भागसूचना
एकोनचत्वारिंशदधिकशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
शत्रुसे सदा सावधान रहनेके विषयमें राजा ब्रह्मदत्त और पूजनी चिड़ियाका संवाद
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
उक्तो मन्त्रो महाबाहो विश्वासो नास्ति शत्रुषु।
कथं हि राजा वर्तेत यदि सर्वत्र नाश्वसेत् ॥ १ ॥
मूलम्
उक्तो मन्त्रो महाबाहो विश्वासो नास्ति शत्रुषु।
कथं हि राजा वर्तेत यदि सर्वत्र नाश्वसेत् ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिरने पूछा— महाबाहो! आपने यह सलाह दी है कि शत्रुओंपर विश्वास नहीं करना चाहिये। साथ ही यह कहा है कि कहीं भी विश्वास करना उचित नहीं है, परंतु यदि राजा सर्वत्र अविश्वास ही करे तो किस प्रकार वह राज्यसम्बन्धी व्यवहार चला सकता है?॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वासाद्धि परं राजन् राज्ञामुत्पद्यते भयम्।
कथं हि नाश्वसन् राजा शत्रून् जयति पार्थिवः ॥ २ ॥
मूलम्
विश्वासाद्धि परं राजन् राज्ञामुत्पद्यते भयम्।
कथं हि नाश्वसन् राजा शत्रून् जयति पार्थिवः ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! यदि विश्वाससे राजाओंपर महान् भय आता है तो सर्वत्र अविश्वास करनेवाला भूपाल अपने शत्रुओंपर विजय कैसे पा सकता है?॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतन्मे संशयं छिन्धि मतिर्मे सम्प्रमुह्यति।
अविश्वासकथामेतामुपश्रुत्य पितामह ॥ ३ ॥
मूलम्
एतन्मे संशयं छिन्धि मतिर्मे सम्प्रमुह्यति।
अविश्वासकथामेतामुपश्रुत्य पितामह ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पितामह! आपकी यह अविश्वास-कथा सुनकर तो मेरी बुद्धिपर मोह छा गया। कृपया आप मेरे इस संशयका निवारण कीजिये॥३॥
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
शृणुष्व राजन् यद् वृत्तं ब्रह्मदत्तनिवेशने।
पूजन्या सह संवादं ब्रह्मदत्तस्य भूपतेः ॥ ४ ॥
मूलम्
शृणुष्व राजन् यद् वृत्तं ब्रह्मदत्तनिवेशने।
पूजन्या सह संवादं ब्रह्मदत्तस्य भूपतेः ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजीने कहा— राजन्! राजा ब्रह्मदत्तके घरमें पूजनी चिड़ियाके साथ जो उनका संवाद हुआ था, उसे ही तुम्हारे समाधानके लिये उपस्थित करता हूँ, सुनो॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
काम्पिल्ये ब्रह्मदत्तस्य त्वन्तःपुरनिवासिनी ।
पूजनी नाम शकुनिर्दीर्घकालं सहोषिता ॥ ५ ॥
मूलम्
काम्पिल्ये ब्रह्मदत्तस्य त्वन्तःपुरनिवासिनी ।
पूजनी नाम शकुनिर्दीर्घकालं सहोषिता ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
काम्पिल्य नगरमें ब्रह्मदत्त नामके एक राजा राज्य करते थे। उनके अन्तःपुरमें पूजनी नामसे प्रसिद्ध एक चिड़िया निवास करती थी। वह दीर्घकालतक उनके साथ रही थी॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रुतज्ञा सर्वभूतानां यथा वै जीवजीवकः।
सर्वज्ञा सर्वतत्त्वज्ञा तिर्यग्योनिं गतापि सा ॥ ६ ॥
मूलम्
रुतज्ञा सर्वभूतानां यथा वै जीवजीवकः।
सर्वज्ञा सर्वतत्त्वज्ञा तिर्यग्योनिं गतापि सा ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह चिड़िया ‘जीवजीवक’ नामक विशेष पक्षीके समान समस्त प्राणियोंकी बोली समझती थी तथा तिर्यग्योनिमें उत्पन्न होनेपर भी सर्वज्ञ एवं सम्पूर्ण तत्त्वोंको जाननेवाली थी॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अभिप्रजाता सा तत्र पुत्रमेकं सुवर्चसम्।
समकालं च राज्ञोऽपि देव्यां पुत्रो व्यजायत ॥ ७ ॥
मूलम्
अभिप्रजाता सा तत्र पुत्रमेकं सुवर्चसम्।
समकालं च राज्ञोऽपि देव्यां पुत्रो व्यजायत ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
एक दिन उसने रनिवासमें ही एक बच्चा दिया, जो बड़ा तेजस्वी था; उसी दिन उसके साथ ही राजाकी रानीके गर्भसे भी एक बालक उत्पन्न हुआ॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तयोरर्थे कृतज्ञा सा खेचरी पूजनी सदा।
समुद्रतीरं सा गत्वा आजहार फलद्वयम् ॥ ८ ॥
मूलम्
तयोरर्थे कृतज्ञा सा खेचरी पूजनी सदा।
समुद्रतीरं सा गत्वा आजहार फलद्वयम् ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आकाशमें विचरनेवाली वह कृतज्ञ पूजनी चिड़िया प्रतिदिन समुद्रतटपर जाकर वहाँसे उन दोनों बच्चोंके लिये दो फल ले आया करती थी॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुष्ट्यर्थं च स्वपुत्रस्य राजपुत्रस्य चैव ह।
फलमेकं सुतायादाद् राजपुत्राय चापरम् ॥ ९ ॥
मूलम्
पुष्ट्यर्थं च स्वपुत्रस्य राजपुत्रस्य चैव ह।
फलमेकं सुतायादाद् राजपुत्राय चापरम् ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह अपने बच्चेकी पुष्टिके लिये एक फल उसे देती तथा राजाके बेटेकी पुष्टिके लिये दूसरा फल उस राजकुमारको अर्पित कर देती थी॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अमृतास्वादसदृशं बलतेजोऽभिवर्धनम् ।
आदायादाय सैवाशु तयोः प्रादात् पुनः पुनः ॥ १० ॥
मूलम्
अमृतास्वादसदृशं बलतेजोऽभिवर्धनम् ।
आदायादाय सैवाशु तयोः प्रादात् पुनः पुनः ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पूजनीका लाया हुआ वह फल अमृतके समान स्वादिष्ट और बल तथा तेजकी वृद्धि करनेवाला होता था। वह बारंबार उस फलको ला-लाकर शीघ्रतापूर्वक उन दोनोंको दिया करती थी॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततोऽगच्छत् परां वृद्धिं राजपुत्रः फलाशनात्।
ततः स धात्र्या कक्षेण उह्यमानो नृपात्मजः ॥ ११ ॥
ददर्श तं पक्षिसुतं बाल्यादागत्य बालकः।
ततो बाल्याच्च यत्नेन तेनाक्रीडत पक्षिणा ॥ १२ ॥
मूलम्
ततोऽगच्छत् परां वृद्धिं राजपुत्रः फलाशनात्।
ततः स धात्र्या कक्षेण उह्यमानो नृपात्मजः ॥ ११ ॥
ददर्श तं पक्षिसुतं बाल्यादागत्य बालकः।
ततो बाल्याच्च यत्नेन तेनाक्रीडत पक्षिणा ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजकुमार उस फलको खा-खाकर बड़ा हृष्ट-पुष्ट हो गया। एक दिन धाय उस राजपुत्रको गोदमें लिये घूम रही थी। वह बालक ही तो ठहरा, बाल-स्वभाववश आकर उसने उस चिड़ियाके बच्चेको देखा और उसके साथ यत्नपूर्वक वह खेलने लगा॥११-१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शून्ये च तमुपादाय पक्षिणं समजातकम्।
हत्वा ततः स राजेन्द्र धात्र्या हस्तमुपागतः ॥ १३ ॥
मूलम्
शून्ये च तमुपादाय पक्षिणं समजातकम्।
हत्वा ततः स राजेन्द्र धात्र्या हस्तमुपागतः ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजेन्द्र! अपने साथ ही पैदा हुए उस पक्षीको सूने स्थानमें ले जाकर राजकुमारने मार डाला और मारकर वह धायकी गोदमें जा बैठा॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथ सा पूजनी राजन्नागमत् फलहारिणी।
अपश्यन्निहतं पुत्रं तेन बालेन भूतले ॥ १४ ॥
मूलम्
अथ सा पूजनी राजन्नागमत् फलहारिणी।
अपश्यन्निहतं पुत्रं तेन बालेन भूतले ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! तदनन्तर जब पूजनी फल लेकर लौटी तो उसने देखा कि राजकुमारने उसके बच्चेको मार डाला है और वह धरतीपर पड़ा है॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बाष्पपूर्णमुखी दीना दृष्ट्वा तं रुदती सुतम्।
पूजनी दुःखसंतप्ता रुदती वाक्यमब्रवीत् ॥ १५ ॥
मूलम्
बाष्पपूर्णमुखी दीना दृष्ट्वा तं रुदती सुतम्।
पूजनी दुःखसंतप्ता रुदती वाक्यमब्रवीत् ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अपने बच्चेकी ऐसी दुर्गति देखकर पूजनीके मुखपर आँसुओंकी धारा बह चली और वह दुःखसे संतप्त हो रोती हुई इस प्रकार कहने लगी—॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्षत्रिये संगतं नास्ति न प्रीतिर्न च सौहृदम्।
कारणात् सान्त्वयन्त्येते कृतार्थाः संत्यजन्ति च ॥ १६ ॥
