम भी नहीं रह गया। खेती और गोरक्षा चौपट हो गयी, बाजार-हाट बंद हो गये। यूप और यज्ञोंका आयोजन समाप्त हो गया तथा बड़े-बड़े उत्सव नष्ट हो गये॥१८-१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अस्थिसंचयसंकीर्णा महाभूतरवाकुला ।
शून्यभूयिष्ठनगरा दग्धग्रामनिवेशना ॥ २० ॥
मूलम्
अस्थिसंचयसंकीर्णा महाभूतरवाकुला ।
शून्यभूयिष्ठनगरा दग्धग्रामनिवेशना ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सब ओर हड्डियोंके ढेर लग गये। प्राणियोंके महान् आर्तनाद सब ओर व्याप्त हो रहे थे। नगरके अधिकांश भाग उजाड़ हो गये थे तथा गाँव और घर जल गये थे॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्वचिच्चोरैः क्वचिच्छस्त्रैः क्वचिद् राजभिरातुरैः।
परस्परभयाच्चैव शून्यभूयिष्ठनिर्जना ॥ २१ ॥
मूलम्
क्वचिच्चोरैः क्वचिच्छस्त्रैः क्वचिद् राजभिरातुरैः।
परस्परभयाच्चैव शून्यभूयिष्ठनिर्जना ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कहीं चोरोंसे, कहीं अस्त्र-शस्त्रोंसे, कहीं राजाओंसे और कहीं क्षुधातुर मनुष्योंद्वारा उपद्रव खड़ा होनेके कारण तथा पारस्परिक भयसे भी वसुधाका बहुत बड़ा भाग उजाड़ होकर निर्जन बन गया था॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गतदैवतसंस्थाना वृद्धबालविनाकृता ।
गोजाविमहिषीहीना परस्परपराहता ॥ २२ ॥
मूलम्
गतदैवतसंस्थाना वृद्धबालविनाकृता ।
गोजाविमहिषीहीना परस्परपराहता ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
देवालय तथा मठ-मन्दिर आदि संस्थाएँ उठ गयी थीं, बालक और बूढ़े मर गये थे, गाय, भेड़, बकरी और भैंसें प्रायः समाप्त हो गयी थीं, क्षुधातुर प्राणी एक-दूसरेपर आघात करते थे॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हतविप्रा हतारक्षा प्रणष्टौषधिसंचया ।
सर्वभूतरुतप्राया बभूव वसुधा तदा ॥ २३ ॥
मूलम्
हतविप्रा हतारक्षा प्रणष्टौषधिसंचया ।
सर्वभूतरुतप्राया बभूव वसुधा तदा ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्राह्मण नष्ट हो गये थे। रक्षकवृन्दका भी विनाश हो गया था, ओषधियोंके समूह (अनाज और फल आदि) भी नष्ट हो गये थे, वसुधापर सब ओर समस्त प्राणियोंका हाहाकार व्याप्त हो रहा था॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मिन् प्रतिभये काले क्षते धर्मे युधिष्ठिर।
बभूवुः क्षुधिता मर्त्याः खादमानाः परस्परम् ॥ २४ ॥
मूलम्
तस्मिन् प्रतिभये काले क्षते धर्मे युधिष्ठिर।
बभूवुः क्षुधिता मर्त्याः खादमानाः परस्परम् ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिर! ऐसे भयंकर समयमें धर्मका नाश हो जानेके कारण भूखसे पीड़ित हुए मनुष्य एक-दूसरेको खाने लगे॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऋषयो नियमांस्त्यक्त्वा परित्यज्याग्निदेवताः ।
आश्रमान् सम्परित्यज्य पर्यधावन्नितस्ततः ॥ २५ ॥
मूलम्
ऋषयो नियमांस्त्यक्त्वा परित्यज्याग्निदेवताः ।
आश्रमान् सम्परित्यज्य पर्यधावन्नितस्ततः ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अग्निके उपासक ऋषिगण नियम और अग्निहोत्र त्यागकर अपने आश्रमोंको भी छोड़कर भोजनके लिये इधर-उधर दौड़ रहे थे॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वामित्रोऽथ भगवान् महर्षिरनिकेतनः ।
क्षुधापरिगतो धीमान् समन्तात् पर्यधावत ॥ २६ ॥
मूलम्
विश्वामित्रोऽथ भगवान् महर्षिरनिकेतनः ।
क्षुधापरिगतो धीमान् समन्तात् पर्यधावत ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इन्हीं दिनों बुद्धिमान् महर्षि भगवान् विश्वामित्र भूखसे पीड़ित हो घर छोड़कर चारों ओर दौड़ लगा रहे थे॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्यक्त्वा दारांश्च पुत्रांश्च कस्मिंश्च जनसंसदि।
भक्ष्याभक्ष्यसमो भूत्वा निरग्निरनिकेतनः ॥ २७ ॥
मूलम्
त्यक्त्वा दारांश्च पुत्रांश्च कस्मिंश्च जनसंसदि।
भक्ष्याभक्ष्यसमो भूत्वा निरग्निरनिकेतनः ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन्होंने अपनी पत्नी और पुत्रोंको किसी जन-समुदायमें छोड़ दिया और स्वयं अग्निहोत्र तथा आश्रम त्यागकर भक्ष्य और अभक्ष्यमें समान भाव रखते हुए विचरने लगे॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स कदाचित् परिपतन् श्वपचानां निवेशनम्।
हिंस्राणां प्राणिघातानामाससाद वने क्वचित् ॥ २८ ॥
मूलम्
स कदाचित् परिपतन् श्वपचानां निवेशनम्।
हिंस्राणां प्राणिघातानामाससाद वने क्वचित् ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
एक दिन वे किसी वनके भीतर प्राणियोंका वध करनेवाले हिंसक चाण्डालोंकी बस्तीमें गिरते-पड़ते जा पहुँचे॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विभिन्नकलशाकीर्णं श्वचर्मच्छेदनायुतम् ।
वराहखरभग्नास्थिकपालघटसंकुलम् ॥ २९ ॥
मूलम्
विभिन्नकलशाकीर्णं श्वचर्मच्छेदनायुतम् ।
वराहखरभग्नास्थिकपालघटसंकुलम् ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वहाँ चारों ओर टूटे-फूटे घरोंके खपरे और ठीकरे बिखरे पड़े थे, कुत्तोंके चमड़े छेदनेवाले हथियार रखे हुए थे, सूअरों और गदहोंकी टूटी हड्डियाँ, खपड़े और घड़े वहाँ सब ओर भरे दिखायी दे रहे थे॥२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मृतचैलपरिस्तीर्णं निर्माल्यकृतभूषणम् ।
सर्पनिर्मोकमालाभिः कृतचिह्नकुटीमठम् ॥ ३० ॥
मूलम्
मृतचैलपरिस्तीर्णं निर्माल्यकृतभूषणम् ।
सर्पनिर्मोकमालाभिः कृतचिह्नकुटीमठम् ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मुर्दोंके ऊपरसे उतारे गये कपड़े चारों ओर फैलाये गये थे और वहींसे उतारे हुए फूलकी मालाओंसे उन चाण्डालोंके घर सजे हुए थे। चाण्डालोंकी कुटियों और मठोंको सर्पकी केंचुलोंकी मालाओंसे विभूषित एवं चिह्नित किया गया था॥३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कुक्कुटारावबहुलं गर्दभध्वनिनादितम् ।
उद्घोषद्भिः खरैर्वाक्यैः कलहद्भिः परस्परम् ॥ ३१ ॥
मूलम्
कुक्कुटारावबहुलं गर्दभध्वनिनादितम् ।
उद्घोषद्भिः खरैर्वाक्यैः कलहद्भिः परस्परम् ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस पल्लीमें सब ओर मुर्गोंकी ‘कुकुहूकू’ की आवाज गूँज रही थी। गदहोंके रेंकनेकी ध्वनि भी प्रतिध्वनित हो रही थी। वे चाण्डाल आपसमें झगड़ा-फसाद करके कठोर वचनोंद्वारा एक-दूसरेको कोसते हुए कोलाहल मचा रहे थे॥३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उलूकपक्षिध्वनिभिर्देवतायतनैर्वृतम् ।
