१४० कणिकोपदेशे

भागसूचना

चत्वारिंशदधिकशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

भारद्वाज कणिकका सौराष्ट्रदेशके राजाको कूटनीतिका उपदेश

मूलम् (वचनम्)

युधिष्ठिर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

युगक्षयात् परिक्षीणो धर्मे लोके च भारत।
दस्युभिः पीड्यमाने च कथं स्थेयं पितामह ॥ १ ॥

मूलम्

युगक्षयात् परिक्षीणो धर्मे लोके च भारत।
दस्युभिः पीड्यमाने च कथं स्थेयं पितामह ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिरने पूछा— भरतनन्दन! पितामह! सत्ययुग, त्रेता और द्वापर-ये तीनों युग प्रायः समाप्त हो रहे हैं, इसलिये जगत्‌में धर्मका क्षय हो चला है। डाकू और लुटेरे इस धर्ममें और भी बाधा डाल रहे हैं; ऐसे समयमें किस तरह रहना चाहिये?॥१॥

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अत्र ते वर्तयिष्यामि नीतिमापत्सु भारत।
उत्सृज्यापि घृणां काले यथा वर्तेत भूमिपः ॥ २ ॥

मूलम्

अत्र ते वर्तयिष्यामि नीतिमापत्सु भारत।
उत्सृज्यापि घृणां काले यथा वर्तेत भूमिपः ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजीने कहा— भरतनन्दन! ऐसे समयमें मैं तुम्हें आपत्तिकालकी वह नीति बता रहा हूँ, जिसके अनुसार भूमिपालको दयाका परित्याग करके भी समयोचित बर्ताव करना चाहिये॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् ।
भारद्वाजस्य संवादं राज्ञः शत्रुंजयस्य च ॥ ३ ॥

मूलम्

अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् ।
भारद्वाजस्य संवादं राज्ञः शत्रुंजयस्य च ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस विषयमें भारद्वाज कणिक तथा राजा शत्रुंजयके संवादरूप एक प्रचीन इतिहासका उदाहरण दिया जाता है॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

राजा शत्रुंजयो नाम सौवीरेषु महारथः।
भारद्वाजमुपागम्य पप्रच्छार्थविनिश्चयम् ॥ ४ ॥

मूलम्

राजा शत्रुंजयो नाम सौवीरेषु महारथः।
भारद्वाजमुपागम्य पप्रच्छार्थविनिश्चयम् ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सौवीरदेशमें शत्रुंजय नामसे प्रसिद्ध एक महारथी राजा थे। उन्होंने भारद्वाज कणिकके पास जाकर अपने कर्तव्यका निश्चय करनेके लिये उनसे इस प्रकार प्रश्न किया—॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अलब्धस्य कथं लिप्सा लब्धं केन विवर्धते।
वर्धितं पाल्यते केन पालितं प्रणयेत् कथम् ॥ ५ ॥

मूलम्

अलब्धस्य कथं लिप्सा लब्धं केन विवर्धते।
वर्धितं पाल्यते केन पालितं प्रणयेत् कथम् ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘अप्राप्त वस्तुकी प्राप्ति कैसे होती है? प्राप्त द्रव्यकी वृद्धि किस प्रकार हो सकती है? बढ़े हुए द्रव्यकी रक्षा किससे की जाती है? और उस सुरक्षित द्रव्यका सदुपयोग कैसे किया जाना चाहिये?’॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मै विनिश्चितार्थाय परिपृष्टोऽर्थनिश्चयम् ।
उवाच ब्राह्मणो वाक्यमिदं हेतुमदुत्तमम् ॥ ६ ॥

मूलम्

तस्मै विनिश्चितार्थाय परिपृष्टोऽर्थनिश्चयम् ।
उवाच ब्राह्मणो वाक्यमिदं हेतुमदुत्तमम् ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजा शत्रुंजयको शास्त्रका तात्पर्य निश्चितरूपसे ज्ञात था। उन्होंने जब कर्तव्य-निश्चयके लिये प्रश्न उपस्थित किया, तब ब्राह्मण भारद्वाज कणिकने यह युक्तियुक्त उत्तम वचन बोलना आस्मभ किया—॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नित्यमुद्यतदण्डः स्यान्नित्यं विवृतपौरुषः ।
अच्छिद्रश्छिद्रदर्शी च परेषां विवरानुगः ॥ ७ ॥

मूलम्

नित्यमुद्यतदण्डः स्यान्नित्यं विवृतपौरुषः ।
अच्छिद्रश्छिद्रदर्शी च परेषां विवरानुगः ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘राजाको सर्वदा दण्ड देनेके लिये उद्यत रहना चाहिये और सदा ही पुरुषार्थ प्रकट करना चाहिये। राजा अपनेमें छिद्र अर्थात् दुर्बलता न रहने दे। शत्रुपक्षके छिद्र या दुर्बलतापर सदा ही दृष्टि रखे और यदि शत्रुओंकी दुर्बलताका पता चल जाय तो उनपर आक्रमण कर दे॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नित्यमुद्यतदण्डस्य भृशमुद्विजते नरः ।
तस्मात् सर्वाणि भूतानि दण्डेनैव प्रसाधयेत् ॥ ८ ॥

मूलम्

नित्यमुद्यतदण्डस्य भृशमुद्विजते नरः ।
तस्मात् सर्वाणि भूतानि दण्डेनैव प्रसाधयेत् ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जो सदा दण्ड देनेके लिये उद्यत रहता है, उससे प्रजाजन बहुत डरते हैं, इसलिये समस्त प्राणियोंको दण्डके द्वारा ही काबूमें करे॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं दण्डं प्रशंसन्ति पण्डितास्तत्त्वदर्शिनः।
तस्माच्चतुष्टये तस्मिन् प्रधानो दण्ड उच्यते ॥ ९ ॥

मूलम्

एवं दण्डं प्रशंसन्ति पण्डितास्तत्त्वदर्शिनः।
तस्माच्चतुष्टये तस्मिन् प्रधानो दण्ड उच्यते ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘इस प्रकार तत्त्वदर्शी विद्वान् दण्डकी प्रशंसा करते हैं; अतः साम, दान आदि चारों उपायोंमें दण्डको ही प्रधान बताया जाता है॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

छिन्नमूले त्वधिष्ठाने सर्वेषां जीवनं हतम्।
कथं हि शाखास्तिष्ठेयुश्छिन्नमूले वनस्पतौ ॥ १० ॥