मूलम्
क्षत्रिये संगतं नास्ति न प्रीतिर्न च सौहृदम्।
कारणात् सान्त्वयन्त्येते कृतार्थाः संत्यजन्ति च ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘क्षत्रियमें संगति निभानेकी भावना नहीं होती। उसमें न प्रेम होता है, न सौहार्द। ये किसी हेतु या स्वार्थसे ही दूसरोंको सान्त्वना देते हैं। जब इनका काम निकल जाता है, तब ये आश्रित व्यक्तिको त्याग देते हैं॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्षत्रियेषु न विश्वासः कार्यः सर्वापकारिषु।
अपकृत्यापि सततं सान्त्वयन्ति निरर्थकम् ॥ १७ ॥
मूलम्
क्षत्रियेषु न विश्वासः कार्यः सर्वापकारिषु।
अपकृत्यापि सततं सान्त्वयन्ति निरर्थकम् ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘क्षत्रिय सबकी बुराई ही करते हैं। इनपर कभी विश्वास नहीं करना चाहिये। ये दूसरोंका अपकार करके भी सदा उसे व्यर्थ सान्त्वना दिया करते हैं॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहमस्य करोम्यद्य सदृशीं वैरयातनाम्।
कृतघ्नस्य नृशंसस्य भृशं विश्वासघातिनः ॥ १८ ॥
मूलम्
अहमस्य करोम्यद्य सदृशीं वैरयातनाम्।
कृतघ्नस्य नृशंसस्य भृशं विश्वासघातिनः ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘देखो तो सही, यह राजकुमार कैसा कृतघ्न, अत्यन्त क्रूर और विश्वासघाती है! अच्छा, आज मैं इससे इस वैरका बदला लेकर ही रहूँगी॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सहसंजातवृद्धस्य तथैव सहभोजिनः ।
शरणागतस्य च वधस्त्रिविधं ह्येव पातकम् ॥ १९ ॥
मूलम्
सहसंजातवृद्धस्य तथैव सहभोजिनः ।
शरणागतस्य च वधस्त्रिविधं ह्येव पातकम् ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जो साथ ही पैदा हुआ और साथ ही पाला-पोसा गया हो, साथ ही भोजन करता हो और शरणमें आकर रहता हो, ऐसे व्यक्तिका वध करनेसे उपर्युक्त तीन प्रकारका पातक लगता है’॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्युक्त्वा चरणाभ्यां तु नेत्रे नृपसुतस्य सा।
भित्त्वा स्वस्था तत इदं पूजनी वाक्यमब्रवीत् ॥ २० ॥
मूलम्
इत्युक्त्वा चरणाभ्यां तु नेत्रे नृपसुतस्य सा।
भित्त्वा स्वस्था तत इदं पूजनी वाक्यमब्रवीत् ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ऐसा कहकर पूजनीने अपने दोनों पंजोंसे राजकुमारकी दोनों आँखें फोड़ डालीं। फोड़कर वह आकाशमें स्थिर हो गयी और इस प्रकार बोली—॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इच्छयेह कृतं पापं सद्यस्तं चोपसर्पति।
कृतं प्रतिकृतं येषां न नश्यति शुभाशुभम् ॥ २१ ॥
मूलम्
इच्छयेह कृतं पापं सद्यस्तं चोपसर्पति।
कृतं प्रतिकृतं येषां न नश्यति शुभाशुभम् ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘इस जगत्में स्वेच्छासे जो पाप किया जाता है, उसका फल तत्काल ही कर्ताको मिल जाता है। जिनके पापका बदला मिल जाता है, उनके पूर्वकृत शुभाशुभ कर्म नष्ट नहीं होते हैं॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पापं कर्म कृतं किंचिद् यदि तस्मिन् न दृश्यते।
नृपते तस्य पुत्रेषु पौत्रेष्वपि च नप्तृषु ॥ २२ ॥
मूलम्
पापं कर्म कृतं किंचिद् यदि तस्मिन् न दृश्यते।
नृपते तस्य पुत्रेषु पौत्रेष्वपि च नप्तृषु ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘राजन्! यदि यहाँ किये हुए पापकर्मका कोई फल कर्ताको मिलता न दिखायी दे तो यह समझना चाहिये कि उसके पुत्रों, पोतों और नातियोंको उसका फल भोगना पड़ेगा’॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्रह्मदत्तः सुतं दृष्ट्वा पूजन्याहृतलोचनम्।
कृते प्रतिकृतं मत्वा पूजनीमिदमब्रवीत् ॥ २३ ॥
मूलम्
ब्रह्मदत्तः सुतं दृष्ट्वा पूजन्याहृतलोचनम्।
कृते प्रतिकृतं मत्वा पूजनीमिदमब्रवीत् ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजा ब्रह्मदत्तने देखा कि पूजनीने मेरे पुत्रकी आँखें ले लीं, तब उन्होंने यह समझ लिया कि राजकुमारको उसके कुकर्मका ही बदला मिला है। यह सोचकर राजाने रोष त्याग दिया और पूजनीसे इस प्रकार कहा॥२३॥
मूलम् (वचनम्)
ब्रह्मदत्त उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अस्ति वै कृतमस्माभिरस्ति प्रतिकृतं त्वया।
उभयं तत् समीभूतं वस पूजनि मा गमः ॥ २४ ॥
मूलम्
अस्ति वै कृतमस्माभिरस्ति प्रतिकृतं त्वया।
उभयं तत् समीभूतं वस पूजनि मा गमः ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्रह्मदत्त बोले— पूजनी! हमने तेरा अपराध किया था और तूने उसका बदला चुका लिया। अब हम दोनोंका कार्य बराबर हो गया। इसलिये अब यहीं रह। किसी दूसरी जगह न जा॥२४॥
मूलम् (वचनम्)
पूजन्युवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
सकृत् कृतापराधस्य तत्रैव परिलम्बतः।
न तद् बुधाः प्रशंसन्ति श्रेयस्तत्रापसर्पणम् ॥ २५ ॥
मूलम्
सकृत् कृतापराधस्य तत्रैव परिलम्बतः।
न तद् बुधाः प्रशंसन्ति श्रेयस्तत्रापसर्पणम् ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पूजनी बोली— राजन्! एक बार किसीका अपराध करके फिर वहीं आश्रय लेकर रहे तो विद्वान् पुरुष उसके इस कार्यकी प्रशंसा नहीं करते हैं। वहाँसे भाग जानेमें ही उसका कल्याण है॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सान्त्वे प्रयुक्ते सततं कृतवैरे न विश्वसेत्।
क्षिप्रं स बध्यते मूढो न हि वैरं प्रशाम्यति॥२६॥
मूलम्
सान्त्वे प्रयुक्ते सततं कृतवैरे न विश्वसेत्।
क्षिप्रं स बध्यते मूढो न हि वैरं प्रशाम्यति॥२६॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब किसीसे वैर बँध जाय तो उसकी चिकनी-चुपड़ी बातोंमें आकर कभी विश्वास नहीं करना चाहिये; क्योंकि ऐसा करनेसे वैरकी आग तो बुझती नहीं, वह विश्वास करनेवाला मूर्ख शीघ्र ही मारा जाता है॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अन्योन्यकृतवैराणां पुत्रपौत्रं नियच्छति ।
पुत्रपौत्रविनाशे च परलोकं नियच्छति ॥ २७ ॥
मूलम्
अन्योन्यकृतवैराणां पुत्रपौत्रं नियच्छति ।
पुत्रपौत्रविनाशे च परलोकं नियच्छति ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो लोग आपसमें वैर बाँध लेते हैं, उनका वह वैरभाव पुत्रों और पौत्रोंतकको पीड़ा देता है। पुत्रों-पौत्रोंका विनाश हो जानेपर परलोकमें भी वह साथ नहीं छोड़ता है॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वेषां कृतवैराणामविश्वासः सुखोदयः ।
एकान्ततो न विश्वासः कार्यो विश्वासघातकैः ॥ २८ ॥
मूलम्
सर्वेषां कृतवैराणामविश्वासः सुखोदयः ।
एकान्ततो न विश्वासः कार्यो विश्वासघातकैः ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो लोग आपसमें वैर रखनेवाले हैं, उन सबके लिये सुखकी प्राप्तिका उपाय यही है कि परस्पर विश्वास न करे। विश्वासघाती मनुष्योंका सर्वथा विश्वास तो करना ही नहीं चाहिये॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न विश्वसेदविश्वस्ते विश्वस्ते नातिविश्वसेत्।
विश्वासाद् भयमुत्पन्नमपि मूलं निकृन्तति।
कामं विश्वासयेदन्यान् परेषां च न विश्वसेत् ॥ २९ ॥
मूलम्
न विश्वसेदविश्वस्ते विश्वस्ते नातिविश्वसेत्।
विश्वासाद् भयमुत्पन्नमपि मूलं निकृन्तति।
कामं विश्वासयेदन्यान् परेषां च न विश्वसेत् ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो विश्वासपात्र न हो, उसपर विश्वास न करे। जो विश्वासका पात्र हो, उसपर भी अधिक विश्वास न करे; क्योंकि विश्वाससे उत्पन्न होनेवाला भय विश्वास करनेवालेका मूलोच्छेद कर डालता है। अपने प्रति दूसरोंका विश्वास भले ही उत्पन्न कर ले; किंतु स्वयं दूसरोंका विश्वास न करे॥२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
माता पिता बान्धवानां वरिष्ठौ
