१३३

भागसूचना

त्रयस्त्रिंशदधिकशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

राजाके लिये कोशसंग्रहकी आवश्यकता, मर्यादाकी स्थापना और अमर्यादित दस्युवृत्तिकी निन्दा

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्वराष्ट्रात् परराष्ट्राच्च कोशं संजनयेन्नृपः।
कोशाद्धि धर्मः कौन्तेय राज्यमूलं च वर्धते ॥ १ ॥

मूलम्

स्वराष्ट्रात् परराष्ट्राच्च कोशं संजनयेन्नृपः।
कोशाद्धि धर्मः कौन्तेय राज्यमूलं च वर्धते ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजी कहते हैं— युधिष्ठिर! राजाको चाहिये कि वह अपने तथा शत्रुके राज्यसे धन लेकर खजानेको भरे। कोशसे ही धर्मकी वृद्धि होती है और राज्यकी जड़ें बढ़ती अर्थात् सुदृढ़ होती हैं॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मात् संजनयेत् कोशं सत्कृत्य परिपालयेत्।
परिपाल्यानुतनुयादेष धर्मः सनातनः ॥ २ ॥

मूलम्

तस्मात् संजनयेत् कोशं सत्कृत्य परिपालयेत्।
परिपाल्यानुतनुयादेष धर्मः सनातनः ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसलिये राजा कोशका संग्रह करे, संग्रह करके सादर उसकी रक्षा करे और रक्षा करके निरन्तर उसको बढ़ाता रहे; यही राजाका सदासे चला आनेवाला धर्म है॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न कोशः शुद्धशौचेन न नृशंसेन जातुचित्।
मध्यमं पदमास्थाय कोशसंग्रहणं चरेत् ॥ ३ ॥

मूलम्

न कोशः शुद्धशौचेन न नृशंसेन जातुचित्।
मध्यमं पदमास्थाय कोशसंग्रहणं चरेत् ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो विशुद्ध आचार-विचारसे रहनेवाला है, उसके द्वारा कभी कोशका संग्रह नहीं हो सकता। जो अत्यन्त क्रूर है, वह भी कदापि इसमें सफल नहीं हो सकता; अतः मध्यम मार्गका आश्रय लेकर कोश-संग्रह करना चाहिये॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अबलस्य कुतः कोशो ह्यकोशस्य कुतो बलम्।
अबलस्य कुतो राज्यमराज्ञः श्रीर्भवेत् कुतः ॥ ४ ॥

मूलम्

अबलस्य कुतः कोशो ह्यकोशस्य कुतो बलम्।
अबलस्य कुतो राज्यमराज्ञः श्रीर्भवेत् कुतः ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यदि राजा बलहीन हो तो उसके पास कोश कैसे रह सकता है? कोशहीनके पास सेना कैसे रह सकती है? जिसके पास सेना ही नहीं है, उसका राज्य कैसे टिक सकता है और राज्यहीनके पास लक्ष्मी कैसे रह सकती है?॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उच्चैर्वृत्तेः श्रियो हानिर्यथैव मरणं तथा।
तस्मात् कोशं बलं मित्रमथ राजा विवर्धयेत् ॥ ५ ॥

मूलम्

उच्चैर्वृत्तेः श्रियो हानिर्यथैव मरणं तथा।
तस्मात् कोशं बलं मित्रमथ राजा विवर्धयेत् ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो धनके कारण ऊँचे तथा महत्त्वपूर्ण पदपर पहुँचा हुआ है, उसके धनकी हानि हो जाय तो उसे मृत्युके तुल्य कष्ट होता है, अतः राजाको कोश, सेना तथा मित्रकी संख्या बढ़ानी चाहिये॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हीनकोशं हि राजानमवजानन्ति मानवाः।
न चास्याल्पेन तुष्यन्ति कार्यमप्युत्सहन्ति च ॥ ६ ॥

मूलम्

हीनकोशं हि राजानमवजानन्ति मानवाः।
न चास्याल्पेन तुष्यन्ति कार्यमप्युत्सहन्ति च ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिस राजाके पास धनका भण्डार नहीं है, उसकी साधारण मनुष्य भी अवहेलना करते हैं। उससे थोड़ा लेकर लोग संतुष्ट नहीं होते हैं और न उसका कार्य करनेमें ही उत्साह दिखाते हैं॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रियो हि कारणाद् राजा सत्क्रियां लभते पराम्।
सास्य गूहति पापानि वासो गुह्यमिव स्त्रियाः ॥ ७ ॥

मूलम्

श्रियो हि कारणाद् राजा सत्क्रियां लभते पराम्।
सास्य गूहति पापानि वासो गुह्यमिव स्त्रियाः ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