मूलम्

छिन्नमूले त्वधिष्ठाने सर्वेषां जीवनं हतम्।
कथं हि शाखास्तिष्ठेयुश्छिन्नमूले वनस्पतौ ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘यदि मूल आधार नष्ट हो जाय तो उसके आश्रयसे जीवननिर्वाह करनेवाले सभी शत्रुओंका जीवन नष्ट हो जाता है। यदि वृक्षकी जड़ काट दी जाय तो उसकी शाखाएँ कैसे रह सकती हैं?॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मूलमेवादितश्छिन्द्यात् परपक्षस्य पण्डितः ।
ततः सहायान् पक्षं च मूलमेवानुसाधयेत् ॥ ११ ॥

मूलम्

मूलमेवादितश्छिन्द्यात् परपक्षस्य पण्डितः ।
ततः सहायान् पक्षं च मूलमेवानुसाधयेत् ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘विद्वान् पुरुष पहले शत्रुपक्षके मूलका ही उच्छेद कर डाले। तत्पश्चात् उसके सहायकों और पक्षपातियोंको भी उस मूलके पथका ही अनुसरण करावे॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुमन्त्रितं सुविक्रान्तं सुयुद्धं सुपलायितम्।
आपदास्पदकाले तु कुर्वीत न विचारयेत् ॥ १२ ॥

मूलम्

सुमन्त्रितं सुविक्रान्तं सुयुद्धं सुपलायितम्।
आपदास्पदकाले तु कुर्वीत न विचारयेत् ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘संकटकाल उपस्थित होनेपर राजा सुन्दर मन्त्रणा, उत्तम पराक्रम एवं उत्साहपूर्वक युद्ध करे तथा अवसर आ जाय तो सुन्दर ढंगसे पलायन भी करे। आपत्कालके समय आवश्यक कर्म ही करना चाहिये, पर सोच-विचार नहीं करना चाहिये॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वाङ्‌मात्रेण विनीतः स्याद् हृदयेन यथा क्षुरः।
श्लक्ष्णपूर्वाभिभाषी च कामक्रोधौ विवर्जयेत् ॥ १३ ॥

मूलम्

वाङ्‌मात्रेण विनीतः स्याद् हृदयेन यथा क्षुरः।
श्लक्ष्णपूर्वाभिभाषी च कामक्रोधौ विवर्जयेत् ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘राजा केवल बातचीतमें ही अत्यन्त विनयशील हो, हृदयको छूरेके समान तीखा बनाये रखे; पहले मुसकराकर मीठे वचन बोले तथा काम-क्रोधको त्याग दे॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सपत्नसहिते कार्ये कृत्वा सन्धिं न विश्वसेत्।
अपक्रामेत् ततः शीघ्रं कृतकार्यो विचक्षणः ॥ १४ ॥

मूलम्

सपत्नसहिते कार्ये कृत्वा सन्धिं न विश्वसेत्।
अपक्रामेत् ततः शीघ्रं कृतकार्यो विचक्षणः ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘शत्रुके साथ किये जानेवाले समझौते आदि कार्यमें संधि करके भी उसपर विश्वास न करे। अपना काम बना लेनेपर बुद्धिमान् पुरुष शीघ्र ही वहाँसे हट जाय॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शत्रुं च मित्ररूपेण सान्त्वेनैवाभिसान्त्वयेत्।
नित्यशश्चोद्विजेत् तस्माद् गृहात् सर्पयुतादिव ॥ १५ ॥

मूलम्

शत्रुं च मित्ररूपेण सान्त्वेनैवाभिसान्त्वयेत्।
नित्यशश्चोद्विजेत् तस्माद् गृहात् सर्पयुतादिव ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘शत्रुको उसका मित्र बनकर मीठे वचनोंसे ही सान्त्वना देता रहे; परंतु जैसे सर्पयुक्त गृहसे मनुष्य डरता है, उसी प्रकार उस शत्रुसे भी सदा उद्विग्न रहे॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यस्य बुद्धिः परिभवेत् तमतीतेन सान्त्वयेत्।
अनागतेन दुष्प्रज्ञं प्रत्युत्पन्नेन पण्डितम् ॥ १६ ॥

मूलम्

यस्य बुद्धिः परिभवेत् तमतीतेन सान्त्वयेत्।
अनागतेन दुष्प्रज्ञं प्रत्युत्पन्नेन पण्डितम् ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जिसकी बुद्धि संकटमें पड़कर शोकाभिभूत हो जाय, उसे भूतकालकी बातें (राजा नल तथा भगवान् श्रीराम आदिके जीवन-वृत्तान्त) सुनाकर सान्त्वना दे, जिसकी बुद्धि अच्छी नहीं है, उसे भविष्यमें लाभकी आशा दिलाकर तथा विद्वान् पुरुषको तत्काल ही धन आदि देकर शान्त करे॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अञ्जलिं शपथं सान्त्वं प्रणम्य शिरसा वदेत्।
अश्रुप्रमार्जनं चैव कर्तव्यं भूतिमिच्छता ॥ १७ ॥

मूलम्

अञ्जलिं शपथं सान्त्वं प्रणम्य शिरसा वदेत्।
अश्रुप्रमार्जनं चैव कर्तव्यं भूतिमिच्छता ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘ऐश्वर्य चाहनेवाले राजाको चाहिये कि वह अवसर देखकर शत्रुके सामने हाथ जोड़े, शपथ खाय, आश्वासन दे और चरणोंमें सिर झुकाकर बातचीत करे। इतना ही नहीं, वह धीरज देकर उसके आँसूतक पोंछे॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वहेदमित्रं स्कन्धेन यावत्कालस्य पर्ययः।
प्राप्तकालं तु विज्ञाय भिन्द्याद् घटमिवाश्मनि ॥ १८ ॥

मूलम्

वहेदमित्रं स्कन्धेन यावत्कालस्य पर्ययः।
प्राप्तकालं तु विज्ञाय भिन्द्याद् घटमिवाश्मनि ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जबतक समय बदलकर अपने अनुकूल न हो जाय, तबतक शत्रुको कंधेपर बिठाकर ढोना पड़े तो वह भी करे; परंतु जब अनुकूल समय आ जाय, तब उसे उसी प्रकार नष्ट कर दे, जैसे घड़ेको पत्थरपर पटककर फोड़ दिया जाता है॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मुहूर्तमपि राजेन्द्र तिन्दुकालातवज्ज्वलेत् ।
न तुषाग्निरिवानर्चिर्धूमायेत चिरं नरः ॥ १९ ॥

