१३२ राजर्षिवृत्तम्

भागसूचना

द्वात्रिंशदधिकशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

ब्राह्मणों और श्रेष्ठ राजाओंके धर्मका वर्णन तथा धर्मकी गतिको सूक्ष्म बताना

मूलम् (वचनम्)

युधिष्ठिर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

हीने परमके धर्मे सर्वलोकाभिसंहिते।
सर्वस्मिन् दस्युसाद्‌भूते पृथिव्यामुपजीवने ॥ १ ॥
केन स्विद् ब्राह्मणो जीवेज्जघन्ये काल आगते।
असंत्यजन् पुत्रपौत्राननुक्रोशात् पितामह ॥ २ ॥

मूलम्

हीने परमके धर्मे सर्वलोकाभिसंहिते।
सर्वस्मिन् दस्युसाद्‌भूते पृथिव्यामुपजीवने ॥ १ ॥
केन स्विद् ब्राह्मणो जीवेज्जघन्ये काल आगते।
असंत्यजन् पुत्रपौत्राननुक्रोशात् पितामह ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिरने पूछा— पितामह! यदि राजाका सम्पूर्ण लोकोंकी रक्षापर अवलम्बित परम धर्म न निभ सके और भूमण्डलमें आजीविकाके सारे साधनोंपर लुटेरोंका अधिकार हो जाय, तब ऐसा जघन्य संकटकाल उपस्थित होनेपर यदि ब्राह्मण दयावश अपने पुत्रों तथा पौत्रोंका परित्याग न कर सके तो वह किस वृत्तिसे जीवन-निर्वाह करे?॥१-२॥

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

विज्ञानबलमास्थाय जीवितव्यं तथागते ।
सर्वं साध्वर्थमेवेदमसाध्वर्थं न किंचन ॥ ३ ॥

मूलम्

विज्ञानबलमास्थाय जीवितव्यं तथागते ।
सर्वं साध्वर्थमेवेदमसाध्वर्थं न किंचन ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजीने कहा— युधिष्ठिर! ऐसी परिस्थितिमें ब्राह्मणको तो अपने विज्ञान-बलका आश्रय लेकर जीवन-निर्वाह करना चाहिये। इस जगत्‌में यह जो कुछ भी धन आदि दिखायी देता है, वह सब कुछ श्रेष्ठ पुरुषोंके लिये ही है, दुष्टोंके लिये कुछ भी नहीं है॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

असाधुभ्योऽर्थमादाय साधुभ्यो यः प्रयच्छति।
आत्मानं संक्रमं कृत्वा कृच्छ्रधर्मविदेव सः ॥ ४ ॥

मूलम्

असाधुभ्योऽर्थमादाय साधुभ्यो यः प्रयच्छति।
आत्मानं संक्रमं कृत्वा कृच्छ्रधर्मविदेव सः ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो अपनेको सेतु बनाकर दुष्ट पुरुषोंसे धन लेकर श्रेष्ठ पुरुषोंको देता है, वह आपद्धर्मका ज्ञाता है॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आकाङ्‌क्षन्नात्मनो राज्यं राज्ये स्थितिमकोपयन्।
अदत्तमेवाददीत दातुर्वित्तं ममेति च ॥ ५ ॥

मूलम्

आकाङ्‌क्षन्नात्मनो राज्यं राज्ये स्थितिमकोपयन्।
अदत्तमेवाददीत दातुर्वित्तं ममेति च ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो अपने राज्यको बनाये रखना चाहे, उस राजाको उचित है कि वह राज्यकी व्यवस्थाका बिगाड़ न करते हुए ब्राह्मण आदि प्रजाकी रक्षाके उद्देश्यसे ही राज्यके धनियोंका धन मेरा ही है, ऐसा समझकर उनके दिये बिना भी बलपूर्वक ले ले॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विज्ञानबलपूतो यो वर्तते निन्दितेष्वपि।
वृत्तिविज्ञानवान् धीरः कस्तं वा वक्तुमर्हति ॥ ६ ॥