लक्ष्मीके कारण ही राजा सर्वत्र बड़ा भारी आदर-सत्कार पाता है। जैसे कपड़ा नारीके गुप्त अंगोंको छिपाये रखता है, उसी प्रकार लक्ष्मी राजाके सारे दोषोंको ढक लेती है॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ऋद्धिमस्यानु तप्यन्ते पुरा विप्रकृता नराः।
शालावृका इवाजस्रं जिघांसुमेव विन्दति ॥ ८ ॥

मूलम्

ऋद्धिमस्यानु तप्यन्ते पुरा विप्रकृता नराः।
शालावृका इवाजस्रं जिघांसुमेव विन्दति ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पहलेके तिरस्कृत हुए मनुष्य इस राजाकी बढ़ती हुई समृद्धिको देखकर जलते रहते हैं और अपने वधकी इच्छा रखनेवाले उस राजाका ही कपटपूर्वक आश्रय ले उसी तरह उसकी सेवा करते हैं, जैसे कुत्ते अपने घातक चाण्डालकी सेवामें रहते हैं॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ईदृशस्य कुतो राज्ञः सुखं भवति भारत।
उद्यच्छेदेव न नमेदुद्यमो ह्येव पौरुषम् ॥ ९ ॥
अप्यपर्वणि भज्येत न नमेतेह कस्यचित्।

मूलम्

ईदृशस्य कुतो राज्ञः सुखं भवति भारत।
उद्यच्छेदेव न नमेदुद्यमो ह्येव पौरुषम् ॥ ९ ॥
अप्यपर्वणि भज्येत न नमेतेह कस्यचित्।

अनुवाद (हिन्दी)

भारत! ऐसे नरेशको कैसे सुख मिलेगा? अतः राजाको सदा उद्यम ही करना चाहिये, किसीके सामने झुकना नहीं चाहिये; क्योंकि उद्यम ही पुरुषत्व है। जैसे सूखी लकड़ी बिना गाँठके ही टूट जाती है, परंतु झुकती नहीं है, उसी प्रकार राजा नष्ट भले ही हो जाय, परंतु उसे कभी दबना नहीं चाहिये॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अप्यरण्यं समाश्रित्य चरेन्मृगगणैः सह ॥ १० ॥
न त्वेवोज्झितमर्यादैर्दस्युभिः सहितश्चरेत् ।

मूलम्

अप्यरण्यं समाश्रित्य चरेन्मृगगणैः सह ॥ १० ॥
न त्वेवोज्झितमर्यादैर्दस्युभिः सहितश्चरेत् ।

अनुवाद (हिन्दी)

वह वनकी शरण लेकर मृगोंके साथ भले ही विचरे; किंतु मर्यादा भंग करनेवाले डाकुओंके साथ कदापि न रहे॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दस्यूनां सुलभा सेना रौद्रकर्मसु भारत ॥ ११ ॥
एकान्ततो ह्यमर्यादात् सर्वोऽप्युद्विजते जनः।
दस्यवोऽप्यभिशङ्कन्ते निरनुक्रोशकारिणः ॥ १२ ॥

मूलम्

दस्यूनां सुलभा सेना रौद्रकर्मसु भारत ॥ ११ ॥
एकान्ततो ह्यमर्यादात् सर्वोऽप्युद्विजते जनः।
दस्यवोऽप्यभिशङ्कन्ते निरनुक्रोशकारिणः ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भारत! डाकुओंको लूट-पाट या हिंसा आदि भयानक कर्मोंके लिये अनायास ही सेना सुलभ हो जाती है। सर्वथा मर्यादाशून्य मनुष्यसे सब लोग उद्विग्न हो उठते हैं। केवल निर्दयतापूर्ण कर्म करनेवाले पुरुषकी ओरसे डाकू भी शंकित रहते हैं॥११-१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्थापयेदेव मर्यादां जनचित्तप्रसादिनीम् ।
अल्पेऽप्यर्थे च मर्यादा लोके भवति पूजिता ॥ १३ ॥

मूलम्

स्थापयेदेव मर्यादां जनचित्तप्रसादिनीम् ।
अल्पेऽप्यर्थे च मर्यादा लोके भवति पूजिता ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजाको ऐसी ही मर्यादा स्थापित करनी चाहिये, जो सब लोगोंके चित्तको प्रसन्न करनेवाली हो। लोकमें छोटे-से काममें भी मर्यादाका ही मान होता है॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नायं लोकोऽस्ति न पर इति व्यवसितो जनः।
नालं गन्तुं हि विश्वासं नास्तिके भयशङ्किते ॥ १४ ॥

मूलम्

नायं लोकोऽस्ति न पर इति व्यवसितो जनः।
नालं गन्तुं हि विश्वासं नास्तिके भयशङ्किते ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

