१३८ मार्जारमूषिकसंवादे

भागसूचना

अष्टात्रिंशदधिकशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

शत्रुओंसे घिरे हुए राजाके कर्तव्यके विषयमें बिडाल और चूहेका आख्यान

मूलम् (वचनम्)

युधिष्ठिर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वत्र बुद्धिः कथिता श्रेष्ठा ते भरतर्षभ।
अनागता तथोत्पन्ना दीर्घसूत्रा विनाशिनी ॥ १ ॥

मूलम्

सर्वत्र बुद्धिः कथिता श्रेष्ठा ते भरतर्षभ।
अनागता तथोत्पन्ना दीर्घसूत्रा विनाशिनी ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिर बोले— भरतश्रेष्ठ! आपने सर्वत्र अनागत (संकट आनेसे पहले ही आत्मरक्षाकी व्यवस्था करनेवाली) तथा प्रत्युत्पन्न (समयपर बचावका उपाय सोच लेनेवाली) बुद्धिको ही श्रेष्ठ बताया है और प्रत्येक कार्यमें आलस्यके कारण विलम्ब करनेवाली बुद्धिको विनाशकारी बताया है॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तदिच्छामि परां श्रोतुं बुद्धिं ते भरतर्षभ।
यथा राजा न मुह्येत शत्रुभिः परिवारितः ॥ २ ॥
धर्मार्थकुशलो राजा धर्मशास्त्रविशारदः ।
पृच्छामि त्वां कुरुश्रेष्ठ तन्मे व्याख्यातुमर्हसि ॥ ३ ॥

मूलम्

तदिच्छामि परां श्रोतुं बुद्धिं ते भरतर्षभ।
यथा राजा न मुह्येत शत्रुभिः परिवारितः ॥ २ ॥
धर्मार्थकुशलो राजा धर्मशास्त्रविशारदः ।
पृच्छामि त्वां कुरुश्रेष्ठ तन्मे व्याख्यातुमर्हसि ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतभूषण! अतः अब मैं उस श्रेष्ठ बुद्धिके विषयमें आपसे सुनना चाहता हूँ, जिसका आश्रय लेनेसे धर्म और अर्थमें कुशल तथा धर्मशास्त्रविशारद राजा शत्रुओं-द्वारा घिरा रहनेपर भी मोहमें नहीं पड़ता। कुरुश्रेष्ठ! उसी बुद्धिके विषयमें मैं आपसे प्रश्न करता हूँ; अतः आप मेरे लिये उसकी व्याख्या करें॥२-३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शत्रुभिर्बहुभिर्ग्रस्तो यथा वर्तेत पार्थिवः।
एतदिच्छाम्यहं श्रोतुं सर्वमेव यथाविधि ॥ ४ ॥

मूलम्

शत्रुभिर्बहुभिर्ग्रस्तो यथा वर्तेत पार्थिवः।
एतदिच्छाम्यहं श्रोतुं सर्वमेव यथाविधि ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

बहुत-से शत्रुओंका आक्रमण हो जानेपर राजाको कैसा बर्ताव करना चाहिये? यह सब कुछ मैं विधिपूर्वक सुनना चाहता हूँ॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विषमस्थं हि राजानं शत्रवः परिपन्थिनः।
बहवोऽप्येकमुद्धर्तुं यतन्ते पूर्वतापिताः ॥ ५ ॥

मूलम्

विषमस्थं हि राजानं शत्रवः परिपन्थिनः।
बहवोऽप्येकमुद्धर्तुं यतन्ते पूर्वतापिताः ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पहलेके सताये हुए डाकू आदि शत्रु जब राजाको संकटमें पड़ा हुआ देखते हैं, तब वे बहुत-से मिलकर उस असहाय राजाको उखाड़ फेंकनेका प्रयत्न करते हैं॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वत्र प्रार्थ्यमानेन दुर्बलेन महाबलैः।
एकेनैवासहायेन शक्यं स्थातुं भवेत् कथम् ॥ ६ ॥

मूलम्

सर्वत्र प्रार्थ्यमानेन दुर्बलेन महाबलैः।
एकेनैवासहायेन शक्यं स्थातुं भवेत् कथम् ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब अनेक महाबली शत्रु किसी दुर्बल राजाको सब ओरसे हड़प जानेके लिये तैयार हो जायँ, तब उस एकमात्र असहाय नरेशके द्वारा उस परिस्थितिका कैसे सामना किया जा सकता है?॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कथं मित्रमरिं चापि विन्दते भरतर्षभ।
चेष्टितव्यं कथं चात्र शत्रोर्मित्रस्य चान्तरे ॥ ७ ॥

मूलम्

कथं मित्रमरिं चापि विन्दते भरतर्षभ।
चेष्टितव्यं कथं चात्र शत्रोर्मित्रस्य चान्तरे ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजा किस प्रकार मित्र और शत्रुको अपने वशमें करता है तथा उसे शत्रु और मित्रके बीचमें रहकर कैसी चेष्टा करनी चाहिये?॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रज्ञातलक्षणे मित्रे तथैवामित्रतां गते।
कथं तु पुरुषः कुर्यात् कृत्वा किं वा सुखी भवेत्॥८॥

मूलम्

प्रज्ञातलक्षणे मित्रे तथैवामित्रतां गते।
कथं तु पुरुषः कुर्यात् कृत्वा किं वा सुखी भवेत्॥८॥

अनुवाद (हिन्दी)

पहले लक्षणोंद्वारा जिसे मित्र समझा गया है, वही मनुष्य यदि शत्रु हो जाय, तब उसके साथ कोई पुरुष कैसा बर्ताव करे? अथवा क्या करके वह सुखी हो?॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विग्रहं केन वा कुर्यात् संधिं वा केन योजयेत्।
कथं वा शत्रुमध्यस्थो वर्तेत बलवानपि ॥ ९ ॥

मूलम्

विग्रहं केन वा कुर्यात् संधिं वा केन योजयेत्।
कथं वा शत्रुमध्यस्थो वर्तेत बलवानपि ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

किसके साथ विग्रह करे? अथवा किसके साथ संधि जोड़े और बलवान् पुरुष भी यदि शत्रुओंके बीचमें मिल जाय तो उसके साथ कैसा बर्ताव करे?॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतद् वै सर्वकृत्यानां परं कृत्यं परंतप।
नैतस्य कश्चिद् वक्तास्ति श्रोता वापि सुदुर्लभः ॥ १० ॥
ऋते शान्तनवाद् भीष्मात्‌ सत्यसंधाज्जितेन्द्रियात्।
तदन्विष्य महाभाग सर्वमेतद् वदस्व मे ॥ ११ ॥

मूलम्

एतद् वै सर्वकृत्यानां परं कृत्यं परंतप।
नैतस्य कश्चिद् वक्तास्ति श्रोता वापि सुदुर्लभः ॥ १० ॥
ऋते शान्तनवाद् भीष्मात्‌ सत्यसंधाज्जितेन्द्रियात्।
तदन्विष्य महाभाग सर्वमेतद् वदस्व मे ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

परंतप पितामह! यह कार्य समस्त कार्योंमें श्रेष्ठ है। सत्यप्रतिज्ञ जितेन्द्रिय शान्तनुनन्दन भीष्मके सिवा, दूसरा कोई इस विषयको बतानेवाला नहीं है। इसको सुननेवाला भी दुर्लभ ही है। अतः महाभाग! आप उसका अनुसंधान करके यह सारा विषय मुझसे कहिये॥१०-११॥

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वद्‌युक्तोऽयमनुप्रश्नो युधिष्ठिर सुखोदयः ।
शृणु मे पुत्र कार्त्स्न्येन गुह्यमापत्सु भारत ॥ १२ ॥

मूलम्

त्वद्‌युक्तोऽयमनुप्रश्नो युधिष्ठिर सुखोदयः ।
शृणु मे पुत्र कार्त्स्न्येन गुह्यमापत्सु भारत ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजीने कहा— भरतनन्दन बेटा युधिष्ठिर! तुम्हारा यह विस्तारपूर्वक पूछना बहुत ठीक है। यह सुखकी प्राप्ति करानेवाला है। आपत्तिके समय क्या करना चाहिये? यह विषय गोपनीय होनेसे सबको मालूम नहीं है। तुम यह सब रहस्य मुझसे सुनो॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अमित्रो मित्रतां याति मित्रं चापि प्रदुष्यति।
सामर्थ्ययोगात् कार्याणामनित्या वै सदा गतिः ॥ १३ ॥

मूलम्

अमित्रो मित्रतां याति मित्रं चापि प्रदुष्यति।
सामर्थ्ययोगात् कार्याणामनित्या वै सदा गतिः ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भिन्न-भिन्न कार्योंका ऐसा प्रभाव पड़ता है, जिसके कारण कभी शत्रु भी मित्र बन जाता है और कभी मित्रका मन भी द्वेषभावसे दूषित हो जाता है। वास्तवमें शत्रु-मित्रकी परिस्थिति सदा एक-सी नहीं रहती है॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्माद् विश्वसितव्यं च विग्रहं च समाचरेत्।
देशं कालं च विज्ञाय कार्याकार्यविनिश्चये ॥ १४ ॥

मूलम्

तस्माद् विश्वसितव्यं च विग्रहं च समाचरेत्।
देशं कालं च विज्ञाय कार्याकार्यविनिश्चये ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अतः देश-कालको समझकर कर्तव्य-अकर्तव्यका निश्चय करके किसीपर विश्वास और किसीके साथ युद्ध करना चाहिये॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

संधातव्यं बुधैर्नित्यं व्यवस्य च हितार्थिभिः।
अमित्रैरपि संधेयं प्राणा रक्ष्या हि भारत ॥ १५ ॥

मूलम्

संधातव्यं बुधैर्नित्यं व्यवस्य च हितार्थिभिः।
अमित्रैरपि संधेयं प्राणा रक्ष्या हि भारत ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भारत! कर्तव्यका विचार करके सदा हित चाहनेवाले विद्वान् मित्रोंके साथ संधि करनी चाहिये और आवश्यकता पड़नेपर शत्रुओंसे भी संधि कर लेनी चाहिये; क्योंकि प्राणोंकी रक्षा सदा ही कर्तव्य है॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यो ह्यमित्रैर्नरो नित्यं न संदध्यादपण्डितः।
न सोऽर्थं प्राप्नुयात् किंचित् फलान्यपि च भारत ॥ १६ ॥

मूलम्

यो ह्यमित्रैर्नरो नित्यं न संदध्यादपण्डितः।
न सोऽर्थं प्राप्नुयात् किंचित् फलान्यपि च भारत ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भारत! जो मूर्ख मानव शत्रुओंके साथ कभी किसी भी दशामें संधि ही नहीं करता, वह अपने किसी भी उद्देश्यको सिद्ध नहीं कर सकता और न कोई फल ही पा सकता है॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यस्त्वमित्रेण संदध्यान्मित्रेण च विरुद्ध्यते।
अर्थयुक्तिं समालोक्य सुमहद् विन्दते फलम् ॥ १७ ॥

मूलम्

यस्त्वमित्रेण संदध्यान्मित्रेण च विरुद्ध्यते।
अर्थयुक्तिं समालोक्य सुमहद् विन्दते फलम् ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो स्वार्थसिद्धिका अवसर देखकर शत्रुसे तो संधि कर लेता है और मित्रोंके साथ विरोध बढ़ा लेता है, वह महान् फल प्राप्त कर लेता है॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् ।
मार्जारस्य च संवादं न्यग्रोधे मूषिकस्य च ॥ १८ ॥

मूलम्

अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् ।
मार्जारस्य च संवादं न्यग्रोधे मूषिकस्य च ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस विषयमें विद्वान् पुरुष वटवृक्षके आश्रयमें रहनेवाले एक बिलाव और चूहेके संवादरूप एक प्रचीन कथानकका दृष्टान्त दिया करते हैं॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वने महति कस्मिंश्चिन्न्यग्रोधः सुमहानभूत्।
लताजालपरिच्छिन्नो नानाद्विजगणान्वितः ॥ १९ ॥

मूलम्

वने महति कस्मिंश्चिन्न्यग्रोधः सुमहानभूत्।
लताजालपरिच्छिन्नो नानाद्विजगणान्वितः ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

किसी महान् वनमें एक विशाल बरगदका वृक्ष था, जो लतासमूहोंसे आच्छादित तथा भाँति-भाँतिके पक्षियोंसे सुशोभित था॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्कन्धवान् मेघसङ्काशः शीतच्छायो मनोरमः।
अरण्यमभितो जातः स तु व्यालमृगाकुलः ॥ २० ॥

मूलम्

स्कन्धवान् मेघसङ्काशः शीतच्छायो मनोरमः।
अरण्यमभितो जातः स तु व्यालमृगाकुलः ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह अपनी मोटी-मोटी डालियोंसे हरा-भरा होनेके कारण मेघके समान दिखायी देता था। उसकी छाया शीतल थी। वह मनोरम वृक्ष वनके समीप होनेके कारण बहुत-से सर्पों तथा पशुओंका आश्रय बना हुआ था॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्य मूलं समाश्रित्य कृत्वा शतमुखं बिलम्।
वसति स्म महाप्राज्ञः पलितो नाम मूषिकः ॥ २१ ॥

मूलम्

तस्य मूलं समाश्रित्य कृत्वा शतमुखं बिलम्।
वसति स्म महाप्राज्ञः पलितो नाम मूषिकः ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसीकी जड़मे सौ दरवाजोंका बिल बनाकर पलित नामक एक परम बुद्धिमान् चूहा निवास करता था॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शाखां तस्य समाश्रित्य वसति स्म सुखं पुरा।
लोमशो नाम मार्जारः पक्षिसंघातखादकः ॥ २२ ॥

मूलम्

शाखां तस्य समाश्रित्य वसति स्म सुखं पुरा।
लोमशो नाम मार्जारः पक्षिसंघातखादकः ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसी बरगदकी डालीपर पहले लोमश नामका एक बिलाव भी बड़े सुखसे रहता था। पक्षियोंका समूह ही उसका भोजन था॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्र चागत्य चाण्डालो ह्यरण्ये कृतकेतनः।
प्रयोजयति चोन्माथं नित्यमस्तंगते रवौ ॥ २३ ॥
तत्र स्नायुमयान् पाशान् यथावत् संविधाय सः।
गृहं गत्वा सुखं शेते प्रभातामेति शर्वरीम् ॥ २४ ॥

मूलम्

तत्र चागत्य चाण्डालो ह्यरण्ये कृतकेतनः।
प्रयोजयति चोन्माथं नित्यमस्तंगते रवौ ॥ २३ ॥
तत्र स्नायुमयान् पाशान् यथावत् संविधाय सः।
गृहं गत्वा सुखं शेते प्रभातामेति शर्वरीम् ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसी वनमें एक चाण्डाल भी घर बनाकर रहता था। वह प्रतिदिन सायंकाल सूर्यास्त हो जानेपर वहाँ आकर जाल फैला देता और उसकी ताँतकी डोरियोंको यथास्थान लगा घर जाकर मौजसे सोता था; फिर सबेरा होनेपर वहाँ आया करता था॥२३-२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्र स्म नित्यं बध्यन्ते नक्तं बहुविधा मृगाः।
कदाचिदत्र मार्जारस्त्वप्रमत्तो व्यबध्यत ॥ २५ ॥

मूलम्

तत्र स्म नित्यं बध्यन्ते नक्तं बहुविधा मृगाः।
कदाचिदत्र मार्जारस्त्वप्रमत्तो व्यबध्यत ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

रातको उस जालमें प्रतिदिन नाना प्रकारके पशु फँस जाते थे (उन्हींको लेनेके लिये वह सबेरे आता था)। एक दिन अपनी असावधानीके कारण पूर्वोक्त बिलाव भी उस जालमें फँस गया॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मिन् बद्धे महाप्राणे शत्रौ नित्याततायिनि।
तं कालं पलितो ज्ञात्वा प्रचचार सुनिर्भयः ॥ २६ ॥

मूलम्

तस्मिन् बद्धे महाप्राणे शत्रौ नित्याततायिनि।
तं कालं पलितो ज्ञात्वा प्रचचार सुनिर्भयः ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस महान् शक्तिशाली और नित्य आततायी शत्रुके फँस जानेपर जब पलितको यह समाचार मालूम हुआ, तब वह उस समय बिलसे बाहर निकलकर सब ओर निर्भय विचरने लगा॥२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेनानुचरता तस्मिन् वने विश्वस्तचारिणा।
भक्ष्यं मृगयमाणेन चिराद् दृष्टं तदामिषम् ॥ २७ ॥
स तमुन्माथमारुह्य तदामिषमभक्षयत् ॥ २८ ॥

मूलम्

तेनानुचरता तस्मिन् वने विश्वस्तचारिणा।
भक्ष्यं मृगयमाणेन चिराद् दृष्टं तदामिषम् ॥ २७ ॥
स तमुन्माथमारुह्य तदामिषमभक्षयत् ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस वनमें विश्वस्त होकर विचरते तथा आहारकी खोज करते हुए उस चूहेने बहुत देरके बाद वह माँस देखा, जो जालपर बिखेरा गया था। चूहा उस जालपर चढ़कर उस मांसको खाने लगा॥२७-२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्योपरि सपत्नस्य बद्धस्य मनसा हसन्।
आमिषे तु प्रसक्तः स कदाचिदवलोकयन् ॥ २९ ॥

मूलम्

तस्योपरि सपत्नस्य बद्धस्य मनसा हसन्।
आमिषे तु प्रसक्तः स कदाचिदवलोकयन् ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जालके ऊपर मांस खानेमें लगा हुआ वह चूहा अपने शत्रुके ऊपर मन-ही-मन हँस रहा था। इतनेहीमें कभी उसकी दृष्टि दूसरी ओर घूम गयी॥२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अपश्यदपरं घोरमात्मनः शत्रुमागतम् ।
शरप्रसूनसङ्काशं महीविवरशायिनम् ॥ ३० ॥

मूलम्

अपश्यदपरं घोरमात्मनः शत्रुमागतम् ।
शरप्रसूनसङ्काशं महीविवरशायिनम् ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर तो उसने एक दूसरे भयंकर शत्रुको वहाँ आया हुआ देखा, जो सरकण्डेके फूलके समान भूरे रंगका था। वह धरतीमें विवर बनाकर उसके भीतर सोया करता था॥३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नकुलं हरिणं नाम चपलं ताम्रलोचनम्।
तेन मूषिकगन्धेन त्वरमाणमुपागतम् ॥ ३१ ॥

