भागसूचना
त्रिंशदधिकशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
आपत्तिके समय राजाका धर्म
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
मित्रैः प्रहीयमाणस्य बह्वमित्रस्य का गतिः।
राज्ञः संक्षीणकोशस्य बलहीनस्य भारत ॥ १ ॥
मूलम्
मित्रैः प्रहीयमाणस्य बह्वमित्रस्य का गतिः।
राज्ञः संक्षीणकोशस्य बलहीनस्य भारत ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यधिष्ठिरने पूछा— भारत! यदि राजाके शत्रु अधिक हो जायँ, मित्र उसका साथ छोड़ने लगें और सेना तथा खजाना भी नष्ट हो जाय तो उसके लिये कौन-सा मार्ग हितकर है?॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दुष्टामात्यसहायस्य च्युतमन्त्रस्य सर्वतः ।
राज्यात् प्रच्यवमानस्य गतिमग्य्रामपश्यतः ॥ २ ॥
मूलम्
दुष्टामात्यसहायस्य च्युतमन्त्रस्य सर्वतः ।
राज्यात् प्रच्यवमानस्य गतिमग्य्रामपश्यतः ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
दुष्ट मन्त्री ही जिसका सहायक हो, इसीलिये जो श्रेष्ठ परामर्शसे भ्रष्ट हो गया हो एवं राज्यसे जिसके भ्रष्ट हो जानेकी सम्भावना हो और जिसे अपनी उन्नतिका कोई श्रेष्ठ उपाय न दिखायी देता हो, उसके लिये क्या कर्तव्य है?॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
परचक्राभियातस्य परराष्ट्राणि मृद्नतः ।
विग्रहे वर्तमानस्य दुर्बलस्य बलीयसा ॥ ३ ॥
मूलम्
परचक्राभियातस्य परराष्ट्राणि मृद्नतः ।
विग्रहे वर्तमानस्य दुर्बलस्य बलीयसा ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो शत्रुसेनापर आक्रमण करके शत्रुके राज्यको रौंद रहा हो; इतनेहीमें कोई बलवान् राजा उसपर भी चढ़ाई कर दे तो उसके साथ युद्धमें लगे हुए उस दुर्बल राजाके लिये क्या आश्रय है?॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
असंविहितराष्ट्रस्य देशकालावजानतः ।
अप्राप्यं च भवेत् सान्त्वं भेदो वाप्यतिपीडनात्।
जीवितं त्वर्थहेतुर्वा तत्र किं सुकृतं भवेत् ॥ ४ ॥
मूलम्
असंविहितराष्ट्रस्य देशकालावजानतः ।
अप्राप्यं च भवेत् सान्त्वं भेदो वाप्यतिपीडनात्।
जीवितं त्वर्थहेतुर्वा तत्र किं सुकृतं भवेत् ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिसने अपने राज्यकी रक्षा नहीं की हो, जिसे देश और कालका ज्ञान नहीं हो, अत्यन्त पीड़ा देनेके कारण जिसके लिये साम अथवा भेदनीतिका प्रयोग असम्भव हो जाय, उसके लिये क्या करना उचित है वह जीवनकी रक्षा करे या धनके साधनकी? उसके लिये क्या करनेमें भलाई है?॥४॥
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुह्यं धर्मज मा प्राक्षीरतीव भरतर्षभ।
अपृष्टो नोत्सहे वक्तुं धर्ममेतं युधिष्ठिर ॥ ५ ॥
मूलम्
गुह्यं धर्मज मा प्राक्षीरतीव भरतर्षभ।
अपृष्टो नोत्सहे वक्तुं धर्ममेतं युधिष्ठिर ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजीने कहा— धर्मनन्दन! भरतश्रेष्ठ युधिष्ठिर! यह तो तुमने मुझसे बड़ा गोपनीय विषय पूछा है। यदि तुम्हारे द्वारा प्रश्न न किया गया होता तो मैं इस समय इस संकटकालिक धर्मके विषयमें कुछ भी नहीं कह सकता था॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
धर्मो ह्यणीयान् वचनाद् बुद्धिश्च भरतर्षभ।
श्रुत्वोपास्य सदाचारैः साधुर्भवति स क्वचित् ॥ ६ ॥
मूलम्
धर्मो ह्यणीयान् वचनाद् बुद्धिश्च भरतर्षभ।
श्रुत्वोपास्य सदाचारैः साधुर्भवति स क्वचित् ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतभूषण! धर्मका विषय बड़ा सूक्ष्म है, शास्त्र-वचनोंके अनुशीलनसे उसका बोध होता है। शास्त्रश्रवण करनेके पश्चात् अपने सदाचरणोंद्वारा उसका सेवन करके साधुजीवन व्यतीत करनेवाला पुरुष कहीं कोई बिरला ही होता है॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कर्मणा बुद्धिपूर्वेण भवत्याढ्यो न वा पुनः।
