१२८ ऋषभगीतासु

भागसूचना

अष्टाविंशत्यधिकशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

तनु मुनिका राजा वीरद्युम्नको आशाके स्वरूपका परिचय देना और ऋषभके उपदेशसे सुमित्रका आशाको त्याग देना

मूलम् (वचनम्)

राजोवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

वीरद्युम्न इति ख्यातो राजाहं दिक्षु विश्रुतः।
भूरिद्युम्नं सुतं नष्टमन्वेष्टुं वनमागतः ॥ १ ॥

मूलम्

वीरद्युम्न इति ख्यातो राजाहं दिक्षु विश्रुतः।
भूरिद्युम्नं सुतं नष्टमन्वेष्टुं वनमागतः ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजाने कहा— मुने! मैं सम्पूर्ण दिशाओंमें विख्यात वीरद्युम्न नामक राजा हूँ और खोये हुए अपने पुत्र भूरिद्युम्नकी खोज करनेके लिये वनमें आया हूँ॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एकः पुत्रः स विप्राग्र्य बाल एव च मेऽनघ।
न दृश्यते वने चास्मिंस्तमन्वेष्टुं चराम्यहम् ॥ २ ॥

मूलम्

एकः पुत्रः स विप्राग्र्य बाल एव च मेऽनघ।
न दृश्यते वने चास्मिंस्तमन्वेष्टुं चराम्यहम् ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

निष्पाप विप्रवर! मेरे एक ही वह पुत्र था। वह भी बालक ही था। इस वनमें आनेपर वह कहीं दिखायी नहीं दे रहा है, उसीको खोजनेके लिये मैं चारों ओर विचर रहा हूँ॥२॥

मूलम् (वचनम्)

ऋषभ उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

इत्येवमुक्ते वचने राज्ञा मुनिरधोमुखः।
तूष्णीमेवाभवत् तत्र न च प्रत्युक्तवान् नृपम् ॥ ३ ॥

मूलम्

इत्येवमुक्ते वचने राज्ञा मुनिरधोमुखः।
तूष्णीमेवाभवत् तत्र न च प्रत्युक्तवान् नृपम् ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ऋषभ कहते हैं— राजन्! राजाके ऐसा कहनेपर वे मुनि नीचे मुँह किये चुपचाप बैठे ही रह गये। राजाको कुछ उत्तर न दे सके॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स हि तेन पुरा विप्रो राज्ञा नात्यर्थमानितः।
आशाकृतश्च राजेन्द्र तपो दीर्घं समाश्रितः ॥ ४ ॥
प्रतिग्रहमहं राज्ञां न करिष्ये कथञ्चन।
अन्येषां चैव वर्णानामिति कृत्वा धियं तदा ॥ ५ ॥

मूलम्

स हि तेन पुरा विप्रो राज्ञा नात्यर्थमानितः।
आशाकृतश्च राजेन्द्र तपो दीर्घं समाश्रितः ॥ ४ ॥
प्रतिग्रहमहं राज्ञां न करिष्ये कथञ्चन।
अन्येषां चैव वर्णानामिति कृत्वा धियं तदा ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजेन्द्र! पूर्वकालमें कभी उसी राजाने उन्हीं ऋषिका विशेष आदर नहीं किया था। उनकी आशा भंग कर दी थी। इससे वे मुनि ‘मैं किसी प्रकार भी किसी राजा या दूसरे वर्णके लोगोंका दिया हुआ दान नहीं ग्रहण करूँगा’ ऐसा निश्चय करके दीर्घकालीन तपस्यामें लग गये थे॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आशा हि पुरुषं बालमुत्थापयति तस्थुषी।
तामहं व्यपनेष्यामि इति कृत्वा व्यवस्थितः।
वीरद्युम्नस्तु तं भूयः पप्रच्छ मुनिसत्तमम् ॥ ६ ॥