भार्या जरा बीजमात्रं तु पुत्रः।
भ्राता शत्रुः क्लिन्नपाणिर्वयस्य
आत्मा ह्येकः सुखदुःखस्य भोक्ता ॥ ३० ॥
मूलम्
माता पिता बान्धवानां वरिष्ठौ
भार्या जरा बीजमात्रं तु पुत्रः।
भ्राता शत्रुः क्लिन्नपाणिर्वयस्य
आत्मा ह्येकः सुखदुःखस्य भोक्ता ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
माता और पिता स्वाभाविक स्नेह होनेके कारण बान्धवगणोंमें सबसे श्रेष्ठ हैं, पत्नी वीर्यकी नाशक (होनेसे) वृद्धावस्थाका मूर्तिमान् रूप है, पुत्र अपना ही अंश है, भाई (धनमें हिस्सा बँटानेके कारण) शत्रु समझा जाता है और मित्र तभीतक मित्र है, जबतक उसका हाथ गीला रहता है अर्थात् जबतक उसका स्वार्थ सिद्ध होता रहता है; केवल आत्मा ही सुख और दुःखका भोग करनेवाला कहा गया है॥३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अन्योन्यकृतवैराणां न संधिरुपपद्यते ।
स च हेतुरतिक्रान्तो यदर्थमहमावसम् ॥ ३१ ॥
मूलम्
अन्योन्यकृतवैराणां न संधिरुपपद्यते ।
स च हेतुरतिक्रान्तो यदर्थमहमावसम् ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब आपसमें वैर हो जाय, तब संधि करना ठीक नहीं होता। मैं अबतक जिस उद्देश्यसे यहाँ रही हूँ, वह तो समाप्त हो गया॥३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पूजितस्यार्थमानाभ्यां जन्तोः पूर्वापकारिणः ।
मनो भवत्यविश्वस्तं कर्म त्रासयतेऽबलान् ॥ ३२ ॥
मूलम्
पूजितस्यार्थमानाभ्यां जन्तोः पूर्वापकारिणः ।
मनो भवत्यविश्वस्तं कर्म त्रासयतेऽबलान् ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो पहलेका अपकार करनेवाला प्राणी है, वह दान और मानसे पूजित हो तो भी उसका मन विश्वस्त नहीं होता। अपना किया हुआ अनुचित कर्म ही दुर्बल प्राणियोंको डराता रहता है॥३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पूर्वं सम्मानना यत्र पश्चाच्चैव विमानना।
जह्यात् तत् सत्त्ववान् स्थानं शत्रोः सम्मानितोऽपि सन्॥
मूलम्
पूर्वं सम्मानना यत्र पश्चाच्चैव विमानना।
जह्यात् तत् सत्त्ववान् स्थानं शत्रोः सम्मानितोऽपि सन्॥
अनुवाद (हिन्दी)
जहाँ पहले सम्मान मिला हो, वहीं पीछे अपमान होने लगे तो प्रत्येक शक्तिशाली पुरुषको पुनः सम्मान मिलनेपर भी उस स्थानका परित्याग कर देना चाहिये॥३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उषितास्मि तवागारे दीर्घकालं समर्चिता।
तदिदं वैरमुत्पन्नं सुखमाशु व्रजाम्यहम् ॥ ३४ ॥
मूलम्
उषितास्मि तवागारे दीर्घकालं समर्चिता।
तदिदं वैरमुत्पन्नं सुखमाशु व्रजाम्यहम् ॥ ३४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! मैं आपके घरमें बहुत दिनोंतक बड़े आदरके साथ रही हूँ; परंतु अब यह वैर उत्पन्न हो गया; इसलिये मैं बहुत जल्दी यहाँसे सुखपूर्वक चली जाऊँगी॥३४॥
मूलम् (वचनम्)
ब्रह्मदत्त उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
यः कृते प्रतिकुर्याद् वै न स तत्रापराध्नुयात्।
अनृणस्तेन भवति वस पूजनि मा गमः ॥ ३५ ॥
मूलम्
यः कृते प्रतिकुर्याद् वै न स तत्रापराध्नुयात्।
अनृणस्तेन भवति वस पूजनि मा गमः ॥ ३५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्रह्मदत्तने कहा— पूजनी! जो एक व्यक्तिके अपराध करनेपर बदलेमें स्वयं भी कुछ करे, वह कोई अपराध नहीं करता—अपराधी नहीं माना जाता। इससे तो पहलेका अपराधी ऋणमुक्त हो जाता है; इसलिये तू यहीं रह। कहीं मत जा॥३५॥
मूलम् (वचनम्)
पूजन्युवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
न कृतस्य तु कर्तुश्च सख्यं संधीयते पुनः।
हृदयं तत्र जानाति कर्तुश्चैव कृतस्य च ॥ ३६ ॥
मूलम्
न कृतस्य तु कर्तुश्च सख्यं संधीयते पुनः।
हृदयं तत्र जानाति कर्तुश्चैव कृतस्य च ॥ ३६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पूजनी बोली— राजन्! जिसका अपकार किया जाता है और जो अपकार करता है, उन दोनोंमें फिर मेल नहीं हो सकता। जो अपराध करता है और जिसपर किया जाता है, उन दोनोंके ही हृदयोंमें वह बात खटकती रहती है॥३६॥
मूलम् (वचनम्)
ब्रह्मदत्त उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृतस्य चैव कर्तुश्च सख्यं संधीयते पुनः।
वैरस्योपशमो दृष्टः पापं नोपाश्नुते पुनः ॥ ३७ ॥
मूलम्
कृतस्य चैव कर्तुश्च सख्यं संधीयते पुनः।
वैरस्योपशमो दृष्टः पापं नोपाश्नुते पुनः ॥ ३७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्रह्मदत्तने कहा— पूजनी! बदला ले लेनेपर तो वैर शान्त हो जाता है और अपकार करनेवालेको उस पापका फल भी नहीं भोगना पड़ता; अतः अपराध करने और सहनेवालेका मेल पुनः हो सकता है॥३७॥
मूलम् (वचनम्)
पूजन्युवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
नास्ति वैरमतिक्रान्तं सान्त्वितोऽस्मीति नाश्वसेत्।
विश्वासाद् वध्यते लोके तस्माच्छ्रेयोऽप्यदर्शनम् ॥ ३८ ॥
मूलम्
नास्ति वैरमतिक्रान्तं सान्त्वितोऽस्मीति नाश्वसेत्।
विश्वासाद् वध्यते लोके तस्माच्छ्रेयोऽप्यदर्शनम् ॥ ३८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पूजनी बोली— राजन्! इस प्रकार कभी वैर शान्त नहीं होता है। ‘शत्रुने मुझे सान्त्वना दी है,’ ऐसा समझकर उसपर कभी विश्वास नहीं करना चाहिये। ऐसी अवस्थामें विश्वास करनेसे जगत्में अपने प्राणोंसे भी (कभी-न-कभी) हाथ धोना पड़ता है, इसलिये वहाँ मुँह न दिखाना ही अच्छा है॥३८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तरसा ये न शक्यन्ते शस्त्रैः सुनिशितैरपि।
साम्ना तेऽपि निगृह्यन्ते गजा इव करेणुभिः ॥ ३९ ॥
मूलम्
तरसा ये न शक्यन्ते शस्त्रैः सुनिशितैरपि।
साम्ना तेऽपि निगृह्यन्ते गजा इव करेणुभिः ॥ ३९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो लोग बलपूर्वक तीखे शस्त्रोंसे भी वशमें नहीं किये जा सकते, उन्हें भी मीठी वाणीद्वारा बंदी बना लिया जाता है। जैसे हथिनियोंकी सहायतासे हाथी कैद कर लिये जाते हैं॥३९॥
मूलम् (वचनम्)
ब्रह्मदत्त उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
संवासाज्जायते स्नेहो जीवितान्तकरेष्वपि ।
अन्योन्यस्य च विश्वासः श्वपचेन शुनो यथा ॥ ४० ॥
मूलम्
संवासाज्जायते स्नेहो जीवितान्तकरेष्वपि ।
अन्योन्यस्य च विश्वासः श्वपचेन शुनो यथा ॥ ४० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्रह्मदत्तने कहा— पूजनी! प्राणोंका नाश करनेवाले भी यदि एक साथ रहने लगें तो उनमें परस्पर स्नेह उत्पन्न हो जाता है और वे एक-दूसरेका विश्वास भी करने लगते हैं; जैसे श्वपच (चाण्डाल) के साथ रहनेसे कुत्तेका उसके प्रति स्नेह और विश्वास हो जाता है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अन्योन्यकृतवैराणां संवासान्मृदुतां गतम् ।
नैव तिष्ठति तद् वैरं पुष्करस्थमिवोदकम् ॥ ४१ ॥
मूलम्
अन्योन्यकृतवैराणां संवासान्मृदुतां गतम् ।
नैव तिष्ठति तद् वैरं पुष्करस्थमिवोदकम् ॥ ४१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आपसमें जिनका वैर हो गया है, उनका वह वैर भी एक साथ रहनेसे मृदु हो जाता है, अतः कमल के पत्तेपर जैसे जल नहीं ठहरता है, उसी प्रकार वह वैर भी टिक नहीं पाता है॥४१॥
मूलम् (वचनम्)
पूजन्युवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
वैरं पञ्चसमुत्थानं तच्च बुध्यन्ति पण्डिताः।
स्त्रीकृतं वास्तुजं वाग्जं ससापत्नापराधजम् ॥ ४२ ॥
मूलम्
वैरं पञ्चसमुत्थानं तच्च बुध्यन्ति पण्डिताः।
स्त्रीकृतं वास्तुजं वाग्जं ससापत्नापराधजम् ॥ ४२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पूजनी बोली— राजन्! वैर पाँच कारणोंसे हुआ करता है; इस बातको विद्वान् पुरुष अच्छी तरह जानते हैं। १. स्त्रीके लिये, २. घर और जमीनके लिये, ३. कठोर वाणीके कारण, ४. जातिगत द्वेषके कारण और ५. किसी समय किये हुए अपराधके कारण॥४२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्र दाता न हन्तव्यः क्षत्रियेण विशेषतः।
