भागसूचना
सप्तविंशत्यधिकशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
ऋषभका राजा सुमित्रको वीरद्युम्न और तनु मुनिका वृत्तान्त सुनाना
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततस्तेषां समस्तानामृषीणामृषिसत्तमः ।
ऋषभो नाम विप्रर्षिर्विस्मयन्निदमब्रवीत् ॥ १ ॥
मूलम्
ततस्तेषां समस्तानामृषीणामृषिसत्तमः ।
ऋषभो नाम विप्रर्षिर्विस्मयन्निदमब्रवीत् ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजी कहते हैं— युधिष्ठिर! तदनन्तर उन समस्त ऋषियोंमेंसे मुनिश्रेष्ठ ब्रह्मर्षि ऋषभने विस्मित होकर इस प्रकार कहा—॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुराहं राजशार्दूल तीर्थान्यनुचरन् प्रभो।
समासादितवान् दिव्यं नरनारायणाश्रमम् ॥ २ ॥
मूलम्
पुराहं राजशार्दूल तीर्थान्यनुचरन् प्रभो।
समासादितवान् दिव्यं नरनारायणाश्रमम् ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नृपश्रेष्ठ! पहलेकी बात है, मैं सब तीर्थोंमें विचरण करता हुआ भगवान् नरनारायणके दिव्य आश्रममें जा पहुँचा॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यत्र सा बदरी रम्या ह्रदो वैहायसस्तथा।
यत्र चाश्वशिरा राजन् वेदान् पठति शाश्वतान् ॥ ३ ॥
मूलम्
यत्र सा बदरी रम्या ह्रदो वैहायसस्तथा।
यत्र चाश्वशिरा राजन् वेदान् पठति शाश्वतान् ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘राजन्! जहाँ वह रमणीय बदरीका वृक्ष है, जहाँ वैहायस1 कुण्ड है तथा जहाँ अश्वशिरा (हयग्रीव) सनातन वेदोंका पाठ करते हैं (वहीं नरनारायणाश्रम है)॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मिन् सरसि कृत्वाहं विधिवत् तर्पणं पुरा।
पितॄणां देवतानां च ततोऽऽश्रममियां तदा ॥ ४ ॥
रेमाते यत्र तौ नित्यं नरनारायणावृषी।
मूलम्
तस्मिन् सरसि कृत्वाहं विधिवत् तर्पणं पुरा।
पितॄणां देवतानां च ततोऽऽश्रममियां तदा ॥ ४ ॥
रेमाते यत्र तौ नित्यं नरनारायणावृषी।
अनुवाद (हिन्दी)
उस वैहायस कुण्डमें स्नान करके मैंने विधिपर्वूक देवताओं और पितरोंका तर्पण किया। उसके बाद उस आश्रममें प्रवेश किया, जहाँ मुनिवर नर और नारायण नित्य सानन्द निवास करते हैं॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अदूरादाश्रमं कञ्चिद् वासार्थमगमं तदा ॥ ५ ॥
तत्र चीराजिनधरं कृशमुच्चमतीव च।
अद्राक्षमृषिमायान्तं तनुं नाम तपोधनम् ॥ ६ ॥
मूलम्
अदूरादाश्रमं कञ्चिद् वासार्थमगमं तदा ॥ ५ ॥
तत्र चीराजिनधरं कृशमुच्चमतीव च।
अद्राक्षमृषिमायान्तं तनुं नाम तपोधनम् ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसके बाद वहाँसे निकट ही एक-दूसरे आश्रममें मैं ठहरनेके लिये गया। वहाँ मुझे तनु नामवाले एक तपोधन ऋषि आते दिखायी दिये, जो चीर और मृगचर्म धारण किये हुए थे। उनका शरीर बहुत ऊँचा और अत्यन्त दुर्बल था॥५-६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अन्यैर्नरैर्महाबाहो वपुषाष्टगुणान्वितम् ।
कृशता चापि राजर्षे न दृष्टा तादृशी क्वचित् ॥ ७ ॥
मूलम्
अन्यैर्नरैर्महाबाहो वपुषाष्टगुणान्वितम् ।
कृशता चापि राजर्षे न दृष्टा तादृशी क्वचित् ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाबाहो! उन महर्षिका शरीर दूसरे मनुष्योंसे आठ गुना लंबा था। राजर्षे! मैंने उनकी-जैसी दुर्बलता कहीं भी नहीं देखी है॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शरीरमपि राजेन्द्र तस्य कानिष्ठिकासमम्।