तादृशोऽयमनुप्रश्नः संव्यवस्यः स्वया धिया ॥ ७ ॥
मूलम्
कर्मणा बुद्धिपूर्वेण भवत्याढ्यो न वा पुनः।
तादृशोऽयमनुप्रश्नः संव्यवस्यः स्वया धिया ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
बुद्धिपूर्वक किये हुए कर्म (प्रयत्न)-से मनुष्य धनाढ्य हो भी सकता है और नहीं भी हो सकता है। तुम्हें ऐसे प्रश्नपर स्वयं अपनी ही बुद्धिसे विचार करके किसी निश्चयपर पहुँचना चाहिये॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उपायं धर्मबहुलं यात्रार्थं शृणु भारत।
नाहमेतादृशं धर्मं बुभूषे धर्मकारणात् ॥ ८ ॥
मूलम्
उपायं धर्मबहुलं यात्रार्थं शृणु भारत।
नाहमेतादृशं धर्मं बुभूषे धर्मकारणात् ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भारत! उपर्युक्त संकटके समय राजाओंके जीवनकी रक्षाके लिये मैं ऐसा उपाय बताता हूँ जिसमें धर्मकी अधिकता है, उसे ध्यान देकर सुनो। परंतु मैं धर्माचरणके उद्देश्यसे ऐसे धर्मको नहीं अपनाना चाहता॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दुःखादान इह ह्येष स्यात् तु पश्चात् क्षयोपमः।
अभिगम्यमतीनां हि सर्वासामेव निश्चयः ॥ ९ ॥
मूलम्
दुःखादान इह ह्येष स्यात् तु पश्चात् क्षयोपमः।
अभिगम्यमतीनां हि सर्वासामेव निश्चयः ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आपत्तिके समय भी यदि प्रजाको दुःख देकर धन वसूल किया जाता है तो पीछे वह राजाके लिये विनाशके तुल्य सिद्ध होता है। आश्रय लेने योग्य जितनी बुद्धियाँ हैं, उन सबका यही निश्चय है॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथा यथा हि पुरुषो नित्यं शास्त्रमवेक्षते।
तथा तथा विजानाति विज्ञानमथ रोचते ॥ १० ॥
मूलम्
यथा यथा हि पुरुषो नित्यं शास्त्रमवेक्षते।
तथा तथा विजानाति विज्ञानमथ रोचते ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पुरुष प्रतिदिन जैसे-जैसे शास्त्रका स्वाध्याय करता है वैसे-वैसे उसका ज्ञान बढ़ता जाता है फिर तो विशेष ज्ञान प्राप्त करनेमें ही उसकी रुचि हो जाती है॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अविज्ञानादयोगो हि पुरुषस्योपजायते ।
विज्ञानादपि योगश्च योगो भूतिकरः परः ॥ ११ ॥
मूलम्
अविज्ञानादयोगो हि पुरुषस्योपजायते ।
विज्ञानादपि योगश्च योगो भूतिकरः परः ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ज्ञान न होनेसे मनुष्यको संकटकालमें उससे बचनेके लिये कोई योग्य उपाय नहीं सूझता; परंतु ज्ञानसे वह उपाय ज्ञात हो जाता है। उचित उपाय ही ऐश्वर्यकी वृद्धि करनेका श्रेष्ठ साधन है॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अशंकमानो वचनमनसूयुरिदं शृणु ।
राज्ञः कोशक्षयादेव जायते बलसंक्षयः ॥ १२ ॥
मूलम्
अशंकमानो वचनमनसूयुरिदं शृणु ।
राज्ञः कोशक्षयादेव जायते बलसंक्षयः ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तुम मेरी बातपर संदेह न करते हुए दोषदृष्टिका परित्याग करके यह उपदेश सुनो। खजानेके नष्ट होनेसे ही राजाके बलका नाश होता है॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कोशं च जनयेद् राजा निर्जलेभ्यो यथा जलम्।
कालं प्राप्यानुगृह्णीयादेष धर्मः सनातनः।
उपायधर्मं प्राप्येमं पूर्वैराचरितं जनैः ॥ १३ ॥
मूलम्
कोशं च जनयेद् राजा निर्जलेभ्यो यथा जलम्।
कालं प्राप्यानुगृह्णीयादेष धर्मः सनातनः।