मूलम्

मुहूर्तमपि राजेन्द्र तिन्दुकालातवज्ज्वलेत् ।
न तुषाग्निरिवानर्चिर्धूमायेत चिरं नरः ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘राजेन्द्र! दो ही घड़ी सही, मनुष्य तिन्दुककी लकड़ीकी मशालके समान जोर-जोरसे प्रज्वलित हो उठे (शत्रुके सामने घोर पराक्रम प्रकट करे), दीर्घकालतक भूसीकी आगके समान बिना ज्वालाके ही धूआँ न उठावे (मन्द पराक्रमका परिचय न दे)॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नानार्थिकोऽर्थसम्बन्धं कृतघ्नेन समाचरेत् ।
अर्थी तु शक्यते भोक्तुं कृतकार्योऽवमन्यते।
तस्मात् सर्वाणि कार्याणि सावशेषाणि कारयेत् ॥ २० ॥

मूलम्

नानार्थिकोऽर्थसम्बन्धं कृतघ्नेन समाचरेत् ।
अर्थी तु शक्यते भोक्तुं कृतकार्योऽवमन्यते।
तस्मात् सर्वाणि कार्याणि सावशेषाणि कारयेत् ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘अनेक प्रकारके प्रयोजन रखनेवाला मनुष्य कृतघ्नके साथ आर्थिक सम्बन्ध न जोड़े, किसीका भी काम पूरा न करे, क्योंकि जो अर्थी (प्रयोजन-सिद्धिकी इच्छावाला) होता है, उससे तो बारंबार काम लिया जा सकता है; परंतु जिसका प्रयोजन सिद्ध हो जाता है, वह अपने उपकारी पुरुषकी उपेक्षा कर देता है; इसलिये दूसरोंके सारे कार्य (जो अपने द्वारा होनेवाले हों) अधूरे ही रखने चाहिये॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कोकिलस्य वराहस्य मेरोः शून्यस्य वेश्मनः।
नटस्य भक्तिमित्रस्य यच्छ्रेयस्तत् समाचरेत् ॥ २१ ॥

मूलम्

कोकिलस्य वराहस्य मेरोः शून्यस्य वेश्मनः।
नटस्य भक्तिमित्रस्य यच्छ्रेयस्तत् समाचरेत् ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘कोयल, सूअर, सुमेरु पर्वत, शून्यगृह, नट तथा अनुरक्त सुहृद्—इनमें जो श्रेष्ठ गुण या विशेषताएँ हैं, उन्हें राजा काममें लावे1॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उत्थायोत्थाय गच्छेत नित्ययुक्तो रिपोर्गृहान्।
कुशलं चास्य पृच्छेत यद्यप्यकुशलं भवेत् ॥ २२ ॥

मूलम्

उत्थायोत्थाय गच्छेत नित्ययुक्तो रिपोर्गृहान्।
कुशलं चास्य पृच्छेत यद्यप्यकुशलं भवेत् ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘राजाको चाहिये कि वह प्रतिदिन उठ-उठकर पूर्ण सावधान हो शत्रुके घर जाय और उसका अमंगल ही क्यों न हो रहा हो, सदा उसकी कुशल पूछे और मंगल कामना करे॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नालसाः प्राप्नुवन्त्यर्थान् न क्लीबा नाभिमानिनः।
न च लोकरवाद् भीता न वै शश्वत् प्रतीक्षिणः॥२३॥

मूलम्

नालसाः प्राप्नुवन्त्यर्थान् न क्लीबा नाभिमानिनः।
न च लोकरवाद् भीता न वै शश्वत् प्रतीक्षिणः॥२३॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जो आलसी हैं, कायर हैं, अभिमानी हैं, लोक-चर्चासे डरनेवाले और सदा समयकी प्रतीक्षामें बैठे रहनेवाले हैं, ऐसे लोग अपने अभीष्ट अर्थको नहीं पा सकते॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नात्मच्छिद्रं रिपुर्विद्याद् विद्याच्छिद्रं परस्य तु।
गूहेत् कूर्म इवाङ्गानि रक्षेद् विवरमात्मनः ॥ २४ ॥

मूलम्

नात्मच्छिद्रं रिपुर्विद्याद् विद्याच्छिद्रं परस्य तु।
गूहेत् कूर्म इवाङ्गानि रक्षेद् विवरमात्मनः ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘राजा इस तरह सतर्क रहे कि उसके छिद्रका शत्रुको पता न चले, परंतु वह शत्रुके छिद्रको जान ले। जैसे कछुआ अपने सब अंगोंको समेटकर छिपा लेता है, उसी प्रकार राजा अपने छिद्रोंको छिपाये रखे॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बकवच्चिन्तयेदर्थान् सिंहवच्च पराक्रमेत् ।
वृकवच्चावलुम्पेत शरवच्च विनिष्पतेत् ॥ २५ ॥

मूलम्

बकवच्चिन्तयेदर्थान् सिंहवच्च पराक्रमेत् ।
वृकवच्चावलुम्पेत शरवच्च विनिष्पतेत् ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘राजा बगुलेके समान एकाग्रचित्त होकर कर्तव्य-विषयका चिन्तन करे। सिंहके समान पराक्रम प्रकट करे। भेड़ियेकी भाँति सहसा आक्रमण करके शत्रुका धन लूट ले तथा बाणकी भाँति शत्रुओंपर टूट पड़े॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पानमक्षास्तथा नार्यो मृगया गीतवादितम्।
एतानि युक्त्या सेवेत प्रसंगो ह्यत्र दोषवान् ॥ २६ ॥

मूलम्

पानमक्षास्तथा नार्यो मृगया गीतवादितम्।
एतानि युक्त्या सेवेत प्रसंगो ह्यत्र दोषवान् ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘पान, जूआ, स्त्री, शिकार, तथा गाना-बजाना—इन सबका संयमपूर्वक अनासक्तभावसे सेवन करे; क्योंकि इनमें आसक्ति होना अनिष्टकारक है॥२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कुर्यात् तृणमयं चापं शयीत मृगशायिकाम्।
अन्धः स्यादन्धवेलायां बाधिर्यमपि संश्रयेत् ॥ २७ ॥

मूलम्

कुर्यात् तृणमयं चापं शयीत मृगशायिकाम्।
अन्धः स्यादन्धवेलायां बाधिर्यमपि संश्रयेत् ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘राजा बाँसका धनुष बनावे, हिरनके समान चौकन्ना होकर सोये, अंधा बने रहनेयोग्य समय हो तो अंधेका भाव किये रहे और अवसरके अनुसार बहरेका भाव भी स्वीकार कर ले॥२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

देशकालौ समासाद्य विक्रमेत विचक्षणः।
देशकालव्यतीतो हि विक्रमो निष्फलो भवेत् ॥ २८ ॥

मूलम्

देशकालौ समासाद्य विक्रमेत विचक्षणः।
देशकालव्यतीतो हि विक्रमो निष्फलो भवेत् ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘बुद्धिमान् पुरुष देश और कालको अपने अनुकूल पाकर पराक्रम प्रकट करे। देशकालकी अनुकूलता न होनेपर किया गया पराक्रम निष्फल होता है॥२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कालाकालौ सम्प्रधार्य बलाबलमथात्मनः ।
परस्य च बलं ज्ञात्वा तत्रात्मानं नियोजयेत् ॥ २९ ॥

