१३७ शाकुलोपाख्याने

भागसूचना

सप्तत्रिंशदधिकशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

आनेवाले संकटसे सावधान रहनेके लिये दूरदर्शी, तत्कालज्ञ और दीर्घसूत्री—इन तीन मत्स्योंका दृष्टान्त

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनागतविधाता च प्रत्युत्पन्नमतिश्च यः।
द्वावेव सुखमेधेते दीर्घसूत्री विनश्यति ॥ १ ॥

मूलम्

अनागतविधाता च प्रत्युत्पन्नमतिश्च यः।
द्वावेव सुखमेधेते दीर्घसूत्री विनश्यति ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजी कहते हैं— युधिष्ठिर! जो संकट आनेसे पहले ही अपने बचावका उपाय कर लेता है, उसे अनागतविधाता कहते हैं तथा जिसे ठीक समयपर ही आत्मरक्षाका उपाय सूझ जाता है, वह ‘प्रत्युत्पन्नमति’ कहलाता है। ये दो ही प्रकारके लोग सुखसे अपनी उन्नति करते हैं; परंतु जो प्रत्येक कार्यमें अनावश्यक विलम्ब करनेवाला होता है, वह दीर्घसूत्री मनुष्य नष्ट हो जाता है॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अत्रैव चेदमव्यग्रं शृणुष्वाख्यानमुत्तमम् ।
दीर्घसूत्रमुपाश्रित्य कार्याकार्यविनिश्चये ॥ २ ॥

मूलम्

अत्रैव चेदमव्यग्रं शृणुष्वाख्यानमुत्तमम् ।
दीर्घसूत्रमुपाश्रित्य कार्याकार्यविनिश्चये ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कर्तव्य और अकर्तव्यका निश्चय करनेमें जो दीर्घसूत्री होता है, उसको लेकर मैं एक सुन्दर उपाख्यान सुना रहा हूँ। तुम स्वस्थचित्त होकर सुनो॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नातिगाधे जलाधारे सुहृदः कुशलास्त्रयः।
प्रभूतमत्स्ये कौन्तेय बभूवुः सहचारिणः ॥ ३ ॥

मूलम्

नातिगाधे जलाधारे सुहृदः कुशलास्त्रयः।
प्रभूतमत्स्ये कौन्तेय बभूवुः सहचारिणः ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुन्तीनन्दन! कहते हैं, एक तालाबमें जो अधिक गहरा नहीं था, बहुत-सी मछलियाँ रहती थीं, उसी जलाशयमें तीन कार्यकुशल मत्स्य भी रहते थे, जो सदा साथ-साथ विचरनेवाले और एक-दूसरेके सुहृद् थे॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्रैको दीर्घकालज्ञ उत्पन्नप्रतिभोऽपरः ।
दीर्घसूत्रश्च तत्रैकस्त्रयाणां सहचारिणाम् ॥ ४ ॥

मूलम्

तत्रैको दीर्घकालज्ञ उत्पन्नप्रतिभोऽपरः ।
दीर्घसूत्रश्च तत्रैकस्त्रयाणां सहचारिणाम् ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँ उन तीनों सहचारियोंमेंसे एक तो (अनागतविधाता था, जो) आनेवाले दीर्घकालतककी बात सोच लेता था। दूसरा प्रत्युत्पन्नमति था, जिसकी प्रतिभा ठीक समयपर ही काम दे देती थी और तीसरा दीर्घसूत्री था (जो प्रत्येक कार्यमें अनावश्यक विलम्ब करता था)॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कदाचित् तं जलस्थायं मत्स्यबन्धाः समन्ततः।
निस्रावयामासुरथो निम्नेषु विविधैर्मुखैः ॥ ५ ॥

मूलम्

कदाचित् तं जलस्थायं मत्स्यबन्धाः समन्ततः।
निस्रावयामासुरथो निम्नेषु विविधैर्मुखैः ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

एक दिन कुछ मछलीमारोंने उस जलाशयमें चारों ओरसे नालियाँ बनाकर अनेक द्वारोंसे उसका पानी आसपासकी नीची भूमिमें निकालना आरम्भ कर दिया॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रक्षीयमाण तं दृष्ट्‌वा जलस्थायं भयागमे।
अब्रवीद् दीर्घदर्शी तु तावुभौ सुहृदौ तदा ॥ ६ ॥