उपायधर्मं प्राप्येमं पूर्वैराचरितं जनैः ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे मनुष्य निर्जल स्थानोंसे भी खोदकर जल निकाल लेता है उसी प्रकार राजा संकटकालमें निर्धन प्रजासे भी यथासाध्य धन लेकर अपना खजाना बढ़ावे; फिर अच्छा समय आनेपर उस धनके द्वारा प्रजापर अनुग्रह करे, यही सनातनकालसे चला आनेवाला धर्म है। पूर्ववर्ती राजाओंने भी आपत्तिकालमें इस उपायधर्मको पाकर इसका आचरण किया है॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अन्यो धर्मः समर्थानामापत्स्वन्यश्च भारत।
प्राक्कोशात् प्राप्यते धर्मो वृत्तिर्धर्माद् गरीयसी ॥ १४ ॥
मूलम्
अन्यो धर्मः समर्थानामापत्स्वन्यश्च भारत।
प्राक्कोशात् प्राप्यते धर्मो वृत्तिर्धर्माद् गरीयसी ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भारत! सार्म्थ्यशाली पुरुषोंका धर्म दूसरा है और आपत्तिग्रस्त मनुष्योंका दूसरा। अतः पहले कोशसंग्रह कर लेनेपर राजाके लिये धर्मपालनका अवसर प्राप्त होता है; क्योंकि जीवन-निर्वाहका साधन प्राप्त करना धर्मसे भी बड़ा है॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
धर्मं प्राप्य न्यायवृत्तिं न बलीयान् न विन्दति।
यस्माद् बलस्योपपत्तिरेकान्तेन न विद्यते ॥ १५ ॥
तस्मादापत्स्वधर्मोऽपि श्रूयते धर्मलक्षणः ।
अधर्मो जायते तस्मिन्निति वै कवयो विदुः ॥ १६ ॥
मूलम्
धर्मं प्राप्य न्यायवृत्तिं न बलीयान् न विन्दति।
यस्माद् बलस्योपपत्तिरेकान्तेन न विद्यते ॥ १५ ॥
तस्मादापत्स्वधर्मोऽपि श्रूयते धर्मलक्षणः ।
अधर्मो जायते तस्मिन्निति वै कवयो विदुः ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
दुर्बल मनुष्य धर्मको पाकर भी न्यायोचित्त जीविका नहीं उपलब्ध कर पाता है। धर्माचरण करनेसे बलकी प्राप्ति अवश्य हो जायगी, यह निश्चितरूपसे नहीं कहा जा सकता; इसलिये आपत्तिकालमें अधर्म भी धर्मरूप सुना जाता है। परंतु विद्वान् पुरुष ऐसा मानते हैं कि आपत्तिकालमें भी धर्मके विरुद्ध आचरण करनेसे अधर्म होता ही है॥१५-१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनन्तरं क्षत्रियस्य तत्र किं विचिकित्स्यते।
यथास्य धर्मो न ग्लायेन्नेयाच्छत्रुवशं यथा।
तत् कर्तव्यमिहेत्याहुर्नात्मानवसादयेत् ॥ १७ ॥
मूलम्
अनन्तरं क्षत्रियस्य तत्र किं विचिकित्स्यते।
यथास्य धर्मो न ग्लायेन्नेयाच्छत्रुवशं यथा।
तत् कर्तव्यमिहेत्याहुर्नात्मानवसादयेत् ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आपत्ति दूर होनेके बाद क्षत्रियको क्या करना चाहिये? वह प्रायश्चित्त करे या प्रजासे कर लेना छोड़ दे; यह संशय उपस्थित होता है। इसका समाधान यह है कि वह ऐसा बर्ताव करे जिससे उसके धर्मको हानि न पहुँचे तथा उसे शत्रुके अधीन न होना पड़े। विद्वानोंने उसके लिये यही कर्तव्य बतलाया है, वह किसी तरह अपने-आपको संकटमें न डाले॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वात्मनैव धर्मस्य न परस्य न चात्मनः।
सर्वोपायैरुज्जिहीर्षेदात्मानमिति निश्चयः ॥ १८ ॥
मूलम्
सर्वात्मनैव धर्मस्य न परस्य न चात्मनः।
सर्वोपायैरुज्जिहीर्षेदात्मानमिति निश्चयः ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
संकटकालमें मनुष्य अपने या दूसरेके धर्मकी ओर न देखे; अपितु सम्पूर्ण हृदयसे सभी उपायोंद्वारा अपने आपके ही उद्धारकी अभिलाषा करे, यही सबका निश्चय है॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्र धर्मविदां तात निश्चयो धर्मनैपुणम्।
उद्यमो नैपुणं क्षात्रे बाहुवीर्यादिति श्रुतिः ॥ १९ ॥