मूलम्

कालाकालौ सम्प्रधार्य बलाबलमथात्मनः ।
परस्य च बलं ज्ञात्वा तत्रात्मानं नियोजयेत् ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘अपने लिये समय अच्छा है या खराब? अपना पक्ष प्रबल है या निर्बल? इन सब बातोंका निश्चय करके तथा शत्रुके भी बलको समझकर युद्ध या संधि के कार्यमें अपने आपको लगावे॥२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दण्डेनोपनतं शत्रुं यो राजा न नियच्छति।
स मृत्युमुपगह्णाति गर्भमश्वतरी यथा ॥ ३० ॥

मूलम्

दण्डेनोपनतं शत्रुं यो राजा न नियच्छति।
स मृत्युमुपगह्णाति गर्भमश्वतरी यथा ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जो राजा दण्डसे नतमस्तक हुए शत्रुको पाकर भी उसे नष्ट नहीं कर देता, वह अपनी मृत्युको आमन्त्रित करता है। ठीक उसी तरह जैसे, खच्चरी मौतके लिये ही गर्भ धारण करती है॥३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुपुष्पितः स्यादफलः फलवान् स्याद्‌ दुरारुहः।
आमः स्यात्‌ पक्वसंकाशो न च शीर्येत कस्यचित् ॥ ३१ ॥

मूलम्

सुपुष्पितः स्यादफलः फलवान् स्याद्‌ दुरारुहः।
आमः स्यात्‌ पक्वसंकाशो न च शीर्येत कस्यचित् ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘नीतिज्ञ राजा ऐसे वृक्षके समान रहे, जिसमें फूल तो खूब लगे हों, परंतु फल न हो। फल लगनेपर भी उसपर चढ़ना अत्यन्त कठिन हो, वह रहे तो कच्चा, पर दीखे पकेके समान तथा स्वयं कभी जीर्ण-शीर्ण न हो॥३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आशां कालवतीं कुर्यात्‌ तां च विघ्नेन योजयेत्।
विघ्नं निमित्ततो ब्रूयान्निमित्तं चापि हेतुतः ॥ ३२ ॥

मूलम्

आशां कालवतीं कुर्यात्‌ तां च विघ्नेन योजयेत्।
विघ्नं निमित्ततो ब्रूयान्निमित्तं चापि हेतुतः ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘राजा शत्रुकी आशा पूर्ण होनेमें विलम्ब पैदा करे, उसमें विघ्न डाल दे। उस विघ्नका कुछ कारण बता दे और उस कारणको युक्तिसंगत सिद्ध कर दे॥३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भीतवत् संविधातव्यं यावद् भयमनागतम्।
आगतं तु भयं दृष्ट्‌वा प्रहर्तव्यमभीतवत् ॥ ३३ ॥

मूलम्

भीतवत् संविधातव्यं यावद् भयमनागतम्।
आगतं तु भयं दृष्ट्‌वा प्रहर्तव्यमभीतवत् ॥ ३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जबतक अपने ऊपर भय न आया हो, तबतक डरे हुएकी भाँति उसे टालनेका प्रयत्न करना चाहिये; परंतु जब भयको सामने आया हुआ देखे तो निडर होकर शत्रुपर प्रहार करना चाहिये॥३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न संशयमनारुह्य नरो भद्राणि पश्यति।
संशयं पुनरारुह्य यदि जीवति पश्यति ॥ ३४ ॥

मूलम्

न संशयमनारुह्य नरो भद्राणि पश्यति।
संशयं पुनरारुह्य यदि जीवति पश्यति ॥ ३४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जहाँ प्राणोंका संशय हो, ऐसे कष्टको स्वीकार किये बिना मनुष्य कल्याणका दर्शन नहीं कर पाता। प्राण-संकटमें पड़ कर यदि वह पुनः जीवित रह जाता है तो अपना भला देखता है॥३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनागतं विजानीयाद् यच्छेद् भयमुपस्थितम्।
पुनर्वृद्धिभयात् किंचिदनिवृत्तं निशामयेत् ॥ ३५ ॥

मूलम्

अनागतं विजानीयाद् यच्छेद् भयमुपस्थितम्।
पुनर्वृद्धिभयात् किंचिदनिवृत्तं निशामयेत् ॥ ३५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘भविष्यमें जो संकट आनेवाले हों, उन्हें पहलेसे ही जाननेका प्रयत्न करे और जो भय सामने उपस्थित हो जाय, उसे दबानेकी चेष्टा करे। दबा हुआ भय भी पुनः बढ़ सकता है, इस डरसे यही समझे कि अभी वह निवृत्त ही नहीं हुआ है (और ऐसा समझकर सतत सावधान रहे)॥३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रत्युपस्थितकालस्य सुखस्य परिवर्जनम् ।
अनागतसुखाशा च नैव बुद्धिमतां नयः ॥ ३६ ॥

मूलम्

प्रत्युपस्थितकालस्य सुखस्य परिवर्जनम् ।
अनागतसुखाशा च नैव बुद्धिमतां नयः ॥ ३६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जिसके सुलभ होनेका समय आ गया हो, उस सुखको त्याग देना और भविष्यमें मिलनेवाले सुखकी आशा करना—यह बुद्धिमानोंकी नीति नहीं है॥३६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

योऽरिणा सह संधाय सुखं स्वपिति विश्वसन्।
स वृक्षाग्रे प्रसुप्तो वा पतितः प्रतिबुद्ध्यते ॥ ३७ ॥

मूलम्

योऽरिणा सह संधाय सुखं स्वपिति विश्वसन्।
स वृक्षाग्रे प्रसुप्तो वा पतितः प्रतिबुद्ध्यते ॥ ३७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जो शत्रुके साथ संधि करके विश्वासपूर्वक सुखसे सोता है, वह उसी मनुष्यके समान है, जो वृक्षकी शाखापर गाढ़ी नींदमें सो गया हो। ऐसा पुरुष नीचे गिरने (शत्रुद्वारा संकटमें पड़ने) पर ही सजग या सचेत होता है॥३७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कर्मणा येन तेनैव मृदुना दारुणेन च।
उद्धरेद् दीनमात्मानं समर्थो धर्ममाचरेत् ॥ ३८ ॥