मूलम्

नकुलं हरिणं नाम चपलं ताम्रलोचनम्।
तेन मूषिकगन्धेन त्वरमाणमुपागतम् ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह जातिका न्यौला था। उसकी आँखें ताँबेके समान दिखायी देती थीं। वह चपल नेवला हरिणके नामसे प्रसिद्ध था और उसी चूहेकी गन्ध पाकर बड़ी उतावलीके साथ वहाँ आ पहुँचा था॥३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भक्ष्यार्थं संलिहानं तं भूमावूर्ध्वमुखं स्थितम्।
शाखागतमरिं चान्यमपश्यत् कोटरालयम् ॥ ३२ ॥
उलूकं चन्द्रकं नाम तीक्ष्णतुण्डं क्षपाचरम्।

मूलम्

भक्ष्यार्थं संलिहानं तं भूमावूर्ध्वमुखं स्थितम्।
शाखागतमरिं चान्यमपश्यत् कोटरालयम् ॥ ३२ ॥
उलूकं चन्द्रकं नाम तीक्ष्णतुण्डं क्षपाचरम्।

अनुवाद (हिन्दी)

इधर तो वह नेवला अपना आहार ग्रहण करनेके लिये जीभ लपलपाता हुआ ऊपर मुँह किये पृथ्वीपर खड़ा था और दूसरी ओर बरगदकी शाखापर बैठा हुआ दूसरा ही शत्रु दिखायी दिया, जो वृक्षके खोंखलेमें निवास करता था। वह चन्द्रक नामसे प्रसिद्ध उल्लू था। उसकी चोंच बड़ी तीखी थी। वह रातमें विचरनेवाला पक्षी था॥३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गतस्य विषयं तत्र नकुलोलूकयोस्तथा ॥ ३३ ॥
अथास्यासीदियं चिन्ता तत् प्राप्य सुमहद् भयम्।

मूलम्

गतस्य विषयं तत्र नकुलोलूकयोस्तथा ॥ ३३ ॥
अथास्यासीदियं चिन्ता तत् प्राप्य सुमहद् भयम्।

अनुवाद (हिन्दी)

न्यौले और उल्लू—दोनोंका लक्ष्य बने हुए उस चूहेको बड़ा भय हुआ। अब उसे इस प्रकार चिन्ता होने लगी—॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आपद्यस्यां सुकष्टायां मरणे प्रत्युपस्थिते ॥ ३४ ॥
समन्ताद् भय उत्पन्ने कथं कार्यं हितैषिणा।

मूलम्

आपद्यस्यां सुकष्टायां मरणे प्रत्युपस्थिते ॥ ३४ ॥
समन्ताद् भय उत्पन्ने कथं कार्यं हितैषिणा।

अनुवाद (हिन्दी)

‘अहो! इस कष्टदायिनी विपत्तिमें मृत्यु निकट आकर खड़ी है। चारों ओरसे भय उत्पन्न हो गया है। ऐसी अवस्थामें अपना हित चाहनेवाले प्राणीको किस उपायका अवलम्बन करना चाहिये?’॥३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स तथा सर्वतो रुद्धः सर्वत्र भयदर्शनः ॥ ३५ ॥
अभवद् भयसंतप्तश्चक्रे च परमां मतिम्।

मूलम्

स तथा सर्वतो रुद्धः सर्वत्र भयदर्शनः ॥ ३५ ॥
अभवद् भयसंतप्तश्चक्रे च परमां मतिम्।

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार सब ओरसे उसका मार्ग अवरुद्ध हो गया था। सर्वत्र उसे भय-ही-भय दिखायी देता था। उस भयसे वह संतप्त हो उठा। इसके बाद उसने पुनः श्रेष्ठ बुद्धिका आश्रय ले सोचना आरम्भ किया—॥३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आपद्विनाशभूयिष्ठं गर्तः कार्यं हि जीवितम् ॥ ३६ ॥
समन्तात् संशयात् सैषा तस्मादापदुपस्थिता।

मूलम्

आपद्विनाशभूयिष्ठं गर्तः कार्यं हि जीवितम् ॥ ३६ ॥
समन्तात् संशयात् सैषा तस्मादापदुपस्थिता।

अनुवाद (हिन्दी)

‘आपत्तिमें पड़कर विनाशके समीप पहुँचे हुए प्राणियोंको भी अपने प्राणोंकी रक्षाके लिये प्रयत्न तो करना ही चाहिये। आज सब ओरसे प्राणोंका संशय उपस्थित है; अतः यह मुझपर बड़ी भारी आपत्ति आ गयी है॥३६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गतं मां सहसा भूमिं नकुलो भक्षयिष्यति ॥ ३७ ॥
उलूकश्चेह तिष्ठन्तं मार्जारः पाशंसक्षयात्।

मूलम्

गतं मां सहसा भूमिं नकुलो भक्षयिष्यति ॥ ३७ ॥
उलूकश्चेह तिष्ठन्तं मार्जारः पाशंसक्षयात्।

अनुवाद (हिन्दी)

‘यदि मैं पृथ्वीपर उतरकर भागता हूँ तो सहसा नेवला मुझे पकड़कर खा जायगा। यदि यहीं ठहर जाता हूँ तो उल्लू मुझे चोंचसे मार डालेगा और यदि जाल काटकर भीतर घुसता हूँ तो बिलाव जीवित नहीं छोड़ेगा॥३७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न त्वेवास्मद्विधः प्राज्ञः सम्मोहं गन्तुमर्हति ॥ ३८ ॥
करिष्ये जीविते यत्नं यावद् युक्त्या प्रतिग्रहात्।

मूलम्

न त्वेवास्मद्विधः प्राज्ञः सम्मोहं गन्तुमर्हति ॥ ३८ ॥
करिष्ये जीविते यत्नं यावद् युक्त्या प्रतिग्रहात्।

अनुवाद (हिन्दी)

‘तथापि मुझ-जैसे बुद्धिमान्‌को घबराना नहीं चाहिये। अतः जहाँतक युक्ति काम देगी, परस्पर सहयोगका आदान-प्रदान करके मैं जीवन-रक्षाके लिये प्रयत्न करूँगा॥३८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न हि बुद्ध्यान्वितः प्राज्ञो नीतिशास्त्रविशारदः ॥ ३९ ॥
निमज्जत्यापदं प्राप्य महतीं दारुणामपि ॥ ४० ॥

मूलम्

न हि बुद्ध्यान्वितः प्राज्ञो नीतिशास्त्रविशारदः ॥ ३९ ॥
निमज्जत्यापदं प्राप्य महतीं दारुणामपि ॥ ४० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘बुद्धिमान्, विद्वान् और नीतिशास्त्रमें निपुण पुरुष भारी और भयंकर विपत्तिमें पड़नेपर भी उसमें डूब नहीं जाता है—उससे छूटनेकी चेष्टा करता है॥३९-४०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न त्वन्यामिह मार्जाराद् गतिं पश्यामि साम्प्रतम्।
विषमस्थो ह्ययं शत्रुः कृत्यं चास्य महन्मया ॥ ४१ ॥

मूलम्

न त्वन्यामिह मार्जाराद् गतिं पश्यामि साम्प्रतम्।
विषमस्थो ह्ययं शत्रुः कृत्यं चास्य महन्मया ॥ ४१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मैं इस समय इस बिलावका सहारा लेनेके सिवा, अपने लिये दूसरा कोई मार्ग नहीं देखता। यद्यपि यह मेरा कट्टर शत्रु है, तथापि इस समय स्वयं ही भारी संकटमें पड़ा हुआ है। मेरे द्वारा इसका भी बड़ा भारी काम निकल सकता है॥४१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जीवितार्थी कथं त्वद्य शत्रुभिः प्रार्थितस्त्रिभिः।
तस्मादेनमहं शत्रुं मार्जारं संश्रयामि वै ॥ ४२ ॥

मूलम्

जीवितार्थी कथं त्वद्य शत्रुभिः प्रार्थितस्त्रिभिः।
तस्मादेनमहं शत्रुं मार्जारं संश्रयामि वै ॥ ४२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘इधर, मैं भी जीवनकी रक्षा चाहता हूँ, तीन-तीन शत्रु मुझपर घात लगाये बैठे हैं; अतः क्यों न आज मैं अपने शत्रु इस बिलावका ही आश्रय लूँ?॥४२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नीतिशास्त्रं समाश्रित्य हितमस्योपवर्णये ।
येनेमं शत्रुसंघातं मतिपूर्वेण वञ्चये ॥ ४३ ॥

मूलम्

नीतिशास्त्रं समाश्रित्य हितमस्योपवर्णये ।
येनेमं शत्रुसंघातं मतिपूर्वेण वञ्चये ॥ ४३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘आज नीतिशास्त्रका सहारा लेकर इसके हितका वर्णन करूँगा जिससे बुद्धिके द्वारा इस शत्रुसमुदायको धोखा देकर बच जाऊँगा॥४३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अयमत्यन्तशत्रुर्मे वैषम्यं परमं गतः।
मूढो ग्राहयितुं स्वार्थं सङ्गत्या यदि शक्यते ॥ ४४ ॥

मूलम्

अयमत्यन्तशत्रुर्मे वैषम्यं परमं गतः।
मूढो ग्राहयितुं स्वार्थं सङ्गत्या यदि शक्यते ॥ ४४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘इसमें संदेह नहीं कि बिलाव मेरा महान् दुश्मन है, तथापि इस समय महान् संकटमें है। यदि सम्भव हो तो इस मूर्खको संगतिके द्वारा स्वार्थ सिद्ध करनेकी बातपर राजी करूँ॥४४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कदाचिद् व्यसनं प्राप्य संधिं कुर्यान्मया सह।
बलिना संनिकृष्टस्य शत्रोरपि परिग्रहः ॥ ४५ ॥
कार्य इत्याहुराचार्या विषमे जीवितार्थिना।

मूलम्

कदाचिद् व्यसनं प्राप्य संधिं कुर्यान्मया सह।
बलिना संनिकृष्टस्य शत्रोरपि परिग्रहः ॥ ४५ ॥
कार्य इत्याहुराचार्या विषमे जीवितार्थिना।

अनुवाद (हिन्दी)

‘हो सकता है कि विपत्तिमें पड़ा होनेके कारण यह मेरे साथ संधि कर ले। आचार्योंका कथन है कि संकट आ पड़नेपर जीवनकी रक्षा चाहनेवाले बलवान् पुरुषको भी अपने निकटवर्ती शत्रुसे मेल कर लेना चाहिये॥४५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रेष्ठो हि पण्डितः शत्रुर्न च मित्रमपण्डितः ॥ ४६ ॥
मम त्वमित्रे मार्जारे जीवितं सम्प्रतिष्ठितम्।

मूलम्

श्रेष्ठो हि पण्डितः शत्रुर्न च मित्रमपण्डितः ॥ ४६ ॥
मम त्वमित्रे मार्जारे जीवितं सम्प्रतिष्ठितम्।

अनुवाद (हिन्दी)

‘विद्वान् शत्रु भी अच्छा होता है किंतु मूर्ख मित्र भी अच्छा नहीं है। मेरा जीवन तो आज मेरे शत्रु बिलावके ही अधीन है॥४६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हन्तास्मै सम्प्रवक्ष्यामि हेतुमात्माभिरक्षणे ॥ ४७ ॥
अपीदानीमयं शत्रुः सङ्गत्या पण्डितो भवेत्।

मूलम्

हन्तास्मै सम्प्रवक्ष्यामि हेतुमात्माभिरक्षणे ॥ ४७ ॥
अपीदानीमयं शत्रुः सङ्गत्या पण्डितो भवेत्।

अनुवाद (हिन्दी)

‘अच्छा, अब मैं इसे आत्मरक्षाके लिये एक मुक्ति बता रहा हूँ। सम्भव है, यह शत्रु इस समय मेरी संगतिसे विद्वान् हो जाय—विवेकसे काम ले’॥४७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं विचिन्तयामास मूषिकः शत्रुचेष्टितम् ॥ ४८ ॥
ततोऽर्थगतितत्त्वज्ञः संधिविग्रहकालवित् ।
सान्त्वपूर्वमिदं वाक्यं मार्जारं मूषिकोऽब्रवीत् ॥ ४९ ॥

मूलम्

एवं विचिन्तयामास मूषिकः शत्रुचेष्टितम् ॥ ४८ ॥
ततोऽर्थगतितत्त्वज्ञः संधिविग्रहकालवित् ।
सान्त्वपूर्वमिदं वाक्यं मार्जारं मूषिकोऽब्रवीत् ॥ ४९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार चूहेने शत्रुकी चेष्टापर विचार किया। वह अर्थसिद्धिके उपायको यथार्थरूपसे जाननेवाला तथा संधि और विग्रहके अवसरको समझनेवाला था। उसने बिलावको सान्त्वना देते हुए मधुर वाणीमें कहा—॥४८-४९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सौहृदेनाभिभाषे त्वां कच्चिन्मार्जार जीवसि।
जीवितं हि तवेच्छामि श्रेयः साधारणं हि नौ ॥ ५० ॥

मूलम्

सौहृदेनाभिभाषे त्वां कच्चिन्मार्जार जीवसि।
जीवितं हि तवेच्छामि श्रेयः साधारणं हि नौ ॥ ५० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘भैया बिलाव! मैं तुम्हारे प्रति मैत्रीका भाव रखकर बातचीत कर रहा हूँ। तुम अभी जीवित तो हो न? मैं चाहता हूँ कि तुम्हारा जीवन सुरक्षित रहे; क्योंकि इसमें मेरी और तुम्हारी दोनोंकी एक-सी भलाई है॥५०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न ते सौम्य भयं कार्यं जीविष्यसि यथासुखम्।
अहं त्वामुद्धरिष्यामि यदि मां न जिघांससि ॥ ५१ ॥

मूलम्

न ते सौम्य भयं कार्यं जीविष्यसि यथासुखम्।
अहं त्वामुद्धरिष्यामि यदि मां न जिघांससि ॥ ५१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘सौम्य! तुम्हें डरना नहीं चाहिये। तुम आनन्दपूर्वक जीवित रह सकोगे। यदि मुझे मार डालनेकी इच्छा त्याग दो तो मैं इस संकटसे तुम्हारा उद्धार कर दूँगा॥५१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अस्ति कश्चिदुपायोऽत्र दुष्करः प्रतिभाति मे।
येन शक्यस्त्वया मोक्षः प्राप्तुं श्रेयस्तथा मया ॥ ५२ ॥

मूलम्

अस्ति कश्चिदुपायोऽत्र दुष्करः प्रतिभाति मे।
येन शक्यस्त्वया मोक्षः प्राप्तुं श्रेयस्तथा मया ॥ ५२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘एक उपाय है जिससे तुम इस संकटसे छुटकारा पा सकते हो और मैं भी कल्याणका भागी हो सकता हूँ। यद्यपि वह उपाय मुझे दुष्कर प्रतीत होता है॥५२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मयाप्युपायो दृष्टोऽयं विचार्य मतिमात्मनः।
आत्मार्थं च त्वदर्थं च श्रेयः साधारणं हि नौ॥५३॥

मूलम्

मयाप्युपायो दृष्टोऽयं विचार्य मतिमात्मनः।
आत्मार्थं च त्वदर्थं च श्रेयः साधारणं हि नौ॥५३॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मैंने अपनी बुद्धिसे अच्छी तरह सोच-विचार करके अपने और तुम्हारे लिये एक उपाय ढूँढ़ निकाला है, जिससे हम दोनोंकी समानरूपसे भलाई होगी॥५३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इदं हि नकुलोलूकं पापबुद्ध्याभिसंस्थितम्।
न धर्षयति मार्जार तेन मे स्वस्ति साम्प्रतम् ॥ ५४ ॥

मूलम्

इदं हि नकुलोलूकं पापबुद्ध्याभिसंस्थितम्।
न धर्षयति मार्जार तेन मे स्वस्ति साम्प्रतम् ॥ ५४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मार्जार! देखो, ये नेवला और उल्लू दोनों पापबुद्धिसे यहाँ ठहरे हुए हैं। मेरी ओर घात लगाये बैठे हैं। जबतक वे मुझपर आक्रमण नहीं करते, तभीतक मैं कुशलसे हूँ॥५४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कूजंश्चपलनेत्रोऽयं कौशिको मां निरीक्षते।
नगशाखाग्रगः पापस्तस्याहं भृशमुद्विजे ॥ ५५ ॥

मूलम्

कूजंश्चपलनेत्रोऽयं कौशिको मां निरीक्षते।
नगशाखाग्रगः पापस्तस्याहं भृशमुद्विजे ॥ ५५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘यह चंचल नेत्रोंवाला पापी उल्लू वृक्षकी डालीपर बैठकर ‘हू हू’ करता मेरी ही ओर घूर रहा है। उससे मुझे बड़ा डर लगता है॥५५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सतां साप्तपदं मैत्रं स सखा मेऽसि पण्डितः।
सांवास्यकं करिष्यामि नास्ति ते भयमद्य वै ॥ ५६ ॥

मूलम्

सतां साप्तपदं मैत्रं स सखा मेऽसि पण्डितः।
सांवास्यकं करिष्यामि नास्ति ते भयमद्य वै ॥ ५६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘साधु पुरुषोंमें तो सात पग साथ-साथ चलनेसे ही मित्रता हो जाती है। हम और तुम तो यहाँ सदासे ही साथ रहते हैं; अतः तुम मेरे विद्वान् मित्र हो। मैं इतने दिन साथ रहनेका अपना मित्रोचित धर्म अवश्य निभाऊँगा, इसलिये अब तुम्हें कोई भय नहीं है॥५६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न हि शक्तोऽसि मार्जार पाशं छेत्तुं मया विना।
अहं छेत्स्यामि पाशांस्ते यदि मां त्वं न हिंससि॥५७॥

मूलम्

न हि शक्तोऽसि मार्जार पाशं छेत्तुं मया विना।
अहं छेत्स्यामि पाशांस्ते यदि मां त्वं न हिंससि॥५७॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मार्जार! तुम मेरी सहायताके बिना अपना यह बन्धन नहीं काट सकते। यदि तुम मेरी हिंसा न करो तो मैं तुम्हारे ये सारे बन्धन काट डालूँगा॥५७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वमाश्रितो द्रुमस्याग्रं मूलं त्वहमुपाश्रितः।
चिरोषितावुभावावां वृक्षेऽस्मिन् विदितं च ते ॥ ५८ ॥

मूलम्

त्वमाश्रितो द्रुमस्याग्रं मूलं त्वहमुपाश्रितः।
चिरोषितावुभावावां वृक्षेऽस्मिन् विदितं च ते ॥ ५८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘तुम इस पेड़के ऊपर रहते हो और मैं इसकी जड़में रहता हूँ। इस प्रकार हम दोनों चिरकालसे इस वृक्षका आश्रय लेकर रहते हैं, यह बात तो तुम्हें ज्ञात ही है॥५८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यस्मिन्नाश्वासते कश्चिद्‌ यश्च नाश्वसिति क्वचित्।
न तौ धीराः प्रशंसन्ति नित्यमुद्विग्नमानसौ ॥ ५९ ॥