मूलम्
तत्र धर्मविदां तात निश्चयो धर्मनैपुणम्।
उद्यमो नैपुणं क्षात्रे बाहुवीर्यादिति श्रुतिः ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तात! धर्मज्ञ पुरुषोंका निश्चय जैसे उनकी धर्म-विषयक निपुणताको सूचित करता है, उसी प्रकार बाहुबलसे अपनी उन्नतिके लिये उद्योग करना क्षत्रियकी निपुणताका सूचक है; यह श्रुतिका निर्णय है॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्षत्रियो वृत्तिसंरोधे कस्य नादातुमर्हति।
अन्यत्र तापसस्वाच्च ब्राह्मणस्वाच्च भारत ॥ २० ॥
मूलम्
क्षत्रियो वृत्तिसंरोधे कस्य नादातुमर्हति।
अन्यत्र तापसस्वाच्च ब्राह्मणस्वाच्च भारत ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतनन्दन! क्षत्रिय यदि आजीविकासे रहित हो जाय तो वह तपस्वी और ब्राह्मणका धन छोड़कर और किसका धन नहीं ले सकता है (अर्थात् सभीका ले सकता है)॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथा वै ब्राह्मणः सीदन्नयाज्यमपि याजयेत्।
अभोज्यान्नानि चाश्नीयात् तथेदं नात्र संशयः ॥ २१ ॥
मूलम्
यथा वै ब्राह्मणः सीदन्नयाज्यमपि याजयेत्।
अभोज्यान्नानि चाश्नीयात् तथेदं नात्र संशयः ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे ब्राह्मण यदि जीविकाके अभावमें कष्ट पा रहा हो तो वह यज्ञके अनधिकारीसे भी यज्ञ करा सकता है तथा प्राण बचानेके लिये न खाने योग्य अन्नको भी खा सकता है, उसी प्रकार यह (पूर्वश्लोकमें) क्षत्रियके लिये भी कर्तव्यका निर्देश किया गया है। इसमें संशय नहीं है॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पीडितस्य किमद्वारमुत्पथो विधृतस्य च।
अद्वारतः प्रद्रवति यदा भवति पीडितः ॥ २२ ॥
मूलम्
पीडितस्य किमद्वारमुत्पथो विधृतस्य च।
अद्वारतः प्रद्रवति यदा भवति पीडितः ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आपद्ग्रस्त मनुष्यके लिये कौन-सा द्वार नहीं है? (वह जिस ओरसे निकल भागे, वही उसके लिये द्वार है)। कैदीके लिये कौन-सा बुरा मार्ग है (वह बिना मार्गके भी भागकर आत्मरक्षा कर सके तो ऐसा प्रयत्न कर सकता है)। मनुष्य जब आपत्तिमें घिरा होता है तब वह बिना दरवाजेके भी भाग निकलता है॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यस्य कोशबलग्लान्या सर्वलोकपराभवः ।
भैक्ष्यचर्या न विहिता न च विट् शूद्रजीविका ॥ २३ ॥
मूलम्
यस्य कोशबलग्लान्या सर्वलोकपराभवः ।
भैक्ष्यचर्या न विहिता न च विट् शूद्रजीविका ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
खजाना और सेना न रहनेसे जिस क्षत्रियको सब लोगोंकी ओरसे पराभव प्राप्त होनेकी सम्भावना हो, उसीके लिये उपर्युक्त बातें बतायी गयी हैं। भीख माँगने और वैश्य या शूद्रकी जीविका अपनानेका क्षत्रियके लिये विधान नहीं है॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वधर्मानन्तरा वृत्तिर्जात्याननुपजीवतः ।
जहतः प्रथमं कल्पमनुकल्पेन जीवनम् ॥ २४ ॥
मूलम्
स्वधर्मानन्तरा वृत्तिर्जात्याननुपजीवतः ।
जहतः प्रथमं कल्पमनुकल्पेन जीवनम् ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
परंतु जब अपनी जातिके लिये प्रतिपादित धर्मका अवलम्बन करके जीवन-निर्वाह न कर सके तब उसके लिये स्वधर्मसे विपरीत वृत्ति भी बतायी गयी है। क्योंकि आपत्तिकालमें प्रथम कल्प अर्थात् स्वधर्मानुकूल वृत्तिका त्याग करनेवाले पुरुषके लिये अपनेसे नीचे वर्णकी वृत्तिसे जीविका चलानेका विधान है॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आपद्गतेन धर्माणामन्यायेनोपजीवनम् ।