मूलम्

कर्मणा येन तेनैव मृदुना दारुणेन च।
उद्धरेद् दीनमात्मानं समर्थो धर्ममाचरेत् ॥ ३८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मनुष्य कोमल या कठोर, जिस किसी भी उपायसे सम्भव हो, दीनदशासे अपना उद्धार करे। इसके बाद शक्तिशाली हो पुनः धर्माचरण करे॥३८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ये सपत्नाः सपत्नानां सर्वांस्तानुपसेवयेत्।
आत्मनश्चापि बोद्धव्याश्चारा विनिहताः परैः ॥ ३९ ॥

मूलम्

ये सपत्नाः सपत्नानां सर्वांस्तानुपसेवयेत्।
आत्मनश्चापि बोद्धव्याश्चारा विनिहताः परैः ॥ ३९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जो लोग शत्रुके शत्रु हों, उन सबका सेवन करना चाहिये। अपने ऊपर शत्रुओंद्वारा जो गुप्तचर नियुक्त किये गये हों, उनको भी पहचाननेका प्रयत्न करे॥३९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

चारस्त्वविदितः कार्य आत्मनोऽथ परस्य च।
पाषण्डांस्तापसादींश्च परराष्ट्रे प्रवेशयेत् ॥ ४० ॥

मूलम्

चारस्त्वविदितः कार्य आत्मनोऽथ परस्य च।
पाषण्डांस्तापसादींश्च परराष्ट्रे प्रवेशयेत् ॥ ४० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘अपने तथा शत्रुके राज्यमें ऐसे गुप्तचर नियुक्त करे जिसको कोई जानता-पहचानता न हो। शत्रुके राज्योंमें पाखण्डवेषधारी और तपस्वी आदिको ही गुप्तचर बनाकर भेजना चाहिये॥४०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उद्यानेषु विहारेषु प्रपास्वावसथेषु च।
पानागारे प्रवेशेषु तीर्थेषु च सभासु च ॥ ४१ ॥

मूलम्

उद्यानेषु विहारेषु प्रपास्वावसथेषु च।
पानागारे प्रवेशेषु तीर्थेषु च सभासु च ॥ ४१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘वे गुप्तचर बगीचा, घूमने-फिरनेके स्थान, पौंसला, धर्मशाला, मदबिक्रीके स्थान, नगरके प्रवेशद्वार, तीर्थस्थान और सभाभवन—इन सब स्थलोंमें विचरें॥४१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धर्माभिचारिणः पापाश्चौरा लोकस्य कण्टकाः।
समागच्छन्ति तान् बुद्ध्‌वा नियच्छेच्छमयीत च ॥ ४२ ॥

मूलम्

धर्माभिचारिणः पापाश्चौरा लोकस्य कण्टकाः।
समागच्छन्ति तान् बुद्ध्‌वा नियच्छेच्छमयीत च ॥ ४२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘कपटपूर्ण धर्मका आचरण करनेवाले, पापात्मा, चोर तथा जगत्‌के लिये कण्टकरूप मनुष्य वहाँ छद्मवेष धारण करके आते रहते हैं, उन सबका पता लगाकर उन्हें कैद कर ले अथवा भय दिखाकर उनकी पापवृत्ति शान्त कर दे॥४२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न विश्वसेदविश्वस्ते विश्वस्ते नातिविश्वसेत्।
विश्वासाद् भयमभ्येति नापरीक्ष्य च विश्वसेद् ॥ ४३ ॥

मूलम्

न विश्वसेदविश्वस्ते विश्वस्ते नातिविश्वसेत्।
विश्वासाद् भयमभ्येति नापरीक्ष्य च विश्वसेद् ॥ ४३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जो विश्वासपात्र नहीं है, उसपर कभी विश्वास न करे, परंतु जो विश्वासपात्र है, उसपर भी अधिक विश्वास न करे; क्योंकि अधिक विश्वाससे भय उत्पन्न होता है अतः बिना जाँचे-बूझे किसीपर भी विश्वास न करे॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विश्वासयित्वा तु परं तत्त्वभूतेन हेतुना।
अथास्य प्रहरेत् काले किंचिद् विचलिते पदे ॥ ४४ ॥

मूलम्

विश्वासयित्वा तु परं तत्त्वभूतेन हेतुना।
अथास्य प्रहरेत् काले किंचिद् विचलिते पदे ॥ ४४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘किसी यथार्थ कारणसे शत्रुके मनमें विश्वास उत्पन्न करके जब कभी उसका पैर लड़खड़ाता देखे अर्थात् उसे कमजोर समझे तभी उसपर प्रहार कर दे॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अशङ्क्यमपि शङ्केत नित्यं शङ्केत शङ्कितात्।
भयं ह्यशङ्किताज्जातं समूलमपि कृन्तति ॥ ४५ ॥

मूलम्

अशङ्क्यमपि शङ्केत नित्यं शङ्केत शङ्कितात्।
भयं ह्यशङ्किताज्जातं समूलमपि कृन्तति ॥ ४५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जो संदेह करने योग्य न हो, ऐसे व्यक्तिपर भी संदेह करे—उसकी ओरसे चौकन्ना रहे और जिससे भयकी आशंका हो, उसकी ओरसे तो सदा सब प्रकारसे सावधान रहे ही; क्योंकि जिसकी ओरसे भयकी आशंका नहीं है, उसकी ओरसे यदि भय उत्पन्न होता है तो वह जड़मूलसहित नष्ट कर देता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अवधानेन मौनेन काषायेण जटाजिनैः।
विश्वासयित्वा द्वेष्टारमवलुम्पेद् यथा वृकः ॥ ४६ ॥

मूलम्

अवधानेन मौनेन काषायेण जटाजिनैः।
विश्वासयित्वा द्वेष्टारमवलुम्पेद् यथा वृकः ॥ ४६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘शत्रुके हितके प्रति मनोयोग दिखाकर, मौनव्रत लेकर, गेरुआ वस्त्र पहनकर तथा जटा और मृगचर्म धारण करके अपने प्रति विश्वास उत्पन्न करे और जब विश्वास हो जाय तो मौका देखकर भूखे भेड़ियेकी तरह शत्रुपर टूट पड़े॥४६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुत्रो वा यदि वा भ्राता पिता वा यदि वा सुहृत्।
अर्थस्य विघ्नं कुर्वाणा हन्तव्या भूतिमिच्छता ॥ ४७ ॥

मूलम्

पुत्रो वा यदि वा भ्राता पिता वा यदि वा सुहृत्।
अर्थस्य विघ्नं कुर्वाणा हन्तव्या भूतिमिच्छता ॥ ४७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘पुत्र, भाई, पिता अथवा मित्र जो भी अर्थप्राप्तिमें विघ्न डालनेवाले हों, उन्हें ऐश्वर्य चाहनेवाला राजा अवश्य मार डाले॥४७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुरोरप्यवलिप्तस्य कार्याकार्यमजानतः ।
उत्पथं प्रतिपन्नस्य दण्डो भवति शासनम् ॥ ४८ ॥