मूलम्

विज्ञानबलपूतो यो वर्तते निन्दितेष्वपि।
वृत्तिविज्ञानवान् धीरः कस्तं वा वक्तुमर्हति ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो तत्त्वज्ञानके प्रभावसे पवित्र है और किस वृत्तिसे किसका निर्वाह हो सकता है, इस बातको अच्छी तरह समझता है, वह धीर नरेश यदि राज्यको संकटसे बचानेके लिये निन्दित कर्मोंमें भी प्रवृत्त होता है तो कौन उसकी निन्दा कर सकता है?॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

येषां बलकृता वृत्तिस्तेषामन्या न रोचते।
तेजसाभिप्रवर्तन्ते बलवन्तो युधिष्ठिर ॥ ७ ॥

मूलम्

येषां बलकृता वृत्तिस्तेषामन्या न रोचते।
तेजसाभिप्रवर्तन्ते बलवन्तो युधिष्ठिर ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिर! जो बल और पराक्रमसे ही जीविका चलानेवाले हैं, उन्हें दूसरी वृत्ति अच्छी नहीं लगती। बलवान् पुरुष अपने तेजसे ही कर्मोंमें प्रवृत्त होते हैं॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदैव प्राकृतं शास्त्रमविशेषेण वर्तते।
तदैवमभ्यसेदेवं मेधावी वाप्यथोत्तरम् ॥ ८ ॥

मूलम्

यदैव प्राकृतं शास्त्रमविशेषेण वर्तते।
तदैवमभ्यसेदेवं मेधावी वाप्यथोत्तरम् ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब आपद्धर्मोपयोगी प्राकृत शास्त्र ही सामान्यरूपसे चल रहा हो, उस आपत्तिकालमें ‘अपने या दूसरेके राज्यसे जैसे भी सम्भव हो, धन लेकर अपना खजाना भरना चाहिये’ इत्यादि वचनोंके अनुसार राजा जीवन-निर्वाह करे। परंतु जो मेधावी हो, वह इससे भी आगे बढ़कर ‘जो दो राज्योंमें रहनेवाले धनीलोग कंजूसी अथवा असदाचरणके द्वारा दण्ड पानेयोग्य हों, उनसे ही धन लेना चाहिये।’ इत्यादि विशेष शास्त्रोंका अवलम्बन करे॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ऋत्विक्‌पुरोहिताचार्यान् सत्कृतानभिसत्कृतान् ।
न ब्राह्मणान् घातयीत दोषान् प्राप्नोति घातयन् ॥ ९ ॥

मूलम्

ऋत्विक्‌पुरोहिताचार्यान् सत्कृतानभिसत्कृतान् ।
न ब्राह्मणान् घातयीत दोषान् प्राप्नोति घातयन् ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कितनी ही आपत्ति क्यों न हो, ऋत्विक्, पुरोहित, आचार्य तथा सत्कृत या असत्कृत ब्राह्मणोंसे, वे धनी हों तो भी धन लेकर उन्हें पीड़ा न दे। यदि राजा उन्हें धनापहरणके द्वारा कष्ट देता है तो पापका भागी होता है॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतत् प्रमाणं लोकस्य चक्षुरेतत् सनातनम्।
तत् प्रमाणोऽवगाहेत तेन तत् साध्वसाधु वा ॥ १० ॥

मूलम्

एतत् प्रमाणं लोकस्य चक्षुरेतत् सनातनम्।
तत् प्रमाणोऽवगाहेत तेन तत् साध्वसाधु वा ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह मैंने तुम्हें सब लोगोंके लिये प्रमाणभूत बात बतायी है। यही सनातन दृष्टि है। राजा इसीको प्रमाण मानकर व्यवहारक्षेत्रमें प्रवेश करे तथा इसीके अनुसार आपत्तिकालमें उसे भले या बुरे कार्यका निर्णय करना चाहिये॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बहवो ग्रामवास्तव्या रोषाद् ब्रूयुः परस्परम्।
न तेषां वचनाद् राजा सत्कुर्याद् घातयीत वा ॥ ११ ॥

मूलम्

बहवो ग्रामवास्तव्या रोषाद् ब्रूयुः परस्परम्।
न तेषां वचनाद् राजा सत्कुर्याद् घातयीत वा ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यदि बहुत-से ग्रामवासी मनुष्य परस्पर रोषवश राजाके पास आकर एक-दूसरेकी निन्दा-स्तुति करें तो राजा केवल उनके कहनेसे ही किसीको न तो दण्ड दे और न किसीका सत्कार ही करे॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न वाच्यः परिवादोऽयं न श्रोतव्यः कथञ्चन।
कर्णावथ पिधातव्यौ प्रस्थेयं चान्यतो भवेत् ॥ १२ ॥