ग्रीवा बाहू तथा पादौ केशाश्चाद्भुतदर्शनाः ॥ ८ ॥
मूलम्
शरीरमपि राजेन्द्र तस्य कानिष्ठिकासमम्।
ग्रीवा बाहू तथा पादौ केशाश्चाद्भुतदर्शनाः ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘राजेन्द्र। उनका शरीर भी कनिष्ठिका अंगुलीके समान पतला था। उनकी गर्दन, दोनों भुजाएँ, दोनों पैर और सिरके बाल भी अद्भुत दिखायी देते थे॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शिरः कायानुरूपं च कर्णौ नेत्रे तथैव च।
तस्य वाक्चैव चेष्टा च सामान्ये राजसत्तम ॥ ९ ॥
मूलम्
शिरः कायानुरूपं च कर्णौ नेत्रे तथैव च।
तस्य वाक्चैव चेष्टा च सामान्ये राजसत्तम ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शरीरके अनुरूप ही उनके मस्तक, कान और नेत्र भी थे। नृपश्रेष्ठ! उनकी वाणी और चेष्टा साधारण थी॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दृष्ट्वाहं तं कृश विप्रं भीतः परमदुर्मनाः।
पादौ तस्याभिवाद्याथ स्थितः प्राञ्जलिरग्रतः ॥ १० ॥
मूलम्
दृष्ट्वाहं तं कृश विप्रं भीतः परमदुर्मनाः।
पादौ तस्याभिवाद्याथ स्थितः प्राञ्जलिरग्रतः ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैं उन दुबले-पतले ब्राह्मणको देखकर डर गया और मन-ही-मन बहुत दुखी हो गया; फिर उनके चरणोंमें प्रणाम करके दोनों हाथ जोड़कर उनके आगे खड़ा हो गया॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निवेद्य नामगोत्रे च पितरं च नरर्षभ।
प्रदिष्टे चासने तेन शनैरहमुपाविशम् ॥ ११ ॥
मूलम्
निवेद्य नामगोत्रे च पितरं च नरर्षभ।
प्रदिष्टे चासने तेन शनैरहमुपाविशम् ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नरश्रेष्ठ! उनके सामने नाम, गोत्र और पिताका परिचय देकर उन्हींके दिये हुए आसन पर धीरेसे बैठ गया॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः स कथयामास कथां धर्मार्थसंहिताम्।
ऋषिमध्ये महाराज तनुर्धर्मभृतां वरः ॥ १२ ॥
मूलम्
ततः स कथयामास कथां धर्मार्थसंहिताम्।
ऋषिमध्ये महाराज तनुर्धर्मभृतां वरः ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! तदनन्तर धर्मात्माओंमें श्रेष्ठ तनु ऋषियोंके बीचमें बैठकर धर्म और अर्थसे युक्त कथा कहने लगे॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मिंस्तु कथयत्येव राजा राजीवलोचनः।
उपायाज्जवनैरश्वैः सबलः सावरोधनः ॥ १३ ॥
मूलम्
तस्मिंस्तु कथयत्येव राजा राजीवलोचनः।
उपायाज्जवनैरश्वैः सबलः सावरोधनः ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनके कथा कहते समय ही कमलके समान नेत्रोंवाले एक नरेश वेगशाली घोड़ोंद्वारा अपनी सेना और अन्तःपुरके साथ वहाँ आ पहुँचे॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्मरन् पुत्रमरण्ये वै नष्टं परमदुर्मनाः।
भूरिद्युम्नपिता श्रीमान् वीरद्युम्नो महायशाः ॥ १४ ॥
मूलम्
स्मरन् पुत्रमरण्ये वै नष्टं परमदुर्मनाः।
भूरिद्युम्नपिता श्रीमान् वीरद्युम्नो महायशाः ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनका पुत्र जंगलमें खो गया था। उसकी याद करके वे बहुत दुखी हो रहे थे। उनके पुत्रका नाम था भूरिद्युम्न और वे उसके महायशस्वी पिता श्रीमान् वीरद्युम्न थे॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इह द्रक्ष्यामि तं पुत्रं द्रक्ष्यामीहेति पार्थिवः।