लोहघण्टापरिष्कारं श्वयूथपरिवारितम् ॥ ३२ ॥
मूलम्
उलूकपक्षिध्वनिभिर्देवतायतनैर्वृतम् ।
लोहघण्टापरिष्कारं श्वयूथपरिवारितम् ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वहाँ कई देवालय थे, जिनके भीतर उल्लू पक्षीकी आवाज गूँजती रहती थी। वहाँके घरोंको लोहेकी घंटियोंसे सजाया गया था और झुंड-के-झुंड कुत्ते उन घरोंको घेरे हुए थे॥३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत् प्रविश्य क्षुधाविष्टो विश्वामित्रो महानृषिः।
आहारान्वेषणे युक्तः परं यत्नं समास्थितः ॥ ३३ ॥
मूलम्
तत् प्रविश्य क्षुधाविष्टो विश्वामित्रो महानृषिः।
आहारान्वेषणे युक्तः परं यत्नं समास्थितः ॥ ३३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस बस्तीमें घुसकर भूखसे पीड़ित हुए महर्षि विश्वामित्र आहारकी खोजमें लगकर उसके लिये महान् प्रयत्न करने लगे॥३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न च क्वचिदविन्दत् स भिक्षमाणोऽपि कौशिकः।
मांसमन्नं फलं मूलमन्यद् वा तत्र किञ्चन ॥ ३४ ॥
मूलम्
न च क्वचिदविन्दत् स भिक्षमाणोऽपि कौशिकः।
मांसमन्नं फलं मूलमन्यद् वा तत्र किञ्चन ॥ ३४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
विश्वामित्र वहाँ घर-घर घूम-घूमकर भीख माँगते फिरे, परंतु कहीं भी उन्हें मांस, अन्न, फल, मूल या दूसरी कोई वस्तु प्राप्त न हो सकी॥३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहो कृच्छ्रं मया प्राप्तमिति निश्चित्य कौशिकः।
पपात भूमौ दौर्बल्यात् तस्मिंश्चाण्डालपक्कणे ॥ ३५ ॥
मूलम्
अहो कृच्छ्रं मया प्राप्तमिति निश्चित्य कौशिकः।
पपात भूमौ दौर्बल्यात् तस्मिंश्चाण्डालपक्कणे ॥ ३५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘अहो! यह तो मुझपर बड़ा भारी संकट आ गया।’ ऐसा सोचते-सोचते विश्वामित्र अत्यन्त दुर्बलताके कारण वहीं एक चाण्डालके घरमें पृथ्वीपर गिर पड़े॥३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स चिन्तयामास मुनिः किं नु मे सुकृतं भवेत्।
कथं वृथा न मृत्युः स्यादिति पार्थिवसत्तम ॥ ३६ ॥
मूलम्
स चिन्तयामास मुनिः किं नु मे सुकृतं भवेत्।
कथं वृथा न मृत्युः स्यादिति पार्थिवसत्तम ॥ ३६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नृपश्रेष्ठ! अब वे मुनि यह विचार करने लगे कि किस तरह मेरा भला होगा? क्या उपाय किया जाय, जिससे अन्नके बिना मेरी व्यर्थ मृत्यु न हो सके?॥३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स ददर्श श्वमांसस्य कुतन्त्रीं विततां मुनिः।
चाण्डालस्य गृहे राजन् सद्यः शस्त्रहतस्य वै ॥ ३७ ॥
मूलम्
स ददर्श श्वमांसस्य कुतन्त्रीं विततां मुनिः।
चाण्डालस्य गृहे राजन् सद्यः शस्त्रहतस्य वै ॥ ३७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! इतने हीमें उन्होंने देखा कि चाण्डालके घरमें तुरंतके शस्त्रद्वारा मारे हुए कुत्तेकी जाँघके मांसका एक बड़ा-सा टुकड़ा पड़ा है॥३७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स चिन्तयामास तदा स्तैन्यं कार्यमितो मया।
न हीदानीमुपायो मे विद्यते प्राणधारणे ॥ ३८ ॥
मूलम्
स चिन्तयामास तदा स्तैन्यं कार्यमितो मया।
न हीदानीमुपायो मे विद्यते प्राणधारणे ॥ ३८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब मुनिने सोचा कि ‘मुझे यहाँसे इस मांसकी चोरी करनी चाहिये; क्योंकि इस समय मेरे लिये अपने प्राणोंकी रक्षाका दूसरा कोई उपाय नहीं है॥३८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आपत्सु विहितं स्तैन्यं विशिष्टसमहीनतः।
विप्रेण प्राणरक्षार्थं कर्तव्यमिति निश्चयः ॥ ३९ ॥
मूलम्
आपत्सु विहितं स्तैन्यं विशिष्टसमहीनतः।
विप्रेण प्राणरक्षार्थं कर्तव्यमिति निश्चयः ॥ ३९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘आपत्तिकालमें प्राणरक्षाके लिये ब्राह्मणको श्रेष्ठ, समान तथा हीन मनुष्यके घरसे चोरी कर लेना उचित है, यह शास्त्रका निश्चित विधान है॥३९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हीनादादेयमादौ स्यात् समानात् तदनन्तरम्।
असम्भवे वाऽऽददीत विशिष्टादपि धार्मिकात् ॥ ४० ॥
मूलम्
हीनादादेयमादौ स्यात् समानात् तदनन्तरम्।
असम्भवे वाऽऽददीत विशिष्टादपि धार्मिकात् ॥ ४० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘पहले हीन पुरुषके घरसे उसे भक्ष्य पदार्थकी चोरी करनी चाहिये। वहाँ काम न चले तो अपने समान व्यक्तिके घरसे खानेकी वस्तु लेनी चाहिये, यदि वहाँ भी अभीष्टसिद्धि न हो सके तो अपनेसे विशिष्ट धर्मात्मा पुरुषके यहाँसे वह खाद्य वस्तुका अपहरण कर ले॥४०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सोऽहमन्त्यावसायानां हराम्येनां प्रतिग्रहात् ।
न स्तैन्यदोषं पश्यामि हरिष्यामि श्वजाघनीम् ॥ ४१ ॥
मूलम्
सोऽहमन्त्यावसायानां हराम्येनां प्रतिग्रहात् ।
न स्तैन्यदोषं पश्यामि हरिष्यामि श्वजाघनीम् ॥ ४१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘अतः इन चाण्डालोंके घरसे मैं यह कुत्तेकी जाँघ चुराये लेता हूँ। किसीके यहाँ दान लेनेसे अधिक दोष मुझे इस चोरीमें नहीं दिखायी देता है; अतः अवश्य ही इसका अपहरण करूँगा’॥४१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतां बुद्धिं समास्थाय विश्वामित्रो महामुनिः।
तस्मिन् देशे स सुष्वाप श्वपचो यत्र भारत ॥ ४२ ॥
मूलम्
एतां बुद्धिं समास्थाय विश्वामित्रो महामुनिः।
तस्मिन् देशे स सुष्वाप श्वपचो यत्र भारत ॥ ४२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतनन्दन! ऐसा निश्चय करके महामुनि विश्वामित्र उसी स्थानपर सो गये, जहाँ चाण्डाल रहा करते थे॥४२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स विगाढां निशां दृष्ट्वा सुप्ते चाण्डालपक्कणे।
शनैरुत्थाय भगवान् प्रविवेश कुटीमठम् ॥ ४३ ॥
मूलम्
स विगाढां निशां दृष्ट्वा सुप्ते चाण्डालपक्कणे।