मूलम्

यस्मिन्नाश्वासते कश्चिद्‌ यश्च नाश्वसिति क्वचित्।
न तौ धीराः प्रशंसन्ति नित्यमुद्विग्नमानसौ ॥ ५९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जिसपर कोई भरोसा नहीं करता तथा जो दूसरे किसीपर स्वयं भी भरोसा नहीं करता, उन दोनोंकी धीर पुरुष कोई प्रशंसा नहीं करते हैं; क्योंकि उनके मनमें सदा उद्वेग भरा रहता है॥५९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्माद् विवर्धतां प्रीतिर्नित्यं संगतमस्तु नौ।
कालातीतमिहार्थं तु न प्रशंसन्ति पण्डिताः ॥ ६० ॥

मूलम्

तस्माद् विवर्धतां प्रीतिर्नित्यं संगतमस्तु नौ।
कालातीतमिहार्थं तु न प्रशंसन्ति पण्डिताः ॥ ६० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘अतः हमलोगोंमें सदा प्रेम बढ़े तथा नित्य प्रति हमारी संगति बनी रहे। जब कार्यका समय बीत जाता है, उसके बाद विद्वान् पुरुष उसकी प्रशंसा नहीं करते हैं॥६०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अर्थयुक्तिमिमां तत्र यथाभूतां निशामय।
तव जीवितमिच्छामि त्वं ममेच्छसि जीवितम् ॥ ६१ ॥

मूलम्

अर्थयुक्तिमिमां तत्र यथाभूतां निशामय।
तव जीवितमिच्छामि त्वं ममेच्छसि जीवितम् ॥ ६१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘बिलाव! हम दोनोंके प्रयोजनका जो यह संयोग आ बना है, उसे यथार्थरूपसे सुनो। मैं तुम्हारे जीवनकी रक्षा चाहता हूँ और तुम मेरे जीवनकी रक्षा चाहते हो॥६१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कश्चित् तरति काष्ठेन सुगम्भीरां महानदीम्।
स तारयति तत् काष्ठं स च काष्ठेन तार्यते॥६२॥

मूलम्

कश्चित् तरति काष्ठेन सुगम्भीरां महानदीम्।
स तारयति तत् काष्ठं स च काष्ठेन तार्यते॥६२॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘कोई पुरुष जब लकड़ीके सहारे किसी गहरी एवं विशाल नदीको पार करता है, तब उस लकड़ीको भी किनारे लगा देता है तथा वह लकड़ी भी उसे तारनेमें सहायक होती है॥६२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ईदृशो नौ समायोगो भविष्यति सुविस्तरः।
अहं त्वां तारयिष्यामि मां च त्वं तारयिष्यसि ॥ ६३ ॥

मूलम्

ईदृशो नौ समायोगो भविष्यति सुविस्तरः।
अहं त्वां तारयिष्यामि मां च त्वं तारयिष्यसि ॥ ६३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘इसी प्रकार हम दोनोंका यह संयोग चिरस्थायी होगा। मैं तुम्हें विपत्तिसे पार कर दूँगा और तुम मुझे आपत्तिसे बचा लोगे’॥६३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमुक्त्वा तु पलितस्तमर्थमुभयोर्हितम् ।
हेतुमद् ग्रहणीयं च कालापेक्षी न्यवेक्ष्य च ॥ ६४ ॥

मूलम्

एवमुक्त्वा तु पलितस्तमर्थमुभयोर्हितम् ।
हेतुमद् ग्रहणीयं च कालापेक्षी न्यवेक्ष्य च ॥ ६४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार पलित दोनोंके लिये हितकर, युक्तियुक्त और मानने योग्य बात कहकर उत्तर मिलनेके अवसरकी प्रतीक्षा करता हुआ बिलावकी ओर देखने लगा॥६४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथ सुव्याहृतं श्रुत्वा तस्य शत्रोर्विचक्षणः।
हेतुमद् ग्रहणीयार्थं मार्जारो वाक्यमब्रवीत् ॥ ६५ ॥

मूलम्

अथ सुव्याहृतं श्रुत्वा तस्य शत्रोर्विचक्षणः।
हेतुमद् ग्रहणीयार्थं मार्जारो वाक्यमब्रवीत् ॥ ६५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अपने उस शत्रुका यह युक्तियुक्त और मान लेने योग्य सुन्दर भाषण सुनकर बुद्धिमान् बिलाव कुछ बोलनेको उद्यत हुआ॥६५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बुद्धिमान् वाक्यसम्पन्नस्तद्वाक्यमनुवर्णयन् ।
स्वामवस्थां समीक्ष्याथ साम्नैव प्रत्यपूजयत् ॥ ६६ ॥

मूलम्

बुद्धिमान् वाक्यसम्पन्नस्तद्वाक्यमनुवर्णयन् ।
स्वामवस्थां समीक्ष्याथ साम्नैव प्रत्यपूजयत् ॥ ६६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसकी बुद्धि अच्छी थी। वह बोलनेकी कलामें कुशल था। पहले तो उसने चूहेकी बातको मन-ही-मन दुहराया; फिर अपनी दशापर दृष्टिपात करके उसने सामनीतिसे ही उस चूहेकी भूरि-भूरि प्रशंसा की॥६६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततस्तीक्ष्णाग्रदशनो मणिवैदूर्यलोचनः ।
मूषिकं मन्दमुद्वीक्ष्य मार्जारो लोमशोऽब्रवीत् ॥ ६७ ॥

मूलम्

ततस्तीक्ष्णाग्रदशनो मणिवैदूर्यलोचनः ।
मूषिकं मन्दमुद्वीक्ष्य मार्जारो लोमशोऽब्रवीत् ॥ ६७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर जिसके आगेके दाँत बड़े तीखे थे और दोनों नेत्र नीलमके समान चमक रहे थे, उस लोमश नामक बिलावने चूहेकी ओर किंचिद् दृष्टिपात करके इस प्रकार कहा—॥६७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नन्दामि सौम्य भद्रं ते यो मां जीवितुमिच्छसि।
श्रेयश्च यदि जानीषे क्रियतां मा विचारय ॥ ६८ ॥

मूलम्

नन्दामि सौम्य भद्रं ते यो मां जीवितुमिच्छसि।
श्रेयश्च यदि जानीषे क्रियतां मा विचारय ॥ ६८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘सौम्य! मैं तुम्हारा अभिनन्दन करता हूँ। तुम्हारा कल्याण हो, जो कि तुम मुझे जीवन प्रदान करना चाहते हो। यदि हमारे कल्याणका उपाय जानते हो तो इसे अवश्य करो, कोई अन्यथा विचार मनमें न लाओ॥६८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अहं हि भृशमापन्नस्त्वमापन्नतरो मम।
द्वयोरापन्नयोः संधिः क्रियतां मा चिराय च ॥ ६९ ॥

मूलम्

अहं हि भृशमापन्नस्त्वमापन्नतरो मम।
द्वयोरापन्नयोः संधिः क्रियतां मा चिराय च ॥ ६९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मैं भारी विपत्तिमें फँसा हूँ और तुम भी महान् संकटमें पड़े हुए हो। इस प्रकार आपत्तिमें पड़े हुए हम दोनोंको संधि कर लेनी चाहिये। इसमें विलम्ब न हो॥६९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विधास्ये प्राप्तकालं यत् कार्यं सिद्धिकरं विभो।
मयि कृच्छ्राद् विनिर्मुक्ते न विनङ्क्ष्यति ते कृतम् ॥ ७० ॥

मूलम्

विधास्ये प्राप्तकालं यत् कार्यं सिद्धिकरं विभो।
मयि कृच्छ्राद् विनिर्मुक्ते न विनङ्क्ष्यति ते कृतम् ॥ ७० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘प्रभो! समय आनेपर तुम्हारे अभीष्टकी सिद्धि करनेवाला जो भी कार्य होगा, उसे अवश्य करूँगा। इस संकटसे मेरे मुक्त हो जानेपर तुम्हारा किया हुआ उपकार नष्ट नहीं होगा। मैं इसका बदला अवश्य चुकाऊँगा॥७०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न्यस्तमानोऽस्मि भक्तोऽस्मि शिष्यस्त्वद्धितकृत् तथा।
निदेशवशवर्ती च भवन्तं शरणं गतः ॥ ७१ ॥

मूलम्

न्यस्तमानोऽस्मि भक्तोऽस्मि शिष्यस्त्वद्धितकृत् तथा।
निदेशवशवर्ती च भवन्तं शरणं गतः ॥ ७१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘इस समय मेरा मान भंग हो चुका है। मैं तुम्हारा भक्त और शिष्य हो गया हूँ। तुम्हारे हितका साधन करूँगा और सदा तुम्हारी आज्ञाके अधीन रहूँगा। मैं सब प्रकारसे तुम्हारी शरणमें आ गया हूँ’॥७१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्येवमुक्तः पलितो मार्जारं वशमागतम्।
वाक्यं हितमुवाचेदमभिनीतार्थमर्थवित् ॥ ७२ ॥

मूलम्

इत्येवमुक्तः पलितो मार्जारं वशमागतम्।
वाक्यं हितमुवाचेदमभिनीतार्थमर्थवित् ॥ ७२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

बिलावके ऐसा कहनेपर अपने प्रयोजनको समझनेवाले पलितने वशमें आये हुए उस बिलावसे यह अभिप्रायपूर्ण हितकर बात कही—॥७२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उदारं यद् भवानाह नैतच्चित्रं भवद्विधे।
विहितो यस्तु मार्गो मे हितार्थं शृणु तं मम॥७३॥

मूलम्

उदारं यद् भवानाह नैतच्चित्रं भवद्विधे।
विहितो यस्तु मार्गो मे हितार्थं शृणु तं मम॥७३॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘भैया बिलाव! आपने जो उदारतापूर्ण वचन कहा है, यह आप-जैसे बुद्धिमान्‌के लिये आश्चर्यकी बात नहीं है। मैंने दोनोंके हितके लिये जो बात निर्धारित की है, वह मुझसे सुनो॥७३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अहं त्वानुप्रवेक्ष्यामि नकुलान्मे महद् भयम्।
त्रायस्व भो मा वधीस्त्वं शक्तोऽस्मि तव रक्षणे ॥ ७४ ॥

मूलम्

अहं त्वानुप्रवेक्ष्यामि नकुलान्मे महद् भयम्।
त्रायस्व भो मा वधीस्त्वं शक्तोऽस्मि तव रक्षणे ॥ ७४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘भैया! इस नेवलेसे मुझे बड़ा डर लग रहा है। इसलिये मैं तुम्हारे पीछे इस जालमें प्रवेश कर जाऊँगा, परंतु दादा! तुम मुझे मार न डालना, बचा लेना; क्योंकि जीवित रहनेपर ही मैं तुम्हारी रक्षा करनेमें समर्थ हूँ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उलूकाच्चैव मां रक्ष क्षुद्रः प्रार्थयते हि माम्।
अहं छेत्स्यामि ते पाशान् सखे सत्येन ते शपे॥७५॥

मूलम्

उलूकाच्चैव मां रक्ष क्षुद्रः प्रार्थयते हि माम्।
अहं छेत्स्यामि ते पाशान् सखे सत्येन ते शपे॥७५॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘इधर यह नीच उल्लू भी मेरे प्राणका ग्राहक बना हुआ है। इससे भी तुम मुझे बचा लो। सखे! मैं तुमसे सत्यकी शपथ खाकर कहता हूँ, मैं तुम्हारे बन्धन काट दूँगा’॥७५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तद्वचः संगतं श्रुत्वा लोमशो युक्तमर्थवत्।
हर्षादुद्वीक्ष्य पलितं स्वागतेनाभ्यपूजयत् ॥ ७६ ॥

मूलम्

तद्वचः संगतं श्रुत्वा लोमशो युक्तमर्थवत्।
हर्षादुद्वीक्ष्य पलितं स्वागतेनाभ्यपूजयत् ॥ ७६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

चूहेकी यह युक्तियुक्त, सुसंगत और अभिप्रायपूर्ण बात सुनकर लोमशने उसकी ओर हर्षभरी दृष्टिसे देखा तथा स्वागतपूर्वक उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा की॥७६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तं सम्पूज्याथ पलितं मार्जारः सौहृदे स्थितः।
स विचिन्त्याब्रवीद् धीरः प्रीतस्त्वरित एव च ॥ ७७ ॥

मूलम्

तं सम्पूज्याथ पलितं मार्जारः सौहृदे स्थितः।
स विचिन्त्याब्रवीद् धीरः प्रीतस्त्वरित एव च ॥ ७७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार पलितकी प्रशंसा एवं पूजा करके सौहार्दमें प्रतिष्ठित हुए धीरबुद्धि मार्जारने भलीभाँति सोच-विचारकर तुरंत ही प्रसन्नतापूर्वक कहा—॥७७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शीघ्रमागच्छ भद्रं ते त्वं मे प्राणसमः सखा।
तव प्राज्ञ प्रसादाद्धि प्रायः प्राप्स्यामि जीवितम् ॥ ७८ ॥

मूलम्

शीघ्रमागच्छ भद्रं ते त्वं मे प्राणसमः सखा।
तव प्राज्ञ प्रसादाद्धि प्रायः प्राप्स्यामि जीवितम् ॥ ७८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘भैया! शीघ्र आओ! तुम्हारा कल्याण हो। तुम तो हमारे प्राणोंके समान प्रिय सखा हो। विद्वन्! इस समय मुझे प्रायः तुम्हारी ही कृपासे जीवन प्राप्त होगा॥७८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यद् यदेवंगतेनाद्य शक्यं कर्तुं मया तव।
तदाज्ञापय कर्तास्मि संधिरेवास्तु नौ सखे ॥ ७९ ॥

मूलम्

यद् यदेवंगतेनाद्य शक्यं कर्तुं मया तव।
तदाज्ञापय कर्तास्मि संधिरेवास्तु नौ सखे ॥ ७९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘सखे! इस दशामें पड़े हुए मुझ सेवकके द्वारा तुम्हारा जो-जो कार्य किया जा सकता हो, उसके लिये मुझे आज्ञा दो, मैं अवश्य करूँगा। हम दोनोंमें संधि रहनी चाहिये॥७९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अस्मात् तु संकटान्मुक्तः समित्रगणबान्धवः।
सर्वकार्याणि कर्ताहं प्रियाणि च हितानि च ॥ ८० ॥

मूलम्

अस्मात् तु संकटान्मुक्तः समित्रगणबान्धवः।
सर्वकार्याणि कर्ताहं प्रियाणि च हितानि च ॥ ८० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘इस संकटसे मुक्त होनेपर मैं अपने सभी मित्रों और बन्धु-बान्धवोंके साथ तुम्हारे सभी प्रिय एवं हितकर कार्य करता रहूँगा॥८०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मुक्तश्च व्यसनादस्मात् सौम्याहमपि नाम ते।
प्रीतिमुत्पादयेयं च प्रीतिकर्तुश्च सत्क्रियाम् ॥ ८१ ॥

मूलम्

मुक्तश्च व्यसनादस्मात् सौम्याहमपि नाम ते।
प्रीतिमुत्पादयेयं च प्रीतिकर्तुश्च सत्क्रियाम् ॥ ८१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘सौम्य! इस विपत्तिसे छुटकारा पानेपर मैं भी तुम्हारे हृदयमें प्रीति उत्पन्न करूँगा। तुम मेरा प्रिय करनेवाले हो, अतः तुम्हारा भलीभाँति आदर-सत्कार करूँगा॥८१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रत्युपकुर्वन् बह्वपि न भाति
पूर्वोपकारिणा तुल्यः ।
एकः करोति हि कृते
निष्कारणमेव कुरुतेऽन्यः ॥ ८२ ॥

मूलम्

प्रत्युपकुर्वन् बह्वपि न भाति
पूर्वोपकारिणा तुल्यः ।
एकः करोति हि कृते
निष्कारणमेव कुरुतेऽन्यः ॥ ८२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘कोई किसीके उपकारका कितना ही अधिक बदला क्यों न चुका दे; वह प्रथम उपकार करनेवालेके समान नहीं शोभा पाता है; क्योंकि एक तो किसीके उपकार करनेपर बदलेमें उसका उपकार करता है; परंतु दूसरेने बिना किसी कारणके ही उसकी भलाई की है’॥८२॥

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

ग्राहयित्वा तु तं स्वार्थं मार्जारं मूषिकस्तथा।
प्रविवेश तु विश्रभ्य क्रोडमस्य कृतागसः ॥ ८३ ॥

मूलम्

ग्राहयित्वा तु तं स्वार्थं मार्जारं मूषिकस्तथा।
प्रविवेश तु विश्रभ्य क्रोडमस्य कृतागसः ॥ ८३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजी कहते हैं— युधिष्ठिर! इस प्रकार चूहेने बिलावसे अपने मतलबकी बात स्वीकार कराकर और स्वयं भी उसका विश्वास करके उस अपराधी शत्रुकी भी गोदमें जा बैठा॥८३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमाश्वासितो विद्वान् मार्जारेण स मूषिकः।
मार्जारोरसि विस्रब्धः सुष्वाप पितृमातृवत् ॥ ८४ ॥

मूलम्

एवमाश्वासितो विद्वान् मार्जारेण स मूषिकः।
मार्जारोरसि विस्रब्धः सुष्वाप पितृमातृवत् ॥ ८४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

बिलावने जब उस विद्वान् चूहेको पूर्वोक्तरूपसे आश्वासन दिया, तब वह माता-पिताकी गोदके समान उस बिलावकी छातीपर निर्भय होकर सो गया॥८४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

लीनं तु तस्य गात्रेषु मार्जारस्य च मूषिकम्।
दृष्ट्‌वा तौ नकुलोलूकौ निराशौ प्रत्यपद्यताम् ॥ ८५ ॥

मूलम्

लीनं तु तस्य गात्रेषु मार्जारस्य च मूषिकम्।
दृष्ट्‌वा तौ नकुलोलूकौ निराशौ प्रत्यपद्यताम् ॥ ८५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

चूहेको बिलावके अंगोंमें छिपा हुआ देख नेवला और उल्लू दोनों निराश हो गये॥८५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथैव तौ सुसंत्रस्तौ दृढमागततन्द्रितौ।
दृष्ट्‌वा तयोः परां प्रीतिं विस्मयं परमं गतौ ॥ ८६ ॥

मूलम्

तथैव तौ सुसंत्रस्तौ दृढमागततन्द्रितौ।
दृष्ट्‌वा तयोः परां प्रीतिं विस्मयं परमं गतौ ॥ ८६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन दोनोंको बड़े जोरसे औंघाई आ रही थी और वे अत्यन्त भयभीत भी हो गये थे। उस समय चूहे और बिलावका वह विशेष प्रेम देखकर नेवला और उल्लू दोनोंको बड़ा आश्चर्य हुआ॥८६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बलिनौ मतिमन्तौ च सुवृत्तौ चाप्युपासितौ।
अशक्तौ तु नयात्‌ तस्मात् सम्प्रधर्षयितुं बलात् ॥ ८७ ॥