मूलम्

न वाच्यः परिवादोऽयं न श्रोतव्यः कथञ्चन।
कर्णावथ पिधातव्यौ प्रस्थेयं चान्यतो भवेत् ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

किसीकी भी निन्दा नहीं करनी चाहिये और न उसे किसी प्रकार सुनना ही चाहिये। यदि कोई दूसरेकी निन्दा करता हो तो वहाँ अपने कान बंद कर ले अथवा वहाँसे उठकर अन्यत्र चला जाय॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

असतां शीलमेतद् वै परिवादोऽथ पैशुनम्।
गुणानामेव वक्तारः सन्तः सत्सु नराधिप ॥ १३ ॥

मूलम्

असतां शीलमेतद् वै परिवादोऽथ पैशुनम्।
गुणानामेव वक्तारः सन्तः सत्सु नराधिप ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नरेश्वर! दूसरोंकी निन्दा करना या चुगली खाना यह दुष्टोंका स्वभाव ही होता है। श्रेष्ठ पुरुष तो सज्जनोंके समीप दूसरोंके गुण ही गाया करते हैं॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथा सुमधुरौ दम्यौ सुदान्तौ साधुवाहिनौ।
धुरमुद्यम्य वहतास्तथा वर्तेत वै नृपः ॥ १४ ॥

मूलम्

यथा सुमधुरौ दम्यौ सुदान्तौ साधुवाहिनौ।
धुरमुद्यम्य वहतास्तथा वर्तेत वै नृपः ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे मनोहर आकृतिवाले, सुशिक्षित तथा अच्छी तरहसे बोझ ढोनेमें समर्थ नयी अवस्थाके दो बैल कंधोंपर भार उठाकर उसे सुन्दर ढंगसे ढोते हैं, उसी प्रकार राजाको भी अपने राज्यका भार अच्छी तरह सँभालना चाहिये॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथा यथास्य बहवः सहायाः स्युस्तथा परे।
आचारमेव मन्यन्ते गरीयो धर्मलक्षणम् ॥ १५ ॥

मूलम्

यथा यथास्य बहवः सहायाः स्युस्तथा परे।
आचारमेव मन्यन्ते गरीयो धर्मलक्षणम् ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे-जैसे आचरणोंसे राजाके बहुत-से दूसरे लोग सहायक हों, वैसे ही आचरण उसे अपनाने चाहिये। धर्मज्ञ पुरुष आचारको ही धर्मका प्रधान लक्षण मानते हैं॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अपरे नैवमिच्छन्ति ये शंखलिखितप्रियाः।
मात्सर्यादथवा लोभान्न ब्रूयुर्वाक्यमीदृशम् ॥ १६ ॥

मूलम्

अपरे नैवमिच्छन्ति ये शंखलिखितप्रियाः।
मात्सर्यादथवा लोभान्न ब्रूयुर्वाक्यमीदृशम् ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

किंतु जो शंख और लिखित मुनिके प्रेमी हैं—उन्हींके मतका अनुसरण करनेवाले हैं, वे दूसरे-दूसरे लोग इस उपर्युक्त मत (ऋत्विक् आदिको दण्ड न देने आदि) को नहीं स्वीकार करते हैं। वे लोग ईर्ष्या अथवा लोभसे ऐसी बात नहीं कहते हैं (धर्म मानकर ही कहते हैं)॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आर्षमप्यत्र पश्यन्ति विकर्मस्थस्य पातनम्।
न तादृक्सदृशं किञ्चित् प्रमाणं दृश्यते क्वचित् ॥ १७ ॥

मूलम्

आर्षमप्यत्र पश्यन्ति विकर्मस्थस्य पातनम्।
न तादृक्सदृशं किञ्चित् प्रमाणं दृश्यते क्वचित् ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शास्त्र-विपरीत कर्म करनेवालेको दण्ड देनेकी जो बात आती है, उसमें वे आर्षप्रमाण भी देखते हैं1। ऋषियोंके वचनोंके समान दूसरा कोई प्रमाण कहीं भी दिखायी नहीं देता॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