शनैरुत्थाय भगवान् प्रविवेश कुटीमठम् ॥ ४३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब प्रगाढ़ अन्धकारसे युक्त आधी रात हो गयी और चाण्डालके घरके सभी लोग सो गये, तब भगवान् विश्वामित्र धीरेसे उठकर उस चाण्डालकी कुटियामें घुस गये॥४३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स सुप्त इव चाण्डालः श्लेष्मापिहितलोचनः।
परिभिन्नस्वरो रूक्षः प्रोवाचाप्रियदर्शनः ॥ ४४ ॥
मूलम्
स सुप्त इव चाण्डालः श्लेष्मापिहितलोचनः।
परिभिन्नस्वरो रूक्षः प्रोवाचाप्रियदर्शनः ॥ ४४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह चाण्डाल सोया हुआ जान पड़ता था। उसकी आँखें कीचड़से बंद-सी हो गयी थीं; परंतु वह जागता था। वह देखनेमें बड़ा भयानक था। स्वभावका रूखा भी प्रतीत होता था। मुनिको आया देख वह फटे हुए स्वरमें बोल उठा॥४४॥
मूलम् (वचनम्)
श्वपच उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
कः कुतन्त्रीं घटयति सुप्ते चाण्डालपक्कणे।
जागर्मि नात्र सुप्तोऽस्मि हतोऽसीति च दारुणः ॥ ४५ ॥
विश्वामित्रस्ततो भीतः सहसा तमुवाच ह।
तत्र व्रीडाकुलमुखः सोद्वेगस्तेन कर्मणा ॥ ४६ ॥
मूलम्
कः कुतन्त्रीं घटयति सुप्ते चाण्डालपक्कणे।
जागर्मि नात्र सुप्तोऽस्मि हतोऽसीति च दारुणः ॥ ४५ ॥
विश्वामित्रस्ततो भीतः सहसा तमुवाच ह।
तत्र व्रीडाकुलमुखः सोद्वेगस्तेन कर्मणा ॥ ४६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
चाण्डालने कहा— अरे! चाण्डालोंके घरोंमें तो सब लोग सो गये हैं, फिर कौन यहाँ आकर कुत्तेकी जाँघ लेनेकी चेष्टा कर रहा है? मैं जागता हूँ, सोया नहीं हूँ। मैं देखता हूँ, तू मारा गया। उस क्रूर स्वभाववाले चाण्डालने जब ऐसी बात कही, तब विश्वामित्र उससे डर गये। उनके मुखपर लज्जा घिर आयी। वे उस नीच कर्मसे उद्विग्न हो सहसा बोल उठे—॥४५-४६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वामित्रोऽहमायुष्मन्नागतोऽहं बुभुक्षितः ।
मा वधीर्मम सद्बुद्धे यदि सम्यक् प्रपश्यसि ॥ ४७ ॥
मूलम्
विश्वामित्रोऽहमायुष्मन्नागतोऽहं बुभुक्षितः ।
मा वधीर्मम सद्बुद्धे यदि सम्यक् प्रपश्यसि ॥ ४७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘आयुष्मन्! मैं विश्वामित्र हूँ। भूखसे पीड़ित होकर यहाँ आया हूँ। उत्तम बुद्धिवाले चाण्डाल! यदि तू ठीक-ठीक देखता और समझता है तो मेरा वध न कर’॥४७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
चाण्डालस्तद् वचः श्रुत्वा महर्षेर्भावितात्मनः।
शयनादुपसम्भ्रान्त उद्ययौ प्रति तं ततः ॥ ४८ ॥
मूलम्
चाण्डालस्तद् वचः श्रुत्वा महर्षेर्भावितात्मनः।
शयनादुपसम्भ्रान्त उद्ययौ प्रति तं ततः ॥ ४८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पवित्र अन्तःकरणवाले उस महर्षिका वह वचन सुनकर चाण्डाल घबराकर अपनी शय्यासे उठा और उनके पास चला गया॥४८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स विसृज्याश्रु नेत्राभ्यां बहुमानात् कृताञ्जलिः।
उवाच कौशिकं रात्रौ ब्रह्मन् किं ते चिकीर्षितम् ॥ ४९ ॥
मूलम्
स विसृज्याश्रु नेत्राभ्यां बहुमानात् कृताञ्जलिः।
उवाच कौशिकं रात्रौ ब्रह्मन् किं ते चिकीर्षितम् ॥ ४९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसने बड़े आदरके साथ हाथ जोड़कर नेत्रोंसे आँसू बहाते हुए वहाँ विश्वामित्रसे कहा—‘ब्रह्मन्! इस रातके समय आपकी यह कैसी चेष्टा है?—आप क्या करना चाहते हैं?’॥४९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वामित्रस्तु मातङ्गमुवाच परिसान्त्वयन् ।
क्षुधितोऽहं गतप्राणो हरिष्यामि श्वजाघनीम् ॥ ५० ॥
मूलम्
विश्वामित्रस्तु मातङ्गमुवाच परिसान्त्वयन् ।
क्षुधितोऽहं गतप्राणो हरिष्यामि श्वजाघनीम् ॥ ५० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
विश्वामित्रने चाण्डालको सान्त्वना देते हुए कहा—‘भाई! मैं बहुत भूखा हूँ। मेरे प्राण जा रहे हैं; अतः मैं यह कुत्तेकी जाँघ ले जाऊँगा॥५०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्षुधितः कलुषं यातो नास्ति ह्रीरशनार्थिनः।
क्षुच्च मां दूषयत्यत्र हरिष्यामि श्वजाघनीम् ॥ ५१ ॥
मूलम्
क्षुधितः कलुषं यातो नास्ति ह्रीरशनार्थिनः।
क्षुच्च मां दूषयत्यत्र हरिष्यामि श्वजाघनीम् ॥ ५१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘भूखके मारे यह पापकर्म करनेपर उतर आया हूँ। भोजनकी इच्छावाले भूखे मनुष्यको कुछ भी करनेमें लज्जा नहीं आती। भूख ही मुझे कलंकित कर रही है, अतः मैं यह कुत्तेकी जाँघ ले जाऊँगा॥५१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अवसीदन्ति मे प्राणाः श्रुतिर्मे नश्यति क्षुधा।
दुर्बलो नष्टसंज्ञश्च भक्ष्याभक्ष्यविवर्जितः ॥ ५२ ॥
मूलम्
अवसीदन्ति मे प्राणाः श्रुतिर्मे नश्यति क्षुधा।
दुर्बलो नष्टसंज्ञश्च भक्ष्याभक्ष्यविवर्जितः ॥ ५२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मेरे प्राण शिथिल हो रहे हैं। क्षुधासे मेरी श्रवणशक्ति नष्ट होती जा रही है। मैं दुबला हो गया हूँ। मेरी चेतना लुप्त-सी हो रही है; अतः अब मुझमें भक्ष्य और अभक्ष्यका विचार नहीं रह गया है॥५२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सोऽधर्मं बुद्ध्यमानोऽपि हरिष्यामि श्वजाघनीम्।
अटन् भैक्ष्यं न विन्दामि यदा युष्माकमालये ॥ ५३ ॥
तदा बुद्धिः कृता पापे हरिष्यामि श्वजाघनीम्।
मूलम्
सोऽधर्मं बुद्ध्यमानोऽपि हरिष्यामि श्वजाघनीम्।
अटन् भैक्ष्यं न विन्दामि यदा युष्माकमालये ॥ ५३ ॥
तदा बुद्धिः कृता पापे हरिष्यामि श्वजाघनीम्।
अनुवाद (हिन्दी)
‘मैं जानता हूँ कि यह अधर्म है तो भी यह कुत्तेकी जाँघ ले जाऊँगा। मैं तुमलोगोंके घरोंपर घूम-घूमकर माँगनेपर भी जब भीख नहीं पा सका हूँ, तब मैंने यह पापकर्म करनेका विचार किया है; अतः कुत्तेकी जाँघ ले जाऊँगा॥५३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अग्निर्मुखं पुरोधाश्च देवानां शुचिषाड् विभुः ॥ ५४ ॥
यथावत् सर्वभूग् ब्रह्मा तथा मां विद्धि धर्मतः।
मूलम्
अग्निर्मुखं पुरोधाश्च देवानां शुचिषाड् विभुः ॥ ५४ ॥
यथावत् सर्वभूग् ब्रह्मा तथा मां विद्धि धर्मतः।
अनुवाद (हिन्दी)
‘अग्निदेव देवताओंके मुख हैं, पुरोहित हैं, पवित्र द्रव्य ही ग्रहण करते हैं और महान् प्रभावशाली हैं तथापि वे जैसे अवस्थाके अनुसार सर्वभक्षी हो गये हैं, उसी प्रकार मैं ब्राह्मण होकर भी सर्वभक्षी बनूँगा; अतः तुम धर्मतः मुझे ब्राह्मण ही समझो’॥५४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तमुवाच स चाण्डालो महर्षे शृणु मे वचः ॥ ५५ ॥