मूलम्

आशा हि पुरुषं बालमुत्थापयति तस्थुषी।
तामहं व्यपनेष्यामि इति कृत्वा व्यवस्थितः।
वीरद्युम्नस्तु तं भूयः पप्रच्छ मुनिसत्तमम् ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

बहुत कालतक रहनेवाली आशा मूर्ख मनुष्यको ही उद्यमशील बनाती है। मैं उसे दूर कर दूँगा। ऐसा निश्चय करके वे तपस्यामें स्थिर हो गये थे। इधर वीरद्युम्नने उन मुनिश्रेष्ठसे पुनः प्रश्न किया॥६॥

मूलम् (वचनम्)

राजोवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

आशायाः किं कृशत्वं च किं चेह भुवि दुर्लभम्।
ब्रवीतु भगवानेतत् त्वं हि धर्मार्थदर्शिवान् ॥ ७ ॥

मूलम्

आशायाः किं कृशत्वं च किं चेह भुवि दुर्लभम्।
ब्रवीतु भगवानेतत् त्वं हि धर्मार्थदर्शिवान् ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजा बोले— विप्रवर! आप धर्म और अर्थके ज्ञाता हैं, अतः यह बतानेकी कृपा करें कि आशासे बढ़कर दुर्बलता क्या है? और इस पृथ्वीपर सबसे दुर्लभ क्या है?॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः संस्मृत्य तत् सर्वं स्मारयिष्यन्निवाब्रवीत्।
राजानं भगवान् विप्रस्ततः कृशतनुस्तदा ॥ ८ ॥

मूलम्

ततः संस्मृत्य तत् सर्वं स्मारयिष्यन्निवाब्रवीत्।
राजानं भगवान् विप्रस्ततः कृशतनुस्तदा ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब उन दुर्बल शरीरवाले पूज्यपाद ऋषिने पहलेकी सारी बातोंको याद करके राजाको भी उनका स्मरण दिलाते हुए-से इस प्रकार कहा॥८॥

मूलम् (वचनम्)

ऋषिरुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

कृशत्वेन समं राजन्नाशाया विद्यते नृप।
तस्या वै दुर्लभत्वाच्च प्रार्थिताः पार्थिवा मया ॥ ९ ॥

मूलम्

कृशत्वेन समं राजन्नाशाया विद्यते नृप।
तस्या वै दुर्लभत्वाच्च प्रार्थिताः पार्थिवा मया ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ऋषि बोले— नरेश्वर! आशा या आशावान्‌की दुर्बलताके समान और किसीकी दुर्बलता नहीं है। जिस वस्तुकी आशा की जाती है, उसकी दुर्लभताके कारण ही मैंने बहुत-से राजाओंके यहाँ याचना की है॥९॥

मूलम् (वचनम्)

राजोवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

कृशाकृशे मया बह्मन् गृहीते वचनात् तव।
दुर्लभत्वं च तस्यैव वेदवाक्यमिव द्विज ॥ १० ॥

मूलम्

कृशाकृशे मया बह्मन् गृहीते वचनात् तव।
दुर्लभत्वं च तस्यैव वेदवाक्यमिव द्विज ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजाने कहा— ब्रह्मन्! मैंने आपके कहनेसे यह अच्छी तरह समझ लिया कि जो आशासे बँधा हुआ है, वह दुर्बल है और जिसने आशाको जीत लिया है, वह पुष्ट है। द्विजश्रेष्ठ! आपकी इस बातको भी मैंने वेदवाक्यकी भाँति ग्रहण किया कि जिस वस्तुकी आशा की जाती है, वह अत्यन्त दुर्लभ होती है॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

संशयस्तु महाप्राज्ञ संजातो हृदये मम।
तन्मुने मम तत्त्वेन वक्तुमर्हसि पृच्छतः ॥ ११ ॥