अपि ह्येतद् ब्राह्मणेषु दृष्टं वृत्तिपरिक्षये ॥ २५ ॥
मूलम्
आपद्गतेन धर्माणामन्यायेनोपजीवनम् ।
अपि ह्येतद् ब्राह्मणेषु दृष्टं वृत्तिपरिक्षये ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो आपत्तिमें पड़ा हो वह धर्मके विपरीत आचरणद्वारा जीवन-निर्वाह कर सकता है। जीविका क्षीण होनेपर ब्राह्मणोंमें ऐसा व्यवहार देखा गया है॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्षत्रिये संशयः कस्मादित्येवं निश्चितं सदा।
आददीत विशिष्टेभ्यो नावसीदेत् कथंचन ॥ २६ ॥
मूलम्
क्षत्रिये संशयः कस्मादित्येवं निश्चितं सदा।
आददीत विशिष्टेभ्यो नावसीदेत् कथंचन ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
फिर क्षत्रियके लिये कैसे संदेह किया जा सकता है? उसके लिये भी सदा यही निश्चित है कि वह आपत्तिकालमें विशिष्ट अर्थात् धनवान् पुरुषोंसे बलपूर्वक धन ग्रहण करे। धनके अभावमें वह किसी तरह कष्ट न भोगे॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हन्तारं रक्षितारं च प्रजानां क्षत्रियं विदुः।
तस्मात् संरक्षता कार्यमादानं क्षत्रबन्धुना ॥ २७ ॥
मूलम्
हन्तारं रक्षितारं च प्रजानां क्षत्रियं विदुः।
तस्मात् संरक्षता कार्यमादानं क्षत्रबन्धुना ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
विद्वान् पुरुष क्षत्रियको प्रजाका रक्षक और विनाशक भी मानते हैं। अतः क्षत्रियबन्धुको प्रजाकी रक्षा करते हुए ही धन ग्रहण करना चाहिये॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अन्यत्र राजन् हिंसाया वृत्तिर्नेहास्ति कस्यचित्।
अप्यरण्यसमुत्थस्य एकस्य चरतो मुनेः ॥ २८ ॥
मूलम्
अन्यत्र राजन् हिंसाया वृत्तिर्नेहास्ति कस्यचित्।
अप्यरण्यसमुत्थस्य एकस्य चरतो मुनेः ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! इस संसारमें किसीकी भी ऐसी वृत्ति नहीं है, जो हिंसासे शून्य हो। औरोंकी तो बात ही क्या है, वनमें रहकर एकाकी विचरनेवाले तपस्वी मुनिकी भी वृत्ति सर्व था हिंसारहित नहीं है॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न शंखलिखितां वृत्तिं शक्यमास्थाय जीवितुम्।
विशेषतः कुरुश्रेष्ठ प्रजापालनमीप्सया ॥ २९ ॥
मूलम्
न शंखलिखितां वृत्तिं शक्यमास्थाय जीवितुम्।
विशेषतः कुरुश्रेष्ठ प्रजापालनमीप्सया ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुरुश्रेष्ठ! कोई भी ललाटमें लिखी हुई वृत्तिका ही भरोसा करके जीवन-निर्वाह नहीं कर सकता; अतः प्रजापालनकी इच्छा रखनेवाले राजाका भाग्यके भरोसे निर्वाह चलाना तो सर्वथा अशक्य है॥२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
परस्परं हि संरक्षा राज्ञा राष्ट्रेण चापदि।
नित्यमेव हि कर्तव्या एष धर्मः सनातनः ॥ ३० ॥
मूलम्
परस्परं हि संरक्षा राज्ञा राष्ट्रेण चापदि।
नित्यमेव हि कर्तव्या एष धर्मः सनातनः ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसलिये आपत्तिकालमें राजा और राज्यकी प्रजा दोनोंको निरन्तर एक-दूसरेकी रक्षा करनी चाहिये। यही सदाका धर्म है॥३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
राजा राष्ट्रं यथाऽऽपत्सु द्रव्यौघैरपि रक्षति।
राष्ट्रेण राजा व्यसने रक्षितव्यस्तथा भवेत् ॥ ३१ ॥
मूलम्
राजा राष्ट्रं यथाऽऽपत्सु द्रव्यौघैरपि रक्षति।
राष्ट्रेण राजा व्यसने रक्षितव्यस्तथा भवेत् ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे राजा प्रजापर संकट आ जाय तो राशि-राशि धन लुटाकर भी उसकी रक्षा करता है, उसी तरह राजाके ऊपर संकट पड़नेपर राष्ट्रकी प्रजाको भी उसकी रक्षा करनी चाहिये॥३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कोशं दण्डं बलं मित्रं यदन्यदपि संचितम्।