श्रुत्वा तत् त्वं तथाऽऽतिष्ठ यथा धर्मो न हीयते।
मूलम्
तमुवाच स चाण्डालो महर्षे शृणु मे वचः ॥ ५५ ॥
श्रुत्वा तत् त्वं तथाऽऽतिष्ठ यथा धर्मो न हीयते।
अनुवाद (हिन्दी)
तब चाण्डालने उनसे कहा—‘महर्षे! मेरी बात सुनिये और उसे सुनकर ऐसा काम कीजिये, जिससे आपका धर्म नष्ट न हो॥५५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
धर्मं तवापि विप्रर्षे शृणु यत् ते ब्रवीम्यहम् ॥ ५६ ॥
शृगालादधमं श्वानं प्रवदन्ति मनीषिणः।
तस्याप्यधम उद्देशः शरीरस्य श्वजाघनी ॥ ५७ ॥
मूलम्
धर्मं तवापि विप्रर्षे शृणु यत् ते ब्रवीम्यहम् ॥ ५६ ॥
शृगालादधमं श्वानं प्रवदन्ति मनीषिणः।
तस्याप्यधम उद्देशः शरीरस्य श्वजाघनी ॥ ५७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘ब्रह्मर्षे! मैं आपके लिये भी जो धर्मकी ही बात बता रहा हूँ, उसे सुनिये। मनीषी पुरुष कहते हैं कि कुत्ता सियारसे भी अधम होता है। कुत्तेके शरीरमें भी उसकी जाँघका भाग सबसे अधम होता है॥५६-५७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नेदं सम्यग् व्यवसितं महर्षे धर्मगर्हितम्।
चाण्डालस्वस्य हरणमभक्ष्यस्य विशेषतः ॥ ५८ ॥
मूलम्
नेदं सम्यग् व्यवसितं महर्षे धर्मगर्हितम्।
चाण्डालस्वस्य हरणमभक्ष्यस्य विशेषतः ॥ ५८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘महर्ष! आपने जो निश्चय किया है, यह ठीक नहीं है, चाण्डालके धनका, उसमें भी विशेषरूपसे अभक्ष्य पदार्थका अपहरण धर्मकी दृष्टिसे अत्यन्त निन्दित है॥५८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
साध्वन्यमनुपश्य त्वमुपायं प्राणधारणे ।
न मांसलोभात् तपसो नाशस्ते स्यान्महामुने ॥ ५९ ॥
मूलम्
साध्वन्यमनुपश्य त्वमुपायं प्राणधारणे ।
न मांसलोभात् तपसो नाशस्ते स्यान्महामुने ॥ ५९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘महामुने! अपने प्राणोंकी रक्षाके लिये कोई दूसरा अच्छा-सा उपाय सोचिये। मांसके लोभसे आपकी तपस्याका नाश नहीं होना चाहिये॥५९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जानता विहितं धर्मं न कार्यो धर्मसंकरः।
मा स्म धर्मं परित्याक्षीस्त्वं हि धर्मभृतां वरः ॥ ६० ॥
मूलम्
जानता विहितं धर्मं न कार्यो धर्मसंकरः।
मा स्म धर्मं परित्याक्षीस्त्वं हि धर्मभृतां वरः ॥ ६० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘आप शास्त्रविहित धर्मको जानते हैं, अतः आपके द्वारा धर्मसंकरताका प्रचार नहीं होना चाहिये। धर्मका त्याग न कीजिये; क्योंकि आप धर्मात्माओंमें श्रेष्ठ समझे जाते हैं’॥६०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वामित्रस्ततो राजन्नित्युक्तो भरतर्षभ ।
क्षुधार्तः प्रत्युवाचेदं पुनरेव महामुनिः ॥ ६१ ॥
मूलम्
विश्वामित्रस्ततो राजन्नित्युक्तो भरतर्षभ ।
क्षुधार्तः प्रत्युवाचेदं पुनरेव महामुनिः ॥ ६१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतश्रेष्ठ! नरेश्वर! चाण्डालके ऐसा कहनेपर क्षुधासे पीड़ित हुए महामुनि विश्वामित्रने उसे इस प्रकार उत्तर दिया—॥६१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निराहारस्य सुमहान् मम कालोऽभिधावतः।
न विद्यतेऽप्युपायश्च कश्चिन्मे प्राणधारणे ॥ ६२ ॥
मूलम्
निराहारस्य सुमहान् मम कालोऽभिधावतः।
न विद्यतेऽप्युपायश्च कश्चिन्मे प्राणधारणे ॥ ६२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मैं भोजन न मिलनेके कारण उसकी प्राप्तिके लिये इधर-उधर दौड़ रहा हूँ। इसी प्रयत्नमें एक लंबा समय व्यतीत हो गया, किंतु मेरे प्राणोंकी रक्षाके लिये अबतक कोई उपाय हाथ नहीं आया॥६२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
येन येन विशेषण कर्मणा येन केनचित्।
अभ्युज्जीवेत् साद्यमानः समर्थो धर्ममाचरेत् ॥ ६३ ॥
मूलम्
येन येन विशेषण कर्मणा येन केनचित्।
अभ्युज्जीवेत् साद्यमानः समर्थो धर्ममाचरेत् ॥ ६३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जो भूखों मर रहा हो, वह जिस-जिस उपायसे अथवा जिस किसी भी कर्मसे सम्भव हो, अपने जीवनकी रक्षा करे, फिर समर्थ होनेपर वह धर्मका आचरण कर सकता है॥६३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऐन्द्रो धर्मः क्षत्रियाणां ब्राह्मणानामथाग्निकः।
ब्रह्मवह्निर्मम बलं भक्ष्यामि शमयन् क्षुधाम् ॥ ६४ ॥
मूलम्
ऐन्द्रो धर्मः क्षत्रियाणां ब्राह्मणानामथाग्निकः।
ब्रह्मवह्निर्मम बलं भक्ष्यामि शमयन् क्षुधाम् ॥ ६४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘इन्द्रदेवताका जो पालनरूप धर्म है, वही क्षत्रियोंका भी है और अग्निदेवका जो सर्वभक्षित्व नामक गुण है, वह ब्राह्मणोंका है। मेरा बल वेदरूपी अग्नि है; अतः मैं क्षुधाकी शान्तिके लिये सब कुछ भक्षण करूँगा॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथा यथैव जीवेद्धि तत् कर्तव्यमहेलया।
जीवितं मरणाच्छ्रेयो जीवन् धर्ममवाप्नुयात् ॥ ६५ ॥
मूलम्
यथा यथैव जीवेद्धि तत् कर्तव्यमहेलया।
जीवितं मरणाच्छ्रेयो जीवन् धर्ममवाप्नुयात् ॥ ६५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जैसे-जैसे ही जीवन सुरक्षित रहे, उसे बिना अवहेलनाके करना चाहिये। मरनेसे जीवित रहना श्रेष्ठ है, क्योंकि जीवित पुरुष पुनः धर्मका आचरण कर सकता है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सोऽहं जीवितमाकाङ्क्षन्नभक्ष्यस्यापि भक्षणम् ।
व्यवस्ये बुद्धिपूर्वं वै तद् भवाननुमन्यताम् ॥ ६६ ॥
मूलम्
सोऽहं जीवितमाकाङ्क्षन्नभक्ष्यस्यापि भक्षणम् ।
व्यवस्ये बुद्धिपूर्वं वै तद् भवाननुमन्यताम् ॥ ६६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘इसलिये मैंने जीवनकी आकांक्षा रखकर इस अभक्ष्य पदार्थका भी भक्षण कर लेनेका बुद्धिपूर्वक निश्चय किया है। इसका तुम अनुमोदन करो॥६६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बलवन्तं करिष्यामि प्रणोत्स्याम्यशुभानि तु।
तपोभिर्विद्यया चैव ज्योतींषीव महत्तमः ॥ ६७ ॥
मूलम्
बलवन्तं करिष्यामि प्रणोत्स्याम्यशुभानि तु।