मूलम्

संशयस्तु महाप्राज्ञ संजातो हृदये मम।
तन्मुने मम तत्त्वेन वक्तुमर्हसि पृच्छतः ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाप्राज्ञ! मुने! किंतु मेरे मनमें एक संशय है, जिसे पूछ रहा हूँ। आप उसे यथार्थरूपसे बतानेकी कृपा करें॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वत्तः कृशतरं किं नु ब्रवीतु भगवानिदम्।
यदि गुह्यं न ते किञ्चिद् विद्यते मुनिसत्तम ॥ १२ ॥

मूलम्

त्वत्तः कृशतरं किं नु ब्रवीतु भगवानिदम्।
यदि गुह्यं न ते किञ्चिद् विद्यते मुनिसत्तम ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मुनिश्रेष्ठ! यदि कोई वस्तु आपके लिये गोपनीय या छिपानेयोग्य न हो तो आप यह बतावें कि आपसे भी बढ़कर अत्यन्त दुर्बल वस्तु क्या है?॥१२॥

मूलम् (वचनम्)

कृश उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

दुर्लभोऽप्यथवा नास्ति योऽर्थी धृतिमवाप्नुयात्।
स दुर्लभतरस्तात योऽर्थिनं नावमन्यते ॥ १३ ॥

मूलम्

दुर्लभोऽप्यथवा नास्ति योऽर्थी धृतिमवाप्नुयात्।
स दुर्लभतरस्तात योऽर्थिनं नावमन्यते ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

दुर्बल शरीरवाले मुनिने कहा— तात! जो याचक धैर्य धारण कर सके अर्थात् किसी वस्तुकी आवश्यकता होनेपर भी उसके लिये किसीसे याचना न करे, वह दुर्लभ है एवं जो याचना करनेवाले याचककी अवहेलना न करे—आदरपूर्वक उसकी इच्छा पूर्ण करे, ऐसा पुरुष संसारमें अत्यन्त दुर्लभ है॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सत्कृत्य नोपकुरुते परं शक्त्या यथार्हतः।
या सक्ता सर्वभूतेषु साऽऽशा कृशतरी मया ॥ १४ ॥

मूलम्

सत्कृत्य नोपकुरुते परं शक्त्या यथार्हतः।
या सक्ता सर्वभूतेषु साऽऽशा कृशतरी मया ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब मनुष्य सत्कार करके याचकको आशा दिलाकर भी उसका शक्तिके अनुसार यथायोग्य उपकार नहीं करता, उस स्थितिमें सम्पूर्ण भूतोंके मनमें जो आशा होती है, वह मुझसे भी अत्यन्त कृश होती है॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कृतघ्नेषु च या सक्ता नृशंसेष्वलसेषु च।
अपकारिषु चासक्ता साऽऽशा कृशतरी मया ॥ १५ ॥

मूलम्

कृतघ्नेषु च या सक्ता नृशंसेष्वलसेषु च।
अपकारिषु चासक्ता साऽऽशा कृशतरी मया ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कृतघ्न, नृशंस, आलसी तथा दूसरोंका अपकार करनेवाले पुरुषोंमें जो आशा होती है, वह (कभी पूर्ण न होनेके कारण चिन्तासे दुर्बल बना देती है; इसलिये वह) मुझसे भी अत्यन्त कृश है॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एकपुत्रः पिता पुत्रे नष्टे वा प्रोषितेऽपि वा।
प्रवृत्तिं यो न जानाति साऽऽशा कृशतरी मया ॥ १६ ॥

मूलम्

एकपुत्रः पिता पुत्रे नष्टे वा प्रोषितेऽपि वा।
प्रवृत्तिं यो न जानाति साऽऽशा कृशतरी मया ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इकलौते बेटेका बाप जब अपने पुत्रके खो जाने या परदेशमें चले जानेपर उसका कोई समाचार नहीं जान पाता, तब उसके मनमें जो आशा रहती है, वह मुझसे भी अत्यन्त कृश होती है॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रसवे चैव नारीणां वृद्धानां पुत्रकारिता।
तथा नरेन्द्र धनिनां साऽऽशा कृशतरी मया ॥ १७ ॥