प्रकाशं वाप्रकाशं वा बुद्ध्वा दोषबलाबलम् ॥ ४३ ॥
मूलम्
तत्र दाता न हन्तव्यः क्षत्रियेण विशेषतः।
प्रकाशं वाप्रकाशं वा बुद्ध्वा दोषबलाबलम् ॥ ४३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इन कारणोंसे भी ऐसे व्यक्तिका वध नहीं करना चाहिये जो दाता हो अर्थात् परोपकारी हो, विशेषतः क्षत्रियनरेशको छिपकर या प्रकटरूपमें ऐसे व्यक्तिपर हाथ नहीं उठाना चाहिये। पहले यह विचार कर लेना चाहिये कि उसका दोष हल्का है या भारी। उसके बाद कोई कदम उठाना चाहिये॥४३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृतवैरे न विश्वासः कार्यस्त्विह सुहृद्यपि।
छन्नं संतिष्ठते वैरं गूढोऽग्निरिव दारुषु ॥ ४४ ॥
मूलम्
कृतवैरे न विश्वासः कार्यस्त्विह सुहृद्यपि।
छन्नं संतिष्ठते वैरं गूढोऽग्निरिव दारुषु ॥ ४४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिसने वैर बाँध लिया हो, ऐसे सुहृद्पर भी इस जगत्में विश्वास नहीं करना चाहिये; क्योंकि जैसे लकड़ीके भीतर आग छिपी रहती है, उसी प्रकार उसके हृदयमें वैरभाव छिपा रहता है॥४४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न वित्तेन न पारुष्यैर्न सान्त्वेन न च श्रुतैः।
कोपाग्निः शाम्यते राजंस्तोयाग्निरिव सागरे ॥ ४५ ॥
मूलम्
न वित्तेन न पारुष्यैर्न सान्त्वेन न च श्रुतैः।
कोपाग्निः शाम्यते राजंस्तोयाग्निरिव सागरे ॥ ४५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! जिस प्रकार बडवानल समुद्रमें किसी तरह शान्त नहीं होता, उसी प्रकार क्रोधाग्नि भी न धनसे, न कठोरता दिखानेसे, न मीठे वचनों द्वारा समझाने-बुझानेसे और न शास्त्रज्ञानसे ही शान्त होती है॥४५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न हि वैराग्निरुद्भूतः कर्म चाप्यपराधजम्।
शाम्यत्यदग्ध्वा नृपते विना ह्येकतरक्षयात् ॥ ४६ ॥
मूलम्
न हि वैराग्निरुद्भूतः कर्म चाप्यपराधजम्।
शाम्यत्यदग्ध्वा नृपते विना ह्येकतरक्षयात् ॥ ४६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नरेश्वर! प्रज्वलित हुई वैरकी आग एक पक्षको दग्ध किये बिना नहीं बुझती है और अपराधजनित कर्म भी एक पक्षका संहार किये बिना शान्त नहीं होता है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सत्कृतस्यार्थमानाभ्यां तत्र पूर्वापकारिणः ।
नादेयोऽमित्रविश्वासः कर्म त्रासयतेऽबलान् ॥ ४७ ॥
मूलम्
सत्कृतस्यार्थमानाभ्यां तत्र पूर्वापकारिणः ।
नादेयोऽमित्रविश्वासः कर्म त्रासयतेऽबलान् ॥ ४७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिसने पहले अपकार किया है, उसका यदि अपकृत व्यक्तिके द्वारा धन और मानसे सत्कार किया जाय तो भी उसे उस शत्रुका विश्वास नहीं करना चाहिये; क्योंकि अपना किया हुआ पापकर्म ही दुर्बलोंको डराता रहता है॥४७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नैवापकारे कस्मिंश्चिदहं त्वयि तथा भवान्।
उषितास्मि गृहेऽहं ते नेदानीं विश्वसाम्यहम् ॥ ४८ ॥
मूलम्
नैवापकारे कस्मिंश्चिदहं त्वयि तथा भवान्।
उषितास्मि गृहेऽहं ते नेदानीं विश्वसाम्यहम् ॥ ४८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अबतक तो न मैंने कोई आपका अपकार किया था और न आपने ही मेरी कोई हानि की थी; इसलिये मैं आपके महलमें रहती थी, किंतु अब मैं आपका विश्वास नहीं कर सकती॥४८॥
मूलम् (वचनम्)
ब्रह्मदत्त उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
कालेन क्रियते कार्यं तथैव विविधाः क्रियाः।
कालेनैते प्रवर्तन्ते कः कस्येहापराध्यति ॥ ४९ ॥
मूलम्
कालेन क्रियते कार्यं तथैव विविधाः क्रियाः।
कालेनैते प्रवर्तन्ते कः कस्येहापराध्यति ॥ ४९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्रह्मदत्तने कहा— पूजनी! काल ही समस्त कार्य करता है तथा कालके ही प्रभावसे भाँति-भाँतिकी क्रियाएँ आरम्भ होती हैं। इसमें कौन किसका अपराध करता है?॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तुल्यं चोभे प्रवर्तेते मरणं जन्म चैव ह।
कार्यते चैव कालेन तन्निमित्तं न जीवति ॥ ५० ॥
मूलम्
तुल्यं चोभे प्रवर्तेते मरणं जन्म चैव ह।
कार्यते चैव कालेन तन्निमित्तं न जीवति ॥ ५० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जन्म और मृत्यु—ये दोनों क्रियाएँ समानरूपसे चलती रहती हैं। और काल ही इन्हें कराता है। इसीलिये प्राणी जीवित नहीं रह पाता॥५०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वध्यन्ते युगपत् केचिदेकैकस्य न चापरे।
कालो दहति भूतानि सम्प्राप्याग्निरिवेन्धनम् ॥ ५१ ॥
मूलम्
वध्यन्ते युगपत् केचिदेकैकस्य न चापरे।
कालो दहति भूतानि सम्प्राप्याग्निरिवेन्धनम् ॥ ५१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुछ लोग एक साथ ही मारे जाते हैं; कुछ एक-एक करके मरते हैं और बहुत-से लोग दीर्घकालतक मरते ही नहीं हैं। जैसे आग ईंधनको पाकर उसे जला देती है, उसी प्रकार काल ही समस्त प्राणियोंको दग्ध कर देता है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नाहं प्रमाणं नैव त्वमन्योन्यं कारणं शुभे।
कालो नित्यमुपादत्ते सुखं दुःखं च देहिनाम् ॥ ५२ ॥
मूलम्
नाहं प्रमाणं नैव त्वमन्योन्यं कारणं शुभे।
कालो नित्यमुपादत्ते सुखं दुःखं च देहिनाम् ॥ ५२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शुभे! एक दूसरेके प्रति किये गये अपराधमें न तो तुम यथार्थ कारण हो और न मैं ही वास्तविक हेतु हूँ। काल ही सदा समस्त देहधारियोंके सुख-दुःखको ग्रहण या उत्पन्न करता है॥५२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं वसेह सस्नेहा यथाकाममहिंसिता।
यत् कृतं तत् तु मे क्षान्तं त्वं च वै क्षम पूजनि॥५३॥
मूलम्
एवं वसेह सस्नेहा यथाकाममहिंसिता।
यत् कृतं तत् तु मे क्षान्तं त्वं च वै क्षम पूजनि॥५३॥
अनुवाद (हिन्दी)
पूजनी! मैं तेरी किसी प्रकार हिंसा नहीं करूँगा। तू यहाँ अपनी इच्छा के अनुसार स्नहेपूर्वक निवास कर। तूने जो कुछ किया है, उसे मैंने क्षमा कर दिया और मैंने जो कुछ किया हो, उसे तू भी क्षमा कर दे॥५३॥
मूलम् (वचनम्)
पूजन्युवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदि कालः प्रमाणं ते न वैरं कस्यचिद् भवेत्।
कस्मात् त्वपचितिं यान्ति बान्धवा बान्धवैर्हतैः ॥ ५४ ॥
मूलम्
यदि कालः प्रमाणं ते न वैरं कस्यचिद् भवेत्।
कस्मात् त्वपचितिं यान्ति बान्धवा बान्धवैर्हतैः ॥ ५४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पूजनी बोली— राजन्! यदि आप कालको ही सब क्रियाओंका कारण मानते हैं, तब तो किसीका किसीके साथ वैर नहीं होना चाहिये; फिर अपने भाई-बन्धुओंके मारे जानेपर उनके सगे-सम्बन्धी बदला क्यों लेते हैं?॥५४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कस्माद् देवासुराः पूर्वमन्योन्यमभिजघ्निरे ।
यदि कालेन निर्याणं सुखं दुःखं भवाभवौ ॥ ५५ ॥
मूलम्
कस्माद् देवासुराः पूर्वमन्योन्यमभिजघ्निरे ।
यदि कालेन निर्याणं सुखं दुःखं भवाभवौ ॥ ५५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यदि कालसे ही मृत्यु, दुःख-सुख और उन्नति अवनति आदिका सम्पादन होता है, तब पूर्वकालमें देवताओं और असुरों ने क्यों आपसमें युद्ध करके एक दूसरे का वध किया?॥५५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भिषजो भैषजं कर्तुं कस्मादिच्छन्ति रोगिणः।
यदि कालेन पच्यन्ते भेषजैः किं प्रयोजनम् ॥ ५६ ॥
मूलम्
भिषजो भैषजं कर्तुं कस्मादिच्छन्ति रोगिणः।