तपोभिर्विद्यया चैव ज्योतींषीव महत्तमः ॥ ६७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जैसे सूर्य आदि ज्योतिर्मय ग्रह महान् अन्धकारका नाश कर देते है, उसी प्रकार मैं पुनः तप और विद्याद्वारा जब अपने-आपको सबल कर लूँगा, तब सारे अशुभ कर्मोंका नाश कर डालूँगा’॥६७॥
मूलम् (वचनम्)
श्वपच उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
नैतत् खादन् प्राप्नुते दीर्घमायु-
र्नैव प्राणान्नामृतस्येव तृप्तिः ।
भिक्षामन्यां भिक्ष मा ते मनोऽस्तु
श्वभक्षणे श्वा ह्यभक्ष्यो द्विजानाम् ॥ ६८ ॥
मूलम्
नैतत् खादन् प्राप्नुते दीर्घमायु-
र्नैव प्राणान्नामृतस्येव तृप्तिः ।
भिक्षामन्यां भिक्ष मा ते मनोऽस्तु
श्वभक्षणे श्वा ह्यभक्ष्यो द्विजानाम् ॥ ६८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
चाण्डालने कहा— मुने! इसे खाकर कोई बहुत बड़ी आयु नहीं प्राप्त कर सकता। न तो इससे प्राणशक्ति प्राप्त होती है और न अमृतके समान तृप्ति ही होती है; अतः आप कोई दूसरी भिक्षा माँगिये। कुत्तेका मांस खानेकी ओर आपका मन नहीं जाना चाहिये। कुत्ता द्विजोंके लिये अभक्ष्य है॥६८॥
मूलम् (वचनम्)
विश्वामित्र उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
न दुर्भिक्षे सुलभं मांसमन्यत्
श्वपाक मन्ये नच मेऽस्ति वित्तम्।
क्षुधार्तश्चाहमगतिर्निराशः
श्वमांसे चास्मिन् षड्रसान् साधु मन्ये ॥ ६९ ॥
मूलम्
न दुर्भिक्षे सुलभं मांसमन्यत्
श्वपाक मन्ये नच मेऽस्ति वित्तम्।
क्षुधार्तश्चाहमगतिर्निराशः
श्वमांसे चास्मिन् षड्रसान् साधु मन्ये ॥ ६९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
विश्वामित्र बोले— श्वपाक! सारे देशमें अकाल पड़ा है; अतः दूसरा कोई मांस सुलभ नहीं होगा, यह मेरी दृढ़ मान्यता है। मेरे पास धन नहीं है कि मैं भोज्य पदार्थ खरीद सकूँ, इधर भूखसे मेरा बुरा हाल है। मैं निराश्रय तथा निराश हूँ। मैं समझता हूँ कि मुझे इस कुत्तेके मांसमें ही षड्रस भोजनका आनन्द भलीभाँति प्राप्त होगा॥६९॥
मूलम् (वचनम्)
श्वपच उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
पञ्च पञ्चनखा भक्ष्या ब्रह्मक्षत्रस्य वै विशः।
यथा शास्त्रं प्रमाणं ते माभक्ष्ये मानसं कृथाः ॥ ७० ॥
मूलम्
पञ्च पञ्चनखा भक्ष्या ब्रह्मक्षत्रस्य वै विशः।
यथा शास्त्रं प्रमाणं ते माभक्ष्ये मानसं कृथाः ॥ ७० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
चाण्डालने कहा— ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यके लिये पाँच नखोंवाले पाँच प्रकारके प्राणी आपत्कालमें भक्ष्य बताये गये हैं। यदि आप शास्त्रको प्रमाण मानते हैं तो अभक्ष्य पदार्थकी ओर मन न ले जाइये॥७०॥
मूलम् (वचनम्)
विश्वामित्र उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अगस्त्येनासुरो जग्धो वातापिः क्षुधितेन वै।
अहमापद्गतः क्षुत्तो भक्षयिष्ये श्वजाघनीम् ॥ ७१ ॥
मूलम्
अगस्त्येनासुरो जग्धो वातापिः क्षुधितेन वै।
अहमापद्गतः क्षुत्तो भक्षयिष्ये श्वजाघनीम् ॥ ७१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
विश्वामित्र बोले— भूखे हुए महर्षि अगस्त्येने वातापि नामक असुरको खा लिया था। मैं तो क्षुधाके कारण भारी आपत्तिमें पड़ गया हूँ; अतः यह कुत्तेकी जाँघ अवश्य खाऊँगा॥७१॥
मूलम् (वचनम्)
श्वपच उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
भिक्षामन्यामाहरेति न च कर्तुमिहार्हसि।
न नूनं कार्यमेतद् वै हर कामं श्वजाघनीम् ॥ ७२ ॥
मूलम्
भिक्षामन्यामाहरेति न च कर्तुमिहार्हसि।
न नूनं कार्यमेतद् वै हर कामं श्वजाघनीम् ॥ ७२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
चाण्डालने कहा— मुने! आप दूसरी भिक्षा ले आइये। इसे ग्रहण करना आपके लिये उचित नहीं है। आपकी इच्छा हो तो यह कुत्तेकी जाँघ ले जाइये; परंतु मैं निश्चितरूपसे कहता हूँ कि आपको इसका भक्षण नहीं करना चाहिये॥७२॥
मूलम् (वचनम्)
विश्वामित्र उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
शिष्टा वै कारणं धर्मे तद्वृत्तमनुवर्तये।
परां मेध्याशनामेनां भक्ष्यां मन्ये श्वजाघनीम् ॥ ७३ ॥
मूलम्
शिष्टा वै कारणं धर्मे तद्वृत्तमनुवर्तये।
परां मेध्याशनामेनां भक्ष्यां मन्ये श्वजाघनीम् ॥ ७३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
विश्वामित्र बोले— शिष्टपुरुष ही धर्मकी प्रवृत्तिके कारण हैं। मैं उन्हींके आचारका अनुसरण करता हूँ; अतः इस कुत्तेकी जाँघको मैं पवित्र भोजनके समान ही भक्षणीय मानता हूँ॥७३॥
मूलम् (वचनम्)
श्वपच उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
असता यत् समाचीर्णं न च धर्मः सनातनः।
नाकार्यमिह कार्यं वै मा छलेनाशुभं कृथाः ॥ ७४ ॥
मूलम्
असता यत् समाचीर्णं न च धर्मः सनातनः।
नाकार्यमिह कार्यं वै मा छलेनाशुभं कृथाः ॥ ७४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
चाण्डालने कहा— किसी असाधु पुरुषने यदि कोई अनुचित कार्य किया हो तो वह सनातन धर्म नहीं माना जायगा; अतः आप यहाँ न करनेयोग्य कर्म न कीजिये। कोई बहाना लेकर पाप करनेपर उतारू न हो जाइये॥
मूलम् (वचनम्)
विश्वामित्र उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
न पातकं नावमतमृषिः सन् कर्तुमर्हति।
समौ च श्वमृगौ मन्ये तस्माद् भोक्ष्ये श्वजाघनीम् ॥ ७५ ॥
मूलम्
न पातकं नावमतमृषिः सन् कर्तुमर्हति।
समौ च श्वमृगौ मन्ये तस्माद् भोक्ष्ये श्वजाघनीम् ॥ ७५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
विश्वामित्र बोले— कोई श्रेष्ठ ऋषि ऐसा कर्म नहीं कर सकता, जो पातक हो अथवा जिसकी निन्दा की गयी हो। कुत्ते और मृग दोनों ही पशु होनेके कारण मेरे मतमें समान हैं, अतः मैं यह कुत्तेकी जाँघ अवश्य खाऊँगा॥७५॥
मूलम् (वचनम्)
श्वपच उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
यद् ब्राह्मणार्थे कृतमर्थितेन
तेनर्षिणा तदवस्थाधिकारे ।
स वै धर्मो यत्र न पापमस्ति
सर्वैरुपायैर्गुरवो हि रक्ष्याः ॥ ७६ ॥
मूलम्
यद् ब्राह्मणार्थे कृतमर्थितेन
तेनर्षिणा तदवस्थाधिकारे ।
स वै धर्मो यत्र न पापमस्ति
सर्वैरुपायैर्गुरवो हि रक्ष्याः ॥ ७६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
