भागसूचना
(आपद्धर्मपर्व)
एकत्रिंशदधिकशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
आपत्तिग्रस्त राजाके कर्तव्यका वर्णन
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्षीणस्य दीर्घसूत्रस्य सानुक्रोशस्य बन्धुषु।
परिशङ्कितवृत्तस्य श्रुतमन्त्रस्य भारत ॥ १ ॥
विभक्तपुरराष्ट्रस्य निर्द्रव्यनिचयस्य च ।
असम्भावितमित्रस्य भिन्नामात्यस्य सर्वशः ॥ २ ॥
परचक्राभियातस्य दुर्बलस्य बलीयसा ।
आपन्नचेतसो ब्रूहि किं कार्यमवशिष्यते ॥ ३ ॥
मूलम्
क्षीणस्य दीर्घसूत्रस्य सानुक्रोशस्य बन्धुषु।
परिशङ्कितवृत्तस्य श्रुतमन्त्रस्य भारत ॥ १ ॥
विभक्तपुरराष्ट्रस्य निर्द्रव्यनिचयस्य च ।
असम्भावितमित्रस्य भिन्नामात्यस्य सर्वशः ॥ २ ॥
परचक्राभियातस्य दुर्बलस्य बलीयसा ।
आपन्नचेतसो ब्रूहि किं कार्यमवशिष्यते ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिरने पूछा— भरतनन्दन! जिसकी सेना और धन-सम्पत्ति क्षीण हो गयी है, जो आलसी है, बन्धु-बान्धवोंपर अधिक दया रखनेके कारण उनके नाशकी आशंकासे जो उन्हें साथ लेकर शत्रुके साथ युद्ध नहीं कर सकता, जो मन्त्री आदिके चरित्रपर संदेह रखता है अथवा जिसका चरित्र स्वयं भी शंकास्पद है, जिसकी मन्त्रणा गुप्त नहीं रह सकी है, उसे दूसरे लोगोंने सुन लिया है, जिसके नगर और राष्ट्रको कई भागोंमें बाँटकर शत्रुओंने अपने अधीन कर लिया है, इसीलिये जिसके पास द्रव्यका भी संग्रह नहीं रह गया है, द्रव्याभावके कारण ही समादर न पानेसे जिसके मित्र साथ छोड़ चुके हैं, मन्त्री भी शत्रुओंद्वारा फोड़ लिये गये हैं, जिसपर शत्रुदलका आक्रमण हो गया हो, जो दुर्बल होकर बलवान् शत्रुके द्वारा पीड़ित हो और विपत्तिमें पड़कर जिसका चित्त घबरा उठा हो, उसके लिये कौन-सा कार्य शेष रह जाता है?—उसे इस संकटसे मुक्त होनेके लिये क्या करना चाहिये?॥१—३॥
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
बाह्यश्चेद् विजिगीषुः स्याद् धर्मार्थकुशलः शुचिः।
जवेन संधिं कुर्वीत पूर्वभुक्तान् विमोचयेत् ॥ ४ ॥
मूलम्
बाह्यश्चेद् विजिगीषुः स्याद् धर्मार्थकुशलः शुचिः।
जवेन संधिं कुर्वीत पूर्वभुक्तान् विमोचयेत् ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजीने कहा— राजन्! यदि विजयकी इच्छासे आक्रमण करनेवाला राजा बाहरका हो, उसका आचार-विचार शुद्ध हो तथा वह धर्म और अर्थके साधनमें कुशल हो तो शीघ्रतापूर्वक उसके साथ संधि कर लेनी चाहिये और जो ग्राम तथा नगर अपने पूर्वजोंके अधिकारमें रहे हों, वे यदि आक्रमणकारीके हाथमें चले गये हों तो उसे मधुर वचनोंद्वारा समझा-बुझाकर उसके हाथसे छुड़ानेकी चेष्टा करे॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
योऽधर्मविजिगीशुः स्याद् बलवान् पापनिश्चयः।
आत्मनः संनिरोधेन संधिं तेनापि रोचयेत् ॥ ५ ॥
मूलम्
योऽधर्मविजिगीशुः स्याद् बलवान् पापनिश्चयः।