मूलम्

गुरोरप्यवलिप्तस्य कार्याकार्यमजानतः ।
उत्पथं प्रतिपन्नस्य दण्डो भवति शासनम् ॥ ४८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘यदि गुरु भी घंमडमें भरकर कर्तव्य और अकर्तव्यको नहीं समझ रहा हो और बुरे मार्गपर चलता हो तो उसके लिये भी दण्ड देना उचित है; दण्ड उसे राहपर लाता है॥४८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अभ्युत्थानाभिवादाभ्यां सम्प्रदानेन केनचित् ।
प्रतिपुष्पफलाघाती तीक्ष्णतुण्ड इव द्विजः ॥ ४९ ॥

मूलम्

अभ्युत्थानाभिवादाभ्यां सम्प्रदानेन केनचित् ।
प्रतिपुष्पफलाघाती तीक्ष्णतुण्ड इव द्विजः ॥ ४९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘शत्रुके आनेपर उठकर उसका स्वागत करे, उसे प्रणाम करे और कोई अपूर्व उपहार दे। इन सब बर्तावोंके द्वारा पहले उसे वशमें करे। इसके बाद ठीक वैसे ही जैसे तीखी चोंचवाला पक्षी वृक्षके प्रत्येक फूल और फलपर चोंच मारता है, उसी प्रकार उसके साधन और साध्यपर आघात करे॥४९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नाच्छित्त्वा परमर्माणि नाकृत्वा कर्म दारुणम्।
नाहत्वा मत्स्यघातीव प्राप्नोति महतीं श्रियम् ॥ ५० ॥

मूलम्

नाच्छित्त्वा परमर्माणि नाकृत्वा कर्म दारुणम्।
नाहत्वा मत्स्यघातीव प्राप्नोति महतीं श्रियम् ॥ ५० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘राजा मछलीमारोंकी भाँति दूसरोंके मर्म विदीर्ण किये बिना, अत्यन्त क्रूर कर्म किये बिना तथा बहुतोंके प्राण लिये बिना बड़ी भारी सम्पत्ति नहीं पा सकता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नास्ति जात्या रिपुर्नाम मित्रं वापि न विद्यते।
सामर्थ्ययोगाज्जायन्ते मित्राणि रिपवस्तथा ॥ ५१ ॥

मूलम्

नास्ति जात्या रिपुर्नाम मित्रं वापि न विद्यते।
सामर्थ्ययोगाज्जायन्ते मित्राणि रिपवस्तथा ॥ ५१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘कोई जन्मसे ही मित्र अथवा शत्रु नहीं होता है। सामर्थ्ययोगसे ही शत्रु और मित्र उत्पन्न होते रहते हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अमित्रं नैव मुञ्चेत वदन्तं करुणान्यपि।
दुःखं तत्र न कर्तव्यं हन्यात् पूर्वापकारिणम् ॥ ५२ ॥

मूलम्

अमित्रं नैव मुञ्चेत वदन्तं करुणान्यपि।
दुःखं तत्र न कर्तव्यं हन्यात् पूर्वापकारिणम् ॥ ५२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘शत्रु करुणाजनक वचन बोल रहा हो तो भी उसे मारे बिना न छोड़े। जिसने पहले अपना अपकार किया हो, उसको अवश्य मार डाले और उसमें दुःख न माने॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

संग्रहानुग्रहे यत्नः सदा कार्योऽनसूयता।
निग्रहश्चापि यत्नेन कर्तव्यो भूतिमिच्छता ॥ ५३ ॥

मूलम्

संग्रहानुग्रहे यत्नः सदा कार्योऽनसूयता।
निग्रहश्चापि यत्नेन कर्तव्यो भूतिमिच्छता ॥ ५३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘ऐश्वर्यकी इच्छा रखनेवाला राजा दोषदृष्टिका परित्याग करके सदा लोगोंको अपने पक्षमें मिलाये रखने तथा दूसरोंपर अनुग्रह करनेके लिये यत्नशील बना रहे और शत्रुओंका दमन भी प्रयत्नपूर्वक करे॥५३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रहरिष्यन् प्रियं ब्रूयात् प्रहृत्यैव प्रियोत्तरम्।
असिनापि शिरश्छित्त्वा शोचेत च रुदेत च ॥ ५४ ॥

मूलम्

प्रहरिष्यन् प्रियं ब्रूयात् प्रहृत्यैव प्रियोत्तरम्।
असिनापि शिरश्छित्त्वा शोचेत च रुदेत च ॥ ५४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘प्रहार करनेके लिये उद्यत होकर भी प्रिय वचन बोले, प्रहार करनेके पश्चात् भी प्रिय वाणी ही बोले, तलवारसे शत्रुका मस्तक काटकर भी उसके लिये शोक करे और रोये॥५४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

निमन्त्रयीत सान्त्वेन सम्मानेन तितिक्षया।
लोकाराधनमित्येतत् कर्तव्यं भूतिमिच्छता ॥ ५५ ॥

मूलम्

निमन्त्रयीत सान्त्वेन सम्मानेन तितिक्षया।
लोकाराधनमित्येतत् कर्तव्यं भूतिमिच्छता ॥ ५५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘ऐश्वर्यकी इच्छा रखनेवाले राजाको मधुर वचन बोलकर दूसरोंका सम्मान करके और सहनशील होकर लोगोंको अपने पास आनेके लिये निमन्त्रित करना चाहिये, यही लोककी आराधना अथवा साधारण जनताका सम्मान है। इसे अवश्य करना चाहिये॥५५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न शुष्कवैरं कुर्वीत बाहुभ्यां न नदीं तरेत्।
अनर्थकमनायुष्यं गोविषाणस्य भक्षणम् ।
दन्ताश्च परिमृज्यन्ते रसश्चापि न लभ्यते ॥ ५६ ॥

मूलम्

न शुष्कवैरं कुर्वीत बाहुभ्यां न नदीं तरेत्।
अनर्थकमनायुष्यं गोविषाणस्य भक्षणम् ।
दन्ताश्च परिमृज्यन्ते रसश्चापि न लभ्यते ॥ ५६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘सूखा वैर न करे तथा दोनों बाँहोंसे तैरकर नदीके पार न जाय। यह निरर्थक और आयुनाशक कर्म है। यह कुत्तेके द्वारा गायका सींग चबाने-जैसा कार्य है, जिससे उसके दाँत भी रगड़ उठते हैं और रस भी नहीं मिलता है॥५६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्रिवर्गे त्रिविधा पीडानुबन्धास्त्रय एव च।
अनुबन्धाः शुभा ज्ञेयाः पीडाश्च परिवर्जयेत् ॥ ५७ ॥