चाण्डालने कहा— महर्षि अगस्त्यने ब्राह्मणोंकी रक्षाके लिये प्रार्थना की जानेपर वैसी अवस्थामें वातापिका भक्षणरूप कार्य किया था (उनके वैसा करनेसे बहुतसे ब्राह्मणोंकी रक्षा हो गयी; अन्यथा वह राक्षस उन सबको खा जाता; अतः महर्षिका वह कार्य धर्म ही था)। धर्म वही है, जिसमें लेशमात्र भी पाप न हो। ब्राह्मण गुरुजन हैं; अतः सभी उपायोंसे उनकी एवं उनके धर्मकी रक्षा करनी चाहिये॥७६॥
मूलम् (वचनम्)
विश्वामित्र उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
मित्रं च मे ब्राह्मणस्यायमात्मा
प्रियश्च मे पूज्यतमश्च लोके।
तं धर्तुकामोऽहमिमां जिहीर्षे
नृशंसानामीदृशानां न बिभ्ये ॥ ७७ ॥
मूलम्
मित्रं च मे ब्राह्मणस्यायमात्मा
प्रियश्च मे पूज्यतमश्च लोके।
तं धर्तुकामोऽहमिमां जिहीर्षे
नृशंसानामीदृशानां न बिभ्ये ॥ ७७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
विश्वामित्र बोले— (यदि अगस्त्यने ब्राह्मणोंकी रक्षाके लिये वह कार्य किया था तो मैं भी मित्रकी रक्षाके लिये उसे करूँगा) यह ब्राह्मणका शरीर मेरा मित्र ही है। यही जगत्में मेरे लिये परम प्रिय और आदरणीय है। इसीको जीवित रखनेके लिये मैं यह कुत्तेकी जाँघ ले जाना चाहता हूँ, अतः ऐसे नृशंस कर्मोंसे मुझे तनिक भी भय नहीं होता है॥७७॥
मूलम् (वचनम्)
श्वपच उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
कामं नरा जीवितं संत्यजन्ति
न चाभक्ष्ये क्वचित् कुर्वन्ति बुद्धिम्।
सर्वान् कामान् प्राप्नुवन्तीह विद्वन्
प्रियस्व कामं सहितः क्षुधैव ॥ ७८ ॥
मूलम्
कामं नरा जीवितं संत्यजन्ति
न चाभक्ष्ये क्वचित् कुर्वन्ति बुद्धिम्।
सर्वान् कामान् प्राप्नुवन्तीह विद्वन्
प्रियस्व कामं सहितः क्षुधैव ॥ ७८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
चाण्डालने कहा— विद्वन्! अच्छे पुरुष अपने प्राणोंका परित्याग भले ही कर दें, परंतु वे कभी अभक्ष्य-भक्षणका विचार नहीं करते हैं। इसीसे वे अपनी सम्पूर्ण कामनाओंको प्राप्त कर लेते हैं; अतः आप भी भूखके साथ ही—उपवासद्वारा ही अपनी मनःकामनाकी पूर्ति कीजिये॥७८॥
मूलम् (वचनम्)
विश्वामित्र उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्थाने भवेत् संशयः प्रेत्यभावे
निःसंशयः कर्मणां वै विनाशः।
अहं पुनर्व्रतनित्यः शमात्मा
मूलं रक्ष्यं भक्षयिष्याम्यभक्ष्यम् ॥ ७९ ॥
मूलम्
स्थाने भवेत् संशयः प्रेत्यभावे
निःसंशयः कर्मणां वै विनाशः।
अहं पुनर्व्रतनित्यः शमात्मा
मूलं रक्ष्यं भक्षयिष्याम्यभक्ष्यम् ॥ ७९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
विश्वामित्र बोले— यदि उपवास करके प्राण दे दिया जाय तो मरनेके बाद क्या होगा? यह संशययुक्त बात है; परंतु ऐसा करनेसे पुण्यकर्मोंका विनाश होगा, इसमें संशय नहीं है, (क्योंकि शरीर ही धर्माचरणका मूल है) अतः मैं जीवनरक्षाके पश्चात् फिर प्रतिदिन व्रत एवं शम, दम आदिमें तत्पर रहकर पापकर्मोंका प्रायश्चित्त कर लूँगा। इस समय तो धर्मके मूलभूत शरीरकी ही रक्षा करना आवश्यक है; अतः मैं इस अभक्ष्य पदार्थका भक्षण करूँगा॥७९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बुद्ध्यात्मके व्यक्तमस्तीति पुण्यं
मोहात्मके यत्र यथा श्वभक्ष्ये।
यद्यप्येतत् संशयात्मा चरामि
नाहं भविष्यामि यथा त्वमेव ॥ ८० ॥
मूलम्
बुद्ध्यात्मके व्यक्तमस्तीति पुण्यं
मोहात्मके यत्र यथा श्वभक्ष्ये।
यद्यप्येतत् संशयात्मा चरामि
नाहं भविष्यामि यथा त्वमेव ॥ ८० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह कुत्तेका मांस-भक्षण दो प्रकारसे हो सकता है—एक बुद्धि और विचारपूर्वक तथा दूसरा अज्ञान एवं आसक्तिपूर्वक। बुद्धि एवं विचारद्वारा सोचकर धर्मके मूल तथा ज्ञानप्राप्तिके साधनभूत शरीरकी रक्षामें पुण्य है, यह बात स्वतः स्पष्ट हो जाती है। इसी तरह मोह एवं आसक्तिपूर्वक उस कार्यमें प्रवृत्त होनेसे दोषका होना भी स्पष्ट ही है। यद्यपि मैं मनमें संशय लेकर यह कार्य करने जा रहा हूँ तथापि मेरा विश्वास है कि मैं इस मांसको खाकर तुम्हारे-जैसा चाण्डाल नहीं बन जाऊँगा। (तपस्याद्वारा इसके दोषका मार्जन कर लूँगा)॥८०॥
मूलम् (वचनम्)
श्वपच उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
गोपनीयमिदं दुःखमिति मे निश्चिता मतिः।
दुष्कृतोऽब्राह्मणः सत्रं यस्त्वामहमुपालभे ॥ ८१ ॥
मूलम्
गोपनीयमिदं दुःखमिति मे निश्चिता मतिः।
दुष्कृतोऽब्राह्मणः सत्रं यस्त्वामहमुपालभे ॥ ८१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
चाण्डालने कहा— यह कुत्तेका मांस खाना आपके लिये अत्यन्त दुःखदायक पाप है। इससे आपको बचना चाहिये। यह मेरा निश्चित विचार है, इसीलिये मैं महान् पापी और ब्राह्मणेतर होनेपर भी आपको बारंबार उलाहना दे रहा हूँ। अवश्य ही यह धर्मका उपदेश करना मेरे लिये धूर्ततापूर्ण चेष्टा ही है॥८१॥
मूलम् (वचनम्)
विश्वामित्र उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
पिबन्त्येवोदकं गावो मण्डूकेषु रुवत्स्वपि।
न तेऽधिकारो धर्मेऽस्ति मा भूरात्मप्रशंसकः ॥ ८२ ॥
मूलम्
पिबन्त्येवोदकं गावो मण्डूकेषु रुवत्स्वपि।
न तेऽधिकारो धर्मेऽस्ति मा भूरात्मप्रशंसकः ॥ ८२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
विश्वामित्र बोले— मेढकोंके टर्र-टर्र करते रहनेपर भी गौएँ जलाशयोंमें जल पीती ही हैं। (वैसे ही तुम्हारे मना करनेपर भी मैं तो यह अभक्ष्य-भक्षण करूँगा ही)। तुम्हें धर्मोपदेश देनेका कोई अधिकार नहीं है; अतः तुम अपनी प्रशंसा करनेवाले न बनो॥८२॥
मूलम् (वचनम्)
श्वपच उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुहृद् भूत्वानुशासे त्वां कृपा हि त्वयि मे द्विज।
यदिदं श्रेय आधत्स्व मा लोभात् पातकं कृथाः ॥ ८३ ॥
मूलम्
सुहृद् भूत्वानुशासे त्वां कृपा हि त्वयि मे द्विज।
यदिदं श्रेय आधत्स्व मा लोभात् पातकं कृथाः ॥ ८३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
चाण्डालने कहा— ब्रह्मन्! मैं तो आपका हितैषी सुहृद् बनकर ही यह धर्माचरणकी सलाह दे रहा हूँ; क्योंकि आपपर मुझे दया आ रही है। यह जो कल्याणकी बात बता रहा हूँ, इसे आप ग्रहण करें। लोभवश पाप न करें॥
मूलम् (वचनम्)
विश्वामित्र उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुहृन्मे त्वं सुखेप्सुश्चेदापदो मां समुद्धर।
जानेऽहं धर्मतोऽऽत्मानं शौनीमुत्सृज जाघनीम् ॥ ८४ ॥
मूलम्
सुहृन्मे त्वं सुखेप्सुश्चेदापदो मां समुद्धर।