मूलम्

बलिनौ मतिमन्तौ च सुवृत्तौ चाप्युपासितौ।
अशक्तौ तु नयात्‌ तस्मात् सम्प्रधर्षयितुं बलात् ॥ ८७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यद्यपि वे बड़े बलवान्, बुद्धिमान्, सुन्दर बर्ताव करनेवाले, कार्यकुशल तथा निकटवर्ती थे तो भी उस संधिकी नीतिसे काम लेनेके कारण उन चूहे और बिलावपर वे बलपूर्वक आक्रमण करनेमें समर्थ न हो सके॥८७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कार्यार्थं कृतसंधी तौ दृष्ट्‌वा मार्जारमूषिकौ।
उलूकनकुलौ तूर्णं जग्मतुस्तौ स्वमालयम् ॥ ८८ ॥

मूलम्

कार्यार्थं कृतसंधी तौ दृष्ट्‌वा मार्जारमूषिकौ।
उलूकनकुलौ तूर्णं जग्मतुस्तौ स्वमालयम् ॥ ८८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अपने-अपने प्रयोजनकी सिद्धिके लिये चूहे और बिलावने आपसमें संधि कर ली, यह देखकर उल्लू और नेवला देनों तत्काल अपने निवासस्थानको लौट गये॥८८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

लीनः स तस्य गात्रेषु पलितो देशकालवित्।
चिच्छेद पाशान् नृपते कालापेक्षी शनैः शनैः ॥ ८९ ॥

मूलम्

लीनः स तस्य गात्रेषु पलितो देशकालवित्।
चिच्छेद पाशान् नृपते कालापेक्षी शनैः शनैः ॥ ८९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नरेश्वर! चूहा देश-कालकी गतिको अच्छी तरह जानता था; इसलिये वह बिलावके अंगोंमें ही छिपा रहकर चाण्डालके आनेके समयकी प्रतीक्षा करता हुआ धीरे-धीरे जालको काटने लगा॥८९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथ बन्धपरिक्लिष्टो मार्जारो वीक्ष्य मूषिकम्।
छिन्दन्तं वै तदा पाशानत्वरन्तं त्वरान्वितः ॥ ९० ॥
तमत्वरन्तं पलितं पाशानां छेदने तथा।
संचोदयितुमारेभे मार्जारो मूषिकं तदा ॥ ९१ ॥

मूलम्

अथ बन्धपरिक्लिष्टो मार्जारो वीक्ष्य मूषिकम्।
छिन्दन्तं वै तदा पाशानत्वरन्तं त्वरान्वितः ॥ ९० ॥
तमत्वरन्तं पलितं पाशानां छेदने तथा।
संचोदयितुमारेभे मार्जारो मूषिकं तदा ॥ ९१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

बिलाव उस बन्धनसे तंग आ गया था। उसने देखा, चूहा जाल तो काट रहा है; किंतु इस कार्यमें फुर्ती नहीं दिखा रहा है, तब वह उतावला होकर बन्धन काटनेमें जल्दी न करनेवाले पलित नामक चूहेको उकसाता हुआ बोला—॥९०-९१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

किं सौम्य नातित्वरसे किं कृतार्थोऽवमन्यसे।
छिन्धि पाशानमित्रघ्न पुरा श्वपच एति च ॥ ९२ ॥

मूलम्

किं सौम्य नातित्वरसे किं कृतार्थोऽवमन्यसे।
छिन्धि पाशानमित्रघ्न पुरा श्वपच एति च ॥ ९२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘सौम्य! तुम जल्दी क्यों नहीं करते हो? क्या तुम्हारा काम बन गया, इसलिये मेरी अवहेलना करते हो? शत्रुसूदन! देखो, अब चाण्डाल आ रहा होगा। उसके आनेसे पहले ही मेरे बन्धनोंको काट दो’॥९२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्युक्तस्त्वरता तेन मतिमान् पलितोऽब्रवीत्।
मार्जारमकृतप्रज्ञं पथ्यमात्महितं वचः ॥ ९३ ॥

मूलम्

इत्युक्तस्त्वरता तेन मतिमान् पलितोऽब्रवीत्।
मार्जारमकृतप्रज्ञं पथ्यमात्महितं वचः ॥ ९३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उतावले हुए बिलावके ऐसा कहनेपर बुद्धिमान् पलितने अपवित्र विचार रखनेवाले उस मार्जारसे अपने लिये हितकर और लाभदायक बात कही—॥९३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तूष्णीं भव न ते सौम्य त्वरा कार्या न सम्भ्रमः।
वयमेवात्र कालज्ञा न कालः परिहास्यते ॥ ९४ ॥

मूलम्

तूष्णीं भव न ते सौम्य त्वरा कार्या न सम्भ्रमः।
वयमेवात्र कालज्ञा न कालः परिहास्यते ॥ ९४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘सौम्य चुप रहो, तुम्हें जल्दी नहीं करनी चाहिये, घबरानेकी कोई आवश्यकता नहीं है। मैं समयको खूब पहचानता हूँ, ठीक अवसर आनेपर मैं कभी नहीं चूकूँगा॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अकाले कृत्यमारब्धं कर्तुर्नार्थाय कल्पते।
तदेव काल आरब्धं महतेऽर्थाय कल्पते ॥ ९५ ॥

मूलम्

अकाले कृत्यमारब्धं कर्तुर्नार्थाय कल्पते।
तदेव काल आरब्धं महतेऽर्थाय कल्पते ॥ ९५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘बेमौके शुरू किया हुआ काम करनेवालेके लिये लाभदायक नहीं होता है और वही उपयुक्त समयपर आरम्भ किया जाय तो महान् अर्थका साधक हो जाता है॥९५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अकाले विप्रमुक्तान्मे त्वत्त एव भयं भवेत्।
तस्मात् कालं प्रतीक्षस्व किमिति त्वरसे सखे ॥ ९६ ॥

मूलम्

अकाले विप्रमुक्तान्मे त्वत्त एव भयं भवेत्।
तस्मात् कालं प्रतीक्षस्व किमिति त्वरसे सखे ॥ ९६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘यदि असमयमें ही तुम छूट गये तो मुझे तुम्हींसे भय प्राप्त हो सकता है, इसलिये मेरे मित्र! थोड़ी देर और प्रतीक्षा करो; क्यों इतनी जल्दी मचा रहे हो?॥९६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदा पश्यामि चाण्डालमायान्तं शस्त्रपाणिनम्।
ततश्छेत्स्यामि ते पाशान् प्राप्ते साधारणे भये ॥ ९७ ॥

मूलम्

यदा पश्यामि चाण्डालमायान्तं शस्त्रपाणिनम्।
ततश्छेत्स्यामि ते पाशान् प्राप्ते साधारणे भये ॥ ९७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जब मैं देख लूँगा कि चाण्डाल हाथमें हथियार लिये आ रहा है, तब तुम्हारे ऊपर साधारण-सा भय उपस्थित होनेपर मैं शीघ्र ही तुम्हारे बन्धन काट डालूँगा॥९७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मिन् काले प्रमुक्तस्त्वं तरुमेवाधिरोक्ष्यसे।
न हि ते जीवितादन्यत् किंचित् कृत्यं भविष्यति ॥ ९८ ॥

मूलम्

तस्मिन् काले प्रमुक्तस्त्वं तरुमेवाधिरोक्ष्यसे।
न हि ते जीवितादन्यत् किंचित् कृत्यं भविष्यति ॥ ९८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘उस समय छूटते ही तुम पहले पेड़पर ही चढ़ोगे। अपने जीवनकी रक्षाके सिवा दूसरा कोई कार्य तुम्हें आवश्यक नहीं प्रतीत होगा॥९८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो भवत्यपक्रान्ते त्रस्ते भीते च लोमश।
अहं बिलं प्रवेक्ष्यामि भवान् शाखां भजिष्यति ॥ ९९ ॥

मूलम्

ततो भवत्यपक्रान्ते त्रस्ते भीते च लोमश।
अहं बिलं प्रवेक्ष्यामि भवान् शाखां भजिष्यति ॥ ९९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘लोमशजी! जब आप त्रास और भयसे आक्रान्त हो भाग खड़े होंगे, उस समय मैं बिलमें घुस जाऊँगा और आप वृक्षकी शाखापर जा बैठेंगे’॥९९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमुक्तस्तु मार्जारो मूषिकेणात्मनो हितम्।
वचनं वाक्यतत्त्वज्ञो जीवितार्थी महामतिः ॥ १०० ॥

मूलम्

एवमुक्तस्तु मार्जारो मूषिकेणात्मनो हितम्।
वचनं वाक्यतत्त्वज्ञो जीवितार्थी महामतिः ॥ १०० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

चूहेके ऐसा कहनेपर वाणीके मर्मको समझनेवाला और अपने जीवनकी रक्षा चाहनेवाला परम बुद्धिमान् बिलाव अपने हितकी बात बताता हुआ बोला॥१००॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथात्मकृत्ये त्वरितः सम्यक् प्रश्रितमाचरन्।
उवाच लोमशो वाक्यं मूषिकं चिरकारिणम् ॥ १०१ ॥

मूलम्

अथात्मकृत्ये त्वरितः सम्यक् प्रश्रितमाचरन्।
उवाच लोमशो वाक्यं मूषिकं चिरकारिणम् ॥ १०१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

लोमशको अपना काम बनानेकी जल्दी लगी हुई थी; अतः वह भलीभाँति विनयपूर्ण बर्ताव करता हुआ विलम्ब करनेवाले चूहेसे इस प्रकार कहने लगा—॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न ह्येवं मित्रकार्याणि प्रीत्या कुर्वन्ति साधवः।
यथा त्वां मोक्षितः कृच्छ्रात् त्वरमाणेन वै मया ॥ १०२ ॥

मूलम्

न ह्येवं मित्रकार्याणि प्रीत्या कुर्वन्ति साधवः।
यथा त्वां मोक्षितः कृच्छ्रात् त्वरमाणेन वै मया ॥ १०२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘श्रेष्ठ पुरुष मित्रोंके कार्य बड़े प्रेम और प्रसन्नताके साथ किया करते हैं; तुम्हारी तरह नहीं। जैसे मैंने तुरंत ही तुम्हें संकटसे छुड़ा लिया था॥१०२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथा हि त्वरमाणेन त्वया कार्यं हितं मम।
यत्नं कुरु महाप्राज्ञ यथा रक्षाऽऽवयोर्भवेत् ॥ १०३ ॥

मूलम्

तथा हि त्वरमाणेन त्वया कार्यं हितं मम।
यत्नं कुरु महाप्राज्ञ यथा रक्षाऽऽवयोर्भवेत् ॥ १०३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘इसी प्रकार तुम्हें भी जल्दी ही मेरे हितका कार्य करना चाहिये। महाप्राज्ञ! तुम ऐसा प्रयत्न करो, जिससे हम दोनोंकी रक्षा हो सके॥१०३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथवा पूर्ववैरं त्वं स्मरन् कालं जिहीर्षसि।
पश्य दुष्कृतकर्मंस्त्वं व्यक्तमायुःक्षयं तव ॥ १०४ ॥

मूलम्

अथवा पूर्ववैरं त्वं स्मरन् कालं जिहीर्षसि।
पश्य दुष्कृतकर्मंस्त्वं व्यक्तमायुःक्षयं तव ॥ १०४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘अथवा यदि पहलेके वैरका स्मरण करके तुम यहाँ व्यर्थ समय काटना चाहते हो तो पापी! देख लेना, इसका क्या फल होगा? निश्चय ही तुम्हारी आयु क्षीण हो चली है॥१०४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदि किंचिन्मयाज्ञानात्‌ पुरस्ताद् दुष्कृंत कृतम्।
न तन्मनसि कर्तव्यं क्षामये त्वां प्रसीद मे ॥ १०५ ॥

मूलम्

यदि किंचिन्मयाज्ञानात्‌ पुरस्ताद् दुष्कृंत कृतम्।
न तन्मनसि कर्तव्यं क्षामये त्वां प्रसीद मे ॥ १०५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘यदि मैंने अज्ञानवश पहले कभी तुम्हारा कोई अपराध किया हो तो तुम्हें उसको मनमें नहीं लाना चाहिये, मैं क्षमा माँगता हूँ। तुम मुझपर प्रसन्न हो जाओ॥१०५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तमेवंवादिनं प्राज्ञः शास्त्रबुद्धिसमन्वितः ।
उवाचेदं वचः श्रेष्ठं मार्जारं मूषिकस्तदा ॥ १०६ ॥

मूलम्

तमेवंवादिनं प्राज्ञः शास्त्रबुद्धिसमन्वितः ।
उवाचेदं वचः श्रेष्ठं मार्जारं मूषिकस्तदा ॥ १०६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

चूहा बड़ा विद्वान् तथा नीतिशास्त्रको जाननेवाली बुद्धिसे सम्पन्न था। उसने उस समय इस प्रकार कहनेवाले बिलावसे यह उत्तम बात कही—॥१०६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रुतं मे तव मार्जार स्वमर्थं परिगृह्णतः।
ममापि त्वं विजानासि स्वमर्थं परिगृह्णतः ॥ १०७ ॥

मूलम्

श्रुतं मे तव मार्जार स्वमर्थं परिगृह्णतः।
ममापि त्वं विजानासि स्वमर्थं परिगृह्णतः ॥ १०७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘भैया बिलाव! तुमने अपनी स्वार्थसिद्धिपर ही ध्यान रखकर जो कुछ कहा है, वह सब मैंने सुन लिया तथा मैंने भी अपने प्रयोजनको सामने रखते हुए जो कुछ कहा है, उसे तुम भी अच्छी तरह समझते हो॥१०७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यन्मित्रं भीतवत्साध्यं यन्मित्रं भयसंहितम्।
सुरक्षितव्यं तत् कार्यं पाणिः सर्पमुखादिव ॥ १०८ ॥

मूलम्

यन्मित्रं भीतवत्साध्यं यन्मित्रं भयसंहितम्।
सुरक्षितव्यं तत् कार्यं पाणिः सर्पमुखादिव ॥ १०८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जो किसी डरे हुए प्राणीद्वारा मित्र बनाया गया हो तथा जो स्वयं भी भयभीत होकर ही उसका मित्र बना हो—इन दोनों प्रकारके मित्रोंकी ही रक्षा होनी चाहिये और जैसे बाजीगर सर्पके मुखसे हाथ बचाकर ही उसे खेलाता है, उसी प्रकार अपनी रक्षा करते हुए ही उन्हें एक दूसरेका कार्य करना चाहिये॥१०८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कृत्वा बलवता संधिमात्मानं यो न रक्षति।
अपथ्यमिव तद् भुक्तं तस्य नार्थाय कल्पते ॥ १०९ ॥

मूलम्

कृत्वा बलवता संधिमात्मानं यो न रक्षति।
अपथ्यमिव तद् भुक्तं तस्य नार्थाय कल्पते ॥ १०९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जो व्यक्ति बलवान्‌से संधि करके अपनी रक्षाका ध्यान नहीं रखता, उसका वह मेल-जोल खाये हुए अपथ्य अन्नके समान हितकर नहीं होता॥१०९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न कश्चित् कस्यचिन्मित्रं न कश्चित् कस्यचिद् रिपुः।
अर्थतस्तु निबद्ध्यन्ते मित्राणि रिपवस्तथा ॥ ११० ॥
अर्थैरर्था निबद्ध्यन्ते गजैर्वनगजा इव।

मूलम्

न कश्चित् कस्यचिन्मित्रं न कश्चित् कस्यचिद् रिपुः।
अर्थतस्तु निबद्ध्यन्ते मित्राणि रिपवस्तथा ॥ ११० ॥
अर्थैरर्था निबद्ध्यन्ते गजैर्वनगजा इव।

अनुवाद (हिन्दी)

‘न तो कोई किसीका मित्र है और न कोई किसीका शत्रु। स्वार्थको ही लेकर मित्र और शत्रु एक दूसरेसे बँधे हुए हैं। जैसे पालतू हाथियोंद्वारा जंगली हाथी बाँध लिये जाते हैं, उसी प्रकार अर्थोंद्वारा ही अर्थ बँधते हैं॥११०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न च कश्चित् कृते कार्ये कर्तारं समवेक्षते ॥ १११ ॥
तस्मात् सर्वाणि कार्याणि सावशेषाणि कारयेत्।

मूलम्

न च कश्चित् कृते कार्ये कर्तारं समवेक्षते ॥ १११ ॥
तस्मात् सर्वाणि कार्याणि सावशेषाणि कारयेत्।

अनुवाद (हिन्दी)

‘काम पूरा हो जानेपर कोई भी उसके करनेवालेको नहीं देखता—उसके हितपर नहीं ध्यान देता; अतः सभी कार्योंको अधूरे ही रखना चाहिये॥१११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मिन्‌ कालेऽपि च भवान् दिवाकीर्तिभयार्दितः ॥ ११२ ॥
मम न ग्रहके शक्तः पलायनपरायणः।

मूलम्

तस्मिन्‌ कालेऽपि च भवान् दिवाकीर्तिभयार्दितः ॥ ११२ ॥
मम न ग्रहके शक्तः पलायनपरायणः।

अनुवाद (हिन्दी)

‘जब चाण्डाल आ जायगा, उस समय तुम उसीके भयसे पीड़ित हो भागने लग जाओगे; फिर मुझे पकड़ न सकोगे॥११२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

छिन्नं तु तन्तुबाहुल्यं तन्तुरेकोऽवशेषितः ॥ ११३ ॥
छेत्स्याम्यहं तमप्याशु निर्वृतो भव लोमश।

मूलम्

छिन्नं तु तन्तुबाहुल्यं तन्तुरेकोऽवशेषितः ॥ ११३ ॥
छेत्स्याम्यहं तमप्याशु निर्वृतो भव लोमश।

अनुवाद (हिन्दी)

‘मैंने बहुतसे तंतु काट डाले हैं, केवल एक ही डोरी बाकी रख छोड़ी है। उसे भी मैं शीघ्र ही काट डालूँगा; अतः लोमश! तुम शान्त रहो, घबराओ न’॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तयोः संवदतोरेवं तथैवापन्नयोर्द्वयोः ॥ ११४ ॥
क्षयं जगाम सा रात्रिर्लोमशं त्वाविशद् भयम्।

मूलम्

तयोः संवदतोरेवं तथैवापन्नयोर्द्वयोः ॥ ११४ ॥
क्षयं जगाम सा रात्रिर्लोमशं त्वाविशद् भयम्।

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार संकटमें पड़े हुए उन दोनोंके वार्तालाप करते-करते ही वह रात बीत गयी। अब लोमशके मनमें बड़ा भारी भय समा गया॥११४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः प्रभातसमये विकृतः कृष्णपिङ्गल ॥ ११५ ॥
स्थूलस्फिग् विकृतो रूक्षः श्वयूथपरिवारितः।
शंकुकर्णो महावक्त्रो मलिनो घोरदर्शनः ॥ ११६ ॥
परिघो नाम चाण्डालः शस्त्रपाणिरदृश्यत।