मूलम्

त्रिवर्गे त्रिविधा पीडानुबन्धास्त्रय एव च।
अनुबन्धाः शुभा ज्ञेयाः पीडाश्च परिवर्जयेत् ॥ ५७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

धर्म, अर्थ और काम—इन त्रिविध पुरुषार्थोंके सेवनमें लोभ, मूर्खता और दुर्बलता-यह तीन प्रकारकी बाधा-अड़चन उपस्थित होती है। उसी प्रकार उनके शान्ति, सर्वहितकारी कर्म और उपभोग—ये तीन ही प्रकारके फल होते हैं। इन (तीनों प्रकारके) फलोंको शुभ जानना चाहिये; परंतु (उक्त तीनों प्रकारकी) बाधाओंसे यत्नपूर्वक बचना चाहिये॥५७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ऋणशेषमग्निशेषं शत्रुशेषं तथैव च।
पुनः पुनः प्रवर्धन्ते तस्माच्छेषं न धारयेत् ॥ ५८ ॥

मूलम्

ऋणशेषमग्निशेषं शत्रुशेषं तथैव च।
पुनः पुनः प्रवर्धन्ते तस्माच्छेषं न धारयेत् ॥ ५८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘ऋण, अग्नि और शत्रुमेंसे कुछ बाकी रह जाय तो वह बारंबार बढ़ता रहता है; इसलिये इनमेंसे किसीको शेष नहीं छोड़ना चाहिये॥५८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वर्धमानमृणं तिष्ठेत् परिभूताश्च शत्रवः।
जनयन्ति भयं तीव्रं व्याधयश्चाप्युपेक्षिताः ॥ ५९ ॥

मूलम्

वर्धमानमृणं तिष्ठेत् परिभूताश्च शत्रवः।
जनयन्ति भयं तीव्रं व्याधयश्चाप्युपेक्षिताः ॥ ५९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘यदि बढ़ता हुआ ऋण रह जाय, तिरस्कृत शत्रु जीवित रहें और उपेक्षित रोग शेष रह जायँ तो ये सब तीव्र भय उत्पन्न करते हैं॥५९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नासम्यक् कृतकारी स्यादप्रमत्तः सदा भवेत्।
कण्टकोऽपि हि दुश्छिन्नो विकारं कुरुते चिरम् ॥ ६० ॥

मूलम्

नासम्यक् कृतकारी स्यादप्रमत्तः सदा भवेत्।
कण्टकोऽपि हि दुश्छिन्नो विकारं कुरुते चिरम् ॥ ६० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘किसी कार्यको अच्छी तरह सम्पन्न किये बिना न छोड़े और सदा सावधान रहे। शरीरमें गड़ा हुआ काँटा भी यदि पूर्णरूपसे निकाल न दिया जाय—उसका कुछ भाग शरीरमें ही टूटकर रह जाय तो वह चिरकालतक विकार उत्पन्न करता है॥६०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वधेन च मनुष्याणां मार्गाणां दूषणेन च।
अगाराणां विनाशैश्च परराष्ट्रं विनाशयेत् ॥ ६१ ॥

मूलम्

वधेन च मनुष्याणां मार्गाणां दूषणेन च।
अगाराणां विनाशैश्च परराष्ट्रं विनाशयेत् ॥ ६१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मनुष्योंका वध करके, सड़कें तोड़-फोड़कर और घरोंको नष्ट-भ्रष्ट करके शत्रुके राष्ट्रका विध्वंस करना चाहिये॥६१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गृध्रदृष्टिर्बकालीनः श्वचेष्टः सिंहविक्रमः ।
अनुद्विग्नः काकशङ्की भुजङ्गरितं चरेत् ॥ ६२ ॥

मूलम्

गृध्रदृष्टिर्बकालीनः श्वचेष्टः सिंहविक्रमः ।
अनुद्विग्नः काकशङ्की भुजङ्गरितं चरेत् ॥ ६२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘राजा गीधके समान दूरतक दृष्टि डाले, बगुलेके समान लक्ष्यपर दृष्टि जमाये, कुत्तेके समान चौकन्ना रहे और सिंह के समान पराक्रम प्रकट करे, मनमें उद्वेग को स्थान न दे, कौएकी भाँति सशंक रहकर दूसरोंकी चेष्टा पर ध्यान रक्खे और दूसरेके बिलमें प्रवेश करनेवाले सर्पके समान शत्रुका छिद्र देखकर उसपर आक्रमण करे॥६२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शूरमञ्जलिपातेन भीरुं भेदेन भेदयेत्।
लुब्धमर्थप्रदानेन समं तुल्येन विग्रहः ॥ ६३ ॥

मूलम्

शूरमञ्जलिपातेन भीरुं भेदेन भेदयेत्।
लुब्धमर्थप्रदानेन समं तुल्येन विग्रहः ॥ ६३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जो अपनेसे शूरवीर हो, उसे हाथ जोड़कर वशमें करे, जो डरपोक हो, उसे भय दिखाकर फोड़ ले लोभीको धन देकर काबूमें कर ले तथा जो बराबर हो उसके साथ युद्ध छेड़ दे॥६३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रेणीमूख्योपजापेषु वल्लभानुनयेषु च ।
अमात्यान् परिरक्षेत भेदसंघातयोरपि ॥ ६४ ॥

मूलम्

श्रेणीमूख्योपजापेषु वल्लभानुनयेषु च ।
अमात्यान् परिरक्षेत भेदसंघातयोरपि ॥ ६४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अनेक जातिके लोग जो एक कार्यके लिये संगठित होकर अपना दल बना लेते हैं, उस दलको श्रेणी कहते हैं। ऐसी श्रेणियोंके जो प्रधान हैं, उनमें जब भेद डाला जा रहा हो और अपने मित्रोंको अनुनय-विनयके द्वारा जब दूसरे लोग अपनी ओर खींच रहे हों तथा जब सब ओर भेदनीति और दलबंदीके जाल बिछाये जा रहे हों, ऐसे अवसरोंपर अपने मन्त्रियोंकी पूर्णरूपसे रक्षा करनी चाहिये। (न तो वे फूटने पावें और और न स्वयं ही कोई दल बनाकर अपने विरुद्ध कार्य करने पावें। इसके लिये सतत सावधान रहना चाहिये)॥६४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मृदुरित्यवजानन्ति तीक्ष्ण इत्युद्विजन्ति च।
तीक्ष्णकाले भवेत् तीक्ष्णो मृदुकाले मृदुर्भवेत् ॥ ६५ ॥