यदि कालेन पच्यन्ते भेषजैः किं प्रयोजनम् ॥ ५६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैद्यलोग रोगियोंकी दवा करनेकी अभिलाषा क्यों करते हैं? यदि काल ही सबको पका रहा है तो दवाओंका क्या प्रयोजन है?॥५६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रलापः सुमहान् कस्मात् क्रियते शोकमूर्च्छितैः।
यदि कालः प्रमाणं ते कस्माद् धर्मोऽस्ति कर्तृषु ॥ ५७ ॥
मूलम्
प्रलापः सुमहान् कस्मात् क्रियते शोकमूर्च्छितैः।
यदि कालः प्रमाणं ते कस्माद् धर्मोऽस्ति कर्तृषु ॥ ५७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यदि आप कालको ही प्रमाण मानते हैं तो शोकसे मूर्च्छित हुए प्राणी क्यों महान् प्रलाप एवं हाहाकार करते हैं? फिर कर्म करनेवालोंके लिये विधि-निषेधरूपी धर्मके पालनका नियम क्यों रखा गया है?॥५७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तव पुत्रो ममापत्यं हतवान् स हतो मया।
अनन्तरं त्वयाहं च हन्तव्या हि नराधिप ॥ ५८ ॥
मूलम्
तव पुत्रो ममापत्यं हतवान् स हतो मया।
अनन्तरं त्वयाहं च हन्तव्या हि नराधिप ॥ ५८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नरेश्वर! आपके बेटेने मेरे बच्चेको मार डाला और मैंने भी उसकी आँखोंको नष्ट कर दिया। इसके बाद अब आप मेरा वध कर डालेंगे॥५८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहं हि पुत्रशोकेन कृतपापा तवात्मजे।
यथा त्वया प्रहर्तव्यं तथा तत्त्वं च मे शृणु॥५९॥
मूलम्
अहं हि पुत्रशोकेन कृतपापा तवात्मजे।
यथा त्वया प्रहर्तव्यं तथा तत्त्वं च मे शृणु॥५९॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे मैं पुत्र शोकसे संतप्त होकर आपके पुत्रके प्रति पापपूर्ण बर्ताव कर बैठी, उसी प्रकार आप भी मुझपर प्रहार कर सकते हैं। यहाँ जो यथार्थ बात है, वह मुझसे सुनिये॥५९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भक्ष्यार्थं क्रीडनार्थं च नरा वाञ्छन्ति पक्षिणः।
तृतीयो नास्ति संयोगो वधबन्धादृते क्षमः ॥ ६० ॥
मूलम्
भक्ष्यार्थं क्रीडनार्थं च नरा वाञ्छन्ति पक्षिणः।
तृतीयो नास्ति संयोगो वधबन्धादृते क्षमः ॥ ६० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मनुष्य खाने और खेलनेके लिये ही पक्षियोंकी कामना करते हैं। वध करने या बन्धनमें डालनेके सिवा तीसरे प्रकारका कोई सम्पर्क पक्षियोंके साथ उनका नहीं देखा जाता है॥६०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वधबन्धभयादेते मोक्षतन्त्रमुपाश्रिताः ।
जनीमरणजं दुःखं प्राहुर्वेदविदो जनाः ॥ ६१ ॥
मूलम्
वधबन्धभयादेते मोक्षतन्त्रमुपाश्रिताः ।
जनीमरणजं दुःखं प्राहुर्वेदविदो जनाः ॥ ६१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस वध और बन्धनके भयसे ही मुमुक्षुलोग मोक्ष-शास्त्रका आश्रय लेकर रहते हैं; क्योंकि वेदवेत्ता पुरुषोंका कहना है कि जन्म और मरणका दुःख असह्य होता है॥६१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वस्य दयिताः प्राणाः सर्वस्य दयिताः सुताः।
दुःखादुद्विजते सर्वः सर्वस्य सुखमीप्सितम् ॥ ६२ ॥
मूलम्
सर्वस्य दयिताः प्राणाः सर्वस्य दयिताः सुताः।
दुःखादुद्विजते सर्वः सर्वस्य सुखमीप्सितम् ॥ ६२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सबको अपने प्राण प्रिय होते हैं, सभीको अपने पुत्र प्यारे लगते हैं; सब लोग दुःखसे उद्विग्न हो उठते हैं और सभीको सुखकी प्राप्ति अभीष्ट होती है॥६२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दुःखं जरा ब्रह्मदत्त दुःखमर्थविपर्ययः।
दुःखं चानिष्टसंवासो दुःखमिष्टवियोजनम् ॥ ६३ ॥
मूलम्
दुःखं जरा ब्रह्मदत्त दुःखमर्थविपर्ययः।
दुःखं चानिष्टसंवासो दुःखमिष्टवियोजनम् ॥ ६३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज ब्रह्मदत्त! दुःखके अनेक रूप हैं। बुढ़ापा दुःख है, धनका नाश दुःख है, अप्रियजनोंके साथ रहना दुःख है और प्रियजनोंसे बिछुड़ना दुःख है॥६३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वधबन्धकृतं दुःखं स्वीकृतं सहजं तथा।
दुःखं सुतेन सततं जनान् विपरिवर्तते ॥ ६४ ॥
मूलम्
वधबन्धकृतं दुःखं स्वीकृतं सहजं तथा।
दुःखं सुतेन सततं जनान् विपरिवर्तते ॥ ६४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वध और बन्धनसे भी सबको दुःख होता है। स्त्रीके कारण और स्वाभाविक रूपसे भी दुःख हुआ करता है तथा पुत्र यदि नष्ट हो जाय या दुष्ट निकल जाय तो उससे भी लोगोंको सदा दुःख प्राप्त होता रहता है॥६४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न दुःखं परदुःखे वै केचिदाहुरबुद्धयः।
यो दुःखं नाभिजानाति स जल्पति महाजने ॥ ६५ ॥
मूलम्
न दुःखं परदुःखे वै केचिदाहुरबुद्धयः।
यो दुःखं नाभिजानाति स जल्पति महाजने ॥ ६५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुछ मूढ़ मनुष्य कहा करते हैं कि पराये दुःखमें दुःख नहीं होता; परंतु वही ऐसी बात श्रेष्ठ पुरुषोंके निकट कहा करता है, जो दुःख के तत्त्वको नहीं जानता॥६५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यस्तु शोचति दुःखार्तः स कथं वक्तुमुत्सहेत्।
रसज्ञः सर्वदुःखस्य यथाऽऽत्मनि तथा परे ॥ ६६ ॥
मूलम्
यस्तु शोचति दुःखार्तः स कथं वक्तुमुत्सहेत्।
रसज्ञः सर्वदुःखस्य यथाऽऽत्मनि तथा परे ॥ ६६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो दुःखसे पीड़ित होकर शोक करता है तथा जो अपने और पराये सभीके दुःखका रस जानता है, वह ऐसी बात कैसे कह सकता है?॥६६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यत् कृतं ते मया राजंस्त्वया च मम यत् कृतम्।
न तद् वर्षशतैः शक्यं व्यपोहितुमरिंदम ॥ ६७ ॥
मूलम्
यत् कृतं ते मया राजंस्त्वया च मम यत् कृतम्।
न तद् वर्षशतैः शक्यं व्यपोहितुमरिंदम ॥ ६७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शत्रुदमन नरेश! आपने जो मेरा अपकार किया है तथा मैंने बदलेमें जो कुछ किया है, उसे सैकड़ों वर्षोंमें भी भुलाया नहीं जा सकता॥६७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आवयोः कृतमन्योन्यं पुनः संधिर्न विद्यते।
स्मृत्वा स्मृत्वा हि ते पुत्रं नवं वैरं भविष्यति॥६८॥
मूलम्
आवयोः कृतमन्योन्यं पुनः संधिर्न विद्यते।
स्मृत्वा स्मृत्वा हि ते पुत्रं नवं वैरं भविष्यति॥६८॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार आपसमें एक दूसरेका अपकार करनेके कारण अब हमारा फिर मेल नहीं हो सकता। अपने पुत्रको याद कर-करके आपका वैर ताजा होता रहेगा॥६८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वैरमन्तिकमासाद्य यः प्रीतिं कर्तुमिच्छति।
मृन्मयस्येव भग्नस्य यथा संधिर्न विद्यते ॥ ६९ ॥
मूलम्
वैरमन्तिकमासाद्य यः प्रीतिं कर्तुमिच्छति।
मृन्मयस्येव भग्नस्य यथा संधिर्न विद्यते ॥ ६९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार मरणान्त वैर ठन जानेपर जो प्रेम करना चाहता है, उसका वह प्रेम उसी प्रकार असम्भव है, जैसे मिट्टीका बर्तन एक बार फूट जानेपर फिर नहीं जुटता है॥६९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निश्चयः स्वार्थशास्त्रेषु विश्वासश्चासुखोदयः ।
उशना चैव गाथे द्वै प्रह्लादायाब्रवीत् पुरा ॥ ७० ॥
मूलम्
निश्चयः स्वार्थशास्त्रेषु विश्वासश्चासुखोदयः ।
उशना चैव गाथे द्वै प्रह्लादायाब्रवीत् पुरा ॥ ७० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
विश्वास दुःख देनेवाला है, यही नीतिशास्त्रोंका निश्चय है। प्रचीनकालमें शुक्राचार्यने भी प्रह्लादसे दो गाथाएँ कही थीं, जो इस प्रकार हैं॥७०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ये वैरिणः श्रद्दधते सत्ये सत्येतरेऽपि वा।
वध्यन्ते श्रद्दधानास्तु मधु शुष्कतृणैर्यथा ॥ ७१ ॥
मूलम्
ये वैरिणः श्रद्दधते सत्ये सत्येतरेऽपि वा।
