भागसूचना
चतुस्त्रिंशदधिकशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
बलकी महत्ता और पापसे छूटनेका प्रायश्चित्त
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अत्र धर्मानुवचनं कीर्तयन्ति पुराविदः।
प्रत्यक्षावेव धर्मार्थौ क्षत्रियस्य विजानतः ॥ १ ॥
मूलम्
अत्र धर्मानुवचनं कीर्तयन्ति पुराविदः।
प्रत्यक्षावेव धर्मार्थौ क्षत्रियस्य विजानतः ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजी कहते हैं— राजन्! प्राचीनकालकी बातोंको जाननेवाले विद्वान् इस विषयमें जो धर्मका प्रवचन करते हैं, वह इस प्रकार है—विज्ञ क्षत्रियके लिये धर्म और अर्थ—ये दो ही प्रत्यक्ष हैं॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्र न व्यवधातव्यं परोक्षा धर्मयापना।
अधर्मो धर्म इत्येतद् यथा वृकपदं तथा ॥ २ ॥
मूलम्
तत्र न व्यवधातव्यं परोक्षा धर्मयापना।
अधर्मो धर्म इत्येतद् यथा वृकपदं तथा ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
धर्म और अधर्मकी समस्या रखकर किसीके कर्तव्यमें व्यवधान नहीं डालना चाहिये; क्योंकि धर्मका फल प्रत्यक्ष नहीं है। जैसे भेड़ियेका पदचिह्न देखकर किसीको यह निश्चय नहीं होता कि यह व्याघ्रका पदचिह्न है या कुत्तेका? उसी प्रकार धर्म और अधर्मके विषयमें निर्णय करना कठिन है॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
धर्माधर्मफले जातु ददर्शेह न कश्चन।
बुभूषेद् बलमेवैतत् सर्वं बलवतो वशे ॥ ३ ॥
मूलम्
धर्माधर्मफले जातु ददर्शेह न कश्चन।
बुभूषेद् बलमेवैतत् सर्वं बलवतो वशे ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
धर्म और अधर्मका फल किसीने कभी यहाँ प्रत्यक्ष नहीं देखा है। अतः राजा बलप्राप्तिके लिये प्रयत्न करे; क्योंकि यह सब जगत् बलवान्के वशमें होता है॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्रियो बलममात्यांश्च बलवानिह विन्दति।
यो ह्यनाढ्यः स पतितस्तदुच्छिष्टं यदल्पकम् ॥ ४ ॥
मूलम्
श्रियो बलममात्यांश्च बलवानिह विन्दति।
यो ह्यनाढ्यः स पतितस्तदुच्छिष्टं यदल्पकम् ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
बलवान् पुरुष इस जगत्में सम्पत्ति, सेना और मन्त्री सब कुछ पा लेता है। जो दरिद्र है, वह पतित समझा जाता है और किसीके पास जो बहुत थोड़ा धन है, वह उच्छिष्ट या जूठन समझा जाता है॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बह्वपथ्यं बलवति न किंचित् क्रियते भयात्।
उभौ सत्याधिकारस्थौ त्रायेते महतो भयात् ॥ ५ ॥
मूलम्
बह्वपथ्यं बलवति न किंचित् क्रियते भयात्।
उभौ सत्याधिकारस्थौ त्रायेते महतो भयात् ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
बलवान् पुरुषमें बहुत-सी बुराई होती है तो भी भयके मारे उसके विषयमें कोई मुँहसे कुछ बात नहीं निकालता है। यदि बल और धर्म दोनों सत्यके ऊपर प्रतिष्ठित हों तो वे मनुष्यकी महान् भयसे रक्षा करते हैं॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अतिधर्माद् बलं मन्ये बलाद् धर्मः प्रवर्तते।