एवमाशाहृतो राजा चरन् वनमिदं पुरा ॥ १५ ॥
मूलम्
इह द्रक्ष्यामि तं पुत्रं द्रक्ष्यामीहेति पार्थिवः।
एवमाशाहृतो राजा चरन् वनमिदं पुरा ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यहाँ उस पुत्रको अवश्य देखूँगा। यहाँ वह निश्चय ही दिखायी देगा। इसी आशासे बँधे हुए पृथ्वीपति राजा वीरद्युम्न उन दिनों उस वनमें विचर रहे थे॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दुर्लभः स मया द्रष्टुं नूनं परमधार्मिकः।
एकः पुत्रो महारण्ये नष्ट इत्यसकृत् तदा ॥ १६ ॥
मूलम्
दुर्लभः स मया द्रष्टुं नूनं परमधार्मिकः।
एकः पुत्रो महारण्ये नष्ट इत्यसकृत् तदा ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘वह बड़ा धर्मात्मा था। अब उसका दर्शन होना अवश्य ही मेरे लिये दुर्लभ है। एक ही बेटा था, वह भी इस विशाल वनमें खो गया’ इन्हीं बातोंको वे बार-बार दुहराते थे॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दुर्लभः स मया द्रष्टुमाशा च महती मम।
तया परीतगात्रोऽहं मुमूर्षुर्नात्र संशयः ॥ १७ ॥
मूलम्
दुर्लभः स मया द्रष्टुमाशा च महती मम।
तया परीतगात्रोऽहं मुमूर्षुर्नात्र संशयः ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मेरे लिये उसका दर्शन दुर्लभ है तो भी मेरे मनमें उसके मिलनेकी बड़ी भारी आशा लगी हुई है। उस आशाने मेरे सम्पूर्ण शरीरपर अधिकार कर लिया है। इसमें संदेह नहीं कि मैं उसके लिये मौतको भी स्वीकार कर लेना चाहता हूँ’॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतच्छ्रुत्वा तु भगवांस्तनुर्मुनिवरोत्तमः ।
अवाक्शिरा ध्यानपरो मुहूर्तमिव तस्थिवान् ॥ १८ ॥
मूलम्
एतच्छ्रुत्वा तु भगवांस्तनुर्मुनिवरोत्तमः ।
अवाक्शिरा ध्यानपरो मुहूर्तमिव तस्थिवान् ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजाकी यह बात सुनकर मुनियोंमें श्रेष्ठ भगवान् तनु नीचे सिर किये ध्यानमग्न हो दो घड़ीतक चुपचाप बैठे रह गये॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तमनुध्यान्तमालक्ष्य राजा परमदुर्मनाः ।
उवाच वाक्यं दीनात्मा मन्दं मन्दमिवासकृत् ॥ १९ ॥
मूलम्
तमनुध्यान्तमालक्ष्य राजा परमदुर्मनाः ।
उवाच वाक्यं दीनात्मा मन्दं मन्दमिवासकृत् ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनको चिन्तन करते देख परम दुखी हुए नरेश दीनहृदय हो मन्द-मन्द वाणीमें बारंबार इस प्रकार कहने लगे—॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दुर्लभं किं नु देवर्षें आशायाश्चैव किं महत्।
ब्रवीतु भगवानेतद् यदि गुह्यं न ते मयि ॥ २० ॥
मूलम्
दुर्लभं किं नु देवर्षें आशायाश्चैव किं महत्।
ब्रवीतु भगवानेतद् यदि गुह्यं न ते मयि ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘देवर्षे! कौन वस्तु दुर्लभ है? और आशासे भी बड़ा क्या है? यदि आपकी दृष्टिमें यह बात मुझसे छिपानेयोग्य न हो तो आप इसे अवश्य बतावें’॥२०॥
मूलम् (वचनम्)
मुनिरुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
महर्षिर्भगवांस्तेन पूर्वमासीद् विमानितः ।
बालिशां बुद्धिमास्थाय मन्दभाग्यतयाऽऽत्मनः ॥ २१ ॥
मूलम्
महर्षिर्भगवांस्तेन पूर्वमासीद् विमानितः ।