मूलम्

ततः प्रभातसमये विकृतः कृष्णपिङ्गल ॥ ११५ ॥
स्थूलस्फिग् विकृतो रूक्षः श्वयूथपरिवारितः।
शंकुकर्णो महावक्त्रो मलिनो घोरदर्शनः ॥ ११६ ॥
परिघो नाम चाण्डालः शस्त्रपाणिरदृश्यत।

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर प्रातःकाल परिघ नामक चाण्डाल हाथमें हथियार लेकर आता दिखायी दिया। उसकी आकृति बड़ी विकराल थी। शरीरका रंग काला और पीला था। उसका नितम्ब भाग बहुत स्थूल था। कितने ही अंग विकृत हो गये थे। वह स्वभावका रूखा जान पड़ता था। कुत्तोंसे घिरा हुआ वह मलिनवेषधारी चाण्डाल बड़ा भयंकर दिखायी दे रहा था, उसका मुँह विशाल था और कान दीवारमें गड़ी हुई खूँटियोंके समान जान पड़ते थे॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तं दृष्ट्‌वा यमदूताभं मार्जारस्त्रस्तचेतनः ॥ ११७ ॥
उवाच वचनं भीतः किमिदानीं करिष्यसि।

मूलम्

तं दृष्ट्‌वा यमदूताभं मार्जारस्त्रस्तचेतनः ॥ ११७ ॥
उवाच वचनं भीतः किमिदानीं करिष्यसि।

अनुवाद (हिन्दी)

यमदूतके समान चाण्डालको आते देख बिलावका चित्त भयसे व्याकुल हो गया। उसने डरते-डरते यही कहा—‘भैया चूहा! अब क्या करोगे?’॥११७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथ तावपि संत्रस्तौ तं दृष्ट्‌वा घोरसंकुलम् ॥ ११८ ॥
क्षणेन नकुलोलूकौ नैराश्यमुपजग्मतुः ।

मूलम्

अथ तावपि संत्रस्तौ तं दृष्ट्‌वा घोरसंकुलम् ॥ ११८ ॥
क्षणेन नकुलोलूकौ नैराश्यमुपजग्मतुः ।

अनुवाद (हिन्दी)

एक ओर वे दोनों भयभीत थे। दूसरी ओर भयानक प्राणियोंसे घिरा हुआ चाण्डाल आ रहा था। उन सबको देखकर नेवला और उल्लू क्षणभरमें ही निराश हो गये॥११८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बलिनौ मतिमन्तौ च संघाते चाप्युपागतौ ॥ ११९ ॥
अशक्तौ सुनयात्‌ तस्मात्‌ सम्प्रधर्षयितुं बलात्।

मूलम्

बलिनौ मतिमन्तौ च संघाते चाप्युपागतौ ॥ ११९ ॥
अशक्तौ सुनयात्‌ तस्मात्‌ सम्प्रधर्षयितुं बलात्।

अनुवाद (हिन्दी)

वे दोनों बलवान् और बुद्धिमान् तो थे ही। चूहेके घातमें पासहीमें बैठे हुए थे; परंतु अच्छी नीतिसे संगठित हो जानेके कारण चूहे और बिलावपर वे बलपूर्वक आक्रमण न कर सके॥११९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कार्यार्थे कृतसंधानौ दृष्ट्‌वा मार्जारमूषिकौ ॥ १२० ॥
उलूकनकुलौ तत्र जग्मतुः स्वं स्वमालयम्।

मूलम्

कार्यार्थे कृतसंधानौ दृष्ट्‌वा मार्जारमूषिकौ ॥ १२० ॥
उलूकनकुलौ तत्र जग्मतुः स्वं स्वमालयम्।

अनुवाद (हिन्दी)

चूहे और बिलावको कार्यवश संधिसूत्रमें बँधे देख उल्लू और नेवला दोनों अपने-अपने निवासस्थानको चले गये॥१२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततश्चिच्छेद तं पाशं मार्जारस्य च मूषिकः ॥ १२१ ॥
विप्रमुक्तोऽथ मार्जारस्तमेवाभ्यपतद् द्रुमम् ।
स तस्मात्‌ सम्भ्रमावर्तान्मुक्तो घोरेण शत्रुणा ॥ १२२ ॥
बिलं विवेश पलितः शाखां लेभे स लोमशः।

मूलम्

ततश्चिच्छेद तं पाशं मार्जारस्य च मूषिकः ॥ १२१ ॥
विप्रमुक्तोऽथ मार्जारस्तमेवाभ्यपतद् द्रुमम् ।
स तस्मात्‌ सम्भ्रमावर्तान्मुक्तो घोरेण शत्रुणा ॥ १२२ ॥
बिलं विवेश पलितः शाखां लेभे स लोमशः।

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर चूहेने बिलावका बन्धन काट दिया। जालसे छूटते ही बिलाव उसी पेड़पर चढ़ गया। उस घोर शत्रु तथा उस भारी घबराहटसे छुटकारा पाकर पलित अपने बिलमें घुस गया और लोमश वृक्षकी शाखापर जा बैठा॥१२१-१२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उन्माथमप्यथादाय चाण्डालो वीक्ष्य सर्वशः ॥ १२३ ॥
विहताशः क्षणेनास्ते तस्माद् देशादपाक्रमत्।
जगाम स स्वभवनं चाण्डालो भरतर्षभ ॥ १२४ ॥

मूलम्

उन्माथमप्यथादाय चाण्डालो वीक्ष्य सर्वशः ॥ १२३ ॥
विहताशः क्षणेनास्ते तस्माद् देशादपाक्रमत्।
जगाम स स्वभवनं चाण्डालो भरतर्षभ ॥ १२४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतश्रेष्ठ! चाण्डालने उस जालको लेकर उसे सब ओरसे उलट-पलटकर देखा और निराश होकर क्षणभरमें उस स्थानसे हट गया और अन्तमें अपने घरको चला गया॥१२३-१२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततस्तस्माद् भयान्मुक्तो दुर्लभं प्राप्य जीवितम्।
बिलस्थं पादपाग्रस्थः पलितं लोमशोऽब्रवीत् ॥ १२५ ॥

मूलम्

ततस्तस्माद् भयान्मुक्तो दुर्लभं प्राप्य जीवितम्।
बिलस्थं पादपाग्रस्थः पलितं लोमशोऽब्रवीत् ॥ १२५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस भारी भयसे मुक्त हो दुर्लभ जीवन पाकर वृक्षकी शाखापर बैठे हुए लोमशने बिलके भीतर बैठे हुए चूहेसे कहा—॥१२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अकृत्वा संविदं काञ्चित् सहसा समवप्लुतः।
कृतज्ञं कृतकर्माणं कच्चिन्मां नाभिशंकसे ॥ १२६ ॥

मूलम्

अकृत्वा संविदं काञ्चित् सहसा समवप्लुतः।
कृतज्ञं कृतकर्माणं कच्चिन्मां नाभिशंकसे ॥ १२६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘भैया! तुम मुझसे कोई बातचीत किये बिना ही इस प्रकार सहसा बिलमें क्यों घुस गये? मैं तो तुम्हारा बड़ा ही कृतज्ञ हूँ। मैंने तुम्हारे प्राणोंकी रक्षा करके तुम्हारा भी बड़ा भारी काम किया है। तुम्हें मेरी ओरसे कुछ शंका तो नहीं है?॥१२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गत्वा च मम विश्वासं दत्त्वा च मम जीवितम्।
मित्रोपभोगसमये किं मां त्वं नोपसर्पसि ॥ १२७ ॥

मूलम्

गत्वा च मम विश्वासं दत्त्वा च मम जीवितम्।
मित्रोपभोगसमये किं मां त्वं नोपसर्पसि ॥ १२७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मित्र! तुमने विपत्तिके समय मेरा विश्वास किया और मुझे जीवनदान दिया। अब तो मैत्रीके सुखका उपभोग करनेका समय है, ऐसे समय तुम मेरे पास क्यों नहीं आते हो?॥१२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कृत्वा हि पूर्वं मित्राणि यः पश्चान्नानुतिष्ठति।
न स मित्राणि लभते कृच्छ्रास्वापत्सु दुर्मतिः ॥ १२८ ॥

मूलम्

कृत्वा हि पूर्वं मित्राणि यः पश्चान्नानुतिष्ठति।
न स मित्राणि लभते कृच्छ्रास्वापत्सु दुर्मतिः ॥ १२८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जो खोटी बुद्धिवाला मनुष्य पहले बहुत-से मित्र बनाकर पीछे उस मित्रभावमें स्थिर नहीं रहता है, वह कष्टदायिनी विपत्तिमें पड़नेपर उन मित्रोंको नहीं पाता है अर्थात् उनसे उसको सहायता नहीं मिलती॥१२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सत्कृतोऽहं त्वया मित्र सामर्थ्यादात्मनः सखे।
स मां मित्रत्वमापन्नमुपभोक्तुं त्वमर्हसि ॥ १२९ ॥

मूलम्

सत्कृतोऽहं त्वया मित्र सामर्थ्यादात्मनः सखे।
स मां मित्रत्वमापन्नमुपभोक्तुं त्वमर्हसि ॥ १२९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘सखे! मित्र! तुमने अपनी शक्तिके अनुसार मेरा पूरा सत्कार किया है और मैं भी तुम्हारा मित्र हो गया हूँ; अतः तुम्हें मेरे साथ रहकर इस मित्रताका सुख भोगना चाहिये॥१२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यानि मे सन्ति मित्राणि ये च सम्बन्धिबान्धवाः।
सर्वे त्वां पूजयिष्यन्ति शिष्या गुरुमिव प्रियम् ॥ १३० ॥

मूलम्

यानि मे सन्ति मित्राणि ये च सम्बन्धिबान्धवाः।
सर्वे त्वां पूजयिष्यन्ति शिष्या गुरुमिव प्रियम् ॥ १३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मेरे जो भी मित्र, सम्बन्धी और बन्धु-बान्धव हैं, वे सब तुम्हारी उसी प्रकार सेवा-पूजा करेंगे, जैसे शिष्य अपने श्रद्धेय गुरुकी करते हैं॥१३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अहं च पूजयिष्ये त्वां समित्रगणबान्धवम्।
जीवितस्य प्रदातारं कृतज्ञः को न पूजयेत् ॥ १३१ ॥

मूलम्

अहं च पूजयिष्ये त्वां समित्रगणबान्धवम्।
जीवितस्य प्रदातारं कृतज्ञः को न पूजयेत् ॥ १३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मैं भी मित्रों और बन्धु-बान्धवोंसहित तुम्हारा सदा ही आदर-सत्कार करूँगा। संसारमें ऐसा कौन पुरुष होगा, जो अपने जीवनदाताकी पूजा न करे?॥१३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ईश्वरो मे भवानस्तु स्वशरीरगृहस्य च।
अर्थानां चैव सर्वेषामनुशास्ता च मे भव ॥ १३२ ॥

मूलम्

ईश्वरो मे भवानस्तु स्वशरीरगृहस्य च।
अर्थानां चैव सर्वेषामनुशास्ता च मे भव ॥ १३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘तुम मेरे शरीरके और मेरे घरके भी स्वामी हो जाओ। मेरी जो कुछ भी सम्पत्ति है, वह सारी-की-सारी तुम्हारी है। तुम उसके शासक और व्यवस्थापक बनो॥१३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अमात्यो मे भव प्राज्ञ पितेवेह प्रशाधि माम्।
न तेऽस्ति भयमस्मत्तो जीवितेनात्मनः शपे ॥ १३३ ॥

मूलम्

अमात्यो मे भव प्राज्ञ पितेवेह प्रशाधि माम्।
न तेऽस्ति भयमस्मत्तो जीवितेनात्मनः शपे ॥ १३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘विद्वन्! तुम मेरे मन्त्री हो जाओ और पिताकी भाँति मुझे कर्तव्यका उपदेश दो। मैं अपने जीवनकी शपथ खाकर कहता हूँ कि तुम्हें हमलोगोंकी ओरसे कोई भय नहीं है॥१३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बुद्ध्या त्वमुशना साक्षाद् बलेनाधिकृता वयम्।
त्वं मन्त्रबलयुक्तो हि दत्त्वा जीवितमद्य मे ॥ १३४ ॥

मूलम्

बुद्ध्या त्वमुशना साक्षाद् बलेनाधिकृता वयम्।
त्वं मन्त्रबलयुक्तो हि दत्त्वा जीवितमद्य मे ॥ १३४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘तुम साक्षात् शुक्राचार्यके समान बुद्धिमान् हो। तुममें मन्त्रणाका बल है। आज तुमने मुझे जीवनदान देकर अपने मन्त्रणाबलसे हम सब लोगोंके हृदयपर अधिकार प्राप्त कर लिया है’॥१३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमुक्तः परां शान्तिं मार्जारेण स मूषिकः।
उवाच परमन्त्रज्ञः श्लक्ष्णमात्महितं वचः ॥ १३५ ॥

मूलम्

एवमुक्तः परां शान्तिं मार्जारेण स मूषिकः।
उवाच परमन्त्रज्ञः श्लक्ष्णमात्महितं वचः ॥ १३५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

बिलावकी ऐसी परम शान्तिपूर्ण बातें सुनकर उत्तम मन्त्रणाके ज्ञाता चूहेने मधुर वाणीमें अपने लिये हितकर वचन कहा—॥१३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यद् भवानाह तत् सर्वं मया ते लोमश श्रुतम्।
ममापि तावद् ब्रुवतः शृणु यत् प्रतिभाति मे ॥ १३६ ॥

मूलम्

यद् भवानाह तत् सर्वं मया ते लोमश श्रुतम्।
ममापि तावद् ब्रुवतः शृणु यत् प्रतिभाति मे ॥ १३६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘लोमश! तुमने जो कुछ कहा, वह सब मैंने ध्यान देकर सुना। अब मेरी बुद्धिमें जो विचार स्फुरित हो रहा है उसे बतलाता हूँ, अतः मेरे इस कथनको भी सुन लो॥१३६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वेदितव्यानि मित्राणि विज्ञेयाश्चापि शत्रवः।
एतत् सुसूक्ष्मं लोकेऽस्मिन्‌ दृश्यते प्राज्ञ सम्मतम् ॥ १३७ ॥

मूलम्

वेदितव्यानि मित्राणि विज्ञेयाश्चापि शत्रवः।
एतत् सुसूक्ष्मं लोकेऽस्मिन्‌ दृश्यते प्राज्ञ सम्मतम् ॥ १३७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मित्रोंको जानना चाहिये, शत्रुओंको भी अच्छी तरह समझ लेना चाहिये—इस जगत्‌में मित्र और शत्रुकी यह पहचान अत्यन्त सूक्ष्म तथा विज्ञजनोंको अभिमत है॥१३७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शत्रुरूपा हि सुहृदो मित्ररूपाश्च शत्रवः।
संधितास्ते न बुद्ध्यन्ते कामक्रोधवशं गताः ॥ १३८ ॥

मूलम्

शत्रुरूपा हि सुहृदो मित्ररूपाश्च शत्रवः।
संधितास्ते न बुद्ध्यन्ते कामक्रोधवशं गताः ॥ १३८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘अवसर आनेपर कितने ही मित्र शत्रुरूप हो जाते हैं और कितने ही शत्रु मित्र बन जाते हैं। परस्पर संधि कर लेनेके पश्चात् जब वे काम और क्रोधके अधीन हो जाते हैं, तब यह समझना असम्भव हो जाता है कि वे मित्रभावसे युक्त हैं या शत्रुभावसे?॥१३८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नास्ति जातु रिपुर्नाम मित्रं नाम न विद्यते।
सामर्थ्ययोगाज्जायन्ते मित्राणि रिपवस्तथा ॥ १३९ ॥

मूलम्

नास्ति जातु रिपुर्नाम मित्रं नाम न विद्यते।
सामर्थ्ययोगाज्जायन्ते मित्राणि रिपवस्तथा ॥ १३९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘न कभी कोई शत्रु होता है और न मित्र होता है। आवश्यक शक्तिके सम्बन्धसे लोग एक दूसरेके मित्र और शत्रु हुआ करते हैं॥१३९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यो यस्मिन् जीवति स्वार्थं पश्येत् पीडां न जीवति।
स तस्य मित्रं तावत् स्याद् यावन्न स्याद् विपर्ययः॥१४०॥

मूलम्

यो यस्मिन् जीवति स्वार्थं पश्येत् पीडां न जीवति।
स तस्य मित्रं तावत् स्याद् यावन्न स्याद् विपर्ययः॥१४०॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जो जिसके जीते-जी अपना स्वार्थ सधता देखता है और जिसके मर जानेपर अपनी हानि मानता है, वह तबतक उसका मित्र बना रहता है, जबतक कि इस स्थितिमें कोई उलट-फेर नहीं होता॥१४०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नास्ति मैत्री स्थिरा नाम न च ध्रुवमसौहृदम्।
अर्थयुक्त्यानुजायन्ते मित्राणि रिपवस्तथा ॥ १४१ ॥

मूलम्

नास्ति मैत्री स्थिरा नाम न च ध्रुवमसौहृदम्।
अर्थयुक्त्यानुजायन्ते मित्राणि रिपवस्तथा ॥ १४१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मैत्री कोई स्थिर वस्तु नहीं है और शत्रुता भी सदा स्थिर रहनेवाली चीज नहीं है। स्वार्थके सम्बन्धसे मित्र और शत्रु होते रहते हैं॥१४१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मित्रं च शत्रुतामेति कस्मिंश्चित् कालपर्यये।
शत्रुश्च मित्रतामेति स्वार्थो हि बलवत्तरः ॥ १४२ ॥

मूलम्

मित्रं च शत्रुतामेति कस्मिंश्चित् कालपर्यये।
शत्रुश्च मित्रतामेति स्वार्थो हि बलवत्तरः ॥ १४२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘कभी-कभी समयके फेरसे मित्र शत्रु बन जाता है और शत्रु भी मित्र बन जाता है; क्योंकि स्वार्थ बड़ा बलवान् होता है॥१४२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यो विश्वसिति मित्रेषु न विश्वसिति शत्रुषु।
अर्थयुक्तिमविज्ञाय यः प्रीतौ कुरुते मनः ॥ १४३ ॥
मित्रे वा यदि वा शत्रौ तस्यापि चलिता मतिः।

मूलम्

यो विश्वसिति मित्रेषु न विश्वसिति शत्रुषु।
अर्थयुक्तिमविज्ञाय यः प्रीतौ कुरुते मनः ॥ १४३ ॥
मित्रे वा यदि वा शत्रौ तस्यापि चलिता मतिः।

अनुवाद (हिन्दी)