वध्यन्ते श्रद्दधानास्तु मधु शुष्कतृणैर्यथा ॥ ७१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे सूखे तिनकोंसे ढके हुए गड्ढेके ऊपर रखे हुए मधुको लेने जानेवाले मनुष्य मारे जाते हैं, उसी प्रकार जो लोग वैरीकी झूठी या सच्ची बातपर विश्वास करते हैं, वे भी बेमौत मरते हैं॥७१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न हि वैराणि शाम्यन्ति कुले दुःखगतानि च।
आख्यातारश्च विद्यन्ते कुले वै ध्रियते पुमान् ॥ ७२ ॥
मूलम्
न हि वैराणि शाम्यन्ति कुले दुःखगतानि च।
आख्यातारश्च विद्यन्ते कुले वै ध्रियते पुमान् ॥ ७२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब किसी कुलमें दुःखदायी वैर बँध जाता है, तब वह शान्त नहीं होता। उसे याद दिलानेवाले बने ही रहते हैं, इसलिये जबतक कुलमें एक भी पुरुष जीवित रहता है, तबतक वह वैर नहीं मिटता है॥७२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उपगृह्य तु वैराणि सान्त्वयन्ति नराधिप।
अथैनं प्रतिपिंषन्ति पूर्णं घटमिवाश्मनि ॥ ७३ ॥
मूलम्
उपगृह्य तु वैराणि सान्त्वयन्ति नराधिप।
अथैनं प्रतिपिंषन्ति पूर्णं घटमिवाश्मनि ॥ ७३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नरेश्वर! दुष्ट प्रकृतिके लोग मनमें वैर रखकर ऊपरसे शत्रुको मधुर वचनोंद्वारा सान्त्वना देते रहते हैं। तदनन्तर अवसर पाकर उसे उसी प्रकार पीस डालते हैं, जैसे कोई पानीसे भरे हुए घड़ेको पत्थरपर पटककर चूर-चूर कर दे॥७३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सदा न विश्वसेद् राजन् पापं कृत्वेह कस्यचित्।
अपकृत्य परेषां हि विश्वासाद् दुःखमश्नुते ॥ ७४ ॥
मूलम्
सदा न विश्वसेद् राजन् पापं कृत्वेह कस्यचित्।
अपकृत्य परेषां हि विश्वासाद् दुःखमश्नुते ॥ ७४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! किसीका अपराध करके फिर उसपर कभी विश्वास नहीं करना चाहिये। जो दूसरोंका अपकार करके भी उनपर विश्वास करता है, उसे दुःख भोगना पड़ता है॥७४॥
मूलम् (वचनम्)
ब्रह्मदत्त उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
नाविश्वासाद् विन्दतेऽर्थानीहते चापि किंचन।
भयात् त्वेकतरान्नित्यं मृतकल्पा भवन्ति च ॥ ७५ ॥
मूलम्
नाविश्वासाद् विन्दतेऽर्थानीहते चापि किंचन।
भयात् त्वेकतरान्नित्यं मृतकल्पा भवन्ति च ॥ ७५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्रह्मदत्तने कहा— पूजनी! अविश्वास करनेसे तो मनुष्य संसारमें अपने अभीष्ट पदार्थोंको कभी नहीं प्राप्त कर सकता और न किसी कार्यके लिये कोई चेष्टा ही कर सकता है। यदि मनमें एक पक्षसे सदा भय बना रहे तो मनुष्य मृतकतुल्य हो जायँगे—उनका जीवन ही मिट्टी हो जायगा॥७५॥
मूलम् (वचनम्)
पूजन्युवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
यस्येह व्रणिनौ पादौ पद्भ्यां च परिसर्पति।
खन्येते तस्य तौ पादौ सुगुप्तमिह धावतः ॥ ७६ ॥
मूलम्
यस्येह व्रणिनौ पादौ पद्भ्यां च परिसर्पति।
खन्येते तस्य तौ पादौ सुगुप्तमिह धावतः ॥ ७६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पूजनीने कहा— राजन्! जिसके दोनों पैरोंमें घाव हो गया हो; फिर भी वह उन पैरोंसे ही चलता रहे तो कितना ही बचा-बचाकर क्यों न चले; यहाँ दौड़ते हुए उन पैरोंमें पुनः घाव होते ही रहेंगे॥७६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नेत्राभ्यां सरुजाभ्यां यः प्रतिवातमुदीक्षते।
तस्य वायुरुजात्यर्थं नेत्रयोर्भवति ध्रुवम् ॥ ७७ ॥
मूलम्
नेत्राभ्यां सरुजाभ्यां यः प्रतिवातमुदीक्षते।
तस्य वायुरुजात्यर्थं नेत्रयोर्भवति ध्रुवम् ॥ ७७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो मनुष्य अपने रोगी नेत्रोंसे हवाकी ओर रुख करके देखता है, उसके उन नेत्रोंमें वायुके कारण अवश्य ही बहुत पीड़ा बढ़ जाती है॥७७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दुष्टं पन्थानमासाद्य यो मोहादुपपद्यते।
आत्मनो बलमज्ञाय तदन्तं तस्य जीवितम् ॥ ७८ ॥
मूलम्
दुष्टं पन्थानमासाद्य यो मोहादुपपद्यते।
आत्मनो बलमज्ञाय तदन्तं तस्य जीवितम् ॥ ७८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो अपनी शक्तिको न समझकर मोहवश दुर्गम मार्गपर चल देता है, उसका जीवन वहीं समाप्त हो जाता है॥७८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यस्तु वर्षमविज्ञाय क्षेत्रं कर्षति कर्षकः।
हीनः पुरुषकारेण सस्यं नैवाश्नुते ततः ॥ ७९ ॥
मूलम्
यस्तु वर्षमविज्ञाय क्षेत्रं कर्षति कर्षकः।
हीनः पुरुषकारेण सस्यं नैवाश्नुते ततः ॥ ७९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो किसान वर्षाके समयका विचार न करके खेत जोतता है, उसका पुरुषार्थ व्यर्थ जाता है; और उस जुताईसे उसको अनाज नहीं मिल पाता॥७९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यस्तु तिक्तं कषायं वा स्वादु वा मधुरं हितम्।
आहारं कुरुते नित्यं सोऽमृतत्वाय कल्पते ॥ ८० ॥
मूलम्
यस्तु तिक्तं कषायं वा स्वादु वा मधुरं हितम्।
आहारं कुरुते नित्यं सोऽमृतत्वाय कल्पते ॥ ८० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो प्रतिदिन तीता, कसैला, स्वादिष्ट अथवा मधुर, जैसा भी हो, हितकर भोजन करता है, वही अन्न उसके लिये अमृतके समान लाभकारी होता है॥८०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पथ्यं मुक्त्वा तु यो मोहाद् दुष्टमश्नाति भोजनम्।
परिणाममविज्ञाय तदन्तं तस्य जीवितम् ॥ ८१ ॥
मूलम्
पथ्यं मुक्त्वा तु यो मोहाद् दुष्टमश्नाति भोजनम्।
परिणाममविज्ञाय तदन्तं तस्य जीवितम् ॥ ८१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
परंतु जो परिणामके विचार किये बिना ही मोहवश पथ्य छोड़कर अपथ्य भोजन करता है, उसके जीवनका वहीं अन्त हो जाता है॥८१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दैवं पुरुषकारश्च स्थितावन्योन्यसंश्रयात् ।
उदाराणां तु सत्कर्म दैवं क्लीबा उपासते ॥ ८२ ॥
मूलम्
दैवं पुरुषकारश्च स्थितावन्योन्यसंश्रयात् ।
उदाराणां तु सत्कर्म दैवं क्लीबा उपासते ॥ ८२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
दैव और पुरुषार्थ दोनों एक-दूसरेके सहारे रहते हैं, परंतु उदार विचारवाले पुरुष सर्वदा शुभ कर्म करते हैं और नपुंसक दैवके भरोसे पड़े रहते हैं॥८२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कर्म चात्महितं कार्यं तीक्ष्णं वा यदि वा मृदु।
ग्रस्यतेऽकर्मशीलस्तु सदानर्थैरकिञ्चनः ॥ ८३ ॥
मूलम्
कर्म चात्महितं कार्यं तीक्ष्णं वा यदि वा मृदु।
ग्रस्यतेऽकर्मशीलस्तु सदानर्थैरकिञ्चनः ॥ ८३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कठोर अथवा कोमल, जो अपने लिये हितकर हो, वह कर्म करते रहना चाहिये। जो कर्मको छोड़ बैठता है, वह निर्धन होकर सदा अनर्थोंका शिकार बना रहता है॥८३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मात् सर्वं व्यपोह्यार्थं कार्य एव पराक्रमः।
सर्वस्वमपि संत्यज्य कार्यमात्महितं नरैः ॥ ८४ ॥
मूलम्
तस्मात् सर्वं व्यपोह्यार्थं कार्य एव पराक्रमः।
सर्वस्वमपि संत्यज्य कार्यमात्महितं नरैः ॥ ८४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अतः काल, दैव और स्वभाव आदि सारे पदार्थोंका भरोसा छोड़कर पराक्रम ही करना चाहिये। मनुष्यको सर्वस्वकी बाजी लगाकर भी अपने हितका साधन ही करना चाहिये॥८४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विद्या शौर्यं च दाक्ष्यं च बलं धैर्यं च पञ्चमम्।
मित्राणि सहजान्याहुर्वर्तयन्तीह तैर्बुधाः ॥ ८५ ॥
मूलम्
विद्या शौर्यं च दाक्ष्यं च बलं धैर्यं च पञ्चमम्।
मित्राणि सहजान्याहुर्वर्तयन्तीह तैर्बुधाः ॥ ८५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
