१२९ यमगौतमसंवादे

भागसूचना

एकोनत्रिंशदधिकशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

यम और गौतमका संवाद

मूलम् (वचनम्)

युधिष्ठिर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

नामृतस्येव पर्याप्तिर्ममास्ति ब्रुवति त्वयि।
यथा हि स्वात्मवृत्तिस्थस्तथा तृप्तोऽस्मि भारत ॥ १ ॥

मूलम्

नामृतस्येव पर्याप्तिर्ममास्ति ब्रुवति त्वयि।
यथा हि स्वात्मवृत्तिस्थस्तथा तृप्तोऽस्मि भारत ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युधिष्ठिरने कहा— भरतनन्दन! जैसे अमृतको पीनेसे इच्छा पूर्ण नहीं होती, और भी पीनेकी इच्छा बढ़ती जाती है, उसी प्रकार जब आप उपदेश करने लगते हैं, उस समय उसे सुननेसे मेरा मन नहीं भरता है। जैसे परमात्माके ध्यानमें निमग्न हुआ योगी परमानन्दसे तृप्त हो जाता है, उसी प्रकार मैं भी अत्यन्त तृप्तिका अनुभव करता हूँ॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मात् कथय भूयस्त्वं धर्ममेव पितामह।
न हि तृप्तिमहं यामि पिबन् धर्मामृतं हि ते॥२॥

मूलम्

तस्मात् कथय भूयस्त्वं धर्ममेव पितामह।
न हि तृप्तिमहं यामि पिबन् धर्मामृतं हि ते॥२॥

अनुवाद (हिन्दी)

अतः पितामह! आप पुनः धर्मकी ही बात बताइये। आपके धर्मोपदेशरूपी अमृतका पान करते समय मुझे यह नहीं अनुभव होता है कि बस, अब पूरा हो गया, बल्कि सुननेकी प्यास और बढ़ती ही जाती है॥२॥

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् ।
गौतमस्य च संवादं यमस्य च महात्मनः ॥ ३ ॥

मूलम्

अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम् ।
गौतमस्य च संवादं यमस्य च महात्मनः ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजीने कहा— युधिष्ठिर! इस धर्मके विषयमें भी विज्ञ पुरुष गौतम तथा महात्मा यमके संवादरूप एक प्राचीन इतिहासका उदाहरण दिया करते हैं॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पारियात्रं गिरिं प्राप्य गौतमस्याश्रमो महान्।
उवास गौतमो यं च कालं तमपि मे शृणु॥४॥

मूलम्

पारियात्रं गिरिं प्राप्य गौतमस्याश्रमो महान्।
उवास गौतमो यं च कालं तमपि मे शृणु॥४॥

अनुवाद (हिन्दी)

पारियात्रनामक पर्वतपर महर्षि गौतमका महान् आश्रम है। उसमें गौतम जितने समयतक रहे, वह भी मुझसे सुनो॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

षष्टिं वर्षसहस्राणि सोऽतप्यद् गौतमस्तपः।
तमुग्रतपसा युक्तं भावितं सुमहामुनिम् ॥ ५ ॥
उपयातो नरव्याघ्र लोकपालो यमस्तदा।
तमपश्यत् सुतपसमृषिं वै गौतमं तदा ॥ ६ ॥

मूलम्

षष्टिं वर्षसहस्राणि सोऽतप्यद् गौतमस्तपः।
तमुग्रतपसा युक्तं भावितं सुमहामुनिम् ॥ ५ ॥
उपयातो नरव्याघ्र लोकपालो यमस्तदा।
तमपश्यत् सुतपसमृषिं वै गौतमं तदा ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