मूलम्

प्रसवे चैव नारीणां वृद्धानां पुत्रकारिता।
तथा नरेन्द्र धनिनां साऽऽशा कृशतरी मया ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नरेन्द्र! वृद्ध अवस्थावाली नारियोंके हृदयमें जो पुत्र पैदा होनेके लिये आशा बनी रहती है तथा धनियोंके मनमें जो अधिकाधिक धनलाभकी आशा रहती है, वह मुझसे अत्यन्त कृश है॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रदानकांक्षिणीनां च कन्यानां वयसि स्थिते।
श्रुत्वा कथास्तथायुक्ताः साऽऽशा कृशतरी मया ॥ १८ ॥

मूलम्

प्रदानकांक्षिणीनां च कन्यानां वयसि स्थिते।
श्रुत्वा कथास्तथायुक्ताः साऽऽशा कृशतरी मया ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तरुण अवस्था आनेपर विवाहकी चर्चा सुनकर ब्याहकी इच्छा रखनेवाली कन्याओंके हृदयमें जो आशा होती है, वह मुझसे भी अत्यन्त कृश होती है1॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतच्छ्रुत्वा ततो राजन् स राजा सावरोधनः।
संस्पृश्य पादौ शिरसा निपपात द्विजर्षभम् ॥ १९ ॥

मूलम्

एतच्छ्रुत्वा ततो राजन् स राजा सावरोधनः।
संस्पृश्य पादौ शिरसा निपपात द्विजर्षभम् ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! ब्राह्मणश्रेष्ठ उस ऋषिकी वह बात सुनकर राजा अपनी रानीके साथ उनके चरणोंका मस्तकसे स्पर्श करके वहीं गिर पड़े॥१९॥

मूलम् (वचनम्)

राजोवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रसादये त्वां भगवन् पुत्रेणेच्छामि संगमम्।
यदेतदुक्तं भवता सम्प्रति द्विजसत्तम ॥ २० ॥
सत्यमेतन्न संदेहो यदेतद् व्याहृतं त्वया।

मूलम्

प्रसादये त्वां भगवन् पुत्रेणेच्छामि संगमम्।
यदेतदुक्तं भवता सम्प्रति द्विजसत्तम ॥ २० ॥
सत्यमेतन्न संदेहो यदेतद् व्याहृतं त्वया।

अनुवाद (हिन्दी)

राजा बोले— भगवन्! मैं आपको प्रसन्न करना चाहता हूँ। मुझे अपने पुत्रसे मिलनेकी बड़ी इच्छा है। द्विजश्रेष्ठ! आपने मुझसे इस समय जो कुछ कहा है, आपका यह सारा कथन सत्य है, इसमें संदेह नहीं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः प्रहस्य भगवांस्तनुर्धर्मभृतां वरः ॥ २१ ॥
पुत्रमस्यानयत् क्षिप्रं तपसा च श्रुतेन च।

मूलम्

ततः प्रहस्य भगवांस्तनुर्धर्मभृतां वरः ॥ २१ ॥
पुत्रमस्यानयत् क्षिप्रं तपसा च श्रुतेन च।

अनुवाद (हिन्दी)

तब धर्मात्माओंमें श्रेष्ठ भगवान् तनुने हँसकर अपनी तपस्या और शास्त्रज्ञानके प्रभावसे राजकुमारको शीघ्र वहाँ बुला दिया॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स समानीय तत्पुत्रं तमुपालभ्य पार्थिवम् ॥ २२ ॥
आत्मानं दर्शयामास धर्मं धर्मभृतां वरः।

मूलम्

स समानीय तत्पुत्रं तमुपालभ्य पार्थिवम् ॥ २२ ॥
आत्मानं दर्शयामास धर्मं धर्मभृतां वरः।