जानेऽहं धर्मतोऽऽत्मानं शौनीमुत्सृज जाघनीम् ॥ ८४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
विश्वामित्र बोले— भैया! यदि तुम मेरे हितैषी सृहृद् हो और मुझे सुख देना चाहते हो तो इस विपत्तिसे मेरा उद्धार करो। मैं अपने धर्मको जानता हूँ। तुम तो यह कुत्तेकी जाँघ मुझे दे दो॥८४॥
मूलम् (वचनम्)
श्वपच उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
नैवोत्सहे भवतो दातुमेतां
नोपेक्षितुं ह्रियमाणं स्वमन्नम् ।
उभौ स्यावः पापलोकावलिप्तौ
दाता चाहं ब्राह्मणस्त्वं प्रतीच्छन् ॥ ८५ ॥
मूलम्
नैवोत्सहे भवतो दातुमेतां
नोपेक्षितुं ह्रियमाणं स्वमन्नम् ।
उभौ स्यावः पापलोकावलिप्तौ
दाता चाहं ब्राह्मणस्त्वं प्रतीच्छन् ॥ ८५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
चाण्डालने कहा— ब्रह्मन्! मैं यह अभक्ष्य वस्तु आपको नहीं दे सकता और मेरे इस अन्नका आपके द्वारा अपहरण हो, इसकी उपेक्षा भी नहीं कर सकता। इसे देनेवाला मैं और लेनेवाले आप ब्राह्मण दोनों ही पापलिप्त होकर नरकमें पड़ेंगे॥८५॥
मूलम् (वचनम्)
विश्वामित्र उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अद्याहमेतद् वृजिनं कर्म कृत्वा
जीवंश्चरिष्यामि महापवित्रम् ।
स पूतात्मा धर्ममेवाभिपत्स्ये
यदेतयोर्गुरु तद् वै ब्रवीहि ॥ ८६ ॥
मूलम्
अद्याहमेतद् वृजिनं कर्म कृत्वा
जीवंश्चरिष्यामि महापवित्रम् ।
स पूतात्मा धर्ममेवाभिपत्स्ये
यदेतयोर्गुरु तद् वै ब्रवीहि ॥ ८६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
विश्वामित्र बोले— आज यह पापकर्म करके भी यदि मैं जीवित रहा तो परम पवित्र धर्मका अनुष्ठान करूँगा। इससे मेरे तन, मन पवित्र हो जायँगे और मैं धर्मका ही फल प्राप्त करूँगा। जीवित रहकर धर्माचरण करना और उपवास करके प्राण देना—इन दोनोंमें कौन बड़ा है, यह मुझे बताओ॥८६॥
मूलम् (वचनम्)
श्वपच उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
आत्मैव साक्षी कुलधर्मकृत्ये
त्वमेव जानासि यदत्र दुष्कृतम्।
यो ह्याद्रियाद् भक्ष्यमिति श्वमांसं
मन्ये न तस्यास्ति विवर्जनीयम् ॥ ८७ ॥
मूलम्
आत्मैव साक्षी कुलधर्मकृत्ये
त्वमेव जानासि यदत्र दुष्कृतम्।
यो ह्याद्रियाद् भक्ष्यमिति श्वमांसं
मन्ये न तस्यास्ति विवर्जनीयम् ॥ ८७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
चाण्डालने कहा— किस कुलके लिये कौन-सा कार्य धर्म है, इस विषयमें यह आत्मा ही साक्षी है। इस अभक्ष्य-भक्षणमें जो पाप है, उसे आप भी जानते हैं। मेरी समझमें जो कुत्तेके मांसको भक्षणीय बताकर उसका आदर करे, उसके लिये इस संसारमें कुछ भी त्याज्य नहीं है॥८७॥
मूलम् (वचनम्)
विश्वामित्र उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
उपादाने खादने चास्ति दोषः
कार्यात्यये नित्यमत्रापवादः ।
यस्मिन् हिंसा नानृतं वाच्यलेशो-
ऽभक्ष्यक्रिया यत्र न तद्गरीयः ॥ ८८ ॥
मूलम्
उपादाने खादने चास्ति दोषः
कार्यात्यये नित्यमत्रापवादः ।
यस्मिन् हिंसा नानृतं वाच्यलेशो-
ऽभक्ष्यक्रिया यत्र न तद्गरीयः ॥ ८८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
विश्वामित्र बोले— चाण्डाल! मैं इसे मानता हूँ कि तुमसे दान लेने और इस अभक्ष्य वस्तुको खानेमें दोष है फिर भी जहाँ न खानेसे प्राण जानेकी सम्भावना हो, वहाँके लिये शास्त्रोंमें सदा ही अपवाद वचन मिलते हैं। जिसमें हिंसा और असत्यका तो दोष है ही नहीं, लेशमात्र निन्दारूप दोष है। प्राण जानेके अवसरोंपर भी जो अभक्ष्य-भक्षणका निषेध ही करनेवाले वचन हैं, वे गुरुतर अथवा आदरणीय नहीं हैं॥८८॥
मूलम् (वचनम्)
श्वपच उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
यद्येष हेतुस्तव खादने स्या-
न्न ते वेदः कारणं नार्यधर्मः।
तस्माद् भक्ष्येऽभक्षणे वा द्विजेन्द्र
दोषं न पश्यामि यथेदमत्र ॥ ८९ ॥
मूलम्
यद्येष हेतुस्तव खादने स्या-
न्न ते वेदः कारणं नार्यधर्मः।
तस्माद् भक्ष्येऽभक्षणे वा द्विजेन्द्र
दोषं न पश्यामि यथेदमत्र ॥ ८९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
चाण्डालने कहा— द्विजेन्द्र! यदि इस अभक्ष्य वस्तु-को खानेमें आपके लिये यह प्राणरक्षारूपी हेतु ही प्रधान है तब तो आपके मतमें न वेद प्रमाण है और न श्रेष्ठ पुरुषोंका आचार-धर्म ही। अतः मैं आपके लिये भक्ष्य वस्तुके अभक्षणमें अथवा अभक्ष्य वस्तुके भक्षणमें कोई दोष नहीं देख रहा हूँ, जैसा कि यहाँ आपका इस मांसके लिये यह महान् आग्रह देखा जाता है॥८९॥
मूलम् (वचनम्)
विश्वामित्र उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
नैवातिपापं भक्ष्यमाणस्य दृष्टं
सुरां तु पीत्वा पततीति शब्दः।
अन्योन्यकार्याणि यथा तथैव
न पापमात्रेण कृतं हिनस्ति ॥ ९० ॥
मूलम्
नैवातिपापं भक्ष्यमाणस्य दृष्टं
सुरां तु पीत्वा पततीति शब्दः।
अन्योन्यकार्याणि यथा तथैव
न पापमात्रेण कृतं हिनस्ति ॥ ९० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
विश्वामित्र बोले— अखाद्य वस्तु खानेवालेको ब्रह्महत्या आदिके समान महान् पातक लगता हो, ऐसा कोई शास्त्रीय वचन देखनेमें नहीं आता। हाँ, शराब पीकर ब्राह्मण पतित हो जाता है, ऐसा शास्त्रवाक्य स्पष्टरूपसे उपलब्ध होता है; अतः वह सुरापान अवश्य त्याज्य है। जैसे दूसरे-दूसरे कर्म निषिद्ध हैं, वैसा ही अभक्ष्य-भक्षण भी है। आपत्तिके समय एक बार किये हुए किसी सामान्य पापसे किसीके आजीवन किये हुए पुण्यकर्मका नाश नहीं होता॥९०॥
मूलम् (वचनम्)
श्वपच उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अस्थानतो हीनतः कुत्सिताद् वा
तद् विद्वांसं बाधते साधुवृत्तम्।
श्वानं पुनर्यो लभतेऽभिषङ्गात्
तेनापि दण्डः सहितव्य एव ॥ ९१ ॥
मूलम्
अस्थानतो हीनतः कुत्सिताद् वा
तद् विद्वांसं बाधते साधुवृत्तम्।
श्वानं पुनर्यो लभतेऽभिषङ्गात्
तेनापि दण्डः सहितव्य एव ॥ ९१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
चाण्डालने कहा— जो अयोग्य स्थानसे, अनुचित कर्मसे तथा निन्दित पुरुषसे कोई निषिद्ध वस्तु लेना चाहता है, उस विद्वान्को उसका सदाचार ही वैसा करनेसे रोकता है (अतः आपको तो ज्ञानी और धर्मात्मा होनेके कारण स्वयं ही ऐसे निन्द्य कर्मसे दूर रहना चाहिये); परंतु जो बारंबार अत्यन्त आग्रह करके कुत्तेका मांस ग्रहण कर रहा है, उसीको इसका दण्ड भी सहन करना चाहिये (मेरा इसमें कोई दोष नहीं है)॥९१॥