बले प्रतिष्ठितो धर्मो धरण्यामिव जङ्गमम् ॥ ६ ॥
मूलम्
अतिधर्माद् बलं मन्ये बलाद् धर्मः प्रवर्तते।
बले प्रतिष्ठितो धर्मो धरण्यामिव जङ्गमम् ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैं धर्मसे भी बलको ही अधिक श्रेष्ठ मानता हूँ; क्योंकि बलसे धर्मकी प्रवृत्ति होती है। जैसे चलने-फिरनेवाले सभी प्राणी पृथ्वीपर ही स्थित हैं, उसी प्रकार धर्म बलपर ही प्रतिष्ठित है॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
धूमो वायोरिव वशे बलं धर्मोऽनुवर्तते।
अनीश्वरो बले धर्मो द्रुमे वल्लीव संश्रिता ॥ ७ ॥
मूलम्
धूमो वायोरिव वशे बलं धर्मोऽनुवर्तते।
अनीश्वरो बले धर्मो द्रुमे वल्लीव संश्रिता ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे धूआँ वायुके अधीन होकर चलता है, उसी प्रकार धर्म भी बलका अनुसरण करता है; अतः जैसे लता किसी वृक्षके सहारे फैलती है, उसी प्रकार निर्बल धर्मबलके ही आधारपर सदा स्थिर रहता है॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वशे बलवतां धर्मः सुखं भोगवतामिव।
नास्त्यसाध्यं बलवतां सर्वं बलवतां शुचि ॥ ८ ॥
मूलम्
वशे बलवतां धर्मः सुखं भोगवतामिव।
नास्त्यसाध्यं बलवतां सर्वं बलवतां शुचि ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे भोग-सामग्रीसे सम्पन्न पुरुषोंके अधीन सुख-भोग होता है, उसी प्रकार धर्म बलवानोंके वशमें रहता है। बलवानोंके लिये कुछ भी असाध्य नहीं है। बलवानोंकी सारी वस्तु ही शुद्ध एवं निर्दोष होती है॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दुराचारः क्षीणबलः परित्राणं न गच्छति।
अथ तस्मादुद्विजते सर्वो लोको वृकादिव ॥ ९ ॥
मूलम्
दुराचारः क्षीणबलः परित्राणं न गच्छति।
अथ तस्मादुद्विजते सर्वो लोको वृकादिव ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिसका बल नष्ट हो गया है, जो दुराचारी है, उसको भय उपस्थित होनेपर कोई रक्षक नहीं मिलता है। दुर्बलसे सब लोग उसी प्रकार उद्विग्न हो उठते हैं, जैसे भेड़ियेसे॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अपध्वस्तो ह्यवमतो दुःखं जीवति जीवितम्।
जीवितं यदपक्रुष्टं यथैव मरणं तथा ॥ १० ॥
मूलम्
अपध्वस्तो ह्यवमतो दुःखं जीवति जीवितम्।
जीवितं यदपक्रुष्टं यथैव मरणं तथा ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
दुर्बल अपनी सम्पत्तिसे वंचित हो जाता है, सबके अपमान और उपेक्षाका पात्र बनता है तथा दुःखमय जीवन व्यतीत करता है। जो जीवन निन्दित हो जाता है, वह मृत्युके ही तुल्य है॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदेवमाहुः पापेन चारित्रेण विवर्जितः।
सुभृशं तप्यते तेन वाक्शल्येन परिक्षतः ॥ ११ ॥
मूलम्
यदेवमाहुः पापेन चारित्रेण विवर्जितः।
सुभृशं तप्यते तेन वाक्शल्येन परिक्षतः ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