मूलम्

प्रक्षीयमाण तं दृष्ट्‌वा जलस्थायं भयागमे।
अब्रवीद् दीर्घदर्शी तु तावुभौ सुहृदौ तदा ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जलाशयका पानी घटता देख भय आनेकी सम्भावना समझकर दूरतककी बातें सोचनेवाले उस मत्स्यने अपने उन दोनों सुहृदोंसे कहा—॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इयमापत् समुत्पन्ना सर्वेषां सलिलौकसाम्।
शीघ्रमन्यत्र गच्छामः पन्था यावन्न दुष्यति ॥ ७ ॥

मूलम्

इयमापत् समुत्पन्ना सर्वेषां सलिलौकसाम्।
शीघ्रमन्यत्र गच्छामः पन्था यावन्न दुष्यति ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘बन्धुओ! जान पड़ता है कि इस जलाशयमें रहनेवाले सभी मत्स्योंपर संकट आ पहुँचा है; इसलिये जबतक हमारे निकलनेका मार्ग दूषित न हो जाय, तबतक शीघ्र ही हमें यहाँसे अन्यत्र चले जाना चाहिये॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनागतमनर्थं हि सुनयैर्यः प्रबाधयेत्।
स न संशयमाप्नोति रोचतां भो व्रजामहे ॥ ८ ॥

मूलम्

अनागतमनर्थं हि सुनयैर्यः प्रबाधयेत्।
स न संशयमाप्नोति रोचतां भो व्रजामहे ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जो आनेवाले संकटको उसके आनेसे पहले ही अपनी अच्छी नीतिद्वारा मिटा देता है, वह कभी प्राण जानेके संशयमें नहीं पड़ता। यदि आपलोगोंको मेरी बात ठीक जान पड़े तो चलिये, दूसरे जलाशयको चलें’॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दीर्घसूत्रस्तु यस्तत्र सोऽब्रवीत् सम्यगुच्यते।
न तु कार्या त्वरा तावदिति मे निश्चिता मतिः॥९॥

मूलम्

दीर्घसूत्रस्तु यस्तत्र सोऽब्रवीत् सम्यगुच्यते।
न तु कार्या त्वरा तावदिति मे निश्चिता मतिः॥९॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसपर वहाँ जो दीर्घसूत्री था, उसने कहा—‘मित्र! तुम बात तो ठीक कहते हो; परंतु मेरा यह दृढ़ विचार है कि अभी हमें जल्दी नहीं करनी चाहिये’॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथ सम्प्रतिपत्तिज्ञः प्राब्रवीद् दीर्घदर्शिनम्।
प्राप्ते काले न मे किंचिन्न्यायतः परिहास्यते ॥ १० ॥

मूलम्

अथ सम्प्रतिपत्तिज्ञः प्राब्रवीद् दीर्घदर्शिनम्।
प्राप्ते काले न मे किंचिन्न्यायतः परिहास्यते ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर प्रत्युत्पन्नमतिने दूरदर्शीसे कहा—‘मित्र! जब समय आ जाता है, तब मेरी बुद्धि न्यायतः कोई युक्ति ढूँढ़ निकालनेमें कभी नहीं चूकती है’॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं श्रुत्वा निराक्रम्य दीर्घदर्शी महामतिः।
जगाम स्रोतसा तेन गम्भीरं सलिलाशयम् ॥ ११ ॥

मूलम्

एवं श्रुत्वा निराक्रम्य दीर्घदर्शी महामतिः।
जगाम स्रोतसा तेन गम्भीरं सलिलाशयम् ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह सुनकर परम बुद्धिमान् दीर्घदर्शी (अनागत-विधाता) वहाँसे निकलकर एक नालीके रास्तेसे दूसरे गहरे जलाशयमें चला गया॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः प्रसृततोयं तं प्रसमीक्ष्य जलाशयम्।
बबन्धुर्विविधैर्योगैर्मत्स्यान् मत्स्योपजीविनः ॥ १२ ॥

मूलम्

ततः प्रसृततोयं तं प्रसमीक्ष्य जलाशयम्।
बबन्धुर्विविधैर्योगैर्मत्स्यान् मत्स्योपजीविनः ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर मछलियोंसे ही जीविका चलानेवाले मछलीमारोंने जब यह देखा कि जलाशयका जल प्रायः बाहर निकल चुका है, तब उन्होंने अनेक उपायोंद्वारा वहाँकी सब मछलियोंको फँसा लिया॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विलोड्यमाने तस्मिंस्तु स्रुततोये जलाशये।
अगच्छद् बन्धनं तत्र दीर्घसूत्रः सहापरैः ॥ १३ ॥