संसारमें ऐसे भी मनुष्य हैं, जो यह निश्चय किये बैठे हैं कि ‘यह लोक और परलोक हैं ही नहीं।’ ऐसा नास्तिक मानव भयकी शंकाका स्थान है, उसपर कभी विश्वास नहीं करना चाहिये॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथा सद्भिः परादानमहिंसा दस्युभिः कृता।
अनुरज्यन्ति भूतानि समर्यादेषु दस्युषु ॥ १५ ॥

मूलम्

यथा सद्भिः परादानमहिंसा दस्युभिः कृता।
अनुरज्यन्ति भूतानि समर्यादेषु दस्युषु ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

दस्युओंमें भी मर्यादा होती है, जैसे अच्छे डाकू दूसरोंका धन तो लूटते हैं, परंतु हिंसा नहीं करते (किसीकी इज्जत नहीं लेते)। जो मर्यादाका ध्यान रखते हैं, उन लुटेरोंमें बहुत-से प्राणी स्नेह भी करते हैं, (क्योंकि उनके द्वारा बहुतोंकी रक्षा भी होती है)॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अयुद्ध्यमानस्य वधो दारामर्षः कृतघ्नता।
ब्रह्मवित्तस्य चादानं निःशेषकरणं तथा ॥ १६ ॥
स्त्रिया मोषः पतिस्थानं दस्युष्वेतद् विगर्हितम्।
संश्लेषं च परस्त्रीभिर्दस्युरेतानि वर्जयेत् ॥ १७ ॥

मूलम्

अयुद्ध्यमानस्य वधो दारामर्षः कृतघ्नता।
ब्रह्मवित्तस्य चादानं निःशेषकरणं तथा ॥ १६ ॥
स्त्रिया मोषः पतिस्थानं दस्युष्वेतद् विगर्हितम्।
संश्लेषं च परस्त्रीभिर्दस्युरेतानि वर्जयेत् ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युद्ध न करनेवालेको मारना, परायी स्त्रीपर बलात्कार करना, कृतघ्नता, ब्राह्मणके धनका अपहरण, किसीका सर्वस्व छीन लेना, कुमारी कन्याका अपहरण करना तथा किसी ग्राम आदिपर आक्रमण करके स्वयं उसका स्वामी बन बैठना—ये सब बातें डाकुओंमें भी निन्दित मानी गयी हैं। इस्युको भी परस्त्रीका स्पर्श और उपर्युक्त सभी पाप त्याग देने चाहिये॥१६-१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अभिसंदधते ये च विश्वासायास्य मानवाः।
अशेषमेवोपलभ्य कुर्वन्तीति विनिश्चयः ॥ १८ ॥

मूलम्

अभिसंदधते ये च विश्वासायास्य मानवाः।
अशेषमेवोपलभ्य कुर्वन्तीति विनिश्चयः ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिनका सर्वस्व लूट लिया जाता है, वे मनुष्य उन डाकुओंके साथ मेल-जोल और विश्वास बढ़ानेकी चेष्टा करते हैं और उनके स्थान आदिका पता लगाकर फिर उनका सर्वस्व नष्ट कर देते हैं, यह निश्चित बात है॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मात् सशेषं कर्तव्यं स्वाधीनमपि दस्युभिः।
न बलस्थोऽहमस्मीति नृशंसानि समाचरेत् ॥ १९ ॥

मूलम्

तस्मात् सशेषं कर्तव्यं स्वाधीनमपि दस्युभिः।
न बलस्थोऽहमस्मीति नृशंसानि समाचरेत् ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसलिये दस्युओंको उचित है कि वे दूसरोंके धनको अपने अधिकारमें पाकर भी कुछ शेष छोड़ दें, सारा-का-सारा न लूट लें। ‘मैं बलवान् हूँ’ ऐसा समझकर क्रूरतापूर्ण बर्ताव न करें॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स शेषकारिणस्तत्र शेषं पश्यन्ति सर्वशः।
निःशेषकारिणो नित्यं निःशेषकरणाद् भयम् ॥ २० ॥

मूलम्

स शेषकारिणस्तत्र शेषं पश्यन्ति सर्वशः।
निःशेषकारिणो नित्यं निःशेषकरणाद् भयम् ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो डाकू दूसरोंके धनको शेष छोड़ देते हैं, वे सब ओर अपने धनका भी अवशेष देख पाते हैं; तथा जो दूसरोंके धनमेंसे कुछ भी शेष नहीं छोड़ते, उन्हें सदा अपने धनके भी निःशेष हो जानेका भय बना रहता है॥२०॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि आपद्धर्मपर्वणि त्रयस्त्रिंशदधिकशततमोऽध्यायः ॥ १३३ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत आपद्धर्मपर्वमें एक सौ तैंतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१३३॥