न कुर्वीतान्तरं राष्ट्रे राजा परिगतः क्षुधा ॥ ३२ ॥
मूलम्
कोशं दण्डं बलं मित्रं यदन्यदपि संचितम्।
न कुर्वीतान्तरं राष्ट्रे राजा परिगतः क्षुधा ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजा भूखसे पीड़ित होने—जीविकाके लिये कष्ट पानेपर भी खजाना, राजदण्ड, सेना, मित्र तथा अन्य संचित साधनोंको कभी राज्यसे दूर न करे॥३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बीजं भक्तेन सम्पाद्यमिति धर्मविदो विदुः।
अत्रैतच्छम्बरस्याहुर्महामायस्य दर्शनम् ॥ ३३ ॥
मूलम्
बीजं भक्तेन सम्पाद्यमिति धर्मविदो विदुः।
अत्रैतच्छम्बरस्याहुर्महामायस्य दर्शनम् ॥ ३३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
धर्मज्ञ पुरुषोंका कहना है कि मनुष्यको अपने भोजनके लिये संचित अन्नमेंसे भी बीजको बचाकर रखना चाहिये। इस विषयमें महामायावी शम्बरासुरका विचार भी ऐसा ही बताया गया है॥३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
धिक् तस्य जीवितं राज्ञो राष्ट्रं यस्यावसीदति।
अवृत्त्यान्यमनुष्योऽपि यो वैदेशिक इत्यपि ॥ ३४ ॥
मूलम्
धिक् तस्य जीवितं राज्ञो राष्ट्रं यस्यावसीदति।
अवृत्त्यान्यमनुष्योऽपि यो वैदेशिक इत्यपि ॥ ३४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिसके राज्यकी प्रजा तथा वहाँ आये हुए परदेशी मनुष्य भी जीविकाके बिना कष्ट पा रहे हों उस राजाके जीवनको धिक्कार है॥३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
राज्ञः कोशबलं मूलं कोशमूलं पुनर्बलम्।
तन्मूलं सर्वधर्माणां धर्ममूलाः पुनः प्रजाः ॥ ३५ ॥
मूलम्
राज्ञः कोशबलं मूलं कोशमूलं पुनर्बलम्।
तन्मूलं सर्वधर्माणां धर्ममूलाः पुनः प्रजाः ॥ ३५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजाकी जड़ है सेना और खजाना। इनमें भी खजाना ही सेनाकी जड़ है। सेना सम्पूर्ण धर्मोंकी रक्षाका मूल कारण है और धर्म ही प्रजाकी जड़ है॥३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नान्यानपीडयित्वेह कोशः शक्यः कुतो बलम्।
तदर्थं पीडयित्वा च दोषं प्राप्तुं न सोऽर्हति ॥ ३६ ॥
मूलम्
नान्यानपीडयित्वेह कोशः शक्यः कुतो बलम्।
तदर्थं पीडयित्वा च दोषं प्राप्तुं न सोऽर्हति ॥ ३६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
दूसरोंको पीड़ा दिये बिना धनका संग्रह नहीं किया जा सकता; और धन-संग्रहके बिना सेनाका संग्रह कैसे हो सकता है? अतः आपत्तिकालमें कोश या धन-संग्रहके लिये प्रजाको पीड़ा देकर भी राजा दोषका भागी नहीं हो सकता॥३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अकार्यमपि यज्ञार्थं क्रियते यज्ञकर्मसु।
एतस्मात् कारणाद् राजा न दोषं प्राप्तमर्हति ॥ ३७ ॥
मूलम्
अकार्यमपि यज्ञार्थं क्रियते यज्ञकर्मसु।
एतस्मात् कारणाद् राजा न दोषं प्राप्तमर्हति ॥ ३७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे यज्ञकर्मोंमें यज्ञके लिये वह कार्य भी किया जाता है जो करनेयोग्य नहीं है (किंतु वह दोषयुक्त नहीं माना जाता)। उसी प्रकार आपत्तिकालमें प्रजापीडनसे राजाको दोष नहीं लगता है॥३७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अर्थार्थमन्यद् भवति विपरीतमथापरम् ।
अनर्थार्थमथाप्यन्यत् तत् सर्वं ह्यर्थकारणम्।
एवं बुद्ध्या सम्प्रपश्येन्मेधावी कार्यनिश्चयम् ॥ ३८ ॥
मूलम्
अर्थार्थमन्यद् भवति विपरीतमथापरम् ।
अनर्थार्थमथाप्यन्यत् तत् सर्वं ह्यर्थकारणम्।