मूलम्

विलोड्यमाने तस्मिंस्तु स्रुततोये जलाशये।
अगच्छद् बन्धनं तत्र दीर्घसूत्रः सहापरैः ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिसका पानी बाहर निकल चुका था, वह जलाशय जब मथा जाने लगा, तब दीर्घसूत्री भी दूसरे मत्स्योंके साथ जालमें फँस गया॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उद्याने क्रियमाणे तु मत्स्यानां तत्र रज्जुभिः।
प्रविश्यान्तरमेतेषां स्थितः सम्प्रतिपत्तिमान् ॥ १४ ॥

मूलम्

उद्याने क्रियमाणे तु मत्स्यानां तत्र रज्जुभिः।
प्रविश्यान्तरमेतेषां स्थितः सम्प्रतिपत्तिमान् ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब मछलीमार रस्सी खींचकर मछलियोंसे भरे हुए उस जालको उठाने लगे, तब प्रत्युत्पन्नमति मत्स्य भी उन्हीं मत्स्योंके भीतर घुसकर जालमें बँध-सा गया॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गृह्यमेव तदुद्यानं गृहीत्वा तं तथैव सः।
सर्वानेव च तांस्तत्र ते विदुर्ग्रथितानिति ॥ १५ ॥

मूलम्

गृह्यमेव तदुद्यानं गृहीत्वा तं तथैव सः।
सर्वानेव च तांस्तत्र ते विदुर्ग्रथितानिति ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह जाल मुखसे पकड़ने योग्य था; अतः उसकी ताँतको मुँहमें लेकर वह भी अन्य मछलियोंकी तरह बँधा हुआ प्रतीत होने लगा। मछलीमारोंने उन सब मछलियोंको वहाँ बँधा हुआ ही समझा॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः प्रक्षाल्यमानेषु मत्स्येषु विपुले जले।
मुक्त्वा रज्जुं प्रमुक्तोऽसौ शीघ्रं सम्प्रतिपत्तिमान् ॥ १६ ॥

मूलम्

ततः प्रक्षाल्यमानेषु मत्स्येषु विपुले जले।
मुक्त्वा रज्जुं प्रमुक्तोऽसौ शीघ्रं सम्प्रतिपत्तिमान् ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर उस जालको लेकर वे मछलीमार जब दूसरे अगाध जलवाले जलाशयके समीप गये और उन मछलियोंको धोने लगे, उसी समय प्रत्युत्पन्नमति मुखमें ली हुई जालकी रस्सीको छोड़कर उसके बन्धनसे मुक्त हो गया और जलमें समा गया॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दीर्घसूत्रस्तु मन्दात्मा हीनबुद्धिरचेतनः ।
मरणं प्राप्तवान् मूढो यथैवोपहतेन्द्रियः ॥ १७ ॥

मूलम्

दीर्घसूत्रस्तु मन्दात्मा हीनबुद्धिरचेतनः ।
मरणं प्राप्तवान् मूढो यथैवोपहतेन्द्रियः ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

परंतु बुद्धिहीन और आलसी मूर्ख दीर्घसूत्री अचेत होकर मृत्युको प्राप्त हुआ, जैसे कोई इन्द्रियोंके नष्ट होनेसे नष्ट हो जाता है॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं प्राप्ततमं कालं यो मोहान्नावबुद्ध्यते।
स विनश्यति वै क्षिप्रं दीर्घसूत्रो यथा झषः ॥ १८ ॥

मूलम्

एवं प्राप्ततमं कालं यो मोहान्नावबुद्ध्यते।
स विनश्यति वै क्षिप्रं दीर्घसूत्रो यथा झषः ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसी प्रकार जो पुरुष मोहवश अपने सिरपर आये हुए कालको नहीं समझ पाता, वह उस दीर्घसूत्री मत्स्यके समान शीघ्र ही नष्ट हो जाता है॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आदौ न कुरुते श्रेयः कुशलोऽस्मीति यः पुमान्।
स संशयमवाप्नोति यथा सम्प्रतिपत्तिमान् ॥ १९ ॥