‘जो मनुष्य स्वार्थके सम्बन्धका विचार किये बिना ही मित्रोंपर केवल विश्वास और शत्रुओंपर केवल अविश्वास करता जाता है तथा जो शत्रु हो या मित्र, जो सबके प्रति प्रेमभाव ही स्थापित करने लगता है, उसकी बुद्धि भी चंचल ही समझनी चाहिये॥१४३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न विश्वसेदविश्वस्ते विश्वस्ते नातिविश्वसेत् ॥ १४४ ॥
विश्वासाद् भयमुत्पन्नमपि मूलानि कृन्तति।

मूलम्

न विश्वसेदविश्वस्ते विश्वस्ते नातिविश्वसेत् ॥ १४४ ॥
विश्वासाद् भयमुत्पन्नमपि मूलानि कृन्तति।

अनुवाद (हिन्दी)

‘जो विश्वासपात्र न हो, उसपर कभी विश्वास न करे और जो विश्वासपात्र हो, उसपर भी अधिक विश्वास न करे; क्योंकि विश्वाससे उत्पन्न हुआ भय मनुष्यका मूलोच्छेद कर डालता है॥१४४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अर्थयुक्त्या हि जायन्ते पिता माता सुतस्तथा ॥ १४५ ॥
मातुला भागिनेयाश्च तथा सम्बन्धिबान्धवाः।

मूलम्

अर्थयुक्त्या हि जायन्ते पिता माता सुतस्तथा ॥ १४५ ॥
मातुला भागिनेयाश्च तथा सम्बन्धिबान्धवाः।

अनुवाद (हिन्दी)

‘माता-पिता, पुत्र, मामा, भांजे, सम्बन्धी तथा बन्धु-बान्धव-इन सबमें स्वार्थके सम्बन्धसे ही स्नेह होता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुत्रं हि मातापितरौ त्यजतः पतितं प्रियम् ॥ १४६ ॥
लोको रक्षति चात्मानं पश्य स्वार्थस्य सारताम्।

मूलम्

पुत्रं हि मातापितरौ त्यजतः पतितं प्रियम् ॥ १४६ ॥
लोको रक्षति चात्मानं पश्य स्वार्थस्य सारताम्।

अनुवाद (हिन्दी)

‘अपना प्यारा पुत्र भी यदि पतित हो जाता है तो माँ-बाप उसे त्याग देते हैं और सब लोग सदा अपनी ही रक्षा करना चाहते हैं। अतः देख लो, इस जगत्‌में स्वार्थ ही सार है’॥१४६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सामान्या निष्कृतिः प्राज्ञ यो मोक्षात् प्रत्यनन्तरम् ॥ १४७ ॥
कृतं मृगयसे शत्रुं सुखोपायमसंशयम्।

मूलम्

सामान्या निष्कृतिः प्राज्ञ यो मोक्षात् प्रत्यनन्तरम् ॥ १४७ ॥
कृतं मृगयसे शत्रुं सुखोपायमसंशयम्।

अनुवाद (हिन्दी)

‘बुद्धिमान् लोमश! जो तुम आज जालके बन्धनसे छूटनेके बाद ही कृतज्ञतावश मुझ अपने शत्रुको सुख पहुँचानेका असंदिग्ध उपाय ढूँढ़ने लगे हो, इसका क्या कारण है? जहाँतक उपकारका बदला चुकानेका प्रश्न है, वहाँतक तो हमारी-तुम्हारी समान स्थिति है। यदि मैंने तुम्हें संकटसे छुड़ाया है, तो तुमने भी तो मुझे वैसी ही विपत्तिसे बचाया है; फिर मैं तो कुछ करता नहीं, तुम्हीं क्यों उपकारका बदला देनेके लिये उतावले हो उठे हो?॥१४७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अस्मिन् निलय एव त्वं न्यग्रोधादवतारितः ॥ १४८ ॥
पूर्वं निविष्टमुन्माथं चपलत्वान्न बुद्धवान्।

मूलम्

अस्मिन् निलय एव त्वं न्यग्रोधादवतारितः ॥ १४८ ॥
पूर्वं निविष्टमुन्माथं चपलत्वान्न बुद्धवान्।

अनुवाद (हिन्दी)

‘तुम इसी स्थानपर बरगदसे उतरे थे और पहलेसे ही यहाँ जाल बिछा हुआ था; परंतु तुमने चपलताके कारण उधर ध्यान नहीं दिया और फँस गये॥१४८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आत्मनश्चपलो नास्ति कुतोऽन्येषां भविष्यति ॥ १४९ ॥
तस्मात्‌ सर्वाणि कार्याणि चपलो हन्त्यसंशयम्।

मूलम्

आत्मनश्चपलो नास्ति कुतोऽन्येषां भविष्यति ॥ १४९ ॥
तस्मात्‌ सर्वाणि कार्याणि चपलो हन्त्यसंशयम्।

अनुवाद (हिन्दी)

‘चपल प्राणी जब अपने ही लिये कल्याणकारी नहीं होता तो वह दूसरेकी भलाई क्या करेगा? अतः यह निश्चित है कि चपल पुरुष सब काम चौपट कर देता है॥१४९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्रवीषि मधुरं यच्च प्रियो मेऽद्य भवानिति ॥ १५० ॥
तन्मित्र कारणं सर्वं विस्तरेणापि मे शृणु।
कारणात् प्रियतामेति द्वेष्यो भवति कारणात् ॥ १५१ ॥

मूलम्

ब्रवीषि मधुरं यच्च प्रियो मेऽद्य भवानिति ॥ १५० ॥
तन्मित्र कारणं सर्वं विस्तरेणापि मे शृणु।
कारणात् प्रियतामेति द्वेष्यो भवति कारणात् ॥ १५१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘इसके सिवा तुम जो यह मीठी-मीठी बात कह रहे हो कि ‘आज तुम मुझे बड़े प्रिय लगते हो’ इसका भी कारण है, मेरे मित्र! वह सब मैं विस्तारके साथ बताता हूँ, सुनो। मनुष्य कारणसे ही प्रेमपात्र और कारणसे ही द्वेषका पात्र बनता है॥१५०-१५१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अर्थार्थी जीवलोकोऽयं न कश्चित्‌ कस्यचित् प्रियः।
सख्यं सोदर्ययोर्भ्रात्रोर्दम्पत्योर्वा परस्परम् ॥ १५२ ॥
कस्यचिन्नाभिजानामि प्रीतिं निष्कारणामिह ।

मूलम्

अर्थार्थी जीवलोकोऽयं न कश्चित्‌ कस्यचित् प्रियः।
सख्यं सोदर्ययोर्भ्रात्रोर्दम्पत्योर्वा परस्परम् ॥ १५२ ॥
कस्यचिन्नाभिजानामि प्रीतिं निष्कारणामिह ।

अनुवाद (हिन्दी)

‘यह जीव-जगत् स्वार्थका ही साथी है। कोई किसीका प्रिय नहीं है। दो सगे भाइयों तथा पति और पत्नीमें भी जो परस्पर प्रेम होता है, वह भी स्वार्थवश ही है। इस जगत्‌में किसीके भी प्रेमको मैं निष्कारण (स्वार्थरहित) नहीं समझता॥१५२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यद्यपि भ्रातरः क्रुद्धा भार्या वा कारणान्तरे ॥ १५३ ॥
स्वभावतस्ते प्रीयन्ते नेतरः प्रीयते जनः।

मूलम्

यद्यपि भ्रातरः क्रुद्धा भार्या वा कारणान्तरे ॥ १५३ ॥
स्वभावतस्ते प्रीयन्ते नेतरः प्रीयते जनः।

अनुवाद (हिन्दी)

‘कभी-कभी किसी स्वार्थको लेकर भाई भी कुपित हो जाते हैं अथवा पत्नी भी रूठ जाती है। यद्यपि वे स्वभावतः एक-दूसरेसे जैसा प्रेम करते हैं, ऐसा प्रेम दूसरे लोग नहीं करते हैं॥१५३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रियो भवति दानेन प्रियवादेन चापरः ॥ १५४ ॥
मन्त्रहोमजपैरन्यः कार्यार्थं प्रीयते जनः।

मूलम्

प्रियो भवति दानेन प्रियवादेन चापरः ॥ १५४ ॥
मन्त्रहोमजपैरन्यः कार्यार्थं प्रीयते जनः।

अनुवाद (हिन्दी)

‘कोई दान देनेसे प्रिय होता है, कोई प्रिय वचन बोलनेसे प्रीतिपात्र बनता है और कोई कार्यसिद्धिके लिये मन्त्र, होम एवं जप करनेसे प्रेमका भाजन बन जाता है॥१५४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उत्पन्ना कारणे प्रीतिरासीन्नौ कारणान्तरे ॥ १५५ ॥
प्रध्वस्ते कारणस्थाने सा प्रीतिर्विनिवर्तते।

मूलम्

उत्पन्ना कारणे प्रीतिरासीन्नौ कारणान्तरे ॥ १५५ ॥
प्रध्वस्ते कारणस्थाने सा प्रीतिर्विनिवर्तते।

अनुवाद (हिन्दी)

‘किसी कारण (स्वार्थ) को लेकर उत्पन्न होनेवाली प्रीति जबतक वह कारण रहता है, तबतक बनी रहती है। उस कारणका स्थान नष्ट हो जानेपर उसको लेकर की हुई प्रीति भी स्वतः निवृत्त हो जाती है॥१५५।

विश्वास-प्रस्तुतिः

किं नु तत् कारणं मन्ये येनाहं भवतः प्रियः॥१५६॥
अन्यत्राभ्यवहारार्थं तत्रापि च बुधा वयम्।

मूलम्

किं नु तत् कारणं मन्ये येनाहं भवतः प्रियः॥१५६॥
अन्यत्राभ्यवहारार्थं तत्रापि च बुधा वयम्।

अनुवाद (हिन्दी)

‘अब मेरे शरीरको खा जानेके सिवा दूसरा कौन-सा ऐसा कारण रह गया है, जिससे मैं यह मान लूँ कि वास्तवमें तुम्हारा मुझपर प्रेम है। इस समय जो तुम्हारा स्वार्थ है, उसे मैं अच्छी तरह समझता हूँ॥१५६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कालो हेतुं विकुरुते स्वार्थस्तमनुवर्तते ॥ १५७ ॥
स्वार्थं प्राज्ञोऽभिजानाति प्राज्ञं लोकोऽनुवर्तते।
न त्वीदृशं त्वया वाच्यं विदुषि स्वार्थपण्डिते ॥ १५८ ॥

मूलम्

कालो हेतुं विकुरुते स्वार्थस्तमनुवर्तते ॥ १५७ ॥
स्वार्थं प्राज्ञोऽभिजानाति प्राज्ञं लोकोऽनुवर्तते।
न त्वीदृशं त्वया वाच्यं विदुषि स्वार्थपण्डिते ॥ १५८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘समय कारणके स्वरूपको बदल देता है; और स्वार्थ उस समयका अनुसरण करता रहता है। विद्वान् पुरुष उस स्वार्थको समझता है और साधारण लोग विद्वान् पुरुषके ही पीछे चलते हैं। तात्पर्य यह है कि मैं विद्वान् हूँ; इसलिये तुम्हारे स्वार्थको अच्छी तरह समझता हूँ; अतः तुम्हें मुझसे ऐसी बात नहीं कहनी चाहिये॥१५७-१५८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अकाले हि समर्थस्य स्नेहहेतुरयं तव।
तस्मान्नाहं चले स्वार्थात् सुस्थिरः संधिविग्रहे ॥ १५९ ॥

मूलम्

अकाले हि समर्थस्य स्नेहहेतुरयं तव।
तस्मान्नाहं चले स्वार्थात् सुस्थिरः संधिविग्रहे ॥ १५९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘तुम शक्तिशाली हो तो भी जो बेसमय मुझपर इतना स्नेह दिखा रहे हो, इसका यह स्वार्थ ही कारण है; अतः मैं भी अपने स्वार्थसे विचलित नहीं हो सकता। संधि और विग्रहके विषयमें मेरा विचार सुनिश्चित है॥१५९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अभ्राणामिव रूपाणि विकुर्वन्ति क्षणे क्षणे।
अद्यैव हि रिपुर्भूत्वा पुनरद्यैव मे सुहृत् ॥ १६० ॥
पुनश्च रिपुरद्यैव युक्तीनां पश्य चापलम्।

मूलम्

अभ्राणामिव रूपाणि विकुर्वन्ति क्षणे क्षणे।
अद्यैव हि रिपुर्भूत्वा पुनरद्यैव मे सुहृत् ॥ १६० ॥
पुनश्च रिपुरद्यैव युक्तीनां पश्य चापलम्।

अनुवाद (हिन्दी)

‘मित्रता और शत्रुताके रूप तो बादलोंके समान क्षण-क्षणमें बदलते रहते हैं। आज ही तुम मेरे शत्रु होकर फिर आज ही मेरे मित्र हो सकते हो और उसके बाद आज ही पुनः शत्रु भी बन सकते हो। देखो, यह स्वार्थका सम्बन्ध कितना चंचल है?॥१६०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आसीन्मैत्री तु तावन्नौ यावद्धेतुरभूत् पुरा ॥ १६१ ॥
सा गता सह तेनैव कालयुक्तेन हेतुना।

मूलम्

आसीन्मैत्री तु तावन्नौ यावद्धेतुरभूत् पुरा ॥ १६१ ॥
सा गता सह तेनैव कालयुक्तेन हेतुना।

अनुवाद (हिन्दी)

‘पहले जब उपयुक्त कारण था, तब हम दोनोंमें मैत्री हो गयी थी, किंतु कालने जिसे उपस्थित कर दिया था उस कारणके निवृत्त होनेके साथ ही वह मैत्री भी चली गयी॥१६१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वं हि मे जातितः शत्रुः सामर्थ्यान्मित्रतां गतः ॥ १६२ ॥
तत् कृत्यमभिनिर्वर्त्य प्रकृतिः शत्रुतां गता।

मूलम्

त्वं हि मे जातितः शत्रुः सामर्थ्यान्मित्रतां गतः ॥ १६२ ॥
तत् कृत्यमभिनिर्वर्त्य प्रकृतिः शत्रुतां गता।

अनुवाद (हिन्दी)

‘तुम जातिसे ही मेरे शत्रु हो, किंतु विशेष प्रयोजनसे मित्र बन गये थे। वह प्रयोजन सिद्ध कर लेनेके पश्चात् तुम्हारी प्रकृति फिर सहज शत्रुभावको प्राप्त हो गयी॥१६२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोऽहमेवं प्रणीतानि ज्ञात्वा शास्त्राणि तत्त्वतः ॥ १६३ ॥
प्रविशेयं कथं पाशं त्वत्कृते तद् वदस्व मे।

मूलम्

सोऽहमेवं प्रणीतानि ज्ञात्वा शास्त्राणि तत्त्वतः ॥ १६३ ॥
प्रविशेयं कथं पाशं त्वत्कृते तद् वदस्व मे।

अनुवाद (हिन्दी)

‘मैं इस प्रकार शुक्र आदि आचार्योंके बनाये हुए नीतिशास्त्रकी बातोंको ठीक-ठीक जानकर भी तुम्हारे लिये उस जालके भीतर कैसे प्रवेश कर सकता था? यह तुम्हीं मुझे बताओ॥१६३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वद्‌वीर्येण प्रमुक्तोऽहं मद्‌वीर्येण तथा भवान् ॥ १६४ ॥
अन्योन्यानुग्रहे वृत्ते नास्ति भूयः समागमः।

मूलम्

त्वद्‌वीर्येण प्रमुक्तोऽहं मद्‌वीर्येण तथा भवान् ॥ १६४ ॥
अन्योन्यानुग्रहे वृत्ते नास्ति भूयः समागमः।

अनुवाद (हिन्दी)

‘तुम्हारे पराक्रमसे मैं प्राण-संकटसे मुक्त हुआ और मेरी शक्तिसे तुम। जब एक दूसरेपर अनुग्रह करनेका काम पूरा हो गया, तब फिर हमें परस्पर मिलनेकी आवश्यकता नहीं॥१६४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वं हि सौम्य कृतार्थोऽद्य निर्वृत्तार्थास्तथा वयम् ॥ १६५ ॥
न तेऽस्त्यद्य मया कृत्यं किंचिदन्यत्र भक्षणात्।

मूलम्

त्वं हि सौम्य कृतार्थोऽद्य निर्वृत्तार्थास्तथा वयम् ॥ १६५ ॥
न तेऽस्त्यद्य मया कृत्यं किंचिदन्यत्र भक्षणात्।

अनुवाद (हिन्दी)

‘सौम्य! अब तुम्हारा काम बन गया और मेरा प्रयोजन भी सिद्ध हो गया; अतः अब मुझे खा लेनेके सिवा मेरे द्वारा तुम्हारा दूसरा कोई प्रयोजन सिद्ध होनेवाला नहीं है॥१६५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अहमन्नं भवान् भोक्ता दुर्बलोऽहं भवान् बली ॥ १६६ ॥
नावयोर्विद्यते संधिर्वियुक्ते विषमे बले।

मूलम्

अहमन्नं भवान् भोक्ता दुर्बलोऽहं भवान् बली ॥ १६६ ॥
नावयोर्विद्यते संधिर्वियुक्ते विषमे बले।

अनुवाद (हिन्दी)

‘मैं अन्न हूँ और तुम मुझे खानेवाले हो। मैं दुर्बल हूँ और तुम बलवान् हो। इस प्रकार मेरे और तुम्हारे बलमें कोई समानता नहीं है। दोनोंमें बहुत अन्तर है। अतः हम दोनोंमें संधि नहीं हो सकती॥१६६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स मन्येऽहं तव प्रज्ञां यन्मोक्षात् प्रत्यनन्तरम् ॥ १६७ ॥
भक्ष्यं मृगयसे नूनं सुखोपायेन कर्मणा।

मूलम्

स मन्येऽहं तव प्रज्ञां यन्मोक्षात् प्रत्यनन्तरम् ॥ १६७ ॥
भक्ष्यं मृगयसे नूनं सुखोपायेन कर्मणा।

अनुवाद (हिन्दी)

‘मैं तुम्हारा विचार जान गया हूँ, निश्चय ही तुम जालसे छूटनेके बादसे ही सहज उपाय तथा प्रयत्नद्वारा आहार ढूँढ़ रहे हो॥१६७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भक्ष्यार्थं ह्यवबद्धस्त्वं स मुक्तः पीडितः क्षुधा ॥ १६८ ॥
शास्त्रजां मतिमास्थाय नूनं भक्षयिताद्य माम्।
जानामि क्षुधितं तु त्वामाहारसमयश्च ते ॥ १६९ ॥
स त्वं मामभिसंधाय भक्ष्यं मृगयसे पुनः।

मूलम्

भक्ष्यार्थं ह्यवबद्धस्त्वं स मुक्तः पीडितः क्षुधा ॥ १६८ ॥
शास्त्रजां मतिमास्थाय नूनं भक्षयिताद्य माम्।
जानामि क्षुधितं तु त्वामाहारसमयश्च ते ॥ १६९ ॥
स त्वं मामभिसंधाय भक्ष्यं मृगयसे पुनः।