एवं बुद्ध्या सम्प्रपश्येन्मेधावी कार्यनिश्चयम् ॥ ३८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आपत्तिकालमें प्रजापीडन अर्थसंग्रहरूप प्रयोजनका साधक होनेके कारण अर्थकारक होता है, इसके विपरीत उसे पीड़ा न देना ही अनर्थकारक हो जाता है। इसी प्रकार जो दूसरे अनर्थकारी (व्यय बढ़ानेवाले सैन्य-संग्रह आदि) कार्य हैं, वे भी युद्धका संकट उपस्थित होनेपर अर्थकारी (विजय साधक) सिद्ध होते हैं। बुद्धिमान् पुरुष इस प्रकार बुद्धिसे विचार करके कर्तव्यका निश्चय करे॥३८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यज्ञार्थमन्यद् भवति यज्ञोऽन्यार्थस्तथा परः।
यज्ञस्यार्थार्थमेवान्यत् तत् सर्वं यज्ञसाधनम् ॥ ३९ ॥
मूलम्
यज्ञार्थमन्यद् भवति यज्ञोऽन्यार्थस्तथा परः।
यज्ञस्यार्थार्थमेवान्यत् तत् सर्वं यज्ञसाधनम् ॥ ३९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे अन्यान्य सामग्रियाँ यज्ञकी सिद्धिके लिये होती हैं, उत्तम यज्ञ किसी और ही प्रयोजनके लिये होता है, यज्ञ-सम्बन्धी अन्यान्य बातें भी किसी-न-किसी विशेष उद्देश्यकी सिद्धिके लिये ही होती हैं, तथा यह सब कुछ यज्ञका साधन ही है॥३९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उपमामत्र वक्ष्यामि धर्मतत्त्वप्रकाशिनीम् ।
यूपं छिन्दन्ति यज्ञार्थं तत्र ये परिपन्थिनः ॥ ४० ॥
द्रुमाः केचन सामन्ता ध्रुवं छिन्दन्ति तानपि।
ते चापि निपतन्तोऽन्यान् निघ्नन्त्येव वनस्पतीन् ॥ ४१ ॥
मूलम्
उपमामत्र वक्ष्यामि धर्मतत्त्वप्रकाशिनीम् ।
यूपं छिन्दन्ति यज्ञार्थं तत्र ये परिपन्थिनः ॥ ४० ॥
द्रुमाः केचन सामन्ता ध्रुवं छिन्दन्ति तानपि।
ते चापि निपतन्तोऽन्यान् निघ्नन्त्येव वनस्पतीन् ॥ ४१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अब मैं यहाँ धर्मके तत्त्वको प्रकाशित करनेवाली एक उपमा बता रहा हूँ। ब्राह्मणलोग यज्ञके लिये यूप निर्माण करनेके उद्देश्यसे वृक्षका छेदन करते हैं। उस वृक्षको काटकर बाहर निकालनेमें जो-जो पार्श्ववर्ती वृक्ष बाधक होते हैं उन्हें भी निश्चय ही वे काट डालते हैं। वे वृक्ष भी गिरते समय दूसरे-दूसरे वनस्पतियोंको भी प्रायः तोड़ ही डालते हैं॥४०-४१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं कोशस्य महतो ये नराः परिपन्थिनः।
तानहत्वा न पश्यामि सिद्धिमत्र परंतप ॥ ४२ ॥
मूलम्
एवं कोशस्य महतो ये नराः परिपन्थिनः।
तानहत्वा न पश्यामि सिद्धिमत्र परंतप ॥ ४२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
परंतप! इस प्रकार जो मनुष्य (प्रजारक्षाके लिये किये जानेवाले) महान् कोशके संग्रहमें बाधा उपस्थित करते हैं, उनका वध किये बिना इस कार्यमें मुझे सफलता होती नहीं दिखायी देती॥४२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
धनेन जयते लोकावुभौ परमिमं तथा।
सत्यं च धर्मवचनं यथा नास्त्यधनस्तथा ॥ ४३ ॥
मूलम्
धनेन जयते लोकावुभौ परमिमं तथा।
सत्यं च धर्मवचनं यथा नास्त्यधनस्तथा ॥ ४३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
धनसे मनुष्य इहलोक और परलोक दोनोंपर विजय पाता है तथा सत्य और धर्मका भी सम्पादन कर लेता है, परंतु निर्धनको इस कार्यमें वैसी सफलता नहीं मिलती। उसका अस्तित्व नहीं के बराबर होता है॥४३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वोपायैराददीत धनं यज्ञप्रयोजनम् ।
न तुल्यदोषः स्यादेवं कार्याकार्येषु भारत ॥ ४४ ॥
मूलम्
सर्वोपायैराददीत धनं यज्ञप्रयोजनम् ।