मूलम्

आदौ न कुरुते श्रेयः कुशलोऽस्मीति यः पुमान्।
स संशयमवाप्नोति यथा सम्प्रतिपत्तिमान् ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो पुरुष यह समझकर कि मैं बड़ा कार्यकुशल हूँ, पहलेसे ही अपने कल्याणका उपाय नहीं करता, वह प्रत्युत्पन्नमति मत्स्यके समान प्राणसंशयकी स्थितिमें पड़ जाता है॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनागतविधाता च प्रत्युत्पन्नमतिश्च यः।
द्वावेव सुखमेधेते दीर्घसूत्रो विनश्यति ॥ २० ॥

मूलम्

अनागतविधाता च प्रत्युत्पन्नमतिश्च यः।
द्वावेव सुखमेधेते दीर्घसूत्रो विनश्यति ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो संकट आनेसे पहले ही अपने बचावका उपाय कर लेता है, वह ‘अनागतविधाता’ और जिसे ठीक समयपर ही आत्मरक्षाका कोई उपाय सूझ जाता है, वह ‘प्रत्युत्पन्नमति’—ये दो ही सुखपूर्वक अपनी उन्नति करते हैं; परंतु प्रत्येक कार्यमें अनावश्यक विलम्ब करनेवाला ‘दीर्घसूत्री’ नष्ट हो जाता है॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

काष्ठाः कला मुहूर्ताश्च दिवा रात्रिस्तथा लवाः।
मासाः पक्षाः षड् ऋतवः कल्पः संवत्सरास्तथा ॥ २१ ॥
पृथिवी देश इत्युक्तः कालः स च न दृश्यते।
अभिप्रेतार्थसिद्ध्यर्थं ध्यायते यच्च तत्तथा ॥ २२ ॥

मूलम्

काष्ठाः कला मुहूर्ताश्च दिवा रात्रिस्तथा लवाः।
मासाः पक्षाः षड् ऋतवः कल्पः संवत्सरास्तथा ॥ २१ ॥
पृथिवी देश इत्युक्तः कालः स च न दृश्यते।
अभिप्रेतार्थसिद्ध्यर्थं ध्यायते यच्च तत्तथा ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

काष्ठा, कला, मुहूर्त, दिन, रात, लव, मास, पक्ष, छः ऋतु, संवत्सर और कल्प—इन्हें ‘काल’ कहते हैं तथा पृथ्वीको ‘देश’ कहा जाता है। इनमेंसे देशका तो दर्शन होता है, किंतु काल दिखायी नहीं देता है। अभीष्ट मनोरथकी सिद्धिके लिये जिस देश और कालको उपयोगी मानकर उसका विचार किया जाता है, उसको ठीक-ठीक ग्रहण करना चाहिये॥२१-२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतौ धर्मार्थशास्त्रेषु मोक्षशास्त्रेषु चर्षिभिः।
प्रधानाविति निर्दिष्टौ कामे चाभिमतौ नृणाम् ॥ २३ ॥

मूलम्

एतौ धर्मार्थशास्त्रेषु मोक्षशास्त्रेषु चर्षिभिः।
प्रधानाविति निर्दिष्टौ कामे चाभिमतौ नृणाम् ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ऋषियोंने धर्मशास्त्र, अर्थशास्त्र तथा मोक्षशास्त्रमें इन देश और कालको ही कार्य-सिद्धिका प्रधान उपाय बताया है। मनुष्योंकी कामना-सिद्धिमें भी ये देश और काल ही प्रधान माने गये हैं॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

परीक्ष्यकारी युक्तश्च स सम्यगुपपादयेत्।
देशकालावभिप्रेतौ ताभ्यां फलमवाप्नुयात् ॥ २४ ॥

मूलम्

परीक्ष्यकारी युक्तश्च स सम्यगुपपादयेत्।
देशकालावभिप्रेतौ ताभ्यां फलमवाप्नुयात् ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो पुरुष सोच-समझकर या जान-बूझकर काम करनेवाला तथा सतत सावधान रहनेवाला है, वह अभीष्ट देश और कालका ठीक-ठीक उपयोग करता है और उनके सहयोगसे इच्छानुसार फल प्राप्त कर लेता है॥२४॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि आपद्धर्मपर्वणि शाकुलोपाख्याने सप्तत्रिंशदधिकशततमोऽध्यायः ॥ १३७ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत आपद्धर्मपर्वमें शाकुलोपाख्यानविषयक एक सौ सैंतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१३७॥