विद्या, शूरवीरता, दक्षता, बल और पाँचवाँ धैर्य—ये पाँच मनुष्य के स्वाभाविक मित्र बताये गये हैं। विद्वान् पुरुष इनके द्वारा ही इस जगत्में सारे कार्य करते हैं॥८५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निवेशनं च कुप्यं च क्षेत्रं भार्या सुहृज्जनः।
एतान्युपहितान्याहुः सर्वत्र लभते पुमान् ॥ ८६ ॥
मूलम्
निवेशनं च कुप्यं च क्षेत्रं भार्या सुहृज्जनः।
एतान्युपहितान्याहुः सर्वत्र लभते पुमान् ॥ ८६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
घर, ताँबा आदि धातु, खेत, स्त्री और सुहृद्जन—ये उपमित्र बताये गये हैं। इन्हें मनुष्य सर्वत्र पा सकता है॥८६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वत्र रमते प्राज्ञः सर्वत्र च विराजते।
न विभीषयते कश्चिद् भीषितो न बिभेति च ॥ ८७ ॥
मूलम्
सर्वत्र रमते प्राज्ञः सर्वत्र च विराजते।
न विभीषयते कश्चिद् भीषितो न बिभेति च ॥ ८७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
विद्वान् पुरुष सर्वत्र आनन्दमें रहता है और सर्वत्र उसकी शोभा होती है। उसे कोई डराता नहीं है और किसीके डरानेपर भी वह डरता नहीं है॥८७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नित्यं बुद्धिमतोऽप्यर्थः स्वल्पकोऽपि विवर्धते।
दाक्ष्येण कुर्वतः कर्म संयमात् प्रतितिष्ठति ॥ ८८ ॥
मूलम्
नित्यं बुद्धिमतोऽप्यर्थः स्वल्पकोऽपि विवर्धते।
दाक्ष्येण कुर्वतः कर्म संयमात् प्रतितिष्ठति ॥ ८८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
बुद्धिमान्के पास थोड़ा-सा धन हो तो वह भी सदा बढ़ता रहता है। वह दक्षतापूर्वक काम करते हुए संयमके द्वारा प्रतिष्ठित होता है॥८८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गृहस्नेहावबद्धानां नराणामल्पमेधसाम् ।
कुस्त्री खादति मांसानि माघमां सेगवा इव ॥ ८९ ॥
मूलम्
गृहस्नेहावबद्धानां नराणामल्पमेधसाम् ।
कुस्त्री खादति मांसानि माघमां सेगवा इव ॥ ८९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
घरकी आसक्तिमें बँधें हुए मन्दबुद्धि मनुष्योंके मांसोंको कुटिल स्त्री खा जाती है अर्थात् उसे सुखा डालती है, जैसे केकड़ेकी मादाको उसकी संतानें ही नष्ट कर देती हैं॥८९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गृहं क्षेत्राणि मित्राणि स्वदेश इति चापरे।
इत्येवमवसीदन्ति नरा बुद्धिविपर्यये ॥ ९० ॥
मूलम्
गृहं क्षेत्राणि मित्राणि स्वदेश इति चापरे।
इत्येवमवसीदन्ति नरा बुद्धिविपर्यये ॥ ९० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
बुद्धिके विपरीत हो जानेसे दूसरे-दूसरे बहुतेरे मनुष्य घर, खेत, मित्र और अपने देश आदिकी चिन्तासे ग्रस्त होकर सदा दुखी बने रहते हैं॥९०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उत्पतेत् सहजाद् देशाद् व्याधिदुर्भिक्षपीडितात्।
अन्यत्र वस्तुं गच्छेद् वा वसेद् वा नित्यमानितः ॥ ९१ ॥
मूलम्
उत्पतेत् सहजाद् देशाद् व्याधिदुर्भिक्षपीडितात्।
अन्यत्र वस्तुं गच्छेद् वा वसेद् वा नित्यमानितः ॥ ९१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अपना जन्मस्थान भी यदि रोग और दुर्भिक्षसे पीडित हो तो आत्मरक्षाके लिये वहाँसे हट जाना या अन्यत्र निवासके लिये चले जाना चाहिये। यदि वहाँ रहना ही हो तो सदा सम्मानित होकर रहे॥९१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मादन्यत्र यास्यामि वस्तुं नाहमिहोत्सहे।
कृतमेतदनार्यं मे तव पुत्रे च पार्थिव ॥ ९२ ॥
मूलम्
तस्मादन्यत्र यास्यामि वस्तुं नाहमिहोत्सहे।
कृतमेतदनार्यं मे तव पुत्रे च पार्थिव ॥ ९२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भूपाल! मैंने तुम्हारे पुत्रके साथ दुष्टतापूर्ण बर्ताव किया है, इसलिये मैं अब यहाँ रहनेका साहस नहीं कर सकती, दूसरी जगह चली जाऊँगी॥९२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कुभार्यां च कुपुत्रं च कुराजानं कुसौहृदम्।
कुसम्बन्धं कुदेशं च दूरतः परिवर्जयेत् ॥ ९३ ॥
मूलम्
कुभार्यां च कुपुत्रं च कुराजानं कुसौहृदम्।
कुसम्बन्धं कुदेशं च दूरतः परिवर्जयेत् ॥ ९३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
दुष्टा भार्या, दुष्ट पुत्र, कुटिल राजा, दुष्ट मित्र, दूषित सम्बन्ध और दुष्ट देशको दूरसे ही त्याग देना चाहिये॥९३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कुपुत्रे नास्ति विश्वासः कुभार्यायां कुतो रतिः।
कुराज्ये निर्वृतिर्नास्ति कुदेशे नास्ति जीविका ॥ ९४ ॥
मूलम्
कुपुत्रे नास्ति विश्वासः कुभार्यायां कुतो रतिः।
कुराज्ये निर्वृतिर्नास्ति कुदेशे नास्ति जीविका ॥ ९४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुपुत्रपर कभी विश्वास नहीं हो सकता। दुष्टा भार्यापर प्रेम कैसे हो सकता है? कुटिल राजाके राज्यमें कभी शान्ति नहीं मिल सकती और दुष्ट देशमें जीवन-निर्वाह नहीं हो सकता॥९४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कुमित्रे संगतिर्नास्ति नित्यमस्थिरसौहृदे ।
अवमानः कुसम्बन्धे भवत्यर्थविपर्यये ॥ ९५ ॥
मूलम्
कुमित्रे संगतिर्नास्ति नित्यमस्थिरसौहृदे ।
अवमानः कुसम्बन्धे भवत्यर्थविपर्यये ॥ ९५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुमित्रका स्नेह कभी स्थिर नहीं रह सकता, इसलिये उसके साथ सदा मेल बना रहे—यह असम्भव है और जहाँ दूषित सम्बन्ध हो, वहाँ स्वार्थमें अन्तर आनेपर अपमान होने लगता है॥९५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सा भार्या या प्रियं ब्रूते स पुत्रो यत्र निर्वृतिः।
तन्मित्रं यत्र विश्वासः स देशो यत्र जीव्यते ॥ ९६ ॥
मूलम्
सा भार्या या प्रियं ब्रूते स पुत्रो यत्र निर्वृतिः।
तन्मित्रं यत्र विश्वासः स देशो यत्र जीव्यते ॥ ९६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पत्नी वही अच्छी है, जो प्रिय वचन बोले। पुत्र वही अच्छा है, जिससे सुख मिले। मित्र वही श्रेष्ठ है, जिसपर विश्वास बना रहे और देश भी वही उत्तम है, जहाँ जीविका चल सके॥९६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यत्र नास्ति बलात्कारः स राजा तीव्रशासनः।
भीरेव नास्ति सम्बन्धो दरिद्रं यो बुभूषते ॥ ९७ ॥
मूलम्
यत्र नास्ति बलात्कारः स राजा तीव्रशासनः।
भीरेव नास्ति सम्बन्धो दरिद्रं यो बुभूषते ॥ ९७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उग्र शासनवाला राजा वही श्रेष्ठ है, जिसके राज्यमें बलात्कार न हो, किसी प्रकारका भय न रहे, जो दरिद्रका पालन करना चाहता हो तथा प्रजाके साथ जिसका पाल्य-पालक सम्बन्ध सदा बना रहे॥९७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भार्या देशोऽथ मित्राणि पुत्रसम्बन्धिबान्धवाः।
एते सर्वे गुणवति धर्मनेत्रे महीपतौ ॥ ९८ ॥
मूलम्
भार्या देशोऽथ मित्राणि पुत्रसम्बन्धिबान्धवाः।
एते सर्वे गुणवति धर्मनेत्रे महीपतौ ॥ ९८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिस देशका राजा गुणवान् और धर्मपरायण होता है, वहाँ स्त्री, पुत्र, मित्र सम्बन्धी तथा देश सभी उत्तम गुणसे सम्पन्न होते हैं॥९८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अधर्मज्ञस्य विलयं प्रजा गच्छन्ति निग्रहात्।
राजा मूलं त्रिवर्गस्य स्वप्रमत्तोऽनुपालयेत् ॥ ९९ ॥
मूलम्
अधर्मज्ञस्य विलयं प्रजा गच्छन्ति निग्रहात्।
राजा मूलं त्रिवर्गस्य स्वप्रमत्तोऽनुपालयेत् ॥ ९९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो राजा धर्मको नहीं जानता, उसके अत्याचारसे प्रजाका नाश हो जाता है। राजा ही धर्म, अर्थ और काम—इन तीनोंका मूल है। अतः उसे पूर्ण सावधान रहकर निरन्तर अपनी प्रजाका पालन करना चाहिये॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बलिषड्भागमुद्धृत्य बलिं समुपयोजयेत् ।