देवताश्च विकर्मस्थं पातयन्ति नराधमम्।
व्याजेन विन्दन् वित्तं हि धर्मात् स परिहीयते ॥ १८ ॥

मूलम्

देवताश्च विकर्मस्थं पातयन्ति नराधमम्।
व्याजेन विन्दन् वित्तं हि धर्मात् स परिहीयते ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

देवता भी विपरीत कर्ममें लगे हुए अधम मनुष्यको नरकोंमें गिराते हैं; अतः जो छलसे धन प्राप्त करता है, वह धर्मसे भ्रष्ट हो जाता है॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वतः सत्कृतः सद्भिर्भूतिप्रवरकारणैः ।
हृदयेनाभ्यनुज्ञातो यो धर्मस्तं व्यवस्यति ॥ १९ ॥

मूलम्

सर्वतः सत्कृतः सद्भिर्भूतिप्रवरकारणैः ।
हृदयेनाभ्यनुज्ञातो यो धर्मस्तं व्यवस्यति ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ऐश्वर्यकी प्राप्तिके जो प्रधान कारण हैं, ऐसे श्रेष्ठ पुरुष जिसका सब प्रकारसे सत्कार करते हैं तथा हृदयसे भी जिसका अनुमोदन होता है, राजा उसी धर्मका अनुष्ठान करे॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यश्चतुर्गुणसम्पन्नं धर्मं ब्रूयात् स धर्मवित्।
अहेरिव हि धर्मस्य पदं दुःखं गवेषितुम् ॥ २० ॥
यथा मृगस्य विद्धस्य पदमेकं पदं नयेत्।
लक्षेद् रुधिरलेपेन तथा धर्मपदं नयेत् ॥ २१ ॥

मूलम्

यश्चतुर्गुणसम्पन्नं धर्मं ब्रूयात् स धर्मवित्।
अहेरिव हि धर्मस्य पदं दुःखं गवेषितुम् ॥ २० ॥
यथा मृगस्य विद्धस्य पदमेकं पदं नयेत्।
लक्षेद् रुधिरलेपेन तथा धर्मपदं नयेत् ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो वेदविहित, स्मृतियोंद्वारा अनुमोदित, सज्जनोंद्वारा सेवित तथा अपनेको प्रिय लगनेवाला धर्म है, उसे चतुर्गुणसम्पन्न माना गया है। जो वैसे धर्मका उपदेश करता है, वही धर्मज्ञ है। सर्पके पदचिह्नकी भाँति धर्मके यथार्थ स्वरूपको ढूँढ़ निकालना बहुत कठिन है। जैसे बाणसे बिंधे हुए मृगका एक पैर पृथ्वीपर रक्तका लेप कर देनेके कारण व्याधको उस मृगके रहनेके स्थानको लक्षित कराकर वहाँ पहुँचा देता है, उसी प्रकार उक्त चतुर्गुणसम्पन्न धर्म भी धर्मके यथार्थ स्वरूपकी प्राप्ति करा देता है॥२०-२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं सद्भिर्विनीतेन पथा गन्तव्यमित्युत।
राजर्षीणां वृत्तमेतदवगच्छ युधिष्ठिर ॥ २२ ॥

मूलम्

एवं सद्भिर्विनीतेन पथा गन्तव्यमित्युत।
राजर्षीणां वृत्तमेतदवगच्छ युधिष्ठिर ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिर! इस प्रकार श्रेष्ठ पुरुष जिस मार्गसे गये हैं, उसीपर तुम्हें भी चलना चाहिये। इसीको तुम राजर्षियोंका सदाचार समझो॥२२॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि आपद्धर्मपर्वणि राजर्षिवृत्तं नाम द्वात्रिंशदधिकशततमोऽध्यायः ॥ १३२ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत आपद्धर्मपर्वमें राजर्षियोंका चरित्र नामक एक सौ बत्तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः
मूलम्

  1. यथा—गुरोरप्यवलिप्तस्य कार्याकार्यमजानतः। उत्पथं प्रतिपन्नस्य कार्यं भवति शासनम्॥अर्थात् घमंडमें आकर कर्तव्य और अकर्तव्यका विचार न करते हुए कुमार्गपर चलनेवाले गुरुको भी दण्ड देना आवश्यक है। ↩︎