अनुवाद (हिन्दी)

‘आहारकी खोजके लिये ही निकलनेपर तुम इस जालमें फँसे थे और अब इससे छूटकर भूखसे पीड़ित हो रहे हो। निश्चय ही शास्त्रीय बुद्धिका सहारा लेकर अब तुम मुझे खा जाओगे। मैं जानता हूँ कि तुम भूखे हो और यह तुम्हारे भोजनका समय है; अतः तुम पुनः मुझसे संधि करके अपने लिये भोजनकी तलाश करते हो॥१६८-१६९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वं चापि पुत्रदारस्थो यत् संधिं सृजसे मयि ॥ १७० ॥
शुश्रूषां यतसे कर्तुं सखे मम न तत् क्षमम्।

मूलम्

त्वं चापि पुत्रदारस्थो यत् संधिं सृजसे मयि ॥ १७० ॥
शुश्रूषां यतसे कर्तुं सखे मम न तत् क्षमम्।

अनुवाद (हिन्दी)

‘सखे! तुम जो बाल-बच्चोंके बीचमें बैठकर मुझपर संधिका भाव दिखा रहे हो तथा मेरी सेवा करनेका यत्न करते हो, वह सब मेरे योग्य नहीं है॥१७०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वया मां सहितं दृष्ट्वा प्रिया भार्या सुताश्च ते॥१७१॥
कस्मात् ते मां न खादेयुर्हृष्टाः प्रणयिनस्त्वयि।

मूलम्

त्वया मां सहितं दृष्ट्वा प्रिया भार्या सुताश्च ते॥१७१॥
कस्मात् ते मां न खादेयुर्हृष्टाः प्रणयिनस्त्वयि।

अनुवाद (हिन्दी)

‘तुम्हारे साथ मुझे देखकर तुम्हारी प्यारी पत्नी और पुत्र जो तुमसे बड़ा प्रेम रखते हैं, हर्षसे उल्लसित हो मुझे कैसे नहीं खा जायँगे?॥१७१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नाहं त्वया समेष्यामि वृत्तो हेतुः समागमे ॥ १७२ ॥
शिवं ध्यायस्व मे स्वस्थः सुकृतं स्मरसे यदि।

मूलम्

नाहं त्वया समेष्यामि वृत्तो हेतुः समागमे ॥ १७२ ॥
शिवं ध्यायस्व मे स्वस्थः सुकृतं स्मरसे यदि।

अनुवाद (हिन्दी)

‘अब मैं तुमसे नहीं मिलूँगा। हम दोनोंके मिलनका जो उद्देश्य था, वह पूरा हो गया। यदि तुम्हें मेरे शुभ कर्म (उपकार) का स्मरण है तो स्वयं स्वस्थ रहकर मेरे भी कल्याणका चिन्तन करो॥१७२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शत्रोरनार्यभूतस्य क्लिष्टस्य क्षुधितस्य च ॥ १७३ ॥
भक्ष्यं मृगयमाणस्य कः प्राज्ञो विषयं व्रजेत्।

मूलम्

शत्रोरनार्यभूतस्य क्लिष्टस्य क्षुधितस्य च ॥ १७३ ॥
भक्ष्यं मृगयमाणस्य कः प्राज्ञो विषयं व्रजेत्।

अनुवाद (हिन्दी)

‘जो अपना शत्रु हो, दुष्ट हो, कष्टमें पड़ा हुआ हो, भूखा हो और अपने लिये भोजनकी तलाश कर रहा हो, उसके सामने कोई भी बुद्धिमान् (जो उसका भोज्य है)’ कैसे जा सकता है॥१७३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्वस्ति तेऽस्तु गमिष्यामि दूरादपि तवोद्विजे ॥ १७४ ॥
विश्वस्तं वा प्रमत्तं वा एतदेव कृतं भवेत्।
बलवत्संनिकर्षो हि न कदाचित् प्रशस्यते ॥ १७५ ॥

मूलम्

स्वस्ति तेऽस्तु गमिष्यामि दूरादपि तवोद्विजे ॥ १७४ ॥
विश्वस्तं वा प्रमत्तं वा एतदेव कृतं भवेत्।
बलवत्संनिकर्षो हि न कदाचित् प्रशस्यते ॥ १७५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘तुम्हारा कल्याण हो। अब मैं चला जाऊँगा। मुझे दूरसे भी तुमसे डर लगता है। मेरा यह पलायन विश्वासपूर्वक हो रहा हो या प्रमादके कारण; इस समय यही मेरा कर्तव्य है। बलवानोंके निकट रहना दुर्बल प्राणीके लिये कभी अच्छा नहीं माना जाता॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नाहं त्वया समेष्यामि निवृत्तो भव लोमश।
यदि त्वं सुकृतं वेत्सि तत् सख्यमनुसारय ॥ १७६ ॥

मूलम्

नाहं त्वया समेष्यामि निवृत्तो भव लोमश।
यदि त्वं सुकृतं वेत्सि तत् सख्यमनुसारय ॥ १७६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘लोमश! अब मैं तुमसे कभी नहीं मिलूँगा। तुम लौट जाओ। यदि तुम समझते हो कि मैनें तुम्हारा कोई उपकार किया है तो तुम मेरे प्रति सदा मैत्रीभाव बनाये रखना॥१७६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रशान्तादपि मे पापाद् भेतव्यं बलिनः सदा।
यदि स्वार्थं न ते कार्यं ब्रूहि किं करवाणि ते॥१७७॥

मूलम्

प्रशान्तादपि मे पापाद् भेतव्यं बलिनः सदा।
यदि स्वार्थं न ते कार्यं ब्रूहि किं करवाणि ते॥१७७॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जो बलवान् और पापी हो, वह शान्तभावसे रहता हो तो भी मुझे सदा उससे डरना चाहिये। यदि तुम्हें मुझसे कोई स्वार्थ सिद्ध नहीं करना है तो बताओ मैं तुम्हारा (इसके अतिरिक्त) कौन-सा कार्य करूँ?॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कामं सर्वं प्रदास्यामि न त्वाऽऽत्मानं कदाचन।
आत्मार्थे संततिस्त्याज्या राज्यं रत्नं धनानि च ॥ १७८ ॥
अपि सर्वस्वमुत्सृज्य रक्षेदात्मानमात्मना ।

मूलम्

कामं सर्वं प्रदास्यामि न त्वाऽऽत्मानं कदाचन।
आत्मार्थे संततिस्त्याज्या राज्यं रत्नं धनानि च ॥ १७८ ॥
अपि सर्वस्वमुत्सृज्य रक्षेदात्मानमात्मना ।

अनुवाद (हिन्दी)

‘मैं तुम्हें इच्छानुसार सब कुछ दे सकता हूँ; परंतु अपने आपको कभी नहीं दूँगा। अपनी रक्षा करनेके लिये तो संतति, राज्य, रत्न और धन—सबका त्याग किया जा सकता है। अपना सर्वस्व त्यागकर भी स्वयं ही अपनी रक्षा करनी चाहिये॥१७८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ऐश्वर्यधनरत्नानां प्रत्यमित्रे निवर्तताम् ॥ १७९ ॥
दृष्ट्‌वा हि पुनरावृत्तिर्जीवतामिति नः श्रुतम्।

मूलम्

ऐश्वर्यधनरत्नानां प्रत्यमित्रे निवर्तताम् ॥ १७९ ॥
दृष्ट्‌वा हि पुनरावृत्तिर्जीवतामिति नः श्रुतम्।

अनुवाद (हिन्दी)

‘हमने सुना है कि यदि प्राणी जीवित रहे तो वह शत्रुओं द्वारा अपने अधिकारमें किये हुए ऐश्वर्य, धन और रत्नोंको पुनः वापस ला सकता है। यह बात प्रत्यक्ष देखी भी गयी है॥१७९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न त्वात्मनः सम्प्रदानं धनरत्नवदिष्यते ॥ १८० ॥
आत्मा हि सर्वदा रक्ष्यो दारैरपि धनैरपि।

मूलम्

न त्वात्मनः सम्प्रदानं धनरत्नवदिष्यते ॥ १८० ॥
आत्मा हि सर्वदा रक्ष्यो दारैरपि धनैरपि।

अनुवाद (हिन्दी)

‘धन और रत्नोंकी भाँति अपने आपको शत्रुके हाथमें दे देना अभीष्ट नहीं है। धन और स्त्रीके द्वारा अर्थात् उनका त्याग करके भी सर्वदा अपनी रक्षा करनी चाहिये॥१८०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आत्मरक्षणतन्त्राणां सुपरीक्षितकारिणाम् ॥ १८१ ॥
आपदो नोपपद्यन्ते पुरुषाणां स्वदोषजाः।

मूलम्

आत्मरक्षणतन्त्राणां सुपरीक्षितकारिणाम् ॥ १८१ ॥
आपदो नोपपद्यन्ते पुरुषाणां स्वदोषजाः।

अनुवाद (हिन्दी)

‘जो आत्मरक्षामें तत्पर हैं और भलीभाँति परीक्षापूर्वक निर्णय करके काम करते हैं, ऐसे पुरुषोंको अपने ही दोषसे उत्पन्न होनेवाली आपत्तियाँ नहीं प्राप्त होती हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शत्रून् सम्यग् विजानन्ति दुर्बला ये बलीयसः ॥ १८२ ॥
न तेषां चाल्यते बुद्धिः शास्त्रार्थकृतनिश्चया।

मूलम्

शत्रून् सम्यग् विजानन्ति दुर्बला ये बलीयसः ॥ १८२ ॥
न तेषां चाल्यते बुद्धिः शास्त्रार्थकृतनिश्चया।

अनुवाद (हिन्दी)

‘जो दुर्बल प्राणी अपने बलवान् शत्रुओंको अच्छी तरह जानते हैं, उनकी शास्त्रके अर्थज्ञानद्वारा स्थिर हुई बुद्धि कभी विचलित नहीं होती’॥१८२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्यभिव्यक्तमेवं स पलितेनाभिभर्त्सितः ॥ १८३ ॥
मार्जारो व्रीडितो भूत्वा मूषिकं वाक्यमब्रवीत् ॥ १८४ ॥

मूलम्

इत्यभिव्यक्तमेवं स पलितेनाभिभर्त्सितः ॥ १८३ ॥
मार्जारो व्रीडितो भूत्वा मूषिकं वाक्यमब्रवीत् ॥ १८४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पलितने जब इस प्रकार स्पष्टरूपसे कड़ी फटकार सुनायी, तब बिलावने लज्जित होकर पुनः उस चूहेसे इस प्रकार कहा॥१८३-१८४॥

मूलम् (वचनम्)

लोमश उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

सत्यं शपे त्वयाहं वै मित्रद्रोहो विगर्हितः।
तन्मन्येऽहं तव प्रज्ञां यस्त्वं मम हिते रतः ॥ १८५ ॥

मूलम्

सत्यं शपे त्वयाहं वै मित्रद्रोहो विगर्हितः।
तन्मन्येऽहं तव प्रज्ञां यस्त्वं मम हिते रतः ॥ १८५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

लोमश बोला— भाई! मैं तुमसे सत्यकी शपथ खाकर कहता हूँ, मित्रसे द्रोह करना तो बड़ी घृणित बात है। तुम जो सदा मेरे हितमें तत्पर रहते हो, इसे मैं तुम्हारी उत्तम बुद्धिका ही परिणाम समझता हूँ॥१८५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उक्तवानर्थतत्त्वेन मया सम्भिन्नदर्शनः ।
न तु मामन्यथा साधो त्वं ग्रहीतुमिहार्हसि ॥ १८६ ॥

मूलम्

उक्तवानर्थतत्त्वेन मया सम्भिन्नदर्शनः ।
न तु मामन्यथा साधो त्वं ग्रहीतुमिहार्हसि ॥ १८६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रेष्ठ पुरुष! तुमने तो यथार्थरूपसे नीति-शास्त्रका सार ही बता दिया। मुझसे तुम्हारा विचार पूरा-पूरा मिलता है। मित्रवर! किंतु तुम मुझे गलत न समझो। मेरा भाव तुमसे विपरीत नहीं है॥१८६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्राणप्रदानजं त्वत्तो मयि सौहृदमागतम्।
धर्मज्ञोऽस्मि गुणज्ञोऽस्मि कृतज्ञोऽस्मि विशेषतः ॥ १८७ ॥
मित्रेषु वत्सलश्चास्मि त्वद्भक्तश्च विशेषतः।
तस्मादेवं पुनः साधो मय्याचरितुमर्हसि ॥ १८८ ॥

मूलम्

प्राणप्रदानजं त्वत्तो मयि सौहृदमागतम्।
धर्मज्ञोऽस्मि गुणज्ञोऽस्मि कृतज्ञोऽस्मि विशेषतः ॥ १८७ ॥
मित्रेषु वत्सलश्चास्मि त्वद्भक्तश्च विशेषतः।
तस्मादेवं पुनः साधो मय्याचरितुमर्हसि ॥ १८८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तुमने मुझे प्राणदान दिया है। इसीसे मुझपर तुम्हारे सौहार्दका प्रभाव पड़ा। मैं धर्मको जानता हूँ, गुणोंका मूल्य समझता हूँ, विशेषतः तुम्हारे प्रति कृतज्ञ हूँ, मित्रवत्सल हूँ और सबसे बड़ी बात यह है कि मैं तुम्हारा भक्त हो गया हूँ; अतः मेरे अच्छे मित्र! तुम फिर मेरे साथ ऐसा ही बर्ताव करो—मेलजोल बढ़ाकर मेरे साथ घूमो-फिरो॥१८७-१८८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वया हि वाच्यमानोऽहं जह्यां प्राणान्‌ सबान्धवः।
विश्रम्भो हि बुधैर्दृष्टो मद्विधेषु मनस्विषु ॥ १८९ ॥

मूलम्

त्वया हि वाच्यमानोऽहं जह्यां प्राणान्‌ सबान्धवः।
विश्रम्भो हि बुधैर्दृष्टो मद्विधेषु मनस्विषु ॥ १८९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यदि तुम कह दो तो मैं बन्धु-बान्धवोंसहित तुम्हारे लिये अपने प्राण भी त्याग दे सकता हूँ। विद्वानोंने मुझ-जैसे मनस्वी पुरुषोंपर सदा विश्वास ही किया और देखा है॥१८९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तदेतद् धर्मतत्त्वज्ञ न त्वं शंकितुमर्हसि।

मूलम्

तदेतद् धर्मतत्त्वज्ञ न त्वं शंकितुमर्हसि।

अनुवाद (हिन्दी)

अतः धर्मके तत्त्वको जाननेवाले पलित! तुम्हें मुझपर संदेह नहीं करना चाहिये॥१८९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इति संस्तूयमानोऽपि मार्जारेण स मूषिकः ॥ १९० ॥
मनसा भावगम्भीरो मार्जारं वाक्यमब्रवीत्।

मूलम्

इति संस्तूयमानोऽपि मार्जारेण स मूषिकः ॥ १९० ॥
मनसा भावगम्भीरो मार्जारं वाक्यमब्रवीत्।

अनुवाद (हिन्दी)

बिलावके द्वरा इस प्रकारकी स्तुति की जानेपर भी चूहा अपने मनसे गम्भीर भाव ही धारण किये रहा। उसने मार्जारसे पुनः इस प्रकार कहा—॥१९०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

साधुर्भवान् श्रुतार्थोऽस्मि प्रीये च न च विश्वसे ॥ १९१ ॥
संस्तवैर्वा धनौघैर्वा नाहं शक्यः पुनस्त्वया।
न ह्यमित्रे वशं यान्ति प्राज्ञा निष्कारणं सखे ॥ १९२ ॥

मूलम्

साधुर्भवान् श्रुतार्थोऽस्मि प्रीये च न च विश्वसे ॥ १९१ ॥
संस्तवैर्वा धनौघैर्वा नाहं शक्यः पुनस्त्वया।
न ह्यमित्रे वशं यान्ति प्राज्ञा निष्कारणं सखे ॥ १९२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘भैया! तुम वास्तवमें बड़े साधु हो। यह बात मैंने तुम्हारे विषयमें सुन रक्खी है। उससे मुझे प्रसन्नता भी है; परंतु मैं तुमपर विश्वास नहीं कर सकता। तुम मेरी कितनी ही स्तुति क्यों न करो। मेरे लिये कितनी ही धनराशि क्यों न लुटा दो; परंतु अब मैं तुम्हारे साथ मिल नहीं सकता। सखे! बुद्धिमान् एवं विद्वान् पुरुष बिना किसी विशेष कारणके अपने शत्रुके वशमें नहीं जाते॥१९१-१९२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अस्मिन्नर्थे च गाथे द्वे निबोधोशनसा कृते।
शत्रुसाधारणे कृत्ये कृत्वा संधिं बलीयसा ॥ १९३ ॥
समाहितश्चरेद्‌ युक्त्या कृतार्थश्च न विश्वसेत्।

मूलम्

अस्मिन्नर्थे च गाथे द्वे निबोधोशनसा कृते।
शत्रुसाधारणे कृत्ये कृत्वा संधिं बलीयसा ॥ १९३ ॥
समाहितश्चरेद्‌ युक्त्या कृतार्थश्च न विश्वसेत्।

अनुवाद (हिन्दी)

‘इस विषय में शुक्राचार्यने दो गाथाएँ कही हैं। उन्हें ध्यान देकर सुनो। जब अपने और शत्रुपर एक-सी विपत्ति आयी हो, तब निर्बलको सबल शत्रुके साथ मेल करके बड़ी सावधानी और युक्तिसे अपना काम निकालना चाहिये और जब काम हो जाय, तो फिर उसे शत्रुपर विश्वास नहीं करना चाहिये (यह पहली गाथा है)’॥१९३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न विश्वसेदविश्वस्ते विश्वस्ते नातिविश्वसेत् ॥ १९४ ॥
नित्यं विश्वासयेदन्यान् परेषां तु न विश्वसेत्।

मूलम्

न विश्वसेदविश्वस्ते विश्वस्ते नातिविश्वसेत् ॥ १९४ ॥
नित्यं विश्वासयेदन्यान् परेषां तु न विश्वसेत्।

अनुवाद (हिन्दी)

‘(दूसरी गाथा यों हैं) जो विश्वासपात्र न हो, उसपर विश्वास न करे तथा जो विश्वासपात्र हो, उसपर भी अधिक विश्वास न करे। अपने प्रति सदा दूसरोंका विश्वास उत्पन्न करे; किंतु स्वयं दूसरोका विश्वास न करे॥१९४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मात् सर्वास्ववस्थासु रक्षेज्जीवितमात्मनः ॥ १९५ ॥
द्रव्याणि संततिश्चैव सर्वं भवति जीवितः।