न तुल्यदोषः स्यादेवं कार्याकार्येषु भारत ॥ ४४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतनन्दन! यज्ञ करनेके उद्देश्यको लेकर सभी उपायोंसे धनका संग्रह करे; इस प्रकार करने और न करने योग्य कर्म बन जानेपर भी कर्ताको अन्य अवसरोंके समान दोष नहीं लगता॥४४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नैतौ सम्भवतो राजन् कथंचिदपि पार्थिव।
न ह्यरण्येषु पश्यामि धनवृद्धानहं क्वचित् ॥ ४५ ॥
मूलम्
नैतौ सम्भवतो राजन् कथंचिदपि पार्थिव।
न ह्यरण्येषु पश्यामि धनवृद्धानहं क्वचित् ॥ ४५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! पृथ्वीनाथ! धनका संग्रह और उसका त्याग—ये दोनों एक व्यक्तिमें एक ही साथ किसी तरह नहीं रह सकते; क्योंकि मैं वनमें रहनेवाले त्यागी महात्माओंको कहीं भी धनमें बढ़ा-चढ़ा नहीं देखता॥४५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदिदं दृश्यते वित्तं पृथिव्यामिह किंचन।
ममेदं स्यान्ममेदं स्यादित्येवं कांक्षते जनः ॥ ४६ ॥
मूलम्
यदिदं दृश्यते वित्तं पृथिव्यामिह किंचन।
ममेदं स्यान्ममेदं स्यादित्येवं कांक्षते जनः ॥ ४६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यहाँ इस पृथ्वीपर यह जो कुछ भी धन देखा जाता है, ‘यह मेरा हो जाय, यह मेरा हो जाय’, ऐसी ही अभिलाषा सभी लोगोंको रहती है॥४६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न च राज्यसमो धर्मः कश्चिदस्ति परंतप।
धर्मः संशब्दितो राज्ञामापदर्थमतोऽन्यथा ॥ ४७ ॥
मूलम्
न च राज्यसमो धर्मः कश्चिदस्ति परंतप।
धर्मः संशब्दितो राज्ञामापदर्थमतोऽन्यथा ॥ ४७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
परंतप! राजाके लिये राज्यकी रक्षाके समान दूसरा कोई धर्म नहीं है। अभी जिस धर्मकी चर्चा की गयी है, वह केवल राजाओंके लिये आपत्तिकालमें ही आचरणमें लाने योग्य है; अन्यथा नहीं॥४७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दानेन कर्मणा चान्ये तपसान्ये तपस्विनः।
बुद्ध्या दाक्ष्येण चैवान्ये विन्दन्ति धनसंचयान् ॥ ४८ ॥
मूलम्
दानेन कर्मणा चान्ये तपसान्ये तपस्विनः।
बुद्ध्या दाक्ष्येण चैवान्ये विन्दन्ति धनसंचयान् ॥ ४८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुछ लोग दानसे, कुछ लोग यज्ञकर्म करनेसे, कुछ तपस्वी तपस्या करनेसे, कुछ लोग बुद्धिसे और अन्य बहुत-से मनुष्य कार्यकौशलसे धनराशि प्राप्त कर लेते हैं॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अधनं दुर्बलं प्राहुर्धनेन बलवान् भवेत्।
सर्वं धनवता प्राप्यं सर्वं तरति कोशवान् ॥ ४९ ॥
मूलम्
अधनं दुर्बलं प्राहुर्धनेन बलवान् भवेत्।
सर्वं धनवता प्राप्यं सर्वं तरति कोशवान् ॥ ४९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
निर्धनको दुर्बल कहा जाता है। धनसे मनुष्य बलवान् होता है। धनवान्को सब कुछ सुलभ है। जिसके पास खजाना है, वह सारे संकटोंसे पार हो जाता है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कोशेन धर्मः कामश्च परलोकस्तथा ह्ययम्।
तं च धर्मेण लिप्सेत नाधर्मेण कदाचन ॥ ५० ॥
मूलम्
कोशेन धर्मः कामश्च परलोकस्तथा ह्ययम्।
तं च धर्मेण लिप्सेत नाधर्मेण कदाचन ॥ ५० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
धन-संचयसे ही धर्म, काम, लोक तथा परलोककी सिद्धि होती है। उस धनको धर्मसे ही पानेकी इच्छा करे, अधर्मसे कभी नहीं॥५०॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि राजधर्मानुशासनपर्वणि त्रिंशदधिकशततमोऽध्यायः ॥ १३० ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्वमें एक सौ तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१३०॥