आत्मनः संनिरोधेन संधिं तेनापि रोचयेत् ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो विजय चाहनेवाला शत्रु अधर्मपरायण हो तथा बलवान् होनेके साथ ही पापपूर्ण विचार रखता हो, उसके साथ अपना कुछ खोकर भी संधि कर लेनेकी ही इच्छा रखे॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अपास्य राजधानीं वा तरेद् द्रव्येण चापदम्।
तद्भावयुक्तो द्रव्याणि जीवन् पुनरुपार्जयेत् ॥ ६ ॥
मूलम्
अपास्य राजधानीं वा तरेद् द्रव्येण चापदम्।
तद्भावयुक्तो द्रव्याणि जीवन् पुनरुपार्जयेत् ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अथवा आवश्यकता हो तो अपनी राजधानीको भी छोड़कर बहुत-सा द्रव्य देकर उस विपत्तिसे पार हो जाय। यदि वह जीवित रहे तो राजोचित गुणसे युक्त होनेपर पुनः धनका उपार्जन कर सकता है॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यास्तु कोशबलत्यागाच्छक्यास्तरितुमापदः ।
कस्तत्राधिकमात्मानं संत्यजेदर्थधर्मवित् ॥ ७ ॥
मूलम्
यास्तु कोशबलत्यागाच्छक्यास्तरितुमापदः ।
कस्तत्राधिकमात्मानं संत्यजेदर्थधर्मवित् ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
खजाना और सेनाका त्याग कर देनेसे ही जहाँ विपत्तियोंको पार किया जा सके, ऐसी परिस्थितिमें कौन अर्थ और धर्मका ज्ञाता पुरुष अपनी सबसे अधिक मूल्यवान् वस्तु शरीरका त्याग करेगा?॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अवरोधान् जुगुप्सेत का सपत्नधने दया।
न त्वेवात्मा प्रदातव्यः शक्ये सति कथंचन ॥ ८ ॥
मूलम्
अवरोधान् जुगुप्सेत का सपत्नधने दया।
न त्वेवात्मा प्रदातव्यः शक्ये सति कथंचन ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शत्रुका आक्रमण हो जानेपर राजाको सबसे पहले अपने अन्तःपुरकी रक्षाका प्रयत्न करना चाहिये। यदि वहाँ शत्रुका अधिकार हो जाय, तब उधरसे अपनी मोह-ममता हटा लेनी चाहिये; क्योंकि शत्रुके अधिकारमें गये हुए धन और परिवारपर दया दिखाना किस कामका? जहाँतक सम्भव हो, अपने-आपको किसी तरह भी शत्रुके हाथमें नहीं फँसने देना चाहिये॥८॥
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
आभ्यन्तरे प्रकुपिते बाह्ये चोपनिपीडिते।
क्षीणे कोशे श्रुते मन्त्रे किं कार्यमवशिष्यते ॥ ९ ॥
मूलम्
आभ्यन्तरे प्रकुपिते बाह्ये चोपनिपीडिते।
क्षीणे कोशे श्रुते मन्त्रे किं कार्यमवशिष्यते ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिरने पूछा— पितामह! यदि बाहर राष्ट्र और दुर्ग आदिपर आक्रमण करके शत्रु उसे पीड़ा दे रहे हों और भीतर मन्त्री आदि भी कुपित हों, खजाना खाली हो गया हो और राजाका गुप्त रहस्य सबके कानोंमें पड़ गया हो, तब उसे क्या करना चाहिये?॥९॥
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्षिप्रं वा संधिकामः स्यात् क्षिप्रं वा तीक्ष्णविक्रमः।
तदापनयनं क्षिप्रमेतावत् साम्परायिकम् ॥ १० ॥
मूलम्
क्षिप्रं वा संधिकामः स्यात् क्षिप्रं वा तीक्ष्णविक्रमः।