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमुक्त्वा निववृते मातङ्गः कौशिकं तदा।
विश्वामित्रो जहारैव कृतबुद्धिः श्वजाघनीम् ॥ ९२ ॥
मूलम्
एवमुक्त्वा निववृते मातङ्गः कौशिकं तदा।
विश्वामित्रो जहारैव कृतबुद्धिः श्वजाघनीम् ॥ ९२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजी कहते हैं— युधिष्ठिर! ऐसा कहकर चाण्डाल मुनिको मना करनेके कार्यसे निवृत्त हो गया। विश्वामित्र तो उसे लेनेका निश्चय कर चुके थे; अतः कुत्तेकी जाँघ ले ही गये॥९२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो जग्राह स श्वाङ्गं जीवितार्थी महामुनिः।
सदारस्तामुपाहृत्य वने भोक्तुमियेष सः ॥ ९३ ॥
मूलम्
ततो जग्राह स श्वाङ्गं जीवितार्थी महामुनिः।
सदारस्तामुपाहृत्य वने भोक्तुमियेष सः ॥ ९३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जीवित रहनेकी इच्छावाले उन महामुनिने कुत्तेके शरीरके उस एक भागको ग्रहण कर लिया और उसे वनमें ले जाकर पत्नीसहित खानेका विचार किया॥९३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथास्य बुद्धिरभवद् विधिनाहं श्वजाघनीम्।
भक्षयामि यथाकामं पूर्वं संतर्प्य देवताः ॥ ९४ ॥
मूलम्
अथास्य बुद्धिरभवद् विधिनाहं श्वजाघनीम्।
भक्षयामि यथाकामं पूर्वं संतर्प्य देवताः ॥ ९४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इतनेहीमें उनके मनमें यह विचार उठा कि मैं कुत्तेकी जाँघके इस मांसको विधिपूर्वक पहले देवताओंको अर्पण करूँगा और उन्हें संतुष्ट करके फिर अपनी इच्छानुसार उसे खाऊँगा॥९४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततोऽग्निमुपसंहृत्य ब्राह्मेण विधिना मुनिः।
ऐन्द्राग्नेयेन विधिना चरुं श्रपयत स्वयम् ॥ ९५ ॥
मूलम्
ततोऽग्निमुपसंहृत्य ब्राह्मेण विधिना मुनिः।
ऐन्द्राग्नेयेन विधिना चरुं श्रपयत स्वयम् ॥ ९५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ऐसा सोचकर मुनिने वेदोक्त विधिसे अग्निकी स्थापना करके इन्द्र और अग्निदेवताके उद्देश्यसे स्वयं ही चरु पकाकर तैयार किया॥९५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः समारभत् कर्म दैवं पित्र्यं च भारत।
आहूय देवानिन्द्रादीन् भागं भागं विधिक्रमात् ॥ ९६ ॥
मूलम्
ततः समारभत् कर्म दैवं पित्र्यं च भारत।
आहूय देवानिन्द्रादीन् भागं भागं विधिक्रमात् ॥ ९६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतनन्दन! फिर उन्होंने देवकर्म और पितृकर्म आरम्भ किया। इन्द्र आदि देवताओंका आवाहन करके उनके लिये क्रमशः विधिपूर्वक पृथक्-पृथक् भाग अर्पित किया॥९६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतस्मिन्नेव काले तु प्रववर्ष स वासवः।
संजीवयन् प्रजाः सर्वा जनयामास चौषधीः ॥ ९७ ॥
मूलम्
एतस्मिन्नेव काले तु प्रववर्ष स वासवः।
संजीवयन् प्रजाः सर्वा जनयामास चौषधीः ॥ ९७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसी समय इन्द्रने समस्त प्रजाको जीवनदान देते हुए बड़ी भारी वर्षा की और अन्न आदि ओषधियोंको उत्पन्न किया॥९७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वामित्रोऽपि भगवांस्तपसा दग्धकिल्बिषः ।
कालेन महता सिद्धिमवाप परमाद्भुताम् ॥ ९८ ॥
मूलम्
विश्वामित्रोऽपि भगवांस्तपसा दग्धकिल्बिषः ।
कालेन महता सिद्धिमवाप परमाद्भुताम् ॥ ९८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान् विश्वामित्र भी दीर्घकालतक निराहार व्रत एवं तपस्या करके अपने सारे पाप दग्ध कर चुके थे; अतः उन्हें अत्यन्त अद्भुत सिद्धि प्राप्त हुई॥९८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स संहृत्य च तत् कर्म अनास्वाद्य च तद्धविः।
तोषयामास देवांश्च पितॄंश्च द्विजसत्तमः ॥ ९९ ॥
मूलम्
स संहृत्य च तत् कर्म अनास्वाद्य च तद्धविः।
तोषयामास देवांश्च पितॄंश्च द्विजसत्तमः ॥ ९९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन द्विजश्रेष्ठ मुनिने वह कर्म समाप्त करके उस हविष्यका आस्वादन किये बिना ही देवताओं और पितरोंको संतुष्ट कर दिया और उन्हींकी कृपासे पवित्र भोजन प्राप्त करके उसके द्वारा जीवनकी रक्षा की॥९९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं विद्वानदीनात्मा व्यसनस्थो जिजीविषुः।
सर्वोपायैरुपायज्ञो दीनमात्मानमुद्धरेत् ॥ १०० ॥
मूलम्
एवं विद्वानदीनात्मा व्यसनस्थो जिजीविषुः।
सर्वोपायैरुपायज्ञो दीनमात्मानमुद्धरेत् ॥ १०० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! इस प्रकार संकटमें पड़कर जीवनकी रक्षा चाहनेवाले विद्वान् पुरुषको दीनचित्त न होकर कोई उपाय ढूँढ़ निकालना चाहिये और सभी उपायोंसे अपने आपका आपत्कालमें परिस्थितिसे उद्धार करना चाहिये॥१००॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतां बुद्धिं समास्थाय जीवितव्यं सदा भवेत्।
जीवन् पुण्यमवाप्नोति पुरुषो भद्रमश्नुते ॥ १०१ ॥
मूलम्
एतां बुद्धिं समास्थाय जीवितव्यं सदा भवेत्।
जीवन् पुण्यमवाप्नोति पुरुषो भद्रमश्नुते ॥ १०१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस बुद्धिका सहारा लेकर सदा जीवित रहनेका प्रयत्न करना चाहिये; क्योंकि जीवित रहनेवाला पुरुष पुण्य करनेका अवसर पाता और कल्याणका भागी होता है॥१०१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मात् कौन्तेय विदुषा धर्माधर्मविनिश्चये।
बुद्धिमास्थाय लोकेऽस्मिन् वर्तितव्यं कृतात्मना ॥ १०२ ॥
मूलम्
तस्मात् कौन्तेय विदुषा धर्माधर्मविनिश्चये।
बुद्धिमास्थाय लोकेऽस्मिन् वर्तितव्यं कृतात्मना ॥ १०२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अतः कुन्तीनन्दन! अपने मनको वशमें रखनेवाले विद्वान् पुरुषको चाहिये कि वह इस जगत्में धर्म और अधर्मका निर्णय करनेके लिये अपनी ही विशुद्ध बुद्धिका आश्रय लेकर यथायोग्य बर्ताव करे॥१०२॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि आपद्धर्मपर्वणि विश्वामित्रश्वपचसंवादे एकचत्वारिंशदधिकशततमोऽध्यायः ॥ १४१ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत आपद्धर्मपर्वमें विश्वामित्र और चाण्डालका संवादविषयक एकसौ इकतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१४१॥