दुर्बल मनुष्यके विषयमें लोग इस प्रकार कहने लगते हैं—‘अरे! यह तो अपने पापाचारके कारण बन्धु-बान्धवोंद्वारा त्याग दिया गया है।’ उनके उस वाग्बाणसे घायल होकर वह अत्यन्त संतप्त हो उठता है॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अत्रैतदाहुराचार्याः पापस्य परिमोक्षणे ।
त्रयीं विद्यामवेक्षेत तथोपासीत वै द्विजान् ॥ १२ ॥
प्रसादयेन्मधुरया वाचा चाप्यथ कर्मणा।
महामनाश्चापि भवेद् विवहेच्च महाकुले ॥ १३ ॥
इत्यस्मीति वदेदेवं परेषां कीर्तयेद् गुणान्।
जपेदुदकशीलः स्यात् पेशलो नातिजल्पकः ॥ १४ ॥
ब्रह्मक्षत्रं सम्प्रविशेद् बहु कृत्वा सुदुष्करम्।
उच्चमानो हि लोकेन बहुकृत् तदचिन्तयन् ॥ १५ ॥
मूलम्
अत्रैतदाहुराचार्याः पापस्य परिमोक्षणे ।
त्रयीं विद्यामवेक्षेत तथोपासीत वै द्विजान् ॥ १२ ॥
प्रसादयेन्मधुरया वाचा चाप्यथ कर्मणा।
महामनाश्चापि भवेद् विवहेच्च महाकुले ॥ १३ ॥
इत्यस्मीति वदेदेवं परेषां कीर्तयेद् गुणान्।
जपेदुदकशीलः स्यात् पेशलो नातिजल्पकः ॥ १४ ॥
ब्रह्मक्षत्रं सम्प्रविशेद् बहु कृत्वा सुदुष्करम्।
उच्चमानो हि लोकेन बहुकृत् तदचिन्तयन् ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यहाँ अधर्मपूर्वक धनका उपार्जन करनेपर जो पाप होता है, उससे छूटनेके लिये आचार्योंने यह उपाय बताया है—उक्त पापसे लिप्त हुआ राजा तीनों वेदोंका स्वाध्याय करे, ब्राह्मणोंकी सेवामें उपस्थित रहे, मधुर वाणी तथा सत्कर्मोंद्वारा उन्हें प्रसन्न करे, अपने मनको उदार बनावे और उच्चकुलमें विवाह करे। मैं अमुक नामवाला आपका सेवक हूँ, इस प्रकार अपना परिचय दे, दूसरोंके गुणोंका बखान करे, प्रतिदिन स्नान करके इष्ट-मन्त्रका जप करे, अच्छे स्वभावका बने अधिक न बोले, लोग उसे बहुत पापाचारी बताकर उसकी निन्दा करें तो भी उसकी परवा न करे और अत्यन्त दुष्कर तथा बहुत-से पुण्यकर्मोंका अनुष्ठान करके ब्राह्मणों तथा क्षत्रियोंके समाजमें प्रवेश करे॥१२—१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अपापो ह्येवमाचारः क्षिप्रं बहुमतो भवेत्।
सुखं च चित्रं भुञ्जीत कृतेनैकेन गोपयेत् ॥ १६ ॥
लोके च लभते पूजां परत्रेह महत् फलम् ॥ १७ ॥
मूलम्
अपापो ह्येवमाचारः क्षिप्रं बहुमतो भवेत्।
सुखं च चित्रं भुञ्जीत कृतेनैकेन गोपयेत् ॥ १६ ॥
लोके च लभते पूजां परत्रेह महत् फलम् ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ऐसे आचरणवाला पुरुष पापहीन हो शीघ्र ही बहुसंख्यक मनुष्योंके आदरका पात्र हो जाता है, नाना प्रकारके सुखोंका उपभोग करता है और अपने किये हुए विशेष सत्कर्मके प्रभावसे अपनी रक्षा कर लेता है। लोकमें सर्वत्र उसका आदर होने लगता है तथा वह इहलोक और परलोकमें भी महान् फलका भागी होता है॥१६-१७॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि आपद्धर्मपर्वणि चतुस्त्रिंशदधिकशततमोऽध्यायः ॥ १३४ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत आपद्धर्मपर्वमें एक सौ चौंतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१३४॥