गौतमने उस आश्रममें साठ हजार वर्षोंतक तपस्या की। नरश्रेष्ठ! एक दिन उग्र तपस्यामें लगे हुए पवित्र महात्मा महामुनि गौतमके पास लोकपाल यम स्वयं आये। उन्होंने वहाँ आकर उत्तम तपस्वी गौतम ऋषिको देखा॥५-६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स तं विदित्वा ब्रह्मर्षिर्यममागतमोजसा।
प्राञ्जलिः प्रयतो भूत्वा उपविष्टस्तपोधनः ॥ ७ ॥

मूलम्

स तं विदित्वा ब्रह्मर्षिर्यममागतमोजसा।
प्राञ्जलिः प्रयतो भूत्वा उपविष्टस्तपोधनः ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्रह्मर्षि गौतमने वहाँ आये हुए यमराजको उनके तेजसे ही जान लिया। फिर वे तपोधन मुनि हाथ जोड़ संयतचित्त हो उनके पास जा बैठे॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तं धर्मराजो दृष्ट्‌वैव सत्कृत्यैव द्विजर्षभम्।
न्यमन्त्रयत धर्मेण क्रियतां किमिति ब्रुवन् ॥ ८ ॥

मूलम्

तं धर्मराजो दृष्ट्‌वैव सत्कृत्यैव द्विजर्षभम्।
न्यमन्त्रयत धर्मेण क्रियतां किमिति ब्रुवन् ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

धर्मराजने विप्रवर गौतमको देखते ही उनका सत्कार किया और मैं आपकी क्या सेवा करूँ? ऐसा कहते हुए उन्हें धर्मचर्चा सुननेके लिये सम्मति प्रदान की॥८॥

मूलम् (वचनम्)

गौतम उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

मातापितृभ्यामानृण्यं कि कृत्वा समवाप्नुयात्।
कथं च लोकानाप्नोति पुरुषो दुर्लभान् शुचीन् ॥ ९ ॥

मूलम्

मातापितृभ्यामानृण्यं कि कृत्वा समवाप्नुयात्।
कथं च लोकानाप्नोति पुरुषो दुर्लभान् शुचीन् ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब गौतमने कहा— भगवन्! मनुष्य कौन-सा कर्म करके माता-पिताके ऋणसे उऋण हो सकता है? और किस प्रकार उसे दुर्लभ एवं पवित्र लोकोंकी प्राप्ति होती है?॥९॥

मूलम् (वचनम्)

यम उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

तपःशौचवता नित्यं सत्यधर्मरतेन च।
मातापित्रोरहरहः पूजनं कार्यमञ्जसा ॥ १० ॥

मूलम्

तपःशौचवता नित्यं सत्यधर्मरतेन च।
मातापित्रोरहरहः पूजनं कार्यमञ्जसा ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यमराजने कहा— ब्रह्मन्! मनुष्य तप करे, बाहर-भीतरसे पवित्र रहे और सदा सत्यभाषणरूप धर्मके पालनमें तत्पर रहे। यह सब करते हुए ही उसे नित्यप्रति माता-पिताकी सेवा-पूजा करनी चाहिये॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अश्वमेधैश्च यष्टव्यं बहुभिः स्वाप्तदक्षिणैः।
तेन लोकानवाप्नोति पुरुषोऽद्भुतदर्शनान् ॥ ११ ॥

मूलम्

अश्वमेधैश्च यष्टव्यं बहुभिः स्वाप्तदक्षिणैः।
तेन लोकानवाप्नोति पुरुषोऽद्भुतदर्शनान् ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजाको तो पर्याप्त दक्षिणाओंसे युक्त अनेक अश्वमेध यज्ञोंका अनुष्ठान भी करना चाहिये। ऐसा करनेसे पुरुष अद्‌भुत दृश्योंसे सम्पन्न पुण्यलोकोंको प्राप्त कर लेता है॥११॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि राजधर्मानुशासनपर्वणि यमगौतमसंवादे एकोनत्रिंशदधिकशततमोऽध्यायः ॥ १२९ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्वमें यम और गौतमका संवादविषयक एक सौ उनतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१२९॥