न रक्षति प्रजाः सम्यग् यः स पार्थिवतस्करः ॥ १०० ॥
मूलम्
बलिषड्भागमुद्धृत्य बलिं समुपयोजयेत् ।
न रक्षति प्रजाः सम्यग् यः स पार्थिवतस्करः ॥ १०० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो प्रजाकी आयका छठा भाग कररूपसे ग्रहण करके उसका उपभोग करता है और प्रजाका भलीभाँति पालन नहीं करता, वह तो राजाओंमें चोर है॥१००॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दत्त्वाभयं यः स्वयमेव राजा
न तत् प्रमाणं कुरुतेऽर्थलोभात्।
स सर्वलोकादुपलभ्य पापं
सोऽधर्मबुद्धिर्निरयं प्रयाति ॥ १०१ ॥
मूलम्
दत्त्वाभयं यः स्वयमेव राजा
न तत् प्रमाणं कुरुतेऽर्थलोभात्।
स सर्वलोकादुपलभ्य पापं
सोऽधर्मबुद्धिर्निरयं प्रयाति ॥ १०१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो प्रजाको अभयदान देकर धनके लोभसे स्वयं ही उसका पालन नहीं करता, वह पापबुद्धि राजा सारे जगत्का पाप बटोरकर नरकमें जाता है॥१०१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दत्त्वाभयं स्वयं राजा प्रमाणं कुरुते यदि।
स सर्वसुखकृज्ज्ञेयः प्रजा धर्मेण पालयन् ॥ १०२ ॥
मूलम्
दत्त्वाभयं स्वयं राजा प्रमाणं कुरुते यदि।
स सर्वसुखकृज्ज्ञेयः प्रजा धर्मेण पालयन् ॥ १०२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो अभयदान देकर प्रजाका धर्मपूर्वक पालन करते हुए स्वयं ही अपनी प्रतिज्ञाको सत्य प्रमाणित कर देता है, वह राजा सबको सुख देनेवाला समझा जाता है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
माता पिता गुरुर्गोप्ता वह्निर्वैश्रवणो यमः।
सप्त राज्ञो गुणानेतान् मनुराह प्रजापतिः ॥ १०३ ॥
मूलम्
माता पिता गुरुर्गोप्ता वह्निर्वैश्रवणो यमः।
सप्त राज्ञो गुणानेतान् मनुराह प्रजापतिः ॥ १०३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रजापति मनुने राजाके सात गुण बताये हैं, और उन्हींके अनुसार उसे माता, पिता, गुरु, रक्षक, अग्नि, कुबेर और यमकी उपमा दी है॥१०३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पिता हि राजा राष्ट्रस्य प्रजानां योऽनुकम्पनः।
तस्मिन् मिथ्याविनीतो हि तिर्यग् गच्छति मानवः ॥ १०४ ॥
मूलम्
पिता हि राजा राष्ट्रस्य प्रजानां योऽनुकम्पनः।
तस्मिन् मिथ्याविनीतो हि तिर्यग् गच्छति मानवः ॥ १०४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो राजा प्रजापर सदा कृपा रखता है, वह अपने राष्ट्रके लिये पिताके समान है। उसके प्रति जो मिथ्याभाव प्रदर्शित करता है, वह मनुष्य दूसरे जन्ममें पशु-पक्षीकी योनिमें जाता है॥१०४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सम्भावयति मातेव दीनमप्युपपद्यते ।
दहत्यग्निरिवानिष्टान् यमयन्नसतो यमः ॥ १०५ ॥
मूलम्
सम्भावयति मातेव दीनमप्युपपद्यते ।
दहत्यग्निरिवानिष्टान् यमयन्नसतो यमः ॥ १०५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजा दीन-दुःखियोंकी भी सुधि लेता और सबका पालन करता है, इसलिये वह माताके समान है। अपने और प्रजाके अप्रियजनोंको वह जलाता रहता है; अतः अग्निके समान है और दुष्टोंका दमन करके उन्हें संयममें रखता है; इसलिये यम कहा गया है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इष्टेषु विसृजन्नर्थान् कुबेर इव कामदः।
गुरुर्धर्मोपदेशेन गोप्ता च परिपालयन् ॥ १०६ ॥
मूलम्
इष्टेषु विसृजन्नर्थान् कुबेर इव कामदः।
गुरुर्धर्मोपदेशेन गोप्ता च परिपालयन् ॥ १०६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रियजनोंको खुले हाथ धन लुटाता है और उनकी कामना पूरी करता है, इसलिये कुबेरके समान है। धर्मका उपदेश करनेके कारण गुरु और सबका संरक्षण करनेके कारण रक्षक है॥१०६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यस्तु रञ्जयते राजा पौरजानपदान् गुणौः।
न तस्य भ्रमते राज्यं स्वयं धर्मानुपालनात् ॥ १०७ ॥
मूलम्
यस्तु रञ्जयते राजा पौरजानपदान् गुणौः।
न तस्य भ्रमते राज्यं स्वयं धर्मानुपालनात् ॥ १०७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो राजा अपने गुणोंसे नगर और जनपदके लोगोंको प्रसन्न रखता है, उसका राज्य कभी डावाँडोल नहीं होता क्योंकि वह स्वयं धर्मका निरन्तर पालन करता रहता है॥१०७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वयं समुपजानन् हि पौरजानपदार्चनम्।
स सुखं प्रेक्षते राजा इह लोके परत्र च॥१०८॥
मूलम्
स्वयं समुपजानन् हि पौरजानपदार्चनम्।
स सुखं प्रेक्षते राजा इह लोके परत्र च॥१०८॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो स्वयं नगर और गाँवोंके लोगोंका सम्मान करना जानता है, वह राजा इहलोक और परलोकमें सर्वत्र सुख-ही-सुख देखता है॥१०८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नित्योद्विग्नाः प्रजा यस्य करभारप्रपीडिताः।
अनर्थैर्विप्रलुप्यन्ते स गच्छति पराभवम् ॥ १०९ ॥
मूलम्
नित्योद्विग्नाः प्रजा यस्य करभारप्रपीडिताः।
अनर्थैर्विप्रलुप्यन्ते स गच्छति पराभवम् ॥ १०९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिसकी प्रजा सर्वदा करके भारसे पीड़ित हो नित्य उद्विग्न रहती है और नाना प्रकारके अनर्थ उसे सताते रहते हैं, वह राजा पराभवको प्राप्त होता है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रजा यस्य विवर्धन्ते सरसीव महोत्पलम्।
स सर्वफलभाग् राजा स्वर्गलोके महीयते ॥ ११० ॥
मूलम्
प्रजा यस्य विवर्धन्ते सरसीव महोत्पलम्।
स सर्वफलभाग् राजा स्वर्गलोके महीयते ॥ ११० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसके विपरीत जिसकी प्रजा सरोवरमें कमलोंके समान विकास एवं वृद्धिको प्राप्त होती रहती है, वह सब प्रकारके पुण्यफलोंका भागी होता है और स्वर्गलोकमें भी सम्मान पाता है॥११०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बलिना विग्रहो राजन् न कदाचित् प्रशस्यते।
बलिना विग्रहो यस्य कुतो राज्यं कुतः सुखम् ॥ १११ ॥
मूलम्
बलिना विग्रहो राजन् न कदाचित् प्रशस्यते।
बलिना विग्रहो यस्य कुतो राज्यं कुतः सुखम् ॥ १११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! बलवान्के साथ युद्ध छेड़ना कभी अच्छा नहीं माना जाता। जिसने बलवान्के साथ झगड़ा मोल ले लिया, उसके लिये कहाँ राज्य है और कहाँ सुख?॥१११॥
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
सैवमुक्त्वा शकुनिका ब्रह्मदत्तं नराधिप।
राजानं समनुज्ञाप्य जगामाभीप्सितां दिशम् ॥ ११२ ॥
मूलम्
सैवमुक्त्वा शकुनिका ब्रह्मदत्तं नराधिप।
राजानं समनुज्ञाप्य जगामाभीप्सितां दिशम् ॥ ११२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजी कहते हैं— नरेश्वर! राजा ब्रह्मदत्तसे ऐसा कहकर वह पूजनी चिड़िया उनसे विदा ले अभीष्ट दिशाको चली गयी॥११२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतत् ते ब्रह्मदत्तस्य पूजन्या सह भाषितम्।
मयोक्तं नृपतिश्रेष्ठ किमन्यच्छ्रोतुमिच्छसि ॥ ११३ ॥
मूलम्
एतत् ते ब्रह्मदत्तस्य पूजन्या सह भाषितम्।
मयोक्तं नृपतिश्रेष्ठ किमन्यच्छ्रोतुमिच्छसि ॥ ११३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नृपश्रेष्ठ! राजा ब्रह्मदत्तका पूजनी चिड़ियाके साथ जो संवाद हुआ था, यह मैंने तुम्हें सुना दिया। अब और क्या सुनना चाहते हो?॥११३॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि आपद्धर्मपर्वणि ब्रह्मदत्तपूजन्योः संवाद एकोनचत्वारिंशदधिकशततमोऽध्यायः ॥ १३९ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत आपद्धर्मपर्वमें ब्रह्मदत्त और पूजनीका संवादविषयक एकसौ उनतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१३९॥