तदापनयनं क्षिप्रमेतावत् साम्परायिकम् ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजीने कहा— राजन्! उस अवस्थामें राजा या तो शीघ्र ही संधिका विचार कर ले अथवा जल्दी-से-जल्दी दुःसह पराक्रम प्रकट करके शत्रुको राज्यसे निकाल बाहर करे, ऐसा उद्योग करते समय यदि कदाचित् मृत्यु भी हो जाय तो वह परलोकमें मंगलकारी होती है॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनुरक्तेन चेष्टेन हृष्टेन जगतीपतिः।
अल्पेनापि हि सैन्येन महीं जयति भूमिपः ॥ ११ ॥
मूलम्
अनुरक्तेन चेष्टेन हृष्टेन जगतीपतिः।
अल्पेनापि हि सैन्येन महीं जयति भूमिपः ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यदि सेना स्वामीके प्रति अनुराग रखनेवाली, प्रिय और हृष्ट-पुष्ट हो तो उस थोड़ी-सी सेनाके द्वारा भी राजा पृथ्वीपर विजय पा सकता है॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हतो वा दिवमारोहेद्धत्वा वा क्षितिमावसेत्।
युद्धे हि संत्यजन् प्राणान् शक्रस्यैति सलोकताम् ॥ १२ ॥
मूलम्
हतो वा दिवमारोहेद्धत्वा वा क्षितिमावसेत्।
युद्धे हि संत्यजन् प्राणान् शक्रस्यैति सलोकताम् ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यदि वह युद्धमें मारा जाय तो स्वर्गलोकके शिखरपर आरूढ़ हो सकता है अथवा यदि उसीने शत्रुको मार लिया तो वह पृथ्वीका राज्य भोग सकता है। जो युद्धमें प्राणोंका परित्याग करता है, वह इन्द्रलोकमें जाता है॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वलोकागमं कृत्वा मृदुत्वं गन्तुमेव च।
विश्वासाद् विनयं कुर्याद् विश्वसेच्चाप्युपायतः ॥ १३ ॥
मूलम्
सर्वलोकागमं कृत्वा मृदुत्वं गन्तुमेव च।
विश्वासाद् विनयं कुर्याद् विश्वसेच्चाप्युपायतः ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अथवा दुर्बल राजा शत्रुमें कोमलता लानेके लिये विपक्षके सभी लोगोंको संतुष्ट करके उनके मनमें विश्वास जमाकर उनसे युद्ध बंद करनेके लिये अनुनय-विनय करे और स्वयं भी उपायपूर्वक उनके ऊपर विश्वास करे॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अपचिक्रमिषुः क्षिप्रं साम्ना वा परिसान्त्वयन्।
विलङ्घयित्वा मन्त्रेण ततः स्वयमुपक्रमेत् ॥ १४ ॥
मूलम्
अपचिक्रमिषुः क्षिप्रं साम्ना वा परिसान्त्वयन्।
विलङ्घयित्वा मन्त्रेण ततः स्वयमुपक्रमेत् ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अथवा वह मधुर वचनोंद्वारा विरोधी दलके मन्त्री आदिको प्रसन्न करके दुर्गसे पलायन करनेका प्रयत्न करे। तदनन्तर कुछ काल व्यतीत करके श्रेष्ठ पुरुषोंकी सम्मति ले अपनी खोयी हुई सम्पत्ति अथवा राज्यको पुनः प्राप्त करनेका प्रयत्न आरम्भ करे॥१४॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि आपद्धर्मपर्वणि एकत्रिंशदधिकशततमोऽध्यायः ॥ १३१ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत आपद्धर्मपर्वमें एक सौ इकतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१३१॥