मूलम्

मृदुरित्यवजानन्ति तीक्ष्ण इत्युद्विजन्ति च।
तीक्ष्णकाले भवेत् तीक्ष्णो मृदुकाले मृदुर्भवेत् ॥ ६५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘राजा सदा कोमल रहे तो लोग उसकी अवहेलना करते हैं और सदा कठोर बना रहे तो उससे उद्विग्न हो उठते हैं, अतः जब कठोरता दिखाने का समय हो तो वह कठोर बने और जब कोमलतापूर्ण बर्ताव करनेका अवसर हो तो कोमल बन जाय॥६५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मृदुनैव मृदुं हन्ति मृदुना हन्ति दारुणम्।
नासाध्यं मृदुना किंचित् तस्मात् तीक्ष्णतरो मृदुः ॥ ६६ ॥

मूलम्

मृदुनैव मृदुं हन्ति मृदुना हन्ति दारुणम्।
नासाध्यं मृदुना किंचित् तस्मात् तीक्ष्णतरो मृदुः ॥ ६६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘बुद्धिमान् राजा कोमल उपायसे कोमल शत्रुका नाश करता है और कोमल उपायसे ही दारुण शत्रुका भी संहार कर डालता है। कोमल उपायसे कुछ भी असाध्य नहीं है; अतः कोमल ही अत्यन्त तीक्ष्ण है॥६६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

काले मृदुर्यो भवति काले भवति दारुणः।
प्रसाधयति कृत्यानि शत्रुं चाप्यधितिष्ठति ॥ ६७ ॥

मूलम्

काले मृदुर्यो भवति काले भवति दारुणः।
प्रसाधयति कृत्यानि शत्रुं चाप्यधितिष्ठति ॥ ६७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जो समयपर कोमल होता है और समयपर कठोर बन जाता है, वह अपने सारे कार्य सिद्ध कर लेता है और शत्रु पर भी उसका अधिकार हो जाता है॥६७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पण्डितेन विरुद्धः सन् दूरस्थोऽस्मीति नाश्वसेत्।
दीर्घौ बुद्धिमतो बाहू याभ्यां हिंसति हिंसितः ॥ ६८ ॥

मूलम्

पण्डितेन विरुद्धः सन् दूरस्थोऽस्मीति नाश्वसेत्।
दीर्घौ बुद्धिमतो बाहू याभ्यां हिंसति हिंसितः ॥ ६८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘विद्वान् पुरुषसे विरोध करके ‘मैं दूर हूँ’ ऐसा समझकर निश्चिन्त नहीं होना चाहिये; क्योंकि बुद्धिमान्‌की बाँहे बहुत बड़ी होती हैं (उसके द्वारा किये गये प्रतीकारके उपाय दूरतक प्रभाव डालते हैं), अतः यदि बुद्धिमान् पुरुषपर चोट की गयी तो वह अपनी उन विशाल भुजाओं द्वारा दूरसे भी शत्रुका विनाश कर सकता है॥६८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न तत् तरेद् यस्य न पारमुत्तरे-
न्न तद्धरेद् यत् पुनराहरेत् परः।
न तत् खनेद् यस्य न मूलमुद्धरे-
न्न तं हन्याद् यस्य शिरो न पातयेत् ॥ ६९ ॥

मूलम्

न तत् तरेद् यस्य न पारमुत्तरे-
न्न तद्धरेद् यत् पुनराहरेत् परः।
न तत् खनेद् यस्य न मूलमुद्धरे-
न्न तं हन्याद् यस्य शिरो न पातयेत् ॥ ६९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जिसके पार न उतर सके, उस नदीको तैरनेका साहस न करे। जिसको शत्रु पुनः बलपूर्वक वापस ले सके ऐसे धनका अपहरण ही न करे। ऐसे वृक्ष या शत्रुको खोदने या नष्ट करनेकी चेष्टा न करे जिसकी जड़को उखाड़ फेंकना सम्भव न हो सके तथा उस वीरपर आघात न करे, जिसका मस्तक काटकर धरतीपर गिरा न सके॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इतीदमुक्तं वृजिनाभिसंहितं
न चैतदेवं पुरुषः समाचरेत्।
परप्रयुक्ते न कथं विभावये-
दतो मयोक्तं भवतो हितार्थिना ॥ ७० ॥

मूलम्

इतीदमुक्तं वृजिनाभिसंहितं
न चैतदेवं पुरुषः समाचरेत्।
परप्रयुक्ते न कथं विभावये-
दतो मयोक्तं भवतो हितार्थिना ॥ ७० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘यह जो मैंने शत्रुके प्रति पापपूर्ण बर्तावका उपदेश किया है, इसे समर्थ पुरुष सम्पत्तिके समय कदापि आचरणमें न लावे। परंतु जब शत्रु ऐसे ही बर्तावोंद्वारा अपने ऊपर संकट उपस्थित कर दे, तब उसके प्रतीकारके लिये वह इन्हीं उपायोंको काममें लानेका विचार क्यों न करे, इसीलिये तुम्हारे हितकी इच्छासे मैंने यह सब कुछ बताया है’॥७०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथावदुक्तं वचनं हितार्थिना
निशम्य विप्रेण सुवीरराष्ट्रपः ।
तथाकरोद् वाक्यमदीनचेतनः
श्रियं च दीप्तां बुभुजे सबान्धवः ॥ ७१ ॥

मूलम्

यथावदुक्तं वचनं हितार्थिना
निशम्य विप्रेण सुवीरराष्ट्रपः ।
तथाकरोद् वाक्यमदीनचेतनः
श्रियं च दीप्तां बुभुजे सबान्धवः ॥ ७१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

हितार्थी ब्राह्मण भारद्वाज कणिककी कही हुई उन यथार्थ बातोंको सुनकर सौवीरदेशके राजाने उनका यथोचितरूपसे पालन किया, जिससे वे बन्धु-बान्धवों-सहित समुज्ज्वल राजलक्ष्मीका उपभोग करने लगे॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि आपद्धर्मपर्वणि कणिकोपदेशे चत्वारिंशदधिकशततमोऽध्यायः ॥ १४० ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत आपद्धर्मपर्वमें कणिकका उपदेशविषयक एक सौ चालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१४०॥


  1. कोयलका श्रेष्ठ गुण है कण्ठकी मधुरता, सूअरके आक्रमणको रोकना कठिन है, यही उसकी विशेषता है; मेरुका गुण है सबसे अधिक उन्नत होना, सूने घरकी विशेषता है अनेकको आश्रय देना, नटका गुण है दूसरोंको अपने क्रिया-कौशलद्वारा संतुष्ट करना तथा अनुरक्त सुहृद्‌की विशेषता है हितपरायणता। ये सारे गुण राजाको अपनाने चाहिये। ↩︎