मूलम्

तस्मात् सर्वास्ववस्थासु रक्षेज्जीवितमात्मनः ॥ १९५ ॥
द्रव्याणि संततिश्चैव सर्वं भवति जीवितः।

अनुवाद (हिन्दी)

‘इसलिये सभी अवस्थाओंमें अपने जीवनकी रक्षा करे; क्योंकि जीवित रहनेपर पुरुषको धन और संतान—सभी मिल जाते हैं॥१९५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

संक्षेपो नीतिशास्त्राणामविश्वासः परो मतः ॥ १९६ ॥
नृषु तस्मादविश्वासः पुष्कलं हितमात्मनः।

मूलम्

संक्षेपो नीतिशास्त्राणामविश्वासः परो मतः ॥ १९६ ॥
नृषु तस्मादविश्वासः पुष्कलं हितमात्मनः।

अनुवाद (हिन्दी)

‘संक्षेपमें नीतिशास्त्रका सार यह है कि किसीका भी विश्वास न करना ही उत्तम माना गया है; इसलिये दूसरे लोगोंपर विश्वास न करनेमें ही अपना विशेष हित है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वध्यन्ते न ह्यविश्वस्ताः शत्रुभिर्दुर्बला अपि ॥ १९७ ॥
विश्वस्तास्तेषु वध्यन्ते बलवन्तोऽपि दुर्बलैः।

मूलम्

वध्यन्ते न ह्यविश्वस्ताः शत्रुभिर्दुर्बला अपि ॥ १९७ ॥
विश्वस्तास्तेषु वध्यन्ते बलवन्तोऽपि दुर्बलैः।

अनुवाद (हिन्दी)

‘जो विश्वास न करके सावधान रहते हैं, वे दुर्बल होनेपर भी शत्रुओंद्वारा मारे नहीं जाते। परंतु जो उनपर विश्वास करते हैं, वे बलवान् होनेपर भी दुर्बल शत्रुओंद्वारा मार डाले जाते हैं॥१९७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वद्विधेभ्यो मया ह्यात्मा रक्ष्यो मार्जार सर्वदा ॥ १९८ ॥
रक्ष त्वमपि चात्मानं चाण्डालाज्जातिकिल्बिषात्।

मूलम्

त्वद्विधेभ्यो मया ह्यात्मा रक्ष्यो मार्जार सर्वदा ॥ १९८ ॥
रक्ष त्वमपि चात्मानं चाण्डालाज्जातिकिल्बिषात्।

अनुवाद (हिन्दी)

‘बिलाव! तुम जैसे लोगोंसे मुझे सदा अपनी रक्षा करनी चाहिये और तुम भी अपने जन्मजात शत्रु चाण्डालसे अपनेको बचाये रखो’॥१९८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स तस्य ब्रुवतस्त्वेवं संत्रासाज्जातसाध्वसः ॥ १९९ ॥
शाखां हित्वा जवेनाशु मार्जारः प्रययौ ततः।

मूलम्

स तस्य ब्रुवतस्त्वेवं संत्रासाज्जातसाध्वसः ॥ १९९ ॥
शाखां हित्वा जवेनाशु मार्जारः प्रययौ ततः।

अनुवाद (हिन्दी)

चूहेके इस प्रकार कहते समय चाण्डालका नाम सुनते ही बिलाव बहुत डर गया और वह डाली छोड़कर बड़े वेगसे तुरंत दूसरी ओर चला गया॥१९९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः शास्त्रार्थतत्त्वज्ञो बुद्धिसामर्थ्यमात्मनः ॥ २०० ॥
विश्राव्य पलितः प्राज्ञो बिलमन्यज्जगाम ह।

मूलम्

ततः शास्त्रार्थतत्त्वज्ञो बुद्धिसामर्थ्यमात्मनः ॥ २०० ॥
विश्राव्य पलितः प्राज्ञो बिलमन्यज्जगाम ह।

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर नीतिशास्त्रके अर्थ और तत्त्वको जाननेवाला बुद्धिमान् पलित अपने बौद्धिक शक्तिका परिचय दे दूसरे बिलमें चला गया॥२००॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं प्रज्ञावता बुद्ध्या दुर्बलेन महाबलाः ॥ २०१ ॥
एकेन बहवोऽमित्राः पलितेनाभिसंधिताः ।
अरिणापि समर्थेन संधिं कुर्वीत पण्डितः ॥ २०२ ॥
मूषिकश्च बिडालश्च मुक्तावन्योन्यसंश्रयात् ।

मूलम्

एवं प्रज्ञावता बुद्ध्या दुर्बलेन महाबलाः ॥ २०१ ॥
एकेन बहवोऽमित्राः पलितेनाभिसंधिताः ।
अरिणापि समर्थेन संधिं कुर्वीत पण्डितः ॥ २०२ ॥
मूषिकश्च बिडालश्च मुक्तावन्योन्यसंश्रयात् ।

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार दुर्बल और अकेला होनेपर भी बुद्धिमान् पलित चूहेने अपने बुद्धि-बलसे बहुतेरे प्रबल शत्रुओंको परास्त कर दिया; अतः आपत्तिके समय विद्वान् पुरुष बलवान् शत्रुके साथ भी संधि कर ले। देखो, चूहे और बिलाव दोनों एक दूसरेका आश्रय लेकर विपत्तिसे छुटकारा पा गये थे॥२०१-२०२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्येवं क्षत्रधर्मस्य मया मार्गो निदर्शितः ॥ २०३ ॥
विस्तरेण महाराज संक्षेपमपि मे शृणु।

मूलम्

इत्येवं क्षत्रधर्मस्य मया मार्गो निदर्शितः ॥ २०३ ॥
विस्तरेण महाराज संक्षेपमपि मे शृणु।

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! इस दृष्टान्तसे मैंने तुम्हें विस्तारपूर्वक क्षात्र-धर्मका मार्ग दिखाया है। अब संक्षेपमें कुछ मेरी बात सुनो॥२०३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अन्योन्यकृतवैरौ तु चक्रतुः प्रीतिमुत्तमाम् ॥ २०४ ॥
अन्योन्यमभिसंधातुं सम्बभूव तयोर्मतिः ।

मूलम्

अन्योन्यकृतवैरौ तु चक्रतुः प्रीतिमुत्तमाम् ॥ २०४ ॥
अन्योन्यमभिसंधातुं सम्बभूव तयोर्मतिः ।

अनुवाद (हिन्दी)

चूहे और बिलाव एक दूसरेसे वैर रखनेवाले प्राणी हैं तो भी उन्होंने संकटके समय एक दूसरेसे उत्तम प्रीति कर ली। उनमें परस्पर संधि कर लेनेका विचार पैदा हो गया॥२०४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्र प्राज्ञोऽभिसंधत्ते सम्यग् बुद्धिसमाश्रयात् ॥ २०५ ॥
अभिसंधीयते प्राज्ञः प्रमादादपि वा बुधैः।

मूलम्

तत्र प्राज्ञोऽभिसंधत्ते सम्यग् बुद्धिसमाश्रयात् ॥ २०५ ॥
अभिसंधीयते प्राज्ञः प्रमादादपि वा बुधैः।

अनुवाद (हिन्दी)

ऐसे अवसरोंपर बुद्धिमान् पुरुष उत्तम बुद्धिका आश्रय ले संधि करके शत्रुको परास्त कर देता है। इसी तरह विद्वान् पुरुष भी यदि असावधान रहे तो उसे दूसरे बुद्धिमान् पुरुष परास्त कर देते हैं॥२०५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मादभीतवद् भीतो विश्वस्तवदविश्वसन् ॥ २०६ ॥
न ह्यप्रमत्तश्चलति चलितो वा विनश्यति।

मूलम्

तस्मादभीतवद् भीतो विश्वस्तवदविश्वसन् ॥ २०६ ॥
न ह्यप्रमत्तश्चलति चलितो वा विनश्यति।

अनुवाद (हिन्दी)

इसलिये मनुष्य भयभीत होकर भी निडरके समान और किसीपर विश्वास न करते हुए भी विश्वास करनेवालेके समान बर्ताव करे, उसे कभी असावधान होकर नहीं चलना चाहिये। यदि चलता है तो नष्ट हो जाता है॥२०६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कालेन रिपुणा संधिः काले मित्रेण विग्रहः ॥ २०७ ॥
कार्य इत्येव संधिज्ञाः प्राहुर्नित्यं नराधिप।

मूलम्

कालेन रिपुणा संधिः काले मित्रेण विग्रहः ॥ २०७ ॥
कार्य इत्येव संधिज्ञाः प्राहुर्नित्यं नराधिप।

अनुवाद (हिन्दी)

नरेश्वर! समयानुसार शत्रुके साथ भी संधि और मित्रके साथ भी युद्ध करना उचित है। संधिके तत्त्वको जाननेवाले विद्वान् पुरुष इसी बातको सदा कहते हैं॥२०७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतज्ज्ञात्वा महाराज शास्त्रार्थमभिगम्य च ॥ २०८ ॥
अभियुक्तोऽप्रमत्तश्च प्राग्भयाद् भीतवच्चरेत् ।

मूलम्

एतज्ज्ञात्वा महाराज शास्त्रार्थमभिगम्य च ॥ २०८ ॥
अभियुक्तोऽप्रमत्तश्च प्राग्भयाद् भीतवच्चरेत् ।

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! ऐसा जानकर नीतिशास्त्रके तात्पर्यको हृदयंगम करके उद्योगशील एवं सावधान रहकर भय आनेसे पहले भयभीतके समान आचरण करना चाहिये॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भीतवत् संनिधिः कार्यः प्रतिसंधिस्तथैव च ॥ २०९ ॥
भयादुत्पद्यते बुद्धिरप्रमत्ताभियोगजा ।

मूलम्

भीतवत् संनिधिः कार्यः प्रतिसंधिस्तथैव च ॥ २०९ ॥
भयादुत्पद्यते बुद्धिरप्रमत्ताभियोगजा ।

अनुवाद (हिन्दी)

बलवान् शत्रुके समीप डरे हुए के समान उपस्थित होना चाहिये। उसी तरह उसके साथ संधि भी कर लेनी चाहिये। सावधान पुरुषके उद्योगशील बने रहनेसे स्वयं ही संकटसे बचानेवाली बुद्धि उत्पन्न होती है॥२०९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न भयं विद्यते राजन् भीतस्यानागते भये ॥ २१० ॥
अभीतस्य च विश्रम्भात् सुमहज्जायते भयम्।

मूलम्

न भयं विद्यते राजन् भीतस्यानागते भये ॥ २१० ॥
अभीतस्य च विश्रम्भात् सुमहज्जायते भयम्।

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! जो पुरुष भय आनेके पहलेसे ही उसकी ओरसे सशंक रहता है, उसके सामने प्रायः भयका अवसर ही नहीं आता है; परंतु जो निःशंक होकर दूसरोंपर विश्वास कर लेता है, उसे सहसा बड़े भारी भयका सामना करना पड़ता है॥२१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अभीश्चरति यो नित्यं मन्त्रोऽदेयः कथंचन ॥ २११ ॥
अविज्ञानाद्धि विज्ञातो गच्छेदास्पददर्शिषु ।

मूलम्

अभीश्चरति यो नित्यं मन्त्रोऽदेयः कथंचन ॥ २११ ॥
अविज्ञानाद्धि विज्ञातो गच्छेदास्पददर्शिषु ।

अनुवाद (हिन्दी)

जो मनुष्य अपनेको बुद्धिमान् मानकर निर्भय विचरता है, उसे कभी कोई सलाह नहीं देनी चाहिये; क्योंकि वह दूसरेकी सलाह सुनता ही नहीं है। भयको न जाननेकी अपेक्षा उसे जाननेवाला ठीक है; क्योंकि वह उससे बचनेके लिये उपाय जाननेकी इच्छा से परिणामदर्शी पुरुषोंके पास जाता है॥२११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मादभीतवद् भीतो विश्वस्तवदविश्वसन् ॥ २१२ ॥
कार्याणां गुरुतां प्राप्य नानृतं किंचिदाचरेत्।

मूलम्

तस्मादभीतवद् भीतो विश्वस्तवदविश्वसन् ॥ २१२ ॥
कार्याणां गुरुतां प्राप्य नानृतं किंचिदाचरेत्।

अनुवाद (हिन्दी)

इसलिये बुद्धिमान् पुरुषको डरते हुए भी निर्भयके समान रहना चाहिये तथा भीतरसे विश्वास न करते हुए भी ऊपरसे विश्वासी पुरुषकी भाँति बर्ताव करना चाहिये। कार्योंकी कठिनता देखकर कभी कोई मिथ्या आचरण नहीं करना चाहिये॥२१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमेतन्मया प्रोक्तमितिहासं युधिष्ठिर ॥ २१३ ॥
श्रुत्वा त्वं सुहृदां मध्ये यथावत् समुपाचर।

मूलम्

एवमेतन्मया प्रोक्तमितिहासं युधिष्ठिर ॥ २१३ ॥
श्रुत्वा त्वं सुहृदां मध्ये यथावत् समुपाचर।

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिर! इस प्रकार यह मैंने तुम्हारे सामने नीतिकी बात बतानेके लिये चूहे तथा बिलावके इस प्राचीन इतिहासका वर्णन किया है। इसे सुनकर तुम अपने सुहृदोंके बीचमें यथायोग्य बर्ताव करो॥२१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उपलभ्य मतिं चाग्य्रामरिमित्रान्तरं तथा ॥ २१४ ॥
संधिविग्रहकालौ च मोक्षोपायस्तथैव च।

मूलम्

उपलभ्य मतिं चाग्य्रामरिमित्रान्तरं तथा ॥ २१४ ॥
संधिविग्रहकालौ च मोक्षोपायस्तथैव च।

अनुवाद (हिन्दी)

श्रेष्ठ बुद्धिका आश्रय लेकर शत्रु और मित्रके भेद, संधि और विग्रह के अवसरका तथा विपत्तिसे छूटनेके उपायका ज्ञान प्राप्त करना चाहिये॥२१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शत्रुसाधारणे कृत्ये कृत्वा संधिं बलीयसा ॥ २१५ ॥
समागतश्चरेद्‌ युक्त्या कृतार्थो न च विश्वसेत्।

मूलम्

शत्रुसाधारणे कृत्ये कृत्वा संधिं बलीयसा ॥ २१५ ॥
समागतश्चरेद्‌ युक्त्या कृतार्थो न च विश्वसेत्।

अनुवाद (हिन्दी)

अपने और शत्रुके प्रयोजन यदि समान हों तो बलवान् शत्रुके साथ संधि करके उससे मिलकर युक्तिपूर्वक अपना काम बनावे और कार्य पूरा हो जानेपर फिर कभी उसका विश्वास न करे॥२१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अविरुद्धां त्रिवर्गेण नीतिमेतां महीपते ॥ २१६ ॥
अभ्युत्तिष्ठ श्रुतादस्माद् भूयः संरक्षयन् प्रजाः।

मूलम्

अविरुद्धां त्रिवर्गेण नीतिमेतां महीपते ॥ २१६ ॥
अभ्युत्तिष्ठ श्रुतादस्माद् भूयः संरक्षयन् प्रजाः।

अनुवाद (हिन्दी)

पृथ्वीनाथ! यह नीति धर्म, अर्थ और कामके अनुकूल है। तुम इसका आश्रय लो। मुझसे सुने हुए इस उपदेशके अनुसार कर्तव्यपालनमें तत्पर हो सम्पूर्ण प्रजाकी रक्षा करते हुए अपनी उन्नतिके लिये उठकर खड़े हो जाओ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्राह्मणैश्चापि ते सार्धं यात्रा भवतु पाण्डव ॥ २१७ ॥
ब्राह्मणा वै परं श्रेयो दिवि चेह च भारत।

मूलम्

ब्राह्मणैश्चापि ते सार्धं यात्रा भवतु पाण्डव ॥ २१७ ॥
ब्राह्मणा वै परं श्रेयो दिवि चेह च भारत।

अनुवाद (हिन्दी)

पाण्डुनन्दन! तुम्हारी जीवनयात्रा ब्राह्मणोंके साथ होनी चाहिये। भरतनन्दन! ब्राह्मणलोग इहलोक और परलोकमें भी परम कल्याणकारी होते हैं॥२१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एते धर्मस्य वेत्तारः कृतज्ञाः सततं प्रभो ॥ २१८ ॥
पूजिताः शुभकर्तारः पूजयेत् तान् नराधिप।

मूलम्

एते धर्मस्य वेत्तारः कृतज्ञाः सततं प्रभो ॥ २१८ ॥
पूजिताः शुभकर्तारः पूजयेत् तान् नराधिप।

अनुवाद (हिन्दी)

प्रभो! नरेश्वर! ये ब्राह्मण धर्मज्ञ होनेके साथ ही सदा कृतज्ञ होते हैं। सम्मानित होनेपर शुभकारक एवं शुभचिन्तक होते हैं; अतः इनका सदा आदर-सम्मान करना चाहिये॥२१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

राज्यं श्रेयः परं राजन्‌ यशः कीर्तिं च लप्स्यसे॥२१९॥
कुलस्य संततिं चैव यथान्यायं यथाक्रमम् ॥ २२० ॥

मूलम्

राज्यं श्रेयः परं राजन्‌ यशः कीर्तिं च लप्स्यसे॥२१९॥
कुलस्य संततिं चैव यथान्यायं यथाक्रमम् ॥ २२० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! तुम ब्राह्मणोंके यथोचित सत्कारसे क्रमशः राज्य, परम कल्याण, यश, कीर्ति तथा वंशपरम्पराको बनाये रखनेवाली संतति सब कुछ प्राप्त कर लोगे॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

द्वयोरिमं भारत संधिविग्रहं
सुभाषितं बुद्धिविशेषकारकम् ।
यथा त्ववेक्ष्य क्षितिपेन सर्वदा
निषेवितव्यं नृप शत्रुमण्डले ॥ २२१ ॥

मूलम्

द्वयोरिमं भारत संधिविग्रहं
सुभाषितं बुद्धिविशेषकारकम् ।
यथा त्ववेक्ष्य क्षितिपेन सर्वदा
निषेवितव्यं नृप शत्रुमण्डले ॥ २२१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतनन्दन! नरेश्वर! चूहे और बिलावका जो यह सुन्दर उपाख्यान कहा गया है, यह संधि और विग्रहका ज्ञान तथा विशेष बुद्धि उत्पन्न करनेवाला है। भूपालको सदा इसीके अनुसार दृष्टि रखकर शत्रुमण्डलके साथ यथोचित व्यवहार करना चाहिये॥२२१॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि आपद्‌धर्मपर्वणि मार्जारमूषिकसंवादे अष्टात्रिंशदधिकशततमोऽध्यायः ॥ १३८ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत आपद्धर्मपर्वमें चूहे और बिलावका संवादविषयक एक सौ अड़तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१३८॥