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार उनके पुत्रको वहाँ बुलाकर तथा राजाको उलाहना देकर धर्मात्माओंमें श्रेष्ठ तनु मुनिने उन्हें अपने साक्षात् धर्मस्वरूपका दर्शन कराया॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स दर्शयित्वा चात्मानं दिव्यमद्भुतदर्शनम्।
विपाप्मा विगतक्रोधश्चचार वनमन्तिकात् ॥ २३ ॥

मूलम्

स दर्शयित्वा चात्मानं दिव्यमद्भुतदर्शनम्।
विपाप्मा विगतक्रोधश्चचार वनमन्तिकात् ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

दिव्य और अद्‌भुत दिखायी देनेवाले अपने स्वरूपका उन्हें दर्शन कराकर क्रोध और पापसे रहित तनु मुनि निकटवर्ती वनमें चले गये॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतद् दृष्टं मया राजंस्तथा च वचनं श्रुतम्।
आशामपनयस्वाशु ततः कृशतरीमिमाम् ॥ २४ ॥

मूलम्

एतद् दृष्टं मया राजंस्तथा च वचनं श्रुतम्।
आशामपनयस्वाशु ततः कृशतरीमिमाम् ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ऋषभ मुनि कहते हैं—राजन्! मैंने यह सब कुछ अपनी आँखों देखा है और मुनिका वह कथन भी अपने कानों सुना है। ऐसे ही तुम भी शरीरको अत्यन्त कृश बना देनेवाली इस मृगविषयक दुराशाको शीघ्र ही त्याग दो॥२४॥

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

स तथोक्तस्तदा राजन् ऋषभेण महात्मना।
सुमित्रोऽपनयत् क्षिप्रमाशां कृशतरीं ततः ॥ २५ ॥

मूलम्

स तथोक्तस्तदा राजन् ऋषभेण महात्मना।
सुमित्रोऽपनयत् क्षिप्रमाशां कृशतरीं ततः ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजी कहते हैं— राजन्! महात्मा ऋषभके ऐसा कहनेपर सुमित्रने शरीरको अत्यन्त दुर्बल बनानेवाली वह आशा तुरंत ही त्याग दी॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं त्वमपि कौन्तेय श्रुत्वा वाणीमिमां मम।
स्थिरो भव महाराज हिमवानिव पर्वतः ॥ २६ ॥

मूलम्

एवं त्वमपि कौन्तेय श्रुत्वा वाणीमिमां मम।
स्थिरो भव महाराज हिमवानिव पर्वतः ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! कुन्तीकुमार! तुम भी मेरा यह कथन सुनकर आशाको त्याग दो और हिमालय पर्वतके समान स्थिर हो जाओ॥२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वं हि प्रष्टा च श्रोता च कृच्छ्रेष्वनुगतेष्विह।
श्रुत्वा मम महाराज न संतप्तुमिहार्हसि ॥ २७ ॥

मूलम्

त्वं हि प्रष्टा च श्रोता च कृच्छ्रेष्वनुगतेष्विह।
श्रुत्वा मम महाराज न संतप्तुमिहार्हसि ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! ऐसे संकट उपस्थित होनेपर भी तुम यहाँ उपयुक्त प्रश्न करते और उनका योग्य उत्तर सुनते हो; इसलिये दुर्योधनके साथ जो संधि न हो सकी, उसको लेकर तुम्हें संतप्त नहीं होना चाहिये॥२७॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि राजधर्मानुशासनपर्वणि ऋषभगीतासु अष्टाविंशत्यधिकशततमोऽध्यायः ॥ १२८ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्वमें ऋषभगीताविषयक एक सौ अट्ठाईसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१२८॥


  1. आशाको अत्यन्त कृश कहनेका तात्पर्य यह है कि वह मनुष्यको अत्यन्त कृश बना देती है। ↩︎