१३६

भागसूचना

षट्त्रिंशदधिकशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

राजा किसका धन ले और किसका न ले तथा किसके साथ कैसा बर्ताव करे—इसका विचार

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अत्र गाथा ब्रह्मगीताः कीर्तयन्ति पुराविदः।
येन मार्गेण राजा वै कोशं संजनयत्युत ॥ १ ॥

मूलम्

अत्र गाथा ब्रह्मगीताः कीर्तयन्ति पुराविदः।
येन मार्गेण राजा वै कोशं संजनयत्युत ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजी कहते हैं— युधिष्ठिर! जिस मार्ग या उपायसे राजा अपना खजाना भरता है, उसके विषयमें प्राचीन इतिहासके जानकारलोग ब्रह्माजीकी कही हुई कुछ गाथाएँ कहा करते हैं॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न धनं यज्ञशीलानां हार्यं देवस्वमेव च।
दस्यूनां निष्क्रियाणां च क्षत्रियो हर्तुमर्हति ॥ २ ॥

मूलम्

न धनं यज्ञशीलानां हार्यं देवस्वमेव च।
दस्यूनां निष्क्रियाणां च क्षत्रियो हर्तुमर्हति ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजाको यज्ञानुष्ठान करनेवाले द्विजोंका धन नहीं लेना चाहिये। इसी प्रकार उसे देवसम्पत्तिमें भी हाथ नहीं लगाना चाहिये। वह लुटेरों तथा अकर्मण्य मनुष्योंके धनका अपहरण कर सकता है॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इमाः प्रजाः क्षत्रियाणां राज्यभोगाश्च भारत।
धनं हि क्षत्रियस्यैव द्वितीयस्य न विद्यते ॥ ३ ॥
तदस्य स्याद् बलार्थं वा धनं यज्ञार्थमेव च।

मूलम्

इमाः प्रजाः क्षत्रियाणां राज्यभोगाश्च भारत।
धनं हि क्षत्रियस्यैव द्वितीयस्य न विद्यते ॥ ३ ॥
तदस्य स्याद् बलार्थं वा धनं यज्ञार्थमेव च।

अनुवाद (हिन्दी)

भरतनन्दन! ये समस्त प्रजाएँ क्षत्रियोंकी हैं। राज्यभोग भी क्षत्रियोंके ही हैं और सारा धन भी उन्हींका है, दूसरेका नहीं है; किंतु वह धन उसकी सेनाके लिये है या यज्ञानुष्ठानके लिये॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अभोग्याश्चौषधीश्छित्त्वा भोग्या एव पचन्त्युत ॥ ४ ॥
यो वै न देवान् न पितॄन् न मर्त्यान हविषार्चति।
अनर्थकं धनं तत्र प्राहुर्धर्मविदो जनाः ॥ ५ ॥
हरेत् तद् द्रविणं राजन् धार्मिकः पृथिवीपतिः।
ततः प्रीणयते लोकं न कोशं तद्विधं नृपः ॥ ६ ॥

मूलम्

अभोग्याश्चौषधीश्छित्त्वा भोग्या एव पचन्त्युत ॥ ४ ॥
यो वै न देवान् न पितॄन् न मर्त्यान हविषार्चति।
अनर्थकं धनं तत्र प्राहुर्धर्मविदो जनाः ॥ ५ ॥
हरेत् तद् द्रविणं राजन् धार्मिकः पृथिवीपतिः।
ततः प्रीणयते लोकं न कोशं तद्विधं नृपः ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! जो खानेयोग्य नहीं हैं, उन ओषधियों या वृक्षोंको काटकर मनुष्य उनके द्वारा खानेयोग्य ओषधियोंको पकाते हैं। इसी प्रकार जो देवताओं, पितरों और मनुष्योंका हविष्यके द्वारा पूजन नहीं करता है, उसके धनको धर्मज्ञ पुरुषोंने व्यर्थ बताया है। अतः धर्मात्मा राजा ऐसे धनको छीन ले और उसके द्वारा प्रजाका पालन करे, किंतु वैसे धनसे राजा अपना कोश न भरे॥४—६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

असाधुभ्योऽर्थमादाय साधुभ्यो यः प्रयच्छति।
आत्मानं संक्रमं कृत्वा कृत्स्नधर्मविदेव सः ॥ ७ ॥

मूलम्

असाधुभ्योऽर्थमादाय साधुभ्यो यः प्रयच्छति।
आत्मानं संक्रमं कृत्वा कृत्स्नधर्मविदेव सः ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो राजा दुष्टोंसे धन छीनकर उसे श्रेष्ठ पुरुषोंमें बाँट देता है, वह अपने-आपको सेतु बनाकर उन सबको पार कर देता है। उसे सम्पूर्ण धर्मोंका ज्ञाता ही मानना चाहिये॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथा तथा जयेल्लोकान् शक्त्या चैव यथा यथा।
उद्भिज्जा जन्तवो यद्वच्छुक्लजीवा यथा यथा ॥ ८ ॥
अनिमित्तात् सम्भवन्ति तथायज्ञः प्रजायते ॥ ९ ॥
यथैव दंशमशकं यथा चाण्डपिपीलिकम्।
सैव वृत्तिरयज्ञेषु यथा धर्मो विधीयते ॥ १० ॥

मूलम्

तथा तथा जयेल्लोकान् शक्त्या चैव यथा यथा।
उद्भिज्जा जन्तवो यद्वच्छुक्लजीवा यथा यथा ॥ ८ ॥
अनिमित्तात् सम्भवन्ति तथायज्ञः प्रजायते ॥ ९ ॥
यथैव दंशमशकं यथा चाण्डपिपीलिकम्।
सैव वृत्तिरयज्ञेषु यथा धर्मो विधीयते ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

धर्मज्ञ राजा अपनी शक्तिके अनुसार उसी-उसी तरह लोकोंपर विजय प्राप्त करे, जैसे उद्‌भिज्ज जन्तु (वृक्ष आदि) अपनी शक्तिके अनुसार आगे बढ़ते हैं तथा जैसे वज्रकीट आदि क्षुद्र जीव बिना ही निमित्तके उत्पन्न हो जाते हैं, वैसे ही बिना ही कारणके यज्ञहीन कर्तव्यविरोधी मनुष्य भी राज्यमें उत्पन्न हो जाते हैं। अतः राजाको चाहिये कि मच्छर, डाँस और चींटी आदि कीटोंके साथ जैसा बर्ताव किया जाता है, वही बर्ताव उन सत्कर्मविरोधियोंके साथ करे, जिससे धर्मका प्रचार हो॥८—१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथा ह्यकस्माद् भवति भूमौ पांसुर्विलोलितः।
तथैवेह भवेद् धर्मः सूक्ष्मः सूक्ष्मतरस्तथा ॥ ११ ॥

मूलम्

यथा ह्यकस्माद् भवति भूमौ पांसुर्विलोलितः।
तथैवेह भवेद् धर्मः सूक्ष्मः सूक्ष्मतरस्तथा ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिस प्रकार अकस्मात् पृथ्वीकी धूलको लेकर सिलपर पीसा जाय तो वह और भी महीन ही होती है, उसी प्रकार विचार करनेसे धर्मका स्वरूप उत्तरोत्तर सूक्ष्म जान पड़ता है॥११॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि आपद्धर्मपर्वणि षट्‌त्रिंशदधिकशततमोऽध्यायः ॥ १३६ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत आपद्धर्मपर्वमें एक सौ छत्तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१३६॥