बालिशां बुद्धिमास्थाय मन्दभाग्यतयाऽऽत्मनः ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब मुनिने कहा— राजन्! आपके उस पुत्रने पहले कभी मूढ़ बुद्धिका आश्रय लेकर अपने दुर्भाग्यके कारण एक पूजनीय महर्षिका अपमान कर दिया था॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अर्थयन् कलशं राजन् काञ्चनं वल्कलानि च।
अवज्ञापूर्वकेनापि न सम्पादितवांस्ततः ।
निर्विण्णः स तु विप्रर्षिर्निसशः समपद्यत ॥ २२ ॥
मूलम्
अर्थयन् कलशं राजन् काञ्चनं वल्कलानि च।
अवज्ञापूर्वकेनापि न सम्पादितवांस्ततः ।
निर्विण्णः स तु विप्रर्षिर्निसशः समपद्यत ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! वे उससे एक सुवर्णमय कलश और वल्कल माँग रहे थे। आपके पुत्रने अवहेलना करके भी महर्षिकी वह इच्छा पूरी नहीं की; इससे वे विप्र ऋषि अत्यन्त खिन्न और निराश हो गये थे॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमुक्तोऽभिवाद्याथ तमृषिं लोकपूजितम् ।
श्रान्तोऽवसीदद् धर्मात्मा यथा त्वं नरसत्तम ॥ २३ ॥
मूलम्
एवमुक्तोऽभिवाद्याथ तमृषिं लोकपूजितम् ।
श्रान्तोऽवसीदद् धर्मात्मा यथा त्वं नरसत्तम ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
(ऋषभ कहते हैं—) नरश्रेष्ठ! उनके ऐसा कहनेपर उन लोकपूजित महर्षिको प्रणाम करके धर्मात्मा राजा वीरद्युम्न तुम्हारे ही समान थककर शिथिल हो गये॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अर्घ्यं ततः समानीय पाद्यं चैव महानृषिः।
आरण्येनैव विधिना राज्ञे सर्वं न्यवेदयत् ॥ २४ ॥
मूलम्
अर्घ्यं ततः समानीय पाद्यं चैव महानृषिः।
आरण्येनैव विधिना राज्ञे सर्वं न्यवेदयत् ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तत्पश्चात् उन महर्षिने तपोवनमें प्रचलित शिष्टाचारकी विधिसे राजाको पाद्य और अर्घ्य आदि सब वस्तुएँ अर्पित कीं॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततस्ते मुनयः सर्वे परिवार्य नरर्षभम्।
उपाविशन् नरव्याघ्र सप्तर्षय इव ध्रुवम् ॥ २५ ॥
मूलम्
ततस्ते मुनयः सर्वे परिवार्य नरर्षभम्।
उपाविशन् नरव्याघ्र सप्तर्षय इव ध्रुवम् ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पुरुषसिंह! तब वे सभी मुनि नरश्रेष्ठ वीरद्युम्नको सब ओरसे घेरकर उनके पास बैठ गये, मानो सप्तर्षि ध्रुवको चारों ओरसे घेरकर शोभा पा रहे हों॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अपृच्छंश्चैव तं तत्र राजानमपराजितम्।
प्रयोजनमिदं सर्वमाश्रमस्य निवेशने ॥ २६ ॥
मूलम्
अपृच्छंश्चैव तं तत्र राजानमपराजितम्।
प्रयोजनमिदं सर्वमाश्रमस्य निवेशने ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन सबने वहाँ उन अपराजित नरेशसे उस आश्रमपर पधारनेका सारा प्रयोजन पूछा॥२६॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते शान्तिपर्वणि राजधर्मानुशासनपर्वणि ऋषभगीतासु सप्तविंशत्यधिकशततमोऽध्यायः ॥ १२७ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत शान्तिपर्वके अन्तर्गत राजधर्मानुशासनपर्वमें ऋषभगीताविषयक एक सौ सत्ताईसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१२७॥
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‘विहायसा गच्छन्त्या मन्दाकिन्या वैहायस्या अयं वैहायसः’ अर्थात् आकाशमार्गसे गमन करनेवाली मन्दाकिनी या आकाश गंगाका नाम वैहायसी है। वहींके जलसे भरा होनेके कारण वह कुण्ड वैहायस कहलाता है। बदरिकाश्रममें गंगाका नाम अलकनन्दा है। ↩︎